जनक और शुकदेव
एक गाँव के बाद दूसरे गाँव को पार करते हुए एक किशोर पैदल ही मिथिला की ओर चला जा रहा था। उस तरुण का नाम था-शुकदेव। वे व्यासदेव के पुत्र थे। व्यासदेव महाज्ञानी थे, उनहोंने ही ब्रह्मसूत्र नामक ग्रन्थ की रचना की है। उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र को वेदान्त-दर्शन का प्रमाणिक ग्रन्थ कहा जाता है। सत्य द्रष्टा ऋषियों ने जिस ज्ञान को अर्जित किया था, उनकी चर्चा सभी उपनिषदों में की गयी है। उन्हीं को एक ग्रन्थ में संकलित और संक्षेप में एकत्रित करके ब्रह्मसूत्र में रखा गया है।
बालक होने पर भी शुकदेव को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो चुका था। व्यासदेव ने उसको अपने पास रख कर ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया है, और शुकदेव ने उसे अपने अनुभव से जान लिया है, उनको उसका प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया है। व्यासदेव ने उनको यह बात बता दी है। फिर भी सुकदेव को जनक के दरबार में जाने को बोले हैं। क्योंकि राजा होने के बाद भी जनक एक ब्रह्मज्ञ व्यक्ति हैं, इसीलिए उनके मुख से और एक बार वह बात सुनने के लिए व्यासदेव उनको जनक के पास भेजे हैं।
क्योंकि सत्यज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) प्राप्त हो जाने के बाद, शास्त्रवाक्य के साथ उसे मिला कर देखना जरुरी होता है, किसी ज्ञानी गुरु के मुख से वह सब सुनना पड़ता है। वैसा कर लेने के बाद फिर किसी संशय के लिए जगह नहीं रह जाता। यह सब करना इसीलिए जरुरी हो जाता है कि मैंने अभी अभी स्वयं जिस सत्य की उपलब्धी की है, मेरे पहले बहुत से सत्य द्रष्टा ने भी उस सत्य को जाना है; उन ऋषियों की बातें ही शास्त्रों में लिपिबद्ध हैं।उसके साथ मेरी उपलब्धी मिलती है या नहीं, इसे एक बार जाँच लेना बहुत जरुरी हो जाता है। इसके अलावे भी जो ब्रह्मज्ञानी अभी शरीर धारण किये हुए हैं, उनकी उपलब्धी के साथ भी अपनी उपलब्धी को मिला कर देख लेता हूँ। क्योंकि मैंने जो देखा है, वह मेरे मन की गल्ती या मस्तिष्क की विकृति नहीं है, जिसका मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, वह सब सत्य है।
इसीलिए अपने पिता का आदेश मानकर शुकदेव भी राजा जनक के पास जा रहे हैं। जनक को विदेह भी कहा जाता है। हमलोग साधारण अवस्था में शरीर के बिना अपने अस्तित्व की बात सोच भी नहीं सकते हैं। किन्तु जनक हर समय अपने को शरीर से भिन्न एक आनन्दमय सत्ता के रूप में अनुभव किया करते थे। इसीलिए राजा जनक का और एक उपनाम था- ' विदेह ' ! किसी राजा के समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए भी, बिना किसी त्रुटी के राज्यकार्य करते हुए भी हर समय इन सबसे अनासक्त बने रहने में सक्षम थे। जैसे श्रीरामकृष्ण उदाहरण देते हुए कहते थे, ' कीचड़ में रहने वाली मछली (पाँकाल मछली) को देखो, वह रात-दिन कीचड़ में ही पड़ी रहती है, किन्तु उसके शरीर में एक बिन्दू कीचड़ भी नहीं लगा रहता, हर समय उसका शरीर चक-चक करता रहता है।'
जनक ने भी सुन रखा था कि व्यासदेव ने अपने पुत्र शुकदेव को उनके पास भेजा है। इसीलिए पहले से ही उन्होंने उनके लिए आवश्यक समस्त प्रबंध कर रखा था।
शुकदेव मिथिला नगरी में प्रविष्ट किये और राजा जनक के महल के मुख्य-द्वार पर जा पहुँचे। किन्तु द्वारपालों ने उनकी ओर एक बार नजर उठा कर भी नहीं देखा। हाँ उनके बैठने के लिए एक आसन लाकर जरुर रख दिया, उसके बाद उनके प्रति बिल्कुल उदासीन हो गये। तीन दिनों तक शुकदेव उसी स्थान पर बैठे रहे, किन्तु किसीने उनसे इतना भी नहीं पूछा कि वे कहाँ से आये हैं, उनके आने का उद्देश्य क्या है, या उनका परिचय क्या है ? वे तो महामुनि व्यासदेव के पुत्र थे, उनके पिता का नाम सम्पूर्ण देश में विख्यात था, और सभी उनके प्रति श्रद्धा का भाव रखते थे। इसके अतिरिक्त वे स्वयं भी महामान्य थे। उनको तो बहुत आदर के साथ महल के अन्दर ले जाना चाहिए था। इसके बावजूद निम्न दर्जे के क्रमचारी तक उनके प्रति कोई आदर का भाव नहीं दिखा रहे थे, उनके उपर किसी ने थोड़ा ध्यान भी नहीं दिया।
उसके बाद अचानक एक समय में राजा के प्रधान मंत्री अन्य विशिष्ट मंत्रियों के साथ वहाँ पहुँचे, और प्रचूर मान-सम्मान दिखाते हुए, आदर के साथ एक अत्यन्त सुन्दर ढंग से सजे-धजे कक्ष में उनको लिवा गये। वह कक्ष बहुत सारे मूल्यवान फर्नीचर के द्वारा बड़े करीने से सुसज्जित था। वहाँ पर उको आठ दिनों तक बड़े जतन से सेवा-शुश्रूषा का भाव दिखाते हुए रखा गया। स्नान के लिए सुगन्धित जल की व्यवस्था थी, पहनने के लिए बहुत कीमती वस्त्र दिए गये।
आठ दिनों तक इस प्रकार के राजाओं जैसी विलासिता के बीच रखने के बाद शुकदेव को जनक के पास ले जाया गया। किन्तु यह देखा गया कि पहले तीन दिनों की उपेक्षा या बाद के आठ दिनों की अभ्यर्थना में से किसी किसी भी परिस्थिति में रहते समय शुकदेव के स्थिर और प्रशांत मुखमंडल की आभा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ हुआ था। वे अपनी उपेक्षा से थोड़ा भी उदास या दुखी नहीं हुए थे, और न तो प्रचुर मन-सम्मान और विलासिता के बीच रहते समय वे बिन्दु मात्र उल्लसित या गर्वित ही हुए थे। हर परिस्थिति में वे इन दोनों मान-अपमान, से परे एक प्रेमपारायण प्रसन्नता में लीन दिखाई देते थे।
जनक अपने राज-सिन्घासन पर बैठे हुए थे। उनके सामने सभागृह में नृत्य-संगीत चल रहा था। वहीँ पर शुकदेव को ले जाया गया। जनक ने उनके हाथ में दूध का एक कटोरा पकड़ा दिया, जो लबालब भरा हुआ था। उस कटोरा को देकर जनक ने कहा- " इस कटोरे को हाथ पर रख कर इस सभागृह का सात बार चक्कर लगा आओ, किन्तु ध्यान रखना कि एक बिंदु दूध भी बर्तन से छलकना नहीं चाहिए। "
उस सभागृह में सुन्दर सुन्दर युवतियां गीतों के ताल पर नृत्य कर रही थीं, और भी कई प्रकार के मनोरंजक कार्यक्रम चल रहे थे। तात्पर्य यह कि वहाँ पर चित्त को विक्षिप्त करवा देने के ढेरों कारण मौजूद थे। किन्तु शुकदेव का मन उन सब की ओर क्षण भर के किये भी आकृष्ट नहीं हुआ, सम्पूर्ण मन लबालब दूध से भरे कटोरे पर ही एकाग्र रहा। उनका अपने मन के उपर इतना अधिकार था, कि उनकी इच्छा के विरुद्ध अन्य किसी विषय की ओर जाने में वह समर्थ ही नहीं था। जनक के कहे अनुसार कटोरा हाथ पर लेकर वे सभागृह के 7 चक्कर पूरा करके, वापस लौट आये; एक बूंद दूध भी उस कटोरे के बाहर छलक नहीं पाया था।
यह देख कर जनक बड़े प्रसन्न हुए, और बोले- " पुत्र, तुमने स्वयं जो समझा है, तुम्हारे पिता ने तुम्हें जैसा कहा है, मैं भी उसी बात को पुनः कहता हूँ, ' तुम्हें ब्रह्म ज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) हो चूका है ! ' तुम्हारे लिए जानने को अब कुछ बचा नहीं है, अपने घर वापस लौट जाओ। "
जिन लोगों ने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनमें से प्रत्येक के भीतर ऐसी ही निर्लिप्तता आ जाती है। राजा जनक की निर्लिप्तता के अनेकों उदाहरण हैं। जो भी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हों, चाहे वे गृहस्थ हों या संन्यासी; दोनों को इसी प्रकार की निर्लिप्तता की साधना करनी होती है। अनासक्त रहेने या निर्लिप्त रहने का अर्थ, कर्म के प्रति उदासीनता नहीं है। जिनका उद्देश्य आत्ज्ञान प्राप्त करना हो, उन्हें कैसा मनोभाव रखते हुए कर्म करना होगा, इसके बारे में श्रीकृष्ण ने गीता में बड़े सुन्दर ढंग से समझा दिया है।
धैर्य और उत्साह के साथ कर्म करना होता है, किसी प्रकार या जैसे तैसे जवाबदेही निपटा देने का भाव मन में लेकर कर्म करने से नहीं होगा। इस प्रकार समस्त जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेकर कर्म करने के बाद, चाहे सफलता प्राप्त हो या असफलता, जो भी परिणाम क्यों न हो, उसमें अति-उत्फुल्ल या विषादग्रस्त नहीं होना होगा, दोनों परिस्थितियों में मन को शांत रखना होगा, कर्मफल में अनासक्त होना होगा। श्रीरामकृष्ण देव इसको ही, ' मन से त्याग करना ' कहते थे। अपने गृहस्थ भक्तों से वे कहते थे, " तुम लोग मन से त्याग करोगे। "
यदि ऐसी निर्लिप्तता या मन से त्याग देने का भाव या अनासक्ति के भाव का - एक छोटा सा अंश भी यदि हमलोगों के जीवन में आ जाये, तो हमलोग अपने इसी जीवन का कितना अधिक उपभोग कर सकते हैं ! हमलोगों को यह स्मरण रखना चाहिए कि हममें से प्रत्येक के जीवन में कभी न कभी; शोक-ताप, दुःख-कष्ट, विपत्ति, संकट किसी न किसी रूप में अवश्य आयेंगे। हमलोग चाहे जितना भी प्रयास क्यों न करें, इन सब को आने से हमलोग रोक नहीं सकते। हम एक दरवाजे को बन्द करेंगे, तो वह दूसरे दरवाजे से आ जाएगी। उसको भी अगर किसी प्रकार बन्द कर दिया तो कोई न कोई रास्ता तब भी खुला रह जाता है, या कोई नया रास्ता बन जाता है।
किन्तु दुःख-कष्ट, जोखिम और संकट आने से भी, वे यदि हमलोगों के मन पर छाप नहीं बना सकें, उन परिस्थतियों में पड़ने से जो करनीय रहता है, उतना करके हमलोग यदि व्यर्थ के चिन्ताओं और घबड़ाहट को चुटकी बजा कर उड़ा देने में सक्षम हो जाएँ, तो हमलोगों का जीवन और कितना अधिक आनन्ददायक हो उठेगा !
सुख-दुःख, विपत्ति-जोखिम के समय भी मन शान्त रखने से बुद्धि भी व्यवस्थित और स्थिर रहती है, जिसके कारण उस विषम परिस्थिति में भी जो करनीय होता है, उसे हमलोग और भी अच्छी तरह से कर सकते हैं। जिस आत्मज्ञान पर चर्चा करना मन को इतना अनासक्त बना देने में सहायक होता है, मन को कैसा प्रशिक्षण देने से, वह ज्ञान आसानी से प्राप्त हो सकता है, इसके बाद वाली कहानी में उसी बात का वर्णन किया गया है।