ब्रह्मचर्य (मन-वचन-कर्म से पवित्र रहना) आत्मविद्या की बुनियाद है !
( छान्दोग्य उपनिषद सामवेद के अंतर्गत )
प्रजापति ने एकबार कहा था, " आत्मा अजर-अमर है, भूख-प्यास से परे है। जो व्यक्ति शास्त्र और गुरु के मुख से उनके बारे में जानकर आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे समस्त लोकों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, कामनाओं की समस्त वस्तुएँ उसे प्राप्त हो जाती हैं।"
देवताओं और असुरों, दोनों ने प्रजापति के इस उपदेश को लोक परम्परा में चलने वाली कथाओं के माध्यम से सुन लिया। देव-गण स्वाभाविक रूप से बहुत सारे सद्गुणों के अधिकारी होते हैं। वे जगत कल्याण की कामना से भरे होते हैं। किन्तु वे अपने लिये भोग की वस्तुएँ भी चाहते हैं।
उन लोगों ने जब यह सुना, कि आत्मा को जान लेने से समस्त लोकों पर विजय प्राप्त किया जा सकता है, कामनाओं की समस्त वस्तुएँ अनायास हाथो में चले आते हैं, तब तो सबकुछ प्राप्त करने का यही सबसे सरल उपाय है। यह विचार करके देवराज इन्द्र विद्यार्थी का वेश धारण कर आत्मविद्या प्राप्त करने के लिए, प्रजापति के पास पहुंचे।
उधर असुर लोगों ने जब से यह बात सुना था, उसी समय से नृत्य करने लगे थे। उनलोगों का तो जीवन ही भोग-सर्वस्व होता है, इसीलिए वे अत्यन्त भोग-लोलुप होते हैं। वे इतने भोग-पारायण होते हैं, कि भोग के सिवा उनको और कुछ सूझता ही नहीं है। असुर जाती को प्रचूर मात्र में भोग की वस्तुएँ उपलब्ध कराने के प्रयास में, वे जगत के अन्य समस्त प्राणियों को मिटा देने के लिए भी प्रस्तुत रहते हैं। असुर जाती के आलावा अन्य किसी भी जीव के कल्याण की बात उनके मन में कभी उठती ही नहीं है।
उनलोगों ने देखा, कि जब इतनी आसानी से सम्पूर्ण जगत को ही जीता जा सकता है, और भोग की समस्त वस्तुयें इच्छा मात्र से सुलभ हो जाती हैं, तो फिर उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था ! इसीलिये उनलोगों के तरफ से भी विद्यार्थी के वेश में विरोचन को प्रजापति के पास आत्मविद्या सीखने के लिये भेजा गया।
इन्द्र और विरोचन परस्पर शत्रू होने पर भी, प्रजापति के सानिध्य में रहने के प्रभाव से, दोनों आपस में मिल-जुल कर रहने लगे। दोनों विद्यार्थी थे, दोनों का उद्देश्य भी एक ही था। जीवन में ब्रह्मचर्य धारण किये बिना, (अथवा अष्टांग योग में वर्णित ' यम-नियम ' का पालन प्रति मुहूर्त किये बिना ) आत्मविद्या को धारण करने की पात्रता प्राप्त नहीं होती है। इसीलिये दोनों वहाँ ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए, रहने लगे। गुरु की सेवा में उन दोनों के दिन व्यतीत होने लगे।
बत्तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के बाद, प्रजापिता ब्रह्माजी ने पूछा, " बेटे, तुमलोग यहाँ क्यों
आये हो ? " दोनों ने उत्तर दिया, " आपने आत्मा के बारे में जो उपदेश दिया था, लोगों के मुख से उसकी महिमा को सुनकर; हमलोग आपके पास आत्म-विद्या प्राप्त करने के लिए आये हैं। "
प्रजापिता ने कहा, " नेत्रों में जो पुरुष हैं, वे ही आत्मा हैं।
वे बोले, " हम अपने सम्पूर्ण शरीर का प्रतिबिम्ब ही तो देख रहे हैं। हमलोगों के दाढ़ी-बाल इत्यादि लम्बे हो गये हैं, प्रतिबिम्ब में वह भी दिखाई दे रहा है। "
प्रजापति ने कहा, " अपने दाढ़ी-बाल इत्यादि को काट-छाट कर छोटा करो, नये अच्छे वस्त्र पहन लो, और पुनः एकबार देखो। " उन लोगों ने वैसा ही किया। और प्रतिबिम्ब देखकर बोले, " हमलोगों के ही जैसा, इसबार हमलोगों का प्रतिबिम्ब भी बड़ा भद्र और सुन्दर दिख रहा है। "
सुनकर प्रजापति ने कहा, " ये ही अभय (भरोसा, या निर्भरता) हैं, अमर आत्मा हैं। " यह विचार करके, कि हमलोगों ने सबकुछ समझ लिया है, दोनों बड़े खुश हुए और वहाँ से चल दिए। " आँख आदि इन्द्रियों के पीछे, चित्त रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित आत्मा का चैतन्य रहने के कारण ही; हमारी इन्द्रियाँ चेतन प्रतीत होती हैं। " ' नेत्रों में जो पुरुष हैं '- कहने से प्रजापिता का यही तात्पर्य था।
किन्तु उनके उपदेश का मर्म वे पकड़ नहीं सके एवं दूसरा ही अर्थ समझकर जब इन्द्र और विरोचन जाने लगे, तो प्रजपिता को हँसी आ गयी। उन्होंने जान लिया, कि वे जो कहना चाहते थे; ये लोग समझ नहीं सके हैं। इसीलिये उनलोगों के जाने के बाद, उनको याद करके सोचने लगे, " इन लोगों ने अभी जो समझा है, उसी को यदि आत्मज्ञान मानकर इन दोनों में से कोई यदि उसी के अनुरूप अपना जीवन गठन करे, तबतो वह भारी मुर्खता होगी। "
बत्तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के बाद भी, उनलोगों की धारणा-शक्ति आत्मतत्व को समझ पाने योग्य नहीं बन सकी थी। वापस लौटते समय रास्ते पर चलते-चलते विरोचन प्रजापिता के उपदेश पर मनन करते हुए यह समझे- " नेत्रों की पुतली में मनुष्य के शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ता है, जल में भी चेहरे का ही प्रतिबिम्ब दीखता है। इसीलिये यह शरीर ही आत्मा है, शरीर की सेवा करने से मनुष्य सम्पूर्ण जगत को जीत सकता है, और सभी प्रकार के भोग की वस्तुओं को प्राप्त कर सकता है। " यही समझकर वे अपने राज्य में वापस चले गये।
विरोचन अपने राज्य में लौटकर सभी असुरों को समझाने लगे, भाईयों यह शरीर ही आत्मा है। यह सुनकर असुर जाती शरीर की सेवा में जुट गयी। उनका जीवन-दर्शन ही यह बन गया कि - " जो कुछ भी है, यह शरीर ही है ! " इसीलिये हमलोग, दान नहीं देने वाले, श्रद्धाहीन, धर्म-कर्म हीन लोगों को, आज भी ' असुर-स्वभाव ' का व्यक्ति कहते हैं। ये लोग शरीर के बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते, इसीलिये असुर- जाति आज भी मरने के बाद मृतक के शरीर को गहनों-कपड़ो आदि से सजाते हैं। वे समझते हैं- ' शायद यह शरीर ही वास्तविक मनुष्य है। '
किन्तु देवराज इन्द्र आश्वस्त नहीं थे। रास्ते से लौटते समय विचार करने लगे, " प्रजापिता ने उपदेश दिया था, कि आत्मा अमर है, तो फिर भला नश्वर शरीर को आत्मा कैसे कहा जा सकता है ? इसका अर्थ यह निकला कि प्रजापिता ने निश्चय ही शरीर को लक्ष्य करके, आत्मा नहीं कहा होगा। क्योंकि शरीर की अवस्था में परिवर्तन होने के साथ-साथ हमलोगों ने इसके प्रतिबिम्ब में भी परिवर्तन होते देखा था। यदि शरीर का कोई अंग-भंग हो जायेगा, तो प्रतिबिम्ब के साथ भी वही होगा; और शरीर के नष्ट हो जाने पर नेत्रों की पुतली पर बनने वाला मनुष्य का प्रतिबिम्ब भी नहीं रहेगा। तो फिर यह शरीर अजर,अमर अपरिवर्तनशील आत्मा कैसे हो
सकता है ? नहीं, मैं उनके उपदेश के मर्म को बिल्कुल ही नहीं समझ सका हूँ। मुझे उनके पास फिर से जाना चाहिए। "
इन्द्र को अकेले वापस लौटते देखकर प्रजापिता ने कहा, " क्यों इन्द्र, तुम तो विरोचन के साथ खुश होकर चले गये थे, फिर वापस क्यों लौट आये ? " इन्द्र बोले, " मनुष्य का प्रतिबिम्ब तो, शरीर में परिवर्तन होने के साथ-साथ परिवर्तित होता है, और विनष्ट भी हो जाता है। इसीलिये मुझे ऐसा नहीं लगता कि मुझे अजर,अमर आत्मा का ज्ञान हुआ है।"
प्रजापिता बोले, " हाँ बेटे, तू ठीक ही कह रहा है। तुमको मैं सबकुछ समझाकर बताऊंगा। किन्तु और बत्तीस वर्षों तक यदि ब्रह्मचर्य पालन नहीं किये, तो मेरी बात को ठीक ठीक पकड़ नहीं पाओगे। इसीलिये अभी फिर से विद्यार्थी के वेश में 32 वर्षों तक रहो। "
इन्द्र रहने लगे। बत्तीस वर्ष बीत जाने के बाद, प्रजापति ने उनको उपदेश दिया, " स्वप्न में जो विचरण करते हैं, वे ही अजर,अमर आत्मा हैं। "
इन्द्र लौटते समय रस्ते में पुनः इस उपदेश के उपर मनन करने लगे, " स्वप्न देखते समय, सूक्ष्म शरीर के द्वारा हमलोग सुख-दुःख का भोग करते हैं; उस समय स्थूल शरीर का कोई भी दोष हमारे सूक्ष्म शरीर का स्पर्श नहीं कर पाता, स्थूल शरीर के अंगहीन होने से भी, स्वप्न का सूक्ष्म शरीर अंगहीन नहीं होता, स्थूल शरीर में चलने की शक्ति नहीं रहने पर भी, स्वप्न के शरीर को लेकर हमलोग कहाँ कहाँ नहीं घूम आते हैं ! फिर भी उस समय, जैसे सुख-बोध होता है, वैसे ही दुःख-बोध भी होता है; स्वप्न देखते समय हमलोग मृत्यु के डर से भी भयभीत होते हैं। फिर तो, स्वप्न देखने वाला सूक्ष्म शरीर भी मृत्युहीन भयहीन, आत्मा नहीं
हो सकता ! "
वे फिर से प्रजापिता के पास लौट चले। प्रजापिता की आज्ञानुसार पुनः बत्तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किये। उसके बाद, प्रजापिता ने उपदेश दिया, " जिस समय हमलोग गहरी निद्रा में, या सुषुप्ति अवस्था में लीन हो जाते हैं, उस समय हम स्वप्न नहीं देखते। उस समय स्थूल शरीर, या स्वप्न देखने वाले सूक्ष्म शरीर का बोध भी नहीं रहता। और हमें सुषुप्ति में बहुत आनन्द प्राप्त होता है, मन-प्राण सब शीतल हो जाता है। जो स्वप्न देखने वाले सूक्ष्म-शरीर के भी परे हैं, वे ही आत्मा हैं। "
यह उपदेश सुनकर लौटते समय रास्ते में इन्द्र फिर से विचार करने लगते हैं- " नहीं, अभी भी ठीक से समझ में नहीं आया। " प्रजापिता के पास लौट गये, और बोले, " इस बार भी ठीक से नहीं समझा, यह सत्य है कि सुषुप्ति के समय स्थूल या सूक्ष्म शरीर का कोई दोष हमलोगों का स्पर्श नहीं करता, किन्तु उस समय तो अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में भी हमलोगों को कोई होश (चेतना) नहीं रहता; बाहर की अन्य किसी दूसरी वस्तु का तो बिल्कुल ही पता नहीं होता। इस समय ऐसा प्रतीत होता है, मानों हमारा ' मैं '-बोध (अहं) ही मर गया हो। फिर मर जाने की बात को चैतन्यमय अमर आत्मा सोच भी कैसे सकता है ? "
प्रजापिता बोले, " इसके भी परे जाना होगा ! " इसबार प्रजापिता ने इन्द्र को, केवल और पाँच वर्षों के लिए ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए कहा। इतने दिनों तक ब्रह्मचर्य-पालन करने के फलस्वरूप इन्द्र में पहले ही, अत्यन्त सूक्ष्म विषयों को भी अनुभव कर लेने की शक्ति आ चुकी थी। अब और केवल पाँच वर्ष तक ब्रह्मचर्य-पालन करने से ही, समस्त सूक्ष्म तत्वों को अनुभव करने की योग्यता इन्द्र को प्राप्त हो जाने वाली थी।
पाँच वर्षों के बाद प्रजापिता ने इन्द्र को ' ब्रह्म-विद्या ' का दान दिया। उन्होंने उपदेश दिया, " आत्मा - जाग्रत अवस्था में स्थूल-शरीर, स्वप्न की अवस्था में सूक्ष्म-शरीर, सुषुप्ति में कारण शरीर, इन सबसे अलग होते हैं। इन सब शरीरों के भीतर रहते हुए, इन सब शरीरों का आश्रय लेकर वे ही विषयभोग करते हैं। "
हमलोग यदि अपनी आँखों से भिन्न नहीं होते, तो " मैंने अपनी आँखों से देखा " ऐसा अनुभव भी हमलोगों को नहीं हो सकता था। यदि हमलोग मन से भी भिन्न नहीं होते, तो " मेरे मन में यह विचार उठा " ऐसा हमलोग महसूस नहीं कर सकते थे।
शास्त्र और आचार्य की सहायता से स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि आदि से निरन्तर पृथक अनुभव कर पाने में कोई व्यक्ति समर्थ हो जाय, तब कहा जा सकता है, कि उसको आत्मज्ञान हुआ है। अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान हो जाने पर स्थूल, सूक्ष्म, कारण सभी प्रकार की ' देहात्म-बुद्धि ' ही चली जाती है। उस समय हमलोग स्वयं को इनसब शरीरों से बिल्कुल स्पष्ट रूप से अलग देखते हैं।
इस प्रकार एक सौ एक (101) वर्षों तक ब्रह्मचारी रहते हुए तपस्या करने के बाद आत्मज्ञान प्राप्त करके इन्द्र देवताओं के पास लौट गये।
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