' ब्रह्मज्ञानी स्वयं को सदैव अकर्ता और साक्षी रूप में देखते हैं '
जिनको ब्रह्मज्ञान हो गया हो, वे निरन्तर माया-मुक्त अवस्था में रहते हैं। वे स्वयं को हर समय अकर्ता, निश्चल निर्विकार शुद्ध-चैतन्य के रूप में अनुभव करते हैं। क्रिया-कर्म जो कुछ भी होता है, वह सब प्राकृतिक नियमों के द्वारा संचालित होकर शरीर मन आदि करते हैं। वे स्वयं को शरीर-मन आदि से हर समय अलग देखते हैं। यह बात गीता में विस्तार से समझाई गयी है।
वृन्दावन में यमुना के तट पर व्यासदेव बैठे हुए थे। थोड़ी देर में वहाँ, दूध,दही, मक्खन, खीर आदि लेकर कुछ गोपियाँ आती हैं, वे उन चीजों को बेचने के लिये यमुना के उस पार जाना चाह रही थीं। किन्तु देखती हैं, कि तट पर न तो कोई नौका है न पतवार लिये कोई खेवैया है। वह नाव लेकर कहाँ चला गया है, कोई बताने वाला भी तो नहीं है। बहुत देर उसकी प्रतीक्षा में खड़े खड़े वे थकहार गयीं थीं, किन्तु उपाय क्या था ? यमुना के जल पर चलते हुए तो नदी को पार नहीं किया जा सकता था।
तट पर बैठे व्यासदेव को देख कर उनके पास जाकर भक्ति-भाव से प्रणाम करने के बाद एक गोपी
कहती है, " ब्राह्मण देवता, आप कोई उपाय कर दीजिये जिससे हमलोग यमुना के पार चले जाएँ !" व्यासमुनि ने कहा, " ठीक है, व्यवस्था कर दूंगा। मुझको भी तो उधर ही जाना है। किन्तु पहले मुझे कुछ खिलाओ तो सही, देखता हूँ खाने की बहुत अच्छी अच्छी चीजें ले जा रही हो ! मैंने अभी तक कुछ खाया नहीं है, बड़े जोरों की भूख लगी है।"
गोपियों ने सोचा, यह कौन सी बड़ी बात है ? उन सबों ने बड़े आनन्द से व्यासदेव को खीर, मक्खन, राबड़ी, दही-छाँछ इत्यादि खिलाने लगीं। भरपेट खा लेने के बाद व्यासदेव तृप्त हुए। और जितना खाये थे, उसका परिमाण भी कुछ कम नहीं था।
गोपियों ने कहा, " महाराज, भोजन तो कर लिये अब जरा पार जाने की व्यवस्था भी कर दीजिये।" व्यासदेव बोले, "जरुर ! अभी करता हूँ।" उनहोंने ने यमुना से हाथ जोड़ कर विनती की, " माँ यमुना ! यदि मैंने कुछ भी नहीं खाया हो, तो तुम्हारा जल दो भागों में विभक्त हो जाये। हमलोग उसके बीच से चलते हुए उस पार चले जायेंगे।"
उनके ऐसा कहते ही, यमुना का जल सचमुच दो भागों में बँट गया। और उसके बीच से व्यासदेव गोपियों के साथ पार हो गये।
उस पार जाने के बाद, जब गोपियाँ व्यासदेव से थोड़ा दूर हो गयीं तो, हँसी के मारे लोट-पोट होने लगीं- " भाई अपने ये व्यासदेव भी खूब हैं ! इतना सबकुछ भरपेट खा लेने के बाद भी कहते हैं, " यदि मैंने कुछ भी नहीं खाया हो !"
व्यासदेव ब्रह्मज्ञानी थे। इसीलिये वे सदैव अपने को साक्षी,अकर्ता और निष्क्रिय के रूप में देख सकते थे, इसीलिये " मैंने खाया " यह बोध उनको कभी हुआ ही नहीं था !मन,बुद्धि आदि इन्द्रियों की सहायता से चालित होकर, शरीर ने खाया है। और वे तो निरन्तर अपने को इन सब चीजों से अलग चेतन आत्मा के रूप में देख सकते थे।
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