शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

" स्वामी जी का आदर्श - 'त्याग और सेवा' के माध्यम से शक्ति का उद्घाटन "' { स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-8 }

' त्याग और सेवा' का युगानुकूल नामकरण है- 'Be and Make !'   
         [अध्याय-१ : स्वामी विवेकानन्द -व्यक्ति और मन ]        
         स्वामी विवेकानन्द का महान व्यक्तित्व-सम्पन्न जीवन तथा उनके संदेश के विशाल भण्डार को देखने से मन में स्वतः यह प्रश्न उठता है, कि आखिर स्वामीजी हमलोगों के समक्ष किस आदर्श को प्रस्तुत किया है ? महापुरुषों के मन, वाणी एवं कर्मों में एकरूपता होती है। अतएव विवेकानन्द के आदर्श  को समझने के लिये हमें उनके 'संदेशों तथा कर्ममय जीवन' -दोनों को समान रूप से विश्लेषण करके समझने की चेष्टा करनी होगी। 
      स्वामी जी की ऋषि दृष्टि ने मनुष्य जीवन के समस्त पक्षों का समग्र रूप से अवलोकन किया था। यथार्थ 'विवेकज ज्ञान ' के द्वारा मानव जीवन की समग्रता का अनुसन्धान करने के फलस्वरूप उनकी दृष्टि के समक्ष मनुष्य जीवन की जो पूर्णता (दिव्यता) अनावृत्त हो उठी थी, सार्वजनिक कल्याण के लिए अपने सन्देशों के माध्यम से उन्होंने उसीका वितरण किया था। उन्होंने अपने जीवन से भी यही दिखाने का प्रयत्न किया है कि एक मनुष्य किस प्रकार ('त्याग और सेवा' के माध्यम से) उस पूर्णत्व की अभिव्यक्ति को सम्भव बना सकता है। इसीलिए उनके दिव्य संदेशों के समान उनका जीवन भी हमलोगों के लिए आदर्श (अनुकरणीय) है। 
              मानव जीवन  के लिये जो एक मात्र सर्वश्रेष्ठ आदर्श होना उचित है, उसकी उपेक्षा, अनादर या उसकी प्रयोगात्मक क्षमता पर शंका किये बिना, तथा किसी बिल्कुल नये आदर्श का उद्घाटन तथा प्रस्तुति-करण के मोह में पड़े बिना- स्वामी जी ने पूरी निर्भयता के साथ और निःसंकोच होकर, उसी सर्वश्रेष्ठ आदर्श का प्रचार किया है। उनका मानना था कि -" सच्चा आदर्श समाज के सामने अपना सिर नहीं झुकायेगा, समाज को ही उस आदर्श के सम्मुख अपना सिर झुकाना होगा । " और उस सच्चे आदर्श को ढूँढ़कर जो समाज जितनी जल्दी वैसा करने लगेगा (अर्थात सिर झुका कर उस श्रेष्ठतम आदर्श का अनुसरण करने लगेगा ), उस समाज का उतना ही कल्याण होगा। स्वामी जी की यह धारणा थी कि - " जिस समाज में श्रेष्ठ आदर्श को कार्यरूप देना (जीवन में रूपायित करना) सम्भव है, वही सर्वश्रेष्ठ समाज है। "  इस श्रेष्ठतम आदर्श को यदि बहुत संक्षेप में तथा उन्हीं के शब्दों में व्यक्त किया जाय तो, वह है - 'হও এবং কর' अर्थात 'बनो और बनाओ ' - तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो - 'Be and Make!' यह 'बनना और बनाना ' आपस में अभिन्न और अविभक्त  (inseparable' जो अलग न हो सके) हैं  ! स्वामी जी कहते हैं - "मेरे आदर्श को सचमुच चन्द शब्दों में ही अभिव्यक्त किया जा सकता है,  वह है- मनुष्य में अन्तर्निहित उसके दिव्य स्वरुप का प्रचार करना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे कैसे व्यक्त किया जाता है -उसका मार्ग बता देना। "  
              स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त इस जुड़वां आदर्श (The twin ideal) - 'बनो और बनाओ ' पर मनन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी केवल एक तात्विक आदर्श को उद्घाटित करके ही रुक नहीं जाते, बल्कि उस ज्ञान (विवेकज ज्ञान या इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान) का उपयोग मनुष्य अपने व्यावहारिक जीवन में कैसे कर सकता है, उस प्रश्न के ऊपर भी साथ -साथ विचार करते हैं। क्योंकि, किसी आदर्श को  यदि व्यावहारिक जीवन में अपनाना सम्भव न हो तो उसे 'सच्चा आदर्श ' नहीं कहा जा सकता है।  स्वामीजी ने जिस आदर्श को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है, वह जीवन के किसी क्षेत्र-विशेष का आदर्श नहीं है बल्कि समग्र जीवन का आदर्श है। वैयक्तिक जीवन, सामाजिक-जीवन, राष्ट्रीय जीवन, एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में अर्थात वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में यह आदर्श व्यवहारोपयोगी है। अक्सर लोग (व्यष्टि और समष्टि के) पारस्परिक सम्बन्ध को अनदेखा कर धर्म, राजनीति, आर्थिक नीति, अपक्षपात पूर्ण शेयर वितरण (equity-सामान हिस्सा), आदि  विभिन्न क्षेत्रों के लिये अलग-अलग आदर्श की चर्चा करते हैं। परन्तु, जब जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के आदर्श किसी एक महत्तर मूल आदर्श (मानदण्ड) के अनुरूप नहीं होते तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अन्तर्विरोध दिखाई देने लगता है। अतएव व्यष्टि मनुष्य जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समष्टि मानव समाज के साथ वभिन्न रूपों में संयुक्त रहता है, उसका जीवन आदर्शों में समन्वय के अभाव में संकटों से घिर जाता है।
              इसलिए व्यक्ति हो या समाज उसकी निर्विघ्न उन्नति के लिए एक मौलिक आदर्श का रहना आवश्यक हो जाता है। यदि वह मौलिक आदर्श किसी किसी ऐसे सत्य पर प्रतिष्ठित हो, जो जीवन का केन्द्र बिन्दु है तभी वह आदर्श मानव जीवन का सर्वांगीण कल्याण करने में सक्षम होता है। स्वामी जी उसी प्रकार के एक सत्य या तत्व (अविनाशी इन्द्रियातीत सत्य-ब्रह्म)  की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं तथा उसी मौलिक आदर्श को समस्त क्षेत्र-विशेष के आदर्शों का नियंत्रक रूप में ग्रहण करने का निर्देश देते हैं। और वह तत्व है - " अनन्त ज्ञान, और अनन्त शक्ति (प्रेम) " (existence-consciousness-bliss, सच्चिदानन्द) -जो जाति, धर्म, वर्ण, लिंग आदि भेद के दृष्टिगोचर सत्य होने के बावजूद प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित है ! जब तक हमें स्वयं इस अन्तर्निहित मौलिक पूर्णता या दिव्यता में- 'अनुभूति जन्य विश्वास' नहीं होता, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि हमने किसी सच्चे आदर्श का अनुसन्धान कर लिया है। तब तक भले ही हम कितने भी क्षेत्र-विशेष के आदर्शों का अनुसन्धान और अनुसरण करते रहें, किसी विशेष क्षेत्र में अस्थायी रूप से थोड़ी बहुत सफलता मिलने से भी, उसके द्वारा मानव जाति को उसकी पूर्णता या स्व-महिमा (आत्मश्रद्धा) में कभी प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता। 
            अतः हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए- अपनी प्रत्येक अभिव्यक्ति में, प्रत्येक कर्म में , प्रत्येक दृष्टिकोण (approach) में, प्रत्येक प्रतिक्रिया में जीवन के उसी मूल तत्व, अविनाशी या अपरिवर्तन-शील सत्य को प्रक्षेपित करना। इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि यह तत्व 'अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति' मनुष्य की शाश्वत सत्ता [इन्द्रियातीत सत्य ] के ऊपर प्रतिष्ठित है तथा यह देश -काल के भेद से परिवर्तित हो जाने वाली वस्तु नहीं है। मनुष्य की मूल सत्ता जैसी पहले थी [अर्थात सतयुग,द्वापर या त्रेता युग में जैसी थी] वैसी ही आज (कलियुग में) भी है। पूर्वी गोलार्ध और पश्चिमी गोलार्ध के मनुष्यों में (नाम-रूप को छोड़ कर) मूलतः कोई अन्तर नहीं है। अतः यह प्रश्न उठाना कि स्वामी जी कथित यह आदर्श आज के युग में उपयोगी है या नहीं बिल्कुल असंगत है। इस प्रकार के आदर्श के साथ संयुक्त विभिन्न क्षेत्रों के छोटे-छोटे आदर्श अनन्त न होने से भी दीर्घकाल तक प्रभावी रह सकते हैं। क्योंकि देश तथा युग की आवश्यकता के अनुरूप साधारण परिवर्तन सापेक्ष आदर्श रहने से भी, हमें यह ध्यान रखना पड़ेगा कि उसका मुख्य लक्ष्य मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णत्व (अनन्त ज्ञान और शक्ति) को अभिव्यक्त करने में सहायता करना ही रहे। ऐसा होने पर ही विभिन्न क्षेत्रों के सभी आदर्शों में यथार्थ सामंजस्य बना रहेगा एवं पारस्परिक परिपूरक के रूप में कार्य करते हुए प्रत्येक क्षेत्र के आदर्श जीवन (शिविर-जीवन) को समग्रता की ओर ले जायेंगे। तथा, स्वविरोध का भाव नहीं रहने से क्षेत-विशेष के आदर्श भी विफल नहीं होंगे।       
[इस प्रकार के केन्द्रीय-सत्य में प्रतिष्ठित एक आदर्श (निःस्वार्थपरता) के साथ, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के छोटे छोटे आदर्श भी संयुक्त हो जाने के बाद, भले ही शाश्वत न हों, किन्तु दीर्घ काल तक अवश्य प्रभावी बने रहेंगे। क्योंकि देश और युग (काल) की आवश्यकता के अनुसार वह परिवर्तन-सापेक्ष सामान्य आदर्श 'निःस्वार्थपरता' ही अपने को विभिन्न नाम-रूपों ( स्वामीजी, या कभी नवनी दा आदि-आदि) में अभिव्यक्त करती रहती है, किन्तु हर युग उस सच्चे नेता का मुख्य लक्ष्य रहेगा- मनुष्य में अन्तर्निहित 'पूर्णत्व '- अनन्त ज्ञान और शक्ति को प्रस्फुटित करने में सहायता करना। ऐसा होने से ही, विभिन्न क्षेत्रों के आदर्शों में सच्ची सहमति बनी रहेगी, तथा परस्पर पूरक के रूप में कार्य करते हुए, प्रत्येक क्षेत्र से जीवन को पूर्णत्व की दिशा में ले जायेंगे, तथा स्व-विरोध  का भाव नहीं रहने के कारण जीवन के किसी भी क्षेत्र-विशेष का आदर्श कभी असफल नहीं होगा। ] 
                 इस मूल आदर्श 'अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति (प्रेम-शक्ति)' का सरलतर परिचय करवाने वाला वाक्य है ' स्वयं मनुष्य बनने की चेष्टा करना और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करना।' क्योंकि सृष्टि (समष्टि) और मानव-समाज (व्यष्टि) के आधारीय एकत्व के कारण कोई मनुष्य अकेले ही ऊँचा नहीं उठ सकता।  मनुष्य बनने का अर्थ ही है- अपनी अन्तर्निहित सत्य या सत्ता की शक्ति और ज्ञान का वैसा प्रकटीकरण या अभिव्यक्ति जिससे जीवन में पूर्णता आती हो। 
                इसी 'पूर्णत्व प्राप्ति' के लक्ष्य को दृढ़ता के साथ सामने रखते हुए यदि कोई अपने व्यक्तित्व का गठन करे, चरित्र-निर्माण करे, शिक्षा अर्जित करे तथा साथ-ही -साथ अपने परिवार का भरण-पोषण के लिए आवश्यक भोग सामग्री का संग्रह भी करे , तभी वह क्रमशः अपने यथार्थ आदर्श की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये स्वामीजी इसी को मूल आदर्श कहते हैं। इस मार्ग से अग्रसर होने पर मनुष्य का दैनन्दिन लौकिक जीवन (अभ्युदय) भी उपेक्षित नहीं होता है। किन्तु, यदि व्यक्ति का जीवन असंयमित हो, लक्ष्यहीन हो, तो देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन की महान हानि हो जाती है, एक महती सम्भावना का अन्त हो जाता है। इसलिये इस जीवन के लक्ष्य को, संयम को, नियम को (यम और नियम) को अपने दैनंदिन जीवन में धारण करने की आवश्यकता है। क्योंकि जो वस्तु (यम और नियम) हमारे जीवन को लक्ष्या-भिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, उसे नियंत्रित करती है- उसी का नाम तो धर्म है। इसीलिए स्वामी जी हमें धर्म के विषय में बहुत प्रकार से समझाने की चेष्टा करते हैं। किन्तु, धार्मिक आचार-अनुष्ठान को ही वे धर्म की मूल बात मानने से इन्कार करते हैं। हमलोग भी कहीं कर्मकाण्ड को ही धर्म मूल न समझ लें, इसीलिये स्वामीजी धर्म के बजाय 'ध्यात्मिकता' शब्द का प्रयोग करते हैं। 
          वैसे, आध्यात्मिकता' है क्या ?  हमलोग मनुष्य की आत्मा को, मूल तत्व को, मूल सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को जब अपने आचरण के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा करते हैं, तब उसी को आध्यात्मिकता कहते हैं। इसलिए स्वामी जी जब समग्र राष्ट्र की बात करते हैं, सम्पूर्ण राष्ट्र को जब जाग्रत करने, उसे उन्नत और सुगठित करने की बात करते हैं, तब वे सबसे पहले देश को इसी आध्यात्मिकता के बाढ़ में प्लावित करने की बात करते हैं। 
          स्वामी जी के मन में मनुष्य-मात्र के लिये सर्वदा एक आदर्श भाव विद्यमान रहता था। इसीलिए अनन्त शक्ति सम्पन्न मनुष्य को दुर्बल, असहाय, निराश एवं दुःख-कष्ट में गिरा देखने पर स्वामी को व्यथा होती थी। मनुष्य-मात्र के प्रति अथाह करुणा एवं सहानुभूति से भरे होने के कारण लोगों की दुर्बल अवस्था को देख कर स्वामी जी की आँखों से आँसू गिरने लगते थे। इन्द्रिय और प्रकृति के दास मनुष्य द्वारा कल्पित किसी काल्पनिक मूर्ति की पूजा में स्वामी विवेकानन्द का विश्वास नहीं था। स्वराज्य-च्यूत, धूल- धूसरित जीवन्त शरीर और मन के आधार सत्ता की पूजा करना ही स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में मानवता है। जो मनुष्य अपनी सत्ता के सम्बन्ध में सोया हुआ है, जो अपनी गरिमा के प्रति सचेत (मान-हूँश) नहीं है, जो  अनन्त सम्भावना की खोज नहीं करता, वह स्वाभाविक रूप से स्वयं को दुर्बल सोचता है, तुच्छ समझता है। और, ऐसा ही भ्रमित (हिप्नोटाइज्ड) मनुष्य असहाय भाव का अतिक्रमण कर पाने में असमर्थ रहने के कारण स्वार्थ को  ही परमार्थ समझने लगता है और दिनों-दिन स्वयं को गहरे अंधकार (मोहनिद्रा) में निमग्न करता जाता है।
        इस स्वार्थ का त्याग कर ही हमलोग परमार्थ आदर्श, पूर्णता एवं अनन्त शक्ति को उद्घाटित करने के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिये स्वामीजी के अनुसार - 'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है।' हम अपनी पूर्णता या वृहत सत्ता (ब्रह्मत्व) की ओर अग्रसर होने के पथ पर स्वार्थ, संकीर्णता, हीन भावनाओं- 'मैं भेंड़ हूँ'  के भ्रम का, जो त्याग कर देते हैं, वही हमलोगों का यथार्थ त्याग है। और इसी मार्ग पर आगे बढ़ने में दूसरों की सहायता करना यथार्थ सेवा है। [सच्ची समाज-सेवा भी यही है।] हमलोग जैसे -जैसे वृहत, पूर्णता, स्वार्थहीनता, अन्तर्निहित सत्ता या हृदय को विस्तृत करते हुए परायों को भी अपना बना लेने की ओर हम जितना ही अग्रसर होते जाते हैं, उतना ही हम निर्भय होते जाते हैं, ज्ञानलोक पाते रहते है एवं शक्तिशाली होते जाते हैं। तथा हमारे समस्त कार्यों में हमारी अंतर्निहित निष्कलंक सुन्दरता , पवित्रता , ज्ञान और शक्ति उतना ही प्रस्फुटित होती जाती है। ऐसे व्यक्ति के लिए (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता के लिए) कुछ भी असम्भव नहीं है, अलभ्य नहीं है। निराशा और विषाद उसके पास भी नहीं फटकते। [ इसलिये स्वामी जी कहते थे - " भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं -'त्याग और सेवा' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सबकुछ अपने आप ठीक हो जायेगा ! ' सिद्धार्थ और बुद्ध ' (द्वा सुपर्णा) की भाँति अविच्छेद्य (Inseparable) हैं। ]  
        स्वामी जी की इच्छा थी कि यह 'त्याग और सेवा ' रूपी सरल किन्तु सबल विचारधारा (वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति) -जो हजारों वर्षों से भारत के राष्ट्रीय आदर्श रहे हैं, उन्हें एकबार फिर ऊँच-नीच का भेद किये बिना साधारण जनता के बीच पूरी उदारता और हृदयवत्ता के साथ वितरित की जाय। और " एक नवीन भारत निकल पड़े- निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ-माली, मोची- मेहतर की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" 
                 स्वामीजी ने चाहा था कि ऐसी शिक्षा शुरू की जाय [ तैत्तरीय उपनिषद -शीक्षा वल्ली में आधारित 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण शुरू की जाये] जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी अनन्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सके। ऐसी राजनीति शुरू हो जिसमें सभी मनुष्य को अपनी अन्तर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसी सामाजिक नीति प्रचलित हो जाय जिससे ऊँच -नीच , धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख के भेद एवं समस्त विशेषाधिकार के दावों का अवसान हो जाये। अर्थिक-नीति में ऐसा परिवर्तन हो जिससे शोषण, ठगी, लूट एवं घोटाला समाप्त हो जाय तथा सभी के लिए दोनों वक्त के भोजन का प्रबंध हो जाये। 
               स्वामीजी कहते हैं, (कुमारी मेरी हेल को १ नवम्बर १८९६ को लिखित एक पत्र में)  " एक ही समुदाय या वर्ग का मनुष्य सदा सुख या दुःख भोगता रहे, उससे तो अच्छा है कि सुख-दुःख बारी बारी से सभी श्रेणी के मनुष्यों में विभक्त किया जाये। इस दुःखमय  संसार में सभी श्रेणी के मनुष्यों को सुख-भोग का अवसर दो, ताकि  इस तथाकथित सुख का अनुभव कर लेने के बाद,वे भी संसार, शासन-विधि और अन्य सब झंझटों को छोड़ कर परमात्मा के पास आ सकें। " और इस कार्य को रूपायित करने के लिये,  ऐसी धर्म-नीति का पालन हो जिससे मनुष्य के मन में जमे सारे कुसंस्कार दूर हो सकें, धार्मिक कट्टरता समाप्त हो जाय, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ प्रेम बढ़े, भोग में संयम रहे, प्रार्थता में स्वार्थ-बुद्धि हो, त्याग के महत्व का प्रचार हो, सेवा में प्रेम हो तथा हृदय का प्रसार हो। 
             स्वामी जी के आदर्श में निद्रा एवं आलस्य का स्थान नहीं है। " कायर और मूर्ख लोग ही भाग्य की दुहाई देते हैं। वीर तो सिर ऊँचा करके बोलता है- "अपना भाग्य मैं स्वयं गढ़ूँगा। " स्वामीजी का आदर्श -  शक्ति के उद्घाटन का आदर्श है। " शक्ति ही सुख और आनन्द है, शक्ति ही अनन्त और अविनाशी जीवन है।" हमलोगों का आदर्श समुज्ज्वल हो, जीवन विकसित हो, हमारी शक्ति उद्घाटित हो तथा शक्ति आराधना सार्थक हो !
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