श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(59)
No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context. "If you like something, leave a comment!" --Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(59)
श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(58)
*मेरी माँ काली ब्रह्म का व्यक्त रूप है *
452 जस धवलता दूध का , दूध से सदा अभिन्न।
857 तस शक्ति और ब्रह्म है , अभेद सदा अभिन्न।।
453 जस सूरज की किरणें , सूरज से नहीं भिन्न।
857 तस शक्ति और ब्रह्म है , अभेद सदा अभिन्न।।
454 मणिप्रभा जस रामकृष्ण , मणि से नहीं है भिन्न।
857 तस शक्ति और ब्रह्म है , अभेद सदा अभिन्न।।
ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं -जैसे अग्नि और उसकी दहनशक्ति। ब्रह्म और शक्ति (माँ या माया?) अभेद है -जैसे मणि और उसकी प्रभा। तुम इनमें से एक को छोड़कर दूसरे को सोच ही नहीं सकते।
455 जग जननी माँ एक है, तिन्ह के रूप अनेक।
860 एक अनेक से पार पुनि , रामकृष्ण की टेक।।
यह जान रखो कि मेरी जगज्जननी माँ एक है , और अनेक भी , फिर वह एक और अनेक के परे भी है।
मेरी ब्रह्ममयी माँ ही सब कुछ बनी है। वह आद्यशक्ति ही जीव-जगत बनी है। वही अनन्तस्वरूपिणी जगत में दैहिक , बौद्धिक , नैतिक , आध्यात्मिक आदि विभिन्न शक्तियों के रूप में प्रकाशित है। मेरी माँ ही वेदान्त का ब्रह्म है। वह ब्रह्म का व्यक्त रूप है।
जैसे , मैं (श्रीरामकृष्ण) कभी वस्त्र पहने रहता हूँ, तो कभी वस्त्रहीन, वैसे ही ब्रह्म भी कभी सगुण हैं , तो कभी निर्गुण।
ब्रह्म जब शक्ति के साथ संयुक्त होता है , तब उस 'सगुण ब्रह्म' कहते हैं। ---वही 'ईश्वर' है !
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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(57)
*ब्रह्म क्या है ?*
446 ब्रह्म क्या कैसा है , मुख से कहा न जाये।
835 जो देखा सो तस भयो , कौन कहहि समुझाये।।
447 ब्रह्म क्या है कैसा है , मुख से कहा न जाये।
835 जस सागर देखे बिना , समझ नहिं कोई पाए।।
ब्रह्म क्या है -यह मुख से कहा नहीं जा सकता। जिसने कभी समुद्र नहीं देखा , ऐसे व्यक्ति को यदि समुद्र कैसा होता है यह समझाना पड़े तो इतना ही कहा जा सकता है , 'ओह ! वह बहुत ही विशाल जलाशय है , चारों ओर पानी ही है।
[जैसा स्वामी जी ने 'कुँए का मेढ़क', या 'भेंड़ -सिंह' की कहानी से समझाया था ! जिसने इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार नहीं किया- जो hypnotized है , वह कभी परम् सत्य और सापेक्षिक सत्य के अन्तर को, प्रातिभासिक मनुष्य और वास्तविक मनुष्य का अंतर नहीं समझ सकता।]
448 जूठे तन्त्र पुराण सब , जूठे चारउ वेद।
836 एक अजूठी ब्रह्म है , पायो न पूरन भेद।।
वेद, तन्त्र , पुराण आदि सभी शास्त्र जूठे हो चुके हैं , क्योंकि उनका मुख से उच्चारण किया गया है , उन्हें पढ़ा गया है। केवल एक ही 'वस्तु 'ऐसी है जो जूठी नहीं हो पायी है -वह है ब्रह्म ! ब्रह्म क्या है यह आज तक कोई बता नहीं पाया। [?]
449 चोर पंडित ज्ञानी से , दीप सदा निर्लिप्त।
838 ब्रह्म सदा निर्लिप्त तस , भला बुरा अतीत।।
ब्रह्म भला-बुरा दोनों से निर्लिप्त है। वह दीपक की ज्योति की तरह है। दीपक के प्रकाश में कोई भागवत पढता है , तो कोई जाली नोट बनाता है , पर दीपक निर्लिप्त रहता है। ब्रह्म मानो साँप के जैसा है। साँप के दाँतों में विष होता है , उसके काटने पर दूसरे लोग मर जाते हैं , पर उससे स्वयं साँप को कुछ नहीं होता। इसी तरह, जगत में दुःख, पाप , अशांति आदि जो कुछ है , वह सब जीव के लिए है। ब्रह्म इस सबसे निर्लिप्त है। भला, बुरा, सत, असत सब जीव के लिए है ब्रह्म के लिए यह सब कुछ भी नहीं है, वह इस सब से परे है। [या सब 'सत' है ?]
*ब्रह्म ही द्वैतप्रपंच की सत्ता है *
450 नमक पुतला कह न सके , जस सागर की थाह।
846 समुझावत तस बनत नहि , ब्रह्म तत्व अथाह।।
समाधि अवस्था में ब्रह्मज्ञान होता है। उस अवस्था में सब विवेक-विचार, सत -असत , जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान आदि बन्द हो जाता है , सब शान्त हो जाता है। तब केवल 'अस्ति ' मात्र रह जाता है। नमक की पुतली (गुड़िया) समुद्र की गहराई नापने जल में उतरी पर उतरते ही समुद्र के साथ एक हो गयी , फिर गहराई की खबर कौन दे ? यही ब्रह्मज्ञान है !
{शिष्य को उपदेश देने के लिए गुरु ने दो अँगुलियाँ उठाकर संकेत किया - 'V ' , अर्थात -'ब्रह्म और माया। ' फिर एक अंगुली नीचे करके संकेत किया - " माया (आवरण और विक्षेप शक्ति ) के दूर हो जाने पर ब्रह्म ही रह जाता है , जगत ब्रह्ममय हो जाता है। " }
451 जब तक 'मैं ' पन बोध है , जब तक अहं का ज्ञान।
848 जीवजगत सब सत्य है , सत साकार सुजान।।
जब तक 'मैं '-बोध (बना हुआ) है , तब तक निरुपाधिक भी है और सोपाधिक भी , नित्य भी है और लीला भी , निर्गुण भी है और सगुण भी , निराकार भी है और साकार भी , एक भी है और अनेक भी! ....
प्रश्न -अखण्ड स्वरुप आत्मा खण्डित जीवात्माओं कैसे विभक्त हो गया ?
उत्तर - अद्वैतवादी तार्किक अपनी विचार-बुद्धि के बल पर इसका उत्तर नहीं दे सकता। उसे यही कहा पड़ता है कि 'मैं नहीं जानता। ' ब्रह्मज्ञान होने पर ही इसका योग्य उत्तर मिल सकता है।
जब तक मनुष्य कहता है , 'मैं जानता हूँ ' या 'मैं नहीं जानता ' तब तक वह स्वयं को एक व्यक्ति (person) समझता है। तब तक उसे इस विविधता को सत्य मानना ही पड़ता है ! वह इसे भ्रम नहीं कह सकता।
[ क्योंकि जब तक ब्रह्मज्ञ गुरु न मिलें, मैं 'hypnotized' अवस्था में हूँ , यह (अनेकता में एकता को) स्वयं समझ लेना बहुत कठिन है। ]
परन्तु जब व्यक्तित्व (personality-Individuality -यथार्थस्वरूप ) का बोध होता है, 'मैं '-पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है , तब समाधि होकर ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। तब सत-असत ,वास्तव-भ्रम आदि सम्बन्धी सब प्रश्नों का सदा के लिए विराम हो जाता है।
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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(56)
*सेवाभाव से किया जानेवाला कर्म (समाज सेवा : Be and Make) पूजा के समान है *
442 दया करन को कौन तू , मूरख पामर जीव।
824 कर सेवा सब जीव का , सह श्रद्धा जनु शिव।।
एक दिन श्रीचैतन्य देव द्वारा प्रवर्तित वैष्णवधर्म की चर्चा के प्रसंग में श्रीरामकृष्ण ने कहा - " इस मत में मनुष्य को इन तीन बातों का पालन करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने का उपदेश दिया जाता है - भगवान के नाम में रूचि , जीवों पर दया , वैष्णवों का पूजन। जो नाम है , वही ईश्वर है , नाम और नामी अभिन्न हैं - यह जानकर सदा अनुराग सहित नाम लेते रहना चाहिए।
"कृष्ण और वैष्णव , भक्त और भगवान अभिन्न हैं ; यह जानकर सदा साधु-भक्तजनों की सेवा -वंदना श्रद्धापूर्वक करनी चाहिए। तथा यह जगत-संसार श्रीकृष्ण का ही है , इस बात की हृदय में धारणा कर सब जीवों पर दया .....।" ' सब जीवों पर दया ' इतना कहते ही श्रीरामकृष्ण एकाएक समाधिमग्न हो गए।
कुछ देर बाद अर्ध-बाह्य अवस्था में आकर वे कहने लगे , " जीवों पर दया ? जीवों पर दया ? धत मूर्ख! तू स्वयं कीटाणुकीट होकर जीवों पर दया करेगा ? दया करनेवाला तू कौन है ? नहीं ,नहीं , 'जीवों पर दया ' -नहीं , 'शिव-बुद्धि से जीवों की सेवा !'
* कर्म उपाय है , उद्देश्य नहीं *
443 प्रथम हरि को जान ले , कर कर साधन प्रेम।
825 कर जनहित जो शक्ति दें , वृथा उल्टा नेम।।
कुछ उत्साही समाजसुधारकों से श्रीरामकृष्ण ने कहा - " तुम लोग जगत का उपकार करने की बात कहते हो। पर जगत क्या इतनी छोटी चीज है ? और फिर जगत का उपकार करने वाले भला तुम कौन हो ? पहले साधनभजन के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लो , उनका लाभ कर लो। वे शक्ति दें तभी तुम लोगों का हित कर सकते हो , अन्यथा नहीं। "
एक भक्त -महाराज , जब तक उनकी उनकी प्राप्ति न हो तब तक क्या सब कर्म त्याग दें ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं , कर्म त्याग क्यों दोगे ? ईश्वर का चिंतन , उनका नाम गुणगान , उपासना आदि नित्यकर्म -यह सब करते रहना चाहिए।
भक्त - और सांसारिक कर्म ? विषय कर्म ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ , उन्हें भी किया करो , संसार -यात्रा के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही। परन्तु साथ ही निर्जन में रोते हुए प्रभु से प्रार्थना करनी होगी , ताकि कर्म निष्काम भाव से किये जा सकें।
444 होवहिं संध्या करम सब , गायत्री में लीन।
832 पुनि गायत्री प्रणव मँह , प्रणव समाधि हि लीन।।
संध्या गायत्री में लीन होती है , गायत्री प्रणव में लीन होती है , प्रणव समाधी में लीन होता है। इस प्रकार संध्या सन्ध्यादि कर्म का समाधि में लय होता है।
*कर्म तथा नैष्कर्म्य*
445 जस-जस पग हरि दृग बढे , तस तस करम त्याग।
834 अंत कर्म सब त्याग है , जले समाधि आग।।
इसलिए कहता हूँ , शुरू शुरू में कर्म की बड़ी चहल-पहल रहती है। परन्तु तुम ईश्वर की ओर जितना ही अग्रसर होंगे , उतना ही तुम्हारा कर्म कम होता जायेगा। अंत में सर्वकर्म-त्याग होकर समाधि होगी। समाधि के बाद प्रायः देह नहीं टिका करती।
किसी-किसी की देह लोकशिक्षा के लिए रह जाती है -जैसे नारदादि ऋषि और चैतन्यदेव आदि अवतारों का हुआ। कुआँ खोद चुकने के बाद कोई कोई कुदाल , टोकरी आदि की बिदाई कर देते हैं , पर कोई कोई उन्हें रख लेते हैं -सोचते हैं रहने दो, मुहल्लेवालों में से किसी के काम आएगा। ऐसे महापुरुष लोग जीवों का दुःख देखकर कातर होते हैं। ये ऐसे स्वार्थी नहीं होते कि सोचें , हमें ज्ञानलाभ हुआ कि सब हो गया।
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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(55)
*कर्म का रहस्य*
* सही मार्ग है ---पहले भक्ति फिर कर्म *
439 प्रभुपद भक्ति प्रथम फिर , तज आसक्ति सब काम।
819 वृथा करम बिन भक्ति के , भज लो सीताराम।।
ईश्वर में भक्ति हुए बिना कर्म करना बालू की भींत की तरह निराधार है। पहले भक्ति के लिए प्रयत्न करो। फिर तुम चाहो तो ये सब -स्कूल , दवाखाने , आदि आप ही बन जायेंगे। सही मार्ग है ---पहले भक्ति फिर कर्म। भक्ति के बिना कर्म (समाजसुधार आदि ) व्यर्थ है।
437 हरि को नर इक देत तो , हरि देवत है हजार।
816 सकल करम फल सौंप हरि , सौप हरि को भार।।
भगवान को तुम एक गुना जो कुछ अर्पित करोगे , उसका हजारगुना पाओगे। इस लिए सब कार्य करने के बाद जलांजलि दी जाती है , श्रीकृष्ण को फल-समर्पण किया जाता है।
[जितना संभव हो, ईश्वर का ध्यान तथा नाम-जप करते हुए, उन पर निर्भर रहकर अनासक्त भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करना ही कर्मयोग का रहस्य है। युधिष्ठिर जब सब पाप श्रीकृष्ण को अर्पण करने जा रहे थे, तब भीम ने उन्हें सावधान करते हुए कहा, ऐसा काम मत करें। श्रीकृष्ण को जो कुछ अर्पित करेंगे, उसका हजार गुना आपको प्राप्त होगा।
कर्मयोग यानी कर्म के द्वारा ईश्वर के साथ योग। अनासक्त होकर किए जाने पर प्राणायाम, ध्यान-धारणादि अष्टांग योग या राजयोग भी कर्मयोग ही है। संसारी लोग अगर अनासक्त होकर ईश्वर पर भक्ति रखकर उन्हें फल (परिणाम) समर्पण करते हुए संसार के कर्म करें तो वह भी कर्मयोग है। फिर ईश्वर को फल समर्पण करते हुए पूजा, जप आदि करना भी कर्मयोग ही है। ईश्वर लाभ ही कर्मयोग का उद्देश्य है।
सत्वगुणी व्यक्ति का कर्म स्वभावत: छूट जाता है, प्रयत्न करने पर भी वह कर्म नहीं कर पाता। जैसे, गृहस्थी में बहू के गर्भवती हो जाने पर सास धीरे-धीरे उसके कामकाज घटाती जाती है और जब उसके बच्चा पैदा हो जाता है, तब तो उसे केवल बच्चे की देखभाल के सिवा और कोई काम नहीं रह जाता।]
438 ज्ञान कर्म है कठिन अति , कलियुग भक्तियोग।
818 भज ले मनवा नाथ को , मिठे सहज भवरोग।।
विशेषकर इस कलियुग में अनासक्त होकर कर्म करना बहुत कठिन है। इसलिए इस युग के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि की अपेक्षा भक्तियोग ही अच्छा है। परन्तु कर्म कोई छोड़ नहीं सकता। मानसिक क्रियाएं भी कर्म ही हैं। प्रेम-भक्ति के द्वारा कर्म -मार्ग सहज हो जाता है। ईश्वर पर प्रेम-भक्ति बढ़ने से कर्म कम हो जाता है , और जो कर्म रहता है उसे उनकी कृपा से अनासक्त होकर किया किया जा सकता है। भक्तिलाभ होने पर विषयकर्म -धन, मान , यश आदि अच्छे नहीं लगते। मिश्री का शर्बत पी लेने के बाद , गुड़का शर्बत भला कौन पीना चाहेगा ?
440 भक्तिसहित जो करम करे , हो करके निष्काम।
822 सहजहि दरसन देवह हि , रामकृष्ण श्री राम।।
एक बार श्रीरामकृष्ण ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से कहा था - " तुम्हारा कर्म सात्विक कर्म है। तुम दया से प्रेरित होकर परोपकार के कर्म करते हो -यह सत्वगुण की प्रेरणा से सम्पादित कर्म है। अगर दया-दाक्षिण्य , दान आदि भक्तिसहित , निष्काम होकर किया जा सके तो इससे ईश्वरलाभ होता है। "
441 हिय मँह हरि बैठाई नर , धर ले सुमिरन दीप।
823 काज करम के बीच नर , नाम तेल तेहि सींच।।
क्या केवल ध्यान करते समय ही ईश्वर का चिंतन करना चाहिए, और दूसरे समय उन्हें भूले रहना चाहिए ?
मन का कुछ अंश सदा ईश्वर में लगाए रखना चाहिए। तुमने देखा होगा , दुर्गापूजन के समय देवी के पास एक दीप जलाना पड़ता है। उसे सदा जलाये रखा जाता है , कभी बुझने नहीं दिया जाता। उसके बुझ जाने पर गृहस्थ का अमंगल होता है। इसी प्रकार , हृदयकमल में इष्टदेवता को प्रतिष्ठित करने के बाद उनके स्मरण-चिंतनरूपी दीपक को सदा प्रज्ज्वलित रखना चाहिए। संसार के कामकाज करते हुए बीचबीच में भीतर की ओर दृष्टि डालकर देखते रहना चाहिए कि वह विवेक-दीपक जल रहा है या नहीं।
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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(54)
*ज्ञानी तथा भक्त में अन्तर *
[Within Jnani, the Ganges flows in only one direction.
but Within the devotee, there is an ebb tide.]
434 ज्ञानी जग मिथ्या कहे , सदा ब्रह्म में लीन।
808 आनन्द सागर में भगत , तैरहि बन जनु मीन।।
435 ज्ञानी बहे इक भाव में , भगत बहे सब ओर।
808 इक स्थिर इक विलास करें , हृदय प्रेम हिलोर।।
ज्ञानी के भीतर मानो एक ही दिशा में गंगा बहती है। उसके लिए सब कुछ स्वप्नवत है। वह सदा स्वस्वरूप में अवस्थित रहता है। परन्तु भक्त के भीतर गंगा एक दिशा में नहीं बहती , उसमें ज्वार-भाटा होता रहता है। वह कभी हँसता है , कभी रोता है, तो कभी नाचता -गाता है। भक्त भगवान के साथ विलास करा चाहता है। वह उस आनन्दसागर में कभी तैरता है , कभी डूबता है , तो कभी उतराता है ; जैसे पानी में बर्फ का टुकड़ा डूबता -उतराता रहता है।
433 कह ज्ञानी 'सोहं'- 'सोहं' , भक्त प्रभु माँ बाप।
805 इक सोचत निज पूर्ण सम , अपर अंश जनु आप।।
ज्ञानी कहता है - " सोऽहं ! मैं ही वह शुद्ध आत्मा हूँ। " परन्तु भक्त कहता है , " अहा , वह सब उनकी (माँ जगदम्बा की ) महिमा है !!"
436 ज्ञान है मानो पुरुष सम , भक्ति मानो नारी।
812 भक्ति भीतर तक पहुंचे , ज्ञान केवल दुवारी।।
ज्ञान मानो पुरुष है और भक्ति नारी। ज्ञान भगवान के बैठक खाने तक जा सकता है , परन्तु भक्ति उनके अंतःपुर में प्रवेश कर सकती है।
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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(53)
*माँ काली (दुर्गा) की भक्ति से ज्ञान की प्राप्ति होती है! *
[The devotion of Mother Kali leads to knowledge.]
432 भक्ति मार्ग से भजन कर , माँ को प्रथम मनाओ ।
803 पुनि प्रसाद रूप तिन्हके , ब्रह्म ज्ञान को पाओ ।।
मेरी माँ (जगन्माता ) ने कह दिया है कि वही वेदान्त का ब्रह्म है। जीव के 'कच्चे मैं' को पूरी तरह नष्ट कर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। माँ की इच्छा हुई तो तुम या तो विचारमार्ग से ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो , या फिर उसी ज्ञान को भक्तिमार्ग से भी प्राप्त कर सकते हो।
भक्तिमार्ग ही सार है -ज्ञानभक्ति के लिए व्याकुल होकर निरंतर प्रार्थना करना , माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो कि यदि तुम हृदय से पुकारोगे तो माँ अवश्य तुम्हारी पुकार सुनेगी -तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर यदि तुम उसके निर्गुणनिराकर स्वरुप का दर्शन करना चाहते हो तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्तिरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधि में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो।
429 माया किरपा करहि जब , हटावहि पथ विघ्न।
799 तब पाहिं दुःख अंत सकल , प्रभु दरसन निर्विघ्न।।
पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है। तुम आँख मूँदकर स्वयं को समझते हुए बार बार का सकते हो कि 'कांटा नहीं है , कांटा नहीं है। ' पर ज्योंही तुम कांटे को हाथ लगते हो त्योंही वह तुम्हें चुभ जाता है , और तुम दर्द से उफ़ करके हाथ खींच लेते हो। तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं , मृत्यु नहीं , पुण्य नहीं , शोक नहीं दुःख नहीं ; क्षुधा नहीं , तृष्णा नहीं ; तुम जन्मरहित , निर्विकार , सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा हो , परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है , ज्योंही मन संसार में कामकांचन के आपात सुख के भुलावे पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है , त्यों ही मोह , यातना , दुःख आ खड़े होते हैं। और वे तुम्हारे सारे विवेक-विचार को भुलाकर तुम्हें बेचैन कर देते हैं।
इसलिए यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना , माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता , दुःख-कष्टों का अंत नहीं होता। सुना नहीं दुर्गासप्तशती में कहा है , "सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये *..... (दु.स.श. 1./53---58) जब तक महामाया पथ के विघ्नों को हटा न दे तब तक कुछ नहीं हो पाता। ज्योंही महामाया की कृपा होती है , त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं ; और वह समस्त दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ नहीं होता। ऐसा कहते हैं कि अजवायन का एक दाना चावल के सौ दानों को पचा डालता है। पर जब पेट की बीमारी होती है तब सौ अजवायन के दाने भी एक चावल के दाने को हजम नहीं करा सकते। यह भी ऐसा ही जानना।
430 दरसन ज्ञान समाधि सब , हरि कृपा ते होय।
800 भक्ति योग अति सहज पथ , भज शरणागत होय।।
ज्ञान-योगी निर्गुण , निराकार , निर्विशेष ब्रह्म को जानना चाहता है। परन्तु इस युग के लिए भक्तियोग ही सहज मार्ग है। भक्तिभाव से ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए , उनके पूर्ण शरणागत होना चाहिए। भगवान भक्त की रक्षा करते हैं। और यदि भक्त चाहे तो भगवान उसे ब्रह्मज्ञान भी देते हैं।
साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुणसाकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं , भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भावसमाधि में रूपदर्शन भी होते हैं , और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी। अगर कोई किसी तरह एक बार कलकत्ता आ पहुँचे तो उसे वहाँ के प्रसिद्द किले का मैदान , मानुमेंट , अजायबघर सभी कुछ दिख सकता है।
428 उपास्य उपासक भाव से , भज लो श्री भगवान।
797 राह सहज अति सरल यह , होवहि अद्वैत ज्ञान।।
अद्वैत ज्ञान श्रेष्ठ है , परन्तु शुरू में ईश्वर की आराधना सेव्य -सेवक भाव से , उपास्य-उपासक भाव से करनी चाहिए। यह सबसे सहज पथ है , इसी से आगे चलकर सरलता से अद्वैत ज्ञान प्राप्त होता है।
431 चीनी बनन नहि चाहहि , रखे स्वाद की चाह।
802 तस भगत नहिं ब्रह्मसुख , चाहत रूप अथाह।।
साधारणतया भक्त ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता। वह ईश्वर के साकार रूप के दर्शन करना चाहता हैं -जगज्जननी काली या श्रीकृष्ण , श्रीचैतन्य आदि अवतारों के रूप ही उसे अच्छे लगते हैं। वह नहीं चाहता कि समाधि मैं-पन का पूर्ण नाश हो जाये। वह इतना मैं-पन बनाये रखना चाहता है , जिसके द्वारा वह भगवान के साकार रूप के दरशन का आनंद लूट सके। वह चीनी खाना चाहता है , स्वयं चीनी बनना नहीं चाहता।
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श्री दुर्गासप्तशतीः एक अध्ययन
[* अथ श्रीदुर्गासप्तशती -॥ प्रथमोऽध्याय:॥ मेधा ऋषि (मेधा नाड़ी ?) का राजा सुरथ और समाधि को भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु – कैटभ- वध का प्रसंग सुनाना : .... सुरथ का प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये ॥९॥
वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनि का आश्रम देखा , जहाँ कितने ही हिंसक जीव ( अपनी स्वाभाविक हिंसावृति छोड़कर ) परम शांतभाव से रहते थे । मुनि के बहुत से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे ॥१०॥
अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायेगा। ’ ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरंतर सोचते रहते थे । एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधाके आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और उससे पूछा – ‘भाई ! तुम कौन हो? यहाँ तुम्हारे आने का क्या कारण है ? १७।
वैश्य बोला – ॥२०॥ मेरे विश्वसनीय बंधुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है , इसलिये दु:खी होकर मैं वन में चला आया हूँ । यहाँ रहकर मैं इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की , स्त्रीकी और स्वजनों की कुशल है या नहीं।
राजा ने पूछा – ॥२६॥ जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति चित्त में इतना स्नेहका बन्धन क्यों है ॥२७-२८॥ मार्कण्डेयजी कहते हैं – ॥३५॥ ब्रह्मन्! तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनिकी सेवा में उपस्थित हुए।
राजा ने कहा – ॥३९॥ भगवन् ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥४०॥ मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मनको बहुत दु:ख देती है । जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है , उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता बनी हुई है॥४१॥यह जानते हुए भी कि वह मेरा नहीं है , अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दु:ख होता है; यह क्या है ? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है । इसके पुत्र ,स्त्री और भृत्योंने इसे छोड़ दिया है॥४२॥ स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है , तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है । इस प्रकार यह तथा मैं दोनों ही बहुत दु:खी हैं ॥४३॥
जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है । ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥४५॥ महाभाग ! हम दोनों समझदार हैं ; तो भी हम में जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है ? विवेक-शून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है ॥४४- ४५॥
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं* तु ते न हि केवलम्॥४९॥ यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते॥४९॥ पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं । मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है ॥५०॥ मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।॥५१॥ यह तथा अन्य बातें में भी ----(आहार , निद्रा, भय, मैथुन के मामले में भी) प्राय: दोनोंमें समान ही हैं।
समझ होने पर भी इन पक्षियोंको तो देखो, ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं। मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति ॥५२॥ नरश्रेष्ठ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी----*लोभात् प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि ।तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः॥५३॥ लोभवश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये पुत्रों की अभिलाषा करते हैं - (वंश-विस्तार करने में लगे रहते हैं) ?
यद्यपि उन सबमें समझ की कमी नहीं है, तथापि वे संसार की स्थिति (जन्म-मरण की परम्परा ) बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममता-मय भँवर से युक्त मोह के गर्त में गिराये गये हैं ।इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये । जगदीश्वर भगवान विष्णु की योगनिद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत मोहित हो रहा है । ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ॥ ५७॥ संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ॥ ५८॥
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती है । वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं। तथा वे ही प्रसन्न होनेपर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं । वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी (अविनाशी, eternal) देवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं ॥५१- ५८॥
[साभार https://www.durgasaptashati.in/first-chapter]
श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(52)
*भक्ति तथा ज्ञान के बाड़ों को बांधना*
425 ब्रह्म वेदमत गावहिं , योगी आत्माराम।
792 भगत कहे भगवान तेहि , भगवन एक बहु नाम।।
एक ही ईश्वर को वेदान्तवादी ब्रह्म कहते हैं , योगी आत्मा कहते हैं और भक्त भगवान कहते हैं। एक ही ब्राह्मण जब पूजा करता है , तो पुजारी कहलाता है और जब रसोई बनाता है तो रसोइया।
427 पुनि-पुनि माया छावहिं , जल काई की नाइ।
796 ज्ञान भक्ति का घेरा , माया फिर न छाइ।।
तालाब के जल पर छाई हुई काई या जंगली बेलों को हटा देने से वे फिर आकर जल पर छा जाती हैं; पर यदि उन्हें हटाकर बाँस के घेरे बाँध दिए जाएँ तो फिर वे नहीं आ सकती। इसी प्रकार , माया को हटा देने से वह फिर आ खड़ी होती है ; परन्तु यदि उसे हटाकर ज्ञान-भक्ति का घेरा बाँध दिया जाय तो फिर वह नहीं आ पाती। तभी भगवान प्रकाशित होते हैं।
426 नाम सुनत इक बार जो , नैन बहावे नीर।
794 ज्ञानवान तेहि जानिए , जो होहिं पुलक शरीर।।
एक भक्त -यह कैसे जाना जाये की गृहस्थ-आश्रम में रहते हुए भी अमुक व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त हुआ है?
श्रीरामकृष्ण -जब एक बार हरि का नाम सुनते ही किसी के नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगें और देह में रोमांच हो जाये तो अवश्य जानना कि उसे ज्ञान प्राप्त हो गया है।
424 शुद्ध ज्ञान भक्ति शुद्ध , दोनों एक ही बात।
791 भिन्न भिन्न है पंथ पर , एक लक्ष्य को जात।।
शुद्ध ज्ञान तथा शुद्ध भक्ति दोनों एक ही हैं।
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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(51)
विरह तथा महाभाव का ज्वार
423 ज्वाला भगवन विरह की , जब भभके हिय माहिं।
789 अति असह दुःख शरीर का , तरुवर झुलस जाहिं।।
ईश्वर-विरह की ज्वाला साधारण नहीं है। कहते हैं कि जब रूप-सनातन * [*श्रीचैतन्य के दो प्रमुख शिष्य। इन्होने ही वृन्दावन में प्रसिद्द गोविन्दजी के मंदिर की प्रतिष्ठा की थी। ] को यह अवस्था होती थी, तब वे जिस पेड़ के नीचे होते थे उसके पत्ते झुलस जाते थे।
मैं इस अवस्था में तीन दिन तक बेहोश पड़ा था। होश लौट आने पर भैरवी ब्राह्मणी मुझे पकड़ कर स्नान करवाने ले गयी। परन्तु हाथों से मेरे तप्त शरीर का स्पर्श करना सम्भव नहीं था। मेरे शरीर पर मोटी चादर ढक , उस पर से मुझे पकड़कर ब्राह्मणी लेगयी थी। देह पर जो मिट्टी लगी थी वह तक झुलस गयी थी। जब यह अवस्था आती है तब ऐसा लगता है कि मानो कोई रीढ़ की हड्डी के बीच से हल चला रहा है। 'प्राण निकल गए ' 'प्राण निकल गए ' कहकर चिल्लाता था। पर उसके बाद आनंद होता था।
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श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
(50)
*प्रेम अथवा परा भक्ति *
420 गोपी के हिय नित बहे , पराभक्ति की धार।
779 हरिहि आत्मीय सम लखै , नही जग का करतार।।
पराभक्ति क्या है ? पराभक्ति में साधक ईश्वर को अपने परम आत्मीय की तरह देखता है। श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों की भक्ति इसी प्रकार थी। वे कृष्ण को गोपीनाथ कहती थी - जगन्नाथ नहीं।
422 गोपीगण के प्रेम का , महिमा महिमा अति अपार।
786 पावत कण भर दुःख कटे , हो जावे भव पार।।
भक्त श्री 'म ' से गोपियों के ईश्वरानुराग के बारे में चर्चा करते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा -" उनकी व्याकुलता कैसी अद्भुत थी ! तमाल वृक्ष को देखते ही वे प्रेमोन्माद में निस्पंद हो गई। (क्योंकि तमाल के कृष्णवर्ण को देखकर उन्हें श्रीकृष्ण का उद्दीपन हो गया। ) श्रीगौरांग का भी यही हाल था। वन को देखकर वे उसे वृन्दावन समझ बैठे ! ओह , यदि किसी को इस प्रेम का एक कण भी मिल जाये ! कितना प्रेम था ! गोपियों का प्रेम केवल किनारे तक ही नहीं भरा था , वह तो पूरा भरकर बाहर छलकता था। "
419 प्रेम डोर से बाँध लो, त्रिगुणातीत भगवान।
776 जब चाहो डोर खींच लो , कर लो दरसन पान।।
ईश्वर (माँ काली का) दर्शन हुए बिना प्रेम या पराभक्ति नहीं होती ! प्रेम के उत्पन्न हो जाने से मानो सच्चिदानन्द को बांधने की डोर मिल जाती है। उन्हें देखने की इच्छा हुई कि डोर को पकड़ कर खींचा। जब पुकारो तभी पाओगे। (दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार, जब जरा गर्दन झुकाई देखली !)
421 इक पायो प्रह्लाद है , इक पायो चैतन्य।
783 दुर्लभ प्रेमाभक्ति है , पायो गोपीगण।।
प्रेमाभक्ति बहुत कम लोगों को होती है। चैतन्यदेव की तरह अवतारी तथा उच्च अधिकारसंपन्न ईश्वरकोटि के महापुरुषों के लिए ही सम्भव है।
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