नचिकेता का वृत्तान्त
चारों ओर शोर गुल मच रहा था। देश के चारो दिशाओं से लोग भागे चले आ रहे थे। ऋषि बाजश्रवस यज्ञ का आयोजन किये थे। बहुत बड़े पैमाने पर यज्ञ हो रहा था। इस यज्ञ में ऋषि अपनी सारी धन-सम्पत्ति दान करने वाले थे।
तपोवन के एक किनारे पर्याप्त लम्बे-चौड़े भूखण्ड पर यज्ञ मण्डप बनाया गया था। बहुत से ऋषि-मुनि आये हैं, बड़े-बड़े पण्डितगण आये हैं। यज्ञ प्रारम्भ हो चुका है, होमाग्नि में आहूति दी जा रही है। दान भी शुरू हुआ है। विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का दान हो जाने के बाद, गऊ-दान शुरू हुआ है। बाजश्रवस बहुत सारे गौओं को दान में देने जा रहे हैं। सभी लोग आनन्द में विभोर हैं, केवल एक लड़के के चेहरे पर हँसी नहीं है, उत्सव का आनन्द नहीं है।
कुम्हलाये हुए गम्भीर चेहरे को लेकर वह लड़का एक कोने में खड़े खड़े गऊ -दान देख रहा था। वह लड़का बाजश्रवस ऋषि का पुत्र नचिकेता था। उसके किशोर मन में आज तूफान उठ रहा था; सोचता जा रहा था- " दान देना बहुत पुण्य का काम है, मेरे पिताजी यह सोच कर गौएँ दान कर रहे हैं, कि जिनको दे रहे हैं, उनका भला
होगा। इसीलिए तो दान की इतनी महिमा है, जिन व्यक्तियों को पैसे से गाय खरीद कर दूध पीने या अपने बच्चों को दूध पिलाने का सामर्थ्य नहीं है, एक गाय दान में मिल जाने से उनका कितना भला होगा, किन्तु उसके पिता के गौशाले में जितनी खराब गायें थीं, उन्हीं को चुन चुन कर वे दान देने के लिए ले आये थे। ऐसी ऐसी गायें थीं, जो बिल्कुल दुबली पतली और बूढ़ी हो चुकी थीं, जिनके चेहरे को देखने से ही वितृष्णा हो जाती है। उनको देखने से ऐसा लगता था, मानों इस जन्म में उनका घास खाना और जल पीना समाप्त हो चूका था, यज्ञशाला से घर जाने के रस्ते में ही लगता है, वे सब मर जायेंगी, मानों मृत्यू के पथ पर उनका पैर बढ़ चुका है। गौशाले में तो कितनी सारी अच्छी अच्छी गायें भरी पड़ी हैं, उन गायों को पिताजी क्यों नहीं लाये हैं ? जिस उद्देश्य से वे दूसरों को गायों को दान में दे रहे हैं, क्या ऐसी गायों को दान में देने से उनका वह उद्देश्य सिद्ध
होगा ? बल्कि इससे तो उन्हें बिलकुल उल्टा फल मिलेगा। "
झुंझलाहट से उसका बाल-मन भर गया। किन्तु वह तो एक बच्चा था, इसका प्रतिरोध कैसे करे ? अपने पिता के पास जाकर स्वाभिमान भरे लहजे से पूछा -' पिताजी, आप मुझको किसे दान में दे रहे हैं ? ' अपने छोटे से लड़के की अर्थहीन बातों पर ध्यान दे सकें, ऋषि के पास उतना समय कहाँ था ? किन्तु नचिकेता ने भी जिद नहीं छोड़ा, बार बार उनके पास जाकर यही प्रश्न पूछता रहा। उसको रोकने के लिए बाजश्रवस ने क्रूद्ध होकर कह दिया, " जाओ, मैं तुमको यम के हाथों में दिया। "
उत्तर सुन कर थोड़ी देर तक नचिकेता किसी पत्थर की मूर्ति के समान खड़ा रह गया। सोचने लगा, " पिताजी ने ऐसा कैसे कह दिया; क्या मुझे वे इतना अवांछनीय समझते हैं? क्या मैं इतना अयोग्य लड़का हूँ ? मनुष्य के रूप में क्या मेरा कोई मूल्य ही नहीं है ? " आत्मनिरीक्षण करने लगा, उसने पाया कि यह सत्य नहीं है - " बहुतों से मैं बड़ा हूँ, बहुतों की तुलना में मध्यम हूँ, किन्तु मेरे पिताजी के जितने भी शिष्य हैं, मैं उनमें से सबसे निकृष्ट तो बिलकुल नहीं हूँ।" स्वयं के उपर श्रद्धा जाग्रत हो गयी, और आत्मविश्वास से उसका हृदय भर उठा। साथ ही साथ उसने अपना कर्तव्य भी निश्चित कर लिया।- " मैं यमराज के बहुत से कार्यों में उपयोगी हो सकता हूँ। "
ऐसा सोच कर उसने मन में ठान लिया, कि अब तो मुझे यमराज के पास जाना ही होगा ! फिर अपने पिता के पास जाकर नचिकेता ने अपना संकल्प सुना दिया। यह सुनकर बाजश्रवस चौंक गए। अरे, मैंने अनजाने में कोई बात कह दी तो उससे क्या हुआ ? अपने पुत्र को यमलोक भेजना क्या किसी पिता की आंतरिक इच्छा हो सकती है ? किन्तु नचिकेता ने अपने पिता को समझाया कि सत्य की रक्षा करना उनका अनिवार्य कर्तव्य है। एक बार जब उनके मुंह से यह बात निकल ही गयी है, तो फिर मन में चाहे कितना भी कष्ट क्यों न हो, उनके लिए नचिकेता को यमपुरी जाने की अनुमति प्रदान करना ही उचित है। मनुष्य का जीवन है ही कितने दिनों का ? जिस शरीर के माध्यम से हमलोग पृथ्वी का रूप-रस आदि भोग करते हैं, उसका मरना तो ध्रुव तारे के समान अटल है। किन्तु सत्य की रक्षा कर पाने से उसका शुभ फल शरीर नष्ट होने के बाद भी हमलोगों के साथ साथ जाता है, तथा अगले जीवन में भी उसका शुभ फल प्राप्त होता है।
नचिकेता की बातों को सुनकर बाजश्रवस को चैतन्य होता है। अपने पिता को समझा बुझा कर, उनकी अनुमति लेकर नचिकेता यमपुरी की ओर प्रस्थान करता है। यमराज बिना कोई पक्षपात किये, ईश्वर के कानून के अनुसार सबों को कर्मफल प्रदान करते हैं, अच्छे कर्मों का अच्छा फल और बुरे कर्मों के लिए बुरा फल देते हैं। क्योंकि यमराज किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं करते इसीलिए उनका एक उपनाम धर्मराज भी है। इसीलिए नचिकेता यमराज के प्रति अपने मन में अति उच्च धारणा लेकर यमपुरी में उपस्थित होते हैं।
किन्तु उस समय यमराज वहाँ नहीं थे, किसी जरुरी काम से बाहर गए थे। नचिकेता बिना कुछ खाए-पीये तीन दिनों तक उनकी राह देखता हुआ प्रतीक्षा करता रहता है।
तीन दिनों बाद जब यमराज वापस लौटते हैं, तो नचिकेता को देखकर, तथा उसके संकल्प की दृढ़ता और श्रद्धा का परिचय प्राप्त करके यमराज बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, " तुम तीन रात्रि इतना कष्ट सह कर मेरी प्रतीक्षा में बैठे रहे हो, इससे मैं तुम पर प्रसन्न हो गया हूँ। तुम मुझसे इसके बदले में तीन बर मांग लो । "
नचिकेता ने कहा- " मैं पृथ्वी छोड़ कर आपके पास आया हूँ; इसके लिए मेरे पिताजी को बहुत दुःख हो रहा है, और बहुत चिन्ता करते हुए अपना दिन बिता रहे हैं। जब मैं आपसे विदा लेकर वापस लौटूँ, तो वे मुझे पहचान सकें, और प्रसन्नतापूर्वक मुझे स्वीकार कर लें। प्रथम बर के रूप में मैं आपसे यही मांगता हूँ।"
यमराज ने कहा - " वैसा ही होगा, पुत्र ! दूसरा बर भी माँग लो। "
नचिकेता ने कहा, " मैंने सुना है कि स्वर्ग में लोग बड़े सुख से रहते हैं। वहाँ पर किसी को रोग,शोक, बुढ़ापा का डर नहीं सताता है, मृत्यु का भय भी नहीं होता। जिस कर्मकाण्ड की सहायता से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है, मुझे उसकी पद्धति सिखा दीजिये। "
स्वर्ग प्राप्ति के लिए जो यज्ञ करना पड़ता है, यमराज उसकी छोटी छोटी बातों को भी बहुत विस्तार से नचिकेता को सिखा देते हैं। एकबार सुनने के बाद ही नचिकेता हू ब हू पूरी पद्धति उनको सुना देता है। उसकी स्मरणशक्ति को देख कर यमराज बहुत प्रसन्न होते हैं, और एक अतिरिक्त बर देते हैं- " नचिकेता, तुम्हारे ही नाम के उपर इस यज्ञाग्नि का नाम रखा जायेगा, ' नचिकेतस-यज्ञ '।" उसके बाद पूछे कि, " अब बताओ कि तुम तीसरे बर के रूप में क्या चाहते हो ? "
नचिकेता ने कहा, " कोई कहता है, मृत्यू के बाद भी मनुष्य का अस्तित्व रहता है; केवल शरीर ही नष्ट होता है, वास्तविक मनुष्य नहीं मरता, आत्मा अमर है। फिर कोई कहता है, यह बात नहीं है- मृत्यू के साथ ही साथ मनुष्य का सबकुछ समाप्त हो जाता है, उसका और कोई अस्तित्व ही नहीं रहता। इनमें से किसकी बात ठीक है, वह मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ। मैं आपसे आत्मतत्व जानना चाहता हूँ।"
नचिकेता की बातों को सुनकर यमराज तो दंग रह जाते हैं- " यह लड़का कह क्या रहा है ? " पहले तो उसकी श्रद्धा और आत्मविश्वास को देखकर ही वे खुश हो गये थे, अब इतने कम उम्र में ही अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसमें जो तीव्र इच्छा जाग्रत हुई उसे देख कर वे मन ही मन और अधिक प्रसन्न हुए। फिर भी उसकी यह जिज्ञाषा आन्तरिक है या नहीं, उसकी थोड़ी परीक्षा करके देखना चाहे। नचिकेता से
बोले, " देखो बच्चे, यह तत्व अत्यन्त सूक्ष्म है; इस विषय में देवताओं को भी संशय हो जाता है। इसीलिए इस तत्व को लेकर सिर मत खपाओ, तुम इसके बदले कोई और बर मांगलो। "
नचिकेता ने कहा, " यदि यह बात है कि देवताओं को भी इस विषय में संदेह होता है, फिर तो यह तत्व मुझको जानना ही होगा। और आप तो मृत्यू के ही देवता हैं, आपके जैसा योग्य वक्ता और मुझे कहाँ मिलगा ? आत्मतत्व को जानने का ऐसा अवसर मैं छोडूंगा क्यों ? "
तब यमराज उसको लालच देते हुए कहते हैं, " देखो नचिकेता, तुमको मैं अतुल्य ऐश्वर्य का अधिकारी बना दूंगा। तुमको मैं प्रचूर भू-संपत्ति, गाड़ी-घोडा, धन-जन से भर दूंगा। पुत्र-पौत्र के साथ एक सौ वर्षों तक इन सबका भोग करो। यदि इच्छा हो, तो और भी अधिक उम्र तक, जबतक चाहो, जीवित रहकर इन सबका भोग करो।
पृथ्वी पर जीते समय सभी मनुष्य यही सब तो पाना चाहते हैं। यह भी देखो कि स्वर्ग की सभी अप्सराएँ यहाँ उपस्थित हैं। इन सबको अपने साथ ले जाओ, ये लोग बहुत अच्छा नृत्य-संगीत जानती हैं। इसके अलावा भी तुमको भोग की बहुत सारी वस्तुएं दूंगा, जो तुम भोग करना चाहो, वह सब तुमको दे दूंगा। स्वर्ग में गए बिना जिन भोगों को नहीं पाया जा सकता, भोग की जिन वस्तुओं को पृथ्वी पर देखना भी दुर्लभ है, वह सब भी मैं तुमको दे रहा हूँ। यह सब अपने साथ लेते जाओ, इतनी सुंदर सुंदर वस्तुओं को छोड़ कर, आत्मज्ञान क्यों पाना चाहते हो ? "
किन्तु आजीवन इन सबका भोग करके जितना आनन्द प्राप्त होता है, उससे भी करोड़ो गुणा अधिक आनन्द का, असीम, कभी न समाप्त होने वाले, सनातन, प्रतिघात रहित आनन्द का अधिकारी बनना चाहता है नचिकेता ! और वह आनन्द आत्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) के पथ पर चलने से ही प्राप्त हो सकता है। उसका मन अल्प से नहीं भर सकता। नचिकेता ' उड़द के दाल ' का खवैया नहीं है, वह तो महा मूल्यवान वस्तु लेने आया है। इसीलिए वह कहता है-
" यमराज, यह सही है कि देह-इन्द्रिय की सहायता से मनुष्य जितने विषयों का भोग करके सुख भोग कर सकता है, भोग की उन समस्त वस्तुओं को आप मुझे प्रचुर मात्रा में दे रहे हैं। किन्तु उन वस्तुओं को आप चाहे जितना भी मात्रा में क्यों न दें, किन्तु उससे आनन्द कितना मिलेगा ? क्योंकि चाहे जितना भी क्यों न मिलता जाये, मन उतने से कभी तृप्त तो नहीं होता, वह तो और- और पाने की रट लगाये ही रहता है। इसके अतिरिक्त इन समस्त भोगों को मैं कितने दिनों तक भोग सकूँगा ? चाहे मैं एक सौ वर्षों तक जीवित रहूँ या दो सौ वर्षों तक, एक दिन तो उसका अन्त अवश्य होगा ? और जिन इन्द्रियों के द्वारा इन भोगों को भोगा जाता है, वे इन्द्रियां भी तो उम्र बढ़ने के साथ साथ शिथिल या जीर्ण होती जाती हैं। इसीलिए मेरा (प्रशिक्षित) मन इन सब भोगों की ओर जाता ही नहीं है। इसीलिए आप इन सब नश्वर विषयों को भोगने का प्रलोभन देकर मेरे मन को लालची नहीं बना सकते हैं, मैं वैसा कोई छोटा सा बच्चा नहीं हूँ, जिसे आप लोलीपॉप दिखला कर फुसला सकते हों, ' जो ' मैं जानना चाहता हूँ, वही बतलाइए। "
यमराज ने समझ लिया कि यह लड़का अपने इरादे का पक्का है; उसकी आत्मज्ञान पाने की इच्छा अत्यंत तीव्र और हार्दिक है, इसके भीतर किसी सच्चे सत्यार्थी जैसी - बिल्कुल एक ' Burning desire ' है, इसकी जिज्ञाषा में कोई भी मिलावट नहीं है। आत्मतत्व की धारणा करने के लिए मन को जितना दृढ और सबल होना चाहिए, उतना प्रशिक्षित भी हो चूका है इसका मन ( अर्थात अपने सच्चे स्वरूप को जान लेने के बाद यह आश्चर्य से उछलने नहीं लगेगा, उस ज्ञान को पचा लेने की क्षमता भी इसके मन में है।) इसीलिए यह आत्मतत्व सुनने का योग्य अधिकारी है, ' एक अच्छा आधार है।' ऐसा निर्णय लेकर यमराज उसको आत्मज्ञान का उपदेश सुनाने लगते हैं।
यमराज ने आत्मज्ञान प्राप्त करने का जो उपदेश नचिकेता को सुनाया था, वह सम्पूर्ण इतिहास, उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त ' कठोपनिषद ' नामक वेदान्त में समाविष्ट है। कठोपनिषद यजुर्वेद का अंतिम भाग है। (वेद चार हैं-ऋक, यजू: , साम और अथर्व ) कठोपनिषद की कुछ बातों का उल्लेख उपर किया गया है।
(Pure Consciousness) शुद्ध, निष्कलंक, निर्मल, अमल, पवित्र, अमिश्रित या खालिस - चेतना (अभिज्ञता, बोध या ज्ञान ) हमलोगों में से प्रत्येक के भीतर है; इसीलिए हमलोग एक चेतन जीव के रूप में जीवित हैं। आत्मा के चैतन्य से ही हमलोगों का यह शरीर, मन, प्राण आदि ' जड़ ' होकर भी ' चेतन ' जैसे प्रतीत होते हैं; ठीक वैसे ही जैसे किसी श्वेत स्फटिक के सामने उड़हुल का लाल फूल रखने से वह लाल दिखाई पड़ने लगता है। यह शुद्ध शाश्वत चैतन्य - ' सच्चिदानन्द ' ही हमारा स्वरूप है, हमलोगों का यथार्थ ' मैं ' है !
जिस प्रकार सूर्यास्त हो जाने के बाद अँधेरे में हमलोग कुछ भी नहीं देख पाते हैं, फिर भी जिस इन्द्रिय के माध्यम से हमलोग देखते हैं, उन आँखों का कोई दोष सूर्य को कभी स्पर्श नहीं करता, उसी प्रकार सबकुछ जानने और देखने वाले आत्मा की शक्ति (चेतना) से मन, शरीर, प्राण इत्यादि जड़ प्रकृति चेतन जैसी प्रतीत होने पर भी, वह आत्मा निःसंग है, केवल साक्षी है, शरीर, मन, प्राणों के खोल (packing ) द्वारा किये गये कार्यों का दोष उस शुद्ध चेतन सत्ता को मलीन या विकृत नहीं कर सकता।
मनुष्य की इन्द्रियां और मन आदि स्वभावतः बहिर्मुखी हैं ; इसीलिये बाह्य वस्तुओं को हिला-डुला कर, उनको हरकत में लाकर या उत्तेजित करके हमलोग आमोद-प्रमोद द्वारा आनन्द पाना चाहते हैं। किन्तु आत्मज्ञान प्राप्त (या अपने सच्चे स्वरुप से साक्षात्कार) करने की तीव्र इच्छा हो, तो मन को बाह्य विषयों में जाने से रोक कर, या बाह्य विषयों से खीँच कर, अन्तर्मुखी बना लेना होगा।
मन को भीतर की ओर, अपने यथार्थ स्वरुप की ओर देखने का प्रशिक्षण देना होगा। (अपने दोषों को देखने और दूसरों में विद्यमान शुद्ध स्वरुप को देखना सिखाना होगा । (दूसरों में अगर दोष दीखता है, तो विवेक-विचार करना होगा कि वह दोष ' packing ' का है, या आत्मा का ? ) जो लोग अमृतत्व चाहते हैं, या अमर होना चाहते हैं, वे अपने सुद्ध स्वरुप या आदर्श के उपर मन को एकाग्र करने की विधी अवश्य सीखते हैं। वे लोग वाह्य विषयों में बिखरी हुई मन की रश्मियों को समेट कर, सम्पूर्ण मन को (आदर्श रूपी कोनवेक्स लेन्स या पावर का शीशा पर फोकस रखने का अभ्यास ) आत्म-चिन्तन में एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं। जिस व्यक्ति में विवेक जाग्रत हो जाता है, उन्हें इस प्रकार अपने मन को बाह्य विषयों में जाने से रोक कर आत्मस्वरूप पर एकाग्र रखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
वास्तव में हमलोग शरीर, मन, बुद्धि, आदि जड़ पदार्थों से बिल्कुल भिन्न हैं। हमलोगों का शरीर मानों एक रथ है, हमलोग उस रथ में बैठे हुए हैं। इन्द्रियाँ मानों घोड़े हैं, और मन लगाम है। और बुद्धि इस रथ की सारथि (रथि या अंकुष ) है। हमारी ' बुद्धि ' यदि ' विवेकवान ' बन जाये, कौन सा मार्ग अच्छा है और कौन सा मार्ग खराब है, उसमें यह औचित्य-बोध या सही समझ यदि हो। यदि वह मन की लगाम को कौशल के साथ खीँच कर घोड़ों को विषय-मार्ग पर जाने से पलटा लेने में सक्षम है ; मन यदि उसके वश में रहता हो, तो वह इन्द्रिय रूपी उद्दण्ड घोड़ों को अपनी इच्छानुसार इधर-उधर बहकने नहीं देती है; बुद्धि का अंकुष रथ को सही ढंग से हांककर हमलोगों को अपने लक्ष्य पर पहुंचा देती है।
इसी प्रकार की बहुत सी ज्ञानवर्धक बातें नचिकेता को यमराज ने सुनाया था।
ईमानदार प्रयत्न रहने से सभी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। एक जन्म के प्रयत्न में यदि मार्ग के अन्तिम छोर या लक्ष्य तक न भी पहुँच सके तो भी कोई चिंता नहीं, मनुष्य इस मार्ग पर जहाँ तक भी अग्रसर हो सका है, उतनी साधना का फल कभी नष्ट नहीं होता। एक जन्म में अभ्यास के द्वारा मन जितना उन्नत बन सका होता है, उसी उन्नत मन को लेकर ही उसका पुनर्जन्म होता है। अगले जन्म में वह अपनी यात्रा उसी स्थान से प्रारंभ करता है, उसको फिर से अपनी साधना का प्रारंभ नहीं करना पड़ता है। क्योंकि मृत्यू के समय केवल शरीर ही नष्ट होता है, मन को कुछ नहीं होता, इसीलिए नये शरीर में भी ' मन ' का गठन (संरचना-या Structure) पूर्व के जैसा ही रहता है।
श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था- " इसके पहले भी मेरे और तुम्हारे कई जन्म हो चुके हैं, मुझे अपने समस्त जन्मों का इतिहास याद है, और तुम सब भूल गए हो। "
यह जान लेने के बाद कि एक जन्म में किये गये प्रयत्न का फल दुसरे जन्म तक बना रहता है, इसीलिए वर्तमान में हमलोगों में कितना सामर्थ्य होगा ? इस बात की चिन्ता में सिर न खपा कर, ज्ञानप्राप्ति के पथ पर आगे बढ़ने के लिए सीधा कमर कस कर भीड़ जाना होगा। इस मार्ग पर हमलोग अपनी यात्रा का प्रारंभ चाहे जहाँ से भी क्यों न करें, उससे कुछ आता-जाता नहीं है। उसको लेकर मन में कभी निराशा नहीं आने देनी चाहिए।
कोई भी कर्म इतना क्रूर या गर्हित नहीं है, जिसे भूल वश कर बैठने से कोई मनुष्य हमेशा के लिए नष्ट हो जाता हो। कोई व्यक्ति जीवन पथ के किसी भी स्थान पर क्यों खड़ा हो, वह स्थान चाहे कितना भी निचा क्यों न हो, मनुष्य जिस क्षण, उम्र के किसी पड़ाव पर अपनी भूल समझ लेता है ; जैसे ही उसमें अशान्ति, उदासी और भय के चँगुल से मुक्ति पाने के लिए सत्य-प्राप्ति की इच्छा जाग उठती है, उसी समय, उम्र के उसी पड़ाव से सत्य की ओर मुख घुमा कर ( असत राह से सत राह की ओर ) अपनी यात्रा प्रारंभ कर देनी चाहिए। ऐसा करने से एक न एक दिन उस सत्य को, असीम आनन्द को, अमृतत्व को अवश्य प्राप्त कर लेंगे।
जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करके अपने सच्चे स्वरुप को पहचान कर धन्य हो चुके हों, उनके निकट पहुंचकर यह जान लेना होगा कि इस मार्ग पर चलने की पद्धति क्या है, सम्पूर्ण पद्धति को उनसे सीख लेनी चाहिए। उनके जीवन के सम्पर्क में आने, उनकी बातों को सुनने और मनन करने से लोगों को चैतन्य (परोक्ष ज्ञान) हो जाता है। उन्हीं लोगों के उपदेशों को संकलित करके शास्त्रों को लिखा गया है। वे (ज्ञानी जन )लोग सभी प्राणियों में आत्मदर्शन करते हैं, या सबों के भीतर स्वयं को देखते हैं। ज्ञानप्राप्ति के बाद जितने भी दिनों तक उनका शरीर धरती पर रहता है, वे लोग बसन्त ऋतू के समान केवल लोक-हित करने के लिए गाँव-गाँव में घूमते रहते हैं।
अब हमलोग इसीप्रकार के दो-चार ब्रह्मज्ञ-पुरुषों के जीवन की कुछ घटनाओं पर चर्चा करेंगे।
'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें