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Tuesday, June 12, 2012

" जनक और शुकदेव " [6] कहानियों में वेदान्त

जनक और शुकदेव 
एक गाँव के बाद दूसरे गाँव को पार करते हुए एक किशोर पैदल ही मिथिला की ओर चला जा रहा था। उस तरुण का नाम था-शुकदेव। वे व्यासदेव के पुत्र थे। व्यासदेव महाज्ञानी थे, उनहोंने ही ब्रह्मसूत्र नामक ग्रन्थ की रचना की है। उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र को वेदान्त-दर्शन का प्रमाणिक ग्रन्थ कहा जाता है। सत्य द्रष्टा ऋषियों ने जिस ज्ञान को अर्जित किया था, उनकी चर्चा सभी उपनिषदों में की गयी है। उन्हीं को एक ग्रन्थ में संकलित और  संक्षेप में एकत्रित करके ब्रह्मसूत्र में रखा गया है।
बालक होने पर भी शुकदेव को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो चुका था। व्यासदेव ने उसको अपने पास रख कर ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया है, और शुकदेव ने उसे अपने अनुभव से जान लिया है, उनको उसका प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया है। व्यासदेव ने उनको यह बात बता दी है। फिर भी सुकदेव को जनक के दरबार में जाने को बोले हैं। क्योंकि राजा होने के बाद भी जनक एक ब्रह्मज्ञ व्यक्ति हैं, इसीलिए उनके मुख से और एक बार वह बात सुनने के लिए व्यासदेव उनको जनक के पास भेजे हैं।
क्योंकि सत्यज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) प्राप्त हो जाने के बाद, शास्त्रवाक्य के साथ उसे मिला कर देखना जरुरी होता है, किसी ज्ञानी गुरु के मुख से वह सब सुनना पड़ता है। वैसा कर लेने के बाद फिर किसी संशय के लिए जगह नहीं रह जाता। यह सब करना इसीलिए जरुरी हो जाता है कि मैंने अभी अभी स्वयं जिस सत्य की  उपलब्धी की है, मेरे पहले बहुत से सत्य द्रष्टा ने भी उस सत्य को जाना है; उन ऋषियों की बातें ही शास्त्रों में लिपिबद्ध हैं।उसके साथ मेरी उपलब्धी मिलती है या नहीं, इसे एक बार जाँच लेना बहुत जरुरी हो जाता है। इसके अलावे भी जो ब्रह्मज्ञानी अभी शरीर धारण किये हुए हैं, उनकी उपलब्धी के साथ भी अपनी उपलब्धी को मिला कर देख लेता हूँ। क्योंकि मैंने जो देखा है, वह मेरे मन की गल्ती या मस्तिष्क की विकृति नहीं है, जिसका मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, वह सब सत्य है।
इसीलिए अपने पिता का आदेश मानकर शुकदेव भी राजा जनक के पास जा रहे हैं। जनक को विदेह भी कहा जाता है। हमलोग साधारण अवस्था में शरीर के बिना अपने अस्तित्व की बात सोच भी नहीं सकते हैं। किन्तु जनक हर समय अपने को शरीर से भिन्न एक आनन्दमय सत्ता के रूप में अनुभव किया करते थे। इसीलिए राजा जनक का और एक उपनाम था- ' विदेह ' !  किसी राजा के समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए भी, बिना किसी त्रुटी के राज्यकार्य करते हुए भी हर समय इन सबसे अनासक्त बने रहने में सक्षम थे। जैसे श्रीरामकृष्ण उदाहरण देते हुए कहते थे, ' कीचड़ में रहने वाली मछली (पाँकाल मछली) को देखो, वह रात-दिन कीचड़ में ही पड़ी रहती है, किन्तु उसके शरीर में एक बिन्दू कीचड़ भी नहीं लगा रहता, हर समय उसका शरीर चक-चक करता रहता है।'
जनक ने भी सुन रखा था कि व्यासदेव ने अपने पुत्र शुकदेव को उनके पास भेजा है। इसीलिए पहले से ही उन्होंने उनके लिए आवश्यक समस्त प्रबंध कर रखा था।
 शुकदेव मिथिला नगरी में प्रविष्ट किये और राजा जनक के महल के मुख्य-द्वार पर जा पहुँचे। किन्तु द्वारपालों ने उनकी ओर एक बार नजर उठा कर भी नहीं देखा। हाँ उनके बैठने के लिए एक आसन लाकर जरुर रख दिया, उसके बाद उनके प्रति बिल्कुल उदासीन हो गये। तीन दिनों तक शुकदेव उसी स्थान पर बैठे रहे, किन्तु किसीने उनसे इतना भी नहीं पूछा कि वे कहाँ से आये हैं, उनके आने का उद्देश्य क्या है, या उनका परिचय क्या है ? वे तो महामुनि व्यासदेव के पुत्र थे, उनके पिता का नाम सम्पूर्ण देश में विख्यात था, और सभी उनके प्रति श्रद्धा का भाव रखते थे। इसके अतिरिक्त वे स्वयं भी महामान्य थे। उनको तो बहुत आदर के साथ महल के अन्दर ले जाना चाहिए था। इसके बावजूद निम्न दर्जे के क्रमचारी तक उनके प्रति कोई आदर का भाव नहीं दिखा रहे थे, उनके उपर किसी ने थोड़ा ध्यान भी नहीं दिया।
 उसके बाद अचानक एक समय में राजा के प्रधान मंत्री अन्य विशिष्ट मंत्रियों के साथ वहाँ पहुँचे, और प्रचूर मान-सम्मान दिखाते हुए, आदर के साथ एक अत्यन्त सुन्दर ढंग से सजे-धजे कक्ष में उनको लिवा गये। वह कक्ष बहुत सारे मूल्यवान फर्नीचर के द्वारा बड़े करीने से सुसज्जित था। वहाँ पर उको आठ दिनों तक बड़े जतन से सेवा-शुश्रूषा का भाव दिखाते हुए रखा गया। स्नान के लिए सुगन्धित जल की व्यवस्था थी, पहनने के लिए बहुत कीमती वस्त्र दिए गये।
आठ दिनों तक इस प्रकार के राजाओं जैसी विलासिता के बीच रखने के बाद शुकदेव को जनक के पास ले जाया गया। किन्तु यह देखा गया कि पहले तीन दिनों की उपेक्षा या बाद के आठ दिनों की अभ्यर्थना में से किसी किसी भी परिस्थिति में रहते समय शुकदेव के स्थिर और प्रशांत मुखमंडल की आभा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ हुआ था। वे अपनी उपेक्षा से थोड़ा भी उदास या दुखी नहीं हुए थे, और न तो प्रचुर मन-सम्मान और विलासिता के बीच रहते समय वे बिन्दु मात्र उल्लसित या गर्वित ही हुए थे। हर परिस्थिति में वे इन दोनों मान-अपमान, से परे एक प्रेमपारायण प्रसन्नता में लीन दिखाई देते थे।
 
जनक अपने राज-सिन्घासन पर बैठे हुए थे। उनके सामने सभागृह में नृत्य-संगीत चल रहा था। वहीँ पर शुकदेव को ले जाया गया। जनक ने उनके हाथ में दूध का एक कटोरा पकड़ा दिया, जो लबालब भरा हुआ था। उस कटोरा को देकर जनक ने कहा- " इस कटोरे को हाथ पर रख कर इस सभागृह का सात बार चक्कर लगा आओ, किन्तु ध्यान रखना कि एक बिंदु दूध भी बर्तन से छलकना नहीं चाहिए। "
उस सभागृह में सुन्दर सुन्दर युवतियां गीतों के ताल पर नृत्य कर रही थीं, और भी कई प्रकार के मनोरंजक कार्यक्रम चल रहे थे। तात्पर्य यह कि वहाँ पर चित्त को विक्षिप्त करवा देने के ढेरों कारण मौजूद थे। किन्तु शुकदेव का मन उन सब की ओर क्षण भर के किये भी आकृष्ट नहीं हुआ, सम्पूर्ण मन लबालब दूध से भरे कटोरे पर ही एकाग्र रहा। उनका अपने मन के उपर इतना अधिकार था, कि उनकी इच्छा के विरुद्ध अन्य किसी विषय की ओर जाने में वह समर्थ ही नहीं था। जनक के कहे अनुसार कटोरा हाथ पर लेकर वे सभागृह के 7 चक्कर पूरा करके, वापस लौट आये; एक बूंद दूध भी उस कटोरे के बाहर छलक नहीं पाया था।
 
यह देख कर जनक बड़े प्रसन्न हुए, और बोले- " पुत्र, तुमने स्वयं जो समझा है, तुम्हारे पिता ने तुम्हें जैसा कहा है, मैं भी उसी बात को पुनः कहता हूँ, ' तुम्हें ब्रह्म ज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) हो चूका है ! ' तुम्हारे लिए जानने को अब कुछ बचा नहीं है, अपने घर वापस लौट जाओ। "
जिन लोगों ने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनमें से प्रत्येक के भीतर ऐसी ही निर्लिप्तता आ जाती है। राजा जनक की निर्लिप्तता के अनेकों उदाहरण हैं। जो भी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हों, चाहे वे गृहस्थ हों या संन्यासी; दोनों को इसी प्रकार की निर्लिप्तता की साधना करनी होती है। अनासक्त रहेने या निर्लिप्त रहने का अर्थ, कर्म के प्रति उदासीनता नहीं है। जिनका उद्देश्य आत्ज्ञान प्राप्त करना हो, उन्हें कैसा मनोभाव रखते हुए कर्म करना होगा, इसके बारे में श्रीकृष्ण ने गीता में बड़े सुन्दर ढंग से समझा दिया है।
 धैर्य और उत्साह के साथ कर्म करना होता है, किसी प्रकार या जैसे तैसे जवाबदेही निपटा देने का भाव मन में लेकर कर्म करने से नहीं होगा। इस प्रकार समस्त जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेकर कर्म करने के बाद, चाहे सफलता प्राप्त हो या असफलता, जो भी परिणाम क्यों न हो, उसमें अति-उत्फुल्ल या विषादग्रस्त नहीं होना होगा, दोनों परिस्थितियों में मन को शांत रखना होगा, कर्मफल में अनासक्त होना होगा। श्रीरामकृष्ण देव इसको ही, ' मन से त्याग करना ' कहते थे। अपने गृहस्थ भक्तों से वे कहते थे, " तुम लोग मन से त्याग करोगे। "
यदि ऐसी निर्लिप्तता या मन से त्याग देने का भाव या अनासक्ति के भाव का - एक छोटा सा अंश भी यदि हमलोगों के जीवन में आ जाये, तो हमलोग अपने इसी जीवन का कितना अधिक उपभोग कर सकते हैं ! हमलोगों को यह स्मरण रखना चाहिए कि हममें से प्रत्येक के जीवन में कभी न कभी;  शोक-ताप, दुःख-कष्ट,  विपत्ति, संकट किसी न किसी रूप में अवश्य आयेंगे। हमलोग चाहे जितना भी प्रयास क्यों न करें, इन सब को आने से हमलोग रोक नहीं सकते। हम एक दरवाजे को बन्द करेंगे, तो वह दूसरे दरवाजे से आ जाएगी। उसको भी अगर किसी प्रकार बन्द कर दिया तो कोई न कोई रास्ता तब भी खुला रह जाता है, या कोई नया  रास्ता बन जाता है।
किन्तु दुःख-कष्ट, जोखिम और संकट आने से भी, वे यदि हमलोगों के मन पर छाप नहीं बना सकें, उन परिस्थतियों में पड़ने से जो करनीय रहता है, उतना करके हमलोग यदि व्यर्थ के चिन्ताओं और घबड़ाहट को चुटकी बजा कर उड़ा देने में सक्षम हो जाएँ, तो हमलोगों का जीवन और कितना अधिक आनन्ददायक हो उठेगा !
सुख-दुःख, विपत्ति-जोखिम के समय भी मन शान्त रखने से बुद्धि भी व्यवस्थित और स्थिर रहती है, जिसके कारण उस विषम परिस्थिति में भी जो करनीय होता है, उसे हमलोग और भी अच्छी तरह से कर सकते हैं।     जिस आत्मज्ञान पर चर्चा करना मन को इतना अनासक्त बना देने में सहायक होता है, मन को कैसा प्रशिक्षण देने से, वह  ज्ञान आसानी से प्राप्त हो सकता है, इसके बाद वाली कहानी में उसी बात का वर्णन किया गया है।

Monday, June 11, 2012

" कृष्ण-अर्जुन " [5]कहानियों में वेदान्त

" कृष्ण-अर्जुन "
प्राचीन काल में भारतवर्ष के उपर विचित्र वीर्य नामक एक राजा राज करते थे। उनके तीन पुत्र थे जिनका नाम -धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर था। धृतराष्ट्र बड़े थे, किन्तु जन्मान्ध थे इसीलिए उनको राज्य न देकर पाण्डु को रजा बना दिया गया। धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि एक सौ लड़के थे। पांडू के पाँच पुत्र थे जिनका नाम था- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकूल और सहदेव। जब ये राजकुमार छोटे ही थे कि पांडू का देहान्त हो गया था; इसीलिए, धृतराष्ट्र की देख-रेख में समस्त राजकुमारों ने एक ही साथ युद्धविद्या एवं शिक्षा आदि ग्रहण करते हुए बड़े हुए थे।
न्यायतः भविष्य में युधिष्ठिर आदि भाइयों को ही मिलने वाला था, यह जानते हुए दुर्योधन प्रारंभ से ही उन पाचों भाइयों को मरवा देने का षड्यन्त्र करने में लगे हुए थे।
उनलोगों को बहुत प्रकार के अनुचित तरीकों से कष्ट पहुँचाने की चेष्टा करते रहते थे। यह सब देख-सुन कर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों को आधा आधा राज्य बाँट देते हैं। किन्तु दुर्योधन को यह भी मंजूर नहीं था। वह पूरा राज्य ही पाना चाहता था। दुर्योधन पांसे के खेल में धोखे से युधिष्ठिर को हर कर द्रौपदी सहित पांचो भाइयों को वन में जाने को बाध्य कर देता है। भरी हुई राज्य सभा में सभी के सामने द्रौपदी को बुरी तरह से अपमानित करता है। दुर्योधन के सभी अत्याचारों को चुप चाप सह लेने के बाद जंगल से वापस लौटने पर जब युधिष्ठिर अपना राज्य पुनः वापस लौटा देने का अनुरोध करते हैं, तो दुर्योधन उनके राज्य को वापस लौटने के लिए तैयार नहीं होता। युधिष्ठिर जब सारी शत्रुता को समाप्त करने के उद्देश्य से अन्त में पाँच भाइयों को क्षत्रिय जनोचित भरण-पोषण के लिए केवल पाँच गाँव लेकर किसी प्रकार जीवन निर्वाह करने को भी तैयार हो जाते हैं, तो बिना युद्ध किये दुर्योधन उतना भी देने को तैयार नहीं होता। जब शान्ति से न्याय पाने का कोई उपाय नहीं बचता है, तब अन्त में दोनों पक्ष में युद्ध होना अनिवार्य हो जाता है। कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध होता है।
युद्ध जब आरम्भ होने को था, तब दोनों पक्ष की सेनाएं और उनके सेना-नायक पंक्तिबद्ध होकर दोनो ओर खड़े हो जाते हैं। फिर दोनों पक्ष के राजा और सेनापति भी एक दूसरे के सामने आकर अपनी अपनी जगह में खड़े हो जाते हैं। सब कुछ तैयार है, बस अब थोड़ी ही देर में युद्ध शुरू होने को है। ऐसे समय में युधिष्ठिर पक्ष के महावीर अर्जुन अपने सखा और सारथि श्रीकृष्ण को कहते हैं-" सखा, तुम मेरे रथ को दोनों दलों की सेना के बीच में ले चलो, मैं यह देखना चाहता हूँ कि युद्ध करने के लिए दोनों पक्ष की ओर से कौन कौन से योद्धा एकत्र हुए हैं? " श्रीकृष्ण उनकी इच्छा के अनुसार रथ को बीच में लाकर दोनों दलों के सेनानियों का परिचय देने लगते हैं।
मैदान में युद्ध करने आये अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को देख-सुन कर अर्जुन के हाथ-पैर निष्क्रिय हो गये। शरीर कांपने लगा, उसके हाथों से छूट कर धनुष नीचे गिर गया। नेत्रों में अश्रु भर कर व्याकुलता के साथ कृष्ण की ओर देख कर उन्होंने कहा- " सखा, मैं युद्ध नहीं करूँगा। "
यह क्या बात हुई ? इतना सब कुछ हो जाने के बाद अन्तिम क्षणों में अर्जुन यह क्या कह रहे हैं ? या उन्होंने ऐसा कहा ही क्यों? क्योंकि श्रीकृष्ण तो जानते थे कि अर्जुन डर जाने वाले व्यक्ति नहीं हैं, वे तो महावीर, महापराक्रमी, महान साहसी धनुर्धर हैं। इसके पहले भी अनेकों युद्ध में उन्होंने अपनी असीम शक्ति और साहस का परिचय वे दे चुके हैं; द्रौपदी के स्वयम्बर के समय का युद्ध, गंधर्व लोगो के साथ युद्ध, बिराटनगर के राजा की गौओं का हरण करने वालों के साथ युद्ध, प्रत्येक युद्ध में उन्होंने अपनी असीम वीरता का परिचय दिया है। गउओं के हरण के समय तो अर्जुन ने अकेले ही विपक्ष के समस्त वीरों को पराजित कर के राजा बिराट की समस्त गौओं को छीन कर वापस ले आये थे। इसके अतिरिक्त, गुरु द्रोणाचार्य, देवराज इन्द्र, एवं देवादिदेव महादेव ने उनको जितने सारे अस्त्र दिए हैं, कि ईच्छा होने से वे क्षण भर में सम्पूर्ण शत्रु दल को एक साथ ध्वंश कर सकते हैं। इसीलिए डरने की बात तो हो ही नहीं सकती।
फिर क्या बात है ? उनके मन की शक्ति भी तो कम नहीं है ! अपार शक्ति के अधिकारी होने के बावजूद दुर्योधन के द्वारा इतना अपमानित होने, इतनी लांछना आदि सबकुछ - केवल अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का मुख देख कर तथा अपने कर्तव्यबोध का स्मरण करके; चुपचाप सहन कर लिए थे।
अर्जुन ने कहा, " सखा देखो, ये द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, दुर्योधन आदि मेरे बड़े चाचा के लड़के हैं मेरे चचेरे भाई हैं, बचपन में अपने पितामह भीष्म की पीठ और गोदी में खेलकूद करके मैं बड़ा हुआ हूँ। और येही लोग यहाँ विपक्ष की ओर से युद्ध करने आये हैं। हमलोगों के उपर इनलोगों ने चाहे जितने भी अत्याचार क्यों न किये हों, किन्तु इनकी हत्या करके, इनके खून में सने अन्न खाकर राज्यभोग करने की अपेक्षा मैं भिक्षा माँग कर खाने को उत्तम समझता हूँ। "
" इसके अतरिक्त, मेरे मन की बात तो तुम अच्छी तरह से जानते हो। इस राज्य की तो बात ही क्या, इन सब को मार कर, मैं स्वर्ग का राज्य भी लेना नहीं चाहूँगा। तुम तो यह बात जानते हो, कि मैं अपने लिए कुछ भी नहीं चाहता हूँ। मैं केवल श्रेयः चाहता हूँ, मैं तो केवल शाश्वत ( Eternal -या अनादि, अनन्त, अपरिवर्तनशील, अविनाशी, नित्य, सनातन ) आनन्द चाहता हूँ। इसीलिए मैं यह युद्ध नहीं करूँगा। "  
अर्जुन की बात सुन कर लगता है, मनो वे कितनी बड़ी बात कह रहे हैं ! ऐसा लगता है, इससे बढ़ कर, भला धर्म की बात, मनुष्यत्व की बात और क्या हो सकती है ? किन्तु यह सब सुनकर श्रीकृष्ण अर्जुन की पीठ नहीं थपथपाते, उल्टे उसको फटकारते हुए कहते हैं, " अर्जुन, तुम्हारे शब्दों से कायरता ही प्रकट हो रही है। तुम्हारे व्यव्हार को देखकर ऐसा नहीं प्रतीत हो रहा है, कि तुम्हारे भीतर आर्य सभ्यता अब भी बची हुई है। युद्ध से मुँह मोड़ लेना तुम्हारे लिए धर्माचरण नहीं कहा जा सकता, बल्कि उसको मन की कमजोरी के सामने सिर झुका देना ही कहा जायेगा। हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को दूर हटा कर, एक वीर की तरह सिर उठाकर खड़े हो जाओ! " 
अर्जुन ने कहा- " देखो सखा, इस क्लेशकर और नाजुक परिस्थिति में पड़ कर मेरी बुद्धि गड़बड़ा गयी है, मैं स्वयम अभी सही निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। तुम क्या मुझे युद्ध में अपने गुरु, भाई, पितामह आदि की हत्या करने को कहते हो ?  मैं एक जटिल समस्या में उलझ गया हूँ। इस समय मेरे लिए क्या करना उचित है, और क्या न करना उचित है- मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। तुम मुझे अच्छी तरह से समझा कर बता दो इस समय मेरा कर्तव्य क्या है।"
 
तब श्रीकृष्ण अर्जुन को कई प्रकार से, यह बात समझा देते हैं कि अर्जुन एक क्षत्रिय राजकुमार है, हजारों हजार लोगों की रक्षा और पालन करने का दायित्व उसीके कन्धों पर है, इस समय राज्य की ओर से जो अन्याय हो रहा है, उसका प्रतिकार वह नहीं करेगा, तो फिर कौन करेगा ? इतना ही नहीं, इस कर्तव्य का पालन करने के लिए यदि आवश्यक हुआ तो कठोरता के साथ पितामह आदि गुरुजनों के साथ भी युद्ध करना पड़ सकता है। दूसरों के कल्याण के लिए निर्लिप्त होकर, आत्मस्थ होकर, उपरी दृष्टि से अति गर्हित कर्म जैसे प्रतीत होने वाले इन सब कार्यों को करने से भी मनुष्य अधर्म नहीं करता; बल्कि सही मनोभाव लेकर इन कर्मों को करने में सक्षम होने से ही, मनुष्य आत्मज्ञान ( अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान, आत्मसाक्षात्कार या धर्मलाभ ) तक प्राप्त करके धन्य हो जाता है।
इस समय श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रारम्भ में ही वेदान्त के अद्वैत-ज्ञान पर चर्चा करके समझा दिए थे कि साधारण अवस्था में हमलोग जरुर ऐसा सोचते हैं कि मैंने अमुक को मार डाला है, या लगता है अमुक हाथों मैं मारा गया हूँ, किन्तु वास्तव में वह सत्य नहीं है। जिस प्रकार प्राकृतिक नियमों के अनुसार प्रकृति में आँधी आती है या वर्षा होती है, उसी प्रकार मनुष्य का मन, बुद्धि आदि भी प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही  परिचालित होकर उससे सारे कर्म करवा लेते हैं। 
  हमलोगों का ' मैं '-बोध इस शरीर, मन, बुद्धि के पिंजड़े में आबद्ध रहता है, इसीलिए हमलोग ऐसा समझते हैं कि हमलोग स्वयं ही यह सब कर रहे हैं। बादल यदि यह सोचे कि मैं अपनी इच्छा से इधर-उधर घूमता रहता हूँ, जल बरसाता हूँ, तो उसका ऐसा सोचना जैसे हास्यास्पद प्रतीत होगा, उसी प्रकार जिन लोगों ने ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनके लिए हमलोगों का यह ' मैं कर रहा हूँ ' - कहना ठीक उतना ही हास्यास्पद प्रतीत होता है। इसके अलावा ज्ञान प्राप्त कर लेने के पहले वास्तविक मनुष्य ( जीव ) मरता नहीं है। मृत्यु के समय वह सूक्ष्म शरीर लेकर देह से बाहर निकल जाता है। फिर वह एक नया देह धारण करके जन्म लेता है- जैसे फटा पुराना कपड़ा फेंक कर हमलोग नया कपड़ा पहन लेते हैं।
इसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझा दिया कि विभिन्न मनुष्यों की विचारधारा एवं रूचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, इसीलिए इस सत्य में पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार धर्मपथ उत्पन्न हुए हैं। ये सभी मार्ग अलग अलग प्रतीत होने पर भी, सभी मार्गों का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है। शरीर-मन के पिंजरे में आबद्ध ' मैं '-बोध की सीमा को, क्रमशः बढ़ाते हुए, और छोटी छोटी संकीर्णताओं (लींग, जाती, भाषा, धर्म आदि के आधार पर ' मैं और मेरा ' मानने की संकीर्णता ) को क्रमशः दूर हटाकर सभी पथ अन्त में मनुष्य को वेदान्तोक्त सर्वव्यापी चैतन्य में पहुंचा देते हैं। 
इन चार प्रमुख पथों में एक है- विश्व-ब्रह्माण्ड के इस चरम सत्य को हमलोगों के जैसा ही एक देह-मन विशिष्ट (या मनुष्य की ही आकृति वाला ) एक व्यक्ति मान कर उससे प्रेम करना सीखना। यह जान कर कि इस जगत में सबकुछ उनकी (सगुण परम सत्य की ) ईच्छा से ही हो रहा है, उनका मुख देखते हुए सबकुछ करते जाना। प्रेम करना क्या है, इस बात से कमोबेश हमसभी लोग परिचित हैं। इसीलिए इस पथ पर चलना सबों के लिए आसान है। इस पथ को भक्तिमार्ग कहा जाता है। प्रेमास्पद (ठाकुर) को प्रेम करते करते,
 प्रेमी (भक्त) का प्रेम जितना गहरा होता जाता है, मनुष्य उतना ही ज्यादा स्वयं को भूलता जाता है। और अन्त में वह अपने को प्रेमास्पद में विलीन कर देता है।
अन्य एक पथ है- विचार करते हुए, गहराई से चिन्तन करके इस बात की स्पष्ट धारणा बनाने की चेष्टा करना कि मैं शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों से बिलकुल भिन्न - नित्यमुक्त, शाश्वत चैतन्य सत्ता हूँ, मेरा  जन्म-मृत्यू  कुछ नहीं है,  मैं सबों के भीतर विद्यमान हूँ। इसको ज्ञान का मार्ग कहते हैं।जो लोग अधिक चिन्तनशील होते हैं, और प्रेम आदि कोमल मनोवृत्तियों को कमजोरी समझते हैं, उनको इस पथ पर चलने में बड़ी आसानी होती है। इसीप्रकार चलते चलते एक दिन ज्ञान का दरवाजा खुल जाता है।
और एक मार्ग का नाम राजयोग है। जिन लोगों के मन की शक्ति जन्म से ही बहुत अधिक होती है, जो इच्छा मात्र  से अपने मन को बाह्य विषयों से खीँच कर चुपचाप बैठाय रख सकते हैं, जिनमें अटूट ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति रहती है, यह मार्ग वैसे व्यक्तियों के लिए बहुत अनुकूल है। इसमें घन्टों एक ही स्थान पर चुपचाप बैठ कर देह-मन स्थिर करने की चेष्टा करनी पड़ती है। मन को किसी एक ही विषय पर स्थिर करके, बाद में उसको बिल्कुल विचारशून्य करने की चेष्टा करनी पड़ती है। हमलोगों का शरीर मानों एक बर्तन है, और मानों जल है। मन में हर समय विचार तरंगें उठती रहती हैं, इसीलिए उसमें हमलोगों का स्वरुप ठीक तरह से प्रतिबिम्बित नहीं हो पाता है। बर्तन का जल स्थिर होते ही, जिस प्रकार उसमें सूर्य के स्पष्ट प्रतिबिम्ब को देखा जा सकता है, उसी प्रकार जैसे ही हमारा मन विचार शून्य हो जाता है, वैसे ही हमारा सच्चा स्वरूप उसमें दिखलाई देने लगता है। चेष्टा करते करते, मनुष्य को इस मार्ग से सत्य की प्राप्ति, या ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।
और एक पथ है, निष्काम कर्म का पथ। फल की इच्छा छोड़ कर, सुख-दुःख आदि से मन को निर्लिप्त रखते हुए, केवल कर्तव्यबोध से कर्म करने की चेष्टा करते करते ही मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। कर्म करते समय यह मनोभाव रखना चाहिए कि मैं कर्ता नहीं हूँ, प्रकृति के गुणों के द्वारा ही सभी कार्य हो रहे हैं, या फिर यह मनोभाव रखना चाहिए कि, मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह  ईश्वर (ठाकुर) को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा हूँ, जैसी उनकी इच्छा है वे मुझसे वैसा करवा ले रहे हैं। इन दोनों भावों में से किसी एक भाव का अवलम्बन करके इस पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है। किसी भगवान या शक्ति में विश्वासी हुए बिना भी, अपने  लिए कुछ भी पाने की इच्छा किये बिना केवल दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करते करते भी मनुष्य इस  मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। इस प्रकार निष्काम कर्म करते करते एकदिन मनुष्य के ससीम ' मैं '-बोध की सीमा टूट  जाती है, और वह आत्मस्वरूप (अपने यथार्थ स्वरुप) में प्रतिष्ठित हो जाता है।
साधारण तौर पर यही चार प्रमुख धर्म-मार्ग (अपने सच्चे स्वरुप को जानने का मार्ग ) हैं।
इसी प्रकार से और भी बहुत सी ज्ञान की बातें जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनायीं तब कहीं जाकर अर्जुन की समझ में यह बात आ गयी कि यूद्ध उनके धर्म-मार्ग का बाधक नहीं होगा, बल्कि इसके द्वारा वे आत्मज्ञान के मार्ग पर अग्रसर हो जायेंगे। तब वे बड़े उत्साह के साथ यूद्ध करने को तैयार हो गये, और सिंहविक्रम के साथ खड़े होकर अपना धनुष उठाकर जोरदार टंकार दिए।
और श्रीकृष्ण से बोले, " हे सखा, जिस मोह और सन्देह ने मेरे मन-बुद्धि को ढँक दिया था, तुम्हारी कृपा से अब वह दूर हो चुकी है, मुझे अपने सच्चे स्वरूप की स्मृति हो गयी है, अब तुम जो कहोगे मैं वही करूँगा। "
 
हमलोग कई बार तथाकथित बुद्धिवादी समाजसुधारकों के बहकावे में आकर सोचने लगते हैं, कि शायद इतना अधिक धर्म धर्म करते रहने से ही हमलोगों के देश का इतना पतन हो गया है, और सम्पूर्ण राष्ट्र ही आज शक्तिहीन, कर्मविमुख कायरों के दल में परिणत हो गया है। यह बात कितनी गलत और तथ्यहीन है, इस आख्यान को पढने के बाद इसे कह कर समझाने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
धर्म का वास्तविक अर्थ नहीं समझने, तथा अपने जीवन में धर्म को सही रूप से रूपायित नहीं कर सकने के कारण, और (राजनीतिज्ञों द्वारा ) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए धर्म का दुरूपयोग करने के कारण अवश्य ये सभी दोष समाज में दिखने लगते हैं।
 किन्तु सही ढंग से यदि वेदान्त की चर्चा की जाये, तो भेंड़ का बच्चा भी सिंह-शावक में परिणत हो जाता है; और पशु मानव भी देव मानव में रूपान्तरित हो जाता है। या कोई साधारण मनुष्य देवता से भी बड़ा बन जाता है। निष्काम कर्म के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने वालों व्यक्तियों में उदाहरणस्वरुप राजा जनक का नाम अक्सर सुना जाता है। राजा  जनक की कहानी सुनाने के बाद हमलोग इस प्रसंग ( घर-गृहस्ती में रहते हुए भी सत्य को जाना जा सकता है ) को समाप्त करेंगे। 

Sunday, June 10, 2012

' ब्राह्मण-पुत्र का गुरु आत्मज्ञानी हरिजन ! ' [4]कहानियों में वेदान्त

 " धर्म व्याध "
कौशिक को अपना मन शान्त करने में थोडा वक्त लग गया। उस पतिव्रता रमणी  ने उनको धर्म व्याध के पास जाने का निर्देश दिया है। वे एक ब्राह्मण-पुत्र हैं, वेद-पाठी हैं; क्या धर्म का उपदेश ग्रहण करने के लिए उनको एक व्याध ( एक ऐसा ' हरिजन ' - जो मांस बेचकर अपनी आजीविका चलता है ) के पास जाना पड़ेगा ? पूरी घटना (केवल पातिव्रत्य-धर्म का पालन करने कारण उस स्त्री को आत्मज्ञान हो गया था, और वह घर बैठे ही दूर जंगल में बगुला-भष्म की कथा को जान गयी थी !) के उपर काफी सोच-विचार करने के बाद, अन्त में उन्होंने मिथिला जाने का निर्णय ले ही लिया।

कौशिक मिथिला की दिशा में पैदल ही चल पड़े। रस्ते में कितने ही गाँव मिलते गये, हरे-भरे कितने ही मैदान मिले। कितनी ही नदियों को पार करते हुए वे बस चलते ही जा रहे थे। अन्त में वे राज-ऋषि जनक की राजधानी मिथिला नगरी पहुँच गये। क्या ही सुंदर नगर था ! सभी सड़कें एवं घाट साफ-सुथरे थे, वहाँ के महलों- घरों, उद्द्यान और स्वच्छ ताल-तलैयों को देखने से आँखे जुड़ा जाती थीं। वहां के लोग भी दिखने में स्वस्थ, सबल, और सुन्दर थे। वहां के सड़कों पर, बाजार में, सभी के घरों को देखने से ऐसा प्रतीत होता था, मानों कोई उत्सव मनाया जा रहा हो; सर्वत्र ही आनन्द छाया हुआ था। यह सब देख कर वे बड़े प्रसन्न हुए। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ब्रह्मज्ञानी राजा जनक के सुशासन के कारण राजधानी में हर समय इसी प्रकार की शान्ति और आनंद छाया रहता था।
वे अपने जीवन में पहली बार ही मिथिला आये थे। वहाँ के रास्तों से वे बिल्कुल अनभिज्ञ थे। वे पूछते हुए जा रहे थे कि धर्म व्याध कहाँ मिलेंगे। परन्तु उन्होंने देखा कि वहां के सभी लोग धर्म व्याध को पहचानते थे, तथा उनको एक परम धार्मिक व्यक्ति के रूप में जानकर आदर के साथ उनका नाम लेते थे। इस प्रकार पूछते पूछते वे अन्त में एक मांस बेचने वाले की दुकान में आ पहुंचे। उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति दुकान के भीतर बैठ कर मांस बेच रहा था। उन्होंने सुना कि वे ही धर्म व्याध हैं। दुकान के सामने बहुत से खरीदने वालों की भीड़ लगी हुई थी। वे भी एक किनारे पर खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे। मन ही मन बहुत नाराज भी हो रहे थे।
ब्राह्मण-पुत्र कौशिक सोचने लगे, " हाय री मेरी किस्मत ! जो व्यक्ति एक ' हरिजन ' है;  पेशे से व्याध या मांस बेचने वाला कसाई है ! इतना घृणित कार्य करता है, वह क्या परम धार्मिक भी हो सकता है? क्या मैं इतना गया-गुजरा हूँ कि मुझे इसके मुंह से धर्म का उपदेश सुनना पड़ेगा !"

 
इधर धर्म व्याध भी अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बल पर यह जान चुके थे कि कौशिक मिथिला पहुँच चुके हैं और दुकान के सामने खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्होंने यह भी जान लिया था कि वे यहाँ किस लिए आये हैं, तथा किसने उनको भेजा है। उनको देख कर वे झटपट उठ कर खड़े हो गये, और उनके निकट आकर प्रेम के साथ स्वागत सत्कार करते हुए बोले- " हे ब्राह्मण देवता, मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये। सब कुशल-मंगल तो  है न ? आप आदेश कीजिये कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ।किस पतिव्रता रमणी  ने आपको यहाँ भेजा है, और क्यों भेजा है,यह भी मैं जानता हूँ। " 
उनकी बातों को सुन कर कौशिक आश्चर्य-चकित हो गये, सोचने लगे- " देखता हूँ यह हरिजन भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। इसको घर में बैठे हुए ही बोध-शक्ति प्राप्त हो चुकी है, इसे भी सारी बातें ज्ञात हैं ! " फिर उस व्याध ने उनको ' हे ब्राह्मण देवता ' कहकर भी संबोधित किया था ! उसके विनम्र व्यवहार को देख कर भी बड़े प्रसन्न हुए थे। व्याध के अनुरोध करने पर कौशिक उसके घर में गये। घर पहुँच कर हाथ-पैर धोकर दोनों व्यक्ति आराम से बैठ कर वार्तालाप करने लगे।
ब्राह्मण-पुत्र कौशिक ने कहा, " देखो भाई, तुम जो यह माँस बेचने का कार्य करते हो, वह मुझे बिलकुल भी पसन्द नहीं है। तुम तो एक धार्मिक व्यक्ति हो, फिर ऐसा नीच कर्म क्यों करते हो ? तुम्हारे जैसे व्यक्ति को ऐसा क्षुद्र कार्य करना शोभा नहीं देता। तुमको ऐसा घटिया कार्य करता देख कर मुझे बहुत बुरा लगा है। " 
व्याध ने कहा, " ब्राह्मण देवता, यही तो मेरा वर्णाश्रय-धर्म (जाती-धर्म) है !  मेरे वंश में सभी लोग यही कार्य करते चले आ रहे हैं। आप इस बात पर इतना नाराज क्यों हो रहे हैं ? मैं तो शास्त्रों के नियम के अनुसार जीवन यापन करता हूँ। माता-पिता आदि गुरुजनों की मन-प्राण से सेवा-सुश्रुषा करता हूँ। सदा सत्य बोलता हूँ, और किसी के भी प्रति अपने मन में विद्वेष नहीं रखता। दीन दुखियों की यथाशक्ति सहायता करता हूँ। अतिथि सेवा करने में कभी कोई कोताही नहीं करता। देवसेवा हो जाने बाद गुरुजनों, स्वजनों-अतिथियों, यहाँ तक कि नौकर-चाकर आदि का भोजन समाप्त हो जाने के बाद, जितना अन्न शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करता हूँ। इन सबों की सेवा करना ही मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। पूरी श्रद्धा के साथ मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। इन सबकी सेवा के लिए धन की आवश्यकता होती है, एवं माँस बिक्री करके धनोपार्जन करना मेरा स्वधर्म है, इसीलिए मैं उसी कर्म को करता हूँ। मैं एक भी शास्त्र-विरोधी कर्म नहीं करता। मैं स्वयं कभी माँस नहीं खाता। स्वयम किसी प्राणी की हत्या भी नहीं करता, शिकारियों द्वारा मारे  गये पशुओं को खरीद कर उसका माँस बिक्री करता हूँ।"
इसके बाद धर्म व्याध ने कौशिक को धर्म के गूढ़ तत्वों के बारे में, यहाँ तक कि ब्रह्म विद्या के विषय में भी विस्तार से बताने लगे। इसी प्रसंग में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था, " आत्मज्ञान (अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) ही श्रेष्ठ ज्ञान है, सत्य ही परम पवित्र व्रत है। जो सर्वसाधारण के लिए कल्याणकारी हो, वही सत्य है। श्रेय प्राप्त करने का आद्वितीय उपाय सत्य ही है। इन्द्रिय संयम करना ही तपस्या है; इससे भिन्न तपस्या करने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। ....जीव नित्य है, शरीर अनित्य है; मृत्यू के समय केवल शरीर का ही नाश होता है।"
उनकी बातों को सुन कर धर्म व्याध के बारे में कौशिक की जो धारणा पहले थी वह बदल चुकी था। उन्होंने देखा कि वे उनकी बातों को जितना ही सुन रहे हैं, मन का संशय उतना ही मिटता जा रहा है; उनका हृदय ज्ञान के आलोक से उतना ही उद्भाषित हो उठा है। ब्रह्म विद्या के बारे में धर्म व्याध ने जो कुछ भी कहा, उनके मन ने उसे बिना किसी शंका के स्वीकार कर लिया। तब उनके समझ में आ गया कि धर्म व्याध को ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है।
 क्योंकि शास्त्रों को पढ़ कर उन सब बातों का उल्लेख करके दूसरों को तर्क में परास्त किया जा सकता है; या बहुत हुआ तो उस विषय में उसकी बुद्धि में कोई अस्पष्ट (या किसी बेबुनियाद) धारणा को प्रविष्ट करा दिया जा सकता है। किन्तु स्वयं की अनुभूति नहीं रहने से इसप्रकार किसी दूसरे के मन में कुछ आरोपण (Implant) कर देना कभी संभव नहीं होता।
 किसी आदर्श को अपने स्वयं के जीवन में प्रतिबिम्बित किये बिना, केवल प्रवचन देकर दूसरों को उस आदर्श के अनुरूप जीवन गठन करने के लिए अनुप्रेरित कर पाना अव्यवहारिक (Impracticable) है। कौशिक ने धर्म व्याध से कहा, " धर्म का कोई भी तत्व आपके लिए अविदित नहीं है। आपकी बातों को सुनने से, आप किसी महर्षी की तरह प्रतीत होते हैं। उपरी तौर पर देखने से घृणित कर्म करने वाले होकर भी, मैं यह समझ सकता हूँ कि आपको सिद्धि प्राप्त हो गयी है। "
किसी को यदि सिद्धि प्राप्त करनी हो, तो उसे सांसारिक जीवन में सगे-सम्बन्धियों, समाज या परिवार के  बीच किस प्रकार से रहना होता है, इन सब बातों को धर्म व्याध ने बहुत विस्तार से, कई प्रकार के उदहारण देकर समझा दिया। इसके बाद सबसे अन्त में अपने माता-पिता से परिचय करवा देने के बाद कौशिक से कहा - " मैं इन्हें साक्षात् देवता (शिव-पार्वती ) के रूप में देखता हूँ और उसी रूप में बड़े प्रेम से उपासना समझ कर  इनकी सेवा करता हूँ। इतनी साधना से ही मुझे सबकुछ प्राप्त हो गया है। 
आप भी अपने घर-परिवार में वापस लौट जाइये और वहाँ रहते हुए ही धर्म-प्राप्ति (अपने सच्चे स्वरुप को जानने ) की साधना करते रहिये। माता-पिता की अनुमति लिए बिना उनको घर में असहाय छोड़ कर, जंगल में वेद-पाठ करने के लिए चले आकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया है। घर लौट कर पहले उनको प्रसन्न कीजिये। मैं सोचता हूँ, इसीसे आपका कल्याण होगा। "
कौशिक ने कहा- " उस पतिव्रता रमणी ने आपको ' महा-धार्मिक ' की संज्ञा दी थी; पहले तो मैं आपको नहीं समझ सका था, किन्तु अब देखता हूँ, उन्होंने ठीक ही कहा था। आपकी बातों को सुनने से मेरे मन का संशय मिट चुका है, अब मैं आपके निर्देशानुसार ही चलूँगा। " इतना कहकर कौशिक देवता ज्ञान से अपने माता-पिता की सेवा करने लिए धर्म व्याध से विदा लेकर अपने घर वापस लौट गए।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि यदि अपने देव-स्वरुप की उपलब्धी करनी हो, सभी जीवों में स्वयं को प्रत्यक्षतः अनुभव करना चाहते हों, तो ईश्वर ज्ञान से सबों की सेवा करनी होगी। कहते हैं, यदि तुम प्रारंभ में सबों को यदि ईश्वर ज्ञान से नहीं देख सको तो, अपने परिवार के सभी लोगों को, या कम से कम एक व्यक्ति को लेकर आरम्भ कर सकते हो; मन में ऐसा दृढ निश्चय लेकर आगे बढना होगा कि उनको प्रेम करने से ईश्वर को ही प्रेम कर रहा हूँ, उनकी सेवा से ईश्वर की ही सेवा हो रही है।
कठिन होने पर भी, परिवार में रहते हुए, समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए भी कोई व्यक्ति आत्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) प्राप्त कर सकता है। कोई किस जाती का है, किसका क्या धर्म है, कौन क्या कार्य कर रहा है, यह सब देख कर यह नहीं समझा जा सकता कि स्वरुप-बोध की दिशा में वह कितना आगे बढ़ चुका है। मूल बात यह है कि वह किस भाव से उस कार्य को कर रहा है, उस पर दृष्टि रखना ही ज्यादा जरुरी है।
किसी भी कार्य को करने से सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि - ये सारी चीजें भी स्वतः प्राप्त होने लगती हैं। इन मौकों पर कभी तो मन आनन्द से नृत्य करना चाहेगा, या कभी दुःख की निराशा से उत्साह हीन होकर मुरझा जाना चाहेगा। उस समय में भी बल पूर्वक मन को स्थिर रखने की चेष्टा करते रहने से  ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक साधना हो जाती है। इसीलिए, अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करने की आन्तरिक या तीव्र इच्छा रहने से संसार के किसी भी परिवेश में रहते हुए भी, कोई व्यक्ति आत्मज्ञान को प्राप्त करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है, उसके मार्ग में कोई भी पारिवारिक स्थिति कभी बाधक नहीं बन सकती है।
इसके बाद वाली कहानी में इस तथ्य को हमलोग और भी अच्छी प्रकार से समझ सकेंगे।

Saturday, June 9, 2012

" बगुला भष्म " [3]कहानियों में वेदान्त


' प्रवृत्ति मार्ग के दो अद्भुत शिक्षक :  पतिव्रता स्त्री एवं धर्म व्याध  '
एक बहुत घना जंगल था। एक से बढ़ कर एक ऊँचे ऊँचे वृक्ष थे जिनकी डालियाँ घने पत्तों से आच्छादित थीं। डाली-डाली बड़े बड़े पत्तों से लदी हुई थीं।उन पत्तों से छन छन कर सूर्य की किरणें कहीं कही थोडा-बहुत प्रवेश कर सकती थीं, और कहीं तो बिल्कुल भी प्रविष्ट नहीं हो पाती थीं।उस जंगल में बाघ, सिंह, भालू, आदि बहुत से हिंसक पशु आदि का वास तो हो सकता था, किन्तु वहां कोई मनुष्य भी रहता होगा, ऐसी कल्पना भी नहीं हो सकती थी।
फिर भी, देखा जा रहा था कि एक व्यक्ति  अपने सगे-सम्बन्धियों से भरे, सुख-सुविधा से सम्पन्न घर-परिवार को छोड़ कर इस खतरे से भरे स्थान में वास कर रहे थे। इस समय एक पेड़ के नीचे बैठ कर वे वेद-पाठ करते थे। हाँ बीच बीच में भिक्षा के लिए उनको जरुर निकट के गाँव में जाना पड़ता था। गाँव की आबादी के साथ उनका बस इतना ही सम्बन्ध था। भिक्षा लेकर वे पुनः जंगल में अवस्थित अपनी निर्जन कुटिया में लौट आते थे।
वे एक ब्राह्मण थे, उनका नाम कौशिक था। वे तपस्या करने और शास्त्र पाठ करने में सुविधा होगा, यही सोच कर अपने माता पिता की अनुमति प्राप्त किये बिना ही घर छोड़ कर जंगल में वास कर  रहे थे। घर में रहते समय भी वे बहुत श्रद्धा के साथ वेदपाठ किया करते थे। ' पतिव्रता स्त्री को आत्मज्ञान प्राप्त होता है '
एक दिन पेड़ के नीचे बैठ कर कौशिक जी वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे। उनके ठीक सिर के उपर एक डाली पर एक बगुला बैठा हुआ था। बगुला ने एक समय बिट कर दिया, और उसका बिट कौशिक के सिर के उपर आ गिरा। यह देख कर वे अत्यन्त क्रोध से भर उठे। यह दुष्कर्म किसने किया है, यह देखने के लिए अपनी आँखों को लाल करके बड़े क्रोध से उपर की ओर देखे। तपस्या के फलस्वरूप कौशिक में थोड़ी अलौकिक शक्ति उत्पन्न हो गयी थी। उनके क्रोधाग्नि में जल कर बगुला देखने के साथ ही साथ जल कर मर गया। यह देख कर कौशिक को अपनी शक्ति का पता चल गया, वे प्रसन्न हो गये। हाँ, उस बगुले के लिए उनके हृदय में थोड़ी करुणा का संचार भी हुआ। किन्तु इस दुष्कर्म के लिए उनके मन में थोड़ा पश्चाताप भी हुआ। उन्होंने 
सोचा- ' क्रोध का दास होकर मैंने एक अन्यायपूर्ण कार्य कर दिया है ! ' 
तपस्या आदि करने से कई बार इस प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाया करती हैं। किन्तु इन शक्तियों प्राप्त करने से मन में अहंकार आने की आशंका रहती है, तपस्या का उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति है, इस लक्ष्य को ही भूल जाने का भय रहता है। जो लोग इस बारे में सतर्क रहते हैं, वे इन सब शक्तियों की तरफ मुंह उठा कर भी नहीं देखते, वे सीधा अपने लक्ष्य की ओर ही बढ़ते जाते हैं। उन्ही लोगों को शिघ्र आत्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का बोध ) प्राप्त हो जाता है। 
इस घटना के कुछ दिनों बाद कौशिक भिक्षा के लिए गाँव में जाते हैं। भिक्षा मांगते हुए एक रमणी के घर के दरवाजे पर आ पहुँचते हैं। रमणी उनको थोड़ी प्रतीक्षा करने को बोल कर अपने घर के भीतर चली जाती है। वे भिक्षा में कुछ देने के लिए सोच ही रही थी कि उसी समय उसके पती घर में वापस लौट आते हैं। वह रमणी एक पतिव्रता स्त्रि थी, जिस प्रकार देवता की सेवा की जाती है, उसी भाव से वे अपने पती की भी सेवा करती थीं। अपने पती को भूख से व्याकुल देख कर, कौशिक को भिक्षा दिए बिना ही, पहले अपना ध्यान उनहोंने पती की सेवा में लगा दिया। उनका हाथ-पैर धो-पोछ कर उनको पंखा झलने बैठ गयीं। थोडा शांत होने पर उनके सामने भोजन परोस कर रख दिया। इसी समय कौशिक की याद आने पर रमणी थोड़ी लज्जित होकर जल्दी जल्दी भिक्षा द्रव्य लेकर कैशिक को देने के लिए बाहर निकलीं। 
कौशिक इतनी देर से बाहर खड़े खड़े रमणी के समस्त गतिविधियों को देख रहे थे, और क्रमशः क्रोध से फूलते जा रहे थे। रमणी के बाहर निकलते ही वे उसके उपर बरस पड़े- " मुझसे आगे जाने को तो तुम कह सकती 
थी, ' थोडा रुकिए ' कह कर भीतर गयी तो फिर इतनी देर के बाद बाहर आई हो ! इतनी देर तक मुझे खड़े रखने का मतलब क्या है ? " कौशिक को क्रोध से उन्मत्त देख कर रमणी ने बहुत प्रकार से अनुनय-विनय करके उनको शान्त करने की चेष्टा करने लगीं। उन्होंने कहा- " देखिये मैं अपने पति को परमेश्वर के रूप में देखती हूँ, वे थके हुए वापस लौटे थे और भूख से व्याकुल थे, इसीलिए मैं उनकी थोड़ी सेवा करने में लग गयी थी, जिसके कारण आपको भिक्षा देने में थोड़ी देरी हो गयी है। कृपा करके आप इसका बुरा मत मानिये। " 
किन्तु कौशिक क्या इतनी आसानी से शान्त होने वाले थे ? थोड़े ही दिनों पूर्व तो क्रोधाग्नि में इन्होंने एक बगुले को जला कर भष्म कर दिया था ! वे क्या कोई साधारण व्यक्ति थे ! उनमें कितनी शक्ति है ! और यह औरत अभी तक यह नहीं समझ रही है, कि किसके साथ उसने ऐसा व्यवहार करने का दुस्साहस किया है ! 
यदि  आवश्यक लगा तो इसको समझा देने में कितना वक्त लगेगा !
 बोले - " तुम में तो बहुत ज्यादा घमण्ड देख रहा हूँ ! तुमने गृहस्थ होकर, एक ब्राह्मण (संन्यासी) का इस प्रकार से अपमान किया ! क्या तुम यह नहीं जानती कि ब्राह्मण (संन्यासी) की शक्ति कैसी होती है, उसकी क्रोधदृष्टि कितनी भयानक हो सकती है ! " 
रमणी ने थोड़ा हंस कर बोली जानती हूँ ब्राह्मण देवता, मैं सब जानती हूँ। इतना गुस्सा क्यों हो रहे हैं ? सिर को ठंढा कीजिये। क्रोध करके मेरा क्या बिगाड़ लेंगे ? मैं भी क्या कोई बगुला हूँ ? अच्छा आप तो वेद मन्त्रों का पाठ भी करते हैं, फिर तो आप निश्चय ही इस बात को जानते होंगे कि क्रोध धर्म पथ का घोर शत्रु है ! फिर भी मैं
देखती हूँ कि आपने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई है। वास्तविक धर्म किसे कहते हैं, मैं देख सकती हूँ कि आप अभी तक आप इस बात को अच्छी तरह से समझ नहीं सके है !" उस रमणी की बातों को सुन कर कौशिक को बहुत आश्चर्य हुआ। सारा गुस्सा कहाँ चला गया पता भी नहीं चला। वे विचार करने लगे, " यह औरत भी तो कम नहीं मालूम दे रही है ! मैंने कहाँ जंगल में क्या करके आया हूँ, इसको अपने घर में बैठे बैठे ही कैसे पता चल गया ? परिवार में रहकर भी यह धर्म पथ में बहुत आगे निकल चुकी है, देखता हूँ, कुछ शक्ति भी इसने प्राप्त कर ली है ! " 
रमणी कहने लगी , " ब्राह्मण देवता, मैं अन्य कोई धर्म नहीं जानती, जी-जान से अपना कर्तव्य पालन करती हूँ। यही मेरा धर्म है, यही मेरी तपस्या है। पती को परम देवता और उनकी सेवा को ही परम धर्म जान कर मैं वही करती जा रही हूँ। इसीके कारण धर्म पथ पर भी अग्रसर हो रही हूँ। और जहाँ तक शक्ति की बात है, उसे भी मैंने घर बैठे ही प्राप्त कर लिया है; और उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी आपको मिल चूका है। आपने दूर घने जंगल में कहाँ क्रोध की अग्नि में बगुले को भष्म कर दिया है, घर बैठे ही मैंने उसको जान लिया है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वास्तव में धर्म क्या है, यह भी आपने अभी सही रूप में नहीं समझा है। मेरी बात मानिये और आप मिथिला चले जाइये। वहाँ पर ' धर्म-व्याध ' नामक एक कसाई रहते हैं। उनको धर्म का गूढ़ रहस्य ज्ञात है। वे सत्यवादी हैं, जितेन्द्रिय हैं, एवं माता-पिता के सेवा परायण हैं। आप उनके साथ मिलिए। आपको यथार्थ धर्म के सम्बन्ध में वे ही उपदेश देंगे। " 
उनकी बातों को सुनने के बाद भिक्षा लेकर कौशिक वापस लौट गए। परन्तु तब तक उनमें अपनी शक्ति का अहंकार बहुत हद तक कम हो गया था। आध्यात्मिक पूर्णता को प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग के साधक प्राप्त कर सकते हैं ! 
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Friday, June 8, 2012

कहानियों में वेदान्त/ 1

कहानियों में वेदान्त
स्वामी विश्वाश्रयानन्द
प्रकाशक: सचिव, रामकृष्ण मिशन कोलकाता स्टुडेंट्स होम
बेलघरिया, कोलकाता -70056
निवेदन
आचार्य शंकर, श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द तथा अन्य सत्यद्रष्टा ऋषियों के जीवन की अनेक घटनाओं एवं उनके द्वारा कथित कहानियों में वेदान्त के बहुत से कठिन विषय अत्यन्त सहज रूप से बोधगम्य हो जाते हैं।
हमारे ऋषियों ने भारतीय धर्म एवं सभ्यता के मूल सिद्धान्त तथा आध्यात्मिक तत्व को सरलता से समझाने के लिए पुराणों का तो कहना ही क्या, कई स्थानों पर कहानियों के माध्यम से उन्हें बोधगम्य बनाने का प्रयास किया है।
उन्हीं सब घटनाओं तथा कहानियों में से कुछ को आधार बना कर यह ' कहानियों में वेदान्त ' नामक पुस्तक प्रकाशित हो रहा है।
 वेदान्त के सार्वभौमिक उदार विचार समूहों की ओर साधारण जनता की दृष्टि को आकर्षित करना ही इसका उद्देश्य है। इन कहानियों के वर्णन में सत्यद्रष्टा ऋषियों के संदेशों में समाहित मूल विचारों को सर्वत्र अक्षुन्न रखा गया है। उदाहरण में अधिकांश सत्यद्रष्टा ऋषियों द्वारा कथित संदेशों से ही लिया गया है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- 'वेदान्त ही हमारा जीवन है, वेदान्त में ही हमलोगों का प्राण बसता है।' राष्ट्र के सर्वांगीन विकास के लिए उन्होंने सम्पूर्ण भारत को वेदान्त के जीवन दायीनी शक्तिदायी विचारों के जलप्रवाह में डुबो देने का परामर्श दिया है।
केन्द्रिय शिक्षा-मन्त्रालय ने उन्हीं के संदेशों से उत्प्रेरित होकर इस प्रकार की पुस्तक को प्रकाशित करने के सद्प्रयास में सहायता प्रदान की है। स्वामी विवेकानन्द की जन्म-शदाब्दी के अवसर पर उन्हीं के चरणों में यह अर्ध्य निवेदित है !



लेखक
प्रथम प्रकाशन के अवसर पर प्रकाशक का निवेदन 
श्रीभगवान की कृपा से ' कहानियों में वेदान्त ' प्रकाशित हो रहा है। छात्रों की बुद्धि के विकास के साथ साथ जिन विचारों के आत्मसातीकरण होने से उनका सुन्दर चरित्र गठित हो जाता है, इस कार्य में यह पुस्तिका बहुत ही सहायक सिद्ध होगी इसमें कुछ संदेह नहीं है। यह बात सर्वविदित है कि बचपन में किस्से कथाएं सुनना सब को पसंद होता है। शायद इसीलिए समस्त देशों में समस्त समाजों में इतनी कहानियां रचित हुई हैं, और आज भी प्रचलित हैं। 
भारत में धर्म के मूल तथ्य वेदान्त में ही सन्निहित हैं। हमारे आचार्यों ने युगों युगों से वेदान्त के इन गूढ़ विचारों को आमजनता के बीच प्रचारित करने के उद्देश्य से बहुत से रूपक एवं कहानियों की सहायता ली है। ये कथाएं चाहे जितनी भी प्राचीन क्यों न हों, वे सब आज भी उसी प्रकार शिक्षाप्रद एवं लोकप्रिय बनी हुई हैं। 
भारत सरकार ने धर्म के मूल तथ्यों को कथा-कहानियों के माध्यम से जनसाधारण को सिखाने के उद्देश्य से देश की विभिन्न भाषाओँ में ' कहानी-पुस्तक ' लेखन प्रतियोगोता का आयोजन किया था। रामकृष्ण मठ और मिशन के संचालकों के निर्देशानुसार स्वामी विश्वाश्रयानन्द ने बंगला भाषा में इस ' कहानी -पुस्तक ' को लिखा है। यह बड़े ही आनंद की बात है कि भारत सरकार द्वारा मनोनीत निर्णायक मण्डली ने इसी पुस्तक को सर्वोत्तम घोषित किया है। सरकारी विज्ञप्ति में यह भी कहा गया था कि इस सर्वत्तम घोषित पुस्तक का प्रकाशन भी उनके ही द्वारा होगा। किन्तु बाद में उन्होंने किसी अपरिहार्य कारणों से इस पुस्तक के प्रकाशन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित रखने का निर्णय लिया है। किन्तु उनहोंने लेखक को इस पुस्तक को प्रकाशित करने की अनुमति अवश्य प्रदान की है।       
दूसरी ओर सरकारी विज्ञप्ति में सर्वोत्तम निर्वाचित पुस्तक के रूप में ' कहानियों में वेदान्त ' का नाम प्रकाशित होने के कारण बहुत से व्यक्तियों में इस पुस्तक को पाने का विशेष आग्रह दिखाई दे रहा है। इसीलिए बहुत प्रकार की असुविधाओं के रहने पर भी स्वामी विवेकानन्द निर्दिष्ट सेवा-धर्म से अनुप्रेरित होकर श्रीभगवान के चरणों में इसके परिणाम को समर्पित करते हुए यह पुस्तक प्रकाशित हो रहा है। किमधिकमिति।
स्वामी सन्तोषानन्द 
प्रकाशक 
महालया 1370. 
प्रकाशक का निवेदन 
श्रीश्रीजगदम्बा की कृपा से ' कहानियों में वेदान्त ' का 17 वां संस्करण प्रकाशित हो रहा है। यथासंभव पुस्तक को आद्द्योपांत देख लिया गया है। कागज तथा छपाई खर्च में बेहिसाब वृद्धि होने के कारण पुस्तक का मूल्य बढ़ाने को हम बाध्य हुए हैं।
1ला वैशाख, 1406 
हिन्दी अनुवादक का निवेदन 
इस पुस्तक में वर्णित अमूल्य कहानियों को हिन्दी-भाषी तरुणों-विद्यार्थियों को सुनाने से उनके चरित्र गठन में निश्चित रूप से सहायता मिलेगी, इसी विचार से इसका हिंदी अनुवाद भी श्रीश्रीजगदम्बा ( माँ सारदा देवी ) के चरणों में समर्पित है। जो असंख्य बालक-बालिकाओं के रूप में इसकी प्रतीक्षा कर रही हैं। 
9जून 2012.
14 अप्रैल 2021 :  इन्हीं कहानियों को पुनः " वेदान्त -बोधक कथाएँ " के नाम से नये रूप में स्वामी अमरानन्द जी ने नए ढंग से अनुवादित किया है। जिसका हिन्दी अनुवाद मासिक पत्रिका 'विवेक -ज्योति ' के सम्पादक स्वामी विदेहात्मानन्द ने किया है। इस पुस्तक के सारांश को भी प्रत्येक कथा के अंत में दिया गया है। 
प्रार्थना

ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्‍योतिर्गमय ।

 मृत्‍योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ।

    - वृहदारन्यक उपनिषद 
रुद्रं यतते दक्षिणं मुखं ............
श्वेताश्वतर उपनिषद।
असत राह से मुझे सत राह पर लो,
ज्ञान आलोक से मन का अँधेरा हटाओ। ........