भारत की सभ्यता आज भी जीवित कैसे है ?
[वृहदारण्यक उपनिषद-(यजुर्वेद)]
" जो बोले सो अभय, माँ सारदा देवी की जय ! "
प्राचीन भारत में मनुष्य-जीवन के सम्पूर्ण काल-खण्ड को साधारण तौर पर चार भागों में विभक्त माना जाता था। हमलोगों को सर्वदा यह याद रहे, कि हमें यह मनुष्य शरीर धर्म-लाभ के लिए मिला है, जीवन के प्रत्येक भाग को आश्रम कहा जाता था। जीवन के जिस उम्र में पढाई-लिखाई में समय बिताने जहाँ जाना पड़ता था, उसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता था।
ब्रह्मचर्य पालन करने के फलस्वरूप हमारे स्नायू और मस्तिष्क बहुत सशक्त हो जाते हैं, और मन की शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है और हमारा मन सूक्ष्म विषयों को समझने की योग्यता अर्जित कर लेता है। इसीलिये प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति में बचपन से ही इस विषय में छात्रों को जागरूक बना दिया जाता था। शिक्षा प्राप्त करने के बाद, दो-चार लोग आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए चरम-ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते थे, और सन्यासी बन जाते थे। और बाकी सभी अपने घर लौट जाते थे, और विवाह आदि करके घर-संसार बसाते थे। वे सदुपाय से अर्थोपार्जन करके जीवनयात्रा पूर्ण करते थे। इसका नाम था गृहस्त-आश्रम।
किन्तु भारतीय सभ्यता के मार्गदर्शक नेताओं या ऋषियों(गुरु ) ने गृहस्त आश्रम में भी भोगसर्वस्व (केवल इन्द्रिय विषय भोग में व्यस्त) होकर जीवन-यात्रा का निर्वाह करने को कभी अनुमोदित नहीं किया है। विवाहित जीवन में भी सभी विषयों में यथा संभव संयम का अभ्यास करने की चेष्टा करने, एवं उच्च आदर्श प्रति सर्वदा जागरूक दृष्टि रखने का परामर्श ही उन्होंने दिया है। उन दिनों जीवन का सुर इतने उच्च पैमाने से बंधा हुआ था, इसीलिये इतना घात-प्रतिघात सहने के बाद भी आज तक हमलोगों की सभ्यता अपना पृथक वैशिष्ट रखते हुए जीवित है।
युगों युगों से जनक, याज्ञवलक्य, राम, कृष्ण, बुद्ध, शंकर, रामानुज, रामकृष्ण, विवेकानन्द आदि जैसे देवतुल्य असंख्य महापुरुष, तथा गार्गी, मैत्रेयी, सीता, सावित्री, सारदादेवी, आदि देवतुल्य महीयसी नारियों ने योग्य मातापिता की गोद को प्रकाशित करते हुए अवतरित हुई हैं, और इस देश के जीवन को गौरवशाली बनया है। इसीलिये श्रीरामकृष्णदेव अपने गृहस्त भक्तों को परामर्श देते थे, कि दो-तीन बच्चे हो जाने के बाद पति-पत्नी को भाई-बहन के जैसा रहने की चेष्टा करनी चाहिए।
उसके बाद है वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम। पचास वर्ष की उम्र हो जाने के बाद बेटों के हाथ में घर-परिवार चलाने का भार सौंप कर, वहां से मन को खींच कर आत्म-चिन्तन में नियोजित रखना अच्छा है। इसी व्यवस्था के अनुसार ये दो आश्रम बनाये गये थे। जीवन-यापन की पद्धति इतनी सूनियन्त्रित और सूव्यवस्थित थी, इसीलिये गृहस्त आश्रम में रहते हुए भी, अनेकों लोग ब्रह्मज्ञान तक प्राप्त कर लेते थे।
ऋषि याज्ञवल्क्य ऐसे ही लोगों में से एक थे।
उनकी पत्नियाँ थीं, कात्यायनी और मैत्रेयी। कात्यायनी में बहुत से सद्गुण थे, किन्तु धर्म को लेकर वे बहुत दिमाग नहीं लगाती थीं। जिस प्रकार साधारण स्त्रियाँ करती हैं, वे भी घर-संसार का प्रबन्धन करना अधिक पसन्द करती थीं। किन्तु मैत्रेयी का मन भी याज्ञवल्क्य के जैसा ही आत्म-चिन्तन करने में निवेशित रहता था। वे घरेलू मुद्दों को लेकर ज्यादा माथापच्ची नहीं करती थीं।
तात्कालीन नियमों के अनुसार उम्र के अंतिम भाग में, याज्ञवल्क्य ने वानप्रस्थ आश्रम में जाने का निश्चय किया, और मैत्रेयी से बोले, " मैंने यह फैसला कर लिया है, कि घर-परिवार छोड़ कर चला जाऊंगा। मेरे पास जो भी धन-सम्पत्ति है, उसे मैं तुम दोनों में बराबर-बराबर बटवारा करके चला जाना चाहता हूँ; ताकि मेरे चले जाने के बाद इसको लेकर, तुम दोनों के बीच कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाय।
मैत्रेयी पतिव्रता स्त्री थीं, इसीलिये उनके मुख से ऐसी बात सुनकर मर्माहत हो गयीं। उन्होंने सोचा, मेरे ब्रह्मज्ञ पति निश्चिन्त होकर आत्म-चिन्तन में सर्वदा लीन रहने की इच्छा से घर छोड़ कर जाना चाह रहे हैं, फिर उनके बिना धन-सम्पत्ति लेकर मैं करुँगी क्या ? उन्होंने अपने पति से पूछा, " क्या धन-सम्पत्ति से मुझे अमृतत्व प्राप्त हो सकता है ? "
याज्ञवल्क्य ने कहा, " नहीं, क्या वैसा कभी हुआ है ? समस्त जगत का ऐश्वर्य भी प्राप्त करके भी मनुष्य कभी अमर नहीं हो सकता। जैसे साधारण लोग धन रहने से सुख भोगते हुए जीवन बिताते हैं, उसी प्रकार तुम भी सुख-सुविधा में जीवन बिता सकोगी। फिर उन्हीं के समान तुम्हें कई प्रकार के कष्टों को भी सहना पड़ेगा। "
यह सुन कर मैत्रेयी ने कहा, " तो फिर मुझे धन नहीं चाहिये। जिसको पा कर मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करुँगी ? जिससे मैं अमर हो सकूँ ऐसा कुछ मुझे दीजिये। "
याज्ञवल्क्य बोले, " मैत्रेयि, यूँ तो मैं पहले से भी तुम्हारे उपर प्रसन्न था, किन्तु अभी तुम्हारी श्रेय को पाने की मनोकामना को देखकर तुम्हारे उपर और अधिक प्रसन्न हो गया हूँ। " उसके बाद याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को बहुत सी ज्ञान के उपदेश दिए। उन्होंने समझाया था, " पति के लिये ही पति प्रिय नहीं होता, उसमें आत्मा हैं इसीलिये पति प्रिय होता है। उसी प्रकार पिता, पुत्र, धन, आदि जो कुछ भी प्रिय प्रतीत होते हैं, सबकुछ आत्मा के कारण ही प्रिय लगते हैं। "
यह आत्मा ही जगत की सार वस्तु है। यह सत्य (आत्मा) ही उसकी बुनियाद है। जो कुछ भी है, वह सब आत्मा से ही निकला है। फिर जिस प्रकार विभिन्न नाम-रूप वाली नदियाँ, समुद्र में मिलकर अपना नाम-रूप खो कर एकाकार हो जाती हैं; सारी नदियाँ अन्त में समुद्र बन जाती हैं, उसी प्रकार विघटन के समय भी जगत का सबकुछ आत्मा में मिलकर एक हो जाता है।
याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट रूप से समझा दिया कि, " आत्मा के साथ मिलकर, एकाकार हो जाने के बाद हमलोगों की पृथक चेतना जैसी कोई चीज बची नहीं रहती। "
मैत्रेयी को भय हो गया था, कि यदि वहाँ पहुँचकर हमलोगों का ' मैं '-बोध भी व्यक्तिगत पार्थक्य खो देता है, तो क्या हमलोग कहीं शून्य तो नहीं हो जाते हैं ? ब्रह्मज्ञान होने का अर्थ क्या कहीं शून्य हो जाना तो नहीं है ? "
याज्ञवल्क्य ने हँसते हुए उत्तर दिया था, " नहीं, वैसी कोई बात नहीं है, वहाँ पहुँच कर सबकुछ पूर्ण हो जाता है, ( मन को पूर्ण संतुष्टि प्राप्त हो जाती है, इतना तृप्त हो जाता है, कि अपनी पृथक सत्ता की याद भी खो देता
है.) उस समय हमलोग शुद्ध शाश्वत चैतन्य के साथ एक होकर, हमलोग सर्वत्र फ़ैल जाते हैं ( तब हमलोग अपने को किसी भी मनुष्य से पृथक नहीं समझते, पराय भी अपने बन जाते हैं।)।"
" हमलोग जिस समय अपने सच्चे स्वरुप को भूलकर, अहंकार, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि के साथ (जन्म से प्राप्त किसी नाम-रूप के साथ) अपने को एक समझने लगते हैं, तभी हमलोग अपने से भिन्न किसी दूसरे को देखने, सुनने, जानने, की चेष्टा में फँस जाते हैं।
यह भ्रम जिस क्षण टूट जाता है, जिस समय दूसरों के साथ रंचमात्र भी भेदबुद्धि नहीं रहती, उस समय कौन किसको देखेगा, कौन किसको सुनेगा, या किस माध्यम से सुनेगा ? "पुत्र, वित्त, सभी सांसारिक वस्तुओं से प्रिय होता है, हमलोगों का यह ' स्वरुप-बोध '! इस बोध के प्राप्त हो जाने के बाद, मनुष्य असीम आनन्द का उपभोग करता है।
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