" जैसा मन-वैसा जगत "
गोधुली वेला थी ; धुँधला-प्रकाश चारों ओर भरता जा रहा था। एक विस्तृत मैदान था, उसके तीन तरफ से रास्ता गुजरता था। एक तरफ आम का बागीचा था। यह बच्चों के खेलने का मैदान था।
गर्मी के दिन चल रहे थे। संध्या के समय मैदान में घूमने के लिए बहुत से लोग आते रहते हैं। कोई अकेले आते हैं, तो कोई दोस्तों का दल बनाकर इधर-उधर फ़ैल कर बैठ जाते हैं। उस दिन भी बहुत से लोग आये थे, कुछ लोग रास्ते पर भी टहल रहे थे।
मैदान के एक छोर पर दो लड़के खेल रहे थे, वे अपने पिता के साथ घूमने आये थे। खेलते खेलते अचानक एक लड़का ठिठक कर खड़ा हो गया; बगीचे की तरफ ऊँगली दिखाकर बोला, " वह क्या है ? " उसका साथी भी उसी ओर देखने लगा। दोनों ने पूरा ध्यान लगा कर देखा। हाँ, भूत के सिवा और क्या होगा ? आम के पेड़ के नीचे, जहाँ गहरा अंधकार था, वहीँ चुपचाप खड़े होकर दो गोल गोल आँखों को फाड़ कर उन्हीं लोगों की तरफ देख रहा था। और बीच बीच में अपने दाहीने हाथ को हिला-हिला कर बुला भी रहा था।अगर कहीं पकड़ लिया, तो कच्चे चबा जायेगा। अभी कल ही तो अपनी दादी-माँ से उन दोनों ने भूतों की कहानी सुनी थीं।
दोनों चिल्लाकर लगे रोने, और जी-जान से दौड़कर अपने पिता के पास भाग आये। उनलोगों को भय ने कस कर जकड़ लिया था।
रास्ते से गुजरते हुए एक राही की दृष्टि भी आम के बगीचे की ओर आकृष्ट हुई। वह भी चलना भूल कर खड़ा हो गया। आम के बगीचे के भीतर वह कौन खड़ा है ? हाँ,उसी की तरफ तो एक टक से देखे जा रहा है, थोड़ा थोड़ा हाथ की लाठी भी हिलाता है ! हाँ, वह बिल्कुल सही देख रहा है। यह तो भाग्य ठीक था, कि थोड़ी दूर से ही नजर पड़ गयी; नहीं तो बस आज मामला साफ ही था। जो पुलिस वाला उसका पीछा कर रहा था, वही तो उसको पकड़ने के लिये वहाँ छुप कर खड़ा है ! यदि और थोड़ा भी आगे वह चला जाता, तो बस पकड़ा ही गया था। साथ ही साथ पीछे घूम गया, और कस कर दौड़ने लगा। वह एक चोर था !
आम के बगीचे में एक माली रहता है। जब तक पेड़ के सारे फल तोड़ नहीं लिए जाते, उतने दिनों तक वह हर समय चौकस दृष्टि रखता है। उसने देखा कि एक व्यक्ति धीरे धीरे बगीचे की तरफ चला आ रहा है। वह माली उसके पास जाकर पूछा किधर जाते हो, तो उस व्यक्ति ने एक ओर ऊँगली दिखा कर बोला, " भाई, मैं किसी व्यक्ति से बहुत प्यार करता हूँ, रस्ते से जाते समय देखा कि वह, वहाँ उस आम के पेड़ निचे खड़ा है, और हाथ के इशारे से मुझको बुला रहा है। मैं उसी से मिलने जा रहा हूँ, मैं आम चुराने नहीं आया हूँ। " उसकी बातों को सुनकर माली लौट गया, और वह व्यक्ति जिस तरफ जा रहा था, उसी ओर जाने लगा।
उधर एक पुलिस की दृष्टि भी उसी जगह आकृष्ट हो गयी। अंधकार में जंगल के भीतर इस समय और कौन छुप सकता है ? निश्चय ही वह वही चोर है, जिसको पकड़ने के लिये वह घूमता फिर रहा है। यह विचार कर पुलिस भी उसी ओर चल पड़ा।
आम के बगीचे के भीतर से जो व्यक्ति आ रहा था, वह और पुलिस लगभग एक ही साथ उस स्थान पर पहुंचे। पहुंचकर देखते हैं, कि एक सूखे हुए पेड़ का कुन्दा है, जो धुँधले प्रकाश में ठीक एक मनुष्य के जैसा प्रतीत हो रहा था। और उसके एक किनारे से एक सुखी हुई डाली लटक रही थी। हवा चलने से वही बीच बीच में झूल रही थी। जिसको दूर से देखने पर लगता था, जैसे आदमी हाथ हिला रहा है।
उसी कुन्दे को लड़कों ने भूत समझ लिया था, चोर ने पुलिस समझा, पुलिस ने चोर समझा, और एक अन्य व्यक्ति ने उसको ही अपने प्रेम का पात्र समझ लिया !
उसी प्रकार हमलोग भी सत्य-वस्तु को, ' सत्य-वस्तु ' (सच्चिदानन्द या शुद्ध चैतन्य) के रूप में न देख कर, भ्रम (देश-काल-निमीत्त) के कारण अन्य दृष्टि (नाम-रूप की दृष्टि) से देखते हैं। एक ही सत्य-वस्तु को हमलोगों में से अलग अलग व्यक्ति अलग अलग रूपों में देखते हैं।
( एक ही ' स्त्री ' को कोई माँ, कोई बहन, कोई भाभी, कोई दादी, कोई पत्नी कहता है ) जिसका जैसा भाव रहता है, जिसके मन की अवस्था जैसी होती है, वह जगत को उसी रूप में देखता है। लाल रंग का चश्मा लगाने से सबकुछ लाल दीखता है, हरे चश्मे से सब हरा हरा दीखता है।
किन्तु जिनका चित्त शुद्ध हो चूका होता है,फिर वे गलत देख ही नहीं पाते हैं। वे माया-मुक्त हैं ! केवल वैसे व्यक्ति ही देख पाते हैं, कि एक ही सत्य-वस्तु जगत में सभी कुछ के भीतर-बाहर ओत-प्रोत हैं; और ' वस्तु ' का अर्थ शुद्ध शाश्वत चैतन्य के सिवा और कुछ नहीं है ।
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " एक सिंहनी जिसका प्रसव-काल निकट था, एक बार अपने शिकार खोज में बाहर निकली। उसने दूर एक भेडों के झुण्ड को चरते देख, उनपर आक्रमण करने के लिये ज्यों ही छलाँग मारी, त्यों ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंह-शावक ने जन्म लिया। भेड़ें उस सिंह-शावक की देख-भाल करने लगीं और वह भेड़ों के बच्चों के साथ साथ बड़ा होने लगा, भेड़ों की भाँति घास-पात खाकर रहने लगा और भेड़ों की ही भाँति, ' में-में ' करने लगा। और यद्दपि वह कुछ समय बाद एक शक्तिशाली, पूर्ण विकसित सिंह हो गया, फिर भी वह अपने को भेड़ ही समझता था।
इसी प्रकार दिन बीतते गये कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिये उधर आ निकला। पर उसे यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेडों के बीच एक सिंह भी है और वह भेड़ों की ही भाँति डरकर भगा जा रहा है। तब सिंह उसकी ओर यह समझाने के लिये बढ़ा की तू सिंह है, भेड़ नहीं। और ज्यों ही वह आगे बढ़ा, त्यों ही भेड़ों का झुण्ड और भी भागा और उसके साथ वह ' भेड़-सिंह ' भी।
जो हो, उसने उस भेड़-सिंह को उसके अपने यथार्थ स्वरुप को समझा देने का संकल्प नहीं छोड़ा। वह देखने लगा कि वह भेद-सिंह कहाँ रहता है, क्या करता है। एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह छलाँग मारकर उसके पास जा पहुँचा और बोला, " अरे, तू भेड़ों के साथ रहकर अपना स्वाभाव कैसे भूल गया ? तू भेड़ नहीं है, तू तो सिंह है। "
भेड़-सिंह बोल उठा, " क्या कह रहे हो ? मैं तो भेड़ हूँ, सिंह कैसे हो सकता हूँ ? उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भाँति मिमियाने लगा। तब सिंह उसे उठाकर एक शान्त-सरोवर (चित्त-नदी) के किनारे ले गया और बोला, " यह देख, अपना प्रतिबिम्ब, और यह देख, मेरा प्रतिबिम्ब। " और तब वह उन दोनों परछाइयों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा। तब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा माँस भी लाकर खिला दिया, घास-पात की जगह मांस के स्वाद को चखते ही उसे बोध हो गया।
तब क्षण भर में ही वह जान गया कि ' सचमुच, मैं तो सिंह ही हूँ ! ' तब वह सिंह गर्जना करने लगा और उसका भेड़ों का सा मिमियाना न जाने कहाँ चला गया !
इसी प्रकार तुम सब सिंह हो- तुम आत्मा हो, अनन्त और पूर्ण हो। विश्व की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है।
' हे सखे, तुम क्यों रोते हो ? जन्म-मरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसे पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है।' इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा।
हमलोग संसार में पाप-ताप क्यों देखते हैं ? किसी मार्ग में एक ठूँठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा कि वह कोई पहरेदार है। अपने प्रेमिका की बाट जोहने वाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा, तो भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा।
इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्दपि उसे भिन्न भिन्न में देखा, तथापि वह एक ठूँठ के अतिरिक्त और कुछ भी न था। हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं। " (2/18-19)
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " एक सिंहनी जिसका प्रसव-काल निकट था, एक बार अपने शिकार खोज में बाहर निकली। उसने दूर एक भेडों के झुण्ड को चरते देख, उनपर आक्रमण करने के लिये ज्यों ही छलाँग मारी, त्यों ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंह-शावक ने जन्म लिया। भेड़ें उस सिंह-शावक की देख-भाल करने लगीं और वह भेड़ों के बच्चों के साथ साथ बड़ा होने लगा, भेड़ों की भाँति घास-पात खाकर रहने लगा और भेड़ों की ही भाँति, ' में-में ' करने लगा। और यद्दपि वह कुछ समय बाद एक शक्तिशाली, पूर्ण विकसित सिंह हो गया, फिर भी वह अपने को भेड़ ही समझता था।
इसी प्रकार दिन बीतते गये कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिये उधर आ निकला। पर उसे यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेडों के बीच एक सिंह भी है और वह भेड़ों की ही भाँति डरकर भगा जा रहा है। तब सिंह उसकी ओर यह समझाने के लिये बढ़ा की तू सिंह है, भेड़ नहीं। और ज्यों ही वह आगे बढ़ा, त्यों ही भेड़ों का झुण्ड और भी भागा और उसके साथ वह ' भेड़-सिंह ' भी।
जो हो, उसने उस भेड़-सिंह को उसके अपने यथार्थ स्वरुप को समझा देने का संकल्प नहीं छोड़ा। वह देखने लगा कि वह भेद-सिंह कहाँ रहता है, क्या करता है। एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह छलाँग मारकर उसके पास जा पहुँचा और बोला, " अरे, तू भेड़ों के साथ रहकर अपना स्वाभाव कैसे भूल गया ? तू भेड़ नहीं है, तू तो सिंह है। "
भेड़-सिंह बोल उठा, " क्या कह रहे हो ? मैं तो भेड़ हूँ, सिंह कैसे हो सकता हूँ ? उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भाँति मिमियाने लगा। तब सिंह उसे उठाकर एक शान्त-सरोवर (चित्त-नदी) के किनारे ले गया और बोला, " यह देख, अपना प्रतिबिम्ब, और यह देख, मेरा प्रतिबिम्ब। " और तब वह उन दोनों परछाइयों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा। तब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा माँस भी लाकर खिला दिया, घास-पात की जगह मांस के स्वाद को चखते ही उसे बोध हो गया।
तब क्षण भर में ही वह जान गया कि ' सचमुच, मैं तो सिंह ही हूँ ! ' तब वह सिंह गर्जना करने लगा और उसका भेड़ों का सा मिमियाना न जाने कहाँ चला गया !
इसी प्रकार तुम सब सिंह हो- तुम आत्मा हो, अनन्त और पूर्ण हो। विश्व की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है।
' हे सखे, तुम क्यों रोते हो ? जन्म-मरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसे पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है।' इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा।
हमलोग संसार में पाप-ताप क्यों देखते हैं ? किसी मार्ग में एक ठूँठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा कि वह कोई पहरेदार है। अपने प्रेमिका की बाट जोहने वाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा, तो भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा।
इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्दपि उसे भिन्न भिन्न में देखा, तथापि वह एक ठूँठ के अतिरिक्त और कुछ भी न था। हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं। " (2/18-19)
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