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रविवार, 13 जून 2021

🔆 🔆 🔆 🔆 🔆 परिच्छेद- 85, [(30 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-85 ] The Art of Teaching *ब्रह्म और शक्ति अभेद- माँ काली ही ब्रह्म है * मुक्ति की अपेक्षा त्रिलोकजयी भक्ति बड़ी है*/*शिक्षा देने का कौशल ~पढ़ने, सुनने और देखने का अनुक्रम (sequence)* विज्ञानी - (भक्त या 'नेता') कौन है ? जो ईश्वरदर्शन कर उनके आदेश को पाने के बाद शिक्षा देता है। विज्ञानी , भक्त या चपरास प्राप्त नेता आँखें खोलकर भी ईश्वर के दर्शन करता है । नित्य से लीला में आ जाता है और कभी लीला से नित्य में चला जाता है । " एई संसार मजार कुटी , आमि खाई दाई आर मजा लूटी।


*परिच्छेद ८५*

(१)

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-85 ]

🔆ज्ञानमार्गी पण्डित शशधर तर्क- चूड़ामणि को दूसरे दिन का उपदेश 🔆

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे में जमीन पर बैठे हैं । पास ही शशधर पण्डित हैं । जमीन पर चटाई बिछी है, उस पर श्रीरामकृष्ण, पण्डित शशधर तथा कई भक्त बैठे हैं । कुछ लोग खाली जमीन पर ही बैठे हैं । सुरेन्द्र, बाबूराम, मास्टर, हरीश, लाटू, हाजरा, मणि मल्लिक आदि भक्त भी हैं । श्रीरामकृष्ण पण्डित पद्मलोचन की बात कह रहे हैं । पद्मलोचन बर्दवान महाराज के सभापण्डित थे । दिन का तीसरा पहर है, चार बजे का समय होगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে তাঁর সেই পূর্বপরিচিত ঘরে মেঝেতে বসিয়া আছেন, — কাছে পণ্ডিত শশধর। মেঝেতে মাদুর পাতা — তাহার উপর ঠাকুর, পণ্ডিত শশধর এবং কয়েকটি ভক্ত বসিয়াছেন। কতকগুলি ভক্ত মাটির উপরেই বসিয়া আছেন। সুরেন্দ্র, বাবুরাম, মাস্টার, হরিশ, লাটু, হাজরা, মণি মল্লিক প্রভৃতি ভক্তেরা উপস্থিত আছেন। ঠাকুর পণ্ডিত পদ্মলোচনের কথা কহিতেছেন। পদ্মলোচন বর্ধমানের রাজার সভাপন্ডিত ছিলেন। বেলা অপরাহ্ন — প্রায় ৪টা।

SRI RAMAKRISHNA was in his room, sitting on a mat spread on the floor. Pundit Shashadhar and a few devotees were with him on the mat, and the rest sat on the bare floor. Surendra, Baburam, M., Harish, Latu, Hazra, and others were present. It was about four o'clock in the afternoon.

आज सोमवार है, 30 जून, 1884;  छः दिन हो गये, जिस दिन रथयात्रा थी, उस दिन कलकत्ते में पण्डित शशधर के साथ श्रीरामकृष्ण की बातचीत हुई थी । आज पण्डितजी खुद आये हैं । साथ में श्रीयुत भूधर चट्टोपाध्याय और उनके बड़े भाई हैं । कलकत्ते में इन्हीं के मकान पर पण्डित शशधरजी रहते हैं । 
[আজ সোমবার, ৩০শে জুন, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ (১৭ই আষাঢ়, শুক্লা অষ্টমী)। ছয়দিন হইল শ্রীশ্রীরথযাত্রার দিবসে পণ্ডিত শশধরের সহিত ঠাকুরের কলিকাতায় দেখা ও আলাপ হইয়াছিল। আজ আবার পণ্ডিত আসিয়াছেন। সঙ্গে শ্রীযুক্ত ভূধর চট্টোপাধ্যায় ও তাঁর জ্যেষ্ঠ সহোদর। কলিকাতায় তাহাদের বাড়িতে পণ্ডিত শশধর আছেন। পণ্ডিত জ্ঞানমার্গের পন্থী। 
Sri Ramakrishna had met Pundit Shashadhar six days before in Calcutta, and now the pundit had come to Dakshineswar to visit the Master. Bhudar Chattopadhyaya and his elder brother, the pundit's hosts, were with him.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-85]

🔆नित्य और लीला एक और एक ही सत्य के दो पहलू हैं। 🔆

 [Nitya and Lila are the two aspects of one and the same Reality.]
[যিনি অখণ্ড সচ্চিদানন্দ, তিনিই লীলার জন্য নানা রূপ ধরিয়াছেন।]

पण्डितजी ज्ञानमार्गी हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें समझा रहे हैं - "नित्यता जिनकी है, लीला भी उन्हीं की है - जो अखण्ड सच्चिदानन्द हैं, उन्होंने लीला के लिए अनेक रूपों को धारण किया है ।" भगवत्प्रसंग करते करते श्रीरामकृष्ण बेसुध होते जा रहे हैं । पण्डितजी से कह रहे हैं – “भैया, ब्रह्म सुमेरुवत् अटल और अचल हैं, परन्तु जिसमें न हिलने का भाव है उसमें हिलने का भाव भी है ।"

[ঠাকুর তাঁহাকে বুঝাইতেছেন — যাঁহারই নিত্য তাঁহারই লীলা — যিনি অখণ্ড সচ্চিদানন্দ, তিনিই লীলার জন্য নানা রূপ ধরিয়াছেন। ঈশ্বরের কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর বেহুঁশ হইতেছেন। ভাবে মাতোয়ারা হইয়া কথা কহিতেছেন। পণ্ডিতকে বলিতেছেন, “বাপু, ব্রহ্ম অটল, অচল, সুমেরুবৎ। কিন্তু ‘অচল’ যার আছে তার ‘চল’ও আছে।”

The pundit was a follower of the path of jnana. The Master was explaining this path to him. He said: "Nitya and Lila are the two aspects of one and the same Reality. He who is the Indivisible Satchidananda has assumed different forms for the sake of His Lila." As he described the nature of the Ultimate Reality the Master every now and then became unconscious in samadhi. While he talked he was intoxicated with spiritual fervour. He said to the pundit: "My dear sir. Brahman is immutable and immovable, like Mount Sumeru. But He who is 'immovable' can also 'move'.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-85]

🔆माँ काली, जगदम्बा The Universal Mother ही ब्रह्म है ~ ब्रह्म और शक्ति अभेद 🔆

[কালীব্রহ্ম — ব্রহ্ম ও শক্তি অভেদ]

श्रीरामकृष्ण प्रेम और आनन्द से मस्त हो गये हैं । सुन्दर कण्ठ से गाने लगे -

के जाने काली केमन।  षटदर्शने ना पाय दरशन। 

के जाने काली केमन, षड् दर्शने ना पाय दरशन, 

आत्मारामेर आत्मा काली प्रमाण प्रणवेर मतोन। 

शे जे घटे घटे विराज कोरे, इच्छामयिर इच्छा जेमन,

काली उदरे ब्रह्मांड , भांड, प्रकांड ता बुझो केमन। 

ज्यामोन शिव बुझेछेन कालिर मर्म, अन्य केबा जाने तेमन ,

मुलाधारे सहस्त्रारे सदा योगी करे मनन।  

काली पद्म वने, हंस सने, हंसी रूपे कोरे रमण ,

प्रसाद भासे, लोक हासे, संतरणे , सिंधू तरण।  

आमार मन बुझेछे, प्राण बुझे ना , धोरबे शशी होये बामण।  

(कवि- रामप्रसाद)

(गीतों का भाव) –(१) कौन है जो समझ सकता है कि मां काली क्या है? यहां तक कि छह दर्शन भी उसे प्रकट करने में असमर्थ हैं। . .

[কে জানে কালী কেমন, ষড়্‌ দর্শনে না পায় দরশন।

The Master was in ecstasy. He began to sing in his melodious voice:Who is there that can understand what Mother Kali is?Even the six darsanas are powerless to reveal Her. . . .

एक के बाद दूसरा, इस तरह कई गाने गाये ।

माँ कि एमनि मायेर मेये? 

जार नाम जपिये महेश बाँचेन हलाहल खाइये।।

सृष्टि-स्थिति-प्रलय करे कटाक्षे हेरिंये । 

से जे अनन्त ब्रह्माण्ड राखे उदरे पुरिंये ।। १ ।। 

जे चरणे शरण लोये, देवता बांचेन दाये । 

देवेर देव महादेव,जार चरणे लुटोये ।। २।। 

'प्रसाद' बोले-रणे चले,  रणमयी होये । 

शुंभ-निशुंभके वधे, हुंकार छाडिये।।३।। 

 मेरी माँ  किसी ऐसी-वैसी स्त्री नहीं है । उसका नाम लेकर महेश्वर हलाहल पीकर ^*  भी बच गये । उसके कटाक्षमात्र से सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं । अनन्त ब्रह्माण्डों को वह अपने पेट में डाली हुई है । उसके चरणों की शरण लेकर देवता संकट से उद्धार पाते हैं । देवों के देव महादेव उसके पैरों के नीचे लोटते हैं ।

[महेश्वर हलाहल पीकर ^*  देवताओं और राक्षसों द्वारा समुद्र मंथन करने पर प्रकट हुए हलाहल विष का संकेत। इस हलाहल विष को शिव ने इसे अन्य प्राणियों पर दया करने के लिए पी लिया था ! और उस जहर को अपने कण्ठ में ही रोक लिया था , जिसके कारण उनके कण्ठ का रंग नीला पड़ गया था ; इसलिए भगवान शिव का एक नाम 'नीलकण्ठ '  पड़ गया। 

^An allusion to the poison that appeared when the ocean was churned by the gods and demons. Siva drank it out of kindness to others, and the poison remained in His throat, giving it a blue colour. Therefore Siva is known as the "god with a blue throat".

(२)গান - 

মা কি এমনি মায়ের মেয়ে।

যার নাম জপিয়ে মহেশ বাঁচেন হলাহল খাইয়ে ৷৷

সৃষ্টি স্থিতি প্রলয় যার কটাক্ষে হেরিয়ে।

সে যে অনন্ত ব্রহ্মাণ্ড রাখে উদরে পুরিয়ে ৷৷

যে চরণে শরণ লয়ে দেবতা বাঁচেন দায়ে।

দেবের দেব মহাদেব যাঁর চরণে লুটায়ে ৷৷ 

[He went on: Is Mother merely a simple woman, born as others are born? Only by chanting Her holy name Does Siva survive the deadly poison.1She it is who creates the worlds. She who preserves and destroys, With a mere wink of Her wondrous eyes; She holds the universe in Her womb. Seeking a shelter at Her feet, the gods themselves feel safe; And Mahadeva, God of Gods, Lies prostrate underneath Her feet.

(३)

से (माँ) कि शुधु शिवेर सती ? जारे कालेर काल करे प्रणति ।।ध्रु.।।  

 षट्चक्रे चक करि, कमले करे वसति। से जे सर्व दलेर दलपति, 

सहस्र दले करे स्थिति।।१।। 

 न्यांग्टा वेशे शत्रु नाशे, महाकाल-हृदये स्थिति । (ओरे) बोल देखि मन से वा केमन, 

नाथेर बुके मारे लाथि ।। २।। 

'प्रसाद' बोले मायेर लीला, सकलि जेनो डाकाति । 

                         (ओरे) सावधाने मन करो जतन, होबे तोमार शुद्ध मति।।३।।                              

 मेरी माँ में यह इतना ही गुण नहीं है कि वह शिव की सती है, नहीं, काल के काल भी उसे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं । नग्न होकर वह शत्रुओं का संहार करती हैं । महाकाल के हृदय में उसका वास है । अच्छा मन ! कहो तो सही, भला वह कैसी है जो अपने पति के हृदय में भी पाद-प्रहार करती है ! रामप्रसाद कहते हैं ! माता की लीलाएँ समस्त बन्धनों से परे हैं । मन ! सावधानी के साथ प्रयत्न करते रहो, इससे तुम्हारी मति शुद्ध हो जायगी

 মা কি শুধুই শিবের সতী।

যাঁরে কালের কাল করে প্রণতি ৷৷

ন্যাংটাবেশে শত্রু  নাশে মহাকাল হৃদয়ে স্থিতি।

বল দেখি মন সে বা কেমন, নাথের বুকে মারি লাথি ৷৷

প্রসাদ বলে মায়ের লীলা, সকলই জেনো ডাকাতি।

সাবধানে মন কর যতন, হবে তোমার শুদ্ধমতি ৷৷

Again he sang: Is Mother only Siva's wife? To Her must needs bow down The all-destroying King of Death! Naked She roams about the world, slaying Her demon foes,Or stands erect on Siva's breast.Her feet upon Her Husband's form! What a strange wife She makes! My Mother's play, declares Prasad, shatters all rules and laws: Strive hard for purity, O mind, And understand my Mother's ways.

(४)

सुरापान कोरी ना आमि सूधा खाई जय काली बोले।  

मन मातले माताल कोरे, मद मातले माताल बोले, 

गुरुदत्त गुड लोये, प्रवृत्ती तय मशला दिये, 

ज्ञान शुडीते, चोयाय भांटी पान कोरे मोर मन माताले। 

मूलमंत्र यंत्र भरा, शोधन कोरी बोले तारा, 

प्रसाद बोले एमोन सूरा खेले चतुर्वर्ग मेले।।

 यह मैं सुरापान नहीं कर रहा हूँ, काली का नाम लेकर मैं सुधापान करता हूँ । वह सुधा मुझे ऐसी मस्त देती है कि लोग मुझे मतवाला कहते हैं । .गुरु के दिये हुए बीज को लेकर, उसमें प्रवृत्ति का मसाला डाल, ज्ञानरूपी कलवार जब शराब खींचता है, तब मेरा मतवाला मन उसका पान करता है । यन्त्रों से भरे हुए मूल मन्त्र का शोधन करके वह 'तारा तारा' कहा करता है । रामप्रसाद कहता है, ऐसी सुरा के पीने से चारो पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है ।

আমি সুরা পান করি না, সুধা খাই জয় কালী বলে,

মন-মাতালে মাতাল করে, মদ-মাতালে মাতাল বলে।

গুরুদত্ত বীজ লয়ে প্রবৃত্তি তায় মশলা দিয়ে,

জ্ঞান শুঁড়িতে চোয়ায় ভাঁটি, পান করে মোর মন-মাতালে।

মূল মন্ত্র যন্ত্র ভরা, শোধন করি বলে তারা,

প্রসাদ বলে এমন সুরা খেলে চতুর্বর্গ মিলে।

And again:I drink no ordinary wine, but Wine of Everlasting Bliss,As I repeat my Mother Kali's name;It so intoxicates my mind that people take me to be drunk! . . .

(५)

श्यामा धन कि सबाइ पाय रे,काली धन कि सबाइ पाय रे। 

अबोध मन बुझे ना एकि दाय, 

शिवेर ओ असाध्य साधन मनमजानो रांगा पाय। 

इंद्रादि संपदसुख तुच्छ होय जे भाबे माय,

सदानंद सुखे भासे श्यामा जदि फिरे चाय। 

योगींद्र मूनींद्र इंद्र जे चरण ध्याने ना पाय,

निर्गुण कमलाकांत तबू से चरण चाय ॥ 

 (कवि-कमलाकांत) 

श्यामा-धन क्या कभी सब को थोड़े ही मिलता है ? बड़ी आफत है - यह नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों में प्राणों को सौंप देना शिव के लिए भी असाध्य है, तो साधारण जनों की बात ही क्या !

শ্যামাধন কি সবাই পায়,

অবোধ মন বোঝে না একি দায়।

শিবেরই অসাধ্য সাধন মনমজানো রাঙা পায় ৷৷

[And again:Can everyone have the vision of Syama? Is Kali's treasure for everyone? Oh, what a pity my foolish mind will not see what is true! Even with all His penances, rarely does Siva Himself behold The mind-bewitching sight of Mother Syama's crimson feet.To him who meditates on Her the riches of heaven are poor indeed;If Syama casts Her glance on him, he swims in Eternal Bliss.The prince of yogis, the king of the gods, meditate on Her feet in vain;Yet worthless Kamalakanta yearns for the Mother's blessed feet!

श्रीरामकृष्ण का भावावेश घट रहा है । गाना बन्द हो गया । वे थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे । फिर अपनी छोटी खाट पर जाकर बैठे । पण्डितजी गाना सुनकर मुग्ध हो गये । बड़े ही विनयस्वर में श्रीरामकृष्ण से कहा - क्या और गाना न होगा ?

[ঠাকুরের ভাবাবস্থা একটু কম পড়িয়াছে। তাঁহার গান থামিল। একটু চুপ করিয়া আছেন। ছোট খাটটিতে গিয়া বসিয়াছেন।পণ্ডিত গান শুনিয়া মোহিত হইয়াছেন। তিনি অতি বিনীত ভাবে ঠাকুরকে বলিতেছেন, “আবার গান হবে কি?”

The Master's ecstatic mood gradually relaxed. He stopped singing and sat in silence. After a while he got up and sat on the small couch.Pundit Shashadhar was charmed with his singing. Very humbly he said to Sri Ramakrishna, "Are you going to sing any more?"

श्रीरामकृष्ण कुछ देर बाद फिर गाने लगे –

ঠাকুর একটু পরেই আবার গান গাহিতেছেন:

A little later the Master sang again:

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-85] 

🔆 भक्ति पा लेने वाला - त्रिलोकजयी हो जाता है 🔆

(१)

শ্যামাপদ আকাশেতে মন ঘুড়িখান উড়তেছিল,

কলুষের কুবাতাস পেয়ে গোপ্তা খেয়ে পড়ে গেল।

 श्यामा के चरणरूपी आकाश में मेरे मन की पतंग उड़ रही थी । पाप की हवा के झोंके से वह चक्कर खाकर गिर गयी.....।

High in the heaven of the Mother's feet, my mind was soaring like a kite,When came a blast of sin's rough wind that drove it swiftly toward the earth. . . .

(२) 

एबार आमि भालो भेबेछि । भालो भाबिर काछे भाब शिखेछि॥

जे देशे रजनी नाइ मा, सेइ देशेर एक लोक पेयेछि। 

आमि किबा दिबा किबा संध्या संध्यारे वन्ध्या कोरेछि॥


तोमार पद तोमाय दिये तोमाते तोमाय सोंपेछि,

भवेर हाटे एशे एबार, बेचा केना सब कोरेछि॥


प्रसाद बोले, भुक्ति मुक्ति उभये माथाय रेखेछि

(आमि) काली ब्रह्म जेने मर्म धर्माधर्म सब छेडेछि॥ 

ठाकुर देव ने फिर एक गीत गया : अब मुझे एक अच्छा भाव मिल गया है  इस बार मैंने 'उसे' अच्छी तरह से सदा के लिए समझ लिया है।  जिनकी पूजा कवि रामप्रसाद माँ काली के रूप में पूजा करते थे,  को अच्छी तरह से सदा के लिए समझ लिया है।]  इस भाव के रहस्य (कुण्डलिनी) को मैंने एक ऐसे गुरु से सीखा है जो उसे अच्छी तरह से जानता है। 

  "जिस देश में कभी रात नहीं होती , उसी देश का एक व्यक्ति मुझे मिल गया है ! " अब मैं दिन और रात में कोई भेद नहीं देखता। मेरे लिए कर्मकांड और पूजा-पाठ आदि सब व्यर्थ हो गए हैं। मेरी नींद टूट गई है ; मैं और कैसे सो सकता हूँ?  योग की अनिद्रा अवस्था (sleeplessness of yoga.) में पूर्णतया जाग्रत हूँ। 

हे माँ जगदम्बा, अंततोगत्वा इस योग-निद्रा जिससे व्यक्ति सोता हुआ दिखाई देता है।^Samadhi, which makes one appear asleep.) ने मुझे तुम्हारे साथ एकत्व की अवस्था में पहुँचा दिया है , मैंने अपनी अर्धमूर्छित अवस्था को सदा के लिए सुला दिया है! 

कवी रामप्रसाद कहता है - मैं  'काम' और 'मुक्ति' ( liberation) दोनों के सामने अपना सिर झुकाता हूं ! 

" माँ काली ही समस्त ब्रह्माण्डों की सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म हैं" ( Knowing the secret that Kali is one with the highest Brahman)  - यह रहस्य जान लेने के बाद मैंने धर्म -अधर्म सब छोड़ दिया है। 

[ "माँ काली ही समस्त ब्रह्माण्डों की सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म हैं " - इसी प्रसंग पर दादा कहते थे : 

 ' एक बार ब्रह्म काली से मिलने गए , द्वारपाल को कहा कि जाकर माँ काली को खबर दो कि ब्रह्म उनसे मिलना चाहते हैं।' माँ ने द्वारपाल से कहलवाया कि जाकर पूछो कि वे  किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्म हैं?] 

 এবার আমি ভাল ভেবেছি।

ভাল ভাবীর কাছে ভাব শিখেছি।

যে দেশে রজনী নাই, সেই দেশের এক লোক পেয়েছি।

আমি কিবা দিবা কিবা সন্ধ্যা সন্ধ্যারে বন্ধ্যা করেছি ৷৷

[Then he sang: Once for all, this time, I have thoroughly understood; From One  who knows it well, I have learnt the secret of bhava. 

A man has come to me from a country where there is no night, And now I cannot distinguish day from night any longer; Rituals and devotions have all grown profitless for me.

 My sleep is broken; how can I slumber any more? For now I am wide awake in the sleeplessness of yoga. O Divine Mother, made one with Thee in yoga-sleep at last, My slumber I have lulled asleep for evermore.

 I bow my head, says Prasad, before desire and liberation; Knowing the secret that Kali is one with the highest Brahman, I have discarded, once for all, both righteousness and sin.

(३) 

अभय पदे प्राण सोंपेछि,

आमि आर कि यमेर भय रेखेछि। 

कालीनाम महामंत्र, आत्मशिर शिखाय बेँधेछि,

आमि देह बेचे भवेर हाटे, दूर्गानाम किने एनेछि। 

मैंने अपनी आत्मा को माँ काली के निर्भय चरणों में (अभिः) में समर्पित कर दिया है। मुझे अब मृत्यु का कोई भय नहीं है, जब मैं यह समझ गया कि मृत्यु केवल  शरीर होती है , आत्मा  की नहीं -आत्मा तो अजर , अमर , अविनाशी है ! तो अब मुझे यम से से मिलने में भय कैसा ? यदि 'काल गहे कर केस' तो  अपनी शिर-शिखा में मैंने काली-नाम के महामन्त्र की ग्रन्थि लगा ली है । भव की हाट में देह बेचकर मैं श्रीदुर्गा नाम खरीद लाया हूँ ।

Sri Ramakrishna continued: I have surrendered my soul at the fearless feet of the Mother; Am I afraid of Death any more? Unto the tuft of hair on my head Is tied the almighty mantra, Mother Kali's name. My body I have sold in the market-place of the world And with it have bought Sri Durga's name.


অভয় পদে প্রাণ সঁপেছি।

আমি আর কি যমের ভয় রেখেছি ৷৷

কালী নাম মহামন্ত্র আত্মশিরশিখায় বেঁধেছি।

(আমি) দেহ বেচে ভবের হাটে, দুর্গানাম কিনে এনেছি ৷৷

'देह बेचकर श्रीदुर्गा-नाम खरीद लाया हूँ,’ इस वाक्य को सुनकर पण्डितजी की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी । श्रीरामकृष्ण फिर गा रहे हैं –

As Sri Ramakrishna sang the line, "And with it have bought Sri Durga's name", the tears flowed from Pundit Shashadhar s eyes. The Master went on with the song:

[“দুর্গানাম কিনে এনেছি” এই কথা শুনিয়া পণ্ডিত অশ্রুবারি বিসর্জন করিতেছেন। ঠাকুর আবার গাহিতেছেন:

कालिनाम कल्पतरु हृदये रोपण कोरेछि,

एबार शमन होले हृदय खूले, देखाबो ताइ बोशे आछि। 

देहेर मध्ये छः जन कूजन, तादेर घटे दूर कोरेछि,

रामप्रसाद बोले दूर्गा बोले जात्रा कोरे बोशे आछि।   

मैंने अपने ह्रदय में काली-नाम के कल्पतरू (The Wish-fulfilling Tree of heaven) को रोपित कर लिया है । अब की बार जब यमराज आयेंगे, तब उन्हें हृदय खोलकर दिखाऊँगा, इसीलिए बैठा हुआ हूँ। देह के भीतर छः दुर्जन हैं, उन्हें मैंने घर से निकाल दिया है । रामप्रसाद कहते हैं, श्रीदुर्गा का नाम लेकर मैंने पहले ही से जीवन-समुद्र को पार करने की यात्रा का आरम्भ  कर दिया है ।

কালীনাম কল্পতরু, হৃদয়ে রোপণ করেছি।

এবার শমন এলে হৃদয় খুলে দেখাব তাই বসে আছি ৷৷

দেহের মধ্যে ছজন কুজন, তাদের ঘরে দূর করেছি।

রামপ্রসাদ বলে দুর্গা বলে যাত্রা করে বসে আছি ৷৷

Deep within my heart I have planted the name of Kali,The Wish-fulfilling Tree of heaven;When Yama, King of Death, appears,To him I shall open my heart and show it growing these.I have cast out from me my six unflagging foes; (The six passions.)Ready am I to sail life's sea,Crying, "To Durga, victory!"

(२) 

आपनाते आपनि थेको मन जेओ नाको कारो घरे। 

जा चाबि ताई बोसे पाबि (ओरे) खोंज निज अन्तःपुरे।।  

मन ! अपने में ही रहना, किसी दूसरे के घर न जाना । जो कुछ तू चाहेगा, वह तुझे बैठे ही बैठे मिल जायगा । तू अपने अन्तःपुर में ही उसकी तलाश कर ।

[আপনাতে আপনি থেকো মন যেও নাকো কারু ঘরে।

যা চাবি তাই বসে পাবি (ওরে) খোঁজ নিজ অন্তঃপুরে ৷৷

Again he sang:Dwell, O mind, within yourself; Enter no other's home.If you but seek there, you will find All you are searching for. . . .

श्रीरामकृष्ण गाकर बतला रहे हैं कि- "मुक्ति की अपेक्षा भक्ति बड़ी है ।" (यह गीत श्रीकृष्ण के शब्दों का प्रतिनिधित्व करता है।)

आमि मुक्ती दिते कातोर नेई, शुद्धा भक्ती दिते कातोर होई गो ।  

आमार भक्ती जेबा पाय, ताते केब पाय,  शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी।। 

शुन चंद्रावली* भक्तीर कथा कोई,  भक्तीर कारणे पाताल भवने,  

शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी। 

बलिर द्वारे आमि द्वारे होये रोई,  शुद्धा भक्ती एक आछे वृन्दावने।  

गोप गोपी वीने अन्ये नाही जाने ,भक्तीर कारणे नंदेर भवने, 

पिता ज्ञाने नंदेर बाधा माथाय बोई। 

 "मुझे मुक्ति देते हुए कष्ट नहीं होता, परन्तु भक्ति देते बड़ी तकलीफ होती है । जिसे मेरी भक्ति मिलती है, वह सेवा का अधिकारी हो जाता है । फिर उसे कौन पा सकता है ! वह त्रिलोकजयी हो जाता है । शुद्धा भक्ति एकमात्र वृन्दावन में है, गोपियों के सिवा किसी दूसरे को उसका ज्ञान नहीं । भक्ति ही के कारण, नन्द के यहाँ, उन्हें पिता मानकर, मैं उनकी बाधा को अपने सिर लेता हूँ ।"

(गाना)ঠাকুর গান গাহিয়া বলিতেছেন — মুক্তি অপেক্ষা ভক্তি বড় —

আমি মুক্তি দিতে কাতর নই,

শুদ্ধাভক্তি দিতে কাতর হই গো।

আমার ভক্তি যেবা পায় সে যে সেবা পায়,

তারে কেবা পায় সে যে ত্রিলোকজয়ী ৷৷

শুদ্ধাভক্তি এক আছে বৃন্দাবনে,

গোপ-গোপী ভিন্ন অন্যে নাহি জানে।

ভক্তির কারণে নন্দের ভবনে

পিতাজ্ঞানে নন্দের বাধা মাথায় বই ৷৷

And again:Though I4 am never loath to grant salvation,I hesitate indeed to grant pure love.Whoever wins pure love surpasses all;He is adored by men; He triumphs over the three worlds. . . .

(२)

[ 30  जून ,1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

 🔆 साधना किये बिना – तपस्या किये बिना - कोई ईश्वर को पा नहीं सकता 🔆  

(শাস্ত্রপাঠ ও পাণ্ডিত্য মিথ্যা — তপস্যা চাই — বিজ্ঞানী)

पण्डितजी ने वेद और शास्त्रों का अध्ययन किया है । सदा शास्त्र-ज्ञान की चर्चा में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर बैठे हुए उनकी ओर देख रहे हैं और कहानियों के रूप में अनेक प्रकार के उपदेश दे रहे हैं ।

[পণ্ডিত বেদাদি শাস্ত্র পড়িয়াছেন ও জ্ঞানচর্চা করেন। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া তাঁহাকে দেখিতেছেন ও গল্পচ্ছলে নানা উপদেশ দিতেছেন।

The pundit had studied the Vedas and the other scriptures. He loved to discuss philosophy. The Master, seated on the couch, cast his benign look on the pundit and gave him counsel through parables.

श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - वेदादि बहुत से शास्त्र हैं, परन्तु साधना किये बिना – तपस्या किये बिना - कोई ईश्वर को पा नहीं सकता । उनके दर्शन न तो षड्दर्शनों में होते है और न आगम, निगम और न तन्त्रसार में ही ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (পণ্ডিতের প্রতি) — বেদাদি অনেক শাস্ত্র আছে, কিন্তু সাধন না করলে, তপস্যা না করলে — ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না।“ষড় দর্শনে দর্শন মেলে না, আগম নিগম তন্ত্রসারে।

MASTER (to the pundit): "There are many scriptures like the Vedas. But one cannot realize God without austerity and spiritual discipline. 'God cannot be found in the six systems, the Vedas, or the Tantra.'

 [ 30  जून ,1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[VVImp ]  

ॐ 🔆शास्त्रों में लिखा है -'मन ही मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण है' -अब क्या करें ? 🔆    

 [इसे समझकर स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा 

में '3H' विकास के '5 अभ्यास' का प्रशिक्षण आवश्यक]  

“शास्त्रों में जो कुछ लिखा है, उसे समझकर उसी के अनुसार काम करना चाहिए । किसी ने एक चिट्ठी खो दी थी । उसने चिट्ठी कहाँ रख दी यह उसे याद न रही । तब वह दिया लेकर खोजने लगा । दो तीन लोगों ने मिलकर खोजा, तब वह चिट्ठी मिली । उसमें लिखा था, पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेजना। पढ़कर उसने फिर उस चिट्ठी को फेंक दिया । तब फिर चिट्ठी की कोई जरूरत न थी । पाँच सेर सन्देश और एक धोती के भेजने ही से मतलब था । 

[“তবে শাস্ত্রে যা আছে, সেই সব জেনে নিয়ে সেই অনুসারে কাজ করতে হয়। একজন একখানা চিঠি হারিয়ে ফেলেছিল। কোথায় রেখেছে মনে নাই। তখন সে প্রদীপ লয়ে খুঁজতে লাগল। দু-তিনজন মিলে খুঁজে চিঠিখানা পেলে। তাতে লেখা ছিল, পাঁচ সের সন্দেশ আর একখানা কাপড় পাঠাইবে। সেইটুকু পড়ে লয়ে সে আবার চিঠিখানা ফেলে দিলে। তখন আর চিঠির কি দরকার। এখন পাঁচ সের সন্দেশ আর একখানা কাপড় কিনে পাঠালেই হবে।”

"But one should learn the contents of the scriptures and then act according to their injunctions. A man lost a letter. He couldn't remember where he had left it. He began to search for it with a lamp. After two or three people had searched, the letter was at last found. The message in the letter was: 'Please send us five seers of sandesh and a piece of wearing-cloth.' The man read it and then threw the letter away. There was no further need of it; now all he had to do was to buy the five seers of sandesh and the piece of cloth.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द परम्परा में पठन, श्रवण और दर्शन का अनुक्रम (sequence) 🔆

[शिक्षा देने का कौशल  ~ The Art of Teaching : পঠন, শ্রবণ ও দর্শনের তারতম্য ]

“पढ़ने की अपेक्षा सुनना बेहतर है, सुनने से देखना बेहतर है । श्रीगुरु-मुख से था साधु के मुख से श्रवण  पर धारणा अच्छी होती है, क्योंकि फिर शास्त्रों के असार-भाग के सोचने की आवश्यकता नहीं रहती । हनुमान  ने कहा था, 'भाई, मैं तिथि और नक्षत्र यह सब कुछ नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करता रहता हूँ ।'  

[“পড়ার চেয়ে শুনা ভাল, — শুনার চেয়ে দেখা ভাল। গুরুমুখে বা সাধুমুখে শুনলে ধারণা বেশি হয়, — আর শাস্ত্রের অসার ভাগ চিন্তা করতে হয় না।“হনুমান বলেছিল, ‘ভাই, আমি তিথি-নক্ষত্র অত সব জানি না — আমি কেবল রামচিন্তা করি।’

"Better than reading is hearing, and better than hearing is seeing. One understands the scriptures better by hearing them from the lips of the guru or of a holy man. Then one doesn't have to think about their non-essential part. Hanuman said: 'Brother, I don't know much about the phase of the moon or the position of the stars. I just contemplate Rama.'

“सुनने की अपेक्षा देखना और अच्छा है । देखने पर सब सन्देह मिट जाते हैं । शास्त्रों में तो बहुत सी बातें हैं, परन्तु यदि ईश्वर के दर्शन न हुए - उनके चरणकमलों में भक्ति न हुई - चित्त शुद्ध न हुआ तो सब वृथा है । पंचांग में लिखा है, वर्षा बीस बिस्वे की होगी, परन्तु पंचांग दबाने से कहीं एक बूँद भी पानी नहीं गिरता । एक बूंद गिरे, सो भी नहीं ।

[“শুনার চেয়ে দেখা আরও ভাল। দেখলে সব সন্দেহ চলে যায়। শাস্ত্রে অনেক কথা তো আছে; ঈশ্বরের সাক্ষাৎকার না হলে — তাঁর পাদপদ্মে ভক্তি না হলে — চিত্তশুদ্ধি না হলে — সবই বৃথা। পাঁজিতে লিখেছে বিশ আড়া জল — কিন্তু পাঁজি টিপ্‌লে এক ফোঁটাও পড়ে না! এক ফোঁটাই পড়, তাও না।”]

But seeing is far better than hearing. Then all doubts disappear. It is true that many things are recorded in the scriptures; but all these are useless without the direct realization of God, without devotion to His Lotus Feet, without purity of heart. The almanac forecasts the rainfall of the year. But not a drop of water will you get by squeezing the almanac. No, not even one drop.

[जैसे C-IN-C नवनीदा कहते थे, भाई मैं तिथि और नक्षत्र कुछ नहीं जानता , मैं तो बस ठाकुर-माँ -स्वामीजी स्मरण (दर्शन) करता रहता हूँ ! विवेक-दर्शन के अभ्यास से अगर प्रत्यक्ष ईश्वर-दर्शन ( direct realization of God) न हुआ, उनके चरण कमलों में भक्ति न हुई , चित्त शुद्ध न हुआ तो सब वृथा है।   

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

 🔆शास्त्रों पर तर्क-वितर्क कब तक ? - भगवान के दर्शन न होने तक !  🔆

[বিচার কতদিন — ঈশ্বরদর্শন পর্যন্ত ]

["How long one should reason about the texts of the scriptures?-Until God is seen]

“शास्त्रादि लेकर तर्क-वितर्क कब तक के लिए हैं ? - जब तक ईश्वर के दर्शन न हों । भौंरा कब तक गुँजार करता है ? - जब तक वह फूल पर बैठता नहीं । फूल पर बैठकर जब वह मधु पीने लगता है, तब फिर गुनगुनाता नहीं ।

[“শাস্ত্রাদি নিয়ে বিচার কতদিন? যতদিন না ঈশ্বরের সাক্ষাৎকার হয়। ভ্রমর গুনগুন করে কতক্ষণ? যতক্ষণ ফুলে না বসে। ফুলে বসে মধুপান করতে আরম্ভ করলে আর শব্দ নাই

"How long should one reason about the texts of the scriptures? So long as one does not have direct realization of God. How long does the bee buzz about? As long as it is not sitting on a flower. No sooner does it light on a flower and begin to sip honey than it keeps quiet.

 ,[(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆विज्ञानी की अवस्था -नेता (विज्ञानी) ईश्वरदर्शन के बाद भी बोल सकता है 🔆 

"परन्तु एक बात है, ईश्वर के दर्शनों के बाद भी बातचीत हो सकती है; वह बात ईश्वर के ही आनन्द की बात होगी - जैसे मतवाले का रुँधे गले से 'जय माँ काली ' बोलना, जैसे कोई भौंरा फूल का रस पी लेने के बाद, अर्धस्फुट शब्दों में गुंजार करता है ।

विज्ञानी - (भक्त या 'नेता') कौन है ? जो ईश्वरदर्शन करने के बाद भी बोल सकता है ! विज्ञानी की अवस्था बताकर ठाकुर शायद अपनी ही अवस्था की ओर संकेत कर रहे हैं !

["তবে একটি আছে, ঈশ্বরকে দর্শনের পরও কথা চলতে পারে। সে কথা কেবল ঈশ্বরেরই আনন্দের কথা, — যেমন মাতালের 'জয় কালী' বলা। আর ভ্রমর ফুলে ব'সে মধুপান করার পর আধ আধ স্বরে গুন গুন করে। বিজ্ঞানীর নাম করিয়া ঠাকুর বুঝি নিজের অবস্থা ইঙ্গিতে বলিতেছেন। 

"But you must remember, another thing (विज्ञानी की अवस्था) . One may talk even after the realization of God. But then one talks only of God and of Divine Bliss. It is like a drunkard's crying, 'Victory to the Divine Mother!' He can hardly say anything else on account of his drunkenness. You can notice, too, that a bee makes an indistinct humming sound after having sipped the honey from a flower.

"ज्ञानी ‘नेति नेति’ विचार करता है । इस तरह विचार करते हुए जहाँ उसे आनन्द की प्राप्ति होती है, वही ब्रह्म है ।

“ज्ञानी का स्वभाव कैसा है, जानते हो ? ज्ञानी कानून (शास्त्रों ) के अनुसार चलता है । (अर्थात शास्त्रों के आदेश  अनुसार व्यवहार करता है। ) 

["জ্ঞানী 'নেতি নেতি' বিচার করে। এই বিচার করতে করতে যেখানে আনন্দ পায় সেই ব্রহ্ম।""জ্ঞানীর স্বভাব কিরূপ? — জ্ঞানী আইন অনুসারে চলে।

{"The jnani reasons about the world through the process of 'Neti, neti', 'Not this, not this'. Reasoning in this way, he at last comes to a state of Bliss, and that is Brahman. What is the nature of a jnani? He behaves according to scriptural injunctions.

"मुझे चानक ले गये थे । वहाँ मैने कई साधुओं को देखा । उनमें कोई कोई कपड़ा सी रहे थे । (सब हँसते हैं ।) मेरे जाने पर वह सब अलग रख दिया । फिर पैर पर पैर चढ़ाकर मुझसे बातचीत करने लगे। (सब हँसते हैं।)

["আমায় চানকে নিয়ে গিয়েছিল। সেখানে কতকগুলি সাধু দেখলাম। তারা কেউ কেউ সেলাই করছিল। (সকলের হাস্য)। আমরা যাওয়াতে সে সব ফেললে। তারপর পায়ের উপর পা দিয়ে ব'সে আমাদের সঙ্গে কথা কইতে লাগল। (সকলের হাস্য)।

"Once I was taken to Chanak and saw some sadhus there. Several of them were sewing. (All laugh.) At the sight of us they threw aside their sewing. They sat straight, crossing their legs, and conversed with us. (All laugh.)

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

 🔆चुंबक का पहाड़ (ईश्वर) के पास से जो जहाज गुजरा  'विज्ञानी' के आठों पाश खुल जाते हैं 🔆  

 [ज्ञानी पूछते हैं -तुम कैसे हो ? घर के सभी लोग कैसे हैं ?]

"परन्तु ईश्वर की बात बिना पूछे ज्ञानी उस सम्बन्ध में खुद कुछ नहीं बोलते । पहले वे पूछेंगे, इस समय कैसे हो ? - घरवाले अब कैसे हैं ?

{"কিন্তু ঈশ্বরীয় কথা জিজ্ঞাসা না করলে জ্ঞানীরা সে সব কথা কয় না। আগে জিজ্ঞাসা করবে এখন, তুমি কেমন আছ। ক্যায়সা হ্যায় —'कैसा है ? বাড়ির সব কেমন আছে। }

"But jnanis will not talk about spiritual things without being asked. They will inquire, at first, about such things as your health and your family.

"परन्तु विज्ञानी का स्वभाव और ही । उसके स्वभाव में ढिलाई रहती है । कभी देखा, धोती कहीं, खुली हुई है । कभी बगल में दबी है - बच्चे की तरह ।

{"কিন্ত বিজ্ঞানীর স্বভাব আলাদা। তার এলান স্বভাব — হয়ত কাপড়-খানা আলগা — কি বগলের ভিতর — ছেলেদের মত!

"But the nature of the vijnani is different. He is unconcerned about anything. Perhaps he carries his wearing-cloth loose under his arm, like a child; or perhaps the cloth has dropped from his body altogether.

"ईश्वर हैं, यह जिसने जान लिया है, वह ज्ञानी है । लकड़ी में अवश्य ही आग है, यह जिसने जाना है, वह ज्ञानी है; परन्तु लकड़ी जलाकर भोजन पकाना, भरपेट खाना, यह जिसे आता है वह विज्ञानी है ।

"विज्ञानी के आठों पाश खुल जाते हैं । उनमें कामक्रोधादि का आकार मात्र रह जाता है ।"

{"ঈশ্বর আছেন এইটি জেনেছে, এর নাম জ্ঞানী। কাঠে নিশ্চিত আগুন আছে যে জেনেছে সেই জ্ঞানী। কিন্তু কাঠ জ্বেলে রাঁধা, খাওয়া, হেউ-ঢেউ হ'য়ে যাওয়া, তার নাম বিজ্ঞানী।"কিন্তু বিজ্ঞানীর অষ্টপাশ কনলে যায়, — কাম-ক্রোধাদির আকার মাত্র থাকে।"

"The man who knows that God exists is called a jnani. A jnani is like one who knows beyond a doubt that a log of wood contains fire. But a vijnani is he who lights the log, cooks over the fire, and is nourished by the food. The eight fetters have fallen from the vijnani. He may keep merely the appearance of lust, anger, and the rest."

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆क्या होता है जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन : जो एक साथ ही 'अपरा सत्ता एवं परम् सत्ता' भी  है 🔆

*हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं !*

[What happened when the Fishrman opened the pot ?मछुआरा और जिन्न की कहानी : एक गरीब मछुआरा ..... दिन भर में केवल तीन बार अपना जाल फेंकता था ....... मछलियाँ बेचकर गुजारा  ......   पहली बार जाल फेंका तो  ..... एक गधे का मृत शरीर ...... दूसरी बार जाल फेंका  ....... मन ही मन प्रार्थना करने लगा   ..... एक बड़ा घड़ा फंसा हुआ था। उसमें पत्थर, मिट्टी और कांच के टुकड़े भरे हुए थे ... ......  हाय ! यह कैसी परीक्षा, एक भी मछली हाथ नहीं आई। मछुआरा निराश हो गया,....... अब उसने आखरी बार जाल फेंका,  तीसरी बार भी जाल भारी, ......  अरे यह क्या, जाल में एक पीतल की सुराही थी, ....   इसे कम से कम 500 रूपये में बेच कर आज के खाने का इंतजाम तो कर ही लूंगा, ........  यह सोचते हुए मछुआरे ने सुराही को खोला,...... काला धुआं निकलने लगा। धुआं धीरे-धीरे फैल कर आसमान तक पहुंच गया, .... एक आकार उभरा। वह एक बड़ा भारी जिन्न था, जिन्न बोला,” मैं कई सदियों से सुराही में बंद पड़ा था, ...  अब मैं तुमको खा जाऊँगा,..... मछुआरे ने साहस करके जिन्न को बातों में लगाया, “ठीक है, मगर मेरी एक शंका है,....आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा - इतने बड़े आकर का -आसमान तक ऊँचा जिन्न इस छोटे से सुराही  में घुस कैसे सकता है ? ..... कहीं तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो ,....... लो! मैं अभी इसके अन्दर घुसकर दिखाता हूँ, ,,,,  वह अपने शरीर को सिकोड़ते हुए घड़े  के अन्दर घुस गया, .... मौक़ा पाते ही मछुआरे ने झट से घड़े का ढक्कन बंद कर दिया, .... जिन्न दुहाई देने लगा , .... “हजार साल और इसी तरह पड़े रहो” कहते हुए मछुआरे ने सुराही को समुद्र में वापिस फेंक दिया।  

What happened when the Fishrman opened the pot ?What happens when that 'Paratattva' is seen, which is simultaneously 'Aparma Satta and Param Satta'; When that 'Paratattva' which is simultaneously 'Aparna Satta and Param Satta'; is seen,  All the glands of the heart are opened,]

पण्डितजी - "भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशया: ? 

[পণ্ডিত — "ভিদ্যতে হৃদয়গ্রন্থিঃ ছিদ্যন্তে সর্বসংশয়াঃ।"

'The knots of his heart are cut asunder; all his doubts are destroyed.'

[भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया: ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे: ।। मुण्डक २-२-८

हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही 'अपरा सत्ता एवं परम् सत्ता' भी  है;[(that which is at once the being below and the Supreme -जो एक ही साथ देश-काल से परे -इन्द्रियातीत भी और देश-काल के भीतर -इन्द्रियगोचर नेता /गुरु / अवतार वरिष्ठ भी हैं !  ) 

श्रीरामकृष्ण - हाँ, एक जहाज समुद्र में जा रहा था । एकाएक उसके कल-पुर्जे, लोहा-लक्कड़ खुलने लगे । पास ही एक चुम्बक का पहाड़ था । इसीलिए लोहा सब अलग होकर निकला जा रहा था ।

{হাঁ, একখানা জাহাজ সমুদ্র দিয়ে যাচ্ছিল। হঠাৎ তার যত লহা-লক্কড়, পেরেক, ইস্ক্রু উপড়ে যেতে লাগল। কাছে চুম্বকের পাহাড় ছিল তাই সব লহা আল্‌গা হয়ে উপড়ে যেতে লাগল।}
"Yes. Once a ship sailed into the ocean. Suddenly its iron joints, nails, and screws fell out. The ship was passing a magnetic hill, and so all its iron was loosened.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆 ईश्वर (चुंबक का पहाड़) -दर्शन के बाद  विज्ञानी (नेता)  के रूप में ठाकुर की अवस्था 🔆

[পূর্বকথা — কৃষ্ণকিশোরের বাড়ি গমন — ঠাকুরের বিজ্ঞানীর অবস্থা ]

 मैं कृष्णकिशोर के घर जाता था । एक दिन गया तो उसने कहा, तुम पान क्यों खाते हो ? मैंने कहा, 'मेरी इच्छा मैं पान खाऊँगा, शीशे में मुँह देखूँगा, हजार औरतों के बीच में नंगा होकर नाचूँगा ।'

कृष्णकिशोर की स्त्री उसे डाँटने लगी । कहा, ‘तुम किसे यह सब कह रहे हो ? - रामकृष्ण को ?’

{"আমি কৃষ্ণকিশোরের বাড়ি যেতাম। একদিন গিয়েছি, সে বললে, তুমি পান কাও কেন? আমি বললাম, খুশি পান খাব — আরশিতে মুখ দেখব, — হাজার মেয়ের ভিতর ন্যাংটো হয়ে নাচব! কৃষ্ণকিশোরের পারিবার তাকে বকতে লাগলো — বলল তুমি কারে কি বল? — রামকৃষ্ণকে কি বলছো?

"I used to go to Krishnakishore's house. Once, when I was there, he said to me, 'Why do you chew betel-leaf?' I said: 'It is my sweet pleasure. I shall chew betel-leaf, look at my face in the mirror, and dance naked among a thousand girls.' (Because the Master was a Vijnani) Krishnakishore's wife scolded him and said: 'What have you said to Ramakrishna? You don't know how to talk to people.'}

"इस अवस्था के आने पर कामक्रोधादि दग्ध हो जाते हैं । शरीर में कुछ फर्क नहीं होता, वह दूसरे आदमियों के जैसा दिखायी देता है; पर भीतर पोल और निर्मल हो जाता है ।"

["এ অবস্থা হ'লে কাম-ক্রোধাদি দগ্ধ হ'ইয়ে যায়। শরীরের কিচ্ছু হয় না; অন্য লোকের শরীরের মত দেখতে সব — কিন্তু ভিতর ফাঁক আর নির্মল।

"In this state, passions like lust and anger are burnt up, though nothing happens to the physical body. It looks just like any other body; but the inside is all hollow and pure."

 ,[(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆ईश्वर-दर्शन के बाद (अष्टपाश खुलजाने के बाद) भी क्या शरीर रहता है ? 🔆

भक्त – ईश्वर-दर्शन के बाद (अष्टपाश खुल जाने के बाद) भी क्या शरीर रहता है ?

[ভক্ত — ঈশ্বরদর্শনের পরও শরীর থাকে?

 "Does the body remain even after the realization of God?"

श्रीरामकृष्ण - किसी किसी का कुछ कर्मों के लिए रह जाता है – लोक-शिक्षा के लिए । गंगा नहाने से पाप धुल जाता है और मुक्ति हो जाती है, परन्तु आँख का अन्धापन नहीं जाता; परन्तु इतना होता है कि पापों के लिए जिन कुछ जन्मों तक कर्मफल का भोग करना होता है, वे जन्म फिर नहीं होते । जिस चक्कर को वह लग चुका है, बस उसे ही वह पूरा कर जायेगा । बचे हुए के लिए फिर उसे चक्कर न लगाना होगा । कामक्रोधादि सब दग्ध हो जाते है; शरीर सिर्फ कुछ कर्मों के लिए रह जाता है ।

{"শ্রীরামকৃষ্ণ — কারু কারু কিছু কর্মের জন্য থাকে, — লোকশিক্ষার জন্য। গঙ্গাস্নানে পাপ যায় আর মুক্তি হয় — কিন্তু চক্ষু অন্ধ যায় না। তবে পাপের জন্য যে কয় জন্ম কর্মভোগ করতে হয় সে কয় জন্ম আর হয় না। যে পাক দিয়েছে সেই পাকটাই কেবল ঘুরে যাবে। (^The momentum of the actions of his previous birth, which has given rise to his present body.)বাকীগুলো আর হবে না। কামক্রোধাদি সব দগ্ধ হয়ে যায়, — তবে শরীরটা থাকে কিছু কর্মের জন্য।} 

MASTER: "The body survives with some so that they may work out their prarabdha karma or work for the welfare of others. By bathing in the Ganges a man gets rid of his sin and attains liberation. But if he happens to be blind, he doesn't get rid of his blindness. Of course, he escapes future births, which would otherwise be necessary for reaping the results of his past sinful karma. His present body remains alive as long as its momentum is not exhausted; but future births are no longer possible. The wheel moves as long as the impulse that has set it in motion lasts. Then it comes to a stop. In the case of such a person, passions like lust and anger are burnt up. Only the body remains alive to perform a few actions.

पण्डितजी - उसे ही संस्कार कहते हैं ।

[পণ্ডিত — ওকেই সংস্কার বলে।

PUNDIT: "That is called samskara."

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆विज्ञानी खुली आँखों  ध्यान करता है -ईश्वर को खोजने कहाँ जाते हो ? 🔆

श्रीरामकृष्ण - विज्ञानी सदा ही ईश्वर के दर्शन किया करता है । इसीलिए तो उसका इतना ढीला स्वभाव होता है । वह आँखें खोलकर भी ईश्वर के दर्शन करता है । कभी वह नित्य से लीला में आ जाता है और कभी लीला से नित्य में चला जाता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বিজ্ঞানী সর্বদা ঈশ্বরদর্শন করে — তাই তো এরূপ এলানো ভাব। চক্ষু চেয়েও দর্শন করে। কখনও নিত্য হতে লীলাতে থাকে, কখনও লীলা হতে নিত্যেতে যায়।]

MASTER: "The vijnani always sees God. That is why he is so indifferent about the world. He sees God even with his eyes open. Sometimes he comes down to the Lila from the Nitya, and sometimes he goes up to the Nitya from the Lila."

पण्डितजी - यह मैं नहीं समझा ।

[পণ্ডিত — এটি বুঝলাম না।

PUNDIT: "I don't understand that."

श्रीरामकृष्ण - 'नेति नेति' का विचार करके वह उसी नित्य और अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँच जाता है । वह इस तरह विचार करता है - वे न जीव हैं, न संसार हैं, न चौबीसों तत्व हैं । नित्य में पहुँचकर फिर वह देखता है, यह सब वे ही हुए हैं - जीव, जगत् और चौबीसों तत्त्व - यह सब ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — নেতি নেতি বিচার করে সেই নিত্য অখণ্ড সচ্চিদানন্দে পৌঁছয়। তারা এই বিচার করে — তিনি জীব নন, জগৎ নন, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব নন। নিত্যে পৌঁছে আবার দেখে — তিনি এই সব হয়েছেন — জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব।

MASTER: "The jnani reasons about the world through the process of 'Neti, neti', and at last reaches the Eternal and Indivisible Satchidananda. He reasons in this manner: 'Brahman is not the living beings; It is neither the universe nor the twenty-four cosmic principles.' As a result of such reasoning he attains the Absolute. Then he realizes that it is the Absolute that has become all this — the universe, its living beings, and the twenty-four cosmic principles.}

[(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆एक ही अनेक बन गया है ~ अतएव नित्य को मानो तो लीला भी माननी होगी 🔆

" एई संसार मजार कुटी , आमि खाई दाई आर मजा लूटी। 

"दूध का दही जमाकर, फिर उसे मथकर मक्खन निकाला जाता है । परन्तु मक्खन के निकल आने पर वह देखता है, जिस मट्ठे का मक्खन है, उसी मक्खन का मट्ठा भी है । छाल का ही गूदा है और गूदे की ही छाल ।"

[“দুধকে দই পেতে মন্থন করে মাখন তুলতে হয়। কিন্তু মাখন তোলা হলে দেখে যে, ঘোলেরই মাখন, মাখনেরই ঘোল। খোলেরই মাঝ, মাঝেরই খোল।”

"Milk sets into curd, and the curd is churned into butter. After extracting the butter one realizes that butter is not essentially different from buttermilk and buttermilk not essentially different from butter. The bark of a tree goes with the pith and the pith goes with the bark."

पण्डितजी - (भूधर से सहास्य) - समझे ? इसे समझना बहुत मुश्किल है ।

[পণ্ডিত (ভূধরের প্রতি, সহাস্যে) — বুঝলে? এ বুঝা বড় শক্ত!

PUNDIT (smiling, to Bhudar): "Did you understand that? It is very difficult."

[यहाँ पर अद्वैत वेदान्त का यह सिद्धान्त विशेषण ध्यातव्य है कि ब्रह्म से जगत् की उत्पत्ति होने पर भी जगत् ब्रह्म का परिणाम नहीं है अपितु ब्रह्म का विवर्त है। विवर्त का अर्थ है - अतात्विक परिवर्तन। ... अध्यास वश ब्रह्म को जगत् समझ लेना ही विवर्त है। व्यक्तिगत भगवान -श्रीरामकृष्ण  चेतना (चिन्मयी शक्ति-काली ) के अवतार-वरिष्ठ  है; और अवैयक्तिक भगवान हैं 'ब्रह्म ' अखण्ड सच्चिदानन्द  है। The Personal (वैयक्तिक भगवान ) is the embodiment of Chit, Consciousness; and the Impersonal is the Indivisible Satchidananda. ]

श्रीरामकृष्ण - मक्खन हुआ, तो मट्ठा भी हुआ है । मक्खन को सोचने लगे, तो साथ साथ मट्ठे को भी सोचता पड़ता है, क्योंकि मट्ठा न रहा तो मक्खन हो नहीं सकता । अतएव, नित्य को मानो तो लीला भी माननी होगी । अनुलोम और विलोम । साकार और निराकार के दर्शन कर लेने के बाद यह अवस्था है। साकार चिन्मय रूप है । और निराकार अखण्ड सच्चिदानन्द ।

 [শ্রীরামকৃষ্ণ — মাখন হয়েছে তো ঘোলও হয়েছে। মাখনকে ভাবতে গেলেই সঙ্গে সঙ্গে ঘোলকেও ভাবতে হয়, — কেননা ঘোল না থাকলে মাখন হয় না। তাই নিত্যকে মানতে গেলেই লীলাকেও মানতে হয়। অনুলোম ও বিলোম। সাকার-নিরাকার সাক্ষাৎকারের পর এই অবস্থা! সাকার চিন্ময়রূপ, নিরাকার অখণ্ড সচ্চিদানন্দ। 

MASTER: "If there is butter, there must be buttermilk also. If you think of butter, you must also think of buttermilk along with it; for there cannot be any butter without buttermilk. Just so, if you accept the Nitya, you must also accept the Lila. It is the process of negation and affirmation. You realize the Nitya by negating the Lila. Then you affirm the Lila, seeing in it the manifestation of the Nitya. One attains this state after realizing Reality in both aspects: Personal and Impersonal. The Personal is the embodiment of Chit, Consciousness; and the Impersonal is the Indivisible Satchidananda. 

"वे ही सब कुछ हुए हैं । इसीलिए विज्ञानी इस संसार को 'आनन्द की कुटिया' देखता है । और ज्ञानी के लिए यह संसार 'धोखे की टट्टी' है । रामप्रसाद ने गृहस्थ जीवन को 'धोखे की टट्टी' कहा है, इसीलिए किसी ने उत्तर दिया-

" एई संसार मजार कुटी , आमि खाई दाई आर मजा लूटी। 

ओरे बैद्य ^*नाहिको बुद्धि , बुझिस केवल मोटामूटि।।    

जनक राजा महातेजा तार किसेर छिल त्रुटि। 

से येदिक -ओदिक दूदिक रेखे खेयेछिल दूधेर बाटी।। " 

 'यह संसार आनन्द की कुटिया है । मैं खाता-पीता हूँ और मजा लूटता हूँ । अरे वैद्य, (^रामप्रसाद वैद्य जाति के थे।) तुझे बुद्धि भी नहीं है ? तू इतने उथले में है ? जरा राजर्षि जनक को तो देख, वे कितने तेजस्वी थे, उनको ज्ञान (Spirit) और कर्म (गृहस्थ जीवन world) में किसी चीज की कमी नहीं थी , क्योंकि वे दोनों ओर  वे संभालकर चलते थे, तभी तो दूध का कटोरा साफ कर देते थे !' (सब हँसते हैं।)

“তিনিই সব হয়েছেন, — তাই বিজ্ঞানীর ‘এই সংসার মজার কুটি’। জ্ঞানীর পক্ষে ‘এ সংসার ধোঁকার টাটি।’ রামপ্রসাদ ধোঁকার টাটি বলেছিল। তাই একজন জবাব দিয়েছিল, —

এই সংসার মজার কুটি, আমি খাই দাই আর মজা লুটি।

ওরে বদ্যি ^* নাহিক বুদ্ধি, বুঝিস কেবল মোটামুটি ৷৷

জনক রাজা মহাতেজা তার কিসের ছিল ক্রটি।

সে এদিক-ওদিক দুদিক রেখে খেয়েছিল দুধের বাটি ৷৷

(সকলের হাস্য)

"Brahman alone has become everything. Therefore to the vijnani this world is a 'mansion of mirth'. But to the jnani it is a 'framework of illusion', Ramprasad described the world as a 'framework of illusion'. Another man said to him by way of retort: 

This very world is a mansion of mirth;Here I can eat, here drink and make merry.

O physician (बैद्य ), you are a fool!(^Ramprasad belonged to the physician caste.)

You see only the surface of things.

RAJA +RISHI Janaka's might was unsurpassed (अन-सर्पास्ड, अद्वितीय)  ;

What did he lack of the world (कर्म)  or the Spirit (ज्ञान) ? 

Holding to one as well as the other,He drank his milk from a brimming cup!}

“विज्ञानी को विशेष रूप से ईश्वर का आनन्द मिला है । किसी ने दूध की बात-ही-बात सुनी है, किसी ने दूध देखा भर है और किसी ने दूध पिया है । विज्ञानी ने दूध पिया है, पीकर स्वाद लिया है और हृष्ट-पुष्ट भी हुआ है ।”

{“বিজ্ঞানী ঈশ্বরের আনন্দ বিশেষরূপে সম্ভোগ করেছে। কেউ দুধ শুনেছে, কেউ দেখেছে, কেউ খেয়েছে। বিজ্ঞানী দুধ খেয়েছে আর খেয়ে আনন্দলাভ করেছে ও হৃষ্টপুষ্ট হয়েছে।”

"The vijnani enjoys the Bliss of God in a richer way. Some have heard of milk, some have seen it, and some have drunk it. The vijnani has drunk milk, enjoyed it, and been nourished by it."

श्रीरामकृष्ण कुछ देर के लिए चुप हो गये । पण्डितजी से उन्होंने तम्बाकू पीने के लिए कहा । पण्डितजी दक्षिण-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में तम्बाकू पीने चले गये ।

[ঠাকুর একটু চুপ করিলেন ও পণ্ডিতকে তামাক খাইতে বলিলেন। পণ্ডিত দক্ষিণ-পূর্বের লম্বা বারান্দায় তামাক খাইতে গেলেন।

The Master remained silent a few moments and then asked Pundit Shashadhar to have a smoke. The pundit went to the southeast verandah to smoke.

(३)

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆 विषयानन्द , भजनानन्द और ब्रह्मानन्द  -श्रीरामकृष्ण और प्राचीनकाल के ऋषि 🔆 

[জ্ঞান ও বিজ্ঞান — ঠাকুর ও বেদোক্ত ঋষিগণ]

पण्डितजी लौटकर फिर से भक्तों के साथ जमीन पर बैठ गये । श्रीरामकृष्ण छोटी खटिया पर बैठकर फिर वार्तालाप करने लगे ।

[পণ্ডিত ফিরিয়া আসিয়া আবার ভক্তদের সঙ্গে মেঝেতে বসিলেন। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া আবার কথা কহিতেছেন।

 Soon he came back to the room and sat on the floor with the devotees. Seated on the small couch, the Master continued the conversation.

श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - यह बात तुमसे कहता हूँ । आनन्द तीन प्रकार के होते हैं - विषयानन्द, भजनानन्द और ब्रह्मानन्द । जिसमें लोग सदा ही लिप्त रहते हैं - जो कामिनी और कांचन का आनन्द है, उसे विषयानन्द कहते हैं । ईश्वर के नाम और गुणों का गान करने से जो आनन्द मिलता है, उसका नाम है भजनानन्द और ईश्वर के दर्शन में जो आनन्द है, उसका नाम है ब्रह्मानन्द । ब्रह्मानन्द को प्राप्त करके ऋषि स्वेच्छा-विहारी हो जाते थे । (क्या ज्ञानी ऋषि भी शास्त्र-निसिद्ध कर्म कर बैठते थे ?)

{শ্রীরামকৃষ্ণ (পণ্ডিতের প্রতি) — তোমাকে এইটে বলি। আনন্দ তিন প্রকার — বিষয়ানন্দ, ভজনানন্দ ও ব্রহ্মানন্দ। যা সর্বদাই নিয়ে আছে — কামিনী-কাঞ্চনের আনন্দ — তার নাম বিষয়ানন্দ। ঈশ্বরের নামগুণগান করে যে আনন্দ তার নাম ভজনান্দ। আর ভগবান দর্শনের যে আনন্দ তার নাম ব্রহ্মানন্দ। ব্রহ্মানন্দলাভের পর ঋষিদের স্বেচ্ছাচার হয়ে যেত।]

MASTER (to the pundit): "Let me tell you something. There are three kinds of ananda, joy: the joy of worldly enjoyment, the joy of worship, and the Joy of Brahman. The joy of worldly enjoyment is the joy of 'woman and gold', which people always enjoy. The joy of worship one enjoys while chanting the name and glories of God. And the Joy of Brahman is the joy of God-vision. After experiencing the joy of God-vision the rishis of olden times went beyond all rules and conventions.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆जड़ समाधि और भक्ति-योगी (विज्ञानी) की समाधि को चेतन समाधि कहते हैं 🔆

[God is the Master; the devotee is the servant.]  

“चैतन्यदेव की तीन तरह की अवस्थाएँ होती थी - अन्तर्दशा, अर्धबाह्यदशा और बाह्यदशा । अन्तर्दशा में (सबसे अन्दर की अवस्था में ) वे ईश्वर का दर्शन करके समाधिस्थ हो जाया करते थे – जड़-समाधि की अवस्था हो जाती थी । अर्धबाह्यदशा में बाहर का कुछ होश रहता था । बाह्यदशा में नाम और गुणों का कीर्तन करते थे ।"

[“চৈতন্যদেবের তিনরকম অবস্থা হত — অন্তর্দশা, অর্ধবাহ্যদশা ও বাহ্যদশা। অন্তর্দশায় ভগবানদর্শন করে সমাধিস্থ হতেন, — জড়সমাধির অবস্থা হত। অর্ধবাহ্যে একটু বাহিরের হুঁশ থাকত। বাহ্যদশায় নামগুণকীর্তন করতে পারতেন।”

"Chaitanyadeva used to experience three spiritual states: the inmost, the semi-conscious, and the conscious. In the inmost state he would see God and go into samadhi. He would be in the state of jada samadhi. In the semiconscious state he would be partially conscious of the outer world. In the conscious state he could sing the name and glories of God."] 

हाजरा - (पण्डितजी से) - अब तो आपके सब सन्देह मिट गये न ?

[হাজরা (পণ্ডিতের প্রতি) — এইতো সব সন্দেহ ঘুচান হল।

HAZRA (to the pundit): "So your doubts are now solved."

श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - समाधि किसे कहते हैं ? जहाँ मन का लय हो जाता है । ज्ञानी को जड़-समाधि होती है - फिर 'अहं' नहीं रह जाता । भक्तियोगी (विज्ञानी) की समाधि को चेतन-समाधि कहते हैं । इसमें सेव्य और सेवक का 'मैं' रहता है - रस-रसिक का 'मै' - स्वाद के विषय और स्वाद लेनेवाले का 'मैं' । ईश्वर सेव्य हैं और भक्त सेवक; ईश्वर रस-स्वरूप हैं और भक्त रसिक । ईश्वर स्वाद के विषय हैं और भक्त स्वाद लेनेवाले । वह चीनी नहीं बन जाता, चीनी खाना पसन्द करता है ।

.{শ্রীরামকৃষ্ণ (পণ্ডিতের প্রতি) — সমাধি কাকে বলে? — যেখানে মনের লয় হয়। জ্ঞানীর জড়সমাধি হয়, — ‘আমি’ থাকে না। ভক্তিযোগের সমাধিকে চেতনসমাধি বলে। এতে সেব্য-সেবকের ‘আমি’ থাকে — রস-রসিকের ‘আমি’ — আস্বাদ্য-আস্বাদকের ‘আমি’। ঈশ্বর সেব্য — ভক্ত সেবক; ঈশ্বর রসস্বরূপ — ভক্ত রসিক; ঈশ্বর আস্বাদ্য — ভক্ত আস্বাদক। চিনি হব না, চিনি খেতে ভালবাসি।

MASTER (to the pundit): "What is samadhi? It is the complete merging of the mind in God-Consciousness. The jnani experiences jada samadhi, in which no trace of 'I' is left. The samadhi attained through the path of bhakti is called 'chetana samadhi'. In this samadhi there remains the consciousness of 'I' — the 'I' of the servant-and-Master relationship, of the lover-and-Beloved relationship, of the enjoyer-and-Food relationship. God is the Master; the devotee is the servant. God is the Beloved; the devotee is the lover. God is the Food, and the devotee is the enjoyer. 'I don't want to be sugar. I want to eat it.'"} 

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆'माँ कौशल्ये, एक बार खोलकर कहो ! 🔆

पण्डितजी - वे अगर सम्पूर्ण 'मैं' का लय कर दें तो क्या हो ? अगर चीनी बना लें तो ?

[পণ্ডিত — তিনি যদি সব ‘আমি’ লয় করেন তাহলে কি হবে? চিনি যদি করে লন?

PUNDIT: "What will happen if God dissolves all of the 'I', if He changes the enjoyer himself into sugar?"

 [इसी भय ने 'सिंह-शावक' को 'भेंड़' बनाकर रखा है ! ]

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम अपने मन की बात खोलकर कहो । 'माँ कौशल्ये, एक बार खोलकर कहो!' (सब हँसते हैं ।) तो क्या नारद, सनक, सनातन, सनन्द, सनत्कुमार आदि भक्तों का उल्लेख शास्त्रों में नहीं है ?

{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তোমার মনের কথা খুলে বল। “মা কৌশল্যা, একবার প্রকাশ করে বল!” (সকলের হাস্য) তবে কি নারদ, সনক, সনাতন, সনন্দ, সনৎকুমার শাস্ত্রে নাই?

MASTER (smiling): "Come, come! Tell me what is in your mind. But don't the scriptures mention Narada, Sanaka, Sanatana, Sananda, and Sanatkumara?"}

ण्डितजी - जी हाँ, शास्त्रों में हैं ।

[পণ্ডিত — আজ্ঞা হাঁ, শাস্ত্রে আছে।

PUNDIT: "Yes, sir. They do."

श्रीरामकृष्ण - उन लोगों ने ज्ञानी होकर भक्त का 'मैं' रख छोड़ा था । तुमने भागवत नहीं पढ़ा ?

[MASTER: "Though they were jnanis, yet they kept the 'I' of the bhakta. Haven't you read the Bhagavata?"

पण्डितजी - कुछ पढ़ा है, सब नहीं ।

[PUNDIT: "I have read only part of it, not the whole."

श्रीरामकृष्ण - प्रार्थना करो । वे दयामय हैं । क्या वे भक्त की बात न सुनेंगे ? वे कल्पतरु हैं । उनके पास पहुँचकर जो जो प्रार्थना करेगा, वह वही पायेगा

[শ্রীরামকৃষ্ণ — প্রার্থনা কর। তিনি দয়াময়। তিনি কি ভক্তের কথা শুনেন না? তিনি কল্পতরু। তাঁর কাছে গিয়ে যে যা চাইবে তাই পাবে।

MASTER: "Pray to God. He is full of compassion. Will He not listen to the words of His devotee? He is the Kalpataru. You will get whatever you desire from Him."

पण्डितजी - मैंने यह सब इतना नहीं सोचा । अब सब समझ रहा हूँ ।

[পণ্ডিত — আমি তত এ-সব চিন্তা করি নাই। এযন সব বুঝছি।

PUNDIT: "I haven't thought deeply about these things before. But now I understand."

श्रीरामकृष्ण - ब्रह्मज्ञान के बाद भी ईश्वर कुछ 'मैं' रख देते हैं । वह 'मैं' भक्त का ‘मैं’ है - विद्या का 'मैं'। उससे इस अनन्त लीला का स्वाद मिलता है । मूसल सब घिस गया था, थोड़ा-सा रह गया था। बेत के वन में गिरकर उसने कुल का कुल नष्ट कर दिया - यदुवंश का इसी तरह ध्वंस हुआ । उसी तरह विज्ञानी भक्त का 'मैं' - विद्या का 'मैं' रखते हैं – लोक-शिक्षण के लिए ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্রহ্মজ্ঞানের পরও ঈশ্বর একটু ‘আমি’ রেখে দেন। সেই ‘আমি’ — “ভক্তের আমি” “বিদ্যার আমি।” তা হতে এ অনন্ত লীলা আস্বাদন হয়। মুষল সব ঘষে একটু তাতেই আবার উলুবনে পড়ে কুলনাশন — যদুবংশ ধ্বংস হল। বিজ্ঞানী তাই এই “ভক্তের আমি” “বিদ্যার আমি” রাখে আস্বাদনের জন্য, লোকশিক্ষার জন্য।}

MASTER: "God keeps a little of 'I' in His devotee even after giving him the Knowledge of Brahman. That 'I' is the 'I of the devotee', the 'I of the jnani'. Through that 'I' the devotee enjoys the infinite play of God (Bh?)."The pestle was almost worn out with rubbing. Only a little was left. That fell into the underbrush and brought about the destruction of the lunar race *, the race of the Yadus. The vijnani retains the 'I of the devotee', the 'I of the jnani', in order to taste the Bliss of God and teach people.

[(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

 🔆वेदान्त Be and Make ' लीडरशिप ट्रेनिंग-पर एक नई रोशनी 🔆

[ঋষিরা ভয়তরাসে — A new light on the Vedanta-Leadership]

 🔆तुम खुद एक मुक्त मनुष्य बनो और दूसरों को भी भ्रममुक्त बनने में सहायता करो ! 🔆

"प्राचीनकाल के ऋषि डरपोक थे । उनका यह भाव था कि किसी तरह स्वयं पार हो जायँ, फिर कौन आता है ? सड़ी लकड़ी किसी तरह खुद तो बह जाती है, परन्तु उस पर अगर एक पक्षी भी बैठ जाय तो वह डूब जाती है। नारदादि बहादुर लकड़ी हैं, खुद भी बहते जाते हैं और कितने ही जीवों को भी साथ ले जाते हैं । स्टीम बोट (जहाज) खुद भी पार हो जाता है और दूसरों को भी पार कर देता है ।

[“ঋষিরা ভয়তরাসে। তাদের ভাব কি জান? আমি জো-সো করে যাচ্ছি আবার কে আসে? যদি কাঠ আপনি জো-সো করে ভেসে যায় — কিন্তু তার উপর একটি পাখি বসলে ডুবে যায়। নারদাদি বাহাদুরী কাঠ, আপনিও ভেসে যায়, আবার অনেক জীবজন্তুকেও নিয়ে যেতে পারে। স্টীমবোট (কলের জাহাজ) — আপনিও পার হয়ে যায় এবং অপরকে পার করে নিয়ে যায়।"

The rishis of old had timid natures. They were easily frightened. Do you know their attitude? It was this: 'Let me somehow get my own salvation; who cares for others?' A hollow piece of drift-wood somehow manages to float; but it sinks if even a bird sits on it. But Narada and sages of his kind are like a huge log that not only can float across to the other shore but can carry many animals and other creatures as well. A steamship itself crosses the ocean and also carries people across.

"नारदादि आचार्य विज्ञानी हैं - दूसरे ऋषियों की अपेक्षा साहसी हैं । जैसे पक्का खिलाड़ी, जैसा चाहता है, वैसे ही पासे पड़ते हैं - प्रत्येक बार बिलकुल ठीक ! पाँच कहो, पाँच पड़े, छः कहो छः - नारदादि ऐसे खिलाड़ी हैं । वह अपनी शान में, रह रहकर, मूछों पर ताव देता रहता है ।

[“নারদাদি আচার্য বিজ্ঞানী, — অন্য ঋষিদের চেয়ে সাহসী। যেমন পাকা খেলোয়াড় ছকবাঁধা খেলা খেলতে পারে। কি চাও, ছয় না পাঁচ? ফি বারেই ঠিক পড়ছে! — এমনি খেলোয়াড়! — সে আবার মাঝে মাঝে গোঁপে তা দেয়।

"Teachers like Narada belong to the class of the vijnani. They were much more courageous than the other rishis. They are like an expert satrancha-player. You must have noticed how he shouts, as he throws the dice: "What do I want? Six? No, five! Here is five!' And every time he throws the dice he gets the number he wants. He is such a clever player! And while playing he even twirls his moustaches.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆नित्य और लीला दोनों को सत्य मानना -जैसे दोनों हाथ उठाकर नाचना 🔆 

"जो सिर्फ ज्ञानी हैं, उन्हें डर लगा रहता है । जैसे शतरंज खेलते समय कच्चे खिलाड़ी सोचते हैं, किसी तरह गोटी उठ जाय तो जी बचे । विज्ञानी (नेता) को किसी बात का डर नहीं है । उसने साकार और निराकार दोनों को देखा है । ईश्वर के साथ उसने बातचीत की है - ईश्वर का आनन्द पाया है - उनका स्मरण करते हुए अगर उसका मन अखण्ड सच्चिदानन्द में लीन हो जाता है, तो भी उसे आनन्द है, और अगर मन लीन न हो तो लीला में रखकर भी आनन्द पाता है ।

{ “শুধু জ্ঞানী যারা, তারা ভয়তরাসে। যেমন সতরঞ্চ খেলায় কাঁচা লোকেরা ভাবে, জো-সো করে একবার ঘুঁটি উঠলে হয়। বিজ্ঞানীর কিছুতেই ভয় নাই। সে সাকার-নিরাকার সাক্ষাৎকার করেছে! — ঈশ্বরের আনন্দ সম্ভোগ করেছে!“তাঁকে চিন্তা করে, অখণ্ডে মন লয়ে হলেও আনন্দ, — আবার মন লয় না হলেও লীলাতে মন রেখেও আনন্দ।

"A mere jnani trembles with fear. He is like an amateur satrancha-player; He is anxious to move his pieces somehow to the safety zone, where they won't be overtaken by his opponent. But a vijnani isn't afraid of anything. He has realized both aspects of God: Personal and Impersonal. He has talked with God. He has enjoyed the Bliss of God. "It is a joy to merge the mind in the Indivisible Brahman through contemplation. And it is also a joy to keep the mind on the Lila, the Relative, without dissolving it in the Absolute.

"जो केवल ज्ञानी है, वह एक ही प्रकार के बहाव में पड़ा रहता है । बस यही सोचता रहता है कि यह नहीं, यह नहीं - यह सब स्वप्नवत् है ! मैंने दोनों हाथ ऊपर उठा दिये हैं, इसलिए मैं सब कुछ लेता हूँ सुनो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ ।

[“শুধু জ্ঞানী একঘেয়ে, — কেবল বিচার কচ্চে ‘এ নয় এ নয়, — এ-সব স্বপ্নবৎ।’ আমি দুহাত ছেড়ে দিয়েছি, তাই সব লই।

 "A mere jnani is a monotonous person. He always analyses, saying: 'It is not this, not this. The world is like a dream.' But I have 'raised both my hands'. Therefore I accept everything.

“एक स्त्री अपनी एक पहचानवाली स्त्री से मिलने गयी जो जुलाहिन थी । यह जुलाहिन उस समय सूत कात रही थी - कितने ही तरह के रेशम के सूत । अपनी साथिन को देखकर उसे बड़ी खुशी हुई । उसने कहा आओ तुम्हारा स्वागत है, मुझे बड़ा आनन्द हुआ है, तुम जरा बैठो, मैं जाकर तुम्हारे लिए कुछ मिठाई ले आऊँ । और यह कहकर वह बाहर चली गयी ।

इधर तरह तरह के रंगीन रेशम के सूत देखकर उस स्त्री को लालच हो आया और उसने झट कुछ सूत बगल में छिपा लिया । कुछ समय बाद जुलाहिन मिठाई लेकर वापस आयी और बड़े उत्साह से उस स्त्री को खिलाने लगी, परन्तु थोड़ी ही देर में जब उसकी नजर अपने सूत पर पड़ी तो वह समझ गयी कि इस स्त्री ने मेरा कुछ सूत दबा लिया है । निदान उसने सूत वसूल करने का एक उपाय सोच निकाला ।

[“একজন ব্যানের সঙ্গে দেখা করতে গিয়েছিল। ব্যান তখন সুতা কাটছিল, নানারকমের রেশমের সুতা। ‘ব্যান’ তার ব্যানকে দেখে খুব আনন্দ করতে লাগল; — আর বললে — ‘ব্যান, তুমি এসেছ বলে আমার যে কি আনন্দ হয়েছে, তা বলতে পারি না, — যাই তোমার জন্য কিছু জলখাবার আনিগে।’ ব্যান জলখাবার আনতে গেছে, — এদিকে নানা রঙের রেশমের সুতা দেখে এ-ব্যানের লোভ হয়েছে। সে একতাড়া সুতা বগলে করে লুকিয়ে ফেললে। ব্যান জলখাবার নিয়ে এল; — আর অতি উৎসাহের সহিত — জল খাওয়াতে লাগল। কিন্তু সুতার দিকে দৃষ্টিপাত করে বুঝতে পারলে যে, একতাড়া সুতো ব্যান সরিয়েছেন। তখন সে সুতোটা আদায় করবার একটা ফন্দি ঠাওরালে।

"Listen to a story. Once a woman went to see her weaver friend. The weaver, who had been spinning different kinds of silk thread, was very happy to see her friend and said to her: 'Friend, I can't tell you how happy I am to see you. Let me get you some refreshments.' She left the room. The woman looked at the threads of different colours and was tempted. She hid a bundle of thread under one arm. The weaver returned presently with the refreshments and began to feed her guest with great enthusiasm. But, looking at the thread, she realized that her friend had taken a bundle. 

"उसने कहा, 'सखी ! आज तो बहुत दिनों के बाद तुमसे मुलाकात हुई है । आज बड़े आनन्द का दिन है । मेरी बड़ी इच्छा है, आओ हम दोनों आज नाचें ।' दूसरी स्त्री ने कहा, 'आनन्द की बात तो कुछ न पूछो । तुम्हारी इच्छा है, तो ठीक ही है ।' खैर दोनों स्त्रियाँ नाचने लगीं । पर जुलाहिन ने देखा कि वह स्त्री दोनों हाथ ऊपर उठाकर नहीं नाच रही है

तब उसने कहा, आओ हम लोग दोनों हाथ उठाकर नाचें - आज तो बड़े आनन्द का दिन है, परन्तु दूसरी स्त्री ने एक हाथ ज्यों का त्यों दबाये ही रखा, केवल एक हाथ उठाकर नाची ! तब जुलाहिन ने कहा, 'अरे यह क्या, आओ मैं दोनों हाथ उठाये हूँ ।' पर दूसरी स्त्री एक बगल दबाकर ही नाचती रही और कहा, भाई जिसे जैसा आता है !"

[“সে বলছে, ‘ব্যান, অনেকদিনের পর তোমার সহিত সাক্ষাৎ হল। আজ ভারী আনন্দের দিন। আমার ভারী ইচ্ছা কচ্ছে যে দুজনে নৃত্য করি।’ সে বললে — ‘ভাই, আমারও ভারী আনন্দ হয়েছে।’ তখন দুই ব্যানে নৃত্য করতে লাগল। ব্যান দেখলে যে, ইনি বাহু না তুলে নৃত্য করছেন। তখন তিনি বললেন, ‘এস ব্যান দুহাত তুলে আমরা নাচি, — আজ ভারী আনন্দের দিন।’ কিন্তু তিনি একহাতে বগল টিপে আর-একটি হাত তুলে নাচতে লাগলেন! তখন ব্যান বললেন, ‘ব্যান ওকি! একহাত তুলে নাচা কি, এস দুহাত তুলে নাচি। এই দেখ, আমি দুহাত তুলে নাচছি।’ কিন্তু তিনি বগল টিপে হেসে হেসে একহাত তুলেই নাচতে লাগলেন আর বললেন, ‘যে যেমন জানে ব্যান!’

Hitting upon a plan to get it back, she said: 'Friend, it is so long since I have seen you. This is a day of great joy for me. I feel very much like asking you to dance with me.' The friend said, 'Sister, I am feeling very happy too.' So the two friends began to dance together. When the weaver saw that her friend danced without raising her hands, she said: 'Friend, let us dance with both hands raised. This is a day of great joy.' But the guest pressed one arm to her side and danced raising only the other. The weaver said: 'How is this, friend? Why should you dance, with only one hand raised? Dance with me raising both hands. Look at me. See how I dance with both hands raised.' But the guest still pressed one arm to her side. She danced with the other hand raised and said with a smile, 'This is all I know of dancing.'"

फिर श्रीरामकृष्ण कहने लगे, "मैं बगल में कुछ दबाता नहीं, मैंने दोनों हाथ उठा दिये हैं, इसलिए मैं नित्य (इन्द्रियातीत सत्य) और लीला (इन्द्रियगोचर सत्य) दोनों को स्वीकार करता हूँ ।

{“আমি বগলে হাত দিয়ে টিপি না, — আমি দুহাত ছেড়ে দিয়েছি — আমার ভয় নাই। তাই আমি নিত্য (इन्द्रियातीत सत्य) -লীলা (इन्द्रियगोचर सत्य) দুই লই।”} 

 The Master continued: "I don't press my arm to my side. Both my hands are free. I am not afraid of anything. I accept both the Nitya and the Lila, both the Absolute and the Relative.

क्या ठाकुर यह कहना चाह रहे हैं कि ज्ञानी में नाम-यश पाने की इच्छा होती है , या मुक्ति पाने की इच्छा रहती है - इसीलिए वह अपने दोनों हाथों को उठाकर नृत्य नहीं कर सकता ? नित्य और लीला दोनों को एक समान स्वीकार नहीं कर सकता ?  और ज्ञानी को भय रहता हैं , कहीं कर्मों से बंध न जाऊँ , लेकिन विज्ञानी को कोई भय नहीं होता ?

[ঠাকুর কি বলিতেছেন যে জ্ঞানীর লোকমান্য হবার কামনা জ্ঞানীর মুক্তি কামনা — এই সব থাকে বলে দুহাত তুলে নাচতে পারে না? নিত্য-লীলা দুই নিতে পারে না? আর জ্ঞানীর ভয় আছে, বদ্ধ হই, — বিজ্ঞানীর ভয় নাই?

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆विज्ञानी (नेता) कच्चा 'मैं' को पक्का 'मैं' रूपान्तरित कर लेता है 🔆 

"केशव सेन से मैंने कहा, 'मैं' का त्याग बिना किये कुछ होने का नहीं । उसने कहा, तब तो महाराज, दल-बल कुछ रह नहीं जाता । तब मैंने कहा, कच्चे 'मैं', दुष्ट 'मैं' को छोड़ने के लिए कहता हूँ । परन्तु पक्के 'मैं' में, ईश्वर के दास 'मैं' में, बालक के 'मैं' में, विद्या के 'मैं' में दोष नहीं। 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেশব সেনকে বললা যে, ‘আমি’ ত্যাগ না করলে হবে না। সে বললে, তাহলে মহাশয় দলটল থাকে না। তখন আমি বললাম, “কাঁচা আমি,” “বজ্জাত আমি” — ত্যাগ করতে বলছি, কিন্তু “পাকা আমি” — “বালকের আমি”, “ঈশ্বরের দাস আমি”, “বিদ্যার আমি” — এতে দোষ নাই। “

"I said to Keshab Sen that he would not be able to realize God without renouncing the ego. He said, 'Sir, in that case I should not be able to keep my organization together.' Thereupon I said to him: 'I am asking you to give up the "unripe ego", the "wicked ego". But there is no harm in the "ripe ego", the "child ego", the "servant ego", the "ego of Knowledge".'

संसारियों का 'मैं' - अविद्या का 'मैं', कच्चा 'मैं' है; यह मोटी लाठी की तरह है । सच्चिदानन्द-सागर के पानी को वही लाठी दो भागों में बाँट रही है । परन्तु ईश्वर का दास 'मैं', बालक का 'मैं' या विद्या का 'मैं' पानी के ऊपर की पानी की रेखा की तरह है । पानी एक है; साफ नजर आ रहा है, केवल बीच में एक रेखा खिंची हुई, मानो पानी के दो भाग कर रही है । वस्तुतः पानी एक है - साफ दीख पड़ रहा है।

{সংসারীর আমি” — “অবিদ্যার আমি” — “কাঁচা আমি” — একটা মোটা লাঠির ন্যায়। সচ্চিদানন্দসাগরের জল ওই লাঠি যেন দুই ভাগ করেছে। কিন্তু “ঈশ্বরের দাস আমি,” “বালকের আমি,” “বিদ্যার আমি” জলের উপর রেখার ন্যায়। জল এক, বেশ দেখা যাচ্ছে — শুধু মাঝখানে একটি রেখা, যেন দুভাগ জল। বস্তুতঃ একজল, — দেখা যাচ্ছে।

"The worldly man's ego, the 'ignorant ego', the 'unripe ego', is like a thick stick. It divides, as it were, the water of the Ocean of Satchidananda. But the 'servant ego', the 'child ego', the 'ego of Knowledge', is like a line on the water. One clearly sees that there is only one expanse of water. The dividing line makes it appear that the water has two parts, but one clearly sees that in reality there is only one expanse of water.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆 ब्रह्मविद का मैं - 'भक्त का मैं ' (माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट मैं) 🔆

[ব্রহ্মজ্ঞানলাভের পর “ভক্তের আমি” — গোপীভাব ]

शंकराचार्य ने विद्या का 'मैं' रखा था - लोकशिक्षा के लिए ।“ब्रह्मज्ञान के हो जाने पर भी वे अनेकों में विद्या का 'मैं'~ ego of a jnani ", "भक्त का 'मैं' ~ 'ego of a bhakta " रख देते हैं । हनुमान साकार और निराकार के दर्शन करने के बाद सेव्य-सेवक का भाव लेकर, भक्त का भाव लेकर रहते थे । उन्होंने श्रीरामचन्द्र से कहा था, 'राम, कभी सोचता हूँ तुम पूर्ण हो और मैं अंश हूँ; कभी सोचता हूँ, तुम सेव्य हो और मैं सेवक हूँ; और राम ! जब तत्त्वज्ञान होता है तब देखता हूँ, तुम्हीं 'मैं' हो, मैं ही 'तुम' हूँ।’

{“শঙ্করাচার্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন — লোকশিক্ষার জন্য।”}“ব্রহ্মজ্ঞানলাভের পরেও অনেকের ভিতর তিনি ‘বিদ্যার আমি’ — ‘ভক্তের আমি’ রেখে দেন। হনুমান সাকার-নিরাকার সাক্ষাৎকার করবার পর সেব্য-সেবকের ভাবে, ভক্তের ভাবে থাকতেন। রামচন্দ্রকে বলেছিলেন, ‘রাম, কখন ভাবি তুমি পূর্ণ, আমি অংশ; কখন ভাবি তুমি সেব্য, আমি সেবক; আর রাম, যখন তত্ত্বজ্ঞান হয় তখন দেখি তুমিই আমি, আমিই তুমি!’

"Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge' in order to teach people.God keeps in many people the 'ego of a jnani' or the 'ego of a bhakta' even after they have attained Brahmajnana. Hanuman, after realizing God in both His Personal and His Impersonal aspect, cherished toward God the attitude of a servant, a devotee. He said to Rama: 'O Rama, sometimes I think that You are the whole and I am a part of You. Sometimes I think that You are the Master and I am Your servant. And sometimes, Rama, when I contemplate the Absolute, I see that I am You and You are I.'}

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆श्रीकृष्ण चिदात्मा (Absolute Consciousness) हैं और मैं (राधा) चित्शक्ति (Primal Power) 🔆 

"कृष्ण के विरह से विकल होकर यशोदा राधिका के पास गयी । उनका कष्ट देखकर राधिका उनसे अपने स्वरूप में मिली और कहा, 'श्रीकृष्ण चिदात्मा हैं और मैं चित्शक्ति । माँ, तुम मेरे पास वर माँगो।' यशोदा ने कहा, 'माँ ! मुझे ब्रह्मज्ञान नहीं चाहिए, बस यही वरदान दो कि गोपाल के रूप के सदा दर्शन होते रहें, कृष्ण भक्तों का सदा संग मिलता रहे । भक्तों की मैं सेवा करूँ और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करूँ ।'

{“যশোদা কৃষ্ণ বিরহে কাতর হয়ে শ্রীমতীর কাছে গেলেন। তাঁর কষ্ট দেখে শ্রীমতী তাঁকে স্বরূপে দেখা দিলেন — আর বললেন, ‘কৃষ্ণ চিদাত্মা আমি চিচ্ছক্তি। মা তুমি আমার কাছে বর লও।’ যশোদা বললেন, মা আমার ব্রহ্মজ্ঞান চাই না — কেবল এই বর দাও যেন ধ্যানে গোপালের রূপ সর্বদা দর্শন হয়, আর কৃষ্ণভক্তসঙ্গ যেন সর্বদা হয়, আর ভক্তদের যেন আমি সেবা করতে পারি, — আর তাঁর নামগুনকীর্তন যেন আমি সর্বদা করতে পারি।

"Yasoda became grief-stricken at being separated from Krishna, and called on Radha. Radha saw Yasoda's suffering and revealed herself to her as the divine Sakti, which was her real nature. She said to Yasoda: 'Krishna is Chidatma, Absolute Consciousness, and I am Chitsakti, the Primal Power. Ask a boon of Me.' Yasoda said: 'I don't want Brahmajnana. Please grant me only this; that I may see the form of Gopala in my meditation; that I may always have the company of Krishna's devotees; that I may always serve the devotees of God; that I may always chant God's name and glories.'}

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆गोपियों का भाव है-भक्त का भाव, हम राधा की राधा हमारी 🔆

[আমরা রাইয়ের, রাই আমাদের।]

"गोपियों की इच्छा हुई थी कि भगवान के ईश्वरी रूप का दर्शन करें । कृष्ण ने उन्हें यमुना में डुबकी लगाने के लिए कहा । डुबकी लगाते ही सब वैकुण्ठ जा पहुँचीं । वहाँ भगवान के उस षडैश्वर्यपूर्ण रूप के दर्शन तो हुए, परन्तु वह उन्हें अच्छा न लगा । तब कृष्ण से उन लोगों ने कहा, 'हमारे लिए गोपाल के दर्शन, गोपाल की सेवा, बस यही रहे; हम और कुछ नहीं चाहतीं ।'

[“গোপীদের ইছা হয়েছিল, ভগবানের ঈশ্বরীয় রূপদর্শন করে। কৃষ্ণ তাদের যমুনায় ডুব দিতে বললেন। ডুব দেওয়ায় যা অমনি বৈকুণ্ঠে সব্বাই উপস্থিত; — ভগবানের সেই ষড়ৈশ্বর্যপূর্ণ রূপ দর্শন হল; — কিন্তু ভাল লাগল না। তখন কৃষ্ণকে তারা বললে, আমাদের গোপালকে দর্শন, গোপালের সেবা এই যেন থাকে আর আমারা কিছুই চাই না।

"Once the gopis felt a great desire to see the forms of the Lord. So Krishna asked them to dive into the water of the Jamuna. No sooner did they dive into the water than they all arrived at Vaikuntha. There they saw the form of the Lord endowed with His six celestial splendours. But they did not like it. They said to Krishna: 'We want to see Gopala and serve Him. Please grant us that boon alone. We don't want anything else.'

"मथुरा जाने से पहले कृष्ण ने उन्हें ब्रह्मज्ञान देने का प्रयत्न किया था । कहला भेजा था, 'मैं सर्व भूतों के अन्तर में भी हूँ और बाहर भी । तुम लोग क्या एक ही रूप में देख रही हो ?' गोपियों ने कहा, 'कृष्ण हम लोगों को छोड़ जायेंगे, इसलिए ब्रह्मज्ञान का उपदेश भेजा है ?'

[“মথুরা যাবার আগে কৃষ্ণ ব্রহ্মজ্ঞান দিবার উদ্যোগ করেছিলেন। বলেছিলেন, আমি সর্বভূতের অন্তরে বাহিরে আছি। তোমরা কি একটি রূপ কেবল দেখছ? গোপীরা বলে উঠল, ‘কৃষ্ণ, তবে কি আমাদের ত্যাগ করে যাবে তাই ব্রহ্মজ্ঞানের উপদেশ দিচ্ছ?’

"Before His departure for Mathura, Krishna wanted to give the Knowledge of Brahman to the gopis. He said to them: 'I dwell both inside and outside all beings. Why should you see only one form of Mine?' The gopis cried in chorus: 'O Krishna, do You want to go away from us? Is that why You are instructing us in Brahmajnana?'

“जानते हो गोपियों का भाव ^ कैसा है ? 'हम राधा की - राधा हमारी । 

[“গোপীদের ভাব কি জান? আমরা রাইয়ের, রাই আমাদের।”  

"Do you know the attitude of the gopis? It is this: 'We are Radha's and Radha is ours.' 

[^गोपियों का आदर्श ईश्वर-चेतना में खुद को विलीन करना नहीं था, बल्कि राधा और कृष्ण के मिलन का आनंद लेने के लिए अपने व्यक्तित्व  को (व्यष्टि अहं को) बनाए रखना था। वे खुद को राधा के साथी के रूप में मानती थीं ।^The ideal of the gopis was not to merge themselves in God-Consciousness, but to keep their individuality, in order to enjoy the communion of Radha and Krishna. They regarded themselves as the companions of Radha .

 ,[(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆श्री रामकृष्ण और वेदान्त- मैं कहता हूँ, माँ, मुझे ब्रह्मज्ञान न देना  🔆

[Sri Ramakrishna and the Vedanta]

एक भक्त - यह भक्त का 'मैं' क्या कभी नहीं जाता ?

["একজন ভক্ত — এই “ভক্তের আমি” কি একেবারে যায় না?] 

 "Does this 'I' of the devotee never disappear altogether?

श्रीरामकृष्ण - वह 'मैं' कभी कभी चला जाता है । तब ब्रह्मज्ञान होता है, समाधि होती है । मेरा भी चला जाता है, परन्तु सब समय नहीं । सा, रे, ग, म, ध, नि; परन्तु 'नि' में अधिक देर तक नहीं रहा जाता । फिर नीचे के पदों में उतर आना पड़ता है । मैं कहता हूँ, माँ, मुझे ब्रह्मज्ञान न देना । पहले-पहल साकारवादी खूब आते थे । इसके बाद आजकल के निराकारवादी ब्राह्म समाजियों (^ब्रह्म समाज के सदस्य, जो निराकार ब्रह्म में विश्वास करते थे।) का धावा होने लगा । तब प्रायः उसी तरह मैं बेहोश होकर समाधिमग्न हो जाया करता था । और होश में आने पर कहता था, माँ, मुझे ब्रह्मज्ञान न देना ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — ও ‘আমি’ এক-একবার যায়। তখন ব্রহ্মজ্ঞান হয়ে সমাধিস্থ হয়। আমারও যায়। কিন্তু বরাবর নয়। সা রে গা মা পা ধা নি, — কিন্তু ‘নি’তে অনেকক্ষণ থাকা যায় না, — আবার নিচের গ্রামে নামতে হয়। আমি বলি “মা আমায় ব্রহ্মজ্ঞান দিও না।” আগে সাকারবাদীরা খুব আসত। তারপর ইদানীং ব্রহ্মজ্ঞানীরা আসতে আরম্ভ করলে। তখন প্রায় ওইরূপ বেহুঁশ হয়ে সমাধিস্থ হতাম — আর হুঁশ হলেই বলতাম, মা আমায় ব্রহ্মজ্ঞান দিও না।

MASTER: "Yes, it disappears at times. Then one attains the Knowledge of Brahman and goes into samadhi. I too lose it, but not for all the time. in the musical scale there are seven notes: sa, re, ga, ma, pa, dha, and ni. But one cannot keep one's voice on 'ni' a long time. One must bring it down again to the lower notes. I pray to the Divine Mother, 'O Mother, do not give me Brahmajnana.' Formerly believers in God with form used to visit me a great deal. Then the modern Brahma jnanis (^The members of the Brahmo Samaj, who believed in the formless Brahman.)began to arrive. During that period I used to remain unconscious in samadhi most of the time. Whenever I regained consciousness, I would say to the Divine Mother, 'O Mother, please don't give me Brahmajnana.'

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆 ईश्वर कल्पतरु हैं , लेकिन भावग्राही हैं ! मन जैसा भाव होता है, वैसा ही लाभ भी होता है। 🔆

[ঈশ্বর কল্পতরু। তিনি ভাবগ্রাহী।  যেমন ভাব তেমনি লাভ। ] 

[God is Wish-fulfilling Tree. God knows our inner feeling. As one thinks, so one receives.]

पण्डितजी - हमारे कहने से क्या वे सुनेंगे ?

[পণ্ডিত — আমরা বললে তিনি শুনবেন?

PUNDIT: "Does God listen to our prayers?"

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर कल्पतरु (the Wish-fulfilling Tree) हैं । भक्त जो कुछ चाहेगा, वही पायेगा। किन्तु कल्पतरु के पास पहुँचकर माँगना पड़ता है, तब कामना पूरी होती है । "परन्तु एक बात है । वे भावग्राही हैं । जो जो कुछ सोचता है, साधना करने पर वह वैसा ही पाता है । मन में जैसा भाव होता है, वैसा ही लाभ भी होता है। [As one thinks, so one receives.]

{ঈশ্বর কল্পতরু। যে যা চাইবে, তাই পাবে। কিন্তু কল্পতরুর কাছে থেকে চাইতে হয়, তবে কথা থাকে।“তবে একটি কথা আছে — তিনি ভাবগ্রাহী। যে যা মনে করে সাধনা করে তার সেরূপই হয়। যেমন ভাব তেমনি লাভ। } 

 MASTER: "God is the Kalpataru, the Wish-fulfilling Tree. You will certainly get whatever you ask of Him. But you must pray standing near the Kalpataru. Only then will your prayer be fulfilled. But you must remember another thing. God knows our inner feeling. A man gets the fulfilment of the desire he cherishes while practising sadhana. As one thinks, so one receives.

कोई बाजीगर (juggler) राजा के सामने जादू का खेल दिखा रहा था । खेल दिखाते समय कहता था, ....लाग् लाग् भेलकी लाग् - ‘आबरा-का-डाबरा’... ‘गिली-गिली छू’ 'महाराज, रुपया दीजो - कपड़े दीजो' यही सब । इसी समय उसकी जीभ ऊपर तालु में चढ़ गयी । साथ ही कुंभक हो गया । बस जबान बन्द हो गयी, शरीर बिलकुल स्थिर हो गया । तब लोगों ने ईंट की कब्र बनाकर उसी में उसे गाड़ रखा । किसी ने हजार साल बाद उस कब्र को खोदा । तब लोगों ने देखा, एक आदमी समाधिमग्न बैठा हुआ था । उसे साधु समझकर वे लोग उसकी पूजा करने लगे, इतने में ही हिलाने-डुलाने के कारण उसकी जीभ तालु से हट गयी । तब उसे होश हुआ और वह चिल्लाता हुआ कहने लगा, ...लाग् लाग् भेलकी लाग्...‘आबरा-का-डाबरा’... ‘गिली-गिली छू’. - महाराज, रुपया दीजो - कपड़े दीजो!’ [इसीलिए स्वामी जी 'अन्न चिन्ता चमत्कारा ' का अनुभव करते हुए भी - माँ काली से भक्ति , विवेक , वैराग्य , ज्ञान के सिवा - नहीं माँग सके ! ]

{ একজন বাজিকর খেলা দেখাচ্ছে রাজার সামনে। আর মাঝে মাঝে বলছে রাজা টাকা দেও, কাপড়া দেও। এমন সময়ে তার জিব তালুর মূলের কাছে উলটে গেল। অমনি কুম্ভক হয়ে গেল। আর কথা নাই, শব্দ নাই, স্পন্দন নাই। তখন সকলে তাকে ইটের কবর তৈয়ার করে সেই ভাবেই পুঁতে রাখলে। হাজার বৎসর পরে সেই কবর কে খুঁড়েছিল। তখন লোকে দেখে যে একজন সমাধিস্থ হয়ে বসে আছে! তারা তাকে সাধু মনে করে পূজা করতে লাগল। এমন সময় নাড়াচাড়া দিতে দিতে তার জিব তালু থেকে সরে এল। তখন তার চৈতন্য হল, আর সে চিৎকার করে বলতে লাগল, লাগ ভেলকি লাগ! রাজা টাকা দেও, কাপড়া দেও! } 

A magician was showing his tricks before a king. Now and then he exclaimed: 'Come confusion! Come delusion! ....लाग् लाग् भेलकी लाग् - ‘आबरा-का-डाबरा’... ‘गिली-गिली छू’O King, give me money! Give me clothes!' Suddenly his tongue turned upward and clove to the roof of his mouth. He experienced kumbhaka. He could utter neither word nor sound, and became motionless. People thought he was dead. They built a vault of bricks and buried him there in that posture. After a thousand years someone dug into the vault. Inside it people found a man seated in samadhi. They took him for a holy man and worshipped him. When they shook him his tongue was loosened and regained its normal position. The magician became conscious of the outer world and cried, as he had a thousand years before: "Come confusion! Come delusion! O King, give me money! Give me clothes!' [इसीलिए स्वामी जी 'अन्न चिन्ता चमत्कारा ' का अनुभव करते हुए भी - माँ काली से भक्ति , विवेक , वैराग्य , ज्ञान के सिवा - नहीं माँग सके ! ]

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆हे माँ ! मेरे तर्क करने की प्रवृत्ति को अपने वज्र से नष्ट कर दो।🔆

[মা বিচারবুদ্ধিতে বজ্রাঘাত হোক!]

“मैं रोता था और कहता था, माँ, मेरी तर्क-बुद्धि पर वज्रपात हो ।”

[“আমি কাঁদতাম আর বলতাম, মা বিচারবুদ্ধিতে বজ্রাঘাত হোক!”]

"I used to weep, praying to the Divine Mother, 'O Mother, destroy with Thy thunderbolt my inclination to reason.' 

पण्डितजी - तो कहिये आप में भी तर्क करने को ओर झुकाओ था ?

{ পণ্ডিত — তবে আপনারও (বিচারবুদ্ধি) ছিল।} 

PUNDIT: "Then you too had an inclination to reason?"

श्रीरामकृष्ण - हाँ, एक समय थी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, একবার ছিল।

MASTER: "Yes, once."

पण्डितजी - तो बतलाइये जिस तरह हम लोगों की भी दूर हो जाय । आपकी किस तरह गयी ?

[পণ্ডিত — তবে বলে দিন, তাহলে আমাদেরও যাবে। আপনার কেমন করে গেল?

PUNDIT: "Then please assure us that we shall get rid of that inclination too. How did you get rid of yours?"

श्रीरामकृष्ण - ऐसे ही एक तरह चली गयी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অমনি একরকম করে গেল।

MASTER: "Oh, somehow or other."

(४)

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

[Ma Kali ! The Mother of many universes ]

 [माँ काली असंख्य ब्रह्माण्डों की जननी हैं,  उनके अनन्त ऐश्वर्य के ज्ञान से हमें क्या जरूरत है ?]

🔆 ईश्वर (माँ काली) कल्पतरु हैं । उनके पास (दक्षिणेश्वर) पहुँचकर माँगना चाहिए 🔆

[ঈশ্বর কল্পতরু। তাঁর কাছে থেকে চাইতে হয়।]

[God is the Kalpataru (the Wish-fulfilling Tree).. One should pray standing near It.] 

श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुपचाप बैठे रहकर फिर बातचीत करने लगे ।

[ঠাকুর কিয়ৎক্ষণ চুপ করিয়া আছেন। আবার কথা কহিতেছেন।

Sri Ramakrishna was silent awhile. Then he went on with his conversation.

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर कल्पतरु हैं । उनके पास पहुँचकर माँगना चाहिए । तब जो जो कुछ चाहता है, वही पाता है । "ईश्वर ने (माँ काली ने) न जाने क्या क्या बनाये हैं । उनके असंख्य ब्रह्माण्ड हैं ^*, उनके अनन्त ऐश्वर्य के ज्ञान से हमें क्या जरूरत है ? और अगर जानने की इच्छा हो, तो पहले उन्हें प्राप्त करना चाहिए, फिर वे स्वयं ही समझा देंगे ।

[उनके असंख्य ब्रह्माण्ड हैं ^*: माँ काली ही समस्त ब्रह्माण्डों की सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म हैं : दादा कहते थे , एक बार ब्रह्म काली से मिलने गए , द्वारपाल को कहा कि जाकर माँ काली को खबर दो कि ब्रह्म उनसे मिलना चाहते हैं माँ ने द्वारपाल से कहलवाया कि जाकर पूछो कि वे  किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्म हैं?] 

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆जीवन का उद्देश्य ईश्वर को देखना है - उसका मार्ग चाहे जो भी हो !  🔆

[ঈশ্বরদর্শন জীবনের উদ্দেশ্য — তাহার উপায়]

यदु मल्लिक के कितने मकान हैं, कम्पनी के कितने कागज हैं, इन सब बातों के जानने से हमें क्या मतलब ? हमारा काम है किसी तरह बाबू से मुलाकात करना । इसके लिए खाई पर से कुदकर जाना हो या प्रार्थना करके अथवा दरवान के धक्के सहकर, हमें उन तक पहुँचना ही चाहिए । मुलाकात हो जाने पर उनके क्या क्या हैं, एक बार पूछने से बाबू खुद ही सब बतला देंगे और बाबू से मुलाकात हो जाने पर उनके कर्मचारी भी मानने लगते हैं । (सब हँसते हैं ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বর কল্পতরু। তাঁর কাছে থেকে চাইতে হয়। তযন যে যা চায় তাই পায়।“ঈশ্বর কত কি করেছেন। তাঁর অনন্ত ব্রহ্মাণ্ড — তাঁর অনন্ত ঐশ্বর্যের জ্ঞান আমার দরকার কি! আর যদি জানতে ইচ্ছা করে, আগে তাঁকে লাভ করতে হয়, তারপর তিনি বলে দেবেন। যদু মল্লিকের কখানা বাড়ি কত কোম্পানির কাগজ আছে এ-সব আমার কি দরকার! আমার দরকার, জো-সো করে বাবুর সঙ্গে আলাপ করা! তা পগার ডিঙিয়েই হোক! — প্রার্থনা করেই হোক! বা দ্বারবানের ধাক্কা খেয়েই হোক — আলাপের পর কত কি আছে একবার জিজ্ঞাসা করলে বাবুই বলে দেয়। আবার বাবুর সঙ্গে আলাপ হলে আমলারাও মানে। (সকলের হাস্য)

MASTER: "God is the Kalpataru. One should pray standing near It. Then one will get whatever one desires."How many things God has created! Infinite is His universe. But what need have I to know about His infinite splendours? If I must know these, let me first realize Him. Then God Himself will tell me all about them. What need have I to know how many houses and how many government securities Jadu Mallick possesses? All that I need is somehow to converse with Jadu Mallick. I may succeed in seeing him by jumping over a ditch or through a petition or after being pushed about by his gate-keeper. Once I get a chance to talk to him, then he himself will tell me all about his possessions if I ask him. If one becomes acquainted with the master, then one is respected by his officers too. (All laugh.)

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[ऐश्वर्य और माधुर्य - कोई कोई ऐश्वर्यज्ञान नहीं चाहता]

[ঐশ্বর্য ও মাধুর্য — কেহ কেহ ঐশ্বর্যজ্ঞান চায় না ]

🔆C-IN-C से घनिष्ट परिचय रहने कारण उनके अधिकारी भी नरेन्द्र का सम्मान करते थे 🔆

[আবার বাবুর সঙ্গে আলাপ হলে আমলারাও মানে।] 

[If acquainted with the (C-IN-C) then one is respected by his officers too. ]

"कोई कोई ऐश्वर्य को जानना नहीं चाहते । वे कहते हैं, कलवार की दूकान में कितने मन शराब है, इसे जानकर हम क्या करेंगे ? हमारा काम तो बस एक ही बोतल से निकल जाता है । ऐश्वर्य का ज्ञान क्या करेगा लेकर ? जितनी शराब पी है, उतनी ही में होश दुरुस्त नहीं है ।

{“কেউ কেউ ঐশ্বর্যের জ্ঞান চায় না। শুঁড়ির দোকানে কত মন মদ আছে আমার কি দরকার! আমার এক বোতলেতেই হয়ে যায়। ঐশ্বর্য জ্ঞান চাইবে কি। যেটুকু মদ খেয়েছে তাতেই মত্ত!”]

"There are some who do not care to know the splendours of God. What do I care about knowing how many gallons of wine there are in the tavern? One bottle is enough for me. Why should I desire the knowledge of God's splendours? I am intoxicated with the little wine I have swallowed.

[(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆भक्ति का मार्ग सीधा है ,ज्ञानयोग बहुत कठिन है - अवतार नित्यसिद्ध हैं 🔆

[জ্ঞানযোগ বড় কঠিন — অবতারাদি নিত্যসিদ্ধ ]

"भक्तियोग, ज्ञानयोग - ये ही सब मार्ग हैं, चाहे जिस रास्ते से होकर जाओ, उन्हें पाओगे । भक्ति का मार्ग सीधा है । ज्ञान और विचार का मार्ग विपत्तियों से भरा हुआ है ।

“कौनसा रास्ता अच्छा है, इसके अधिक विचार की क्या आवश्यकता है ? विजय के साथ बहुत दिनों तक बातचीत हुई थी । विजय से मैंने कहा, एक आदमी प्रार्थना करता था, ''हे ईश्वर, तुम क्या हो, कैसे हो, मुझे बता दो, मुझे दर्शन दो ।

[“ভক্তিযোগ, জ্ঞানযোগ — এ-সবই পথ। যে-পথ দিয়েই যাও তাঁকে পাবে। ভক্তির পথ সহজ পথ। জ্ঞান বিচারের পথ কঠিন পথ।" “কোন্‌ পথটি ভাল অত বিচার করবার কি দরকার। বিজয়ের সঙ্গে অনেকদিন কথা হয়েছিল, বিজয়কে বললাম, একজন প্রার্থনা করত, ‘হে ঈশ্বর! তুমি যে কি, কেমন আছ, আমায় দেখা দাও।’

Both bhaktiyoga and jnanayoga are paths by which you can realize God. Whatever path you may follow, you will certainly realize Him. The path of bhakti is an easy one. The path of knowledge and discrimination is very difficult. Why should one reason so much to know which path is the best? I talked about this with Vijay for many days. Once I told him about a man who used to pray, 'O God, reveal to me who and what You are.'

“ज्ञान - विचार का मार्ग पार करना कठिन है । पार्वतीजी ने पर्वतराज को अपने अनेक ईश्वरी रूप दिखाकर कहा, 'पिताजी, अगर ब्रह्मज्ञान चाहते हो तो साधुओं का संग करो ।'

[“জ্ঞানবিচারের পথ কঠিন। পার্বতী গিরিরাজকে নানা ঈশ্বরীয় রূপে দেখা দিয়ে বললেন, ‘পিতা, যদি ব্রহ্মজ্ঞান চাও সাধুসঙ্গ কর।"

The path of knowledge and discrimination is difficult indeed. Parvati, the Divine Mother, revealed Her various forms, to Her father and said, 'Father,' if you want Brahmajnana, then live in the company of holy men.'

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

 🔆 रामगीता के अनुसार लक्षणों  देखकर अवतार-वरिष्ठ को स्वयं पहचानना होता है 🔆 

[ব্রহ্ম কি মুখে বলা যায় না। রামগীতায় আছে, কেবল তটস্থ লক্ষণে তাঁকে বলা যায়] 

(Brahman has only been indirectly hinted (approaching signs) at by the scriptures. 

"शब्दों द्वारा ब्रह्म की व्याख्या नहीं की जा सकती । रामगीता ^* में इस बात का निर्देश है कि शास्त्रों में ब्रह्म का केवल संकेत किया गया है - केवल उनके लक्षणों की ओर इशारा किया गया है; उदाहरणार्थ, यदि कोई यह कहे कि ‘गंगा पर का ग्वालों का गाँव’ तो उसका संकेत यही होता है कि वह गाँव-(ঘোষপল্লী) गंगा के 'तट' पर स्थित है ।

{“ব্রহ্ম কি মুখে বলা যায় না। রামগীতায় আছে, কেবল তটস্থ লক্ষণে তাঁকে বলা যায়, যেমন গঙ্গার উপর ঘোষপল্লী। গঙ্গার তটের উপর আছে এই কথা বলে ঘোষপল্লীকে ব্যক্ত করা যায়।}

"Brahman cannot be described in words. It is said in the Rama Gita ^* that Brahman has only been indirectly hinted at by the scriptures. When one speaks about the 'cowherd village on the Ganges', one indirectly states that the village is situated on the bank of the Ganges.

[रामगीता ^*श्री राम गीता की छः मुख्य बातें : 

1. जब लक्ष्मणजी अयोध्या से माता सीता को वाल्मिकी आश्रम के वन में छोड़कर आते हैं तो वे बहुत दुखी रहते हैं। तब श्रीराम जी उन्हें सांत्वना देते हैं। श्रीराम के इन्हीं प्रवचनों को राम गीता कहा गया।

2.  इसी प्रकार ब्रह्मांड पुराण के उत्तर खंड में अध्यात्म रामायण है। इस अध्यात्म रामायण के पांचवें सर्ग में भी “श्रीराम गीता” नाम से एक गीता है। इसमें कुल 62 श्लोक हैं। लक्ष्मणजी के निवेदन पर इसे श्री  रामचंद्रजी ने सुनाया था। इसमें कर्म की प्रवृत्ति और निवृत्ति की विवेचना की गई है।

3. इस श्रीरामगीता को गुरु ज्ञानवासिष्ठ तत्वसारायण का भाग माना जाता है। गीता की तरह इसमें भी 18 अध्याय हैं जो श्री राम-हनुमान संवाद के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।

4. श्रीमद्भागवत गीता की तरह ही बहुतसी ‘श्रीराम गीताओं’ का उल्लेख मिलता है। इन गीताओं में वेदान्त के आधार पर श्रीराम के परमब्रह्म स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है।

5. एक और ‘रामगीता सटीका’ है जिसे स्कन्दपुराण के निर्वाणखंड का अंश माना जाता है। इसके 3 अध्यायों में श्री राम के परब्रह्म स्वरूप का प्रतिपादन किा गया है।

6. ऐसी ही एक और ‘रामगीता टीका’ का उल्लेख भी मिलता है जो उपर्युक्त ‘रामगीता सटीका’ से अलग है।

"निराकार ब्रह्मसाक्षात्कार क्यों नहीं होगा ? पथ बड़ा कठिन है अवश्य । विषय-बुद्धि का लेशमात्र रहते नहीं होता । इन्द्रियों के जितने विषय हैं, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द इन सब का त्याग हो जाने पर, मन का लय हो जाने पर फिर कहीं उसका हृदय में प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और फिर भी इससे इतना भी समझ में आता है कि ब्रह्म है - केवल 'अस्ति' का ज्ञान ।"

{“নিরাকার ব্রহ্ম সাক্ষাৎকার হবে না কেন? তবে বড় কঠিন। বিষয় বুদ্ধির লেশ থাকলে হবে না। ইন্দ্রিয়ের বিষয় যত আছে — রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ সমস্ত ত্যাগ হলে — মনের লয় হলে — তবে অনুভবে বোধে বোধ হয় আর অস্তিমাত্র জানা যায়।”

"Why shouldn't a man be able to realize the formless Brahman? But it is extremely difficult. He cannot if he has even the slightest trace of worldliness. He can be directly aware of Brahman in his inmost consciousness only when he renounces all sense-objects — form, taste, smell, touch, and sound — and only when his mind completely stops functioning. And then, too, he knows only this much of Brahman — that It exists."} 

पण्डितजी - 'अस्तीत्येवोपलब्धव्यः' इत्यादि । 

[পণ্ডিত — অস্তীত্যোপলব্ধব্য ইত্যাদি।

Quoting from an Upanishad, the pundit said, "It is to be experienced only as Existence."

[अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः।

अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥ 

(कठोपनिषद , अध्याय -२ , वल्ली -३ , श्लोक- १३ )

उभयोः तत्वभावेन अस्ति इति एव उपलब्धव्यः। अस्ति इति उपलब्धस्य एव तत्वभाव प्रसीद  इति ॥

[अस्ति इति - उस ब्रह्म को पहले तो " वह अवश्य है " इस प्रकार निश्चय पूर्वक ;  उपलब्धव्यः - अर्थात पहले उसके अस्तित्व का दृढ निश्चय करना चाहिए। तदनु - तदन्तर तत्वभावेन च - तत्त्व भाव से भी अपने मूल स्वरुप में ग्रहण करना चाहिए ,उपलब्धव्यः -उसे प्राप्त करना चाहिए। उभयोः  - दोनों अवधारणाओं में - in both the concepts | अस्ति इति एव - ' वह अवश्य है '  इस प्रकार निश्चयपूर्वक ; उपलब्धस्य - ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करने वाले साधक के लिए ; तत्वभावः - ब्रह्म का तात्विक स्वरुप (अपने-आप) ;  प्रसीदति - शुद्ध ह्रदय में प्रत्यक्ष हो  जाता  है। ] 

अर्थ -'''उस' का बोध ''वह है" (अस्तित्व-भाव, सगुण साकार ) एवं 'उसके' 'तत्त्वभाव' (सच्चिदानन्द भाव) , दोनों रूपों में प्राप्त करना चाहिये। किन्तु जब मनुष्य 'उसको' वस्तुतः ''है" ऐसा जान लेते हैं, तो 'उसका' तत्त्वभाव उस मनुष्य के प्रति उद्भासित हो जाता है।

One must apprehend Him in the concept “He is” and also in His essential principle, but when he hath grasped Him as the Is, then the essential of Him dawneth upon a man.

व्याख्या - साधक को पहले तो इस बात का दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिए कि ब्रह्म (परम् सत्य , अविनाशी इन्द्रियातीत सत्य ) अवश्य हैं और वे साधक को (एथेंस के सत्यार्थी को) अवश्य मिलते हैं ' ; फिर इसी विश्वास से अपने इष्टदेव को स्वीकार करे और उसके पश्चात् तात्विक विवेचन पूर्वक निरंतर उनका ध्यान करके उन्हें प्राप्त करे। जब साधक इस निश्चित विश्वास से भगवान श्रीरामकृष्ण को ब्रह्म समझकर स्वीकार कर लेता है कि 'वे अवश्य हैं और अपने ह्रदय में ही विराजमान हैं , उनकी प्राप्ति अवश्य होती है ', तो ब्रह्म का वह तात्विक दिव्य स्वरुप उसके विशुद्ध ह्रदय में अपने-आप प्रकट हो जाता है , उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है।]  

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆नित्यसिद्ध ईश्वर  (ब्रह्ममयी -the Blissful Mother) को पा लेने पर साधना करते हैं ।  🔆

श्रीरामकृष्ण - उन्हें (ब्रह्ममयी को)  पाने की अगर किसी को इच्छा हो तो किसी एक भाव का आश्रय लेना पड़ता है, वीरभाव, सखीभाव, दासीभाव या सन्तानभाव

{শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে পেতে গেলে একটা ভাব আশ্রয় করতে হয়, — বীরভাব, সখীভাব বা দাসীভাব আর সন্তানভাব।

MASTER: "In order to realize God a devotee should make use of a particular attitude — the attitude of a 'hero' or a friend or a handmaid or a child."} 

मणिमल्लिक - हाँ, तभी दृढ़ता होगी ।

[মণি মল্লিক — তবে আঁট হবে।

MANI MALLICK: "Only then can one feel attached to God."

श्रीरामकृष्ण - मैं सखीभाव में बहुत दिन था । कहता था,

 'मैं आनन्दमयी, ब्रह्ममयी की दासी हूँ ।'

“हे दासियो, मुझे भी दासी बना लो, 

मैं गर्वपूर्वक कहता जाऊँगा कि- 'मैं ब्रह्ममयी की दासी हूँ ।'

{শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি সখীভাবে অনেকদিন ছিলাম। বলতাম, ‘আমি আনন্দময়ী ব্রহ্মময়ীর দাসী, — ওগো দাসীরা আমায় তোমরা দাসী কর, আমি গরব করে চলে যাব, বলতে বলতে যে, আমি সাধন ব্রহ্মময়ীর দাসী!’

MASTER: "For many days I cherished the feeling that I was a companion of the Divine Mother. I used to say: 'I am the handmaid of Brahmamayi, the Blissful Mother. O companions of the Divine Mother, make me the Mother's handmaid! I shall go about proudly, saying, "I am Brahmamayi's handmaid!"'

"किसी किसी को बिना साधना के ही ईश्वर मिल जाते है । उन्हें नित्यसिद्ध कहते है । जिन लोगों ने जप-तपादि साधनों द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया है, उन्हें साधनसिद्ध कहते हैं - और कोई कोई कृपासिद्ध भी होते हैं । जैसे हजार साल का अंधेरा घर, दिया ले जाओ तो उसी क्षण वहाँ उजाला हो जाता है ।

[“কারু কারু সাধন না করে ঈশ্বরলাভ হয়, — তাদের নিত্যসিদ্ধ বলে। যারা জপতপাদি সাধন করে ঈশ্বরলাভ করেছে তাদের বলে সাধনসিদ্ধ। আবার কেউ কৃপাসিদ্ধ, — যেমন হাজার বছরের অন্ধকার ঘর, প্রদীপ নিয়ে গেলে একক্ষণে আলো হয়ে যায়!

"Some souls realize God without practising any spiritual discipline. They are called nityasiddha, eternally perfect. Those who have realized God through austerity, japa, and the like, are called sadhanasiddha, perfect through spiritual discipline. Again, there are those called kripasiddha, perfect through divine grace. These last may be compared to a room kept dark a thousand years, which becomes light the moment a lamp is brought in.

"एक हैं वे, जो एकाएक~ 'हठात सिद्ध' हो जाते हैं, जैसे किसी गरीब का लड़का बड़े आदमी की दृष्टि में पड़ जाय । बाबू ने उसके साथ अपनी लड़की ब्याह दी, साथ ही उसे घर-द्वार, घोड़ेगाड़ी, दास-दासियाँ, सब कुछ मिल गया ।

{“আবার আছে হঠাৎসিদ্ধ, — যেমন গরিবের ছেলে বড়মানুষের নজরে পড়ে গেছে। বাবু তাকে মেয়ে বিয়ে দিলে, — সেই সঙ্গে বাড়িঘর, গাড়ি, দাস-দাসী সব হয়ে গেল।

"There is also a class of devotees, the hathatsiddha(हठात सिद्ध) that is to say, those who have suddenly attained God-vision. Their case is like that of a poor boy who has suddenly found favour with a rich man. The rich man marries his daughter to the boy and along with her gives him land, house, carriage, servants, and so forth.} 

“एक और हैं स्वप्नसिद्ध । वे स्वप्न में दर्शन पाकर सिद्ध हो जाते हैं ।

[“আর আছে স্বপ্নসিদ্ধ — স্বপ্নে দর্শন হল।”

"There is still another class of devotees, the svapnasiddha, who have had the vision of God in a dream."

सुरेन्द्र - (सहास्य) - तो हम लोग अभी खर्राटे लें, बाद में बाबू हो जायेंगे ।

[সুরেন্দ্র (সহাস্যে) — আমরা এখন ঘুমুই, — পরে বাবু হয়ে যাব।

SURENDRA (smiling): "Let us go to sleep then. We shall wake and find ourselves babus, aristocrats."

श्रीरामकृष्ण - (सस्नेह) - तुम बाबू (aristocrat) तो हो ही । 'क' में आकार लगाने से ‘का’ होता है, उस पर एक और आकार लगाना वृथा है । 'का' का 'का' ही रहेगा। (सब हँसते हैं ।)

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সস্নেহে) — তুমি তো বাবু আছই। ‘ক’য়ে আকার দিলে ‘কা’ হয়; — আবার একটা আকার দেওয়া বৃথা; — দিলে সেই ‘কা’ই হবে! (সকলের হাস্য)

MASTER (tenderly): "You are already a babu. (अर्थात तुम्हें तो ब्रह्ममयी -आनन्दमयी रूपी गुरु। नेता /पहले से प्राप्त है )When the letter 'a' is joined to the letter 'ka', 'ka' becomes 'ka'. It is futile to add another 'a'. If you add it, you will still have the same 'ka'. (All laugh.)

"नित्यसिद्ध की एक अलग ही श्रेणी है, जैसे 'अरणि' काठ, जरासा रगड़ने से ही आग पैदा हो जाती है, और न रगड़ने से भी होती है । नित्यसिद्ध थोड़ीसी साधना करने पर ही ईश्वर को पा जाता है और साधना न करने पर भी पाता है ।

“हाँ, नित्यसिद्ध ईश्वर को पा लेने पर साधना करते हैं । जैसे कुम्हड़े का पौधा, पहले उसमें फल लगता है, तब ऊपर फूल होता है ।"

{“নিত্যসিদ্ধ আলাদা থাক — যেমন অরণি কাষ্ঠ, একটু ঘষলেই আগুন, — আবার না ঘষলেও হয়। একটু সাধন করলেই নিত্যসিদ্ধ ভগবানকে লাভ করে, আবার সাধন না করলেও পায়।"“তবে নিত্যসিদ্ধ ভগবানলাভ করার পর সাধন করে। যেমন আলু-কুমড়ো গাছে আগে ফল হয় তারপর ফুল।”

"The nityasiddha is in a class apart. He is like arani wood. A little rubbing produces fire. You can get fire from it even without rubbing. The nityasiddha realizes God by practising slight spiritual discipline and sometimes without practising any at all. But he does practise spiritual discipline after realizing God. He is like the gourd or pumpkin vine — first fruit, then flower."

कुम्हड़े के पौधे में फल पहले होते हैं, फिर फूल, यह सुनकर पण्डितजी हँस रहे हैं ।

[পণ্ডিত লাউ-কুমড়োর ফল আগে হয় শুনিয়া হাসিতেছেন।

The pundit smiled at this illustration.

श्रीरामकृष्ण - और नित्यसिद्ध होमा पक्षी की तरह हैं । उसकी माँ आकाश में बहुत ऊँचे पर रहती है । अण्डे देने पर गिरते हुए अण्डे फूट जाते हैं और फिर बच्चे भी गिरते रहते हैं । गिरते गिरते ही उनके पर निकल आते और आँखें खुल जाती हैं; परन्तु जमीन पर गिरकर कहीं चोट न लग जाय, इस ख्याल से वे फिर सीधे ऊँचे की ओर अपनी माँ के पास उड़ने लगते हैं । माँ कहाँ है, बस यही धुन रहती है । देखो न, 'क' लिखते हुए प्रह्लाद की आँखों से अश्रुधारा बह चली थी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আর নিত্যসিদ্ধ হোমাপাখির ন্যায়। তার মা উচ্চ আকাশে থাকে। প্রসবের পর ছানা পৃথিবির দিকে পড়ে থাকে। পড়তে পড়তে ডানা উঠে ও চোখ ফুটে। কিন্তু মাটি গায়ে আঘাত না লাগতে লাগতে মার দিকে চোঁচা দৌড় দেয়। কোথায় মা! কোথায় মা! দেখ না প্রহ্লাদের ‘ক’ লিখতে চক্ষে ধারা!

ঠাকুর নিত্যসিদ্ধের কথায় অরণি কাঠ ও হোমাপাখির দৃষ্টান্তের দ্বারা কি নিজের অবস্থা বুঝাইতেছেন?

MASTER: "There is the instance of Prahlada. He was a nityasiddha. While writing the letter 'ka' he shed a stream of tears."11

पण्डितजी का विनयभाव देखकर श्रीरामकृष्ण बड़े सन्तुष्ट हुए हैं । वे पण्डितजी के स्वभाव के सम्बन्ध में भक्तों से कह रहे हैं –

[ঠাকুর পণ্ডিতের বিনীতভাব দেখিয়া সন্তুষ্ট হইয়াছেন। পণ্ডিতের স্বভাবের বিষয় ভক্তদের বলিতেছেন।

The Master was pleased with the pundit's humility. He praised him to the devotees.

"इनका स्वभाव बड़ा अच्छा है । मिट्टी की दीवार में कीला गाड़ते हुए कोई तकलीफ नहीं होती । पत्थर में कील की नोंक चाहे टूट जाय पर पत्थर का कुछ नहीं होता । ऐसे भी आदमी हैं, जो लाख ईश्वर की चर्चा सुनें, पर उन्हें चेतना किसी तरह नहीं होती । जैसे घड़ियाल, देह पर तलवार भी चोट नहीं कर सकती ।”

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — এঁর স্বভাবটি বেশ। মাটির দেওয়ালে পেরেক পুঁতলে কোন কষ্ট হয় না। পাথরে পেরেকের গোড়া ভেঙে যায় তবু পাথরের কিছু হয় না। এমন সব লোক আছে হাজার ঈশ্বরকথা শুনুক, কোন মতে চৈতন্য হয় না, — যেমন কুমির — গায়ে তরবারির চোপ লাগে না!

MASTER: "He has such a nice nature. You find no difficulty in driving a nail into a mud wall. But its point breaks if you try to drive it against a stone; and still it will not pierce it. There are people whose spiritual consciousness is not at all awakened even though they hear about God a thousand times. They are like a crocodile, on whose hide you cannot make any impression with a sword."

  [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

🔆धनुर्विद्या का प्रशिक्षण-साकार से निराकार पर जाओ  🔆

फ़ोटो के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है.

धनुर्वेद

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । 

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥

(मुण्डक० २।२।४ ॥_

[তাই আগে সাকারে মনস্থির করতে হয়।]

[पाण्डित्य झाड़ने की अपेक्षा,  विवेकदर्शन,विवेक-प्रयोग सहित 3H विकास के 5 अभ्यास बेहतर  ]

[পাণ্ডিত্য অপেক্ষা সাধনা ভাল — বিবেক ]

पण्डितजी - घड़ियाल के पेट में बरछी मारने से मतलब सिद्ध हो जाता है । (सब हँसते हैं ।)

[পণ্ডিত — কুমিরের পেটে বর্শা মারলে হয়। (সকলের হাস্য)

PUNDIT: "But one can hurt a crocodile by throwing a spear into its belly." (All laugh.)

श्रीरामकृष्ण - सब शास्त्रों के पाठ से क्या होगा - फिलॉसफी (Philosophy) पढ़कर क्या होगा ? लम्बी लम्बी बातों से क्या होता है ? धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करनी हो तो पहले केले के पेड़ पर निशाना साधना चाहिए, फिर नरईत (गन्ना) के पौधे पर, फिर जलती हुई दीपक की बत्ती पर - फिर उड़ती हुई चिड़िया पर । " इसीलिए पहले साकार में मन स्थिर करना चाहिए । 

[यानि सबसे पहले 'विवेक-दर्शन का अभ्यास' - मनःसंयोग करना चाहिए !] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — গুচ্ছির শাস্ত্র পড়লে কি হবে? ফ্যালাজফী (Philosophy)! (সকলের হাস্য) লম্বা লম্বা কথা বললে কি হবে? বাণশিক্ষা করতে গেলে আগে কলাগাছ তাগ করতে হয়, — তারপর শরগাছ, — তারপর সলতে, — তারপর উড়ে যাচ্ছে যে পাখি। “তাই আগে সাকারে মনস্থির করতে হয়।

MASTER (smiling): "What good is there in reading a whole lot of scriptures? What good is there in the study of philosophy? What is the use of talking big? In order to learn archery one should first aim at a banana tree, then at a reed, then at a wick, and last at a flying bird. At the beginning one should concentrate on God with form.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆भक्तों के लिए ही अवतार हैं , ज्ञानियों के लिए नहीं !"🔆 

"और त्रिगुणातीत भक्त भी हैं - नित्यभक्त जैसे नारदादि । उस भक्ति में श्याम भी चिन्मय है, धाम भी चिन्मय है, और भक्त भी चिन्मय है । ईश्वर, उनका धाम तथा भक्त, सभी नित्य हैं ।

{আবার ত্রিগুণাতীত ভক্ত আছে, — নিত্য ভক্ত যেমন নারদাদি। সে ভক্তিতে চিন্ময় শ্যাম, চিন্ময় ধাম, চিন্ময় সেবক, — নিত্য ঈশ্বর, নিত্য ভক্ত, নিত্য ধাম।} 

"Then there are devotees who are beyond the three gunas. They are eternally devoted to God, like Narada. These devotees behold Krishna as Chinmaya, all Spirit, His Abode as Chinmaya, His devotee as Chinmaya. To them God is eternal. His Abode is eternal, His devotee is eternal.“

"जो लोग 'नेति नेति' के द्वारा ज्ञानपूर्वक विचार कर रहे हैं, वे अवतार नहीं मानते । हाजरा सच कहता है, भक्तों के लिए ही अवतार है, वह ज्ञानियों के लिए नहीं - वे सोऽहं जो बने हैं !"

{“যারা নেতি নেতি জ্ঞানবিচার করছে, তারা অবতার মানে না। হাজরা বেশ বলে — ভক্তের জন্যই অবতার, — জ্ঞানীর জন্য অবতার নয়, তারা তো সোঽহম্‌ হয়ে বসে আছে।”

"Those who reason and speculate following the process of 'Neti, neti' do not accept the Incarnation of God. Hazra says well that Divine Incarnation is only for the bhakta, and not for the jnani, because the jnani is quite contented with his ideal, 'I am He'."} 

श्रीरामकृष्ण और सारी भक्तमण्डली चुपचाप बैठी है । पण्डितजी बातचीत करने लगे ।

[ঠাকুর ও ভক্তেরা সকলেই কিয়ৎকাল চুপ করিয়া আছেন। এইবার পণ্ডিত কথা কহিতেছেন।

Sri Ramakrishna and the devotees remained silent awhile. The pundit resumed the conversation.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆साधना किये बिना शास्त्र पढ़ने का दोष है कि  वह तर्क और विचार में डाल देता है 🔆

[The harmful effect of the study of the scriptures-it encourages reasoning and arguing.]

पण्डितजीअच्छा, यह निष्ठुर भाव (रूखापन -callousness) किस तरह दूर हो ? हास्य देखता हूँ तो मांसपेशियों (Muscles) की, स्नायुओं (Nerves) की याद आती है । शोक देखता हूँ तो एक स्नायविक क्रिया (Nervous System) की उत्तेजना जान पड़ती है ।

[পণ্ডিত — আজ্ঞে, কিসে নিষ্ঠুর ভাবটা যায়? হাস্য দেখলে মাংসপেশী (muscles), স্নায়ু (nerves) মনে পড়ে। শোক দেখলে কিরকম nervous system মনে পড়ে।

PUNDIT: "Sir, how does one get rid of callousness? Laughter makes me think of muscles and nerves. Grief makes me think of the nervous system."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - यही बात नारायण शास्त्री भी कहता था, शास्त्र पढ़ने का यह दोष है कि वह तर्क और विचार में डाल देता है ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — নারাণ শাস্ত্রী তাই বলত, ‘শাস্ত্র পড়ার দোষ, — তর্ক-বিচার এই সব এনে ফেলে!’

MASTER (smiling): "That is why Narayan Shastri used to say. The harmful effect of the study of the scriptures is that it encourages reasoning and arguing.'} 

पण्डितजी - क्या कोई उपाय नहीं है ?

[পণ্ডিত — আজ্ঞে, উপায় কি কিছু নাই? — একটু মার্দব —

PUNDIT: "Is there no way for us then?"

श्रीरामकृष्ण - है, विवेक-प्रयोग । एक गाना है, उसमें कहा है कि उसके विवेक नाम के लड़के से तत्त्व की बातें पूछना ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — আছে — বিবেক। একটা গান আছে, -‘বিবেক নামে তার বেটার তত্ত্বকথা তায় সুধাবি।’

MASTER: "Yes, there is the path of discrimination. In a song occurs the line: 'Ask her son Discrimination about the Truth.'} 

"विवेक, वैराग्य, ईश्वर पर अनुराग, ये ही सब उपाय हैं । विवेक के हुए बिना बात कभी पूरी नहीं उतरती। पण्डित सामाध्यायी ने बहुत कुछ व्याख्या के बाद कहा, ईश्वर नीरस है । एक ने कहा था, मेरे मामा के यहाँ एक गोशाले भर घोड़े हैं । गोशाले में भी कहीं घोड़े रहते हैं !

(सहास्य) “तुम तो गुलाबजामुन बन रहे हो । अभी कुछ दिन रस में पड़े रहो, इससे तुम्हारे लिए भी अच्छा है और दूसरों के लिए भी । बस दो-चार दिन के लिए रहो ।"

[“বিবেক, বৈরাগ্য, ঈশ্বরে অনুরাগ — এই উপায়। বিবেক না হলে কথা কখন ঠিক ঠিক হয় না। সামাধ্যয়ী অনেক ব্যাখ্যার পর বললে, ‘ঈশ্বর নীরস!’ একজন বলেছিল, ‘আমাদের মামাদের একগোয়াল ঘোড়া আছে।’ গোয়ালে কি ঘোড়া থাকে?"(সহাস্যে) “তুমি ছানাবড়া হয়ে আছ। এখন দু-পাঁচদিন রসে পড়ে থাকলে তোমার পক্ষেও ভাল, পরেরও ভাল। দু-পাঁচদিন।”

The way lies through discrimination, renunciation, and passionate yearning for God. Unless a man practises discrimination, he cannot utter the right words. One time, after expounding religion at great length, Pundit Samadhyayi said, 'God is dry.' He reminded me of the man who once said, 'My uncle's cow-shed is full of horses.' Now, does anyone keep horses in a cowshed? (With a smile) You have become like a chanabara12 fried in butter. Now it will be good for you, and for others as well, if you are soaked in syrup a few days. Just a few days."

पण्डितजी - (मुस्कराकर) - गुलाबजामुन जलकर खंगार हो गया है ।

[পণ্ডিত (ঈষৎ হাসিয়া) — ছানাবড়া পুড়ে অঙ্গার হয়ে গিয়েছে।

PUNDIT (smiling): "The sweetmeat is over-fried. It has become charred."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं नहीं, अच्छा पका है, उसी की लाली है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — না, না; আরসুলার রঙ হয়েছে।

MASTER (with a laugh): "No! No! It is brown as a cockroach. Just the right colour."

हाजरा - अच्छा भूना गया है, अभी रस और खींचेगा ।

[হাজরা — বেশ ভাজা হয়েছে, — এখন রস খাবে বেশ।

HAZRA: "The sweetmeat is well cooked. It has become spongy. Now it will soak up the syrup nicely."

  [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆तोतापुरी का उपदेश - शास्त्रों के सार को समझकर उसे पूरा करने में लग जाओ ! 🔆

[जैसे गीता का सार है  - त्यागी बनो ! (कामिनी-कांचन में आसक्ति का त्याग)-व्याकुल होओ ]  

[পূর্বকথা — তোতাপুরীর উপদেশ — গীতার অর্থ — ব্যাকুল হও ]

श्रीरामकृष्ण - बात यह है कि अधिक शास्त्र पढ़ने की जरूरत नहीं है । ज्यादा पढ़ने पर तर्क और विचार आ जाते हैं । न्यांगटा मुझे सिखलाता था - उपदेश देता था - गीता का दस बार उच्चारण करने से जो फल होता है, वही गीता का सार है । - अर्थात् दस बार 'गीता-गीता' कहने से तागी-तागी (त्यागी-त्यागी) निकलता है ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — কি জান, — শাস্ত্র বেশি পড়বার দরকার নাই। বেশি পড়লে তর্ক বিচার এসে পড়ে। ন্যাংটা আমায় শেখাত — উপদেশ দিত — গীতা দশবার বললে যা হয় তাই গীতার সার! — অর্থাৎ ‘গীতা’ ‘গীতা’ দশবার বলতে বলতে ‘ত্যাগী’ ‘ত্যাগী’ হয়ে যায়।

MASTER: "You see, there is no need to read too much of the scriptures. If you read too much you will be inclined to reason and argue. Nangta used to teach me thus: What you get by repeating the word 'Gita' ten times is the essence of the book. In other words, if you repeat 'Gita' ten times it is reversed into 'tagi', which indicates renunciation.} 

"उपाय विवेक और वैराग्य है, और ईश्वर पर अनुराग पर कैसा अनुराग ? ईश्वर के लिए जो व्याकुल हो रहा है - जैसी व्याकुलता के साथ बछड़े के पीछे गौ दौड़ती है ।"

[“উপায় — বিবেক, বৈরাগ্য, আর ঈশ্বরে অনুরাগ। কিরূপ অনুরাগ? ঈশ্বরের জন্য প্রাণ ব্যাকুল, — যেমন ব্যাকুল হয়ে ‘বৎসের পিছে গাভী ধায়’।”

"Yes, the way to realize God is through discrimination, renunciation, and yearning for Him. What kind of yearning? One should yearn for God as the cow, with yearning heart, runs after its calf."

पण्डितजी - वेदों में बिलकुल ऐसा ही है । गौ जैसे बछड़े को पुकारती है, तुम्हें हम उसी तरह पुकारते हैं।

[পণ্ডিত — বেদে ঠিক অমনি আছে, গাভী যেমন বৎসের জন্য ডাকে, তোমাকে আমরা তেমনি ডাকছি।

PUNDIT: "The same thing is said in the Vedas: 'O God, we call on Thee as the cow lows for the calf.'"

श्रीरामकृष्ण - व्याकुलता के साथ रोओ । और विवेक-वैराग्य प्राप्त करके अगर कोई सर्वस्व  का (मैं और मेरा का ) त्याग कर सके तो उनका साक्षात्कार हो सकता है । 

"उस व्याकुलता के आने पर उन्माद की अवस्था हो जाती है, ज्ञानमार्ग में रहो चाहे भक्तिमार्ग में । दुर्वासा को ज्ञानोन्माद हो गया था

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্যাকুলতার সঙ্গে কাঁদো। আর বিবেক-বৈরাগ্য এনে যদি কেউ সর্বত্যাগ করতে পারে, — তাহলে সাক্ষাৎকার হবে।“সে ব্যাকুলতা এলে উন্মাদের অবস্থা হয় — তা জ্ঞানপথেই থাক, আর ভক্তিপথেই থাক। দুর্বাসার জ্ঞানোন্মাদ হয়েছিল।

MASTER: "Add your tears to your yearning. And if you can renounce everything through discrimination and dispassion, then you will be able to see God. That yearning brings about God-intoxication, whether you follow the path of knowledge or the path of devotion. The sage Durvasa was mad with the Knowledge of God.

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆चैतन्य देव के भीतर  ब्रह्मज्ञान और भक्ति-प्रेम, दोनों थे । 🔆

[ চৈতন্যদেবের ভিতর  ব্রহ্মজ্ঞান, ভক্তিপ্রেম, দুইই ছিল।” 

 [चैतन्य देव के भीतर ज्ञानसूर्य के प्रकाश के साथ भक्तिचन्द्र की ठण्डी किरणें भी थीं ! ]

"संसारियों के ज्ञान और सर्वत्यागियों के ज्ञान में बड़ा अन्तर है । संसारियों का ज्ञान दीपक के प्रकाश के समान है, उससे घर के भीतर के अंश में ही उजाला होता है, उसके द्वारा अपनी देह, घर के काम, इनके अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जा सकता । सर्वत्यागी का ज्ञान सूर्य के प्रकाश की भाँति है । उस प्रकाश से घर का भीतर और बाहर सब प्रकाशित हो जाता है, सब देख लिया जाता है । चैतन्य देव का ज्ञान सौर-ज्ञान था - ज्ञानसूर्य का प्रकाश था । और उनके भीतर भक्तिचन्द्र की ठण्डी किरणें भी थीं। ब्रह्मज्ञान और भक्ति-प्रेम, दोनों थे ।

{“সংসারীর জ্ঞান আর সর্বত্যাগীর জ্ঞান — অনেক তফাত। সংসারীর জ্ঞান — দীপের আলোর ন্যায় ঘরের ভিতরটি আলো হয়, — নিজের দেহ ঘরকন্না ছাড়া আর কিছু বুঝতে পারে না। সর্বত্যাগীর জ্ঞান, সূর্যের আলোর ন্যায়। সে আলোতে ঘরের ভিতর বা’র সব দেখা যায়। চৈতন্যদেবের জ্ঞান সৌরজ্ঞান — জ্ঞানসূর্যের আলো! আবার তাঁর ভিতর ভক্তিচন্দ্রের শীতল আলোও ছিল। ব্রহ্মজ্ঞান, ভক্তিপ্রেম, দুইই ছিল।”

"There is a great deal of difference between the knowledge of a house-holder and that of an all-renouncing sannyasi. The householder's knowledge is like the light of a lamp, which illumines only the inside of a room. He cannot see anything, with the help of such knowledge, except his own body and his immediate family. But the knowledge of the all-renouncing monk is like the light of the sun. Through that light he can see both inside and outside the room. Chaitanyadeva's knowledge had the brilliance of the sun — the sun of Knowledge. Further, he radiated the soothing light of the moon of Devotion. He was endowed with both — the Knowledge of Brahman and ecstatic love of God.

क्या ठाकुर चैतन्यदेव की अवस्था का उल्लेख कर, अपनी अवस्था का वर्णन कर रहे हैं?

{ঠাকুর কি চৈতন্যদেবের অবস্থা বর্ণনা করিয়া নিজের অবস্থা বলিতেছেন?}

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆ज्ञानयोग नहीं भक्ति योग - कलियुग का धर्म है नारदीय भक्ति 🔆

[জ্ঞানযোগ ভক্তিযোগ — কলিতে নারদীয় ভক্তি ]

"तुमि नेजा-मूड़ा बाद दिये बोलबे हे ! "

"अभावमुख चैतन्य और भावमुख चैतन्य । भाव-भक्ति का एक मार्ग है और अभाव (नेति नेति ज्ञान-विचार) का भी एक दूसरा । तुम अभाव की बात कह रहे हो, परन्तु वह बड़ा कठिन है । कहा भी गया है -

"से बड़ो कठिन ठांईं गुरु-शिष्य देखा नाई ' 

वह जगह ऐसी है कि वहाँ गुरु और शिष्य में भी मुलाकात नहीं होती । जनक के पास शुकदेव ब्रह्मज्ञान के उपदेश के लिए गये । जनक ने कहा, पहले दक्षिणा दे दो, तुम्हें ब्रह्मज्ञान हो जाने पर फिर तुम दक्षिणा थोड़े ही दोगे, क्योंकि तब गुरु और शिष्य में भेद ही नहीं रह जाता

{“অভাবমুখ চৈতন্য আর ভাবমুখ চৈতন্য। ভাব ভক্তি একটি পথ আছে; আর অভাবের একটি আছে। তুমি অভাবের কথা বলছ। কিন্তু ‘সে বড় কঠিন ঠাঁই গুরুশিষ্য দেখা নাই!’ জনকের কাছে শুকদেব ব্রহ্মজ্ঞান উপদেশের জন্য গেলেন। জনক বললেন, ‘আগে দক্ষিণা দিতে হবে, — তোমার ব্রহ্মজ্ঞান হলে আর দক্ষিণা দেবে না — কেননা গুরুশিষ্যে ভেদ থাকে না।’}

(To the pundit) "One can attain spiritual consciousness through both affirmation and negation (मण्डन और खण्डन) . There is the positive path of love and devotion,(मण्डन) and there is the negative path of knowledge and discrimination (खण्डन). You are preaching the path of knowledge. But that creates a very difficult situation: there the guru and the disciple do not see each other. Sukadeva went to Janaka for instruction about the Knowledge of Brahman. Janaka said to him: 'You must pay me the guru's fee beforehand. When you attain the Knowledge of Brahman you won't pay me the fee, because the knower of Brahman sees no difference between the guru and the disciple.'

"भाव और अभाव सभी प्रकार के पथ हैं । जैसे अनन्त मत हैं वैसे ही पथ भी अनन्त हैं । परन्तु एक बात है । कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति का ही विधान माना जाता है । इस मार्ग में पहले है भक्ति, भक्ति के पक जाने पर है भाव, भाव से उच्च है महाभाव और प्रेम साधारण जीवों को नहीं होता । यह जिसे हुआ है वह 'वस्तु'-लाभ कर चुका हैं ।"

{“ভাব অভাব সবই পথ। অনন্ত মত অনন্ত পথ। কিন্তু একটি কথা আছে। কলিতে নারদীয় ভক্তি — এই বিধান। এ-পথে প্রথমে ভক্তি, ভক্তি পাকলে ভাব, ভাবের চেয়ে উচ্চ মহাভাব আর প্রেম। মহাভাব আর প্রেম জীবের হয় না। যার তা হয়েছে তার বস্তুলাভ অর্থাৎ ঈশ্বরলাভ হয়েছে।”

"Both negation and affirmation are ways to realize one and the same goal. Infinite are the opinions and infinite are the ways. But you must remember one thing. The injunction is that the path of devotion described by Narada is best suited to the Kaliyuga. According to this path, first comes bhakti; then, bhava, when bhakti is mature. Higher than bhava are mahabhava and prema. An ordinary mortal does not attain mahabhava and prema. He who has achieved these has realized the goal, that is to say, has attained God."

पण्डितजी - धर्म की व्याख्या करनी है, तो बहुत सी बातें कहकर समझाना पड़ता है ।

[পণ্ডিত — আজ্ঞে, বলতে গেলে তো অনেক কথা দিয়ে বুঝাতে হয়।

PUNDIT: "In expounding religion one has to use a great many words."

श्रीरामकृष्ण - "तुमि नेजा-मूड़ा बाद दिये बोलबे हे ! "----तुम मछली की 'मूड़ी' और 'पूँछ' को बाद देकर केवल - 'पेट' के विषय में कहना , अर्थात भाई तुम जब उपदेश देना तब अनावश्यक बातें छोड़कर कर कहना ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি নেজামুড়া বাদ দিয়ে বলবে হে।

MASTER: "While preaching, eliminate the 'head and tail', that is to say, emphasize only the essentials."

(५)

[ 30  जून 1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत-85]

 🔆कालीब्रह्म - ब्रह्म शक्ति अभेद  🔆

[ वीरभाव -क्यों री (श्याली), मेरा परलोक बरबाद करने चली है ? अभी तुझे काट डालूँगा ।]

श्रीयुत मणि मल्लिक के साथ पण्डितजी बातचीत कर रहे हैं । मणि मल्लिक ब्राह्मसमाजी हैं । ब्राह्मसमाज के दोषों और गुणों पर घोर तर्क कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण अपनी छोटी खाट पर बैठे हुए सब सुन रहे हैं और फिर हँस रहे हैं । कभी कभी कह रहे हैं - यह 'सत्त्व' का तम है, वीरों का भाव है, यह सब चाहिए । अन्याय और असत्य देखकर चुप न रहना चाहिए । सोचो कि कोई  व्यभिचारणी स्त्री अगर परमार्थ बिगाड़ने के लिए आ रही है, उस समय ऐसा ही वीरभाव चाहिए । तब कहना चाहिए, 'क्यों री (श्याली), मेरा परलोक बरबाद करने चली है ? अभी तुझे काट डालूँगा ।'

[শ্রীযুক্ত মণি মল্লিকের সঙ্গে পণ্ডিত কথা কহিতেছেন। মণি মল্লিক ব্রাহ্মসমাজের লোক। পণ্ডিত ব্রাহ্মসমাজের দোষগুন লইয়া ঘোর তর্ক করিতেছেন। ঠাকুর ছোট খাটটিতে বসিয়া দেখিতেছেন ও হাস্য করিতেছেন। মাঝে মাঝে বলিতেছেন, “এই সত্ত্বের তমঃ — বীরের ভাব। এ-সব চাই। অন্যায় অসত্য দেখলে চুপ করে থাকতে নাই। মনে কর, নষ্ট স্ত্রী পরমার্থ হানি করতে আসছে, তখন এই বীরের ভাব ধরতে হয়। তখন বলবে, কি শ্যালি! আমার পরমার্থ হানি করবি! — এক্ষণি তোর শরীর চিরে দিব।”

The pundit and Mani Mallick became engaged in conversation. Mani was a member of the Brahmo Samaj. The pundit argued vehemently about the good and bad sides of the Samaj. Sri Ramakrishna was seated on the small couch and looked on, smiling. Presently he remarked: "This is the tamasic aspect of sattva, the attitude of a hero. This is necessary. One should not hold one's tongue at the sight of injustice and untruth. Suppose a bad woman wants to drag you from the path of righteousness. You must then assume the heroic attitude and say: 'What? You witch! You dare injure my spiritual life? I shall cut your body in two right now.'

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆जबरन धर्मान्तरण न हो , इसीलिए साकार पूजन की व्यवस्था की गयी है 🔆

[सभी आदमी ब्रह्मज्ञान के अधिकारी नहीं होते ।]

[সকলে ব্রহ্মজ্ঞানের অধীকারী নয়, তাই আবার তিনি সাকারপূজার ব্যবস্থা করেছেন।] 

[By no means all are fit for the Knowledge of Brahman. Therefore the worship of God with form has been provided.]

फिर हँसकर कह रहे हैं - "मणि मल्लिक का ब्राह्मसमाजी मत बहुत दिनों से है । उसके भीतर तुम अपना मत घुसेड़ने की कोशिश न करो । पुराने संस्कार कभी एकाएक छूट सकते हैं ? एक हिन्दू बड़ा भक्त था । सदा जगदम्बा की पूजा करता और उनका नाम लेता था । जब मुसलमानों का राज्य हुआ, तब उसे पकड़कर मुसलमानों ने मुसलमान बना लिया और कहा, अब तू मुसलमान हो गया ।

अब अल्ला का नाम ले, अल्ला का नाम जपा कर । वह आदमी बड़े कष्ट से 'अल्ला-अल्ला' कहने लगा; परन्तु फिर भी कभी-कभी 'जगदम्बा' का नाम निकल ही पड़ता था । तब मुसलमान उसे मारने दौड़ते । वह कहता था, 'दोहाई - शेखजी, मुझे मारना नहीं, मैं तुम्हारे अल्ला का नाम लेने की बड़ी कोशिश कर रहा हूँ, परन्तु करूँ क्या, भीतर जगदम्बा ^* ["The Mother of the Universe"असंख्य ब्रह्माण्डों  की जननी]  कण्ठ तक समायी हुई हैं, तुम्हारे अल्ला को धक्के मारकर निकाल देती हैं ।' (सब हँसते हैं।)

[আবার হাসিয়া বলিতেছেন, “মণি মল্লিকের ব্রাহ্মসমাজের মত অনেকদিনের — ওর ভিতর তোমার মত ঢোকাতে পারবে না। পুরানো সংস্কার কি এমনি যায়? একজন হিন্দু বড় ভক্ত ছিল, — সর্বদা জগদম্বার পূজা আর নাম করত। মুসলমানদের যখন রাজ্য হল তখন সেই ভক্তকে ধরে মুসলমান করে দিল, আর বললে, তুই এখন মুসলমান হয়েছিস, বল আল্লা! কেবল আল্লা নাম জপ কর। সে অনেক কষ্টে আল্লা, আল্লা বলতে লাগল। কিন্তু এক-একবার বলে ফেলতে লাগল ‘জগদম্বা!’ তখন মুসলমানেরা তাকে মারতে যায়। সে বলে, দোহাই শেখজী! আমায় মারবেন না, আমি তোমাদের আল্লা নাম করতে খুব চেষ্টা করছি, কিন্তু আমাদের জগদম্বা আমার কণ্ঠা পর্যন্ত রয়েছেন, তোমাদের আল্লাকে ঠেলে ঠেলে দিচ্ছেন। (সকলের হাস্য)

With a smile Sri Ramakrishna said to the pundit: "Mani Mallick has been following the tenets of the Brahmo Samaj a long time. You can't convert him to your views. Is it an easy thing to destroy old tendencies? Once there lived a very pious Hindu who always worshipped the Divine Mother and chanted Her name. When the Mussalmans conquered the country, they forced him to embrace Islam. They said to him: 'You are now a Mussalman. Say "Allah". From now on you must repeat only the name of Allah.' With great difficulty he repeated the word 'Allah', but every now and then blurted out 'Jagadamba'.13 At that the Mussalmans were about to beat him. Thereupon he said to them: 'I beseech you! Please do not kill me. I have been trying my utmost to repeat the name of Allah, but our Jagadamba has filled me up to the throat. She pushes out your Allah.' (All laugh.)

(पण्डितजी से हँसते हुए) “मणि मल्लिक से कुछ कहना मत ।

“बात यह है कि रुचि-भेद है, जिसके पेट में जो कुछ फायदा पहुँचाये । अनेक धर्म और अनेक मतों की सृष्टि उन्होंने अधिकारी विशेष के लिए की है । सभी आदमी ब्रह्मज्ञान के अधिकारी नहीं होते । और यही सोचकर उन्होंने साकार-पूजन की व्यवस्था की है । प्रकृति सब की अलग अलग होती है और फिर अधिकार-भेद भी है ।”

[(পণ্ডিতের প্রতি, সহাস্যে) — “মণি মল্লিককে কিছু বলো না।“কি জানো, রুচিভেদ, আর যার যা পেটে সয়। তিনি নানা ধর্ম নানা মত করেছেন — অধীকারী বিশেষের জন্য। সকলে ব্রহ্মজ্ঞানের অধীকারী নয়, তাই আবার তিনি সাকারপূজার ব্যবস্থা করেছেন। মা ছেলেদের জন্য বাড়িতে মাছ এনেছে। সেই মাছে ঝোল, অম্বল, ভাজা আবার পোলাও করলেন। সকলের পেটে কিন্তু পোলাও সয় না; তাই কারু কারু জন্য মাছের ঝোল করেছেন, — তারা পেট রোগা। আবার কারু সাধ অম্বল খায়, বা মাছ ভাজা খায়। প্রকৃতি আলাদা — আবার অধিকারী ভেদ।”

(To the pundit) "Please don't say anything to Mani Mallick. You must know that there are different tastes. There are also different powers of digestion. God has made different religions and creeds to suit different aspirants. By no means all are fit for the Knowledge of Brahman. Therefore the worship of God with form has been provided." The mother brings home a fish for her children. She curries part of the fish, part she fries, and with another part she makes pilau. By no means all can digest the pilau. So she makes fish soup for those who have weak stomachs. Further, some want pickled or fried fish. There are different temperaments. There are differences in the capacity to comprehend."

  [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆पहले ब्रह्म के मूर्त रूप चिन्मयी ब्रह्ममयी' पर मन को एकाग्र करो  🔆

सब लोग चुप हैं । श्रीरामकृष्ण पण्डितजी से कह रहे हैं, अब जाओ, देवताओं के दर्शन करो और बगीचा घूमकर देख लो ।

दिन के पाँच बजे होंगे । पण्डितजी और उनके मित्र उठे । ठाकुरबाड़ी देखने जायेंगे । उनके साथ कोई-कोई भक्त भी गये । कुछ देर बाद मास्टर के साथ टहलते हुए श्रीरामकृष्ण भी गंगाजी के किनारे नहाने के घाट की ओर जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, बाबूराम अब कहता है, लिख-पढ़कर क्या होगा ?

[সকলে চুপ করিয়া আছেন। ঠাকুর পণ্ডিতকে বলিতেছেন, “যাও একবার ঠাকুর দর্শন করে এসো, — আবার বাগানে একটু বেড়াও।”বেলা সাড়ে পাঁচটা বাজিয়াছে। পণ্ডিত ও তাঁহার বন্ধুরা গাত্রোত্থান করিলেন; ঠাকুরবাড়ি দেখিবেন। ভক্তেরাও কেহ কেহ তাঁহাদের সঙ্গে গেলেন।কিয়ৎক্ষণ পরে মাস্টার সমভিব্যাহারে বেড়াইতে বেড়াইতে ঠাকুরও গঙ্গাতীরে বাঁধাঘাটের দিকে যাইতেছেন। ঠাকুর মাস্টারকে বলিতেছেন, “বাবুরাম এখন বলে — পড়েশুনে কি হবে।“

All sat in silence. Sri Ramakrishna said to the pundit, "Go and visit the temples and take a stroll in the garden." It was about half past five in the afternoon. The pundit left the room with his friends and several of the devotees.

गंगा के तट पर पण्डितजी के साथ श्रीरामकृष्ण की फिर भेंट हुई । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'काली के दर्शन करने नहीं गये ? - मैं तो इसीलिए आया हूँ ।' पण्डितजी ने कहा, जी हाँ, चलिये, दर्शन करें ।

[গঙ্গাতীরে পণ্ডিতের সহিত ঠাকুরের আবার দেখা হইল। ঠাকুর বলিতেছেন, “কালীঘরে যাবে না? — তাই এলুম।” পণ্ডিত ব্যস্ত হইয়া বলিলেন, “আজ্ঞে, চলুন দর্শন করি গিয়ে।”

After a while the Master went with M. toward the bathing-ghat on the Ganges. He said to M., "Baburam now says, 'What shall I gain by study?'" On the bank of the river he met the pundit and said to him, "Aren't you going to the Kali temple?" The pundit said: "Yes, sir. Let us go together."

श्रीरामकृष्ण के चेहरे पर प्रसन्नता की झलक है । आँगन के भीतर से काली-मन्दिर जाते हुए कह रहे हैं, एक गाना है । यह कहकर मधुर कण्ठ से गा रहे हैं –

मा कि आमार कालो रे | श्यामा मा कि आमार कालो

कालोरूप दिगंबरी, हृदिपद्म करे आलो रे |

लोके बोले काली कालो, (आमार) मन तो बोले ना कालो रे ||

कखनो श्वेत, कखनो पीत, कखनो नील लोहित रे |

(आमि) आगे नाहिजानि, केमन जननी, भाबिये जनम गेलो रे ||

कखनो पुरुष, कखनो प्रकृति, कखनो शून्यरूपा रे |

(मायेर) ए भा-व भाबिये ‘कमलाकांत’ सहज पागल होलो रे ||

"मेरी माँ काली थोड़े ही है ? वह दिगम्बरा मूर्ति काले रूप से ही हृदयपद्म को प्रकाशित कर देती है...।"

चाँदनी से आँगन में आकर फिर कह रहे हैं - घर में ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करके ब्रह्ममयी का स्वरूप देखो।

[ঠাকুর সহাস্যবদন। চাঁদনির ভিতর দিয়া কালীঘরের দিকে যাইতে যাইতে বলিতেছেন, “একটা গানে আছে।” এই বলিয়া মধুর সুর করিয়া গাহিতেছেন:

“মা কি আমার কালো রে!

কালোরূপ দিগম্বরী হৃদিপদ্ম করে আলো রে!”

চাঁদনি হইতে প্রাঙ্গণে আসিয়া আবার বলিতেছেন, একটা গানে আছে, — ‘জ্ঞানাগ্নি জ্বেলে ঘরে, ব্রহ্মময়ীর রূপ দেখ না’!

With a smiling face Sri Ramakrishna proceeded to the temple through the courtyard. He said to the pundit, "Listen to a song."He sang;Is Kali, my Mother, really black?The Naked One, of blackest hue,Lights the Lotus of the Heart. . . .As he was going through the courtyard, he quoted to the pundit from a song:Lighting the lamp of Knowledge in the chamber of your heart,Behold the face of the Mother, Brahman's Embodiment.

मन्दिर में आकर श्रीरामकृष्ण ने काली को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । माता के श्रीचरणों पर जवापुष्प तथा बिल्वदल शोभा दे रहे थे । त्रिनेत्रा भक्तों को स्नेह की दृष्टि से देख रही हैं । हाथों में वर और अभय है । माता बनारसी साड़ी और भाँतिभाँति के अलंकार पहने हुए हैं । श्रीमूर्ति के दर्शन कर भूघर के बड़े भाई ने कहा, ' मैंने सुना है, कि इस मूर्ति का निर्माण शिल्पकार नवीन भास्कर ने किया है। ' ठाकुर देव ने कहा , 'मैं वह कुछ नहीं जानता । इतना ही जानता हूँ कि यह तो चिन्मयी है।’ (घनीभूत शाश्वत चैतन्य - 'pure consciousness' की मूर्त रूप हैं।)  

 {মন্দিরে আসিয়া ঠাকুর ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। মার শ্রীপাদপদ্মে জবা, বিল্ব; ত্রিনয়নী ভক্তদের কতই স্নেহ চক্ষে দেখিতেছেন। হস্তে বরাভয়। মা বারাণসী চেলী ও বিবিধ অলঙ্কার পরিয়াছেন।শ্রীমূর্তি দর্শন করিয়া ভূধরের দাদা বলিতেছেন, “শুনেছি নবীন ভাস্করের নির্মাণ।” ঠাকুর বলিতেছেন, “তা জানি না — জানি ইনি চিন্ময়ী!”}

 ভক্তসঙ্গে ঠাকুর নাটমন্দিরে বেড়াইতে বেড়াইতে দক্ষিণাস্য হইয়া আসিতেছেন! বলিদানের স্থান দেখিয়া পণ্ডিত বলিতেছেন, “মা পাঁঠা কাটা দেখতে পান না।” (সকলের হাস্য)

They came to the temple. Sri Ramakrishna saluted the Divine Mother, touching the ground with his forehead.Red hibiscus flowers and vilwa-leaves adorned the Mother's feet. Her three eyes radiated love for Her devotees. Two of Her hands were raised as if to give them boons and reassurance; the other two hands held symbols of death. She was clothed in a sari of Benares silk and was decked with ornaments. Referring to the image, one of the party remarked, "I heard it was made by the sculptor Nabin." The Master answered: "Yes, I know. But to me She is the Embodiment of Spirit ."

[ 30 जून, 1884, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

 🔆ईश्वरलाभ और कर्मत्याग ~ नयी हण्डी~ गृहस्थभक्त और भ्रष्ट स्त्री  🔆

[ঈশ্বরলাভ ও কর্মত্যাগ — নূতন হাঁড়ি — গৃহীভক্ত ও নষ্টা স্ত্রী ]

श्रीरामकृष्ण अब लौट रहे हैं । बाबूराम को उन्होंने बुलाया । मास्टर भी साथ हो लिये । शाम हो गयी है । घर के पश्चिमवाले गोल बरामदे में आकर श्रीरामकृष्ण बैठ गये । भावस्थ हैं, अवस्था अर्ध-बाह्य है । पास ही बाबूराम और मास्टर हैं ।

[ঠাকুর এইবার ফিরিতেছেন। বাবুরামকে বলিলেন, আরে আয়! মাস্টারও সঙ্গে আসিলেন।সন্ধ্যা হইয়াছে। ঘরের পশ্চিমের গোল বারান্দায় আসিয়া ঠাকুর বসিয়াছেন। ভাবস্থ, — অর্ধবাহ্য। কাছে বাবুরাম ও মাস্টার।

As Sri Ramakrishna was coming back to his room with the devotees, he said to Baburam, "Come with us." M. also joined them. It was dusk. The Master was sitting on the semicircular porch west of his room. Baburam and M. sat near him. He was in a mood of partial ecstasy.

आजकल श्रीरामकृष्ण की सेवा ठीक से नहीं होती । उन्हें तकलीफ रहती है । आजकल राखाल नहीं रहते । कोई कोई हैं, परन्तु वे, श्रीरामकृष्ण को उनकी सभी अवस्थाओं में छू नहीं सकते । श्रीरामकृष्ण भावावस्था में बाबूराम से कह रहे हैं - 'छू – ना – रा - छू-' अर्थात् 'इस अवस्था में और किसी को छूने नहीं दे सकता । तू रहे तो अच्छा हो ।'

[আজকাল ঠাকুরের সেবার কষ্ট হইয়াছে। রাখাল আজকাল থাকেন না। কেহ কেহ আছেন, কিন্তু তাঁহারা ঠাকুরের সকল অবস্থাতে ছুঁতে পারেন না। ঠাকুর সঙ্কেত করে বাবুরামকে বলিতেছেন — “হ — ছু — না, রা — ছু” এ-অবস্থায় আর কাকেও ছুঁতে দিতে পারি না, তুই থাক তাহলে ভাল হয়।”

Rakhal was not then living with Sri Ramakrishna, and therefore the Master was having difficulties about his personal service. Several devotees lived with him, but he could not bear the touch of everyone during his spiritual moods. He hinted to Baburam: "Do stay with me. It will be very nice. In this mood I cannot allow others to touch me."

पण्डितजी दक्षिणेश्वर ठाकुरबाड़ी के देवी-देवताओं का दर्शन करके श्रीरामकृष्ण के कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण पश्चिम के गोल बरामदे से कह रहे हैं, तुम कुछ जलपान कर लो । पण्डितजी ने कहा, अभी मुझे सन्ध्या करनी है। श्रीरामकृष्ण भावावेश में मस्त होकर गाने लगे - और उठकर खड़े हो गये --

गया गंगा प्रभासादि काशी कांची केबा चाय। 

काली काली काली बोले अजपा जोदि फूराय।। 

त्रिसंध्या जे बोले काली, पूजा संध्या से की चाय। 

संध्या तार संध्याने फेरे, कोभू संधी नाई पाय।। 

जप यज्ञ पूजा होम आर किछु ना मने लोय। 

मदनेर याग यज्ञ, ब्रह्ममयीर रांगा पाय।।

कालीनामेर एतो गुण, केबा जानते पारे ताय। 

देवादिदेव महादेव, जार पंचमुखे गुण गाय।।

(भावार्थ )"गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची, यह सब कौन चाहता है - अगर काली का स्मरण करता हुआ वह अपनी देह त्याग सके ? त्रिसन्ध्या की बात लोग कहते हैं, परन्तु वह यह कुछ नहीं चाहता । सन्ध्या खुद उसकी खोज में फिरती रहती है, परन्तु सन्धि कभी नहीं पाती । पूजा, होम, जप और यज्ञ, किसी पर उसका मन लगता ही नहीं ।"

[পণ্ডিত ঠাকুরবাড়ি দর্শন করিয়া ঠাকুরের ঘরে ফিরিয়াছেন। ঠাকুর পশ্চিমের গোল বারান্দা হইতে বলিতেছেন, তুমি একটু জল খাও। পণ্ডিত বললেন, আমি সন্ধ্যা করি নাই। অমনি ঠাকুর ভাবে মাতোয়ারা হইয়া গান গাহিতেছেন, — ও দাঁড়াইয়া পড়িলেন —

গয়াগঙ্গা প্রভাসাদি, কাশী কাঞ্চী কেবা চায়।

কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায়।।

ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায়।

সন্ধ্যা তার সন্ধ্যানে ফেরে কভু সন্ধি নাহি পায়।।

পূজা হোম জপ যজ্ঞ আর কিছু না মনে লয়।

মদনেরই যাগযজ্ঞ ব্রহ্মময়ীর রাঙা পায়।।

The pundit entered the Master's room after visiting the temples. The Master said to him from the porch, "Take some refreshments." The pundit said that he had not yet performed his evening devotions. At once Sri Ramakrishna stood up and sang in an exalted mood: Why should I go to Ganga or Gaya, to Kasi, Kanchi, or Prabhas,So long as I can breathe my last with Kali's name upon my lips?What need of rituals has a man, what need of devotions any more,If he repeats the Mother's name at the three holy hours? . . .

श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर कह रहे हैं, सन्ध्या कितने दिन के लिए है ? - जब तक ॐ कहते हुए मन लीन न हो जाय ।

{ঠাকুর প্রেমোন্মত্ত হইয়া আবার বলিতেছেন, কতদিন সন্ধ্যা? যতদিন ওঁ বলতে মন লীন না হয়।

"How long should one perform devotions? So long as one's mind does not merge in God while repeating Om."

पण्डितजी – तो जलपान कर लेता हूँ, उसके बाद सन्ध्या करूँगा ।

[পণ্ডিত — তবে জল খাই, তারপর সন্ধ্যা করব।

PUNDIT: "Then let me eat the refreshments. I shall perform the devotions later on."

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

🔆'तुम्हारा घोड़ा जितना खींच सके, उससे अधिक लोगों को न बैठाना ।'  🔆

श्रीरामकृष्ण - मैं तुम्हारे जीवन-नदी के बहाव को न रोकूँगा । समय के बिना आये त्याग अच्छा नहीं है । फल बड़ा हो जाता है, तब फूल आप झर जाता है । कच्ची अवस्था में नारियल का पत्ता खींचना न चाहिए । इस तरह तोड़ने से पेड़ खराब हो जाता है ।

{শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি তোমার স্রোতে বাধা দিব না। সময় না হলে ত্যাগ ভাল না। ফল পাকলে ফুল আপনি ঝরে। কাঁচা বেলায় নারিকেলের বেল্লো টানাটানি করতে নাই, — এরকম করে ভাঙলে গাছ খারাপ হয়।

MASTER: "No, I don't want to obstruct the current of your life. It is not good to renounce anything before the proper time arrives. When the fruit ripens, the flower drops off of itself. One shouldn't forcibly tear off the green branch of a coconut tree. That injures the tree."

सुरेन्द्र घर जाने के लिए तैयार हैं । मित्रों को अपनी गाड़ी पर ले जाने के लिए बुला रहे हैं ।

[সুরেন্দ্র বাড়ি যাইবার উদ্যোগ করিতেছেন। বন্ধুবর্গকে আহ্বান করিতেছেন। তাঁহার গাড়িতে লইয়া যাইবেন।

Surendra was about to leave. He invited his friends into his carriage. 

सुरेन्द्र - महेन्द्र बाबू चलियेगा ?

সুরেন্দ্র — মহেন্দ্রবাবু যাবেন?

श्रीरामकृष्ण की अब भी भावावस्था है । अभी तक पूरी प्राकृत अवस्था नहीं आयी । वे उसी अवस्था में सुरेन्द्र से कह रहे है - 'तुम्हारा घोड़ा जितना खींच सके, उससे अधिक लोगों को न बैठाना ।' सुरेन्द्र प्रणाम करके चले गये ।

[ঠাকুর এখনও ভাবস্থ, সম্পূর্ণ প্রকৃতিস্থ হন নাই। তিনি সেই অবস্থাতেই সুরেন্দ্রকে বলিতেছেন, তোমার ঘোড়া যত বইতে পারে, তার বেশি নিয়ো না। সুরেন্দ্র প্রণাম করিয়া চলিয়া গেলেন। 

The Master, still in an ecstatic mood, said, "Don't take more people than your horse can draw." Surendra took leave of Sri Ramakrishna. The pundit left the room to perform his worship. M. and Baburam saluted the Master. 

पण्डितजी सन्ध्या करने गये । मास्टर और बाबूराम कलकत्ता जायेंगे, श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण अब भी भावावेश में हैं ।

[পণ্ডিত সন্ধ্যা করিতে গেলেন। মাস্টার ও বাবুরাম কলিকাতায় যাইবেন, ঠাকুরকে প্রণাম করিতেছেন। ঠাকুর এখনও ভাবস্থ।

M. and Baburam saluted the Master. They were about to leave for Calcutta. Sri Ramakrishna was still in an ecstatic mood.

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - बात नहीं निकलती, जरा ठहरो अभी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — কথা বেরুচ্ছে না, একটু থাকো।

MASTER (to M.): "I cannot utter a word now. Stay a few minutes."

मास्टर बैठे । श्रीरामकृष्ण की क्या आज्ञा होती है, इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने इशारे से बाबूराम से बैठने के लिए कहा । बाबूराम ने मास्टर से कहा, जरा देर और बैठिये । श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से हवा करने के लिए कहा । बाबूराम पंखा झल रहे हैं, और मास्टर भी ।

[মাস্টার বসিলেন — ঠাকুর কি আজ্ঞা করিবেন — অপেক্ষা করিতেছেন। ঠাকুর বাবুরামকে সঙ্কেত করিয়া বসিতে বলিলেন। বাবুরাম বলিলেন, আর একটু বসুন। ঠাকুর বলিতেছেন, একটু বাতাস কর। বাবুরাম বাতাস করিতেছেন, মাস্টারও করিতেছেন।

M. again took his seat and waited for the Master's command. Sri Ramakrishna motioned to Baburam to take a seat and asked him to fan him a little. M. also took part in rendering this personal service to the Master.

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से, सस्नेह) - तुम अब उतना नहीं आते, क्यों ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারকে সস্নেহে) — এখন আর তত এস না কেন?

MASTER (to M., tenderly): "Why don't you come here so frequently now?"

मास्टर - जी, कोई खास कारण नहीं है । घर में काम था ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, বিশেষ কিছু কারণ নাই, বাড়ীতে কাজ ছিল।

M: "Not for any special reason. I have been rather busy at home."

श्रीरामकृष्ण - बाबूराम का घर (आंतरिक रुझान) कहाँ है, यह मैं कल समझा । इसीलिए तो इसे रखने की इतनी कोशिश कर रहा हूँ । चिड़िया समय समझकर अण्डे फोड़ती है । बात यह है कि ये सब शुद्धात्मा लड़के हैं, कभी कामिनी और कांचन में नहीं पड़े । है न ?

{"শ্রীরামকৃষ্ণ — বাবুরাম কি ঘর, কাল টের পেয়েছি। তাই তো এখন ওকে রাখবার জন্য অত বলছি। পাখি সময় বুঝে ডিম ফুটোয়। কি জানো এরা শুদ্ধ আত্মা, এখনও কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর গিয়ে পড়ে নাই। কি বল?} 

MASTER: "Yesterday I came to know Baburam's inner nature. That is why I have been trying so hard to persuade him to live with me. The mother bird hatches the egg in proper time. Boys like Baburam are pure in heart. They have not yet fallen into the clutches of 'woman and gold'. Isn't that so?

मास्टर - जी हाँ । अभी तक कोई दाग नहीं लगा ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ। এখনও কোন দাগ লাগে নাই।

M: "It is true, sir. They are still stainless."

श्रीरामकृष्ण - नयी हण्डी है, दूध रखा जाय तो बिगड़ नहीं सकता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — নূতন হাঁড়ি, দুধ রাখলে খারাপ হবে না।

MASTER: "They are like a new pot. Milk kept in it will not turn sour."

मास्टर - जी हाँ ।

[মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।M: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण - बाबूराम के यहाँ रहने की जरूरत भी है । कभी कभी मेरी अवस्था ऐसी हो जाती है कि उस समय ऐसे आदमियों का रहना जरूरी हो जाता है । उसने कहा है, धीरे धीरे रहूँगा, नहीं तो घरवाले शोरगुल मचायेंगे । मैंने कहा है, शनिवार और रविवार को आ जाया कर ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — বাবুরামের এখানে থাকবার দরকার পড়েছে। অবস্থা আছে কিনা, তাতে ওইসব লোকের থাকা প্রয়োজন। ও বলেছে, ক্রমে ক্রমে থাকব, না হলে হাঙ্গামা হবে  — বাড়িতে গোল করবে। আমি বলছি শনিবার, রবিবার আসবে।

MASTER: "I need Baburam here. I pass through certain spiritual states when I need someone like him. He says he must not, all at once, live with me permanently, for it will create difficulties. His relatives will make trouble. I am asking him to come here Saturdays and Sundays."

इधर पण्डितजी सन्ध्या करके आ गये । उनके साथ भूघर और बड़े भाई भी थे । पण्डितजी अब जलपान करेंगे ।भूघर के बड़े भाई कह रहे हैं, हम लोगों का क्या होगा, जरा कुछ आज्ञा कर दीजिये ।

[এদিকে পণ্ডিত সন্ধ্যা করিয়া আসিয়াছেন। তাঁহার সঙ্গে ভূধর ও তাঁহার জ্যেষ্ঠ ভাই পণ্ডিত এইবার জল খাইবেন।ভূধরের বড়ভাই বলিতেছেন, “আমাদের কি হবে; — একটু বলে দিন আমাদের উপায় কি?”

The pundit entered the room with his friends. He had finished his devotions and was ready to eat the refreshments. One of his companions asked the Master: "Shall we succeed in spiritual life? Please tell us what our way is."

 [(30  जून ,1884)  श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

🔆संसार में व्यभिचारिणी स्त्री की तरह होकर रहो । 🔆

श्रीरामकृष्ण - तुम लोग 'मुमुक्षु' हो । व्याकुलता के होने से ईश्वर मिलते हैं । श्राद्ध का अन्न न खाया करो । संसार में व्यभिचारिणी स्त्री की तरह होकर रहो । व्यभिचारिणी स्त्री घर का सब काम बड़ी प्रसन्नता से करती है, परन्तु उसका मन दिन-रात उसके यार के साथ रहता है । संसार का काम करो, परन्तु मन ईश्वर पर रखो

{শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমরা মুমুক্ষু, ব্যাকুলতা থাকলেই ঈশ্বরকে পাওয়া যায়। শ্রাদ্ধের অন্ন খেও না। সংসারে নষ্ট স্ত্রীর মতো থাকবে। নষ্ট স্ত্রী বাড়ির সব কাজ যেন খুব মন দিয়ে করে, কিন্তু তার মন উপপতির উপর রাতদিন পড়ে থাকে। সংসারের কাজ করো, কিন্তু মন সর্বদা ঈশ্বরের উপর রাখবে।

MASTER: "You all have the yearning for liberation. If an aspirant has yearning, that is enough for him to realize God. Don't eat any food of the sraddha ceremony. * Live in the world like an unchaste woman. She performs forms her household duties with great attention, but her mind dwells day and night on her paramour. Perform your duties in the world but keep your mind always fixed on God.

(*Offering of food and drink to deceased relatives, especially ancestors.श्राद्ध या विवाह में निमंत्रण स्वीकार न कर तुम अच्छा ही करते हो। ठाकुर कहा करते थे कि श्राद्ध का अन्न खाने से भक्ति चली जाती है।  ~ स्वामी तुरीयानन्द।)

पण्डितजी जलपान कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, आसन पर बैठकर खाओ ।

[পণ্ডিত জল খাইতেছেন। ঠাকুর বলিতেছেন, আসনে বসে খাও।The pundit finished eating his refreshments.

उन्होंने पण्डितजी से फिर कहा, ‘तुमने गीता पढ़ी होगी । जिसे सब लोग मानें उसमें ईश्वर की विशेष शक्ति है ।’

[খাবার পর পণ্ডিতকে বলিতেছেন — “তুমি তো গীতা পড়েছ, — যাকে সকলে গণে মানে, তাতে ঈশ্বরের বিশেষ শক্তি আছে।”

MASTER (to the pundit): "You have read the Gita, no doubt. It says that there is a special power of God in the man who is honoured and respected by all."

पण्डितजी – “यद्यत् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।"

পণ্ডিত — যদ্‌ যদ্‌ বিভূতিমৎ সত্ত্বং শ্রীমদূর্জিতমেব বা —

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे भीतर अवश्य ही उनकी शक्ति है । ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার ভিতর অবশ্য তাঁর শক্তি আছে।MASTER: "You surely possess divine power."

पण्डितजी - जो व्रत मैंने लिया है, क्या इसे अध्यवसाय के साथ पूरा करने की कोशिश करूँ ?

[পণ্ডিত — আজ্ঞা, যে ব্রত নিয়েছি অধ্যবসায়ের সহিত করব কি?PUNDIT: "Shall I labour with perseverance to finish the task that I have accepted?"

श्रीरामकृष्ण ने जैसे अनुरोध की रक्षा के लिए कहा, 'हाँ होगा', परन्तु इस बात को दबाने के लिए दूसरा प्रसंग उठा दिया ।

[ঠাকুর যেন উপরোধে পড়ে বলছেন, “হাঁ হবে।” তারপরেই অন্য কথার দ্বারা ও-কথা যেন চাপা দিলেন।Sri Ramakrishna forced himself, as it were, to say, "Yes." He soon changed the conversation.

श्रीरामकृष्ण - शक्ति को मानना चाहिए । विद्यासागर ने कहा, क्या उन्होंने किसी को ज्यादा शक्ति भी दी है ? मैंने कहा, नहीं तो फिर एक आदमी सौ आदमियों को कैसे मार डालता है ? क्वीन विक्टोरिया का इतना मान - इतना नाम क्यों है अगर उनमें शक्ति न होती ? मैंने पूछा, तुम यह मानते हो या नहीं ? तब उसने कहा, हाँ, मानता हूँ ।

{"শ্রীরামকৃষ্ণ — শক্তি মানতে হয়। বিদ্যাসাগর বললেন, তিনি কি কারুকে বেশি শক্তি দিয়েছেন? আমি বললাম, তবে একজন লোক একশ জনকে মারতে পারে কেন? কুইন ভিক্টোরিয়ার এত মান, নাম কেন — যদি শক্তি না থাকত? আমি বললাম, তুমি মানো কি না? তখন বলে, ‘হাঁ মানি।’} 

MASTER: "One cannot but admit the manifestation of power. Vidyasagar once asked me, 'Has God given more power to some than to others?' I said to him: 'Certainly. Otherwise, how can one man kill a hundred? If there is no special manifestation of power, then why is Queen Victoria so much honoured and respected? Don't you admit it?' He agreed with me.

पण्डितजी उठे और श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । साथवाले उनके मित्रों ने भी प्रणाम किया।

श्रीरामकृष्ण कहते हैं – "फिर आना । गंजेड़ी गंजेड़ी को देखता है, तो खुश होता है; कभी तो उसे गले से लगा लेता है । दूसरे आदमी देखकर मुँह छिपाते हैं । गाय अपने साथ की गायों को देखती है तो उनकी देह चाटती है, पर दूसरी गायों को सिर से ठोकर मारती है ।" (सब हँसते हैं ।)

[পণ্ডিত বিদায় লইয়া গাত্রোত্থান করিলেন ও ঠাকুরকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। সঙ্গের বন্ধুরাও প্রণাম করিলেন।ঠাকুর বলিতেছেন, “আবার আসবেন, গাঁজাখোর গাঁজাখোরকে দেখলে আহ্লাদ করে — হয়তো তার সঙ্গে কোলাকুলি করে — অন্য লোক দেখলে মুখ লুকোয়। গরু আপনার জনকে দেখলে গা চাটে, অপরকে গুঁতোয়।” (সকলের হাস্য)

The pundit and his friends saluted the Master and were about to take their leave. Sri Ramakrishna said to the pundit: "Come again. One hemp-smoker rejoices in the company of another hemp-smoker. They even embrace each other. But they hide at the sight of people not of their own kind. A cow licks the body of her calf; but she threatens a strange cow with her horns." (All laugh.)

पण्डितजी के चले जाने पर श्रीरामकृष्ण हँस हँसकर कह रहे हैं - " डाइल्यूट हो गया है (Dilute = भक्तिरस में भींग गया है।), एक ही दिन में । देखा, कैसा विनय-भाव है, और सब बातें समझकर ग्रहण कर लेता है।"

{"পণ্ডিত চলিয়া গেলে ঠাকুর হাসিয়া বলিতেছেন — ডাইলিউট হয়ে গেছে একদিনেই! — দেখলে কেমন বিনয়ী — আর সব কথা লয়!}

The pundit left the room. With a smile the Master said: "He has become 'diluted' even in one day. Did you notice how modest he was? And he accepted everything I said.

आषाढ़ की शुक्ला सप्तमी है । पश्चिमवाले बरामदे में चाँदनी छिटक रही है । श्रीरामकृष्ण अब भी वहीं बैठे हैं । मास्टर प्रणाम कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण स्नेहपूर्वक पूछ रहे हैं, क्या जाओगे ?

[আষাঢ় শুক্লা সপ্তমী তিথি। পশ্চিমের বারান্দায় চাঁদের আলো পড়িয়াছে। ঠাকুর সেখানে এখনও বসিয়া আছেন। মাস্টার প্রণাম করিতেছেন। ঠাকুর সস্নেহে বলিতেছেন, “যাবে?”Moonlight flooded the semicircular porch. Sri Ramakrishna was still seated there. M. was about to leave.MASTER (tenderly): "Must you go now?"

मास्टर - जी हाँ, अब चलता हूँ ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, তবে আসি।

M: "Yes, sir. Let me say good-bye."

श्रीरामकृष्ण - एक दिन मैंने सोचा कि सब के यहाँ एक-एक बार जाऊँगा – क्यों ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — একদিন মনে করেছি, সব্বায়ের বাড়ি এক-একবার করে যাব, — তোমার ওখানে একবার যাব, — কেমন?MASTER: "I have been thinking of visiting the houses of the devotees. I want to visit yours also. What do you say?"

मास्टर - जी हाँ, बड़ी कृपा होगी ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, বেশ তো।M: "That will be very fine."

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 * कालीमाई की जय ! शाक्त मत *  शक्ति के अनुयायियों को अक्सर 'शाक्त' कहा जाता है। इस दर्शन के अनुसार नारी मात्र पूजनीय समझी जाती है । माताओं तथा कुमारी बालिकाओं का शाक्त मत में अत्यंत ऊंचा और पवित्र स्थान है । जिस प्रकार शिव की शक्ति पार्वती है उसी प्रकार विष्णु की शक्ति के रूप में लक्ष्मी की और ब्रह्मा की शक्ति सरस्वती।  सभी सम्प्रदायों के समान ही शाक्त सम्प्रदाय का उद्देश्य भी मोक्ष है। इसकी प्राप्ति के लिए पहले शक्ति का संचय करो, शक्ति की उपासना करो, शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की सभी को आवश्यकता है। अतः बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। 

दुनिया के सभी धर्मों में ईश्वर की जो कल्पना की गई है, वह पुरुष के समान की गई है। अर्थात ईश्वर पुरुष जैसा हो सकता है, किंतु शाक्त धर्म दुनिया का एकमात्र ऐसा धर्म है, जो सृष्टि रचनाकार को जगत-जननी या मातृ-शक्ति मानता है।  शाक्तों का यह मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति जगज्जनी  है। इसीलिए वे माँ काली /या देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। कई देवियों की मान्यता है जो सभी एक ही देवी के विभिन्न रूप हैं।  शाक्त सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रंथ ‘श्री दुर्गा भागवत पुराण’ है। ‘दुर्गा सप्तशती’ भी इसी पुराण का अंश है। इस ग्रंथ में 108 देवी पीठों का वर्णन किया गया है। इनमें से 51-52 शक्ति पीठों का विशेष महत्व है।  

तंत्रवाद के अनुसार सृष्टि का उद्भव व विकास शिव व शक्ति के संयोग से हुआ है । शक्ति से प्रेरित होने पर ही शिव में गति उत्पन्न हुई । भगवान शिव की पत्नी, माँ पार्वती को शक्ति भी कहते हैं। यही सती, दुर्गा और भगवती है। उसी की विशेष आराधना के लिए वर्ष में दो बार नवरात्रि उत्सव का आयोजन किया जाता है। वर्ष का पहला नवरात्रि चैत्र माह में आता है इसे ‘चैत्रीय नवरात्रि’ कहते हैं। दूसरी नवरात्रि आश्विन माह में आती है जिसे ‘शारदीय नवरात्रि’ कहते हैं।

मां पार्वती का मूल नाम सती है।  पुराणों के अनुसार सती के पिता का नाम दक्ष प्रजा‍पति और माता का नाम मेनका है। पति का नाम शिव और पुत्र कार्तिकेय तथा गणेश हैं। यज्ञ में स्वाहा होने के बाद सती ने ही पार्वती के रूप में हिमालय के यहां जन्म लिया था। इन्हें हिमालय की पुत्री अर्थात उमा हैमवती भी कहा जाता है। अकसर जिक्र होता है कि मां दुर्गा के साथ भगवान भैरव, गणेश और हनुमानजी हमेशा रहते हैं। प्राचीन दुर्गा मंदिरों में आपको भैरव और हनुमानजी की मूर्तियां अवश्य मिलेंगी। दरअसल, भगवान भैरव दुर्गा की सेना के सेनापति माने जाते हैं और उनके साथ हनुमानजी का होना इस बात का प्रमाण है कि राम के काल में ही पार्वती के शिव थे। 

 शाक्त न केवल शक्ति की पूजा करते हैं, बल्कि उसके शक्ति–आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने का प्रयास भी करते हैं। विशेष रूप से माना जाता है कि शक्ति, कुंडलिनी के रूप में मानव शरीर के गुदा आधार तक स्थित होती है। जटिल ध्यान एवं यौन–यौगिक अनुष्ठानों के ज़रिये यह कुंडलिनी शक्ति जागृत की जा सकती है। इस अवस्था में यह सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है। मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई, जब तक सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश नहीं करती और वहाँ पर अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर नहीं मिलती। भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव हर्षोन्मादी–रहस्यात्मक समाधि के रूप में मनो–दैहिक रूप से किया जाता है, जिसका विस्फोटी परमानंद कहा जाता है कि कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानंद की बाढ़ के रूप में नीचे की ओर पूरे शरीर में बहता है। 

तंत्रमार्ग के आचार्य योग को  “गोमुख-व्याघ्र“ कहते है; अर्थात् वह बाघ जिसका मुख गाय का है अर्थात् जो भयानक नहीं लगे, परन्तु उसका पूरा शरीर बाघ का है अर्थात वह भयानक है।  और तंत्र को कहते हैं "व्याघ्रमुख-गौ" , अर्थात् वह गाय जिसका मुँह बाघ का हो अर्थात् देखने में भयानक हो, परन्तु सब धड़ गाय का है अर्थात सब कुछ कोमल।  परमेश्वर को पत्नी मानकर अगर कोई तपस्या करना चाहता है, तो उसे इसी वीर मार्ग से तपस्या करनी पड़ेगीउसको इस कार्य के लिए कुशल गुरु की खोज करनी चाहिये।  

शाक्त मत में दो प्रकार की साधनाएं शास्त्र सम्मत हैं- कुलाचार और समयाचार। कुलाचार साधना में बाह्य अनुष्ठान प्रधान है। इसका अभ्यास समहू बद्ध हाकेर किया जाता है।  समयाचार आंतरिक साधना है। इसमें अनिवार्य गुरु दीक्षा के बाद साधक गुरु आज्ञा से एकांत में रहकर ध्यानावस्थित होता है। इस साधना में मानस-दर्शन मुख्य है। किसके लिए कौन सी साधना उपयुक्त है इसका निर्णय गुरु करता है।  शाक्तमत के अनुसार पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव - ये तो तीन भावों के संकेत हैं। जो साधक द्वैतभावना का सर्वथा निराकरण कर देता है और उपास्य देवता की सत्ता में अपनी सत्ता डुबा कर अद्वैतानंद का आस्वादन करता है, वह तांत्रिक भाषा में दिव्य कहलाता है और उसकी मानसिक दशा दिव्यभाव कहलाती है। शंकराचार्य तथा उनके अनुयायी समयाचार के अनुयायी थे। समयमार्ग में अंतर्योग (हृदयस्थ उपासना) का महत्व है, शक्तों के समयाचारी संप्रदाय में श्रीचक्र का पूजन होता है। उनकी आस्था षट्चक्रों में है।  

{ इसमें आसान -प्रत्याहार और धारणा का महत्व है :  सभी आचारो को मिलाने से एक मिश्राचार बनता है, यह परम्परा , साधक को, सिद्ध को सब आना चाहिये l मिश्राचार  में  योग और तंत्र दोनों मिश्रण होता है। पंचकोशों की शुद्धि (भूतशुद्धि-  अर्थात मनःसंयोग या विवेकदर्शन का अभ्यास ) में  योग और तंत्र दोनों है, यह अकेले समाधि सिद्धि प्रदान कर देता है, और अत्यन्त सुगम है। आसन बिछाकर उसपर सिद्धासन में बैठ जायें, दोनों हाथ जोड़कर सृष्टि के कण-कण में विराजमान व्याप्त गुरु-तत्व को नमस्कार कर उनसे इस क्रिया को करने की अनुमति माँगे और इसे निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिये प्रार्थना करें। रीढ़, गर्दन, और सिर को एक सीध में रखें। धारणा : मन को बाह्यविषयों से खींचकर , मन को अन्दर ले जायें हृदय में इष्टदेव की धारणा करें। वहीं स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करें। }

 - ब्रह्म एक चेतन शक्ति है।  ईश्वर भी वही चेतन शक्ति है, तथा शरीर में वही चेतन शक्ति आत्मा कहलाती है।  ब्रह्म शुद्ध चेतनतत्व है तथा ईश्वर उस ब्रह्म की मायाशक्ति से आवृत्त है।  इस मायारूपी उपाधि के कारण ही उस ब्रह्म की संज्ञा ईश्वर हो जाती है अन्यथा दोनों में कोई भेद नहीं है।   

जिस प्रकार एक ही व्यक्ति अपने पुत्र के लिए पिता, पत्नी के लिए पति, रेल में यात्रा करने पर यात्री, उपासना करने पर भक्त, मांग कर खाने पर भिखारी आदि कहलाता है, ये उसकी उपाधियां हैं, जिससे उसको विभिन्न नाम दे दिये हैं, किंतु वास्तव में वह व्यक्ति तो एक ही है। इसी प्रकार लेखक, कलाकार, इंजीनियर, डॉक्टर, कलेक्टर आदि उसकी उपाधियां मात्र हैं, जो उसकी पहचान के लिए दिये जाते हैं अन्यथा मूल रूप में वह एक मनुष्य ही है।  इसी प्रकार माया की उपाधि के कारण उसे (ब्रह्म को) ईश्वर कहा जाता है।  वह इसी मायाशक्ति से सृष्टि की रचना करता है। वह इस माया का अधिपति व स्वामी है, जो उसी के संकल्प के अनुसार, उसी के नियम व अनुशासन में रह कर कार्य करती है। इसलिए ईश्वर ही सर्वेसर्वा है।  इसलिए शरीर से आबद्ध होने के कारण ही ब्रह्म की शक्ति को आत्मा कहा जाता है अन्यथा उसमें और ब्रह्म में कोई भेद नहीं.– आदि शंकराचार्य

दक्षिण भारत में समयाचारी साधना का प्रचलन रहा है। शंकराचार्य तथा उनके अनुयायी समयाचार के अनुयायी थे। उनकी आस्था षट्चक्रों में है। ----- तंत्र के अनुसार ब्रह्मांड की रचना माँ काली ने की।  हमारे शरीर के अंदर लघु ब्रह्मांड है, जिसमे काली के दस रूप मूलाधार में विराजमान हैं। शाक्तों  के समयाचारी संप्रदाय में श्रीचक्र का पूजन होता है। श्रीचक्र और विश्वचक्र है । देह पिंडात्मक - श्रीचक्र है और ब्रह्मांड विश्वात्मक श्रीचक्र है । 

*Shri Chakra -Microcosm and Macrocosm*

श्रीयंत्र में निहित अनेक रहस्यमय सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त : 'पिण्डाण्ड के अन्दर ब्रह्माण्ड' तथा  'ब्रह्माण्ड के अंदर पिण्डाण्ड ' अर्थात 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ' या पिण्ड- ब्रह्माण्ड  की ऐक्यता से सम्बन्धित भी है। इस रहस्य को किसी शास्त्रज्ञ -ब्रह्मनिष्ट गुरू से ही समझा जा सकता है।  शास्त्रों का अभिमत है कि यदि गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र का निर्धारित संख्या में जप किया जाये तो उपासक को उस मंत्र की अधिष्ठात्री देवी/देवता का साकार रूप दृष्टिगोचर हो जाता है।

सामान्य व्यक्ति जो इस विषय को समझने में प्रयोग होने वाली शब्दावली से ही अपरिचित है वह कितने ही ग्रन्थ पढ़ले तब भी इसके तत्व को स्पर्श तक नहीं कर सकेगा। पिण्ड -ब्रह्माण्ड ,  आत्मतत्व-विद्यातत्व, शिवतत्व, वाम-दक्षिण मार्ग, त्रिपुटी, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मेरू-कैलाश-भू-प्रस्तार, नाद-बिन्दु-कला, प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय, पंचभूत-पंचतन्मात्रा-पंचप्राण, परा-पश्यन्ती-मध्यमा-बैरवरी, शब्द सृष्टि, अर्थसृष्टि जैसे शब्दों में निहित अर्थों का ज्ञान होना श्रीयंत्र के विषय को समझने के लिए आवश्यक है।

सबद ही सबद भयौ उजियारौ ! शब्द को शास्त्र ने ज्योति कहा है , तुरीय-ज्योति ! चतुर्थ प्रकाश । तीन ज्योतियां हैं > सूर्य ,चन्द्र ,अग्नि-विद्युत । इनके प्रकाश के अभाव में आंख [इन्द्रिय ] देख नहीं सकती । किन्तु जहां इनका प्रकाश नहीं हो पाता , वहां शब्द का प्रकाश होता है । 

बाहर घनघोर अंधेरा है - अरे तुम कहां हो ? ' हां , मैं यहां हूं ।' शब्द ने प्रकाशित कर दिया । इसी प्रकार अन्दर मन में सूर्य ,चन्द्र ,अग्नि-विद्युत का प्रकाश नहीं पंहुच पाया , वहां शब्द का प्रकाश हो जाता है । सबद ही सबद भयौ उजियारौ !

शब्द की रचना-प्रक्रिया क्या है ? वाक : वैखरी : मध्यमा :भाषा : शब्द और विंब। वर्णसमुच्चय कहें या ध्वनिसमुच्चय कहें , जो भी कहें ,वह स्थूल-रूप है । वैखरी ! अब इसके सूक्ष्म-रूप की ओर जैसे-जैसे बढेंगे , हमें मन और चेतना की भूमि में प्रवेश पाना होगा। स्थूलं शब्द इति प्रोक्तं ,सूक्ष्मं चिन्तामयं भवेत्‌ । चिन्तया रहितं यत्तु तत्परं परिकीर्तितं । शब्द : जब कानों से सुनाई दे रहा है ,तो वह इन्द्रियगम्य है ,स्थूल है । किन्तु जब वह मन में ही भाव-विचार या चिन्ता-चिन्तन रूप था ,तब इन्द्रियगम्य नहीं था । इसलिये वह सूक्ष्म था । इससे भी पहले वह पर-रूप था । मन या चेतना के किसी अचेतन-अवचेतन में खोया हुआ !

विंब मन में उतरे थे ,इन्द्रिय-संयोग से ! कान से ध्वनि-विंब आया > यह खटखट है या धमाका है ? या मेघगर्जन है ,या कोकिल का गीत है ?  या कौआ का कान फोडने वाला स्वर ! नाक से घ्राण-विंब मन को मिले >> इत्र है या बदबू ? यह गुलाब है या चमेली ? या गैस की गन्ध है । इसी प्रकार जीभ से रस या स्वाद के विंब मिले , आंख से सुन्दर -असुन्दर और आकार-प्रकार के विंब आये , त्वक से स्पर्श-विंब आये , कोमल है या रुखड़ा ? गर्म है या ठंढा ?

अब एक ओर इन्द्रिय-चेतना या इन्द्रिय-संवेदना ने बाह्यजगत को सूक्ष्म और विंबात्मक अन्तर्जगत बना दिया। अनुभूति की प्रक्रिया । एक प्रक्रिया से बाहर का जगत अन्दर आया था , अब दूसरी प्रक्रिया मचलने लगी ,अन्दर से बाहर की ओर । अभिव्यक्ति । अभिव्यक्ति की प्रक्रिया ने वर्णसमुच्चय या ध्वनिसमुच्चय में विंब का आधान किया ।यह प्रक्रिया जो अन्दर ही अन्दर होती रही , वाक की मध्यमा-भूमि है ।

इस श्रीचक्र यंत्र में समस्त ब्रह्मान्ड की उत्पत्ति तथा विकास का अद्भुत चित्रण करने के साथ ही इसका मानव शरीर तथा उसकी समस्त क्रियाओं के साथ सूक्ष्मतर तादात्म्य स्थापित किया गया है। भगवत्पाद् शंकराचार्य जी द्वारा सौन्दर्य लहरी में श्रीयंत्र का स्वरूप के विषय में विस्तार से बताया गया है।   शास्त्र बताते हैं कि श्रीयंत्र ब्रह्माण्डाकार भी है  तथा पिन्डाकार भी है। श्रीचक्र की रचना देखिये >> एक कोण दूसरे कोण से संस्पृष्ट और सापेक्ष है । इसी प्रकार संपूर्ण चराचर-सृष्टि में सब-कुछ से सब-कुछ जुडा हुआ है , कोई भी किसी से विच्छिन्न नहीं है ।

(यह अगस्त्य महा मुनि और उनकी पत्नी भगवती लोपामुद्रा  द्वारा पूजित गए असली श्रीयंत्र की अनुकृति है, जो सभी श्रीविद्या उपासकों की माता हैं। इसका मूल स्वरुप  अभी भी सेलम में मौजूद है। अगस्त्य और लोपामुद्रा ने इस श्रीयंत्र पर कई वर्षों तक अपने मन को एकाग्र करने का अभ्यास किया था, एवं इसकी पूजा की थी ! )

प्राकृतिक-प्रक्रिया हो या मानवीय-प्रक्रिया ,भौतिक-प्रक्रिया हो या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया , व्यष्टि-प्रक्रिया हो या सामाजिक-प्रक्रिया ,भाव-प्रक्रिया हो या विचार-प्रक्रिया > कोई भी अपने आप में स्वतन्त्र नहीं है । श्रीचक्र में सृष्टि-क्रम (evolution-क्रमविकास) भी है और संहार-क्रम (क्रम संकोच-Involution) भी है । इसकी रचना बिन्दु त्रिकोण, दशारयुग्म, चतुर्दशार, अष्टदल, षोडशार, तीनवृत्त तथा भूपुर से मिलकर होती है। बिन्दु से भूपुर और भूपुर से बिन्दु छत्तीस-तत्वों का विलास है । दस त्रिकोण के अन्दर के आठ त्रिकोण-लक्ष्मी एवं बिन्दु भगवती अर्थात् पूर्णता का प्रतीक है। यह इच्छा, ज्ञान और क्रिया को अभिव्यक्त करता है। इन तीनों का संयोग ही त्रिकोण है

श्रीयंत्र का विषय अत्यन्त जटिल तथा परमगहन है। जिस प्रकार एक नया तैराक जो सीमित आकार के तरणताल में तैरने का अभ्यस्त नहीं है वह किसी महासागर में तैरने का दुःस्साहस नहीं कर सकता उसी प्रकार मुझ जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति के लिए इस विषय पर कुछ भी लिखना आकाशकुसुम तोड़ने के समान ही है। जितना भी लिखा जा रहा है वह इस विषय के वास्तविक ज्ञान का करोड़वां अंश भी नहीं है।

 (साभार https://aishwaryanand.org/2018/08/27/shri-chakra-microcosm-and-macrocosm/)

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 ‘खुल जा सिम-सिम’, 'आबरा-का-डाबरा ' गीली गिली छू, - लाग् भेलकी लाग् ~  सुनते ही हमें पता चल जाता है कि अब कोई जादू होने वाला है। आज भले ही ‘आबरा का डाबरा’ हाथों की सफाई दिखाने के लिए आम तुकबंदी की तरह इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन अतीत में सैकड़ों सालों तक लोग इसे सचमुच का जादुई मंत्र मानते रहे हैं! इसे कुछ इस तरह लिखा जाता था कि हर पंक्ति में इसका एक अक्षर कम करते जाने पर आखिर में एक पिरामिडनुमा आकृति बनती थी। 

[हो सकता है कि यह शब्द ग्रीक न्यूमेरोलॉजी के जादुई शब्द 

अब्राक्सास (Abraxas) से लिया गया हो सकता है.

संत सैमानिकस किसी  बीमारी का इलाज करने के लिए एक चर्मपत्र पर कई बार आबरा-का-डाबरा लिखकर पहना देते थे|

साभार - https://satyagrah.scroll.in/article/117209/why-we-say-abra-ka-dabra-during-magic-show

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शनिवार, 5 जून 2021

$*Acid turns the Milk into Curd* श्री रामकृष्ण दोहावली (68) ~ *परमहंस बालक सम , नहि नर-नारी भेद* *To set an ideal before world be careful with Kamini*परमहंस नर-नारी में भेद नहीं करता ,तथापि कामिनी से सावधान* सिद्ध पुरुष अच्छे और बुरे के पार होते हैं, परन्तु फिर भी संसार के सामने आदर्श रखने के लिए उसे कामिनी से सावधानी बरतनी चाहिए।

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(68)

*परमहंस नर-नारी में भेद नहीं करता ,तथापि कामिनी से सावधान*  

496 परमहंस बालक सम , नहि नर-नारी भेद। 

662 काम बोध नहिं एक तेहि , जीत्यो दुर्ग अभेद।।

परमहंस ^ की अवस्था बालक जैसी होती है। पांच वर्ष के बालक की तरह उसे स्त्री और पुरुष में भेद नहीं मालूम होता। परन्तु फिर भी संसार के सामने आदर्श रखने के लिए उसे कामिनी से सावधानी बरतनी चाहिए। 

[.Paramahansa (flamingo = Swan) doesnt discriminate between Male and Female but still, To set an ideal before the world, he *The devotee of Swan*must be careful with Kamini. 

[(15 जून, 1883) परिच्छेद ~ 40, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

[^ ^A paramahamsa is one belonging to the highest order of monks; the word also means swan".  There is a popular tradition in India that a swan (राजहंस =Swan) can separate the milk from a mixture of milk and water. It is said that a secretion of acid turns the milk into curd, which the swan eats, leaving the water. Paramahansa (flamingo = Swan) doesnt discriminate between Male and Female but still, To set an ideal before the world, he must be careful with Kamini .  

* ईश्वर,माया , शक्ति * 

500 भगवन जब निष्क्रिय तब , ब्रह्म पुरुष कहलाय। 

853 जब कर्ता रूप सृष्टि करे , माया रूप हो जाय।।

भगवान जब निष्क्रिय अवस्था में होते हैं , सृष्टि, स्थिति प्रलय आदि कार्य नहीं करते , तब उन्हें ब्रह्म या पुरुष कहता हूँ। और जब क्रियाशील रूप में -सृष्टि , स्थिति प्रलय आदि कार्यों के कर्ता के रूप में उनका विचार करता हूँ , तब उन्हें शक्ति , प्रकृति या माया कहता हूँ। 

497 निज आंचल में बांध नर , ज्ञान अद्वैत भाव। 

966  जग में चाहो जो करो , दोष न छुवै पांव।।

अद्वैत ज्ञान को आँचल में बांधकर जो चाहो , करो ! तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा। 


*सिद्ध पुरुष अच्छे और बुरे के पार होते हैं * 

495 नाली जल अरु गंग जल , जिन्हको दोउ समान। 

961 ब्रह्मज्ञान तिन्हको भयो , भयो एक का ज्ञान।।

रानी रासमणि के कालीमंदिर में एक बार एक पागल-सा साधु आया था। एक दिन उसे कुछ खाने नहीं मिला , पर उसने किसी से कुछ नहीं माँगा। एक जगह एक कुत्ते को जूठी पत्तलों से जूठन खाते देख वह उसका कण पकड़ कर बोला - ' तुम खाते हो हमको नहीं देते ?' और उसी के साथ खाने लग गया। 

फिर काली-माता के मन्दिर में जाकर उसने ऐसी अपूर्व स्तव-स्तुति की कि मन्दिर मानो प्रकम्पित हो उठा। बाद में जब वह जाने लगा तब श्रीरामकृष्ण ने अपने भानजे हृदय को उसके साथ जाकर देखने को कहा। हृदय के उसके पीछे-पीछे थोड़ी दूर जाते ही उस साधु ने पलट कर कहा - 'तू क्यों आ रहा है?' हृदय ने कहा, 'मैं कुछ उपदेश चाहता हूँ। ' तब साधु ने कहा , 'जिस समय तुझे यह नाले का पानी और वह गंगा का पानी दोनों एक प्रतीत होंगे , जिस समय यह शहनाई की आवाज और कोलाहल की आवाज एक ही मालूम होगी , उस समय तुझे ठीक-ठीक ज्ञानलाभ होगा। ' 

श्रीरामकृष्ण कहा करते , " उस व्यक्ति की ज्ञानोन्माद -अवस्था थी। सिद्ध पुरुष संसार में बालकवत , पिशाचवत या उन्मत्तवत विचरण किया करते हैं।   

498 विविध करम नर करह हिं , जब तक हिय अज्ञान। 

970 होत  दरस क्षण भर भी , नहि छोड़े भगवान।।

बहु गृहस्थी के तरह तरह के कामों में सदा उलझी रहती है। पर जब उसके गर्भ में सन्तान आ जाती है तो उसके सारे काम छूट जाते हैं। बच्चा पैदा हो जाने के बाद तो उसे दूसरे काम-काज अच्छे ही नहीं लगते। तब वह दिन भर अपने बच्चे की ही देखभाल करती रहती है , उसे चूमती-पुचकारती हुई आनन्द में डूबी रहती है। मनुष्य अज्ञान -अवस्था में नाना प्रकार के कर्म करता है , किन्तु ईश्वर का दर्शन पा जाने पर फिर उसे वे कर्म अच्छे नहीं लगते , तब उसे ईश्वर की सेवा छोड़ दूसरे काम करने में रूचि नहीं आती, वह ईश्वर को क्षण भर के लिए भी छोड़ना नहीं चाहता।  

499 जो ईश्वर को पाइया , देखहि सब जग तेहि। 

971 नहि मिथ्या नहि स्वप्नवत , जानहि परम् सनेही।।

यदि तुम्हें ईश्वर का लाभ हो जाये तो फिर संसार असार नहीं प्रतीत होगा। जिसने उन्हें प्राप्त कर लिया है, वह देखता है कि वे ही यह जीवजगत बने हैं ! वह जब बच्चों को खिलाता है तो समझता है कि वह गोपाल को खिला रहा है ,पिता-माता को ईश्वर की दृष्टि से देखता है। और उनकी सेवा करता है। 

ईश्वर को जानकर संसार में रहने से अपनी ब्याहता पत्नी के साथ प्रायः सांसारिक सम्बन्ध नहीं रहता। दोनों भक्त बन जाते हैं और सदा ईश्वरसम्बन्धी वार्तालाप करते हैं। ईश्वरीय-प्रसंग में ही मग्न रहते हैं। वे दोनों भक्तों की सेवा करते हैं। सर्वभूतों में जो ईश्वर विद्यमान हैं , वे उन्हीं की सेवा करते हैं। 

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*Immutability of the Leader* श्री रामकृष्ण दोहावली (67) ~*नेता की कूटस्थता *सिद्ध पुरुषों की निर्विकारिता*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(67)  

*सिद्ध पुरुष की निर्विकारिता (अचल स्थिति)*

[नेता की कूटस्थता : The immutability of the Leader]  

489 मुक्त पुरुष निर्लिप्त सदा , पनडुब्बी सम जान। 

953 तज आसक्ति काम करे , करे जगत कल्याण।।

जब नारियल के पेड़ की टहनी झड़ जाती है , तो उसकी जगह सिर्फ उसका निशान रह जाता है। जिससे पता चलता है कि किसी समय इस स्थान पर एक टहनी थी। इसी प्रकार , जिसे ईश्वरलाभ हो जाता है उसमें अहंकार का केवल चिन्ह भर रह जाता है , कामक्रोध आदि का केवल आकार मात्र रह जाता है। उसकी अवस्था बालक की सी हो जाती है। बालक का सत्व , रज , तम में से किसी गुण से लगाव नहीं होता। 

बालक के मन में किसी वस्तु के प्रति खिंचाव पैदा होने में जितना समय लगता है , उस वस्तु को छोड़ देने में भी उसे उतना ही समय लगता है। तुम चाहो तो उससे एक पांच रुपये कीमत की धोती अधेली की गुड़िया दे फुसलाकर ले सकते हो - भले ही पहले वह बड़े जोर के साथ कहे , 'नहीं , मैं नहीं दूँगा , मेरे बाबूजी ने मोल ले दी है। ' 

फिर बालक के लिए सब समान हैं - ये बड़े हैं , वह छोटा है , यह ज्ञान उसे नहीं है। इसलिए उसे , अमीर -गरीब , जाति-पाँति का विचार नहीं है। माँ ने कह दिया , 'वह तेरा दादा है ', फिर चाहे वह लुहार ही हो , वह उसके साथ बैठकर एक ही थाली में से रोटी खायेगा। बालक को घृणा नहीं , शुचि-अशुचि का ज्ञान नहीं। शौच के बाद हाथ भी नहीं मटियाता !   

उसी तरह मुक्त पुरुष भी संसार में किस तरह रहते हैं , जानते हो ? -पनडुब्बी चिड़िया की तरह , जो पानी में  रहती तो है पर उसके बदन पर पानी नहीं लगता। अगर कभी थोड़ा लग भी गया तो एक बार बदन को झाड़ लेने से तुरंत सब पानी झड़ जाता है।  

490 काम कंचन विष न धरे , ज्ञानवान के देह। 

954 मंत्र मार जनु सांप को, खेलहि करहि स्नेह।।

साँप को पकड़ने जाओ तो तुरंत काट खाता है , पर कोई अगर उसका मंत्र जान ले तो कई साँपों को अपने गले में लपेटकर खेल दिखला सकता है। उसी प्रकार , ज्ञानलाभ कर लेने के बाद मनुष्य पर कामिनी -कांचन का प्रभाव नहीं पड़ता। 

491 झड़त हि दुम  अज्ञान की , होवहि मुक्त स्वभाव। 

955 चाहे जग में जग करे , या भगवन से भाव।।

मेढ़क के बच्चे की जब दुम झड़ जाती है तब वह पानी में भी रह सकता है और जमीन पर भी। अविद्यारूपी दुम के झड़ जाने पर मनुष्य मुक्त हो जाता है। तब वह सच्चिदानन्द भगवान में भी मग्न रह सकता है , और संसार में भी विचरण कर सकता है। 

492 जग में रह जग काम करे , करे न जग का संग।

956 मुक्त पुरुष वायु समान , सदा निर्लिप्त असंग।।

हवा चन्दन की सुगंध और विष्ठा की दुर्गन्ध दोनों को लेकर बहती है , परन्तु उनमें से किसी के साथ मिल नहीं जाती। इसी प्रकार ,मुक्त पुरुष संसार में रहते तो हैं , परन्तु वे संसार के साथ मिलकर एक नहीं हो जाते। 

493 जस जल में मक्खन रहे , तस ज्ञानी जग माहिं। 

958 हरिदर्शन जिनको हुआ , बाँधे न माया ताहिं।।

दूध को पानी में छोड़ दो तो वह पानी के साथ मिल कर एक हो जाता है। परन्तु अगर उसका मक्खन बना लिया जाये तो फिर वह पानी में नहीं मिलता। तब वह पानी पर तैरने लगता है। इसी तरह , ईश्वरलाभ कर लेने के पश्चात् मनुष्य हजारों संसरासक्त बद्ध जीवों के बीच रहकर भी स्वयं बद्ध नहीं होता। 

494 ब्रह्म जगत अरु जीव सब , एक ब्रह्म के छोर।

959 जो जाना वह मुक्त है , बंधे न माया डोर।।  

 जिसने जीव , जगत तथा ब्रह्म  इन तीनों के एकत्व की उपलब्धि कर ली है , उसे अच्छे और बूरे का बंधन बांध नहीं सकता। 

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*Characteristics of a Thrice Born Leader *श्री रामकृष्ण दोहावली (66) ~*"नरसिंह जयंती " = "वैशाख शुक्ल, चतुर्दशी" के ही दिन "भगवान नरसिंह " का अवतार लिया था* श्री नवनीदा की जन्म शतवार्षिकी 15 August 2031] " तीन बार जन्मे नेता " सिद्धिप्राप्त-मनुष्य के कुछ लक्षण *ईसामसीह से भी हजारों वर्ष पहले भक्त प्रह्लाद ने नरसिंह भगवान से अपने बैरी पिता को क्षमा कर देने की प्रार्थना की थी * 'C-IN-C' नवनीदा, ईसा, प्रह्लाद जैसे कुछ मार्गदर्शक नेताओं (गुरु) के लक्षण*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(66)  

 *सिद्धिप्राप्त- मनुष्य "Thrice Born Leader" के कुछ लक्षण* 

[Some Characteristics of a Thrice Born Man (leader-'C-IN-C' like Navani Da)*

486 हरिदर्शन जिनको भयो , गयो देह को भान। 

950 देह आत्मा अलग-अलग , सो नर  सकहि जान।।

देह का जन्म हुआ है इसलिए मृत्यु भी होगी। किन्तु आत्मा की मृत्यु नहीं है। सुपारी पक जाने पर छिलके से अलग हो जाती है , परन्तु कच्ची सुपारी को छिलके से अलग करना बड़ी टेढ़ी खीर है। ईश्वर के दर्शन होने पर देहात्मबुद्धि चली जाती है। तब देह और आत्मा अलग अलग हैं , यह अनुभव हो जाता है। 

487 बैरी ठोके कील पर , ईसु चाहत कल्याण। 

951 निर्वोरि जगभूषण वे , करुणामय भगवान।।

488  बैरी देवे दुःख पर , संत करे कल्याण। 

951 धन्य भगत प्रह्लाद है , धन्य ईसु भगवान।।

यहूदियों ने ईसामसीह को क्रूस पर चढ़ाकर उनकी देह में कीलें ठोकीं, पर तब भी उन्होंने उनके कल्याण के लिए प्रार्थना की। यह कैसे सम्भव है ? --गीले नारियल में कील ठोकने से वह भीतर की गरी तक चुभती है; परन्तु नारियल के सुख जाने पर वह गरी खोपड़े से अलग हो जाती है , तब बाहर कील ठोंकने पर वह गरी को नहीं लगती !   

ईसामसीह, भक्त प्रह्लाद , श्री नवनीदा  जैसे " तीन बार जन्मे नेता " (Thrice Born Leader) नारियल के सूखे खोपड़े की तरह थे , वे देह से अलग थे।  इसलिए देह के कष्ट से उन्हें पीड़ा नहीं पहुँच सकी। देह में कीलें ठोकने पर भी उन्होंने आनन्दित -चित्त से बैरियों के कल्याण के लिए प्रार्थना की थी। 

[ईसामसीह से भी हजारों वर्ष पहले भक्त प्रह्लाद ने नरसिंह भगवान से अपने बैरी पिता को क्षमा कर देने की प्रार्थना की थी : 

जब राजा हिरण्यकश्यप का अंहकार और अत्याचार चरम पर पहुंच गया, तब भगवान विष्णु को नरसिंह का अवतार लेना पड़ा।  हिरण्यकश्यप ने उनके भक्त प्रहलाद पर अत्याचार की जब सभी सीमाएं पार कर दीं तब भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लिया था।  इस अवतार में भगवान विष्णु अतिक्रोध में नजर आते हैं.

एक कथा के अनुसार असुरराज हिरण्यकश्यप ने अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद की हत्या के कई प्रयत्न किए, परंतु सभी व्यर्थ गए। परेशान होकर एक दिन उसने प्रह्लाद को दरबार में बुलाया और बोला- नीच, दुष्ट। तीनों लोकों के शासक मेरे नाम से थर-थर कांपते हैं और तू निर्भय होकर मेरा विरोध करता रहता है। बता मुझे, इसकी शक्ति तुझमें कहां से आती है?

इस प्रश्न पर प्रह्लाद ने निर्भयता से कहा - उसी से, जिससे आपको भी मिलती है। वहीं जो आपमें, मुझमें और हर कण-कण में बसा हुआ है। हिरण्यकश्यप बोला - अच्छा! तो क्या वह इस स्तंभ में भी वह है? प्रह्लाद ने जबाव दिया - निश्चय ही है। उसकी बात सुनकर असुरराज ने एक घूंसा स्तंभ पर मारा, तो उसमें विस्फोट हुआ और भगवान विष्णु नृसिंह अवतार में प्रकट हुए। देखने में उनका सिर सिंह का और धड़ मानव का था। उनका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था।

 उन्होंने हिरण्यकश्यप को उठा लिया और उसे राजमहल की दहलीज पर ले गए. भगवान नरसिंह ने उसे अपनी जांघों पर पटका और उसके सीने को नाखूनों से फाड़ दिया.

उधर स्वर्ग में देवांगनाओं को जब यह समाचार मिला कि भगवान के हाथों हिरण्यकशिपु की जीवन-लीला समाप्त हो गयी, तब वे आनन्द से खिल उठीं और भगवान पर बारंबार पुष्पों की वर्षा करने लगीं।

इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवगण, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरूष, वेताल, किंनर और भगवान के सभी पार्षद उनके पास आये और थोड़ी दूर पर स्थित होकर सभी ने अंजलि बाँधकर अलग-अलग नृसिंह भगवान की स्तुति की ।

इस प्रकार स्तवन करने पर भी जब भगवान का क्रोध शान्त नहीं हुआ, तब देवताओं ने लक्ष्मी जी को उनके निकट भेजा, परंतु भगवान के उस उग्र रूप को देखकर वे भी भयभीत हो गयीं और उनके पास तक न जा सकीं । तब ब्रह्मा ने प्रहलाद से कहा “बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान् कुपित हुए थे । अब तुम्हीं जाकर उन्हें शांत करो” ।

भगवान सिहांसन पर बैठे है, प्रह्लाद जी एक-एक सीढी चढ रहे है, और भगवान की स्तुति करते जा रहे है.जैसे-जैसे प्रह्लाद जी आगे बढ रहे है वैसे-वैसे भगवान शान्तं होते जा रहे है. उन्होंने भावपूर्ण हृदय तथा निर्निमेष नयनों से भगवान् को निहारते हुए प्रेम-गदगद वाणी से स्तुति की । प्रहलाद द्वारा की गयी स्तुति से नृसिंह भगवान् संतुष्ट हो गये और उनका क्रोध जाता रहा । 

प्रह्लाद जी को अपनी गोदी मे बैठा कर प्यार से जीभ से चाटने लगे मानो कह हो प्रह्लाद मुझे आने मे देर हो गई। और तेरे पिता हिरण्नायाकश्यपु ने मेरे कारण तुम्हे बहुत कष्ट दिए मुझे माँफ कर दो.

भगवान ने कहा- प्रह्लाद मुझसे कुछ माँग लो.

तब प्रहलाद ने कहा “मेरे वरदानि शिरोमणि स्वामी ! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वरदान देना चाहते हैं तो ऐसी कृपा कर दीजिये कि मेरे हृदय मे कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो” । यह सुनकर नृसिंह भगवान् ने कहा “वत्स प्रहलाद ! तुम्हारे-जैसे एकान्त प्रेमी भक्त को यद्यपि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती तथापि तुम केवल एक मन्वन्तरतक मेरी प्रसन्नता के लिये इस लोक में दैत्याधिपति के समस्त भोग स्वीकार कर लो ।

यज्ञभोक्ता ईश्वर के रूप में मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हूँ, अतः तुम मुझे अपने हृदय में देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ सुनते रहना । समस्त कर्मों के द्वारा मेरी ही आराधना करके अपने प्रारब्ध-कर्म का क्षय कर देना । भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम पुण्य कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे ।

देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे । इतना ही नहीं, जो भी हमारा और तुम्हारा स्मरण करेगा, वह समस्त कर्म-बंधनों से मुक्त हो जायेगा” । इस पर प्रहलाद ने कहा “दीनबन्धो ! मेरी एक प्रार्थना यह है कि मेरे पिता ने आपको भ्रातृहन्ता समझकर आपसे और आपका भक्त जानकर मुझसे जो द्रोह किया है, उस दुस्तर दोष से वे आपकी कृपा से मुक्त हो जायँ, मेरे पिता कि सद्गति हो।”

भगवान ने कहा- प्रह्लाद तुम अपने पिता की बात करते हो, मेने तो आज से तुम्हारी इक्कीस पीढिंया ही तार दी। इस तरह भगवान प्रह्लाद को दर्शन दे कर अपने लोक को गये, प्रहलाद ने अनेको वर्षों तक राज्य किया.
  भगवान विष्णु ने अपने प्रिय "भक्त प्रह्लाद" को बचाने के लिए "वैशाख शुक्ल, चतुर्दशी" के ही दिन  "भगवान नरसिंह " का अवतार लिया था। इसीलिए "नरसिंह जयंती " का अपना एक विशेष धार्मिक महत्व है ! ऐसी मान्यता है कि जब भगवान का कोई भक्त, किसी बड़ी मुसीबत में फंस जाता है, तो सच्चे मन से स्मरण करने से भगवान नरसिंघ उसकी रक्षा अवश्य करते हैं। वे अपने भक्तों की बड़ी से बड़ी बाधा को भी क्षण में दूर कर देते हैं।  हिन्दू पंचांग के अनुसार 2021 में 'वैशाख शुक्ल, चतुर्दशी तिथि ' दिनांक 25 मई, दिन मंगलवार, को पड़ती है।  अतः उसी दिन  'भगवान नरसिंह की जयंती'   (Narsingh Jayanti, 2021) मनाई जाएगी। बीते वर्ष यानी 2020 में यह जयंती 6 मई को
 मनाई गई थी। 


श्री वराह- लक्ष्मी -नरसिम्हा स्वामी मंदिर, सिंहाचलम मंदिर

[श्री नवनीदा की जन्म शतवार्षिकी 15 August 2031महामण्डल ब्लॉग : 28 मई 2018  'आर्थिक वैश्वीकरण बनाम आध्यात्मिक वैश्वीकरण' (Economic Globalization versus Spiritual Globalization.) 

484 श्री हरि सब जग वास करें , नर मँह अधिक प्रकाश। 

946 तिन्ह मँह भगत सतोगुणी , जो छोड़ा भोग आस।। 

ईश्वरलाभ हो जाने के बाद सर्वत्र सभी वस्तुओं में वे ही विराजमान दिखाई देते हैं। परन्तु मनुष्यों में उनका अधिक प्रकाश है। फिर मनुष्यों में जो सतोगुणी भक्त हैं , जिनमें कामिनी-कांचन के भोग की बिल्कुल इच्छा नहीं , उनके भीतर और भी अधिक प्रकाश है।  

485 हरिदर्शन पर भगत गण , चाहत आशीर्वाद। 

947 मोक्ष सुख नहिं छह प्रभु , दे दो लीला स्वाद।।

ईश्वरदर्शन के बाद भक्तों को उनकी लीला देखने की अभिलाषा होती है। रावण बध के बाद जब रामचन्द्रजी राक्षसपुरी में प्रवेश करने लगे तो बूढी निकषा दौड़ती हुई भागने लगी। 

तब लक्ष्मण बोले , " राम ! कैसे अचरज की बात है , देखो। यह निकषा कितनी बूढी है, इसने कितना अधिक पुत्रशोक भोगा है , फिर भी इसे प्राणों का इतना भय है कि भाग रही है ! 

रामचन्द्रजी ने निकषा को अभय प्रदान करते हुए पास बुलवाकर उसके भागने का कारण पूछा।  तब निकषा बोली, " राम, मैं इतने दिन जीवित हूँ इसीलिए तुम्हारी इतनी लीलाएं देख पा रही हूँ। मुझे और भी जीने की इच्छा है , ताकि मैं तुम्हारी और भी लीलायें देख सकूँ। "        

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*Shri Navani Da (Narasimha) *श्री रामकृष्ण दोहावली (65) ~ *He is within everyone *इस गुरु वाक्य (महावाक्य)-एक राम घट-घट में लेटा' One Rama is residing in all " पर विश्वास * 'जय श्री रामकृष्ण *The later stage of realization of Sri Ramakrishna *ईश्वरोपलब्धि के बाद की अवस्था*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(65)  

*ईश्वरोपलब्धि के बाद की अवस्था* 

482 भगवन (श्रीरामकृष्ण) सबके हिय बसे , जो खोजे सो पाय। 

944 पावत निज जन जानहि , मिटहि बोध पराय।।

ज्ञानलाभ होने पर ईश्वर (श्रीठाकुर देव) दूर के नहीं प्रतीत होते। तब फिर  वे 'वे ' नहीं रह जाते , 'ये ' बन जाते हैं। हृदय में ही उनके दर्शन होते हैं। वे सबके भीतर हैं ,  जो उन्हें खोजता है , वही पाता है। 

["वे सबके भीतर हैं", -एक राम घट-घट में लेटा ! "One Rama is residing in all ! "इस गुरु वाक्य (महावाक्य) पर विश्वास कर जब हम किसी अपरिचित व्यक्ति को देख कर 'जय श्री रामकृष्ण' कहते हैं, और यदि वह भी 'जय श्रीरामकृष्ण ' बोलकर उत्तर देता है , तो वह पराया नहीं प्रतीत होता अपना बन जाता है ! Belief in this guru sentence (Mahavakya) - One Rama is residing in all ! 

^ प्रत्येक रामभक्त का ह्रदय "अयोध्या" है- जहाँ श्रीराम रहते  हैं ! (Ayodhya is the heart of every devotee of Sri Rama.!)

^ श्रीठाकुर के प्रत्येक भक्त का ह्रदय कामारपुकुर (The heart of every devotee of Sri Thakur is Kamarpukur.और बेलुड़ मठ) है-जहाँ श्री ठाकुर देव रहते हैं !  

* श्रीनवनी दा (नरसिंह) के प्रत्येक भक्त का ह्रदय - "भुवनभवन ,बलराम धर्म सोपान, खरदह"  और 'महामण्डल भवन ,कोन्नगर' है - जहाँ श्री नवनी दा रहते हैं !

* Heart of every devotee of Shri Navani Da (Narasimha) - "Bhuvan Bhavan, Balaram Dharma Sopan, Khardah" and 'Mahamandal Bhavan, Konnagar' - where Shri Navani Da lives!

483 जिनको ईश्वर लाभ हुआ , डूबे कुम्भ समान। 

945 भीतर बाहर देखहिं , आनन्द मय भगवान।।

जिस प्रकार जल में डुबोया कुम्भ * भीतर -बाहर जल से ही पूर्ण रहता है , उसी प्रकार ईश्वर में मग्न हुआ व्यक्ति भीतर-बाहर सर्वत्र सर्वव्यापी ईश्वर को ही देखता है।  

[ संत कबीर ने कहा था -

जल में कुम्भ कुम्भ  में जल है बाहर भीतर पानी ।

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥

अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है।  जब घड़ा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं!  आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं, आत्मा परमात्मा में - और परमात्मा आत्मा में;  विराजमान है।  अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है।  –  जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है।  एकाकार हो जाती है।

481 आत्मज्ञानी तेहि जानिए , जिनके हिय नहिं भोग। 

942 जीवितहि मृत सामान जो, व्याप्त नहि भव रोग।।

यथार्थ आत्मज्ञानी तो वही है , जो जीवित रहते हुए भी मृत के समान है , अर्थात जो मृत देह की भाँति कामना -वासना से रहित हो गया है।  

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*Ovum and sperm *श्री रामकृष्ण दोहावली (64) ~*समाधि के पश्चात् होने वाला विज्ञान ~ जो आत्मा है , वही पंचभूत बना है*क्या रज-वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता *(That which is the soul, has become the Panchabhuta. उनकी इच्छा से (आत्मा की शक्ति या माँ काली की इच्छा से ) सब कुछ सम्भव हो सकता है*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(64)  

*समाधि के पश्चात् होने वाला विज्ञान*

[The science after samadhi]

477 अज्ञानी बस श्रवण किया , देखा ज्ञानी जान। 

926 जो देखा रस पान किया , हुआ उसे विज्ञान।। 

'नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धि करने का नाम ज्ञान है। 'नेति नेति ' विचार करते हुए समाधि-अवस्था प्राप्त होने पर आत्मा की उपलब्धि होती है। 

              विज्ञान यानि विशेष रूप से जानना। किसी ने दूध के बारे में सुना भर है , किसी ने दूध देखा है और किसी ने दूध पीया है। जिसने केवल सुना है , वह अज्ञानी है ; जिसने देखा है वह ज्ञानी है , जिसने पीया है उसे विज्ञान अर्थात विशेष रूप से ज्ञान हुआ है। ईश्वर के दर्शन प्राप्त होने के पश्चात् उनके साथ परम आत्मीय की तरह वार्तालाप आदि होना -इसी का नाम विज्ञान है 

पहले 'नेति नेति ' विचार करना पड़ता है। ईश्वर पंचभूत नहीं हैं ; इन्द्रियाँ नहीं हैं ; वे सभी तत्वों के अतीत हैं। छत पर चढ़ने के लिए एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है। सीढियाँ छत महीन हैं। किन्तु "छत पर जा पहुँचने के बाद दिखाई देता है " कि-  जिन ईंट , चूना , सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है , उन्हीं से सीढियाँ भी बनी हैं। 

'इति इति ' :  जो परब्रह्म है , वही यह जीव-जगत बना है , चौबीस तत्व बना है। जो आत्मा है , वही पंचभूत बना है। तुम कहोगे, मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है , तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से (आत्मा की शक्ति या माँ काली की इच्छा से )  सब कुछ सम्भव हो सकता है। क्या रज-वीर्य  ^ से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है ? समुद्र के झाग से बना पत्थर कितना कड़ा होता है ! 

 (^ डिंब और शुक्राणु या वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण Formation of bone and flesh from Ovum and sperm or semen.)

विज्ञानलाभ होने के बाद संसार में भी रहा जा सकता है। उस समय स्पष्ट अनुभव होता है कि ईश्वर ही जीव-जगत बने हैं , वे संसार से अलग नहीं हैं। ज्ञानलाभ करने के पश्चात् जब रामचन्द्र ने कहा , कि वे संसार संसार में नहीं रहेंगे ! तब दशरथ ने उन्हें समझाने के लिए वसिष्ठ को उनके पास भेज दिया। वसिष्ठ ने कहा , " राम ! यदि संसार ईश्वर से रहित हो , तो तुम उसका त्याग कर सकते हो ! " रामचन्द्र चुप्पी साधे रहे , क्योंकि वे भलीभाँति जानते थे कि ईश्वर को छोड़कर कुछ भी नहीं है।   

478 रामकृष्ण कह सिद्ध जन , होवत जग कुल पाँच। 

932 स्वप्न मंत्र हठात अरु , कृपा नित्य घर साँच।।

जगत में पाँच प्रकार के सिद्ध पुरुष दिखाई देते हैं - 1/स्वप्नसिद्ध - ये स्वप्न दर्शन प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं। 2/मंत्रसिद्ध -ये मंत्र जपते हुए सिद्ध हो जाते हैं। 3/अकस्मात सिद्ध -जैसे कोई गरीब आदमी जमीन के नीचे गड़ा खजाना पाकर एकाएक धनवान बन जाता है , उसी प्रकार कई पापी लोग अचानक 'स्वयं को बदल डालकर' * ईश्वरीय राज्य में में पहुँच जाते हैं। इन्हें अकस्मात-सिद्ध कहा जाता है। 4 /कृपासिद्ध -केवल ईश्वर की कृपा से ही जो सिद्ध हो गए , वे कृपासिद्ध कहलाते हैं। जिस प्रकार किसी को जंगल की सफाई करते करते पुराने जल-कुण्ड, किला-मकान आदि मिल जाते हैं , फिर उसे स्वयं कष्ट उठाकर  तैयार नहीं करवाना पड़ता , उसी प्रकार कई जन मामूली साधना करते ही सिद्ध हो जाते हैं। 5 / नित्यसिद्ध -ये जन्मतः सिद्ध होते हैं।  जैसे लौकी या कुम्हड़े के बेल में पहले फल आते हैं, पीछे फूल।  वैसे ही नित्यसिद्ध लोग पहले से सिद्ध होते हैं , बाद में लोकशिक्षा के लिए साधना करते हैं। 

[ महामण्डल के 'Be and Make ' युवा प्रशिक्षण शिविर में मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करके - 'स्वयं को बदल डालकर' ईश्वरीय राज्य में पहुँच जाते हैं ! ]    

479 जिनको बोध चैतन्य का , होत चातक समान। 

936 कहत सुनत बस हरिकथा , नहि कथा कछु आन।।

किसी किसी का चैतन्य जाग जाता है। परन्तु इसके कुछ लक्षण हैं। ऐसे व्यक्ति को ईश्वरीय प्रसंग छोड़ दूसरा कुछ भी सुनना या बोलना अच्छा नहीं लगता। जैसे चातक पक्षी। सात समुद्र , गंगा , यमुना आदि नदियां ये सभी जल से पूर्ण हैं , परन्तु चातक केवल  वृष्टि का ही जल चाहता है। मारे प्यास के छाती फ़टी जा रही है , फिर भी वह दूसरा जल नहीं पीता।   

480 नभ में लालिमा कहत जस , सूर्योदय का भान। 

937 तस निःस्वार्थ पवित्रता , आगमन श्री भगवान।।

ह्रदय में ईश्वर के आगमन का लक्षण क्या है ? जिस प्रकार उषा की लाली सूर्य के उदित होने की सुचना देती है , उसी प्रकार निःस्वार्थता , पवित्रता तथा सज्जनता ईश्वर के आगमन की सुचना देती है। 

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गर्भाधान—संस्कार 

 दांपत्य-जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है - श्रेष्ठ गुणों वाली, स्वस्थ, ओजस्वी, चरित्रवान और यशस्वी संतान प्राप्त करना। स्त्री-पुरुष की प्राकृतिक संरचना ही ऐसी है की यदि उचित समय पर संभोग किया जाए, तो संतान होना स्वाभाविक ही है, किंतु गुणवान संतान प्राप्त करने के लिए माता-पिता को विचारपूर्वक इस कर्म में प्रवृत्त होना पड़ता है। 

श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए विधि-विधान से किया गया संभोग ही गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। इसके लिए माता-पिता को शारीरिक और मानसिक रुप से अपने आपको तैयार करना होता है, क्योंकि आने वाली संतान उनकी ही आत्मा का प्रतिरुप है। इसलिए तो पुत्र को आत्मा और पुत्री को आत्मजा कहा जाता है।

माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भाधान जीव का प्रथम जन्म है, क्योंकि उस समय ही जीव सर्वप्रथम माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है, जो पहले से ही पुरुष वीर्य में विद्यमान था। गर्भ में संभोग के पश्चात् वह नारी के रज से मिल कर उसके (नारी के) डिम्ब में प्रविष्ट होता है और विकास प्राप्त करता है। 

गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माता-पिता द्वारा खाये अन्न एवं विचारों का भी गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव पडता है। माता-पिता के रज-वीर्य के दोषपूर्ण होने का कारण उनका मादक द्र्व्यों का सेवन तथा अशुद्ध खानपान होता है। उनकी दूषित मानसिकता भी वीर्यदोष या रजदोष उत्पन्न करती है। दूषित बीज का वृक्ष दूषित ही होगा। अ‍तः मंत्रशाक्ति से बालक की भावनाओं में परिवर्तन आता है, जिससे वह दिव्य गुणों से संपन्न बनता है। इसलिए गर्भाधान-संस्कार की आवश्यकता होती है।

हिन्दू धर्म संस्कारों में गर्भाधान—संस्कार प्रथम संस्कार है। यहीं से बालक का निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र में कहा गया है कि - उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। पितृ-ऋण उऋण होने के लिए ही संतान-उत्पादनार्थ यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से बीज तथा गर्भ से सम्बन्धित मलिनता आदि दोष दूर हो जाते हैं। जिससे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है।

साभार : https://m.bharatdiscovery.org/india/ 

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*स्त्री को शक्ति का प्रतीक क्यों कहा जाता है ?*

^ साद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते। मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्र संभवः।। अर्थात जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पाँच दिन तक उसका पाचन होकर रक्त बनता है।  पाँच दिन बाद रक्त से मांस, उसमें से 5-5 दिन के अंतर से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा से अंत में वीर्य बनता है।  पुरुषों में जो धातु बनता है उसे वीर्य कहते हैं, और महिलाओं में जो यह धातु बनती है उसे 'रज' कहते हैं। जिस प्रकार से अच्छी ज़मीन और उत्तम बीज से उत्तम फल देने वाला वृक्ष लगता है, उसी तरह उत्तम और शुद्ध रज वीर्य से उत्तम संतान होती है, दूषित रज वीर्य से दूषित या ख़राब औलाद होती है। 

वीर्य और रज दो महाशक्ति हैं। इन दोनों महाशक्तियों का मिलन कोई साधारण घटना नहीं है। इन्हीं के संयोग और मिलन से एक नया जीव उत्पन्न होता है और यह पूरा संसार चलायमान है।

पुरुष का जो sperm या वीर्य है वह चैतन्य शक्ति (power of consciousness) है, जो एकमात्र चेतनता (consciousness) प्रदान करता है। लेकिन जो स्त्रियों में रज है अर्थात Ovum है वह Sperm को या वीर्य को कार्य करने की क्षमता प्रदान करता है। वह उस वीर्य को शक्तिमान बनाता है।

{That which is the sperm or semen of a man (Male) is the Chaitanya Shakti, (That is the power of consciousness, ) which provides the only consciousness, But the woman (female) who has Raj, that is, Ovum, gives the ability to work to the sperm or semen. She makes Him powerful.}

 अगर वीर्य आत्मा है तो रज उसका मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार का निर्माण करता है। उसे शक्तिमान बनाता है। बड़े साधारण रूप से समझिए कि यह वीर्य को आगे की प्रक्रिया के लिए (अर्थात वीर्य से बच्चा बनने की प्रक्रिया) प्रेरित करता है या शक्ति देता है। जैसे कोई व्यक्ति Comma में है। वह जीवित तो है लेकिन जीवित न होकर भी मृतप्राय है। वह अशक्त है चैतन्य होते हुए भी। अब रज का कार्य उस चैतन्यता को शक्ति प्रदान करना है। वीर्य जब बच्चे में convert होगा तो स्त्री का रज या ovum ही इस प्रक्रिया को संचालित करेगा। 

अब Mensturation क्या है ? स्त्रियों में प्राकृतिक तौर पर रज या ovum बनने की प्रक्रिया शुरू होती है जैसे पुरुषों में वीर्य बनने की प्रक्रिया। यह Ovum या Egg पूर्ण विकसित होकर किसी वीर्य या sperm के द्वारा Fertilization या मिलन होने की प्रतीक्षा करता है। जब इसे 7 दिन के भीतर कोई वीर्य या Sperm नहीं मिलता है तो यह स्वतः ही क्षरण प्रक्रिया या Degeneration प्रक्रिया में आ जाता है । इस पूरी प्रक्रिया में 3 से 4 या 5 दिन लगते हैं जिसमें रक्त (ध्यान रखिये कि यह सामान्य रक्त नहीं है), तरह तरह के cells, Elements, Minerals, Electrolytes इत्यादि का मिश्रण बाहर निकलता है ।

इस बनने बिगड़ने की प्रक्रिया को पूरे 28 दिन लगते हैं। '14- 14 ' दिन के अंतराल पर जैसे चन्द्रमा बनता बिगड़ता है (शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष), ठीक उसी तरह। चूँकि रज ही मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का निर्माण करता है इसीलिए चन्द्रमा को मन का कारक माना जाता है। तो जब स्त्री रजस्वला होती है तो इसका अर्थ है रज जैसी शक्ति का क्षरण प्रारम्भ हो गया है। उस वक़्त स्त्री के शरीर में भी तरह तरह की Problems आती हैं । कोई रजस्वला स्त्री अगर इस दौरान तुलसी के पौधे की सेवा कर दे तो वह मुरझा जाती है। इस दौरान स्त्रियों को कर्मकांड निषेध है लेकिन भगवान का स्मरण , भाव भजन निषेध बिल्कुल नहीं है । सिर्फ यही नहीं हर देश के हर सम्प्रदाय में रजस्वला स्त्री के लिए नियम व निषेध बनाये गए हैं।

केवल  मातृ शक्ति ही स्त्रियों का यह रज धारण कर सकती हैं और कोई नहीं। इसीलिए इन्हें शक्ति का प्रतीक बोला जाता है; क्योंकि रज शक्ति धारण करने की क्षमता इन्हीं में है।  ये अपना रज भी धारण करती हैं और पुरुषों के शक्ति वीर्य को भी धारण करने की क्षमता रखती हैं। प्रकृति या भगवान ने इनके गर्भाशय , fallopian tube, ovary इत्यादि को इसीलिए बनाया है ताकि ऐसी दो महाशक्तियों को ये धारण कर सकें।

साभार /https://www.breaknlinks.com/hindi/news/343

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*Sentiment of Transcendental- state*श्री रामकृष्ण दोहावली (63) ~*समाधि तथा ब्रह्मज्ञान *एक ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं -इस निश्चयात्मक बुद्धि का नाम ज्ञान है*अतीन्द्रिय -अवस्था का मनोभाव*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(63)  

*समाधि तथा ब्रह्मज्ञान*  

472 जस अँधेरा तुरत नशे , होत कुटी दीपवान। 

915 तस तुरन्त अज्ञान नशे , प्रगट होत हिय ज्ञान।।

जिस प्रकार दीपक के जलाते  ही हजार वर्षों की अँधेरी कोठरी भी तुरन्त आलोकित हो जाती है , उसी प्रकार ज्ञान का प्रकाश जीव के हृदय से जन्मजन्मान्तर के अज्ञानान्धकार को दूर कर उसे प्रकाशित कर देता है।  

474 ले सहाय हिय ज्ञान की , कर अज्ञान का नाश। 

919 फिर दोनों के पार चल , परम् ब्रह्म के पास।।

ज्ञान -अज्ञान दोनों के पार हो जाओ , तभी उन्हें जान पाओगे। नानत्व का नाम ही अज्ञान है। पाण्डित्य का अहंकार भी अज्ञान-जन्य ही है। एक ईश्वर सर्वभूतों में विराजमान हैं -इस निश्चयात्मक बुद्धि का नाम ज्ञान है। उन्हें विशेष रूप से जानना ही विज्ञान है। 

" मानलो कि पैर में कांटा चुभा है। उस कांटे को निकालने के लिए और एक कांटे की जरूरत पड़ती है। फिर उस कांटे के निकल जाने पे दोनों काँटों को फेंक देना पड़ता  है, वे ज्ञान अज्ञान के परे जो हैं ! 

"लक्ष्मण ने कहा था , 'राम ! कितना आश्चर्य है ! इतने बड़े ज्ञानी वशिष्ठदेव भी पुत्रशोक से अधीर होकर रो पड़े ! राम ने कहा , 'भाई !  जिसमें ज्ञान है , उसमें अज्ञान भी है ; जिसे एक का ज्ञान है , उसे अनेक का ज्ञान भी है। जिसे प्रकाश का अनुभव है , उसे अंधकार का भी अनुभव है। ब्रह्म ज्ञान-अज्ञान के पार है , पाप-पुण्य के पार है , धर्म-अधर्म के पार है , शुचि-अशुचि के पार है। ' 

भक्त - 'दोनों काँटों के फेंक देने के बाद क्या रह जाता है ? 

श्रीरामकृष्ण - " नित्य शुद्ध बोधस्वरूपं ! वह तुम्हें कैसे समझाऊँ ? अगर तुमसे कोई पूछे , 'कहो घी कैसा लगा ?' तो तुम उसे घी का स्वाद कैसे कैसे समझाओगे ? ज्यादा से ज्यादा तुम उससे इतना ही कह सकते हो कि 'घी घी के ही जैसा लगता है। ' एक नवबधु से उसकी सखी ने पूछा था , 'तेरे पति आये हुए हैं , अच्छा बहन , पति के आने पर किस तरह का आनन्द होता है ? ' वह नवबधु बोली , 'बहन , तेरा विवाह होने के बाद जब तेरे पति आएंगे , तब तू यह समझ पाएगी ; अभी तुझे मैं कैसे समझाऊँ ? '  

*अतीन्द्रिय -अवस्था का मनोभाव*  

[Sentiment of Transcendental- state]

475 जहाँ विचार का अन्त है , तहाँ समाधि होय। 

922 तहाँ नहिं मैं- तुम- जगत , जल कपूर सम खोय।।

कपूर को जलाने पर कुछ भी नहीं बचता। विचार  का अंत हो जाने पर समाधि होती है ; उस समय 'मैं ' 'तूम ' 'जगत ' इन सब का चिन्ह मात्र नहीं  रहता , मन परब्रह्म में लीन हो जाता है।  

473 सिर पे सूरज हो अगर , दिखे नहीं निज छाँह। 

917 तस नर समाधिवान को , नहि अहम का बाँह।।

यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता। समाधि हुए बिना ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता। भरे दोपहर के समय मनुष्य चारों ओर देखता है , पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती ; वैसे ही यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधि होने पर , अहंकाररूपी छाया नहीं रहती। यदि ठीक-ठीक ज्ञान होने के पश्चात् भी किसी में 'अहं ' दिखाई पड़े तो ऐसा जानना कि वह 'विद्या का अहं ' है , 'अविद्या का अहं ' नहीं। 

471 तड़पत मीन जस पावहिं , आनन्द पावत नीर। 

913 तस मन आनन्द पावहिं , पा समाधि गंभीर।।

समाधि-अवस्था में मन में किस प्रकार का अनुभव होता है ? मछली को कुछ देर तक पानी के  बाहर निकाल रखने के बाद फिर पानी में छोड़ देने पर उसे जिस प्रकार का आनन्द होता है , समाधि में मन में उसी प्रकार का अनुभव होता है। 

476 शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा , शुद्ध मन- तीन एक। 

924 अवांगमनोसगोचर को , शुद्ध मन से देख।

किसी भक्त के यह कहने पर कि ' ईश्वर अवांगमनोसगोचर हैं -मन , बुद्धि तथा वाणी के अगोचर हैं ', श्रीरामकृष्ण ने कहा , " नहीं , यद्यपि वे इस मन के गोचर नहीं हैं , तथापि वे शुद्ध मन के गोचर हैं , इस बुद्धि के गोचर नहीं हैं , परन्तु शुद्ध बुद्धि के गोचर हैं। 

कामिनी-कांचन की आसक्ति के दूर होते ही शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि का उदय होता है।  शुद्ध मन , शुद्ध बुद्धि , और शुद्ध आत्मा एक ही है।  वे इस शुद्ध बुद्धि के गोचर हैं। क्या ऋषि-मुनियों ने उनके दर्शन नहीं किये ? उन्होंने शुद्ध बुद्धि के द्वारा शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार किया था। 

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$*Divine-appearance and Sound hearing*श्री रामकृष्ण दोहावली (62)-*ईश्वरीय-रूपदर्शन तथा ध्वनिश्रवण* बनारस में ज्ञान, कोलकाता में भक्ति*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(62)  

*ईश्वरीय-रूपदर्शन तथा ध्वनिश्रवण*  

[Divine-appearance and Sound hearing] 

469 ले सपथ सच कहहुँ सुनो , रामकृष्ण कह जोर। 

909 सचमुच हरि देवत दरस , करत बात अंजोर।।

सचमुच ही ईश्वर को देखा जा सकता है , जैसे इस समय हम-तुम बैठकर बातचीत कर रहे हैं , इसी तरह उनके  दर्शन तथा सम्भाषण हो सकते हैं। मैं सच कहता हूँ , शपथपूर्वक कहता हूँ।  

ईश्वर का साक्षात्कार दो प्रकार का होता है - एक में जीवात्मा तथा परमात्मा का योग होता है ; दूसरे में ईश्वरीय रूपों के दर्शन होते हैं। पहला ज्ञान है और दूसरी भक्ति। 

[1992 'कबीर चौरा अस्पताल' बनारस में ज्ञान, 1987 'बेलघाड़िया कैम्प कोलकाता' में भक्ति। ]  

470 प्रणव ध्वनि परब्रह्म से , सदा उठत निज आप। 

912 सुनत योगी नहि विषयी , विगत मोह अरु पाप।। 

अनाहत ध्वनि सदा अपने-आप उठ रही है।  यह प्रणव ध्वनि है। यह परब्रह्म से आ रही है। योगी इसे सुन पाते हैं। विषयासक्त जीव इसे नहीं सुन पाते। योगी समझ सकते हैं कि यह ध्वनि एक ओर नाभि में से उठती है तथा दूसरी ओर उस क्षीरोदशायी परब्रह्म से।  

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[एक 14 अप्रैल 1992: रोहनिया , ऊंच, बनारस पुल पर जीप ऐक्सिडेंट के बाद 'कबीर चौरा अस्पताल' बनारस में  ज्ञान है , दूसरा 26 दिसंबर 1987  बेलघड़िया कैम्प, कोलकाता में माँ भवतारिणी का रूपदर्शन -भक्ति है । 



*Moral responsibility of God and man*श्री रामकृष्ण दोहावली (61)-*ईश्वर की सर्वव्यापकता *The Omnipresence of God* एक राम घट घट में लेटा ( माँ काली के भक्त अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं' -बोध रूपांतरित कर लेते हैं ?)

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(61)  

*ईश्वर की सर्वव्यापकता * 

(the omnipresence of God ~ एक राम घट घट में लेटा )

464 सब के भीतर हरि रहे , पर नहिं जानत कोय। 

889 एहि ते पावत दुःख बहु , जान करम गति रोय।।

ईश्वर सब के भीतर है , परन्तु सब जन ईश्वर के भीतर नहीं हैं , इसलिए उन्हें इतना दुःख भोगना पड़ता है। 
प्रश्न -ईश्वर देह में किस तरह रहते हैं ?
उत्तर - जिस प्रकार पिचकारी की छड़ पिचकारी में अछूती रहती है , उसी प्रकार ईश्वर भी देह में निर्लिप्त होकर रहते हैं। 
*ईश्वर तथा मनुष्य का नैतिक दायित्व *

[ Moral responsibility of God and man ]

466 जग करता जग नाथ है , हम तो उन्ह के लाल। 
896 अस मति जिन्हका दृढ़ है , पड़त न पैर बेताल।।

467 जब अस मति हिय दृढ़ हो , हरि करता नहिं हम। 
896 पड़े न पैर बेताल है , करे न पाप करम।।

प्रश्न - यदि ईश्वर ही सब कुछ करवा रहे हैं , तो मेरे पापों के लिए मैं जवाबदार नहीं !
उत्तर - दुर्योधन ने ऐसा ही कहा था , " त्वया हृषिकेश त्वया हृषिकेश हृदि स्थितेन यथा नियुक्त: अस्मि तथा करोमि॥" * परन्तु जिसमें यथार्थ विश्वास है कि ' ईश्वर ही कर्ता हैं , मैं अकर्ता , यंत्र स्वरूप हूँ ' उसके द्वारा कभी पाप कर्म नहीं हो सकता। जो ठीक नाचना जानता है , उसके पैर कभी बेताल नहीं पड़ते। चित्त शुद्ध हुए बिना तो 'ईश्वर है ' इसी पर विश्वास नहीं होता। 

* जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति:
जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्ति:।
त्वया हृषिकेश हृदि स्थितेन
यथा नियुक्त: अस्मि तथा करोमि॥
-प्रपन्नगीता
‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती | मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ |’ दुर्योधन हृदय में स्थित जिस देव की बात कहता है, वह वास्तव में ‘कामना’ (ऐषणा ?) ही है | 
[I know what is dharma, yet I can't get myself to follow it. I know what is adharma, yet I can't retire from it. O Lord of senses! You dwell in my heart and I will do as You impel me to do.]
465 जब तक  हरि दरसन नहिं , मिट्यो न अहम ज्ञान।
895 पाप पुण्य तब तक रहे , भला बुरा के भान।।

प्रश्न - यदि ईश्वर स्वयं ही सब कुछ बने हैं , तब क्या पाप -पुण्य नहीं हैं ? 
उत्तर - हैं भी और नहीं भी हैं। वे जब तक हममें अहंभाव रख देते हैं , तब तक भेदबिद्धि भी रख देते हैं, पाप-पुण्य का बोध भी रख देते हैं। 
वे एक- दो जनों का अहंकार बिल्कुल मिटा डालते हैं -ऐसे लोग पाप -पुण्य , भले-बुरे के पार चले जाते हैं। 
 जब तक ईश्वर के दर्शन न हो जाएँ तब तक भेदबुद्धि , भले-बुरे का ज्ञान अवश्य ही रहेगा। तुम मुंह कह सकते हो , ' मेरे लिए पाप-पुण्य समान  हो गए हैं , वे जैसा करवा रहे हैं , वैसा ही मैं कर रहा हूँ। '   परन्तु हृदय के भीतर तुम जानते हो कि ये सब निरी  बातें हैं। कोई बुरा काम किया कि मन में धक -धक शुरू हो जाती है। (अर्थात शरीर में रहते हुए अहं कभी नहीं जाता है !)  
468 ईश्वर ही करता जगत के , करे सकल जग काम। 
898 चोर से चोरी करावहिं , भक्त से सीता राम।।
ईश्वर चोर को चोरी  करने के लिए कहते हैं , और गृहस्थ को सावधान होने। अर्थात ईश्वर सभी कुछ करते हैं। 
[अर्थात शरीर में रहते हुए अहं कभी नहीं जाता है !  (That is, the ego never goes away while living in the body! केवल माँ काली के भक्त अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं' -बोध रूपांतरित कर लेते हैं ?]
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*Some Divine Form *श्री रामकृष्ण दोहावली (60)-*साकार और निराकार - कुछ ईश्वरीय रूप *ईश्वरीय रूपों पर विश्वास रखना चाहिए* Faith in Divine forms

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(60)  

*साकार और निराकार - कुछ ईश्वरीय रूप * 

[ God with Form and without form - some divine form ]

463 सत साधक जस जस बढ़हि , परमेश्वर की ओर। 

888 हरि ऐश्वर्य तस -तस घटहि , अंत ज्योत अंजोर।।

ईश्वर की ओर तुम जितना ही अधिक अग्रसर होओगे , उतना ही उनके ऐश्वर्य का भान कम होता जायेगा। साधक को पहले दर्शन होते हैं दशभुजाधारिणी ईश्वरी (दुर्गा ) के रूप में। उस रूप में ऐश्वर्य का अधिक प्रकाश है। फिर दर्शन होते हैं द्विभुज रूप में -तब दस भुजाएं नहीं रहतीं , उतने अस्त्र -शस्त्र नहीं रहते। फिर गोपाल रूप के दर्शन होते हैं -कोई ऐश्वर्य नहीं , केवल एक कोमल बालक का रूप है। इसके बाद भी दर्शन होते हैं -केवल ज्योति के दर्शन ! 

462 भगति हिम को पात प्रभु , धरत रूप साकार। 

881 जस पानी जम बरफ बने , जल तो निराकार।।

जिस  प्रकार पानी जनकर बर्फ बन जाता है , उसी प्रकार निराकार , अखण्ड , सच्चिदानन्द ब्रह्म ही साकार रूप धारण करता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है , पानी में ही रहती है , और पानी में ही मिल जाती है , वैसे ही ईश्वर का साकार रूप भी निराकार ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है , उसी में अवस्थित रहता है तथा उसी में विलीन हो जाता है। 

ईश्वर विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं - कभी मानव रूप में , तो कभी चिन्मय रूप में। ईश्वरीय रूपों पर विश्वास रखना चाहिए।  

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