सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (31-32):मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, के आसाँ हो गईं। "Bless you.... your Tolerance should never fall"

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Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
1 August 1992
Reference No: VYM/92-93/251 

My dear Bijoy, 
                            I was very glad to receive your joyful letter of 25th July. I am very very glad to know all you have informed .I never judge somebody through somebody else's eyes. So, Fulwariya is flowering and ABC .... has plunged in. 
                 I have seen ABC...... always very sincere who understands the Mahamandal's ideas. Difficulty arises only in personal relation. That is where in an organization the organizers have to be very cautious, preventing any misunderstanding to crop up. 
           If we are always loving , communicate clearly , do not suspect anybody , give everyone sufficient opportunity to work, there is no reason why people fall back. Anyway , without much of my handling except a few letters to him in the meantime , the episode has come to a happy end. So, in his last letter he has stated that most probably we will be meeting at the State-level camp. Tell him that we must all meet at the State-level camp.
             Now , XYZ......  has been sending Showers of letters and in the last one he has made a little amend by saying that he does not want to dissociate himself from the Mahamandal, but he could not stand the behavior of some of the members of the Mahamandal. 
              He is going to Jhumritilaiya on 7th August for his examination. On the last occasion I told you to write letters to him renewing your love for him. If you have not already done, I think you should meet him there and let him understand that you are all there to help him and to encourage him in all possible ways. 
                 Due to various relaxations in industrial and business rules , it is claimed by the government that both industry and businesses are flourishing like any thing. I do not know , there may be pockets of crises in business. You are in business and certainly you know better. 
           In business it is always accepted that a risk content is there, because there may be some rise and fall. So, you have to overcome such unusual periods [Lalu Raj] with calm resolution. I am sure doing that you will continue to work for the Mahamandal as you have been doing so long
               After the OTC, from the 20th itself I started having fever and was completely laid up from the 22nd till yesterday with high fever. Only today I had remission . So, for about two weeks I am stuck up at home


With love and all good wishes    
Yours affectionately

Nabaniharan Mukhopadhyay 

Sri Bijay Singh
Tara Plastics
Post Box No.62
Jhumritelaiya- 825 409 
Dist . Hazaribag 
Bihar. 
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Registered Office:
Bhuban Bhavan
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, North 24-Parganas (W.B)
Pin Code 743121
23 August 1992

       स्नेहास्पद विजय,
                                    तुम्हारा  दीर्घ पत्र हमें मिला। बारह दिनों तक कठिन बुखार रहने के कारण बहुत ही कमजोर हो गया हूँ। पच्चीस वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं लगातार एक महीने तक 'शहर कार्यालय ' नहीं जा पाया हूँ। आठ-दस दिनों से अपराह्न से सन्ध्या तक टेबल-चेयर पर बैठ कर थोड़ा काम कर पा रहा हूँ। अब थोड़ी ताकत आ रही है।    
                              अमुक..... ने तुम्हें परीक्षा से गुजरने का जो सुअवसर कर दिया उसे भी तुम ठाकुर जी का आशीर्वाद मान लिए हो , यह सुनकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई। घटनाचक्र के सम्बन्ध में प्रमोद के द्वारा जो जानकारी मुझे मिली वह शून्य से ज्यादा नहीं मिली। राज्य-स्तरीय शिविर के कार्यकारिणी समिति में रहना तुम अस्वीकार कर रहे हो, इतना ही उसने बताया। मैं कोई चिन्ता नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि तुमलोगों से कोई भी बेठीक काम करना अब सम्भव नहीं होगा।  
                   
                तुम्हारी सहिष्णुता दिनों दिन बढ़ रही है - यह तो खूब अच्छा है। अमुक  के मौखिक कथन को भी तुम्हारी चिट्ठी से सुन लिया। पिछले शिविर के समय rally के बाद उसको जो कुछ तुमने कहा , उस तरह की बातें मेरे पास रहकर जो काम करते हैं, उनको हजार गुना सुनना पड़ता है। किसी किसी को इसके कारण यदि थोड़ा गुस्सा भी आता है, तो वे ऐसा मान लेते हैं कि ये बातें काम को अच्छे से बनाने के लिए ही कहा जाता है। ऐसा कहने के पीछे किसी को अपमानित करने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। 
                 यद्यपि मुझे अभी तक यह नहीं पता कि तुमने अमुक ...को क्या कहा था, तथापि कहूँगा कि हर समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि, कहने/ झिड़की के पीछे मेरा उद्देश्य चाहे जो भी हो, जिनको कह रहा हूँ, वे क्या सोच सकते हैं, उसको किस ढंग से लेंगे - इस पर ध्यान रखते हुए ही कुछ भी कहना उचित माना जाता है। प्रेम से काम लेना और करना ही सही है। " यदि 'तुम' राजपूत ('पुत्र- आमी') है, तो 'मैं' क्या 'राजा' ('पिता-आमी') नहीं ?" लेकिन अपने को चाहे (व्यष्टि अहं या समष्टि अहं) जो कुछ भी सोंचते हो, वह होते हुए भी, अपनी जबान के ऊपर संयम हर समय हर समय रहना ही चाहिए। 
          
           क्या स्वामी जी भी बहुत बार, हमलोगों से मामूली सी गलती हो जाने पर , बहुत 'तेज' से नहीं डांट दिया करते थे ?...?....?  लेकिन कारण ....  को कौन देखना चाहता है ?.... ? कर्मियों को, यदि काम करना सीखना हो तो यह समझना चाहिए कि ये बातें केवल सही ढंग से काम करने के लिए ही कही गयी हैं। तुम बहुत ठीक बताये हो कि सहिष्णुता छोड़ देना ही, जड़ का दास बनना है। और अगर इसी के लिए आशीर्वाद चाहते हो, तो आशीर्वाद करता हूँ कि चाहे जैसी भी परिस्थिति क्यों न हो, तुम्हारी सहिष्णुता कभी न गिर पड़े ! तुम अब, जो सब कुछ सुनकर भी अपनी गलती के लिए क्षमा माँगने में सक्षम हो गए हो, यह तुम्हारी सबसे बड़ी विजय ! 
                 
       जैसा कहा, ठीक है कि तुम महामण्डल को अपनी जायदाद नहीं समझते हो, लेकिन यह बात दूसरों को समझाने का दायित्व भी तुम्हारा ही है। किन्तु यहाँ एक बात  सभी कर्मियों को समझना जरुरी है कि, हर कर्मी को महामण्डल की चीज अपनी चीज (सम्पत्ति ) है, यही समझना पहला काम है। यदि हमलोग ऐसा नहीं सोचेंगे तो महामण्डल के किसी वस्तु से प्रेम नहीं होगा। और बिना प्रेम से किया हुआ कोई भी काम ठीक से नहीं बनता है। 
           शायद समझते हो, मैं क्या कहना चाहता हूँ ? अगर मैं महामण्डल को  मेरी चीज (?) नहीं समझता हूँ , तो उसकी रक्षा और उन्नति मुझसे कैसे हो पायेगी ? जैसे तुम महामण्डल को अपना समझते हो, सबको बताओ कि महामण्डल की भलाई के लिए  सब कोई इसे अपनी सम्पत्ति के रूप में ग्रहण कर सकें। 
             तुमने यह सही कहा कि जिसकी गलती हो, उसे केवल उसी के सामने कहना चाहिए, सभी के सामने या दूसरों के पास नहीं। पाठचक्र में कुछ दिनों के लिए तुम बोलना छोड़ दो। देखो इसका क्या फल होता है ? 
                   'गमप' ने और भी दो-तीन पत्र देहली से लिखा था। सभी का उत्तर झुमरीतिलैया के पते पर भेज चुका हूँ। शायद उसे मिल चुका होगा। 'गमप'  के बारे में तुमने जो कहा वो ठीक है। उसके ऊपर अभी 'अमुक'  का अधिक प्रभाव पड़ना अच्छा नहीं होगा। 'गमप' को और भी कुछ दिनों तक दवाई खाना अच्छा होगा। मैं बताता हूँ। यदि सम्भव हो तो उसके पिताजी से कहना। उसी से आत्मविश्वास भी चला आएगा। उसके साथ तुम्हारा सरल प्रेम का व्यवहार होना चाहिए। ज्यादा जटिल या गूढ़ विषयों पर अधिक बातचीत नहीं करके केवल उत्साह की बातें कहनी अच्छी होगी। घर में बुलाकर वार्तालाप करना ठीक होगा। तुम्हारी पत्नी ने उसको जो बातें बतलाई वो बिल्कुल ठीक हैं। 
                  हमलोगों के लिये केवल स्वामी जी का काम ठीक से करने के लिये पागल बन जाना ही सही रास्ता है, अन्य किसी दुनियावी चीज को पाने के लिए नहीं। तुमने लिखा - " मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, के  आसाँ हो गईं। **"--- तो फिर अब चिन्ता की बात ही क्या है ? आशा है कि राज्य-स्तरीय शिविर में हमलोगों के बीच इस पर आगे और विमर्श होगी। प्रमोद को कहकर वहाँ जी.....  को कुछ class लेने का व्यवस्था करने का प्रयास करो। तुम अब स्वयं इस विषय पर उससे कुछ मत बोलना। भीतर की दृष्टि (अन्तर्दृष्टि ) ऑंसू के बीच से ही आती (खुलती) है।  
 आशीर्वाद !
इसकी प्राप्ति सूचना भेजा करो ! 
शुभाकांक्षी 

नवनीदा 
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** रंज से ख़ूगर हुआ इन्सां, तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी, के आसाँ हो गईं। 
(रंज = कष्ट, दुःख, आघात, पीड़ा), (ख़ूगर = अभ्यस्त, आदी)
यूं ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो अय अहल-ए-जहाँ,
देखना इन बस्तियों को तुम, के वीराँ हो गईं। 
(अहल-ए-जहाँ = दुनियावालों), (वीराँ = वीरान, निर्जन, उजाड़)
-मिर्ज़ा ग़ालिब
[ स्वामी जी कहते हैं - " मैं किसी द --राजा पर पूरा भरोसा नहीं रखता। वे राजपूत तो हैं नहीं- राजपूत अपने प्राण दे सकते हैं , किन्तु अपने वचन से कभी विमुख नहीं होते। अस्तु, 'जब तक जीना, तब तक सीखना ' --अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। " 21 फरवरी, 1893 को आलासिंगा को लिखित पत्र]  
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