सोमवार, 11 जून 2012

" कृष्ण-अर्जुन " [5]कहानियों में वेदान्त

" कृष्ण-अर्जुन "
प्राचीन काल में भारतवर्ष के उपर विचित्र वीर्य नामक एक राजा राज करते थे। उनके तीन पुत्र थे जिनका नाम -धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर था। धृतराष्ट्र बड़े थे, किन्तु जन्मान्ध थे इसीलिए उनको राज्य न देकर पाण्डु को रजा बना दिया गया। धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि एक सौ लड़के थे। पांडू के पाँच पुत्र थे जिनका नाम था- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकूल और सहदेव। जब ये राजकुमार छोटे ही थे कि पांडू का देहान्त हो गया था; इसीलिए, धृतराष्ट्र की देख-रेख में समस्त राजकुमारों ने एक ही साथ युद्धविद्या एवं शिक्षा आदि ग्रहण करते हुए बड़े हुए थे।
न्यायतः भविष्य में युधिष्ठिर आदि भाइयों को ही मिलने वाला था, यह जानते हुए दुर्योधन प्रारंभ से ही उन पाचों भाइयों को मरवा देने का षड्यन्त्र करने में लगे हुए थे।
उनलोगों को बहुत प्रकार के अनुचित तरीकों से कष्ट पहुँचाने की चेष्टा करते रहते थे। यह सब देख-सुन कर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों को आधा आधा राज्य बाँट देते हैं। किन्तु दुर्योधन को यह भी मंजूर नहीं था। वह पूरा राज्य ही पाना चाहता था। दुर्योधन पांसे के खेल में धोखे से युधिष्ठिर को हर कर द्रौपदी सहित पांचो भाइयों को वन में जाने को बाध्य कर देता है। भरी हुई राज्य सभा में सभी के सामने द्रौपदी को बुरी तरह से अपमानित करता है। दुर्योधन के सभी अत्याचारों को चुप चाप सह लेने के बाद जंगल से वापस लौटने पर जब युधिष्ठिर अपना राज्य पुनः वापस लौटा देने का अनुरोध करते हैं, तो दुर्योधन उनके राज्य को वापस लौटने के लिए तैयार नहीं होता। युधिष्ठिर जब सारी शत्रुता को समाप्त करने के उद्देश्य से अन्त में पाँच भाइयों को क्षत्रिय जनोचित भरण-पोषण के लिए केवल पाँच गाँव लेकर किसी प्रकार जीवन निर्वाह करने को भी तैयार हो जाते हैं, तो बिना युद्ध किये दुर्योधन उतना भी देने को तैयार नहीं होता। जब शान्ति से न्याय पाने का कोई उपाय नहीं बचता है, तब अन्त में दोनों पक्ष में युद्ध होना अनिवार्य हो जाता है। कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध होता है।
युद्ध जब आरम्भ होने को था, तब दोनों पक्ष की सेनाएं और उनके सेना-नायक पंक्तिबद्ध होकर दोनो ओर खड़े हो जाते हैं। फिर दोनों पक्ष के राजा और सेनापति भी एक दूसरे के सामने आकर अपनी अपनी जगह में खड़े हो जाते हैं। सब कुछ तैयार है, बस अब थोड़ी ही देर में युद्ध शुरू होने को है। ऐसे समय में युधिष्ठिर पक्ष के महावीर अर्जुन अपने सखा और सारथि श्रीकृष्ण को कहते हैं-" सखा, तुम मेरे रथ को दोनों दलों की सेना के बीच में ले चलो, मैं यह देखना चाहता हूँ कि युद्ध करने के लिए दोनों पक्ष की ओर से कौन कौन से योद्धा एकत्र हुए हैं? " श्रीकृष्ण उनकी इच्छा के अनुसार रथ को बीच में लाकर दोनों दलों के सेनानियों का परिचय देने लगते हैं।
मैदान में युद्ध करने आये अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को देख-सुन कर अर्जुन के हाथ-पैर निष्क्रिय हो गये। शरीर कांपने लगा, उसके हाथों से छूट कर धनुष नीचे गिर गया। नेत्रों में अश्रु भर कर व्याकुलता के साथ कृष्ण की ओर देख कर उन्होंने कहा- " सखा, मैं युद्ध नहीं करूँगा। "
यह क्या बात हुई ? इतना सब कुछ हो जाने के बाद अन्तिम क्षणों में अर्जुन यह क्या कह रहे हैं ? या उन्होंने ऐसा कहा ही क्यों? क्योंकि श्रीकृष्ण तो जानते थे कि अर्जुन डर जाने वाले व्यक्ति नहीं हैं, वे तो महावीर, महापराक्रमी, महान साहसी धनुर्धर हैं। इसके पहले भी अनेकों युद्ध में उन्होंने अपनी असीम शक्ति और साहस का परिचय वे दे चुके हैं; द्रौपदी के स्वयम्बर के समय का युद्ध, गंधर्व लोगो के साथ युद्ध, बिराटनगर के राजा की गौओं का हरण करने वालों के साथ युद्ध, प्रत्येक युद्ध में उन्होंने अपनी असीम वीरता का परिचय दिया है। गउओं के हरण के समय तो अर्जुन ने अकेले ही विपक्ष के समस्त वीरों को पराजित कर के राजा बिराट की समस्त गौओं को छीन कर वापस ले आये थे। इसके अतिरिक्त, गुरु द्रोणाचार्य, देवराज इन्द्र, एवं देवादिदेव महादेव ने उनको जितने सारे अस्त्र दिए हैं, कि ईच्छा होने से वे क्षण भर में सम्पूर्ण शत्रु दल को एक साथ ध्वंश कर सकते हैं। इसीलिए डरने की बात तो हो ही नहीं सकती।
फिर क्या बात है ? उनके मन की शक्ति भी तो कम नहीं है ! अपार शक्ति के अधिकारी होने के बावजूद दुर्योधन के द्वारा इतना अपमानित होने, इतनी लांछना आदि सबकुछ - केवल अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का मुख देख कर तथा अपने कर्तव्यबोध का स्मरण करके; चुपचाप सहन कर लिए थे।
अर्जुन ने कहा, " सखा देखो, ये द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, दुर्योधन आदि मेरे बड़े चाचा के लड़के हैं मेरे चचेरे भाई हैं, बचपन में अपने पितामह भीष्म की पीठ और गोदी में खेलकूद करके मैं बड़ा हुआ हूँ। और येही लोग यहाँ विपक्ष की ओर से युद्ध करने आये हैं। हमलोगों के उपर इनलोगों ने चाहे जितने भी अत्याचार क्यों न किये हों, किन्तु इनकी हत्या करके, इनके खून में सने अन्न खाकर राज्यभोग करने की अपेक्षा मैं भिक्षा माँग कर खाने को उत्तम समझता हूँ। "
" इसके अतरिक्त, मेरे मन की बात तो तुम अच्छी तरह से जानते हो। इस राज्य की तो बात ही क्या, इन सब को मार कर, मैं स्वर्ग का राज्य भी लेना नहीं चाहूँगा। तुम तो यह बात जानते हो, कि मैं अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता हूँ। मैं केवल श्रेयः चाहता हूँ, मैं तो केवल शाश्वत ( Eternal -या अनादि, अनन्त, अपरिवर्तनशील, अविनाशी, नित्य, सनातन ) आनन्द चाहता हूँ। इसीलिए मैं यह युद्ध नहीं करूँगा। "  
अर्जुन की बात सुन कर लगता है, मनो वे कितनी बड़ी बात कह रहे हैं ! ऐसा लगता है, इससे बढ़ कर, भला धर्म की बात, मनुष्यत्व की बात और क्या हो सकती है ? किन्तु यह सब सुनकर श्रीकृष्ण अर्जुन की पीठ नहीं थपथपाते, उल्टे उसको फटकारते हुए कहते हैं, " अर्जुन, तुम्हारे शब्दों से कायरता ही प्रकट हो रही है। तुम्हारे व्यव्हार को देखकर ऐसा नहीं प्रतीत हो रहा है, कि तुम्हारे भीतर आर्य सभ्यता अब भी बची हुई है। युद्ध से मुँह मोड़ लेना तुम्हारे लिए धर्माचरण नहीं कहा जा सकता, बल्कि उसको मन की कमजोरी के सामने सिर झुका देना ही कहा जायेगा। हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को दूर हटा कर, एक वीर की तरह सिर उठाकर खड़े हो जाओ! " 
अर्जुन ने कहा- " देखो सखा, इस क्लेशकर और नाजुक परिस्थिति में पड़ कर मेरी बुद्धि गड़बड़ा गयी है, मैं स्वयम अभी सही निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। तुम क्या मुझे युद्ध में अपने गुरु, भाई, पितामह आदि की हत्या करने को कहते हो ?  मैं एक जटिल समस्या में उलझ गया हूँ। इस समय मेरे लिए क्या करना उचित है, और क्या न करना उचित है- मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। तुम मुझे अच्छी तरह से समझा कर बता दो इस समय मेरा कर्तव्य क्या है।"
 
तब श्रीकृष्ण अर्जुन को कई प्रकार से, यह बात समझा देते हैं कि अर्जुन एक क्षत्रिय राजकुमार है, हजारों हजार लोगों की रक्षा और पालन करने का दायित्व उसीके कन्धों पर है, इस समय राज्य की ओर से जो अन्याय हो रहा है, उसका प्रतिकार वह नहीं करेगा, तो फिर कौन करेगा ? इतना ही नहीं, इस कर्तव्य का पालन करने के लिए यदि आवश्यक हुआ तो कठोरता के साथ पितामह आदि गुरुजनों के साथ भी युद्ध करना पड़ सकता है। दूसरों के कल्याण के लिए निर्लिप्त होकर, आत्मस्थ होकर, उपरी दृष्टि से अति गर्हित कर्म जैसे प्रतीत होने वाले इन सब कार्यों को करने से भी मनुष्य अधर्म नहीं करता; बल्कि सही मनोभाव लेकर इन कर्मों को करने में सक्षम होने से ही, मनुष्य आत्मज्ञान ( अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान, आत्मसाक्षात्कार या धर्मलाभ ) तक प्राप्त करके धन्य हो जाता है।
इस समय श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रारम्भ में ही वेदान्त के अद्वैत-ज्ञान पर चर्चा करके समझा दिए थे कि साधारण अवस्था में हमलोग जरुर ऐसा सोचते हैं कि मैंने अमुक को मार डाला है, या लगता है अमुक हाथों मैं मारा गया हूँ, किन्तु वास्तव में वह सत्य नहीं है। जिस प्रकार प्राकृतिक नियमों के अनुसार प्रकृति में आँधी आती है या वर्षा होती है, उसी प्रकार मनुष्य का मन, बुद्धि आदि भी प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही  परिचालित होकर उससे सारे कर्म करवा लेते हैं। 
  हमलोगों का ' मैं '-बोध इस शरीर, मन, बुद्धि के पिंजड़े में आबद्ध रहता है, इसीलिए हमलोग ऐसा समझते हैं कि हमलोग स्वयं ही यह सब कर रहे हैं। बादल यदि यह सोचे कि मैं अपनी इच्छा से इधर-उधर घूमता रहता हूँ, जल बरसाता हूँ, तो उसका ऐसा सोचना जैसे हास्यास्पद प्रतीत होगा, उसी प्रकार जिन लोगों ने ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनके लिए हमलोगों का यह ' मैं कर रहा हूँ ' - कहना ठीक उतना ही हास्यास्पद प्रतीत होता है। इसके अलावा ज्ञान प्राप्त कर लेने के पहले वास्तविक मनुष्य ( जीव ) मरता नहीं है। मृत्यु के समय वह सूक्ष्म शरीर लेकर देह से बाहर निकल जाता है। फिर वह एक नया देह धारण करके जन्म लेता है- जैसे फटा पुराना कपड़ा फेंक कर हमलोग नया कपड़ा पहन लेते हैं।
इसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझा दिया कि विभिन्न मनुष्यों की विचारधारा एवं रूचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, इसीलिए इस सत्य में पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार धर्मपथ उत्पन्न हुए हैं। ये सभी मार्ग अलग अलग प्रतीत होने पर भी, सभी मार्गों का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है। शरीर-मन के पिंजरे में आबद्ध ' मैं '-बोध की सीमा को, क्रमशः बढ़ाते हुए, और छोटी छोटी संकीर्णताओं (लींग, जाती, भाषा, धर्म आदि के आधार पर ' मैं और मेरा ' मानने की संकीर्णता ) को क्रमशः दूर हटाकर सभी पथ अन्त में मनुष्य को वेदान्तोक्त सर्वव्यापी चैतन्य में पहुंचा देते हैं। 
इन चार प्रमुख पथों में एक है- विश्व-ब्रह्माण्ड के इस चरम सत्य को हमलोगों के जैसा ही एक देह-मन विशिष्ट (या मनुष्य की ही आकृति वाला ) एक व्यक्ति मान कर उससे प्रेम करना सीखना। यह जान कर कि इस जगत में सबकुछ उनकी (सगुण परम सत्य की ) ईच्छा से ही हो रहा है, उनका मुख देखते हुए सबकुछ करते जाना। प्रेम करना क्या है, इस बात से कमोबेश हमसभी लोग परिचित हैं। इसीलिए इस पथ पर चलना सबों के लिए आसान है। इस पथ को भक्तिमार्ग कहा जाता है। प्रेमास्पद (ठाकुर) को प्रेम करते करते,
 प्रेमी (भक्त) का प्रेम जितना गहरा होता जाता है, मनुष्य उतना ही ज्यादा स्वयं को भूलता जाता है। और अन्त में वह अपने को प्रेमास्पद में विलीन कर देता है।
अन्य एक पथ है- विचार करते हुए, गहराई से चिन्तन करके इस बात की स्पष्ट धारणा बनाने की चेष्टा करना कि मैं शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों से बिलकुल भिन्न - नित्यमुक्त, शाश्वत चैतन्य सत्ता हूँ, मेरा  जन्म-मृत्यू  कुछ नहीं है,  मैं सबों के भीतर विद्यमान हूँ। इसको ज्ञान का मार्ग कहते हैं।जो लोग अधिक चिन्तनशील होते हैं, और प्रेम आदि कोमल मनोवृत्तियों को कमजोरी समझते हैं, उनको इस पथ पर चलने में बड़ी आसानी होती है। इसीप्रकार चलते चलते एक दिन ज्ञान का दरवाजा खुल जाता है।
और एक मार्ग का नाम राजयोग है। जिन लोगों के मन की शक्ति जन्म से ही बहुत अधिक होती है, जो इच्छा मात्र  से अपने मन को बाह्य विषयों से खीँच कर चुपचाप बैठाय रख सकते हैं, जिनमें अटूट ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति रहती है, यह मार्ग वैसे व्यक्तियों के लिए बहुत अनुकूल है। इसमें घन्टों एक ही स्थान पर चुपचाप बैठ कर देह-मन स्थिर करने की चेष्टा करनी पड़ती है। मन को किसी एक ही विषय पर स्थिर करके, बाद में उसको बिल्कुल विचारशून्य करने की चेष्टा करनी पड़ती है। हमलोगों का शरीर मानों एक बर्तन है, और मानों जल है। मन में हर समय विचार तरंगें उठती रहती हैं, इसीलिए उसमें हमलोगों का स्वरुप ठीक तरह से प्रतिबिम्बित नहीं हो पाता है। बर्तन का जल स्थिर होते ही, जिस प्रकार उसमें सूर्य के स्पष्ट प्रतिबिम्ब को देखा जा सकता है, उसी प्रकार जैसे ही हमारा मन विचार शून्य हो जाता है, वैसे ही हमारा सच्चा स्वरूप उसमें दिखलाई देने लगता है। चेष्टा करते करते, मनुष्य को इस मार्ग से सत्य की प्राप्ति, या ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।
और एक पथ है, निष्काम कर्म का पथ। फल की इच्छा छोड़ कर, सुख-दुःख आदि से मन को निर्लिप्त रखते हुए, केवल कर्तव्यबोध से कर्म करने की चेष्टा करते करते ही मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। कर्म करते समय यह मनोभाव रखना चाहिए कि मैं कर्ता नहीं हूँ, प्रकृति के गुणों के द्वारा ही सभी कार्य हो रहे हैं, या फिर यह मनोभाव रखना चाहिए कि, मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह  ईश्वर (ठाकुर) को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा हूँ, जैसी उनकी इच्छा है वे मुझसे वैसा करवा ले रहे हैं। इन दोनों भावों में से किसी एक भाव का अवलम्बन करके इस पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है। किसी भगवान या शक्ति में विश्वासी हुए बिना भी, अपने  लिए कुछ भी पाने की इच्छा किये बिना केवल दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करते करते भी मनुष्य इस  मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। इस प्रकार निष्काम कर्म करते करते एकदिन मनुष्य के ससीम ' मैं '-बोध की सीमा टूट  जाती है, और वह आत्मस्वरूप (अपने यथार्थ स्वरुप) में प्रतिष्ठित हो जाता है।
साधारण तौर पर यही चार प्रमुख धर्म-मार्ग (अपने सच्चे स्वरुप को जानने का मार्ग ) हैं।
इसी प्रकार से और भी बहुत सी ज्ञान की बातें जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनायीं तब कहीं जाकर अर्जुन की समझ में यह बात आ गयी कि यूद्ध उनके धर्म-मार्ग का बाधक नहीं होगा, बल्कि इसके द्वारा वे आत्मज्ञान के मार्ग पर अग्रसर हो जायेंगे। तब वे बड़े उत्साह के साथ यूद्ध करने को तैयार हो गये, और सिंहविक्रम के साथ खड़े होकर अपना धनुष उठाकर जोरदार टंकार दिए।
और श्रीकृष्ण से बोले, " हे सखा, जिस मोह और सन्देह ने मेरे मन-बुद्धि को ढँक दिया था, तुम्हारी कृपा से अब वह दूर हो चुकी है, मुझे अपने सच्चे स्वरूप की स्मृति हो गयी है, अब तुम जो कहोगे मैं वही करूँगा। "
 
हमलोग कई बार तथाकथित बुद्धिवादी समाजसुधारकों के बहकावे में आकर सोचने लगते हैं, कि शायद इतना अधिक धर्म धर्म करते रहने से ही हमलोगों के देश का इतना पतन हो गया है, और सम्पूर्ण राष्ट्र ही आज शक्तिहीन, कर्मविमुख कायरों के दल में परिणत हो गया है। यह बात कितनी गलत और तथ्यहीन है, इस आख्यान को पढने के बाद इसे कह कर समझाने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
धर्म का वास्तविक अर्थ नहीं समझने, तथा अपने जीवन में धर्म को सही रूप से रूपायित नहीं कर सकने के कारण, और (राजनीतिज्ञों द्वारा ) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए धर्म का दुरूपयोग करने के कारण अवश्य ये सभी दोष समाज में दिखने लगते हैं।
 किन्तु सही ढंग से यदि वेदान्त की चर्चा की जाये, तो भेंड़ का बच्चा भी सिंह-शावक में परिणत हो जाता है; और पशु मानव भी देव मानव में रूपान्तरित हो जाता है। या कोई साधारण मनुष्य देवता से भी बड़ा बन जाता है। निष्काम कर्म के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने वालों व्यक्तियों में उदाहरणस्वरुप राजा जनक का नाम अक्सर सुना जाता है। राजा  जनक की कहानी सुनाने के बाद हमलोग इस प्रसंग ( घर-गृहस्ती में रहते हुए भी सत्य को जाना जा सकता है ) को समाप्त करेंगे। 

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