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गुरुवार, 28 जून 2012

' देवासुर संग्राम ' [25] कहानियों में वेदान्त

' देवासुर संग्राम '
(' केनोपनिषद ' सामवेद के अन्तर्गत )
' जो बोले सो अभय, स्वामी विवेकानन्द की जय ! '
जिस वस्तु को हमलोग अपनी ' चेतना ' (Own Consciousness या अपने अस्तित्व का ज्ञान कहते हैं), वह ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। श्रीरामकृष्णदेव ने स्वयं अपनी आँखों से देखने के बाद कहा है, कि इस ब्रह्म को ही हमलोग ईश्वर कहते हैं, कृष्ण, काली, शिव, गौड, अल्ला आदि के नाम से बुलाते हैं। 
इस चैतन्य के सम्पर्क में आने से ही हमलोगों का पृथक ' मैं '-बोध जाग उठता है, मन चिन्तन करने लगता है, शरीर कार्य करने लगता है।  
इस चैतन्य से सम्बन्ध कट जाने के साथ ही साथ, सबकुछ ठंढा हो जाता है। शरीर के किसी भी अंग या मन बुद्धि आदि में कुछ भी कार्य करने की शक्ति नहीं रह जाती है, ठीक उसी प्रकार जैसे मूल-विद्युत् आधार के साथ सम्बंध (Connection) काट देने के बाद, किसी विशाल शहर में, किसी भी जगह विद्युत् के तार को छूने या पकड़ने से झटका ( Electric Shock) नहीं लगता, सुईच दबाने से भी बत्ती नहीं जलती, पंखा नहीं घूमता, या ट्राम-गाड़ी में चलने की शक्ति नहीं रहती।
किन्तु माया के प्रभाव से हमलोग भ्रम में पड़ जाते हैं, और ऐसा सोचने लगते हैं, कि हमलोग ही सबकुछ कर रहे हैं, हमारी ही इच्छा और हमारी ही शक्ति से सब कुछ हो रहा है। श्रीरामकृष्ण कहते थे, आग की गर्मी से जब पानी गर्म होकर उबलने लगता है, तो कड़ाही में पड़ा आलू-परवल उपर-नीचे होने लगता है; तो छोटे बच्चे सोचते हैं, आलू-परवल उछल रहे हैं। किन्तु क्या सचमुच उनमें उछलने-कूदने की शक्ति है ? जो लोग व्यस्क हो चुके हैं, वे जानते हैं कि नीचे जो आग जल रहा है उसी की शक्ति से ये सब उछल-कूद करते हैं।नीचे से 
यदि आग खीँच लिया जाय, तो सब ठण्ढे हो जायेंगे, सारा उछलना-कूदना थम जायेगा। यदि आलू-परवल ऐसा सोचने लगे, कि हमलोग अपनी इच्छा से या अपनी शक्ति से उछलते-कूदते हैं, तो उनका वैसा सोचना जितना गलत होगा;  हमलोगों का ऐसा सोचना भी उतना ही गलत है, कि  " मेरी इच्छा से, मेरी शक्ति से सब कार्य होता है।"
मनुष्य जिस समय ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उस समय उसका यह भ्रम टूट जाता है। उस समय वह देखता है, कि मेरे जीवन में या जगत में जो कुछ भी घटित हुआ है या हो रहा है, वह सब ईश्वर की इच्छा से, उनकी शक्ति से ही हुआ है। यह बोध ( स्मरण ) नहीं रहने के कारण ही अहँकार आ जाता है। इसी अहंकार के कारण, इसी दम्भ के कारण जगत में कितने अनर्थ घटित होते रहते हैं, इसकी कोई गिनती नहीं है।
इसीलिये जो लोग सामान्य लोगों की अपेक्षा अत्याधिक बड़े हो जाते हैं, उनके भीतर यदि अहंकार बहुत बढ़ जाय, तो वह बहुत खतरनाक हो जाता है। क्योंकि सामान्य लोग आँखें मूंद कर उन्हीं लोगों का अनुकरण करते हैं।
देवलोक में एक दिन ऐसा ही संकट उपस्थित हो गया था। देवता लोग सदैव जगत के कल्याण के लिये सचेष्ट रहते हैं। इसीलिये सज्जन लोग उन्हीं के आचरण को अपना आदर्श समझते हैं। इसी लिये जो व्यक्ति सदैव दूसरों के कल्याण की कामना करता है, हर किसी के प्रति मन में सद्भावना रखता है, उसके संबन्ध में हमलोग कहा करते हैं, कि " अमुक व्यक्ति का स्वभाव तो बिल्कुल देवता के जैसा है ! " किन्तु एक दिन वे देवता लोग ही अहंकार में फूल कर कुप्पा होने लगे !
ब्रह्म की इच्छा के अनुसार जगत के मंगल के लिये आसुरी शक्तियों का दमन होना प्रथम अनिवार्यता है; इसीलिये ब्रह्म की इच्छा और शक्ति के कारण देवताओं की हाथों असुर लोग पराजित हो गये थे। किन्तु इस विजय को पाकर देवता लोग अहंकार के नशे में उन्मत्त हो उठे। शेखी बघारने लगे, " हमलोगों की शक्ति भी कितनी असीम है, हमने इतने दुर्दान्त असुरों को प्रवृत्ति के युद्ध में भी पराजित कर दिया' है !"
स्वर्ग में देवराज इन्द्र की सभा में बैठकर, सभी देवता इसी जीत के घमण्ड में चूर होकर बढ़-चढ़ कर डींगें हांक  रहे थे। ब्रह्म यह सब जान गये थे, इसीलिये सबों के कल्याण के लिये उनलोगों की इस भ्रांत धारणा और अहँकार तोड़ना बहुत जरुरी समझे।
ब्रह्म के स्वरुप को किसी भी इन्द्रिय की सहायता से नहीं जाना जा सकता है। किसी अन्य इन्द्रियग्राह्य पदार्थों का ज्ञान होने से, हमलोग जैसा समझते हैं; ब्रह्मज्ञान के बारे में वैसा अपने मुख से कभी नहीं कहा जा सकता कि मैं ब्रह्म को जनता हूँ, या मुझे ब्रह्मज्ञान हो चूका है ! क्योंकि किसी भी वस्तु को जानने के लिये, जिसको जान रहा हूँ, उससे अपना एक पृथक अस्तित्व रखना आवश्यक होता है; जिसके द्वारा यह बोध जाग्रत होता है कि " मैं इस वस्तु को जान रहा हूँ। "
किन्तु ब्रह्मज्ञान में ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई दूसरी वस्तु रहती ही नहीं है, ब्रह्मज्ञान होने का अर्थ होता है- ब्रह्म के साथ मिल कर एक और अभिन्न बन जाना। वहाँ कोई जानने वाला या ज्ञाता, रहता ही नहीं है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सबकुछ मिलकर एक हो जाते हैं !
इसीलिये देवगणों को दिखाई देने के लिये ब्रह्म ने एक ज्योतिर्मय रूप धारण कर लिया, और उनके चर्म-चक्षुओं के सामने आविर्भूत हो गये ! देवगण इन्द्र-सभा में जहाँ बैठे हुए थे; वहाँ से थोड़ी दूर पर उस ज्योति के आविर्भूत होते ही सभी देवताओं की दृष्टि उस ओर घूम गयी। किन्तु वे कौन हैं, कोई भी देवता यह समझ नहीं सके। 
तब देवराज इन्द्र ने अग्नि की ओर मुखातिब होकर कहा, " अग्नि, जरा तुम पता लगाकर आओ तो,
 ये कौन हैं ? देखने से तो लगता है, ये हमलोगों के कोई पूज्य-पाद (आदरणीय ) ही होंगे। " 
 अग्निदेव
अग्नि जब वहाँ पहुँचे तो ज्योति-रूपी ब्रह्म ने पूछा, " तुम कौन हो ? "
अग्निदेव बोले, " आप मुझे नहीं जानते ?  मैं अग्नि हूँ ! "
ब्रह्म ने प्रश्न किया, " तुममें क्या शक्ति है ? "
बड़े दम्भ के साथ अग्नि ने उत्तर दिया, " विश्व में जो कुछ भी है, मैं वह सबकुछ जला कर राख कर
सकता हूँ ! "
उन्होंने ने कहा, " ऐसी बात है ! तो ठीक है, बेटे जरा तुम सुखी हुई घास के इस तिनके को जलाकर दिखाओ तो, हम भी जाने। " यह कहकर एक सूखे हुए तिनके को उसके सामने फेंक दिए।
अग्नि अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दिए, फिर भी उस छोटे से तिनके को जला नहीं सके। उनको अपनी शक्ति का जो घमण्ड था वह चूर हो गया। सोचने लगे, " कितने आश्चर्य की बात है ! अपनी इच्छा से, अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी मैं इस छोटे से तिनके तक को जला नहीं सका ? इनके सामने मुझे अपना सिर नीचे करना पड़ गया ! " लज्जा से अपना चेहरा नीचे करके देवताओं के पास वापस लौटकर अग्नि ने कहा, " वे कौन हैं, यह मैं जान नहीं सका। "
उसके बाद वायुदेव उठे, ब्रह्म के प्रश्न करने पर गर्व छाती फूला करके बोले, " मैं पवनदेव हूँ ! इस संसार में जो कुछ भी है, इच्छा करने से मैं सबकुछ को उड़ा कर अपने साथ ले जा सकता हूँ ! " 
 
ज्योति-रूपी ब्रह्म पहले की ही तरह उनके सामने घास एक तिनका फेंक कर, उस तिनके को उड़ा कर दिखाने के लिये बोले। पवनदेव पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को उड़ाने नहीं सके। और वापस लौटकर नतमस्तक होते हुए देव-सभा में बोले, " मैं भी नहीं जान सका, कि वे कौन हैं । "
देवता लोग समझ गये कि जब अग्नि और वायु भी पता नहीं लगा सके कि वे कौन हैं, तो फिर अब इन्द्र के सिवा और किसी में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उनको जान पाए। इसीलिये सभी देवताओं ने मिलकर, उनके पास जाने के लिये इन्द्र से अनुरोध किया।
 
इन्द्र गये, किन्तु उनके जाते ही वह ज्योति अन्तर्धान हो गयी। किन्तु इन्द्र अग्नि और वायु के समान, वे कौन थे इसका पता लगाये बिना वापस नहीं लौटे। वे भक्तिभाव के साथ उस ज्योति के पुनः आविर्भूत होने की  प्रतीक्षा में वहीँ आसन जमाकर बैठ गये।
तब ब्रह्विद्या, हिमालय की कन्या उमा का रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हो गयीं ! इन्द्र ने उनसे पूछा, " माँ, अभी जो यहाँ आये थे, वे कौन थे ? "
 
 उमा ने कहा, " बेटे, वे ही ब्रह्म थे ! उन्हीं की इच्छा से और उन्हीं की शक्ति से शक्तिमान होकर तुम लोगों ने असुरों को पराजित कर दिया था; किन्तु इसके लिए तुम अपनी ही पीठ थपथपा रहे थे, अपने को बड़ा सूरवीर समझ रहे थे। "
[ " जो अपना नाम-यश चाहते हैं वे भ्रम में है। वे यह भूल जाते है कि एकमात्र ईश्वर की ही इच्छा से सब कुछ हो रहा है, वही सब का नियामक है। ज्ञानवान व्यक्ति कहता है,' प्रभो, तुम तुम '; मूढ़ अज्ञानी ही ' मैं,मैं ' करता है।" " ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं, वे यन्त्री हैं, मैं यन्त्र हूँ- यह विश्वास यदि किसी में आ जाये तब तो वह जीवन्मुक्त ही हो गया। ' हे प्रभो, तुम्हारा कर्म तुम्हीं करते हो, पर लोग कहते हैं मैं करता हूँ।' ॐ तत सत]
उमा के उपदेश को सुनकर इन्द्र अपनी गलती पकड़ सके, और उनका अहँकार नष्ट हो गया।
देवताओं के बीच इन्द्र, वायू और अग्नि ब्रह्म के ज्योतिर्मय रूप को देख सके थे, उनके साथ बातचीत किये थे, इसीलिये देवगणों में उनको प्रधान माना जाता है। और चूँकि ब्रह्विद्या-रूपिणी उमा हैमवती की कृपा से सबसे पहले ब्रह्म के रूप में पहचान सके थे, इसीलिये उनको देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

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