शनिवार, 9 जून 2012

" बगुला भष्म " [3]कहानियों में वेदान्त


' प्रवृत्ति मार्ग के दो अद्भुत शिक्षक :  पतिव्रता स्त्री एवं धर्म व्याध  '
एक बहुत घना जंगल था। एक से बढ़ कर एक ऊँचे ऊँचे वृक्ष थे जिनकी डालियाँ घने पत्तों से आच्छादित थीं। डाली-डाली बड़े बड़े पत्तों से लदी हुई थीं।उन पत्तों से छन छन कर सूर्य की किरणें कहीं कही थोडा-बहुत प्रवेश कर सकती थीं, और कहीं तो बिल्कुल भी प्रविष्ट नहीं हो पाती थीं।उस जंगल में बाघ, सिंह, भालू, आदि बहुत से हिंसक पशु आदि का वास तो हो सकता था, किन्तु वहां कोई मनुष्य भी रहता होगा, ऐसी कल्पना भी नहीं हो सकती थी।
फिर भी, देखा जा रहा था कि एक व्यक्ति  अपने सगे-सम्बन्धियों से भरे, सुख-सुविधा से सम्पन्न घर-परिवार को छोड़ कर इस खतरे से भरे स्थान में वास कर रहे थे। इस समय एक पेड़ के नीचे बैठ कर वे वेद-पाठ करते थे। हाँ बीच बीच में भिक्षा के लिए उनको जरुर निकट के गाँव में जाना पड़ता था। गाँव की आबादी के साथ उनका बस इतना ही सम्बन्ध था। भिक्षा लेकर वे पुनः जंगल में अवस्थित अपनी निर्जन कुटिया में लौट आते थे।
वे एक ब्राह्मण थे, उनका नाम कौशिक था। वे तपस्या करने और शास्त्र पाठ करने में सुविधा होगा, यही सोच कर अपने माता पिता की अनुमति प्राप्त किये बिना ही घर छोड़ कर जंगल में वास कर  रहे थे। घर में रहते समय भी वे बहुत श्रद्धा के साथ वेदपाठ किया करते थे। ' पतिव्रता स्त्री को आत्मज्ञान प्राप्त होता है '
एक दिन पेड़ के नीचे बैठ कर कौशिक जी वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे। उनके ठीक सिर के उपर एक डाली पर एक बगुला बैठा हुआ था। बगुला ने एक समय बिट कर दिया, और उसका बिट कौशिक के सिर के उपर आ गिरा। यह देख कर वे अत्यन्त क्रोध से भर उठे। यह दुष्कर्म किसने किया है, यह देखने के लिए अपनी आँखों को लाल करके बड़े क्रोध से उपर की ओर देखे। तपस्या के फलस्वरूप कौशिक में थोड़ी अलौकिक शक्ति उत्पन्न हो गयी थी। उनके क्रोधाग्नि में जल कर बगुला देखने के साथ ही साथ जल कर मर गया। यह देख कर कौशिक को अपनी शक्ति का पता चल गया, वे प्रसन्न हो गये। हाँ, उस बगुले के लिए उनके हृदय में थोड़ी करुणा का संचार भी हुआ। किन्तु इस दुष्कर्म के लिए उनके मन में थोड़ा पश्चाताप भी हुआ। उन्होंने 
सोचा- ' क्रोध का दास होकर मैंने एक अन्यायपूर्ण कार्य कर दिया है ! ' 
तपस्या आदि करने से कई बार इस प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाया करती हैं। किन्तु इन शक्तियों प्राप्त करने से मन में अहंकार आने की आशंका रहती है, तपस्या का उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति है, इस लक्ष्य को ही भूल जाने का भय रहता है। जो लोग इस बारे में सतर्क रहते हैं, वे इन सब शक्तियों की तरफ मुंह उठा कर भी नहीं देखते, वे सीधा अपने लक्ष्य की ओर ही बढ़ते जाते हैं। उन्ही लोगों को शिघ्र आत्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का बोध ) प्राप्त हो जाता है। 
इस घटना के कुछ दिनों बाद कौशिक भिक्षा के लिए गाँव में जाते हैं। भिक्षा मांगते हुए एक रमणी के घर के दरवाजे पर आ पहुँचते हैं। रमणी उनको थोड़ी प्रतीक्षा करने को बोल कर अपने घर के भीतर चली जाती है। वे भिक्षा में कुछ देने के लिए सोच ही रही थी कि उसी समय उसके पती घर में वापस लौट आते हैं। वह रमणी एक पतिव्रता स्त्रि थी, जिस प्रकार देवता की सेवा की जाती है, उसी भाव से वे अपने पती की भी सेवा करती थीं। अपने पती को भूख से व्याकुल देख कर, कौशिक को भिक्षा दिए बिना ही, पहले अपना ध्यान उनहोंने पती की सेवा में लगा दिया। उनका हाथ-पैर धो-पोछ कर उनको पंखा झलने बैठ गयीं। थोडा शांत होने पर उनके सामने भोजन परोस कर रख दिया। इसी समय कौशिक की याद आने पर रमणी थोड़ी लज्जित होकर जल्दी जल्दी भिक्षा द्रव्य लेकर कैशिक को देने के लिए बाहर निकलीं। 
कौशिक इतनी देर से बाहर खड़े खड़े रमणी के समस्त गतिविधियों को देख रहे थे, और क्रमशः क्रोध से फूलते जा रहे थे। रमणी के बाहर निकलते ही वे उसके उपर बरस पड़े- " मुझसे आगे जाने को तो तुम कह सकती 
थी, ' थोडा रुकिए ' कह कर भीतर गयी तो फिर इतनी देर के बाद बाहर आई हो ! इतनी देर तक मुझे खड़े रखने का मतलब क्या है ? " कौशिक को क्रोध से उन्मत्त देख कर रमणी ने बहुत प्रकार से अनुनय-विनय करके उनको शान्त करने की चेष्टा करने लगीं। उन्होंने कहा- " देखिये मैं अपने पति को परमेश्वर के रूप में देखती हूँ, वे थके हुए वापस लौटे थे और भूख से व्याकुल थे, इसीलिए मैं उनकी थोड़ी सेवा करने में लग गयी थी, जिसके कारण आपको भिक्षा देने में थोड़ी देरी हो गयी है। कृपा करके आप इसका बुरा मत मानिये। " 
किन्तु कौशिक क्या इतनी आसानी से शान्त होने वाले थे ? थोड़े ही दिनों पूर्व तो क्रोधाग्नि में इन्होंने एक बगुले को जला कर भष्म कर दिया था ! वे क्या कोई साधारण व्यक्ति थे ! उनमें कितनी शक्ति है ! और यह औरत अभी तक यह नहीं समझ रही है, कि किसके साथ उसने ऐसा व्यवहार करने का दुस्साहस किया है ! 
यदि  आवश्यक लगा तो इसको समझा देने में कितना वक्त लगेगा !
 बोले - " तुम में तो बहुत ज्यादा घमण्ड देख रहा हूँ ! तुमने गृहस्थ होकर, एक ब्राह्मण (संन्यासी) का इस प्रकार से अपमान किया ! क्या तुम यह नहीं जानती कि ब्राह्मण (संन्यासी) की शक्ति कैसी होती है, उसकी क्रोधदृष्टि कितनी भयानक हो सकती है ! " 
रमणी ने थोड़ा हंस कर बोली जानती हूँ ब्राह्मण देवता, मैं सब जानती हूँ। इतना गुस्सा क्यों हो रहे हैं ? सिर को ठंढा कीजिये। क्रोध करके मेरा क्या बिगाड़ लेंगे ? मैं भी क्या कोई बगुला हूँ ? अच्छा आप तो वेद मन्त्रों का पाठ भी करते हैं, फिर तो आप निश्चय ही इस बात को जानते होंगे कि क्रोध धर्म पथ का घोर शत्रु है ! फिर भी मैं
देखती हूँ कि आपने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई है। वास्तविक धर्म किसे कहते हैं, मैं देख सकती हूँ कि आप अभी तक आप इस बात को अच्छी तरह से समझ नहीं सके है !" उस रमणी की बातों को सुन कर कौशिक को बहुत आश्चर्य हुआ। सारा गुस्सा कहाँ चला गया पता भी नहीं चला। वे विचार करने लगे, " यह औरत भी तो कम नहीं मालूम दे रही है ! मैंने कहाँ जंगल में क्या करके आया हूँ, इसको अपने घर में बैठे बैठे ही कैसे पता चल गया ? परिवार में रहकर भी यह धर्म पथ में बहुत आगे निकल चुकी है, देखता हूँ, कुछ शक्ति भी इसने प्राप्त कर ली है ! " 
रमणी कहने लगी , " ब्राह्मण देवता, मैं अन्य कोई धर्म नहीं जानती, जी-जान से अपना कर्तव्य पालन करती हूँ। यही मेरा धर्म है, यही मेरी तपस्या है। पती को परम देवता और उनकी सेवा को ही परम धर्म जान कर मैं वही करती जा रही हूँ। इसीके कारण धर्म पथ पर भी अग्रसर हो रही हूँ। और जहाँ तक शक्ति की बात है, उसे भी मैंने घर बैठे ही प्राप्त कर लिया है; और उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी आपको मिल चूका है। आपने दूर घने जंगल में कहाँ क्रोध की अग्नि में बगुले को भष्म कर दिया है, घर बैठे ही मैंने उसको जान लिया है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वास्तव में धर्म क्या है, यह भी आपने अभी सही रूप में नहीं समझा है। मेरी बात मानिये और आप मिथिला चले जाइये। वहाँ पर ' धर्म-व्याध ' नामक एक कसाई रहते हैं। उनको धर्म का गूढ़ रहस्य ज्ञात है। वे सत्यवादी हैं, जितेन्द्रिय हैं, एवं माता-पिता के सेवा परायण हैं। आप उनके साथ मिलिए। आपको यथार्थ धर्म के सम्बन्ध में वे ही उपदेश देंगे। " 
उनकी बातों को सुनने के बाद भिक्षा लेकर कौशिक वापस लौट गए। परन्तु तब तक उनमें अपनी शक्ति का अहंकार बहुत हद तक कम हो गया था। आध्यात्मिक पूर्णता को प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग के साधक प्राप्त कर सकते हैं ! 
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