Sunday, November 16, 2025

" अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य एवं कार्यक्रम " [Aims And Activity Of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal : Mahamndal Booklet -18]

दो शब्द         

    देश में जब पहले से ही स्वामी विवेकानन्द के नाम पर इतने सारे स्थानीय , राष्ट्रीय एवं अन्तरार्ष्ट्रीय स्तर के गैर सरकारी संगठन कार्यरत हैं, स्वयं उन्हीं के द्वारा स्थापित किया गया ' रामकृष्ण मठ और मिशन ' भी कार्यरत है ; तो फिर किन कारणों से, 1967 ई. में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को आविर्भूत होना पड़ा ? इसकी कार्य पद्धति क्या है ? -इसी विषय पर केन्द्रित है यह पुस्तिका। 

      यह निश्चित है कि जबतक किसी संगठन का उद्देश्य और उसकी कार्यपद्धति से भलीभाँति परिचित न हुआ जाय तबतक उसमें आत्मनियोग कर उसके निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन है। इसीलिए इस पुस्तिका में महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यपद्धति को यथासंभव सरल भाषा में रखने की चेष्टा की गई है। 

      वस्तुतः, महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन की एक पुस्तक ' एक युवा आन्दोलन ' में पहले से ही यह विद्यमान है, किन्तु सुधि पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए इसे एक अलग पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, आप इस पुस्तिका को पढ़कर सहजता से महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यपद्धति से परिचित हो सकेंगे तथा इसमें अपना आत्मनियोग कर सकेंगे। 

प्रकाशक 

===============  

 अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 
का 
उद्देश्य एवं कार्यक्रम 


       समाज की मूल में मनुष्य ही है, इसलिए मनुष्य निर्माण करने का कार्य ही मौलिक कार्य है। समाज-सेवा का कोई भी कार्य चाहे सरकार करे, या स्वयं सेवी संस्थायें करें - समस्त कार्यों का सम्पादन मनुष्यों के द्वारा ही होता है। कोई भी सेवा कार्य तब तक यथार्थ फलप्रद नहीं हो सकती , जब तक कि उससे जुड़े मनुष्यों का विवेक जाग्रत न हो, उनकी मनोभाव तथा सेवाव्रती बनने के पीछे उनका उद्देश्य स्पष्ट न हो और वे स्वयं निःस्वार्थी न हों। अतएव इन गुणों को बढ़ाने का अभ्यास करते हुए , उन्हें अपने भीतर पूर्ण मात्रा में अर्जित कर लेना ही हमारा मौलिक कार्य है।
दूसरे शब्दों में कहें तो इन गुणों को ही मानव चरित्र का गुण कहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रक्रिया को 'चरित्र निर्माण की प्रक्रिया' (Character-building) कहते हैं, उसी को दूसरे शब्दों में 'मनुष्य निर्माण की प्रक्रिया' (Man -making) भी कहा जा सकता है।     
      'मनुष्य निर्माण की प्रक्रिया' का प्रारम्भ स्वयं से भी हो सकता है या दूसरों से भी। चाहे जहाँ से भी शुरुआत करनी हो - किन्तु, यदि देश के कोने -कोने में इस प्रक्रिया को प्रारम्भ करने की तीव्र इच्छा हमारे मन में हो तथा यह जोश केवल सोडावाटर के बोतल की तरह कुछ लोगों में उफनने और तुरंत ही शांत हो जाने वाला न हो, हमारा संकल्प दृढ़ हो तो इसके लिए  एक राष्ट्रव्यापी संगठित प्रयास प्रयोजनीय है। यही हुआ महामण्डल का अभिप्राय अर्थात महामण्डल यही करना चाहता है। और अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि भी यही है।  
      राष्ट्र पुनर्निर्माण के लिये जो कुछ करना आवश्यक है, उन सब के ऊपर चर्चा कर लेने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने सबका निचोड़ देते हुए अन्त में कहा था -" अतएव, पहले मनुष्य निर्माण करो ! जब देश में ऐसे मनुष्य तैयार हो जायेंगे, जो अपना सर्वस्व देश के लिए होम कर देने को तैयार हों, जिनकी अस्थियाँ तक निष्ठा के द्वारा गठित हो, जब ऐसे मनुष्य जाग उठेंगे तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। भारत तभी जागेगा, जब विशाल ह्रदय वाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास एवं सुख की इच्छाओं का त्याग कर, मनसा-वाचा -कर्मणा उन करोड़ों भारतवासियों के कल्याण के लिए प्राण -पण प्रयास करेंगे, जो भूख और गरीबी तथा शिक्षा के अभाव में निरन्तर डूबते जा रहे हैं।"  इसलिए उन्होंने युवाओं का आह्वान किया था " जो सच्चे ह्रदय से भारतवासियों के कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसको ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, ऐसे तरुणों के साथ कार्य करने में लग जाओ। भारत के युवाओं पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है।"
      रुपया -पैसा या कुछ दान सामग्री इकट्ठा कर अभावग्रस्त लोगों के बीच उनका वितरण करना अच्छा कार्य है, इससे जनसाधारण की थोड़ी गरीबी दूर होती है। इसी उद्देश्य के लिये कोई विशेष परियोजना चलाना या राष्ट्रीय संस्थान स्थापित करना भी एक अच्छा कार्य है, किन्तु जो युवा अपना सब कुछ भूलकर अपना स्वार्थ त्यागकर, दूसरे मनुष्यों के कल्याण के लिए ही सब कुछ करने को प्रस्तुत रहेंगे, उनके चरित्र निर्माण का कार्य क्या और भी  बड़ा , और भी गुरुत्वपूर्ण नहीं है?  जीविकोपार्जन के सभी क्षेत्रों में, समाज में एवं प्रत्येक घर में इसी प्रकार के मनुष्यों की ही तो आवश्यकता है। बल्कि एक बहुत बड़ी संख्या में ऐसे ही मनुष्य चाहिए। ऐसे युवा ही तो समाज कल्याण के स्थायित्व एवं निश्चितता की गारंटी होंगे। इसलिए ऐसे मनुष्यों का निर्माण करना ही समाज-सेवा रूपी सभी कार्यों में सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा है।
      स्वामी जी ने युवाओं को सम्बोधित करते हुए कहा था -" इस समय तो मैं उत्साही कार्यकर्ताओं का एक दल तैयार करना चाहता हूँ। इसलिए, नेरे मित्रों, मेरी योजना है कि भारत में कुछ ऐसी शिक्षण संस्थायें स्थापित करूँ जहाँ हमारे नवयुवकों को सत्य के संदेशवाहक के रूप में प्रशिक्षित किया जा सके , ताकि हमारे शास्त्रों में उपलब्ध ज्ञान राशि सारे भारत में ही नहीं, अपितु, इसके बाहर भी प्रसारित हो सके। " महामण्डल के कार्यों द्वारा विभिन्न प्रान्तों में इसी का प्रयास चल रहा है तथा अपने 55 (58) वर्षों में हुए अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि निश्चय ही इस प्रकार के प्रशिक्षण से बहुत सुन्दर फल भी मिलने लगा है। 

  अपनी दृष्टि को लक्ष्य की ओर स्थिर रखते हुए साधारण एवं छोटे -छोटे सेवा कार्य करते- करते भी हम यह सीख जाते हैं कि किस प्रकार बदले में कुछ चाहे बिना भी दाता की भूमिका को ग्रहण किया जाता है, और साथ ही साथ भरपूर आत्मविश्वास भी अर्जित होता है। अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल  इसी तरह के प्रयास के लिए सबको अनुप्रेरित करता है , इसका कोई अत्यंत विस्तृत घोषणापत्र नहीं है। यह बहुत ही छोटे रूप में गठित होकर छोटे से बड़ा होता जा रहा है। धीरे-धीरे यह युवाओं के मन जीत रहा है, ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को विशेष तौर पर अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। उन युवा स्वयं को एक दुर्भेद्य- दुर्ग के रूप में गठित कर रहे हैं, जहाँ स्वार्थ के प्रवेश की अनुमति नहीं है, जहाँ सेवापरयाणता आत्मप्रशंसा के बोझ तले दब नहीं जाती, तथा भौतिकतावाद और भोग-विलास की उत्ताल तरंगे उनके चट्टानी चरित्र रूपी परकोटे से टकराकर वापस लौट जाती हैं।                

    स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं कहा है - " मैं कभी कोई योजना नहीं बनाता। योजनाएं स्वयं विकसित होती जाती हैं और कार्य करती रहती हैं।  मैं केवल यही कहता हूँ- जागो , जागो!" महामण्डल केवल यही चाहता है,  कि स्वामी जी का यह जागरण- मंत्र देश के समस्त युवकों के कानों में गूँजने लगे।  और आज जब हमारी चिर गौरवमयी भारत माता विषम परिस्थितियों से घिरी हैं , जहाँ हमलोग किसी पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं , यहाँ तक कि स्वयं पर भी नहीं, हम अपना आत्मविश्वास भी खो चुके हैं - इसका सामना करने के लिए सभी युवा उठ खड़े हों। आज अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को यदि कोई कार्य करना है तो वह यह है कि देश के नयुवकों को इस खोये हुए आत्मविश्वास को वापस लौटा देना
       महामण्डल का प्रमुख  कार्य नवयुवकों के मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है, जिससे उन्हें स्वयं के लिए एक जीवन दर्शन प्राप्त हो, वे अपने जीवन के उद्देश्य को निर्धारित करने में सक्षम हो सकें , अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक होकर उसका पालन कर एक विवेक-सम्पन्न नागरिक बनकर अपने व्यक्तिगत जीवन में सार्थकता प्राप्त कर सकें। इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए आत्मविश्वासी होने तथा चरित्र-गठित करने की व्यावहारिक पद्धति को सरल भाषा में समझा देना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है। महामण्डल के समस्त कार्यक्रम इसी लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में संचालित हैं। 
      व्यक्ति मनुष्य के जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण कर एक श्रेष्टतर समाज का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य है। इस तरह हम स्वामी विवेकानन्द की मूल शिक्षा:  "मनुष्य-निर्माण और चरित्र गठन " (man-making and character-building) की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस शिक्षा से तात्पर्य है - मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना कि उसकी बुद्धि सदा विवेक सम्पन्न रहे , उसकी एकाग्रता शक्ति तथा बौद्धिक क्षमता विकसित हो , उनका ह्रदय दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख अनुभव करने में सक्षम हो और उनके हाथों में कर्म करने की शक्ति हो। इस प्रकार इन तीनों अवयवों मन , हृदय और हाथ के समन्वित विकास सम्पन्न होकर युवा अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें। व्यष्टि मनुष्य यदि समष्टिगत प्रयास द्वारा इसी लक्ष्य को प्राप्त करने में निरन्तर प्रयासरत रहे तो समाज का बहुत बड़ा भाग उत्तरोत्तर प्रभावित होने के लिए बाध्य है।और अंततः यह परिणाम घटित होगा सामाज के विचार तथा मान्यताओं में क्रमागत उन्नति के माध्यम से।
     
    परन्तु यह कार्य- (3H में विकसित सामंजस्ययुक्त मनुष्य निर्माण का कार्य) पंचवर्षीय, दशवर्षीय या पच्चीसवर्षीय योजना के अंतर्गत पूरा हो जाने वाला कार्य नहीं है। जन्म-जन्मान्तर होते रहेंगे और यह कार्य-योजना भी चलती रहेगी। समय के अनन्त प्रवाह में ऐसा कोई भी क्षण नहीं आने वाला, जब हम उच्च स्वर से यह घोषणा कर सकेंगे कि " बस ! बहुत हो गया। हमारा कार्य अब पूरा हो गया, हमने अपने ध्येय को प्राप्त कर लिया है, और यह रहा हमारा पूर्ण विकसित समाज।" ऐसा दिन कभी नहीं आएगा , ऐसा हो भी नहीं सकता , ऐसा सोचना सच्चाई से ऑंखें चुराना है। यह पूर्णतः अवास्तविक होगा। अतएव जिन्हें इस ध्येय मंत्र 'Be and Make' के प्रति आस्था है और जीवन का व्रत मानकर जो इस कार्य में आत्म नियोग करेंगे, उन्हें जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहने का संकल्प लेना होगा, और उन लोगों को शेष कार्य सुपुर्द कर देना होगा जो एक-एक एक कर इस आन्दोलन के ध्येय की पूर्ति हेतु, इसके अनुगामी बनेंगे।  

     हमारे देशवासियों की अवस्था और उनकी दुर्दशा सभी को अच्छी तरह से मालूम है। इस अवस्था को सुधारने के लिए सरकारी तंत्र, गणतन्त्र तथा असंख्य मतवाद भी हैं। किन्तु, उनके क्रिया-कलापों को देख-सुनकर  यह तो समझ में आ ही जाता है कि अभी भी एक ऐसा कार्य छूट गया है, जो  परमावश्यक होते हुए भी किसी की कार्य सूची में नहीं है। उसी छूटे हुए कार्य को हमें पूरा करना है , ऐसा सोच कर महामण्डल ने उसी कार्य का चयन किया है और वह परमावश्यक कार्य है स्वयं को यथार्थ /विवेकी मनुष्य के रूप में गठित करने प्रयास। स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनने और दूसरों को चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करने के लिए हम प्रयासरत हैं। क्योंकि इसी मूल कार्य में असफल रहने कारण, लोगों के दुःखों को दूर कर सुखी बनाने का प्रयास , एक ऐसा राष्ट्र जिस पर हमें सच्चा गौरव हो, एक निरापद महान राष्ट्र  बनाने की सारी कोशिशें लगातार व्यर्थ सिद्ध हो रही हैं। 

       गहन चिन्तन करने पर यह पता चलेगा कि यह समाज-सेवा का यह कार्य जितने परिमाण में आधिभौतिक (दैहिक) है, उससे कहीं ज्यादा आध्यात्मिक है। क्योंकि यह व्यक्ति के अन्तः प्रकृति को (मन को) वशीभूत करके आत्मविकास पर (आत्मा की शक्ति के विकास) पर बल देता है। मनुष्य के केवल बाहरी आकृति में फैशनेबल परिवर्तन लाना हमारा उद्देश्य नहीं है। किन्तु आत्मिक विकास करने की बात सुनकर यह मान लेना कि महामण्डल एक धार्मिक संस्था है, उचित न होगा।  यह अपने सदस्यों को मन्दिर,मस्जिद या गिरजाघर  जाने के लिए बाध्य नहीं करता और न ही अपने सदस्यों को किसी प्रकार की धार्मिक पूजा- अनुष्ठान अदि करने के लिए कभी प्रेरित करता है। क्योंकि, यह प्रतिष्ठान केवल नवयुवकों के लिए है और इसमें शामिल सभी नवयुवक परम्परागत ढंग से पालन किये जाने वाले सभी धार्मिक आचार-अनुष्ठानों को उसी ढंग से पालन करने के  प्रति आग्रही नहीं भी हो सकते हैं।  किन्तु, उनमें यह आग्रह अवश्य होता है कि हम एक विश्वस्त एवं जिम्मेदार नागरिक बनें तथा भारत माता के गौरव को बढ़ाने तथा देशवासियों की भलाई में अपना सम्पूर्ण जीवन न्योछावर कर दें
         यदि यथार्थ रूप से विचार करें तो पता चलेगा कि इसी भावना में आश्चर्यजनक रूप से  आध्यात्मिकता विद्यमान है। इसी प्रकार का जीवन जीने से उन्हें पूर्ण-मनुष्यत्व की प्राप्ति होगी।  
स्वामी विवेकानन्द के संदेश को फिर से स्मरण कराते हुए महामण्डल सभी से यह कहना चाहता है कि - धर्म का रहस्य तात्विक ज्ञान में नहीं अपितु , उस तात्विक ज्ञान को जीवन में उतारने में निहित है। 'To be good and to do good- स्वयं चरित्रवान (विवेकी) मनुष्य बनना और दूसरों को चरित्रवान (विवेकी) मनुष्य बनने में सहायता करते रहना - धर्म कहने से जो कुछ भी समझा जाता है , सब इसी बात में अन्तर्निहित है। एक ही वाक्य में कहना हो तो - स्वयं मनुष्य वास्तव में क्या है, इसे 'जान लेना' (अपनी अनुभूति द्वारा जान लेना) ही जीवन का लक्ष्य है। मनुष्य का जो यथार्थ स्वरुप है, जब कोई व्यक्ति अपने सत्य स्वरुप का साक्षात्कार कर लेता है , तो वह क्या देखता है स्वामी विवेकानन्द की वाणी को पुनः उद्धृत करते हुए कहा जा सकता है कि वह यही देखता है , उसे यही अनुभूति होती है कि " मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र एक निश्चित बिन्दु पर स्थित है। " केंद्र मनुष्य स्वयं है और स्वयं को ही केन्द्र बिन्दु मानकर जब वह अपने चारों ओर अनंत विस्तृत परिधि खींचता है, पाता है कि अब उसके आस-पास रहने वालों तथा अन्यत्र अवस्थित लोगों में भी अखण्ड रूप से वही विद्यमान है। तब वह अपने क्षुद्र अहं को त्याग कर लघु मानव से वृहद मानव में बदलने लगता है। उसके हृदय का विस्तार हो जाता है, और विशाल हृदय का होकर यथार्थ मनुष्य में परिणत हो जाता है। यही तो है 'ईश्वराभिमुखी पथ ' पर अग्रसर होना।  
         किन्तु,क्या हम अभी तुरंत ही अपने भीतर के स्वार्थ, हिंसा , लोभ, असंयम, तथा क्षुद्र अहं से भरपूर इस पाशविक चरित्र को त्याग कर सीधा एक ही छलांग में अपने ईश्वरीय स्वरुप (सत्य स्वरुप) में स्थित हो पायेंगे ? भगवत-भाव में (अपने सत्य स्वरुप) में उपनीत हो जाना इतना आसान नहीं है। अंतर्निहित देवत्व को अभिव्यक्त करने के लिए, स्वार्थ, ईर्ष्या, लोभ, अहंभाव आदि जितने भी पाशविक दुर्गुण हैं , उन्हें जीतकर पहले 'मनुष्यत्व' को प्राप्त करना होगा। फिर मनुष्यत्व से क्रमशः उन्नत होते हुए देवत्व तक पहुँचा जा सकता है। अतः, ईश्वरस्वरूप में या भगवत स्वरुप में , या आत्म-स्वरूप में  स्थित होने के लिए 'मनुष्यत्व' को प्राप्त करना प्रथम सोपान है। अभी हमलोग इसी प्रथम सोपान - 'मनुष्यत्व', तक पहुँचने का है प्रयास कर रहे हैं। हम लोगों के लिए अभी यही सीमा है। 
इसी कारण जीवन में 'पूर्णत्व' प्राप्त करने के लिए अन्य जितने सम्भाव्य पथ हो सकते हैं , महामण्डल उन समस्त बातों का प्रचार नहीं करता , बल्कि जाति-धर्म -मतवाद आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के नवयुवकों के लिए जो मार्ग उपयोगी है, अर्थात कर्म के मार्ग (Be and Make) ही उल्लेख करता है।   
जीवन में जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे किसी "महान उद्देश्य "के लिए त्याग देने में समर्थ होना ही तो आध्यात्मिक शक्ति है। और महामण्डल का उद्देश्य है भारत का तथा समस्त मानव-जाति का कल्याण। दूसरों के लिए निःस्वार्थभाव से थोड़ा -सा भी कुछ करने से हृदय में सिंह का सा बल आ जाता है ; और हाथों को अधिक कर्म करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। और समाज-सेवा भी उसी प्रकार का एक कार्य है। इसलिए महामंडल समाज सेवा को अपने उद्देश्य के रूप में न अपनाकर, 'चरित्र-निर्माण तथा मनुष्य-निर्माण ' करने के उपाय के रूप में अपनाने की बात कहता है।  
       महामण्डल के पास न तो प्रचुर धन-दौलत नहीं है, न ही अधिक मानव शक्ति है, पर इसकी  चिन्ता भी उसे तब तक नहीं  जब तक इसका वास्तविक उद्देश्य सुस्पष्ट है, और इसके साथ थोड़े से भी आदर्शनिष्ठ युवा जुड़े हुए हैं। ये वैसे नवयुवक हैं जो यह जान चुके हैं कि देश के समग्ररूपेण कल्याण के लिए पहले कौन -सा कार्य करना अनिवार्य है। एक बड़ी संख्या में सच्चे,  निष्ठवान, ईमानदार, परिश्रमी , देशभक्त, जिज्ञासु, निःस्वार्थी, त्यागी, तेजस्वी एवं साहसी युवक  देश के प्रत्येक स्थान में हैं, तथा वे लोग देश में नव जागरण के लिए उत्सुक भी हैं, उन्हें एकत्रित करना इस मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन से जुड़ जाने के लिए उत्साहित करना है। 

     अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल कुछ चुने हुए गणमान्य व्यक्तियों की संस्था नहीं है। महामण्डल उन सभी युवकों की संस्था है जो देश से प्यार करते हैं, देशवासियों से प्यार करते हैं, साथ ही साथ जो स्वयं से भी प्यार करते हैं। जो स्वयं कर्मोत्साह से भरपूर एक गौरवपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं, और अपने साथ -साथ राष्ट्रीय जीवन को भी गौरव से परिपूर्ण करना चाहते हैं। यह संस्था इसी प्रकार के विचार रखने वाले समस्त युवको के लिए है , जो आज कहीं भी हों तथा किसी भी धर्म को मानने वाले या नास्तिक ही क्यों न हों, महामण्डल में सभी युवाओं का स्वागत है। महामण्डल के सदस्यों को न तो अपना घर छोड़ना है, न अध्यन , उन्हें अपनी स्वाभाविक जीविका भी नहीं छोड़नी है। उन्हें केवल अतिरिक्त समय, शक्ति और यदि संभव हो तो थोड़ा पैसा देना है। और जिस कार्य को उन्हें करना पड़ता है, वह यह किसी विवेक-सम्पन्न और आत्मविश्वासी नागरिक का समुन्नत चरित्र जैसा होना चाहिए,  उसी प्रकार का चरित्र गठित करने के लिए पूरे  अध्यवसाय के साथ पंचकर्म - १ प्रार्थना २ मनः संयोग, ३.व्यायाम ४.चरित्र-निर्माण में सहायक पुस्तकों का अध्यन ५. विवेक -प्रयोग के साथ ही साथ निःस्वार्थ समाज सेवा का कोई भी अच्छा कार्य।    
      देश की वर्तमान परिस्थिति को सुधारने के लिए 'इस सरकार' को बदलना बहुत जरुरी है कहता है, तो कोई-कोई गणतंत्र को बदलने की बात करते हैं,  तो कोई देश के  संविधान को ही बदलने की बात कहता रहता है -इसी प्रकार की बातें आज आम तथा खास सभी व्यक्ति करते रहते हैं। किन्तु समाज या देश के पुनर्निर्माण के किसी भी कार्य का दायित्व निभाने के लिए और अधिक निःस्वार्थी , विवेक-सम्पन्न और आत्मविश्वासी मनुष्य चाहिए , वैसे ईमानदार , देशभक्त , विवेकी मनुष्य कहाँ हैं ? उनका निर्माण कैसे सम्भव है ? हम उन्हें कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? जो लोग स्वयं को प्रजातंत्र के पुजारी होने तथा महान क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए संघर्षरत रहने का रहने की बात करते हैं या स्वयं को समाज में परिवर्तन लाने वाले 'नेता' होने का दावा करते हैं, उनमें से किसी भी नेता का ध्यान, इस ओर नहीं है , या यूँ कहे कि किसी भी राजनितिक दल के नेता का ध्यान स्वामी विवेकानंद द्वारा "व्यक्ति-चरित्र के निर्माण के द्वारा राष्ट्र निर्माण" का सूत्र Be and Make' और 'चरैवेति , चरैवेति' की ओर नहीं है। महामण्डल इतने बड़े-बड़े परिवर्तनों की बातें न कहकर, यह चाहता है कि इसी छूटे हुए मुख्य कार्य " मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कार्य " को करने की जिम्मेदारी को स्वयं अपने कन्धों पर उठा  लेना।क्योंकि प्रारंभिक आवश्यक कार्य " 'विवेकी -मनुष्य निर्माण' और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार " के कार्य को सावधानीपूर्वक सम्पन्न किये बिना बाद वाले बड़े-बड़े परिवर्तन संभव नहीं है। महामण्डल पूरी विनम्रता के साथ प्रथम सोपान को अर्थात 'विवेकी मनुष्य निर्माण' को ही अपनी सीमा मानता है।  इसीलिए महामण्डल का राजनीति के साथ कोई संबंध नहीं है। क्योंकि राजनीति सर्वदा घोड़े को पीछे रख कर केवल गाड़ी पर ध्यान रखती है
     यदि हम एक बड़ा परिवर्तन कराकर भारत वर्ष को और भी समुन्नत एवं महान राष्ट्र बनाना चाहते हों तो उसका एकमात्र उपाय यही है। चारित्रिक गुणों को अपने जीवन और व्यवहार में अधिकाधिक अभिव्यक्त करते हुए उन्हें सुदृढ़ और पुष्ट बना लेना ही सच्ची शिक्षा है। अतएव वास्तविक शिक्षित कहने से मूलतः जो अर्थ यह निकलता है,वह यही है कि उस व्यक्ति ने चारित्रिक गुणों को अपने रगों में बहने वाले खून के साथ एक कर लिया है 'mingled into blood' कर लिया है। और इसी प्रकार की 'विवेकी मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी' शिक्षा का प्रचार-प्रसार महामण्डल का मूल कार्य है। और इस कार्य में समय लगना स्वाभाविक है। निरंतर बिना रुके हुए कठोर परिश्रम के अलावा रातों-रात किसी महान कार्य का सम्पन्न होना सम्भव नहीं है। स्वामी जी का कथन है - " किसी कार्य को यदि जड़ से प्रारम्भ किया जाये तो, किसी भी प्रकार की विकास की गति धीमी होने के लिए बाध्य है। " 
     लेकिन कोई-कोई सज्जन प्रश्न उठाते हैं कि 'क्या सभी व्यक्तियों को उन्नत मनुष्य अर्थात विवेकी मनुष्य के रूप में ढाला जा सकता है ?  ठीक है, यदि वैसा नहीं नहीं भी किया जा सकता हो, तो आपके पास दूसरा विकल्प क्या है ?  यही न कि 'यथा पूर्वं तथा परं।' इस प्रकार सोचने से क्या किसी भी समस्या का निदान खोजा जा सकता है ? पर यदि मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य चलता रहा तो कोई न कोई व्यक्ति अवश्य ही 'यथार्थ-मनुष्य' अर्थात विवेकी मनुष्य के रूप में उन्नत हो सकेगा , उनकी संख्या में वृद्धि भी होती रहेगी, और अंततः परिस्थितियाँ बदलेंगी। स्वामी विवेकानंद ने प्रमाण देते हुए कहा था - " सभी राष्ट्रों के इतिहास का यदि गहराई से अध्यन किया जाये तो प्रत्येक राष्ट्र में हम यही देखेंगे कि, इसी प्रकार के मनुष्यों की संख्या में वृद्धि के समानुपात में ही राष्ट्रों का भी उत्थान होता रहा है, तथा जैसे ही कोई राष्ट्र (या व्यक्ति) अनंत (आत्मा या ईश्वर) की खोज करना छोड़ देता है, उसी समय से उसका पतन शुरू हो जाता है - भले ही उपयोगितावादी लोग अनंत के अन्वेषण को (आत्मान्वेषण को) व्यर्थ की चेष्टा कहते रहें। स्वामी विवेकानन्द का यह निश्चित मत है कि- " जब तक मानव शिक्षित न हो जाये, जब तक वह अपनी अवश्यकताओं को समझ न सके एवं अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने में समर्थ न हो सके तब तक हमें प्रतीक्षा करनी होगी।"  स्वामी जी ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा था - " जिस विद्या के अभ्यास से इच्छाशक्ति का प्रवाह एवं अभिव्यक्ति सुनियंत्रित होकर फलप्रस्विनी शक्ति में रूपांतरित हो जाती है, उसी को शिक्षा कहते हैं। " ऐसी शिक्षा विद्यालय एवं विश्वविद्यालय खोलकर नहीं दी जा सकती है। ख्यातिप्राप्त स्कूल -कॉलेजों की संख्या कम नहीं है, साथ ही प्रतिदिन और नये -नये खुलते भी जा रहे हैं। किन्तु स्वमीजी का कथन है - " जनसाधारण के दुःख-कष्ट में सहभागी बनने के लिए अपने को/ न्योछावर कर देने की प्रवृत्ति आज भी हमारे राष्ट्र में कम ही देखि जाती है। " अतः युवाओं के मन -प्राण में इसी त्याग की प्रवृत्ति को जाग्रत कराना होगा। इसी शिक्षा को अपने देश के प्रत्येक  युवाओं के द्वार-द्वार तक हमें ले कर जाना होगा। यही है महामण्डल का वास्तविक कार्यक्रम है।  
      कोई -कोई व्यक्ति केवल प्रश्न करने के लिए ही प्रश्न उठाते हैं और वैसे प्रश्न हमें कई लोगों के मुख से सुनना पड़ता है - ' आप लोगों का उद्देश्य तो महान है, योजनायें भी प्रशंसनीय हैं, किन्तु, इसे कार्य रूप देने के लिए आपके पास मार्ग क्या हैइसके उत्तर में हमें यही कहना है कि 'मनुष्य निर्माणकारी और चरित्र निर्माणकारी प्रशिक्षण पद्धति ' का आविष्कार हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर लिया था, जो पूर्णरूप से विज्ञान सम्मत है। तथा उसी वैज्ञानिक पद्धति को स्वामी विवेकानन्द ने हमारे दरवाजे तक पहुँचा दिया है। आधुनिक मनोविज्ञान तो मानो उसी की एक क्षीण सी प्रतिध्वनि है। 
    उस पद्धति को अत्यंत संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है - चरित्र के गुणों के विषय में पहले श्रवण करना होगा , फिर उसके ऊपर गहराई से चिंतन-मनन करके उसकी स्पष्ट धारणा को अपने अवचेतन मन में स्थापित करके, उनको संरक्षित रखना होगा। सद्गुणों को बार बार अभ्यास में लाने का प्रयास करके उन्हें अपने स्वाभाविक मनोभाव परिणत कर लेना होगा। उन्हीं सद्गुणों को अपनी प्रबल इच्छा शक्ति द्वारा लगातार प्रयासों से मन के ऊपर गहरी लकीर या संस्कारों में  
परिणत करना होगा। फिर विवेक-प्रयोग की सहायता से मन के ऊपर नियंत्रण रखते हुए बार-बार वैसा ही कर्म करना होगा, (वैराग्य पूर्वक) वैसा ही प्रयास करने के लिए सचेष्ट रहना होगा, जिससे हमारे व्यवहार या आचरण में भी यही सद्गुण प्रतिफलित हों ; क्योंकि हमारे व्यवहार में ही हमारा चरित्र झलकता है। इसमें ह्रदय की भी एक भूमिका है, क्योंकि राग या आसक्ति "शारीरिक आकर्षण " से उत्पन्न होता है, और प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में अवस्थित ईश्वर या आत्मा से से समभाव से जो प्रेम होता है राग और प्रेम में अंतर समझने पर ह्रदय का आवेग नियंत्रित हो जाने पर यह 'विवेकी मनुष्य निर्माण या  चरित्र- निर्माणकारी सम्पूर्ण पद्धति ही सहज एवं सरस हो जाती है।  इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि  चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया में विवेक-प्रयोग (ज्ञानयोग), मानसिक नियमन (राजयोग), ह्रदय के ईश्वर या आत्मा के प्रति स्नेह आवेग (भक्ति योग) एवं निःस्वार्थ समाज सेवा (कर्म योग) अर्थात चारों योगों समन्वय से व्यक्ति का सुंदर चरित्र गठित हो जाता है। 
 महामण्डल के क्रिया -कलाप इस प्रकार से सुनियोजित हैं कि इसमें सम्मिलित प्रत्येक सदस्य को इसी प्रणाली से गुजरना पड़ता है। यह सुसमन्वित प्रणाली उपर्युक्त चारों मार्गों के अनुसार चार 
धाराओं में बंटी है। जो यथाक्रम से पाठचक्र, मनःसंयोग, प्रार्थना और निःस्वार्थ समाज सेवा द्वारा निरूपित होती है। समाज सेवा महामण्डल का लक्ष्य नहीं बल्कि चरित्र-निर्माण का उपाय मात्र है।
इसीलिये महामण्डल के कार्यों का परिमाप करते समय समाज सेवा के कार्यों की गणना को  मानदण्ड बनाना ठीक नहीं होगा , बल्कि कार्यों का सम्पादन करते समय उस सेवाकर्मी का मनोभाव, उसी चित्र-निर्माणकारी मनोभाव से संबधित पुस्तकों का अध्यन , विवेक-प्रयोग द्वारा राग और प्रेम के विवेक द्वारा ह्रदय में समभाव से सबके प्रति प्रेम का परिस्फुरण , तथा सेवाकार्य करते समय भी मन को संयमित करने की दृढ़ इच्छाशक्ति यही सब बातें विचारणीय हैं। 
       महामण्डल युवाओं के लिये इसी प्रकार का वातावरण उपस्थित कराता है, जिसमें रहकर वे इस प्रक्रिया के अनुरूप अपने चरित्र का निर्माण कर सकते हैं। महामण्डल के केन्द्र ( जिनकी संख्या विभिन्न राज्यों 300 के लगभग है।) शहर एवं गाँव कहीं भी स्थापित किये जा सकते हैं। इसे किसी कमरे में , बरामदा में, वृक्ष की छाया तले या खेल के मैदान में- जहाँ कहीं नवयुवक इकट्ठा होते हों, वहीं स्थापित किया जा सकता है। वहाँ पर ये अपने शरीर को स्वस्थ-सबल रखने के लिए व्यायाम कर सकते हैं, अध्यन एवं सामूहिक विचार-विमर्श द्वारा बुद्धि को प्रखर बनाकर ज्ञानार्जन कर सकते हैं। इसके साथ ही साथ अपने ह्रदय को अधिक विशाल बनाने के लिए स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों के अनुसार मानव जाति की सेवा के कार्यों में अपना योगदान दे सकते हैं।

स्वामी जी का हृदय किसी विशाल सागर के जैसा विस्तृत था, तथा उन्होंने स्वयं अपने जीवन को मानव-जाति की सेवा में समर्पित कर दिया था, इसीलिए उनकी जीवनी तथा संदेशों पर चर्चा के द्वारा हम अपने ह्रदय को और भी अधिक उदार बनाने का प्रयास करते हैं। यह विधि कितनी    
व्यावहारिक है कोई तबतक विश्वास नहीं कर सकता,  जब तक कि वह स्वयं ही इन माध्यमों से गुजरने के फल-स्वरूप अपने हृदय की विशालता को देखकर स्वयं ही आश्चर्यचकित न हो जाए। 
     बच्चों के लिए भी इसी के समान, किन्तु अधिक सरल ढंग से इन बातों को सीखने की व्यवस्था की जाती है। बहुत से स्थानों पर महामण्डल केन्द्रों के द्वारा निःशुल्क औषधालय, कोचिंग क्लास, प्रौढ़ शिक्षा केंद्र, छात्रावास, शिशु पाठशाला , निःशुल्क भोजन वितरण तथा पुस्तकालय  इत्यादि चलाये जाते हैं। तथा इसके अलावा प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों के लिए राहत कार्य , श्रमदान, किसानों , गरीब छात्रों तथा अभावग्रस्त लोगों की सहायता भी किया जाता है। ये सभी कार्य -वे मनुष्य देहरूपी मन्दिर में विद्यमान नारायण की पूजा करने या सेवा करने का सुयोग मिला है - ऐसा समझते हुए अपने जीवन के प्रत्येक पल को सेवा-समर्पित बनाने के लिए करते हैं। अवसर मिलने पर वे अकिंचन, रोगियों के लिए रक्तदान भी करते हैं। 
     वे उन समस्त कार्यों को करते हैं जो उनकी पेशियों को बलिष्ठ, मस्तिष्क को उन्नत एवं हृदय को विशाल बनाता है। विवेकी मनुष्य -निर्माण की योजना, आत्म विकास, तथा चरित्र-निर्माण की विधियों को सही ढंग से समझाने के लिए, तथा उस प्रक्रिया में अन्तर्निहित तात्विक सिद्धान्तों को हृदयंगम कराने के लिए स्थानीय तथा अखिल भारतीय विभिन्न स्तरों पर  युवा प्रशिक्षण शिविर भी 
आयोजित किये जाते हैं। तथा इन शिविरों में मनुष्य -निर्माण तथा चरित्र-निर्माण के उपायों को स्पष्ट रूप से बताया जाता है। जो युवा अपने चरित्र का निर्माण करने के इच्छुक होते हैं, वे यहाँ से प्राप्त निर्देशों का अनुपालन करते हैं , तथा उन्हें अपने चरित्र के गुणों में वृद्धि को तालिकाबद्ध कर स्वयं अपना -मूल्यांकन करने का परामर्श भी दिया जाता है। जिसे बाद में उन आत्ममूल्यांकन तालिकाओं की जाँच करने पर पता चलता है कि व्यक्तिगत रूप से सभी सदस्यों की तालिका में उनके चारित्रिक गुणों का मानांक उत्साहवर्धक रूप से वृद्धि कर रहा है। 
देश के विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी युवा जब एक ही उद्देश्य के लिए एक जगह पर सम्मिलित होकर विभिन्न आयोजनों में हिस्सा लेते हैं , सामूहिक क्रिया-कलाप करते हैं, साथ -साथ रहते हैं ,तो उनमें सहिष्णुता, सहयोग की भावना, एकात्म बोध एवं राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत होती है। सभी कार्यक्रम उन्हें एक आदर्श नागरीक (कर्तव्यपरायण , देशभक्त, निःस्वार्थी एवं  त्यागी) विवेकी मनुष्योचित भाव तथा चारित्रिक गुणों से विभूषित , सेवापरायण तथा उदार जीवन दृष्टि वाला मनुष्य बना देता है।  
        देश की यथार्थ सेवा करने के लिए पहले उचित योग्यता (मनुष्योचित विवेक, श्रद्धा) आदि गुणों को चरित्रगत करने की अनिवार्यता को इस आंदोलन से जुड़ने वाले प्रत्येक युवक के लिए समझना अति आवश्यक है। इसे ठीक से समझ लेने के बाद ही सावधानी पूर्वक प्रयास करने पर ही वे सामाजिक समस्यायों का समाधान करने तथा समाज के अनिष्ट को रोक पाने में समर्थ हो सकते हैं। समाज के अन्य सभी लोगों का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यही है कि वे इन नवयुवकों को चरित्र-गठन के प्रयास में हर सम्भव सहायता करें।
      और यही वह कार्य है, जिसे महामण्डल ने  करने के लिए चुना है,  क्योंकि आज के भारत में जो सबसे ज्यादा अनिवार्य कार्य है , वह है नवयुवकों को उपयुक्त शिक्षा प्रदान करना। यह प्रशिक्षण ऐसा सुनियोजित होना चाहिए कि उससे नवयुवक हर दृष्टि से उन्नत हो सकें । प्रत्येक तरुण में एक पूर्ण मानव का विकास ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। वर्तमान संस्थागत शिक्षा 
 पद्धति - 'पूर्ण मनुष्य बनने शिक्षा' के इस अनिवार्य तत्व को प्रदान नहीं कर पाती जिससे प्रत्येक नागरिक को विभूषित होना है। अतएव  इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल का कार्य प्रचलित शिक्षा पद्धति के शिक्षा व्यवस्था की परिपूरक है। समाजसेवा इसके कार्यक्रमों में निहित होने के कारण जिस क्षेत्र में महामण्डल के केन्द्र क्रियाशील हैं, वहाँ का समाज उनकी सेवाओं से लाभान्वित होता है।          
     तथा जो लोग महामण्डल में योगदान करते हैं, बदले वे जो सेवायें (आध्यात्मिकता) महामण्डल से प्राप्त करते हैं, वही तो वस्तुतः सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा है। क्योंकि यही एकमात्र ऐसा कार्य है जो समाज में वास्तविक परिवर्तन ला सकता है। अतएव महामण्डल एक धीर गति का विशिष्ट 
आन्दोलन है, जो निश्चित रूप से समाज की पतनोन्मुख गति को बदलकर उन्नति की दिशा में अवश्य ले जायेगा। यदि देश के युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इस आंदोलन में कूद पड़े तो इसमें कोई शक नहीं कि यह निश्चय ही इस जर्जर समाज को श्रेष्ठतर समाज में परिणत कर देगा। विगत 58 वर्षों से इस कार्य की प्रगति तथा सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर यह आशा क्रमशः बढ़ती ही जा रही है, और अब तो आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं के मन की यह आशा दृढ़ विश्वास में परिणत हो चुकी है। चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करके समाज के सभी क्षेत्रों में इसी प्रकार के मनुष्यों को प्रविष्ट कराना होगा , पर दूसरों की जासूसी करने के लिए नहीं, राजनीति में अपनी शक्ति बढ़ाने की इच्छा से भी नहीं , बल्कि इसी कारण से कि इसके बिना किसी भी उपाय से समाज जटिल समस्याओं का निदान कभी भी संभव नहीं है। धन्यवाद विहीन इस कार्य को  सफलतापूर्वक केवल सालों -साल चलाते रहने में (जन्म -जन्मांतर तक चलाते रहने में) सक्षम होने से ही महामण्डल पूर्ण संतुष्ट होगा। 
       स्वामी विवेकानन्द के कथन " अतएव, पहले मनुष्य निर्माण करो। " का यही अर्थ है।हमलोगों ने अभी तक उनके परामर्श पर समुचित ध्यान नहीं दिया है, उनके उपदेशों को ठीक से समझने का प्रयास नहीं किया है किन्तु उनके इसी उपदेश के भीतर क्रान्तिकारी परिवर्तन का बीज निहित है। अपने लिए और अधिक शक्ति तथा ऊँची कुर्सी , धन-यश पाने के लालच में आधुनिक भारत में नवजागरण लाने इस जन नेता के गले में- 'हिन्दू संन्यासी ' (The Hindu Monk) का तमगा  डालकर उन्हें सर्व-साधारण से दूर हटाने का प्रयास न करें। बल्कि अपने भोग-कामना तृप्ति रूपी स्वार्थी स्वप्नों का विध्वंश कर इसी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार -प्रसार करने के 
कार्य में जुट जाएँ तथा इस आदर्श मानव निर्माण आंदोलन को राष्ट्र के कोने-कोने तक फैला दें।
अतएव, अखिल भारत विवेकानंद युवा महामण्डल का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है:  
 
उद्देश्य -भारत का कल्याण !

उपाय -चरित्र निर्माण !

आदर्श -स्वामी विवेकानंद !

आदर्श वाक्य - 'Be and Make !' 

अभियान मंत्र - ' चरैवेति , चरैवेति !'   

================================= 

अनुप्रयुक्त विवेकानन्द 

(Applied Vivekananda)  

1. "इसलिये, पहले मनुष्य निर्माण करो ! हमें अभी 'मनुष्यों' की आवश्यकता है, और बिना श्रद्धा के मनुष्य कैसे बन सकते हैं ? (खण्ड-8:270) " आज हमें श्रद्धा की आवश्यकता है, आत्मविश्वास की आवश्यकता है। बल ही जीवन है, और निर्बलता ही मृत्यु है -'हम आत्मा हैं -अजर, अमर, मुक्त और पवित्र। फिर हमसे पाप कैसे सम्भव है ? असम्भव ! इस प्रकार की दृढ़ निष्ठा होनी चाहिये। इस प्रकार का अडिग विश्वास हमें मनुष्य बना देता है , देवता बना देता है। पर आज हम श्रद्धाहीन हो गए हैं और इसीलिए हमारा तथा देश का पतन हो रहा है। (खण्ड -8 : 269) [श्री सुरेन्द्र नाथ सेन की व्यक्तिगत डायरी से- शनिवार, 22 जनवरी, 1898.]

>>Q. But it is the ruler's duty to see to the wants of the subject people. Whom should we look up to for everything, if not to the king?

Swamiji: Never are the wants of a beggar fulfilled. Suppose the government give you all you need, where are the men who are able to keep up the things demanded? So make men first.  Men we want, and how can men be made unless Shraddha is there? (Vol-5:33)
 "We want Shraddhâ, we want faith in our own selves. Strength is life, weakness is death. 'We are the Âtman, deathless and free; pure, pure by nature. Can we ever commit any sin? Impossible!'—such a faith is needed. Such a faith makes men of us, makes gods of us. It is by losing this idea of Shraddha that the country has gone to ruin." (Vol-5: 332) [Shri Surendra Nath Sen—from private dairy/  Saturday, the 22nd January, 1898.]

2. "जब आपके पास ऐसे मनुष्य होंगे , जो अपना सब कुछ देश के लिये होम कर देने को तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे , जब ऐसे मनुष्य उठेंगे , तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। ये मनुष्य हैं, जो देश को महान बनाते हैं।  " (खण्ड -4 :249)  [विदेशों की बात और देश की समस्याएं – (द हिंदू, मद्रास, फरवरी, 1897)]"

>>" When you have men who are ready to sacrifice their everything for their country, sincere to the backbone — when such men arise, India will become great in every respect. It is the men that make the country!" (Vol-5:210)  
{'The Abroad And The Problems At Home.'(The Hindu, Madras, February, 1897) } 

3. " भारत तभी जागेगा ; जब विशाल ह्रदय वाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास एवं सुख की इच्छाओं को विसर्जित कर मन ,वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतीयों के कल्याण के लिए सचेष्ट होंगे जो अभाव तथा अज्ञानता के भँवर (vortex) में क्रमशः नीचे की ओर डूबते जा रहे हैं।"  
(खण्ड-6:307) [श्रीमती सरला घोषाल - संपादक, भारती को -6 अप्रैल, 1897 को लिखा गया पत्र।)
>>" Then only will India awake, when hundreds of large-hearted men and women, giving up all desires of enjoying the luxuries of life, will long and exert themselves to their utmost for the well-being of the millions of their countrymen who are gradually sinking lower and lower in the vortex of destitution and ignorance." (Vol-5:127)[(Letter dated -6th April, 1897. written to Shrimati Sarala Ghoshal — Editor, Bharati) ]  

4. " जो सच्चे ह्रदय से भारतवासियों के कल्याण का व्रत ले सकें तथा इसी कार्य को अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, ऐसे युवाओं के साथ कार्य करने में लग जाओ। भारत के तरुणों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है।" -(खण्ड -4 : 280)  [Letter कलकत्ते के किसी बंगाली भाई को लिखित -2nd May, 1895.)
>>Work among those young men who can devote heart and soul to this one duty — the duty of raising the masses of India. Awake them, unite them, and inspire them with this spirit of renunciation; it depends wholly on the young people of India. (Vol-5:78)  [2nd May, 1895] 

5. " मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्य-संकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है, और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ, जागो, जागो !' (खण्ड -4 /408) सिस्टर निवेदिता को 7 जून, 1896 को लिखित पत्र।)
>> "I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake!"  (Vol-7:501) (letter to Sister Nivedita - 7th June, 1896.)

(6-A)  "सामाजिक दोषों के निराकरण का कार्य उतना वस्तुनिष्ट नहीं है, जितना आत्मनिष्ठ। हम कितनी भी लम्बी चौड़ी डिंग क्यों न हाँके समाज के दोषों को दूर करने का कार्य जितना स्वयं के लिए शिक्षात्मक है , उतना समाज के लिए वास्तविक नहीं। " (मेरी क्रान्तिकारी योजना :खण्ड -5 :109)
["This work against evil is more subjective than objective. The work against evil is more educational than actual, however big we may talk. This, first of all, is the idea of work against evil; and it ought to make us calmer, it ought to take fanaticism out of our blood. [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras) Vol-3:207)]  
"मनुष्य, केवल मनुष्य भर  चाहिए बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी , श्रद्धा-सम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट युवकों की। ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायकल्प हो जाय। " (मेरी क्रान्तिकारी योजना :खण्ड -5 :118) 
"Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized. [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras) Vol-3:207) (Vol-3 :223-24)]

    " सबके समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो, संसार इनकी प्रतीक्षा कर रहा है। संसार भर में सर्वत्र सर्वसाधारण से यही कहा गया कि तुम लोग मनुष्य ही नहीं हो। शताब्दियों से इस प्रकार डराये जाने के कारण वे बेचारे करीब करीब पशुत्व को प्राप्त हो गए हैं। उन्हें कभी आत्मतत्व के विषय में सुनने का मौका नहीं दिया गया। अब उनको आत्मतत्व सुनने दो , यह जान लेने दो कि उनमें से नीच से नीच में भी आत्मा विद्यमान है -वह आत्मा, जो न कभी मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है न आग जला सकती है, और न हवा सूखा सकती है , जो अजर, अमर , अनादि और अनन्त है, जो शुद्धस्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। " (नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।। गीता २:२३)(मेरी क्रान्तिकारी योजना : खण्ड-5 : 119)

"Preach, preach unto the world the great truths of your religion; the world waits for them. For centuries people have been taught theories of degradation. They have been told that they are nothing. The masses have been told all over the world that they are not human beings. They have been so frightened for centuries, till they have nearly become animals. Never were they allowed to hear of the Atman. Let them hear of the Atman — that even the lowest of the low have the Atman within, which never dies and never is born — of Him whom the sword cannot pierce, nor the fire burn, nor the air dry — immortal, without beginning or end, the all-pure, omnipotent, and omnipresent Atman! (Vol-5 :224)
   
" हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी (अमूर्त आत्मा में स्थित रहने की कसौटी) - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भाँति त्याग दो, उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता है, वह ज्ञानस्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो ह्रदय के अंधकार को दूर कर दे, जो ह्रदय में स्फूर्ति भर दे। सत्य जितना ही महान होता है, उतना ही सहज बोधगम्य होता है -स्वयं अपने अस्तित्व के समान सहज। जैसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए और किसी की आवश्यकता नहीं होती, बस वैसा ही। उपनिषद के सत्य तुम्हारे सामने हैं। इनका अवलंबन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो। बस देखोगे, भारत का उद्धार निश्चित है। " (खण्ड -5 : 120)               

"It is a man-making religion that we want. It is man-making theories that we want. It is man-making education all round that we want. And here is the test of truth — anything that makes you weak physically, intellectually, and spiritually, reject as poison; there is no life in it, it cannot be true. Truth is strengthening. Truth is purity, truth is all-knowledge; truth must be strengthening, must be enlightening, must be invigorating. Give up these weakening mysticisms and be strong. Go back to your Upanishads — the shining, the strengthening, the bright philosophy — and part from all these mysterious things, all these weakening things. Take up this philosophy; the greatest truths are the simplest things in the world, simple as your own existence. The truths of the Upanishads are before you. Take them up, live up to them, and the salvation of India will be at hand." (Vol -3:225)  [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras)] 

6. "हम ऐसे सामंजस्ययुक्त मनुष्य बनना चाहते जिसमें हमारी प्रकृति के मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और क्रियावान पक्षों का समान विकास हुआ हो। अधिकांश राष्ट्र (जातियाँ) और व्यक्ति इनमें से किसी एक पक्ष/पहलू का विकास व्यक्त करती हैं और वे उस एक से अधिक को नहीं समझ पातीं। वे किसी एक ही आदर्श में ऐसी ढल जाती हैं कि किसी अन्य को नहीं देख सकतीं। वास्तविक आदर्श है हम बहुपार्श्वीय बनें।"(खण्ड -3 : 264)    
We want to become harmonious beings, with the psychical, spiritual, intellectual, and working (active) sides of our nature equally developed. Nations and individuals typify one of these sides or types and cannot understand more than that one. They get so built up into one ideal that they cannot see any other. The ideal is really that we should become many-sided. Indeed the cause of the misery of the world is that we are so one-sided that we cannot sympathize with one another. (Vol-6: 137)      " आधुनिक वणिक सभ्यता (mercantile civilization) को, अपने समस्त दंभों और आडम्बरों के साथ, जो एक प्रकार का 'लार्ड मेयर का तमाशा' है, मरना होगा। संसार को जो चाहिए वो है व्यक्तियों के माध्यम से विचार शक्ति। मेरे गुरुदेव कहा करते थे, " तुम स्वयं अपने चरित्र-कमल रूपी फूल को खिलने में सहायता क्यों नहीं देते ? भ्रमर तब अपने आप आयेंगे। " संसार को ऐसे लोग चाहिए, जो ईश्वर के प्रेम में मतवाले हों। तुम पहले अपने आप पर विश्वास करो, तब तुम ईश्वर में विश्वास करोगे। संसार छः श्रद्धालु मनुष्यों का इतिहास, छः गंभीर शुद्ध चरित्रवान मनुष्यों का इतिहास है। हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है : अनुभव करने के लिए ह्रदय (Heart) की कल्पना करने के लिए मस्तिष्क (Head) की और काम करने के लिये हाथ (Hand) की, इन तीनों का एक साथ सुसमन्वित विकास को पाना हमारा लक्ष्य है। पहले हमें संसार से बाहर जाना चाहिए (ऐषणाओं में आसक्ति से बाहर जाना चाहिए) और अपने लिए समुचित उपकरण (विकसित '3H') तैयार करना चाहिए। अपने को एक डाइनेमो बनाओ।" 
(खण्ड -3 :271) [भक्तियोग के पाठ -संसार का उपकार] 
 
 "The present mercantile civilization must die, with all its pretensions and humbug—all a kind of "Lord Mayor's Show".(6/137)  "What the world wants is thought-power through individuals. My Master used to say, "Why don't you help your own lotus flower to bloom? The bees will then come of themselves." The world needs people who are mad with love of God. You must believe in yourself, and then you will believe in God. The history of the world is that of six men of faith, six men of deep pure character. We need to have three things; the heart to feel, the brain to conceive, the hand to work. First we must go out of the world and make ourselves fit instruments. Make yourself a dynamo. (Vol-6:144)  [Lessons On Bhakti-Yoga /The Yoga Through Devotion/ On Doing Good to the World.]  

7. [#स्वामी विवेकानंद की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार -प्रसार क्यों अनिवार्य है ? (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है :Each soul is potentially Divine किन्तु) " अव्यक्त से अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम कभी ईसा नहीं हो सकते। मिट्टी से एक मिट्टी का हाथी बना लो, उसी मिट्टी से एक मिट्टी का चूहा बना लो। उन्हें पानी में डाल दो - वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में निरन्तर एक हैं, लेकिन गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में निरन्तर भिन्न हैं'ब्रह्म' ही ईश्वर तथा मनुष्य दोनों का उपादान है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं , परन्तु वैयक्तिक प्राणियों के रूप में ईश्वर अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं।  " तुम्हारे पास तीन चीजें हैं : (१) शरीर (२) मन (३) आत्माआत्मा इन्द्रियातीत (Intangible- अमूर्त) है। मन (Head) जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर (Hand)  की है। तुम वही आत्मा हो,पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। जब मनुष्य कहता है 'मैं यहाँ हूँ', वह शरीर कि बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है, जब तुम उच्चतम भूमिका में होते हो , तब तुम यह नहीं कहते, ' मैं यहाँ हूँ। ' किन्तु जब तुम्हें कोई गाली देता है अथवा शाप देता है और तुम रोष प्रकट नहीं करते, तब तुम आत्मा (हृदय -Heart - तुरीय अवस्था में ) हो। " जब मैं सोचता हूँ कि मैं मन हूँ, तब मैं उस अनन्त अग्नि की एक स्फुलिंग हूँ, जो तुम हो। जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं आत्मा हूँ, तब तुम और मैं एक हूँ। ' (अर्थात दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्।  देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।)- यह कथन प्रभु के एक भक्त का है। क्या मन (Head-मिथ्या अहं)  आत्मा (Heart) से बढ़कर है ?"] {7}
 
 सुधार क्यों ?# : (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! किन्तु अव्यक्त से) अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम कभी ईसा नहीं हो सकते। मिट्टी से एक मिट्टी का हाथी बना लो, उसी मिट्टी से एक मिट्टी का चूहा बना लो। उन्हें पानी में डाल दो - वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में निरन्तर एक हैं, लेकिन गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में निरन्तर भिन्न हैं। 'ब्रह्म' (सच्चिदानन्द) ही ईश्वर तथा मनुष्य दोनों का उपादान है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं , परन्तु वैयक्तिक प्राणियों के रूप में ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं।  " तुम्हारे पास तीन चीजें हैं : (१) शरीर (२) मन (३) आत्मा। आत्मा इन्द्रियातीत (Intangible- अमूर्त) है। मन जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर की है। तुम वही आत्मा हो, पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। जब मनुष्य कहता है, 'मैं यहाँ हूँ ', वह शरीर की बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है , जब तुम उच्च भूमिका में होते हो, तब तुम यह नहीं कहते, 'मैं यहाँ हूँ।' किन्तु जब तुम्हें कोई गाली देता है अथवा शाप देता है (जानबूझ कर अपमानित करता है ?) और तुम रोष प्रकट नहीं करते, तब तुम आत्मा हो। " जब मैं सोचता हूँ कि मैं मन हूँ, तब मैं उस अनंत अग्नि की एक स्फुलिंग हूँ , जो तुम हो। जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं आत्मा हूँ , तब तुम और मैं एक हूँ ' - यह एक प्रभु के भक्त (हनुमान जी) का कथन है। क्या मन (अहं ) आत्मा से बढ़कर है ? (खण्ड -10:40) (मनुष्य और ईसा में अन्तर १०/४०)  [यह कथन प्रभु के भक्त हनुमान जी का है। 'लेकिन वही बुद्ध ईसा हुए थे , यह मेरा अपना विश्वास है !' दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्।  देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥  ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए।  देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, बताइये आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?  जीवबुद्धि से आपका अंश ही हूँ और  आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ लेकिन ईश्वर मायापति हैं और जीव (मनुष्य) ईश्वर की कृपा के बिना (पवित्र त्रयी की कृपा के बिना) यह कभी नहीं समझ सकता कि 'माया' क्या है ? माया तुम्हारी राम राम जीव भी तुम्हारा। माया जीव दोनों को ही राम का सहारा-जीव जाने क्या है माया राम की कृपा से !]  

" There is much difference in manifested beings. As a manifested being you will never be Christ. Out of clay, manufacture a clay elephant, out of the same clay, manufacture a clay mouse. Soak them in water, they become one. As clay, they are eternally one; as fashioned things, they are eternally different. The Absolute is the material of both God and man. As Absolute, Omnipresent Being, we are all one; and as personal beings, God is the eternal master, and we are the eternal servants. You have three things in you: (1) the body, (2) the mind, (3) the spirit. The spirit is intangible, the mind comes to birth and death, and so does the body. You are that spirit, but often you think you are the body. When a man says, "I am here", he thinks of the body. Then comes another moment when you are on the highest plane; you do not say, "I am here". But if a man abuses you or curses you and you do not resent it, you are the spirit. "When I think I am the mind, I am one spark of that eternal fire which Thou art; and when I feel that I am the spirit, Thou and I are one"-- so says a devotee to the Lord (Hanuman). Is the mind (Ego) in advance of the spirit? (Vol -8 :179-180) [ Notes Of Class Talks And Lectures/ The Difference Between Man and Christ.]

8. " धर्म का रहस्य तत्व को (चार महावाक्यों को) जान लेने में नहीं वरन उस तत्व ज्ञान को आचरण में उतार लेने में निहित है। भला बनना तथा भलाई करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है।'
 ["धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है।"(30 अप्रैल, 1891 को गोविन्द सहाय को लिखित पत्र/ (खण्ड-1: 380)]
My children, the secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and to do good — that is the whole of religion. (vol-6 :245)] 

" संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं। जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र। संसार को ऐसे मनुष्य चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण है। वह प्रेम के एक एक शब्द को वज्र के समान प्रभावशाली बना देगा। " (खण्ड -4 /408) सिस्टर निवेदिता को 7 जून, 1896 को लिखित पत्र।)   

"Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt." (Vol-7:501) (letter to Sister Nivedita - 7th June, 1896.) 

धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और 'मनुष्य' - परमात्मा तक उठ सकता है। " {17} (सू.सु -२/११/खंड १० /२१३) 

"Religion is the idea that raises the brute to man, and man to God."
 [5/409]  

9.  "एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना' , और उसका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की , व्यक्त ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की आराधना कैसे कर सकोगे , जो अव्यक्त है ? (खण्ड -8 :३४)  
" In one word, the ideal of Vedanta is to know man as he really is !" and this is its message, that if you cannot worship your brother man, the manifested God, how can you worship a God who is unmanifested? (2/325) PRACTICAL VEDANTA/PART II/ (Delivered in London, 12th November 1896)

10. " मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र एक स्थान में निश्चित है। और परमेश्वर एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र सर्वत्र है। वह सब हाथों द्वारा काम करता है , सब आँखों द्वारा देखता है, सब पैरों द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा साँस लेता है , सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और सब मस्तिष्क द्वारा विचार करता है। यदि मनुष्य (ठाकुर देव) अपनी आत्मचेतना को अनंत गुनी कर ले , तो वह ईश्वररूप बन सकता है और सम्पूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है। " (खण्ड -3: 119) [क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत। 'होम ऑफ़ ट्रुथ' (सत्य का घर), लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया में दिया गया भाषण।]
Man is an infinite circle whose circumference is nowhere, but the centre is located in one spot; and God is an infinite circle whose circumference is nowhere, but whose centre is everywhere. He works through all hands, sees through all eyes, walks on all feet, breathes through all bodies, lives in all life, speaks through every mouth, and thinks through every brain. Man can become like God and acquire control over the whole universe if he multiplies infinitely his centre of self-consciousness." (Vol-2:33) (HINTS ON PRACTICAL SPIRITUALITY:( Delivered at the Home of Truth, Los Angeles, California )

11. "जब आप मूल और आधार के प्रति कुछ करना चाहते हैं, तो समस्त वास्तविक प्रगति मन्द ही होगी।....और हममें से बहुतों का विचार है कि उनके प्रचार का उचित समय अब आ गया है। यह नया सिद्धान्त ('नाम -जप' की तरह " Be and Make") भी बिना शुल्क और बिना मूल्य वितरित किया जाता है, यह पूर्णतया उन्हीं लोगों के निजी प्रयासों पर निर्भर होता है, जो उसे अपनाते हैं। (खण्ड -4: 235)- भारत का मिशन) 

[When you deal with roots and foundations, all real progress must be slow. Of course, I need not say that these ideas ( Be and Make) are bound to spread by one means or another, and to many of us the right moment for their dissemination seems now to have come."(vol- 5/193)(India's Mission (Sunday Times, London, 1896) ] 

12. " मनुष्य तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से ऊपर उठने (उसका अतिक्रमण करने) के लिए संग्राम करता है। और वह प्रकृति बाह्य और आन्तरिक दोनों है। बाह्य प्रकृति को जीत लेना अच्छा है, कितना भव्य है। पर उससे असंख्य गुना अच्छा और भव्य है अभ्यंतर प्रकृति (अहं) पर विजय पाना। ग्रहों और नक्षत्रों की गति को नियंत्रित करने वाले नियमों को जान लेना बहुत अच्छा और गरिमामय है; उससे अनंत गुना अच्छा और भव्य है , उन नियमों को जानना , जिनसे मनुष्य के मनोवेग, भावनायें और इच्छाएं नियंत्रित होती हैं। इस आंतरिक मनुष्य (अहं) पर विजय पाना , मानव मन की जटिल सूक्ष्म क्रियाओं के रहस्य को समझना , पूर्णतया धर्म के अंतर्गत आता है। " (धर्म की आवश्यकता : खण्ड -2: 197-98 )    
" हर समाज में कुछ ऐसे लोग मिलते ही हैं, जिन्हें इन्द्रियविषयक वस्तुओं में कोई आनंद नहीं मिलता। वे इनसे ऊपर उठना चाहते हैं और यदा-कदा सूक्ष्मतर तत्वों की झाँकी पाकर उन्हें ही पाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। और जब हम विश्व के इतिहास का मनन करते हैं करते हैं तो पाते हैं कि जब-जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब-तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है; तथा जब भूमा या असीम की खोज - उसे उपयोगितावादी कितनी ही अर्थहीन कहें -समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकता ही किसी भी जाति की शक्ति का प्रधान स्रोत है। और जैसे ही अपनी अन्तःप्रकृति का अन्वेषण करना वह छोड़ देता है , वैसे ही उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। भले ही उपयोगिता-वादी लोग इस चेष्टा को कितना भी अर्थहीन प्रयास कहते रहें।" (धर्म की आवश्यकता : खण्ड -2 :198) 
"Man is man so long as he is struggling to rise above nature, and this nature is both internal and external. It is good and very grand to conquer external nature, but grander still to conquer our internal nature. This conquering of the inner man, understanding the secrets of the subtle workings that are within the human mind, and knowing its wonderful secrets, belong entirely to religion. 
But in every society, there is a section whose pleasures are not in the senses, but beyond, and who now and then catch glimpses of something higher than matter and struggle to reach it. And if we read the history of nations between the lines, we shall always find that the rise of a nation comes with an increase in the number of such men; and the fall begins when this pursuit after the Infinite, however vain Utilitarians may call it, has ceased. That is to say, the mainspring of the strength Of every race lies in its spirituality, and the death of that race begins the day that spirituality wanes and materialism gains ground. "[(Volume - 2:65), Jnana-Yoga/THE NECESSITY OF RELIGION( Delivered in London)] 

13. " समग्र धर्म वेदान्त में ही है अर्थात वेदान्त दर्शन के द्वैत , विशिष्टाद्वैत और अद्वैत , इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति की क्रम से तीन भूमिकाएं हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यही सार रूप से धर्म है। भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार -व्यवहारों और धर्ममतों में वेदांत के प्रयोग का नाम है -'हिन्दू धर्म।' यूरोप की जातियों के विचारों में उसकी पहली भूमिका अर्थात द्वैतवाद का प्रयोग है -'ईसाई धर्म।' सेमेटिक जातियों में उसका (द्वैतवाद) का ही प्रयोग है -'इस्लाम धर्म। ' अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ 'बौद्ध धर्म ' - इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदान्त ; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव , शाक्त आदि हर एक सम्प्रदाय ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान -पद्धति में उसे रूपांतरित कर लिया है। (खण्ड-4: 283) [आलासिंगा पेरुमल को 6 मई, 1895 को लिखित पत्र]   

[ All of religion is contained in the Vedanta, that is, in the three stages of the Vedanta philosophy, the Dvaita, Vishishtâdvaita and Advaita; one comes after the other. These are the three stages of spiritual growth in man. Each one is necessary. This is the essential of religion: the Vedanta, applied to the various ethnic customs and creeds of India, is Hinduism. The first stage, i.e. Dvaita, applied to the ideas of the ethnic groups of Europe, is Christianity; as applied to the Semitic groups, Mohammedanism. The Advaita, as applied in its Yoga-perception form, is Buddhism etc. Now by religion is meant the Vedanta; the applications must vary according to the different needs, surroundings, and other circumstances of different nations. You will find that although the philosophy is the same, the Shâktas, Shaivas, etc. apply it each to their own special cult and forms." (Vol-5:82) [Letter to  Alasinga: 6th May, 1895.]      
 
 " हमें अपने धर्म का अध्यन वेदों में करना है (वेदान्त या उपनिषदों में करना है) ; वेदों को छोड़कर अन्य सब ग्रंथों में परिवर्तन अनिवार्य है। वेदों के प्रमाणिकता सदा के लिए है; वेदों को छोड़कर अन्य सब ग्रंथों की प्रमाणिकता केवल विशिष्ट समय के लिए है। उदाहरण के लिए, एक स्मृति एक युग में शक्तिशाली होती है, तो दूसरी दूसरे युग में। जाति-व्यवस्था का नाश नहीं होना चाहिए; उसे केवल समय समय पर परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। जाति-व्यवस्था को मिटाने की बात करना -कोरी बुद्धिहीनता है। नयी रीति यह है कि - पुरातन का विकास हो। हमें उस समय तक ठहरना होगा, जब तक कि लोग शिक्षित न हो जायें (गीता और उपनिषदों के धर्म को समझने योग्य न हो जाएँ।), जब तक वे अपनी आवश्यक्ताओं को न समझने लगें और अपनी समस्याओं को खुद सुलझाने के लिए तैयार न हो जाएँ और ऐसा करने की क्षमता न प्राप्त कर लें। " (खण्ड -4 : 254)
[ Q -"What are your views, Swamiji, in regard to the relation of caste to rituals?"

"Caste is continually changing, rituals are continually changing, so are forms. It is the substance, the principle (चार महावाक्य), that does not change. It is in the Vedas that we have to study our religion. With the exception of the Vedas every book must change. The authority of the Vedas is for all time to come; the authority of every one of our other books is for the time being. For instance; one Smriti is powerful for one age, another for another age We have, therefore, to wait till the people are educated (ie Become able to understand the the substance, the principle  of Gita and Upanishads.), till they understand their needs and are ready and able to solve their problems.  (5/215) [Volume 5, Interviews/The Abroad And The Problems At Home (The Hindu, Madras, February, 1897]

14. " यंत्रचालित अति विशाल जहाज और महाबलवान रेल का इंजन जड़ है, वे हिलते और चलते हैं, परन्तु वे जड़ हैं। और वह नन्हा सा कीड़ा जो दूर से ही इंजन के देखकर, अपने जीवन की रक्षा के लिए रेल की पटरी से हट गया, वह क्यों चैतन्य है ? यंत्र में इच्छा-शक्ति का कोई विकास नहीं है। यंत्र कभी नियम का उलंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है और नियम के विरुद्ध जाता है, चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि; इसीलिए वह चेतन है। जिस जीव को इच्छाशक्ति को प्रकट करने में जितनी सफलता मिलती है, उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही ऊँचा होता है। परमात्मा की इच्छाशक्ति पूर्णरूप से सफल होती है , इसलिए वह उच्चतम है। " शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस विद्या (मनःसंयोग) के अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।" (खण्ड-7 :359)   
[ "जे विद्याचर्चाय इच्छा-शक्तिर प्रवाह एवं प्रकाश नियन्त्रित हये ता फलप्रसवनि  शक्तिते रूपान्तरित हय ताकेई बले शिक्षा। - अर्थात " सीखने की वह प्रक्रिया जिसमें मन को एकाग्र करने की विद्या--'मनःसंयोग' के अभ्यास का प्रशिक्षण द्वारा - (यम,नियम का अभ्यास 24 X 7, तथा आसन, प्रत्याहार धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार करने के द्वारा) इच्छाशक्ति के प्रवाह और प्रस्फुटन को इस प्रकार अपने वश में कर लिया जाता है जिससे वह फलदायी गतिविधि/शक्ति (fruitful activity -यानि निःस्वार्थपर मनुष्य के निर्माण)में रूपांतरित हो जाती है, उसे शिक्षा कहा जाता है।" (७/३५९)] 
" The huge steamer, the mighty railway engine — they are non-intelligent; they move, turn, and run, but they are without intelligence. And yonder tiny worm which moved away from the railway line to save its life, why is it intelligent? There is no manifestation of will in the machine, the machine never wishes to transgress law; the worm wants to oppose law — rises against law whether it succeeds or not; therefore it is intelligent. Greater is the happiness, higher is the Jiva, in proportion as this will is more successfully manifest. The will of God is perfectly fruitful; therefore He is the highest. What is education? Is it book-learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. 
"The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education ! " (Vol-4 :490)(letter written to Shrimati Mrinalini Bose from Deoghar, on 23rd December, 1898.)]

15. "अमेरकी जाति की आयु अभी इतनी कम है कि त्याग की बात उनकी समझ में नहीं आ सकती। इंगलैंड ने युगों में सम्पत्ति और विलास का आनन्द लिया है। वहाँ बहुत से लोग त्याग के लिए तैयार हैं। इस युग का दर्शन अद्वैतवाद है, सब इसकी चर्चा करते हैं। प्रोफेसर मैक्स मूलर पूर्ण वेदांती हैं और उन्होंने वेदांत में शानदार काम किया है। वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। (४/२६०) 
प्रश्न -आप भारत के पुनर्जागरण के लिए क्या करना चाहते हैं ? 
" मैं समझता हूँ कि हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की उपेक्षा है , और वह भी हमारे पतन का एक कारण है। हम कितनी ही राजनीति बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारत का जनसमुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपालित नहीं होता। यदि हम भारत को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं , तो हमें उनके लिए काम करना होगा। मैं युवकों को धर्म-प्रचारक (वेदांत-उपदेशक) के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए पहले दो केन्द्रीय संस्थायें आरम्भ करना चाहता हूँ, एक मद्रास में और दूसरी कलकत्ते में। (४/२६१) 
" मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आयेंगे। सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे। आपके पास संसार का महानतम धर्म है और आप जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक कथा सुनकर पालते हैं। आपके पास चिरंतन बहता हुआ स्रोत है और आप उन्हें गंदी नाली का पानी पिलाते हैं ! " (४/२६१)                
   " विश्वास कीजिये कि आत्मा अमर है, अनन्त है और सर्वशक्तिमान है। (किन्तु इस तत्व को, या वेदान्त को केवल गुरु-शिष्य परम्परा ' Be and Make' में ही अपने अनुभव से -आत्मसाक्षात्कार द्वारा ही समझा जा सकता है, इसलिए) मैं शिक्षा को गुरु के साथ सम्पर्क, गुरु-गृहवास -समझता हूँ। गुरु के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। अपने विश्वविद्यालयों को लीजिये। अपने 50 वर्षों के अस्तित्व में उन्होंने क्या किया है ? उन्होंने एक भी मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं किया। वे केवल परीक्षा लेने की संस्थायें हैं। सबके कल्याण के लिए बलिदान (त्याग और सेवा) की भावना का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ है।  (जनसमुदाय के दुःख-कष्ट में सहभागी बनने के लिए अपने भोग-विलास को त्याग देने की भावना अभी तक हमारे देशवासियों के ह्रदय को भेद नहीं सकी है। " (खण्ड -4 : 262)  ( पश्चिम में प्रथम हिन्दू संन्यासी का मिशनरी कार्य और भारत को पुनरुज्जीवित करने के लिए उनकी योजना : 'मद्रास टाइम्स', फरवरी, 1897) ]    
खण्ड -4 : 260 -262)  
[ "The American people are too young to understand renunciation. England has enjoyed wealth and luxury for ages. Many people there are ready for renunciation. The philosophy of the age is Advaitism; every-body talks of it; only in Europe, they try to be original.  Professor Max Müller is a perfect Vedantist and has done splendid work in Vedantism. He believes in reincarnation." 
Q : "What do you intend doing for the regeneration of India?"

"I consider that the great national sin is the neglect of the masses, and that is one of the causes of our downfall. No amount of politics would be of any avail until the masses in India are once more well educated, well fed, and well cared for.  If we want to regenerate India, we must work for them. I want to start two central institutions at first — one at Madras and the other at Calcutta — for training young men as preachers. My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. They will work out the whole problem, like lions. 
"My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. They will work out the whole problem, like lions. You have the greatest religion which the world ever saw, and you feed the masses with stuff and nonsense. You have the perennial fountain flowing, and you give them ditch-water. 
"Believe that the soul is immortal, infinite and all-powerful. My idea of education is personal contact with the teacher - Gurugriha-Vâsa. Without the personal life of a teacher there would be no education. Take your Universities. What have they done during the fifty years of their existences. They have not produced one original man. They are merely an examining body. The idea of the sacrifice for the common weal is not yet developed in our nation." (Volume- 5 : 221-224) -[Interviews : The Missionary Work Of The First Hindu Sannyasin To The West And His Plan Of Regeneration Of India . Madras Times, February, 1897) ] 
 
18. 6 मई, 1895 को आलसिंगा पेरुमल को लिखित पत्र में कहते हैं - " मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अंतःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा। यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता करने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो। " (खण्ड -4:284) 
"I am to create a new order of humanity here who are sincere believers in God and care nothing for the world. This must be slow, very slow. Nobody will come to help you if you put yourself forward as a leader. Kill self (Ego?) first if you want to succeed."(Vol-5:82)     

19. 'दी इको', लंदन, 1896 : क्या हम पूछ सकते हैं कि जिस धर्म का आप इंग्लैण्ड में प्रचार करने आये हैं , उसकी उद्भावना (शुरुआत) आपने ही की है ? 

("May one ask if you originated this religion you have come to preach to England?")
 
 स्वामीजी- " निश्चय ही नहीं। मैं भारत के एक महान ज्ञानी रामकृष्ण परमहंस का शिष्य हूँ। वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिन्हें हम बहुत विद्वान् कह सकें , जैसा कि हमारे बहुत से ज्ञानी हैं , पर वे बहुत पवित्र थे, और वेदांत दर्शन की चेतना में गहरे डूबे हुए थे। जब मैं दर्शन कहता हूँ, तो मुझे लगता है कि शायद मुझे धर्म कहना चाहिए था, क्योंकि वह वास्तव में दोनों है। (मेरे गुरुदेव के  बारे में यदि जानना हो तो) आपको 'Nineteenth Century' के हाल के अंक प्रकशित प्रो० मैक्स मूलर द्वारा लिखित उनकी जीवनी पढ़नी चाहिए। केशवचन्द्र सेन और दूसरे लोगों के जीवन पर उनका प्रभाव बहुत गंभीर पड़ा था। अपने शरीर को संयमित करके और अपने मन को जीतकर उन्होंने आध्यात्मिक संसार में आश्चर्यजनक गहरी पैठ प्राप्त की थी उनका चेहरा उनकी शिशुवत कोमलता, गंभीर नम्रता और कथन की उल्लेखनीय मधुरता के कारण असाधरण था। उसे देखकर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। "
 
'दी इको', लंदन, 1896 : तो क्या आपके उपदेश वेदों से लिए गए हैं ? 

स्वामीजी - " हाँ। वेदांत का अर्थ है वेदों का अंत, तीसरा भाग अर्थात उपनिषद, जिनमें वे विचार गहन रूप से उपस्थित हैं, जो आरम्भिक भाग में अंकुर रूप में वर्तमान थे। " (इंग्लैण्ड में भारत की मिशनरी का उद्देश्य : ४/२४३ -२४४)     

" जिसके मन में साहस तथा ह्रदय में प्यार है,वही मेरा साथी बने- मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है।...हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे,  और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठ कर म्याऊँ-म्याऊँ करते  रहेंगे ! "(४:३०६)  

=======================
[सहचर हैं ज्ञान और आनंद !   
हमारी एक प्रार्थना है जो प्रायः स्कूलों में गायी जाती है-

हे प्रभु आनंद-दाता, ज्ञान हमको दीजिए,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को, दूर हमसे कीजिए।

लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी धर्म-रक्षक, वीर व्रत धारी बनें।

जाए हमारी आयु हे प्रभु, लोक के उपकार में।  
हाथ डालें हम कभी न, भूल कर अपकार में।।

इसके लेखक हैं रामनरेश त्रिपाठी  (4 मार्च, 1881- 16 जनवरी, 1962 ) का जन्म जौनपुर जिले के कोइरीपुर ग्राम में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर में ही हुई। प्रार्थना की उपर्युक्त चार पंक्तियाँ ही देश के कोने-कोने में गायी जाती हैं। लेकिन सच ये है कि माननीय श्री रामनेरश त्रिपाठी  ने इस प्रार्थना को छह पंक्तियों में लिखा था। 
============

No comments: