गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

अज्ञेय की कविता -नाच ( Hey hero! Do not be impatient !"- चतुरता और बुद्धिमत्ता (मनीषा) में से किसे अपनाया जाय ?

              अज्ञेय अपनी प्रसिद्द कविता 'नाच ' में कहते हैं - जिन्दगी क्या है ? ' दो खम्भों के बीच तनी हुई रस्सी पर जैसे नट का नाच है। ' और विडंबना यह है कि लोग न रस्सी देखते हैं, न खम्भे न तीखी रौशनी जो रस्सी पर पड़ रही है, न उन्हें नाचने वाले से ही कोई मतलब है। ' देखते हैं -नाच!' इन तीन अंतिम शब्दों में यह पूरी कविता पढी जा सकती है.  'लोग सिर्फ नाच देखते हैं'- यह अज्ञेय की कविता है. उन की अधिकाँश कवितायें अपनी आखिरी पंक्तियों में पूरी पढी जा सकती हैं। नाच (दृश्य) एक छोर पर है . देखना (द्रष्टा) दूसरे छोर पर. दोनों के बीच यह कविता तनी हुयी है। 
            , जो नाचना पड़ता है , उस से अलग है वह नाच , जो लोग देखते हैं. नाच देखना नृत्य देखने जैसा नहीं है. नृत्य देखने वाला देखते देखते खुद भी उस नृत्य में शामिल हो जाता है . नाच देखना तमाशा देखने जैसा है. एक मनोरंजन . एक दिलबहलाव. तमाशबीन का सरोकार महज सनसनी से होता है. जो कुछ वह देख रहा है , उस से उसका कोई भावनातमक बौद्धिक जुड़ाव नहीं, कोई बेचैनी नहीं , कोई व्यथा नहीं.

                ये सारे नाच अलग हैं, लेकिन कहीं एक जैसे भी हैं.कोई नचा रहा है . कोई रस्सी तनी हुयी है, नाचना पड़ता है. नाचनेवाला नाचना चाहता नहीं है.नाच से छुटकारा चाहता है , जितनी जल्दी मिल सके. लेकिन तनाव ढीलता नहीं . छुट्टी होती नहीं. नाच है.नाचना नहीं है. नाचना मन से होता है. यही नाचना जब कलात्मक हो जाए तो नृत्य हो जाता है. लेकिन यहाँ नाच है। चर्चित पकिस्तानी फिल्म ' खुदा के लिए' में एक संवाद है -'' इस्लाम में दाढी है , लेकिन दाढी में इस्लाम नहीं है.'' दाढी रखने की प्रथा इस्लाम में मिलती है, लेकिन यही इस्लाम नहीं है. 
               इसी नाच के विषय में , कबीर कहते हैं - " जैसैं मंदला तुमहि बजावा, तैसैं नाचत मैं दुख पावा॥- कबीर। थाकेउँ जनम-जनम के नाचत, अब मोहि नाच न भावै।- दूलनदास."अब हौं नाच्यौ बहुत गोपाल--सूरदास.
                     असल में यह कविता नाच के बारे में नहीं नाच देखने के बारे में है. अज्ञेय कहते थे की भोक्ता जब द्रष्टा बनने लगता है , तब दृष्टि पैदा होती है ! जीवन दृष्टि और कला दृष्टि. लेकिन क्या होता है जब वह दर्शक बनने लगता है, मूकदर्शक ? नाच देखने वाला समाज नचाये जाने वाला समाज बनता है. मैं नचाया भी जा रहा हूँ . मुझे मेरा ही नाच दिखाया भी जा रहा है. मैं खुद ही तमाशा हूँ , और खुद ही तमाशाई
                    लेकिन वह कोई और है, जो इस शो का असली संचालक है।  जिस ने खम्भे खड़े किये , जिस ने रस्सी तनवायी, जिस ने रौशनी का इंतज़ाम किया.वह नाच के बाहर है।  इस लिए उसे कोई नहीं देखता

मानसिक तनाव (mental stress) :
                       नवनीदा द्वारा लिखित एक पत्र के कुछ अंश :  Are XXX relatives really depriving them of their property and troubling him in various way? That is what he wrote .It is not so much necessary that he takes a lot of interest in the study circle or the library. If he does so willingly for his own good it is all right.
.......... Whatever XXX has been saying or doing , he says or does so,  under the spell of his psychic diseases. His lack of common sense or outbursts of anger is due to his mental disorder. It may not be outright madness , but he doesn't have psychic balance. It needs proper treatment, otherwise it will relapse occasionally. Kanke treatment will not be good. They don't treat properly. Nevertheless doctors there are only after money. Psychiatrists who privately practice will be better...... You or any particular person cannot be held responsible for XXX troubles . It is very wrong to suggest so. Nobody can lose his head under under influence of somebody else . There who suggest so, do not know anything about  psychic diseases. They should desist from doing so, if they really want XXX welfare . Nobody is competent of declare him mad or sane. Are they psychologists ? Try to help him by any Service-job and counseling treatment as far as you can. A Service-job  for him is very much necessary. The next depends on Thakur's Kripa .
" लेकिन अब जबकि तुम चुप हो गए हो, तब भी तुम्हारे अहंकार पर अमुक का आक्रमण क्यों बन्द नहीं होता है? ......... इसके कारण को समझते हो ? 'अमुक' को भी अपनी ही आत्मा समझकर, 'उसका' नहीं  'अपना' आत्मविश्लेषण करो। क्यों ? क्योंकि 'ठाकुर जी केवल जोड़ (+) जानते थे, घटाव (-) यानि 'exclusion' नहीं जानते थे। तब परम् सत्य दिखेगा। क्योंकि परम् सत्य बाहर नहीं, तुम्हारे हृदय में छिपा है। यात्रा बाहर की ओर नहीं भीतर की ओर है।  
      " यह witness रहने वाली बात, कहाँ से तुम्हारे सर में घुस गयी (प्रविष्ट हो गयी) ? ठाकुर जी को witness मानो और तुम उनकी कठपुतली की तरह काम करते रहो। आध्यात्मिक उन्नति होने के साथ साथ तो रस भी बढ़ता रहता है, नीरस क्यों हो जाओगे ?" 
                     ..... 'तुम' अर्थात 'नाम-रूप को मैं मानने वाला अहं' को विवेकज-ज्ञान नहीं हुआ था, आत्मा (परम् सत्य ही परम् सत्य को जान सकता है) इसलिए 'व्यष्टि अहं' - कभी साक्षी नहीं है, (माँ जगदम्बा का सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध या) 'समष्टि अहं' ही साक्षी है, जो 'व्यष्टि अहं के पुरुषार्थ की  'controller' हैं! ठाकुर जी को witness मानो और तुम उनकी कठपुतली की तरह काम करते रहो।" {अर्थात आत्मा, सच्चिदानन्द या existence-consciousness-bliss को ही witness मानो और अहं या reflected consciousness को उनकी कठपुतली समझकर काम करते रहो। }
                            आध्यात्मिक उन्नति होने के साथ साथ (भावमुख अवस्था- या अपने सच्चिदानन्द स्वरुप में प्रितिष्ठित रहना सीख जाने से) तो रस (आनन्द) भी बढ़ता रहता है, नीरस (निरानन्द) क्यों हो जाओगे ? तुमने स्वामी जी की वह बात अवश्य सुनी होगी- " हाँ जी हाँ जी करते रहिये बैठिये अपने ठाम॥”**"A little acting is necessary to protect ones own BHAVA"***
 इस मनीषा को हम कैसे प्राप्त करें ? विश्व की अनंत वस्तुओं में व्याप्त परमात्मा को हम कैसे पहचाने और हमारी आँखों को जो यह विराट प्रदर्शनी दिखाई देती है, उसे आत्मसात कैसे करें। पहले मोटे और सरल अक्षर‚ फिर बारीक और संयुक्ताक्षर सीखने चाहिए। जबतक हम संयुक्ताक्षर पढ़ना नहीं सीख लेंगे‚ तब तक पढ़ने में प्रगति नहीं हो सकती। संयुक्ताक्षर कदम-कदम पर आयेंगे। दुर्जनों में स्थित परमात्मा को देखना भी सीखना चाहिए। राम समझ में आता है‚ परंतु रावण भी समझ में आना चाहिए। प्रह्लाद यदि जंचता है, परंतु हिरण्यकशिपु भी जंचना चाहिए।
हर साधना का अपना एक अलग आयाम होता है , प्रविधि (technique) भिन्न-भिन्न  होती है , किन्तु लक्ष्य एक ही होता है - परमतत्त्व की उपलब्धि । यह जान लेना कि इस कठपुतली में भी क्रियावान कौन है -?
प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति विजानन्‌ विद्वान्‌ भवते नातिवादी।
आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥
।। मुण्डक उपनिषद , ३.१.४ ॥
{ अन्वय - यः हि प्राणः एषः सर्वभूतैः विभाति इति विजानम् विद्वान् भवते अतिवादी न भवते । एषः आत्मक्रीडः आत्मरतिः क्रियावान् ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥}
 यह प्राण ही है जो समस्त भूतपदार्थों के द्वारा अभिव्यक्त होकर उद्भासित होता है; विद्वान् व्यक्ति इसे पूर्णतया जानते हुए, मतमतान्तर एवं विवादों (अतिवाद) से बचता है, वह अतिवादी या 'extremist' नहीं बनता है।  'आत्मा' में उसकी रति होती है तथा 'आत्मा' में ही क्रीड़ारत रहकर कर्म करता रहता है,-ब्रह्मवेत्ताओं में वह सर्वश्रेष्ठः वरिष्ठ है।
अर्थात् :-वह प्राण ही (प्राणो ह्येष ) है जो सब प्राणियों के द्वारा प्रकाशित है (यः सर्वभूतैर्विभाति) । इसको विशेष रूप से जानने वाला (विजानन् ) विद्वान होता है (विद्वान भवते) , बढ़ चढ़ कर बातें करने वाला नहीं होता (नातिवादी) । वह क्रियावान (क्रियावान) अपने आत्मा से ही क्रीड़ा करता है ( आत्मक्रीड़) और अपने आत्मा में ही रमण करता है (आत्मरतिः), यह (एष) [क्रियावान] ब्रह्मवेत्ताओं (ब्रह्म विदां) में भी श्रेष्ठ है (वरिष्ठ:) ।
 वेद में कहा है–ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मैवेमे कितवाः।"  (यजुर्वेद 16/20)  उन डाकुओं के सरदारों को नमस्कारǃ उन क्रूरों को‚ उन हिंसकों को नमस्कारǃ ये ठग‚ ये दुष्ट‚ ये चोर‚ सब ब्रह्म ही हैं। इन सबको नमस्कारǃ’ इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ यह कि सरल अक्षर तो सीख गये‚ अब कठिन अक्षरों को भी सीखो। पहले स्थूल फिर सूक्ष्म, पहले सरल फिर मिश्र- इस प्रकार भगवान् को देखें, उसका साक्षात्कार करें, अहर्निश अभ्यास करके सारे विश्व को आत्मरूप देखना सीखें ! - गोपियों का जहां-जहां मन जाता था- पान में, पत्ते में, झाड़ियों में, फूलों में, लताओं में, तुलसी के पौधों में – सब जगह भगवान् कृष्ण को देखती थीं। जहाँ पर भी मन जाय वहीँ पर वही दिखते थे ।
             मयूर की ध्वनि ही षडज है- ‘षडजं रौति’। यह पहला “षडज’ हमें मोर से मिला। फिर घटा-बढ़ा कर दूसरे स्वर हमने बिठाए। मेघ के ओर गड़ी हुयी उसकी वह दृष्टि, उसकी गंभीर ध्वनि और मेघ की गड़गड़ गर्जना सुनते ही फैलानेवाली उसकी वह पुच्छ की छतरी! अहाहा! उसकी उस छतरी के सौन्दर्य के सामने मनुष्य की सारी शान चूर हो जाती है। राजा-महाराजा भी सजते है, मयूर-पुच्छ की छतरी के सामने वे क्या सजेंगे? कैसा वह भव्य दृश्य! वे हजारों आँखें, वे नाना रंग, अनंत छटाएं, वह अद्भुत सुन्दर, मृदु, रमणीय रचना, वह बेल-बूटा! ज़रा देखिये तो उस छतरी को और उसमें परमात्मा भी देखिये! यह सारी सृष्टि इसी तरह सजी हुयी है। सर्वत्र परमात्मा दर्शन देता हुआ खडा है, उसे न देखने वाले हम अभागे हैं। कवि वर्डस्वर्थ उसके पीछे पागल हो कर जंगल-जंगल उसकी खोज में भटकता है। इंग्लैण्ड का महान कवि कोयल को खोज़ता है, परन्तु भारत में तो सामान्य स्त्रियाँ कोयल न दिखाई दे, तो खाना भी नहीं खाती।
            कोयल सुन्दर, तो वह कौआ क्या असुंदर है? कौवे का भी गौरव करो। उसका वह घना काला रंग, वह तीव्र आवाज़ क्या बुरी है? महीन, वह भी मीठी है। वह पंख फड़फड़ाता हुआ आता है, तब कैसा सुन्दर लगता है! छोटे बच्चों का चित्त खिंच लेता है। उसी पर तो सारी “ईसप-नीति” रची गयी है। ईसप ( ६२० ईसा पूर्व – ५६४ ईसा पूर्व ) प्राचीन एथेंस के कहानीकार थे। उनकी कहनियों को एसोप की कहनिया या अंग्रेजी में ईसप फब्लेस (Aesop's Fables) के नाम से जाना जाता हैं।   ईसप की कथाएँ पंचतंत्र की कथाओं के समान मनोरंजन के साथ नीति और व्यवहारकुशलता की शिक्षा देती हैं। इनकी कथाओं के पात्र मनुष्य की अपेक्षा पशु पक्षी अधिक हैं। इस प्रकार की कथाओं को "बीस्ट फ़ेबुल्स" कहा जाता है। ईसप को सर्वत्र ईश्वर ही दिखाई देता था।  चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है
            रामायण भी इसी तत्व पर, इसी दृष्टि पर खडी की गयी है। राम की बाललीला (बाल अभिनय) - राम आँगन में खेल रहे हैं- एक कौआ पास आता है – राम उसे धीरे से पकड़ना चाहते हैं – कौआ पीछे फुदक जाता है – अंत में राम थक जाते हैं’ उनको एक युक्ति सूझती है- मिठाई का एक टुकड़ा ले कर आगे बढाते हैं- कौआ कुछ नज़दीक आता है- प्रभु राम ईश्वर का दर्शन करते हैं। राम और कौए की यह पहचान मानो परमात्मा से परमात्मा की पहचान हो
            हम अपने सगे-सम्बन्धियों को अपेक्षाकृत अधिक  महत्त्व क्यों देते हैं? ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना- कैवल्य की भावना है, जो सहज रूप मे चरितार्थ नही हो सकती।  सगे सम्बन्धियों में कुछ तो देवतास्वरूप उनमें एकाध-तो दुर्जन जैसे हो सकते हैं। उदाहरणार्थ कोई (औरंगज़ेब) हमारा (हिन्दुजाति का) अहित करे या करने की सोचे तो हमारे मन में भी यह बात आना स्वाभाविक है की हम भी उसका अहित करें। 
        किन्तु, - बस यहीं पर हमको उसके अन्दर मौजूद परमेश्वर को देखते हुए, सोचना है- मुझे साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए, ही औरंगजेब कश्मीरी पण्डितों का जब धर्मान्तरण कर रहा था। उस समय भारत का कोई राजा चाणक्य की तरह राष्ट्रभक्त नहीं था , इसीलिए गुरु गोबिन्द सिंह को जन्म लेना पड़ा। 
 बंदउं संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।- ‘दुर्जन में भी परमात्मा के दर्शन’ राम समझ में आता है, रावण भी ब्रह्म का ही एक रूप है, यह समझ में आना चाहिए। यहाँ शुद्ध परमात्मा नहीं है- मिश्रण है; तो इस मिश्रण को भी पचा लेना चाहिए। इसीलिये तुलसीदास ने रावण को राम का ‘विरोधी-भक्त’ कहा है। अयोध्या से निकले राम ऐसा संकल्प जगा देते हैं कि नर, वानर और प्रकृति सभी को अपने साथ जोड़ लेते है। हमें समाज और जीवन में व्याप्त रावण-वृत्ति को खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए, न कि रावण-रूपी मानव की
            मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम का क्रोध-अभिनय : भगवान विष्णु के सातवें अवतार श्री राम को शांतचित्त, गंभीर, सहिष्णु और धैर्यवान माना जाता है। वाल्मीकि रामायण हो या राम चरित मानस, दोनों में मर्यादापुरुषोत्तम की महानता के विशद वर्णन के साथ उनके कुछ ऐसे प्रकरणों का भी उल्लेख है जबकि श्री राम क्रोधावेश में निमग्न हो जाते हैं।इसे जानना रुचिकर होगा कि आखिर क्यों और कब मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम क्रोध में आवेशित होते हैं? यदि मर्यादा पुरुषोत्तम ऐसा करते हैं तो इसके पीछे जरूर कोई महान कारण होगा। आइए जानते हैं उन विशेष प्रकरणों को जब भगवान श्री राम को भी अपना क्रोध प्रकट करने का अभिनय करना पड़ा:
1.  सीता जी के स्वयंवर के लिए राजा जनक की प्रतीज्ञा थी कि “जो कोई भी उनके दरबार में मौजूद भगवान शिव के धनुष को उठा कर उस पर तीर चढ़ाएगा, उसी से सीता जी का विवाह होगा।“ श्री राम जब धनुष उठाकर उस पर तीर चढ़ाने की कोशिश करते हैं तो धनुष टूट जाता है। शिव भक्त परशुराम इससे बेहद क्रोध में आ जाते हैं तथा लक्ष्मण को चेतावनी देते हैं। तब मर्यादा पुरुषोत्तम भी क्रोधावेश में आकर अपने धनुष पर दिव्यास्त्र चढ़ाते हैं। ऐसे में परशुराम जी को श्री राम की वास्तविकता का भान होता है तथा वे स्वयं उन्हें शांत हो जाने के लिए मनाने लगते हैं।
2.  सीता जी को लंका से वापस लाने के लिए युद्ध करना आवश्यक था। रावण को लंका गए बिना पराजित कैसे किया जा सकता था। श्री राम ने इसके लिए समुद्र से अपनी लहरों को शांत कर देने का अनुरोध किया ताकि उस पर सेतु का निर्माण किया जा सके। जब तीन दिन तक की निरंतर प्रार्थना के बाद भी समुद्र शांत नहीं हुआ तब श्री राम ने ब्रह्मास्त्र के द्वारा उसे सुखा देने का निश्चय किया। उनके ऐसा निश्चय करते ही समुद्र देवता थर-थर कांपने लगते हैं तथा प्रभु श्री राम से शांत होने की प्रार्थना करते हैं। 
3. बालि वध कर श्री राम ने सुग्रीव को किष्किंधा का राज्य दिला दिया। इसके एवज में सुग्रीव ने सीता जी के खोज अभियान में सहायता करने का वचन दिया। किंतु बहुत दिनों से भोग-विलास से च्युत सुग्रीव अचानक राज-पाट पाकर अपना वचन भूल बैठे। क्रोधित श्रीराम ने भ्राता लक्ष्मण को अपना दूत बना कर सुग्रीव के पास भेजा ताकि उन्हें उनके वचन की याद दिलाई जा सके। लक्ष्मण सुग्रीव के पास पहुंचते हैं और उन्हें भोग विलास में लिप्त देखकर क्रोधित हो जाते हैं। तत्पश्चात सुग्रीव अपने श्रेष्ठतम सेनानायक हनुमान को श्री राम की सहायता के लिए नियुक्त करते हैं। 
4. वनवास काल में चित्रकूट प्रवास के दौरान इंद्र का पुत्र काकासुर (कौआ असुर ? ) सीता जी की गरिमा व मर्यादा से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है। इस पर भगवान श्री राम ने क्रोधित होते हुए तृण को ही ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग करने का निश्चय किया। काकासुर तीनों लोकों में अपनी रक्षा की गुहार लगाता है किंतु उसकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आता। ऐसे में वह प्रभु श्रीराम के चरणों में लोट जाता है।ब्रह्मास्त्र को निष्फल नहीं होने दिया जा सकता है। श्रीराम ने उसके प्राण तो बख्श दिए किंतु ब्रह्मास्त्र से उसकी दाईं आंख पर प्रहार किया। इसीलिए मान्यतानुसार आज भी कौवे की दाईं आंख में दोष पाया जाता है। 
            प्रभु श्री राम जब भी क्रोधित हुए उसके पीछे कोई न कोई बहुत बड़ा कारण अवश्य रहा। मर्यादापुरुषोत्तम ने धर्म और कर्तव्य पालन के दौरान बाधा आने पर ही क्रोध प्रकट करने का अभिनय किया। इसका आशय यही है कि धर्म स्थापना व कर्तव्य पालन में आने वाली बाधा सर्वथा अस्वीकार्य है।
            ऐसी प्रज्ञा साधक के मस्तिष्क में जागृत होने लगेगी। माँ सब बच्चोंको प्यार से दुलारती है, रखती है, उदारता से दूध पिलाती है‒ऐसे ही हम सब परमात्मा के बच्चे हैं । अतः उस परमात्मारूपी माँ का मस्ती से, आनन्दसे दूध पीये । 
                ‘दुग्धं गीतामृतं महत्’ । यह बड़ा विलक्षण दूध है; जितना हम पीयेंगे, उतनी ही हमारी पुष्टि होती चली जायगी । जब गीतारूपी दूध पीने में रस आने लगेगा, तो निहाल हो जायँगे । अंत में यह अनुभव करेंगे कि परमेश्वर से खाली एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में, चींटी से लेकर ब्रह्माण्ड तक सर्वत्र परमात्मा ही व्याप्त है। सबकी एक-सी चिंता करने वाला कृपालु, ज्ञानमूर्ति, वत्सल, समर्थ, पावन और सुंदर ठाकुरजी (परमात्मा) हमारे चारों ओर सर्वत्र विराजमान हैं। गीता अध्याय 10 (03)
                      "ओमिति ब्रह्म। ओमितीदं सर्वम्‌। ओमिति ब्राह्मणः।" - तैत्तिरीयोपनिषद् 'शीक्षा वल्ली' -अष्टमोऽनुवाकः, Verse- १/ 'ओम्' ही ब्रह्म है, 'ओम्' ही यह समस्त विश्व है। इदं सर्वं ॐ इति एतत् ह स्म वै अपि अनुकृतिः ओ ओं श्रावय इति आश्रावयन्ति,.....  'ओम्' ही अनुमोदन सूचक अक्षर है 'ओम्' कहकर ही वे कहते हैं, अब हम सुनें तथा वे 'ओम्' कहकर ही प्रवचन का आरम्भ करते हैं।  ज्ञान की व्याख्या करने के पूर्व ब्राह्मण 'ओम्' का उच्चार करके कहता है- ''मैं ब्रह्म को प्राप्त करूँ।'' वास्तव में वह 'ब्रह्म' को प्राप्त कर लेता है। इसलिये ज्ञानी के द्वारा जड़ (औरंगजेब) की उपेक्षा करना सम्भव नहीं होता। ठाकुर जी और स्वामी जी ने अपने जीवन में कभी किसी नाम-रूप वाले औरंगजेब तक की भी उपेक्षा नहीं की है।
       क्योंकि उनको यह हमेशा याद रहता था कि ब्रह्म ही विभिन्न नाम-रूप वाले मनुष्यों  के रूपों में इसी पृथ्वी ग्रह पर जन्म लिए हैं, इसलिए सभी मनुष्य जड़त्व को त्यागकर प्रकाश स्वरुप बन सकते हैं। और इस प्रकार 'बिल्ली रस्ता काट गयी' को देखने के बाद भी 'शेरावाली माता के बच्चे' के लिये निर्भय रहना सम्भव हो जाता है
[**देववाणी : 2 अगस्त, शुक्रवार: {एक आदर्श - ठाकुर, माँ स्वामी जी के प्रति समर्पण 'बोध' (realisation-या धर्म) अर्थात  'संयुक्ताक्षर पढ़ने में सिद्धि' की शुरुआत है। }

Nishthâ (devotion to one ideal) is the beginning of realisation. 
निष्ठा बोध का प्रारम्भ है।  "  मेरे गुरुदेव  बहुधा एक दृष्टान्त दिया करते थे कि 'जब कमल खिलता है तो मधुमक्खियाँ स्वयं ही उसके पास मधु लेने के लिए आ जाती हैं – इसी प्रकार जब तुम्हारा चरित्ररूपी पंकज पूर्ण रूप से खिल जायगा और जब तुम आत्मज्ञान प्राप्त कर लोगे, तब देखोगे कि फल तुम्हें अपने आप ही प्राप्त हो जायेंगे, और शत शत मनुष्य तुमसे शिक्षा ग्रहण करने आप ही आप आ जायेंगे। हम सब लोगों के लिए यह बहुत बड़ी शिक्षा है। मेरे गुरुदेव ने यह शिक्षा मुझे सैंकड़ों बार दी , परन्तु फिर भी मैं इसे प्रायः भूल जाता हूँ !"

"अपने आदर्श के प्रति निष्ठा सिद्धि का प्रारम्भ है !"     
              "Take the honey out of all flowers; sit and be friendly with all, pay reverence to all, say to all, 'Yes, brother, yes, brother', but keep firm in your own way."
        " { प्रत्येक मनुष्य को माँ -ठकुर जी का रूप समझकर) सभी फूलों पर बैठो, अर्थात सभी के साथ मित्रवत रहो , सभी को अपनी श्रद्धा अर्पित करो, और उनसे  शहद ले लो; (Take the honey out of all flowers) सभी से कहो, 'हाँ जी,  हाँ जी ' लेकिन दृष्टि को ज्ञानमयी बना कर जड़ (reflected consciousness) में भी चेतन (existence-consciousness -bliss) को ही देखो ! और 'तुम' नहीं, ठाकुर जी ही साक्षी (witness consciousness) हैं और 'तुम' ठाकुर जी की कठपुतली मात्र हो, इस विवेकज-ज्ञान जन्य विश्वास में दृढ़ रहो ! }
             चतुरता और बुद्धिमत्ता (मनीषा) में से किसे अपनाया जाय ?  इस संदर्भ में मनुष्य भारी भूल करता देखा जाता है। यही है वह विभाजन रेखा जो मनुष्य को सामान्य व असामान्य (पशु श्रेणी) में बाँटती है। मधुमक्खियाँ मकरंद संग्रह करने के लिए कोसों दूर तक चक्कर लगाती हैं। चींटियाँ, मधुमक्खियाँ और तितलियाँ भी जीवनयापन की प्रकृति प्रदत्त सुविधाओं के सहारे ही जीवन बिता लेते हैं। हिरणों के झुण्ड और कबूतरों के टोली भी बिना अनीति अपनाये अपनी सामान्य बुद्धि के सहारे गुजारा कर लेती हैं। पक्षी पेड़ों पर बिना एक दूसरे को क्षति पहुँचाये, चहकते-फुदकते दिन बिताते हैं। स्वामी जी कहते हैं - " जो मनुष्य दूसरों के लिये जीता है, वही जीवित है, जो दूसरों के जीता है, शेष तो मृत से भी अधम हैं।"  मानवी बुद्धिमत्ता का सदुपयोग वही है जोबन पड़े तो वह अपने लिए तो नहीं, दूसरों के लिए प्रगति और समृद्धि के उपादानों में सहायता कर ही सकता है। जिस प्रकार फूल के रंग या गंध को बिना हानि पहुंचाए भौंरा रस को लेकर चल देता है, उसकी प्रकार मुनि ग्राम में विचरण करे। ~ इल्लीस जातक
                 पर लगता है कि बुद्धिमत्ता (मनीषा) अपनाने वाले लोग कम हैं। सबको चतुरता सुहाती है। यह संसार चतुर प्राणियों से भरा पड़ा है। घात लगाकर दूसरों को उदरस्थ कर जाने वाले जीव जन्तुओं का बाहुल्य है। अपनी स्वार्थ सिद्धि की कला में प्रवीण लोगों का ही यहाँ बहुमत है। चतुरता की परिभाषा है-”दूसरों के उचित अधिकारों का अपहरण करते हुए अपनी वितृष्णाओं की पूर्ति करना।” इसके लिए उन्हें दूसरों को जो क्षति पहुँचानी पड़ती है, और उस कुकृत्य को करने में ही वे अभ्यस्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों को ही चतुर कहते हैं। उनमें से अधिक प्रवीणों को  (लालू टाइप को) जेलखानों में कैद और प्रतिशोधों की प्रताड़ना सहते कहीं भी देखा जा सकता है
              अतः - " सभी के साथ आनन्द करो, सभी के साथ रहो, सभी का नाम लो, दूसरों की बातों में हाँ- हाँ करते रहो, किन्तु अपना भाव कभी मत छोड़ो । " 
               इसकी अपेक्षा उच्चतर अवस्था है - दूसरे की स्थिति को अपनाना। यदि मैं ही सब कुछ बना हूँ, तो अपने भाई के साथ यथार्थ अभिनय के भाव (लीला-भाव) से एवं सक्रीय रूप में (really and actively sympathise) सहानुभूति क्यों नहीं कर सकता, और उनकी ही आँखों से मैं क्यों नहीं देख सकता ?
            " While I am weak, I must stick to one course ठाकुर जी में निष्ठा)" जब तक मैं दुर्बल हूँ (अर्थात संयुक्ताक्षर पढ़ना नहीं सीखा हूँ), तब तक मुझको निष्ठापूर्वक एक मार्ग- (ठाकुर जी ही सबकुछ बने हैं, और मैं उनकी कठपुतली हूँ!) को पकड़े रहना होगा; किन्तु जब मैं सबल हो जाऊँगा , तब मैं अन्य सभी लोगों के भावों को (मोरों और कौओं की भावमुख अवस्था का) अनुभव कर सकूँगा। उन भावों के साथ सम्पूर्ण सहानुभूति रख सकूँगा। [when I am strong, I can feel with every other and perfectly sympathise with his ideas.] 
            प्राचीन भाव था (The old idea was) :' अन्य सभी भावों को नष्ट करके एक भाव को प्रबल बनाओ। ' ["Develop one idea at the expense of all the rest"अल्ला परवर दिगार है, बुद्ध तो बन्दा है, इसलिये उसकी समस्त मूर्तियों को तोड़ डालो-.The modern way is "harmonious development".] आधुनिक भाव कहता है -' सभी धर्मों में अहंशून्यता का ही उपदेश है, अतः सामंजस्य रखकर (सर्वधर्म समन्वय-अविरोध में ) उन्नति करो। '
                एक तृतीय मार्ग है - 'मन का विकास करो और उसका संयम करो। ' "develop the mind and control it" उसके बाद जहाँ इच्छा हो वहाँ उसका प्रयोग करो--उससे अति शीघ्र फल-प्राप्ति होगी। 'This is developing yourself in the truest way' - तुम्हारे मन को तुम नहीं ठाकुर जी ही साक्षी बनकर देख रहे हैं, आत्मविश्लेषण करके विवेक-प्रयोग करने का यही वास्तविक उपाय (truest way) है। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो , और जिस ओर इच्छा हो (श्रेय-प्रेय की ओर) उसका प्रयोग करो। (Learn concentration and use it in any direction.) ऐसा करने से तुम्हें अपनी भावमुख अवस्था को खोना नहीं पड़ेगा। (Thus you lose nothing.) जो पूर्णत्व (तुरीय अवस्था) को प्राप्त करता है, वह अंश (जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति) को भी प्राप्त कर सकता है। (He who gets the whole must have the parts too. जैसे सोने की गिन्नी को रुपया -पैसा में भी बदला जा सकता है।) वेदान्ती अद्वैतवाद या एकेश्वर वाद (monism) में द्वैतवाद ( Dualism) भी अन्तर्विष्ट (included-शामिल) है।  
          मनःसंयोग करते समय..."I first saw 'Him' and 'He' (सर्वव्यापी विराट अहं) saw me.' 
 पहले 'मैंने' (व्यष्टि अहं ने, ससीम ने) उसे (ठाकुर जी को-मूर्तमान असीम अनन्त को) देखा, उसने भी मुझे देखा, मैंने भी उसके प्रति नजरों का ईशारा किया , उसने भी मेरे प्रति कटाक्ष किया ' --ऐसा चलता रहा और अन्त में दोनों आत्मायें ऐसे घनिष्ठ रूप से मिल गयीं कि वे एक हो गयीं।
                   समाधि के दो प्रकार हैं - एक है सविकल्प -इसमें कुछ द्वैत का भास रहता है। और दूसरा निर्विकल्प -इसमें ध्यान के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय का अभेद हो जाता है। There are two kinds of Samadhi — I (ससीम मैं) concentrate on myself (अनन्त असीम ठाकुर जी), then I (सर्वव्यापी विराट 'मैं' बोध) concentrate and there is a unity of subject and object.

              प्रत्येक व्यक्ति विशेष के साथ सहानुभूति कर सकने की क्षमता तुममें होनी चाहिए, उसके बाद कूदकर उच्चतम अद्वैत भाव में चले जाना होगा। [You must be able to sympathise fully with each particular, then at once to jump back to the highest monism. इतना आसान भी नहीं है , इसलिए]
पहले स्वयं सम्पूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो , उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। After having perfected yourself, you limit yourself voluntarily.(तुरीय अवस्था-सोने की गिन्नी को इच्छानुसार रुपए -पैसे के नाम-रूप में भी देख सकते हो),
प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो। कुछ समय के लिए अद्वैत भाव को भूलकर द्वैतवादी होने की शक्ति प्राप्त कर लो, परन्तु अपनी इच्छानुसार फिर से इस अद्वैत भाव का लाभ करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लो।  Take the whole power into each action. Be able to become a dualist for the time being and forget Advaita, yet be able to take it up again at will.
 ..... तुम्हारी अपनी इच्छा-शक्ति ही तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर दे देती है -किन्तु विभिन्न व्यक्तियों के मन की धर्म सम्बन्धी विभिन्न धारणाओं के अनुसार वह विभिन्न आकार में अभिव्यक्त होती है।  हम उसे बुद्ध, ईसा ,कृष्ण , जिहोवा, अल्ला अथवा अग्निदेव -चाहे किसी नाम से पुकार सकते हैं, किन्तु वास्तव वह है हमारी ही आत्मा। " ७/१०३-१०४
[Your own will is all that answers prayer, only it appears under the guise of different religious conceptions to each mind. We may call it Buddha, Jesus, Krishna, Jehovah, Allah, Agni, but it is only the Self, the "I". . . .]
 रामायण के पात्र निषादराज गुह्य की चतुराई
{आत्मविश्वास : जब आप जिंदगी के किसी मोड़ पर लगातार असफल हो रहे हो तो आपके पास दो रास्ते हैं-पहला रास्ता यह है, कि आप यहीं रुक जाओ और आने वाली पीढ़ी को यहाँ रुकने के बहाने गिनाओ! दूसरा यह है, कि आप लगातार प्रयास करते रहो और इतने आगे बढ़ जाओ और खुद किसी का प्रेरणास्रोत बन जाओ। } 
गुह्यराज निषाद :  निषाद नेता [राजर्षि गुह्यराज निषाद] ने प्रभु श्रीराम को गंगा पार कराया। वह श्रृंगवेरपुर के राजा थे। वनबास के बाद श्रीराम ने अपनी पहली रात अपने मित्र गुह्यराज निषाद के यहां बिताई। निषादराज का राजमहल आज भी श्रृंगवेरपुर में मौजूद है। प्रयागराज (इलाहबाद)  से 40 किमी की दूरी पर है गंगा किनारे बसा श्रृंगवेरपुर धाम, जो ऋषि-मुनियों की तपोभूमि माना जाता है। यहीं पास में है वो जगह जो राम सीता के वनवास का पहला पड़ाव भी मानी जाती है। इसका नाम है रामचौरा घाट। रामचौरा घाट पर राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर वनवासी का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में ये जगह निषादराज की राजधानी हुआ करता था। निषादराज मछुआरों और नाविकों के राजा थे। यहीं भगवान राम ने निषाद से गंगा पार कराने की मांग की थी। श्रृंगवेरपुर के श्रृंगी ऋषि त्रेता युग में एक बहुत बड़े तपस्वी थे। ऋषि श्रृंगी ने ही राजा दशरथ को पुत्रकामेष्ठी यज्ञ कराया था उसके कुछ वक्त बाद राजा दशरथ के यहां विष्णु के अवतार में प्रभु श्री राम का जन्म हुआ। राजा दशरथ ने अपनी इकलौती पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी ऋषि से करने का निर्णय ले लिया और तब श्रृंगी बन गए दशरथ के दामाद। माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर धाम के मंदिर में श्रृंगी ऋषि और देवी शांता निवास करते हैं। हनुमान, बाली, सुग्रीव कोल- भील नल निल सब के सब प्रतापी आदिवासी निषाद महाराजा थे, और आज भी मध्यप्रदेश में उनके किले मौजूद है । उत्तर प्रदेश का राजकीय चिन्ह तीर धनुष मछली ये लखनऊ के राजा महाराजा लखनचन्द निषाद के पुत्र महाराजा नल निषाद का राजकीय चिन्ह है। भारत की पहली राजधानी कोल वंश यानी निषाद वंश के नाम से कोलकाता थी। रानी रासमणि का कोली मन्दिर आज भी दक्षिणेश्वर (कलकत्ता) में काली माता के नाम से मशहूर है।  बिहार के दशरथ मांझी को पूरी दुनिया माउंटेन मैन के नाम से जानती है जिन्होंने पहाड़ तोड़ कर रास्ता बनाया था। 
निषाद की भरत जी पर शंका: क्या कारण है जो भरत वन को जा रहे हैं ? मन में कुछ कपट भाव अवश्य है। यदि मन में कुटिलता न होती, तो साथ में सेना क्यों ले चले हैं॥2॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी।
जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें।
दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3॥
मैं स्वामी के काम के लिए रण में लड़ाई करूँगा और चौदहों लोकों को अपने यश से उज्ज्वल कर दूँगा। या  श्री रघुनाथजी के निमित्त प्राण त्याग दूँगा। मेरे तो दोनों ही हाथों में आनंद के लड्डू हैं (अर्थात जीत गया तो राम सेवक का यश प्राप्त करूँगा और मारा गया तो श्री रामजी की नित्य सेवा प्राप्त करूँगा)॥3॥
निषाद नेता गुह्य ने अपने सभी लोगों को भरत और उसकी सेना को चुनौती देने के लिए ऐड्मानिश अर्थात नम्रता पूर्वक झिड़कते हुए -  तैयार होने के लिए कहा। 
भाइहु लावहु धोख जनि
आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट
 बीर अधीर न होहि॥191॥
(उसने कहा-) हे भाइयों! धोखा न लाना (अर्थात मरने से न घबड़ाना), आज मेरा बड़ा भारी काम है, भरत और उनकी सेना को चुनौती देना है। यह सुनकर सब योद्धा बड़े जोश के साथ बोल उठे- हे वीर! अधीर मत हो॥191॥ > ‎श्रीरामचरितमानस‎ > ‎अयोध्या कांड।} 
 Guhaya, the Nishad leader, called all his people to get ready to challenge Bharat and his army. Nishada Raja admonished them to remain committed and not show any kind of weakness later, to which all angrily replied that he needed not worry too much.Hey hero! Do not be impatient !
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