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क्या आपने भगवान को देखा है ?
उस समय तक नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द ) सन्यासी नहीं बने थे, एक कॉलेज स्टुडेंट थे। उनके पिता एक नामी वकील थे, और बड़े धनी व्यक्ति थे। कोलकाता में उनका बंगला था, वहीं रहते थे।
बचपन से ही नरेन्द्रनाथ में धर्म के प्रति अत्यन्त अनुराग था। बीच रात्री में उठ कर ध्यान करते थे। बहुत तेजस्वी और मेधावी तरुण थे। लोग उनके बारे में क्या कहते हैं, और क्या सोचते हैं, उससे बिल्कुल बेफिक्र रहते थे। आजकल के बिलकुल बिन्दास लडकों जैसे ही एक नवयुवक थे।
वे स्वयं जिस काम को अच्छा समझते, पूरी एकाग्रता के साथ उसी कार्य को करते रहते थे। इस जगत के पीछे का चरम सत्य क्या है, उसे जानने के लिए वे उसी उम्र से कटिबद्ध थे। कॉलेज में पढाये जाने वाले विषयों के आलावा, भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन का तुलनात्मक अध्यन भी कर चुके थे। शरीरविज्ञान के उपर भी कई पुस्तकों को पढ़ चुके थे। वे एक न्याय-परायण और तर्कशील युवा थे। ब्रह्मसमाज में जाया करते थे। किन्तु जिस किसी के मुख से धर्म की कोई बात सुन कर तुरन्त उस पर विश्वास नहीं कर लेते थे। स्वयं निरिक्षण-परिक्षण करके, जाँच-परख कर, सोचने-विचारने के बाद, आवश्यक हुआ तो, स्वयं किसी सत्य की तह तक पहुँचने के बाद उसको स्वीकार करते थे।
ऐसे तेजस्वी लड़के से कोई बात मनवा लेना बहुत कठिन होता है। उस समय के महर्षि देवेन्द्रनाथ सरीखे कई विख्यात धार्मिक नेताओं के पास जाकर प्रश्न किये थे- " क्या आपने भगवान को देखा है ? " किन्तु अभी तक " हाँ देखा हूँ ! " ऐसा सीधा उत्तर किसी ने नहीं दिया था।
एक दिन उनके कॉलेज के प्राध्यापक हेष्टि महोदय ने छात्रो को बताया कि दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण को समाधि होती है। नरेन्द्रनाथ को जब यह ज्ञात हुआ तो वे भी उनसे मिलने की इच्छा करने लगे। एक दिन कलकत्ते में श्रीरामकृष्ण से भेंट भी हो गयी। उसके बाद वे एक दिन उनसे मिलने दक्षिणेश्वर पहुँच गए। श्रीरामकृष्ण उस समय दक्षिणेश्वर के प्रसिद्द माँ भवतारिणी के मन्दिर में ही रहते थे। उनके साथ थोड़ा परिचय होते ही प्रश्न किये- " महाशय, क्या आपने भगवान को देखा है ? "
श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया, " हाँ देखा है। तुमको जिस प्रकार देख रहा हूँ, उससे भी स्पष्ट रूप में देखा हूँ। और यदि तू भी देखना चाहे, तो तुम्हें भी दिखा सकता हूँ। " इससे भी सीधा और स्पष्ट उत्तर, भला और क्या हो सकता है ? जैसा उत्तर नरेन्द्र सुनना चाहते थे, ठीक वैसा ही उत्तर उन्हें मिला था। अब वे दक्षिणेश्वर आने जाने लगे।
कई प्रकार से और कई बार श्रीरामकृष्ण को जाँच-परख कर, नरेन्द्रनाथ इस निश्चय पर पहुंचे कि श्रीरामकृष्ण वास्तव में एक सत्य-द्रष्टा हैं। विश्व के चरम सत्य की उपलब्धी उन्हें हुई है। वे जो कुछ भी कहते हैं, स्वयं की अनुभूति के आधार पर ही कहते हैं, किसी से सुना हुआ या पुस्तकों से रटा हुआ नहीं कहते हैं। नरेन्द्रनाथ ने तय कर लिया कि इन्हीं से सत्य को प्राप्त करूँगा।
इक दिन बातों-बातों में श्रीरामकृष्ण ने कहा- " शुद्ध चैतन्य ही एकमात्र ' वस्तु ' है। वही चैतन्य जगत की सभी वस्तुओं में अनुस्यूत है। उसी चैतन्य को ब्रह्म या ईश्वर कहा जाता है। जगत में उनके सिवा और कुछ भी नहीं है। " उस समय कमरे में बहुत से लोग बैठे हुए थे। नरेन्द्रनाथ भी उनमें से एक थे। उन्होंने भी ठाकुर की बातों को सुना। किन्तु उस समय तक वे अद्वैत-तत्व में विश्वास नहीं रखते थे। ब्रह्मसमाज में आते-जाते रहते थे, इसीलिए ईश्वर के सम्बन्ध में उनकी धारणा अलग प्रकार की थी।
इसीलिये श्रीरामकृष्ण के मुख से सुनकर भी उन्होंने अपने विश्वास को नहीं बदला। चाहे स्वयं श्रीरामकृष्ण भी कोई बात क्यों न कहें, जब तक वे स्वयं उस बात को जाँच कर नहीं देख लेते, तब तक वे अपने विचारों को बदल देने वाले लडके नहीं थे। इसीलिए वे कमरे से निकल कर बरामदे में में एक अन्य व्यक्ति के पास जाकर बैठ गए; और उसके साथ श्रीरामकृष्ण द्वारा कहे गये उसी बात की हँसी उड़ाने लगे- " देखो-देखो, वे क्या कह रहे थे ? तबतो थाली भी ब्रह्म है, और लोटा भी ब्रह्म है ! सबकुछ ब्रह्म है ! " यह कहकर दोनों हँसी से लोट पोट होने लगे।
इसीलिये श्रीरामकृष्ण के मुख से सुनकर भी उन्होंने अपने विश्वास को नहीं बदला। चाहे स्वयं श्रीरामकृष्ण भी कोई बात क्यों न कहें, जब तक वे स्वयं उस बात को जाँच कर नहीं देख लेते, तब तक वे अपने विचारों को बदल देने वाले लडके नहीं थे। इसीलिए वे कमरे से निकल कर बरामदे में में एक अन्य व्यक्ति के पास जाकर बैठ गए; और उसके साथ श्रीरामकृष्ण द्वारा कहे गये उसी बात की हँसी उड़ाने लगे- " देखो-देखो, वे क्या कह रहे थे ? तबतो थाली भी ब्रह्म है, और लोटा भी ब्रह्म है ! सबकुछ ब्रह्म है ! " यह कहकर दोनों हँसी से लोट पोट होने लगे।
Swami Vivekananda in Green-acre, Maine in August, 1894
अपने कमरे से ही उनकी हँसी को सुनकर श्रीरामकृष्ण उनके पास चले आये। और नरेन्द्र को थोड़ा स्पर्श करते हुए पूछा, " अभी तुमलोग बड़े जोर हँस हँस कर क्या कह रहा था जी ? " इतना पूछना ही काफी था। नरेन्द्रनाथ की हँसी रुक गयी।
परवर्ती जीवन में (विवेकानन्द बनने के बाद ) इस प्रसंग के बारे में उन्होंने कहा था- " उनके द्वारा इस प्रकार स्पर्श करते ही, मैं स्तम्भित होकर सचमुच देखने लगा, कि ब्रह्म के अतिरिक्त इस जगत में और कुछ भी नहीं है.....घर में लौट कर गया, तो वहां भी यही अवस्था; जो कुछ भी देखता था, सभी कुछ वे ही बने हैं, ऐसा एकदम स्पष्ट देख रहा था। भोजन करने बैठा, तो देखता हूँ- थाली, भात, परोसने वाला, मैं, सभी ब्रह्म हैं ! .....सड़क से जाते समय देखता, सामने से गाड़ी आ रही है, किन्तु चपा जाने के भय से किनारे हटने की इच्छा नहीं होती थी। मुझे सचमुच ऐसा दिखाई देता था कि गाड़ी के रूप में जो है, मैं भी वही हूँ। ...जिस समय यह आवेश थोड़ा कम होता, उस समय यह जगत स्वप्न के जैसा प्रतीत होता !....इस भाव के उतर जाने के बाद समझा, यही है अद्वैत विज्ञान की झाँकी ! "
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