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शुक्रवार, 22 जून 2012

हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं। [18]कहानियों में वेदान्त

" जैसा मन-वैसा जगत "
गोधुली वेला थी ; धुँधला-प्रकाश चारों ओर भरता जा रहा था। एक विस्तृत मैदान था, उसके तीन तरफ से रास्ता गुजरता था। एक तरफ आम का बागीचा था। यह बच्चों के खेलने का मैदान था। 
गर्मी के दिन चल रहे थे। संध्या के समय मैदान में घूमने के लिए बहुत से लोग आते रहते हैं। कोई अकेले आते हैं, तो कोई दोस्तों का दल बनाकर इधर-उधर फ़ैल कर बैठ जाते हैं। उस दिन भी बहुत से लोग आये थे, कुछ लोग रास्ते पर भी टहल रहे थे। 
मैदान के एक छोर पर दो लड़के खेल रहे थे, वे अपने पिता के साथ घूमने आये थे। खेलते खेलते अचानक एक लड़का ठिठक कर खड़ा हो गया; बगीचे की तरफ ऊँगली दिखाकर बोला, " वह क्या है ? " उसका साथी भी उसी ओर देखने लगा। दोनों ने पूरा ध्यान लगा कर देखा। हाँ, भूत के सिवा और क्या होगा ? आम के पेड़ के नीचे, जहाँ गहरा अंधकार था, वहीँ चुपचाप खड़े होकर दो गोल गोल आँखों को फाड़ कर उन्हीं लोगों की तरफ देख रहा था। और बीच बीच में अपने दाहीने हाथ को हिला-हिला कर बुला भी रहा था।अगर कहीं पकड़ लिया, तो कच्चे चबा जायेगा। अभी कल ही तो अपनी दादी-माँ से उन दोनों ने भूतों की कहानी सुनी थीं। 
दोनों चिल्लाकर लगे रोने, और जी-जान से दौड़कर अपने पिता के पास भाग आये। उनलोगों को भय ने कस कर जकड़ लिया था।
रास्ते से गुजरते हुए एक राही की दृष्टि भी आम के बगीचे की ओर आकृष्ट हुई। वह भी चलना भूल कर खड़ा हो गया। आम के बगीचे के भीतर वह कौन खड़ा है ? हाँ,उसी की तरफ तो एक टक से देखे जा रहा है, थोड़ा थोड़ा हाथ की लाठी भी हिलाता है ! हाँ, वह बिल्कुल सही देख रहा है। यह तो भाग्य ठीक था, कि थोड़ी दूर से ही नजर पड़ गयी; नहीं तो बस आज मामला साफ ही था। जो पुलिस वाला उसका पीछा कर रहा था, वही तो उसको पकड़ने के लिये वहाँ छुप कर खड़ा है ! यदि और थोड़ा भी आगे वह चला जाता, तो बस पकड़ा ही गया था। साथ ही साथ पीछे घूम गया, और कस कर दौड़ने लगा। वह एक चोर था !
आम के बगीचे में एक माली रहता है। जब तक पेड़ के सारे फल तोड़ नहीं लिए जाते, उतने दिनों तक वह हर समय चौकस दृष्टि रखता है। उसने देखा कि एक व्यक्ति धीरे धीरे बगीचे की तरफ चला आ रहा है। वह माली उसके पास जाकर पूछा किधर जाते हो, तो उस व्यक्ति ने एक ओर ऊँगली दिखा कर बोला, " भाई, मैं किसी व्यक्ति से बहुत प्यार करता हूँ, रस्ते से जाते समय देखा कि वह, वहाँ उस आम के पेड़ निचे खड़ा है, और हाथ के इशारे से मुझको बुला रहा है। मैं उसी से मिलने जा रहा हूँ, मैं आम चुराने नहीं आया हूँ। " उसकी बातों को सुनकर माली लौट गया, और वह व्यक्ति जिस तरफ जा रहा था, उसी ओर जाने लगा।
उधर एक पुलिस की दृष्टि भी उसी जगह आकृष्ट हो गयी। अंधकार में जंगल के भीतर इस समय और कौन छुप सकता है ? निश्चय ही वह वही चोर है, जिसको पकड़ने के लिये वह घूमता फिर रहा है। यह विचार कर पुलिस भी उसी ओर चल पड़ा।
आम के बगीचे के भीतर से जो व्यक्ति आ रहा था, वह और पुलिस लगभग एक ही साथ उस स्थान पर पहुंचे। पहुंचकर देखते हैं, कि एक सूखे हुए पेड़ का कुन्दा है, जो धुँधले प्रकाश में ठीक एक मनुष्य के जैसा प्रतीत हो रहा था। और उसके एक किनारे से एक सुखी हुई डाली लटक रही थी। हवा चलने से वही बीच बीच में झूल रही थी। जिसको दूर से देखने पर लगता था, जैसे आदमी हाथ हिला रहा है।
 
उसी कुन्दे को लड़कों ने भूत समझ लिया था, चोर ने पुलिस समझा, पुलिस ने चोर समझा, और एक अन्य व्यक्ति ने उसको ही अपने प्रेम का पात्र समझ लिया !
उसी प्रकार हमलोग भी सत्य-वस्तु को, ' सत्य-वस्तु ' (सच्चिदानन्द या शुद्ध चैतन्य) के रूप में न देख कर, भ्रम (देश-काल-निमीत्त) के कारण अन्य दृष्टि (नाम-रूप की दृष्टि) से देखते हैं। एक ही सत्य-वस्तु को हमलोगों में से अलग अलग व्यक्ति अलग अलग रूपों में देखते हैं।
 
 ( एक ही ' स्त्री ' को कोई माँ, कोई बहन, कोई भाभी, कोई दादी, कोई पत्नी कहता है ) जिसका जैसा भाव रहता है, जिसके मन की अवस्था जैसी होती है, वह जगत को उसी रूप में देखता है। लाल रंग का चश्मा लगाने से सबकुछ लाल दीखता है, हरे चश्मे से सब हरा हरा दीखता है।
किन्तु जिनका चित्त शुद्ध हो चूका होता है,फिर वे गलत देख ही नहीं पाते हैं। वे माया-मुक्त हैं ! केवल वैसे व्यक्ति ही देख पाते हैं, कि एक ही सत्य-वस्तु जगत में सभी कुछ के भीतर-बाहर ओत-प्रोत हैं; और  ' वस्तु ' का अर्थ शुद्ध शाश्वत चैतन्य के सिवा और कुछ नहीं है ।
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " एक सिंहनी जिसका प्रसव-काल निकट था, एक बार अपने शिकार खोज में बाहर निकली। उसने दूर एक भेडों के झुण्ड को चरते देख, उनपर आक्रमण करने के लिये ज्यों ही छलाँग मारी, त्यों ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंह-शावक ने जन्म लिया। भेड़ें उस सिंह-शावक की देख-भाल करने लगीं और वह भेड़ों के बच्चों के साथ साथ बड़ा होने लगा, भेड़ों की भाँति घास-पात खाकर रहने लगा और भेड़ों की ही भाँति, ' में-में ' करने लगा। और यद्दपि वह कुछ समय बाद एक शक्तिशाली, पूर्ण विकसित सिंह हो गया, फिर भी वह अपने को भेड़ ही समझता था।
इसी प्रकार दिन बीतते गये कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिये उधर आ निकला। पर उसे यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेडों के बीच एक सिंह भी है और वह भेड़ों की ही भाँति डरकर भगा जा रहा है। तब सिंह उसकी ओर यह समझाने के लिये बढ़ा की तू सिंह है, भेड़ नहीं। और ज्यों ही वह आगे बढ़ा, त्यों ही भेड़ों का झुण्ड और भी भागा और उसके साथ वह ' भेड़-सिंह ' भी।
जो हो, उसने उस भेड़-सिंह को उसके अपने यथार्थ स्वरुप को समझा देने का संकल्प नहीं छोड़ा। वह देखने लगा कि वह भेद-सिंह कहाँ रहता है, क्या करता है। एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह छलाँग मारकर उसके पास जा पहुँचा और बोला, " अरे, तू भेड़ों के साथ रहकर अपना स्वाभाव कैसे भूल गया ? तू भेड़ नहीं है, तू तो सिंह है। "
भेड़-सिंह बोल उठा, " क्या कह रहे हो ? मैं तो भेड़ हूँ, सिंह कैसे हो सकता हूँ ? उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भाँति मिमियाने लगा। तब सिंह उसे उठाकर एक शान्त-सरोवर (चित्त-नदी) के किनारे ले गया और बोला, " यह देख, अपना प्रतिबिम्ब, और यह देख, मेरा प्रतिबिम्ब। " और तब वह उन दोनों परछाइयों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा।  तब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा माँस भी लाकर खिला दिया, घास-पात की जगह मांस के स्वाद को चखते ही उसे बोध हो गया।
तब क्षण भर में ही वह जान गया कि ' सचमुच, मैं तो सिंह ही हूँ ! ' तब वह सिंह गर्जना करने लगा और उसका भेड़ों का सा मिमियाना न जाने कहाँ चला गया ! 
इसी प्रकार तुम सब सिंह हो- तुम आत्मा हो, अनन्त और पूर्ण हो। विश्व की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है। 
 ' हे सखे, तुम क्यों रोते हो ? जन्म-मरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसे पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है।' इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा। 
हमलोग संसार में पाप-ताप क्यों देखते हैं ? किसी मार्ग में एक ठूँठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा कि वह कोई पहरेदार है। अपने प्रेमिका की बाट जोहने वाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा, तो भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा।
इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्दपि उसे भिन्न भिन्न  में देखा, तथापि वह एक ठूँठ के अतिरिक्त और कुछ भी न था। हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं। " (2/18-19)  

गुरुवार, 21 जून 2012

' माया के आवरण में ब्रह्म ही छिपा हुआ है ' /[16] कहानियों में वेदान्त

' बहुरुपिया- हरिया ' 
ओह, बच्चों का कितना बड़ा झुण्ड चला आ रहा है ! झुण्ड के झुण्ड बांध कर लड़के सब ' हरिया ' नामक बहुरुपिया के पीछे पीछे भाग रहे थे। अभी जाड़े के दिन चल रहे हैं। खेतों से सारे धान कट कर घर में आ चुके हैं। इतने दिनों के परिश्रम को सफल होते देखकर सभी किसानों का दिल आनन्द से झूम उठा है। ठण्ढे के मौसम में, वैसे भी खाने-पीने की वस्तुओं की भरमार हो जाती है।
खजूर का रस, केतारी का रस, ईख का गुड़, फूलगोभी, टमाटर आदि खाने-पीने की, बहुत सी अच्छी अच्छी चीजें मिलनी शुरू हो जाती हैं। गाँव के हर चौक-चौराहों पर चौप-पकौड़ों आदि की दुकाने लग जाती हैं। बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है। रविवार के दिन का तो कहना ही क्या, उस दिन स्कूल में भी छूट्टी हो जाती है। खेल-कूद, हो-हंगामा मचाते हुए वे लोग गाँव की गलियों को गुंजायमान बना देते हैं।
उन्हीं दिनों उस गाँव में हरिया नामक एक बहुरुपिया भी आता था। वह तरह तरह के वेश बना कर बच्चों का मनोरंजन करता था। किसी दिन सन्यासी बनता, किसी दिन भिखारी, या किसी दिन राजा का वेश बना लेता था। इस प्रकार विविध रूप बना बना कर, गाँव की हर गलि में घूमता हुआ, वह घर-घर जाकर अपना रूप दिखाता था। घर के मालिक लोग खुश होकर कुछ पैसा और अनाज आदि दे देते थे।
 इन दिनों हरिया को अच्छा रोजगार मिल जाता था। और सारे गाँव वाले भी आनन्द पाते थे। किन्तु उसके साथ सबसे अधिक आनन्द बच्चों आता था। वे बहुरुपिया के पीछे भागते, धूम मचाते जी खोल कर आनन्द से हँसते हुए गलियों को गुलजार कर देते थे।
उस दिन शाम होने को था। एक खेल के मैदान में बहुत से लड़के एकत्र हुए थे। खेल खत्म हो जाने के बाद मैदान के बीच में खड़े होकर सभी अपना अपना दल बना रहे थे। तुरन्त अँधेरा छा जायेगा, अब जल्दी जल्दी घर लौट जाना होगा। वापस जाने के पहले थोड़ा बातचीत करना चाहते थे।
अचानक बिपिन चिल्ला उठा, ' बाघ ' ! वह अपने दाहिने हाथ को फैलाकर झाड़ी की ओर ऊँगली दिखाते हुए, कुछ दिखाना चाह रहा था। सबों की दृष्टि उस ओर गयी, अरे सचमुच, शरीर पर धारी धारी जैसा बना हुआ था, मोटे मोटे पन्जे थे, गोल गोल आँखें थीं, और एक बड़ी सी पूँछ थी। वह झाड़ी से निकल कर उन्हीं लोगों की ओर देख रहा था।   
बाघ को देखकर, डर से बच्चों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। अब क्या होगा, सब खत्म हो जायेगा ? वे करें तो क्या ? दौड़ कर भाग जाने का उपाय भी नहीं था। भागने से भी कोई लाभ नहीं था। कुछ लड़के तो देखते ही भाग खड़े हुए थे। कुछ वैसा भी नहीं कर सके, बाघ को देखते ही, उनके हाथ-पाँव फूल गये थे। वे सोचने लगे, अब तो एक भारी दुर्घटना होकर रहेगी। बाघ उसी पर झपट्टा मारेगा जो पीछे के दल में बच जायेंगे, अब हमही लोगों में से किसी एक को  निसाना  बना कर कुछ ही क्षणों में हमला कर देगा। और किसी के पीठ पर, यम के जैसा कूद कर चढ़ जायेगा। इससे अधिक तो सोचना भी मुश्किल था। मृत्यु को निश्चित जान कर एक-दो लड़के तो रोने भी लगे थे।
उसमें से एक लड़के को थोड़ा भी भय नहीं हुआ था। वह न तो भागने की कोशिश किया, न उसके हाथ-पाँव फूले थे, वह एक टक से बाघ के ओर ही देखे जा रहा था। अचानक वह लड़का हँस पड़ा, बोला- " अरे यह बाघ नहीं है, यह तो हमलोगों का ' हरिया ' है ! आज यह बाघ का मुखौटा लगा कर, और बघ-छल्ला ओढ़ कर हमलोगों को डराने के लिए आया है ! चलो, चलो उसके पीछे पीछे चलने में बड़ा मजा आयेगा।"
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 यह सुनने के बाद बाकी लडकों ने भी बाघ को दुबारा अच्छी तरह से देखा। ठीक तो, सचमुच यह बाघ नहीं है।
हरिया ने अपने पूरे शरीर को बाघ के छाल से ढँक लिया था, किन्तु बाघ के आगे वाले पैरों के पास ही हरिया का हाथ दिखाई दे रहा था, यह रहे उसके पैर ! साथ ही साथ उन लोगो का सारा भय समाप्त हो गया। अब कौन भागने वाला था, लडकों का पूरा झुण्ड उसी के पीछे लग गया।
[ " हरि जब सिंह का मुखौटा लगा लेता है,तो सचमुच बड़ा डरावना दिखने लगता है।जब वह अपनी खेलती हुई छोटी बहन के पास जाकर सिंह की-सी आवाज करते हुए उसे डराने लगता है तो वह बच्ची चौंककर मारे डर के चीखती हुई भागने लगती है। लेकिन हरि जब वह मुखौटा हटा लेता है तो तुरन्त वह घबड़ाई हुई बच्ची अपने प्यारे भाई को पहचानकर उसकी ओर चिल्लाती हुई दौड़ पड़ती है-' अरे,ये तो भैया हैं !' 
मनुष्यों का भी यही हाल है। माया के आवरण में ब्रह्म ही छिपा हुआ है, फिर भी माया के प्रभाव से लोग मुग्ध और भयभीत होकर कितनी ही चीजें करने को विवश हो जाते हैं। लेकिन जब ब्रह्म के स्वरुप पर से यह माया का पर्दा हट जाता है तब वह भयंकर, कठोर शासक के रूप में प्रतीत नहीं होता- तब तो अपनी ही प्रियतम अन्तरात्मा के रूप में उसका अनुभव होता है। " ॐ तत सत]
हरिया बहरूपिये ने सोचा, अब इन लडकों को डराया नहीं जा सकता, इन लोगों ने पहचान लिया है, अच्छा होगा यहाँ से निकल कर, किसी नये जगह में डराने का खेल दिखाया जाय। क्योंकि दूसरे स्थान में जाने से, कोई उसको ' हरि ' या हरिया के रूप में पहचानेगा ही नहीं, और बाघ समझ कर डर जायेगा।
हमलोग जैसे ही  भ्रम ( माया - मिथ्याबोध) को भ्रम (माया) के रूप में जान जाते हैं, उस समय भी ठीक वैसा ही होता है। हमलोगों के हृदय में उसी क्षण सत्य ज्ञान उद्भासित हो उठता है, और फिर हमलोग सभी प्रकार के(मृत्यु आदि के ) भय से सदा के लिए मुक्ति पा जाते हैं।

' आचार्य शंकर और माया ' /कहानियों में वेदान्त [14]

' आचार्य शंकर और माया ' 
आचार्य शंकर ब्रह्मज्ञानी थे। केवल आठ वर्ष की आयु में ही समस्त शात्रों का अध्यन करके, सन्यास ग्रहण करने के लिए घर छोड़ दिया था।   यह बात जगत प्रसिद्ध है, कि उसके बाद तीन वर्ष तक साधना करने बाद उनको ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया था।
इस जगत में शुद्ध चैतन्य ही एकमात्र सत्य वस्तु है। एक शक्ति के प्रभाव में आकर ही हमलोग उस शुद्ध चैतन्य को विभिन्न रूपों में देखते हैं और उसी को जगत समझते हैं। जैसे जब हमलोग स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय सब कुछ सत्य ही प्रतीत होता है। नींद टूट जाने के बाद ही यह समझ में आता है, कि जो कुछ देख रहा था, वह सत्य नहीं था। जिस शक्ति के प्रभाव में वह सब देख रहा था, वह शक्ति या उसका प्रभाव उस समय कुछ भी नहीं रहता। इसीलिये जाग्रत अवस्था में वह शक्ति भी मिथ्या प्रतीत होती है।
आचार्य शंकर ने वेदान्त की बातों को इसी रूप में प्रचार किया है। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य वस्तु है, किन्तु ज्ञान प्राप्त होने के पहले मायाशक्ति के प्रभाव में आकर उसी (ब्रह्म) को जगत के रूप में देखते हैं। जिस क्षण यह भ्रम टूट जाता है, तब दिखाई देता है, कि न तो जगत का अस्तित्व है, न माया का। एकमात्र शुद्ध शश्वत चैतन्य के सिवा और कुछ भी नहीं है। इसीलिये माया की सत्यता को ' सर्वकालीन सत्य ' के रूप में स्वीकार करने की कोई बाध्यता नहीं है।  
किन्तु श्रीरामकृष्णदेव आचार्य शंकर की तरह इस सत्य की उपलब्धी करने के बाद, माया-शक्ति को इस दृष्टि से नहीं देखते थे। वे कहते थे, ' जिस प्रकार ब्रह्म सत्य है, उसी प्रकार उसकी शक्ति भी सत्य है।'
वे कहते थे, " एक अवस्था में ब्रह्म और उनकी शक्ति मिल जाते और एक बन कर रहते हैं, उस समय शक्ति का आविर्भाव नहीं रहता; एक दूसरी अवस्था में शक्ति का आविर्भाव रहता है। "
कहा करते, " साँप जब कुण्डली मार कर सोया रहता है, उस समय भी साँप है, और जिस समय वह चलता-फिरता रहता है, तब भी साँप ही होता है। साँप जिस समय चुपचाप पड़ा रहता है, उस समय हमलोग यह नहीं कह सकते कि तब उसमें चलने की शक्ति नहीं होती।"
वे कहते थे, " ब्रह्म और उनकी शक्ति अभिन्न हैं। ठीक वैसे ही जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति, या मणि और उसकी ज्योति अभिन्न हैं।" मणि का स्मरण होते ही उसकी ज्योति की बात का भी स्मरण हो आता है। ज्योति के बिना हमलोग मणि की कल्पना भी नहीं कर सकते। उसी प्रकार मणि के बिना उसकी ज्योति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वे कहते थे, " जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं; वेदों में जिनको ब्रह्म कहा गया है, तंत्रों में उन्हीं को काली कहा गया है, फिर पुराणों में उन्हीं को कृष्ण कहा गया है। "
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " ज्ञान प्राप्त होने के पहले जगत को मिथ्या समझकर चलना पड़ता है, ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद वापस लौट आने पर यह जगत भी सत्य जैसा प्रतीत होता है। किन्तु साधारण अवस्था में (ज्ञान प्राप्त होने के पहले) हमलोग जगत को जिस दृष्टि से देखते हैं, ज्ञान प्राप्त होने के बाद इसी जगत को हमलोग दूसरी दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि ) से देखते हैं; तब वह पहले जैसा, उस प्रकार का (प्रलोभनीय) नहीं दिखता, सबकुछ चैतन्यमय प्रतीत होता है।"
 कहते थे, " छत पर चढ़ते समय, " यह छत नहीं है " कहते हुए एक के बाद दूसरी सीढ़ीयों को पीछे छोड़ते हुए उपर चढ़ना पड़ता है।  छत के उपर पहुँच जाने के बाद, यह दिखाई देता है, कि जिन वस्तुओं से छत बना है, उसी ईंट चूना-सुर्खी के द्वारा ही सीढ़ियाँ भी बनी हैं। ब्रह्मज्ञान होने से पहले ' नेति नेति ' विचार करना होता है। अर्थात यह पँच भौतिक शरीर-मन आदि ब्रह्म नहीं हैं, (क्योंकि ये अविनाशी नहीं हैं ), इसमें जो जीव  है वह भी ब्रह्म नहीं है, जगत ब्रह्म नहीं है-इस प्रकार से नित्य-अनित्य का विचार करते करते आगे बढ़ते जाना पड़ता है। ज्ञान होने के बाद स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है कि वे ही सब कुछ बने हैं।"
इस ' बोध ' में जब कोई ब्रह्मज्ञ पुरुष स्थित हो जाता है, तब इस जगत के लिये उसके प्राण रो पड़ते हैं, वे सबों को अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रेम करने लगते हैं। इसी बोध में स्थित हो जाने के बाद ही दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्णदेव अपने कमरे के छत पर चढ़कर, व्याकुल होकर रोते हुए पुकारते थे, " अरे, तुम सब युवक लोग, कौन-कौन कहाँ कहाँ पर हो? जल्दी से जल्दी मेरे पास आ जाओ रे !"
इसी अनुभूति के उपर खड़े होकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " यदि, मेरे लाख बार नरक में जाने से किसी एक व्यक्ति की भी मुक्ति होती हो, तो मैं उसके लिये प्रस्तुत हूँ। " लोकोक्ति है,कि इस अनुभूति को प्राप्त करने के बाद, आचार्य शंकर भी जनसाधारण को ज्ञान प्राप्ति में सहायता करने के उद्देश्य से वेदान्त के उपर भाष्य लिखने में प्रवृत्त हुए थे।
जिस समय की घटना का वर्णन हो रहा है, उस समय आचार्य शंकर को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो चुका था। और तब  वे जगत को अवास्तविक या मिथ्या के रूप में देखते थे। तब वे शक्ति को सत्य नहीं मानते थे, उनको भी स्वप्न में देखी गयी कोई कल्पना मानते थे। इसी समय एकदिन, काशी में वे गंगा-स्नान करने के बाद लौट रहे थे, घाट की सीढ़ीयों से जब वे उपर चढ़ रहे थे, तो देखते हैं- घाट की सीढ़ी पर ही एक स्त्री बैठी हुई है, सामने रास्ते के आरपार उसके पति का मृत शरीर लिटाया हुआ है। देख कर उस स्त्री से बोले, " रास्ते पर से मृत शरीर को किनारे हटा लो ।"
स्त्री बोली, " बाबा, उसको ही थोड़ा खिसक जाने के लिये क्यों नहीं कहते ? "
उस स्त्री के पागलपन को देखकर शंकर बोले, " माँ, उसके भीतर खिसक जाने की शक्ति कहाँ है? "
स्त्री ने पूछा, " क्यों बाबा, क्या शक्ति के बिना थोड़ा हिलना-डुलना भी संभव नहीं है ? "
शंकर थोडा चिढ़ कर बोले, " आप कैसी अव्यवहारिक और असम्भव बातें कह रही हैं ! कोई यदि उस शव को खिसका नहीं देगा तो वह वहां से हिलेगा कैसे ? "
स्त्री ने कहा, " असम्भव क्यों कहते हो, बाबा ! आदि-अन्त हीन यह प्रकृति यदि चेतना-शक्ति के नियंत्रण के बिना स्वयं ही क्रियाशील रह सकती है, तो फिर यह शव भी अपने आप क्यों नहीं खिसक सकता है? "
यह सुनकर शंकर तो भौंचक्के हो गये। और उसी समय उनको यह अनुभूति हुई, कि निर्विकल्प समाधि में पहुंचकर उन्हें जिस ' शुद्ध-शाश्वत-चैतन्य ' की उपलब्धी हुई थी, वे ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड के रूप में स्थित हैं, वे ही शक्ति हैं, वे ही चिन्मयी जगत-जननी हैं, जगत की नियंत्रि हैं।
शव और स्त्री अदृश्य हो गये। स्वयं माँ अन्नपूर्णा ही शंकर के भीतर इस अनुभूति को जाग्रत करने के उद्देश्य से स्त्री बन कर आई थीं, और बाबा विश्वनाथ शिव- शव बनकर आये थे ! 
श्रीरामकृष्ण के सन्यास-गुरु तोता पूरीजी के जीवन में भी इसी प्रकार की घटना घटित हुई थी। वे भी पहले-पहल शक्ति को नहीं मानते थे। उनके सामने बैठ कर जब श्रीरामकृष्ण ताली बजा बजा कर माँ माँ कहते हुये नाम संकीर्तन करते तो, तोता पूरीजी व्यंग से कहते थे, " तन्दूरी रोटी क्यों ठोक रहा है ? " किन्तु श्रीरामकृष्णदेव के संसर्ग में कई वर्षों तक रहने के बाद, उनको भी एकबार माँ के शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति हुई थी, जिसके बाद उनकी धारणा भी परिवर्तित हो गयी थी।
माया का प्रभाव कटने के साथ ही साथ इस प्रकार उसी क्षण हमलोगों को अपने सच्चे स्वरूप की अनुभूति हो जाती है, या यूँ कहें कि सत्यज्ञान के उद्भासित होने के साथ ही साथ कैसे माया का प्रभाव हट जाता है, उसे समझने में सुविधा के लिये कुछ कहानियों को आपने सुना।
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, ' हजार वर्षों से बन्द अँधेरे कमरे में दीपक जलाने के साथ ही साथ, इतने दिनों का जमा हुआ घना अंधकार एक ही बार में चला जाता है, धीरे धीरे करके नहीं जाता। "