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शुक्रवार, 4 जून 2021

श्री रामकृष्ण दोहावली (19) " निवृत्ति मार्ग का अधिकारी कौन है ? " जो देखहि नारिहि मातु सम , कांचन माटी समान।"

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(19) 

 * संन्यासी का आदर्श * 

"  निवृत्ति मार्ग का अधिकारी कौन है ?  "  

185 ताड़ से निर्भय कूद सके , त्याग सके संसार। 

296 सोइ संन्यासी हो सके , कह श्री गुणागार।। 

संन्यास -ग्रहण का अधिकारी कौन है ? जो संसार को पूर्णरूपेण त्याग देता है, " कल क्या खाऊँगा, क्या पहनूँगा " -इसकी बिल्कुल फ़िक्र नहीं करता , वही ठीक-ठीक संन्यासी बनने लायक है।" जो ताड़ के पेड़ पर से निर्भय होकर नीचे कूद सकता है' वही ठीक ठीक संन्यास ग्रहण करने का योग्य अधिकारी है। 

[जो व्यक्ति 10 लाख का F.D. करा  लेने के बाद, संन्यासी बनता है, उसे निवृत्ति मार्ग का योग्य अधिकारी नहीं कह सकते !] 

186 सन्यासी अरु साँप , दोउ न बनावत निज गृह। 

 297 रहत सदा पर गृह में , हो निरभय निस्पृह।।

योगी और संन्यासी सर्प के समान होते हैं। सर्प अपना बिल कभी नहीं बनाता , वह सदा चूहे के बिल में रहता है। एक बिल नष्ट हो जाये , तो दूसरे में चला जाता है। योगी-संन्यासी लोग भी , इसी तरह , अपने लिये घर नहीं बनाते। वे दूसरों के यहाँ रहते हैं - आज यहाँ तो कल वहाँ , इस तरह दिन बिताते हैं।  

187 कल की चिन्ता जिसे नहीं , नहिं जिसका निज गृह। 

297 सोइ सन्यासी हो सके , जो सदा निस्पृह।। 

 जिसे किसी प्रकार का लोभ या लालसा न हो, उसे ही निस्पृह कहते हैं ,  सच्चे साधु-संत निस्पृह होते हैं। संन्यासी  कल के बारे में कुछ नहीं सोचता , कल के लिए कुछ भी नहीं बचाता।  जैसे वृक्ष अपना सबकुछ परहित में दान कर देता है , साधु भी क्या होगा कल ? इस  बारे में कुछ कभी नहीं  सोचता है । 

188 जैसे सफेद वस्त्र में , छोटे काला जंग। 

299 तस साधु के दोष लघु , दिखे बड़ा बेढंग।।

सफ़ेद धोती , सफ़ेद कुर्ता पर अगर थोड़ा सा भी काला लग जाये तो वह बहुत भद्दा दीखता है। साधुओं का या धर्मप्रचारक "नेता " का छोटा सा दोष भी बड़ा भारी मालूम होता है। 

189 देखहि नारिहि मातु सम , कांचन माटी समान। 

305 जीव हिय शिव देखहहिं , साधु कर पहचान।।

भक्त - सच्चे साधु की क्या पहचान है ?  

श्रीरामकृष्ण - जिसका मन, प्राण , अन्तरात्मा पूरी तरह ईश्वर (जनता जनार्दन की सेवा ) में ही समर्पित हो , वही सच्चा साधु/नेता है। सच्चा साधु कामिनी-कांचन का सम्पूर्ण त्याग कर देता है। वह स्त्रियों की ओर ऐहिक दृष्टि से नहीं देखता। वह सदा स्त्रियों से दूर रहता है , और यदि उसके पास कोई स्त्री आ जाये , तो वह उसे माता के समान देखता है। वह सदा ईश्वर-चिंतन में मग्न रहता है। और सर्वभूतों में ईश्वर विराजमान हैं , यह जानकर , सब की सेवा करता है। ये सच्चे साधुओं के कुछ साधारण लक्षण हैं

    जो साधु/नेता मंतर पढ़ के दवाई देता हो , झाड़- फूँक करता हो , पैसे लेता हो और भभूत रमाकर या माला-तिलक आदि बाह्य चिन्हों का आडम्बर रचकर,  मानो 'साईनबोर्ड ' लगाकर लोगों के सामने अपने साधुगिरी/गुरुगिरि/ नेतागिरी का प्रदर्शन करता हो , उस पर कभी विश्वास मत करना।  

190 परहित में जो रत रहे, करे न एक अहित। 

307 क्षमाशील स्वभाव है , सन्यासी का गीत।। 

'क्षमाशीलता' ही संन्यासी का स्वभाव है !  

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$$$$श्री रामकृष्ण दोहावली (18) "पूर्ण नीतिपरायण और साहसी बनो ! एक पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बनो ! दृढ़ चरित्रसम्पन्न, अटल साहसी और निर्भीक ! और इसके लिए ~छू हरिचरण जो जग करे , माया बांध न पाहिं। " प्रवृत्ति मार्ग' सरल और सुरक्षित है, 'निवृत्ति मार्ग' खतरनाक ! "

                         श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(18) 

* गृहस्थ जीवन का आदर्श * 

*Be moral. Be brave. Be a heart-whole man.*

(और इसके लिए 'प्रवृत्ति मार्ग' सबसे सरल और सुरक्षित है, 'निवृत्ति मार्ग'  खतरनाक !) 

184 लड़ना किला की आड़ सरल , कठिन खुले मैदान। 

291 तस साधन जग बीच सरल , कठिन त्याग पथ जान।।

जो संसार में रहते हुए साधना करते हैं , वे किले की ओट से युद्ध करनेवाले सैनिकों की तरह होते हैं , और जो भगवान के लिए संसार को त्यागकर चले जाते हैं , वे खुले मैदान में लड़नेवाले सैनिकों की तरह होते हैं। किले के भीतर रहकर लड़ना खुले मैदान में लड़ने से काफी सरल और सुरक्षित है।   

[स्वामी जी अपने 5 जनवरी, 1890 को लिखे पत्र में कहते हैं - 'Be moral. Be brave. Be a heart-whole man.' "पूर्ण नीतिपरायण और साहसी बनो ! एक पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बनो ! दृढ़ चरित्रसम्पन्न, अटल साहसी और निर्भीक ! धार्मिक मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते- यहाँ तक कि वे अपने मन में भी कभी पापचिन्ता का उदय नहीं होने देते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो।"

Be moral. Be brave. Be a heart-whole man. Strictly moral, brave unto desperation. Don't bother your head with religious theories. Cowards only sin, brave men never, no, not even in mind. Try to love anybody and everybody. Be a man and try to make those immediately under your care, namely Ram, Krishnamayi, and Indu, brave, moral, and sympathising. No religion for you, my children, but morality and bravery. No cowardice, no sin, no crime, no weakness — the rest will come of itself. . . 

दादा का प्रियभजन :

 साधन करना - चाहि रे मनवा, भजन करना चाहि।।

मीरा कहे बिना प्रेम से, नहीं मिली हे नंदलाला। 

प्रीत करना चाहि, प्रेम लगाना चाहि, भजन करना चाहि,

प्रीत करना चाहि, साधन करना, चाहि रे मनवा, भजन करना चाहि। 

तुलसी पूजन से हरि मिलें तो,  पूजूँ तुलसी ताड़। 

तुलसी पूजन से हरि मिलें तो, मैं पूजूँ तुलसी ताड़। 

पत्थर पूछजान से हरी मिलें तो, मैं पूजूँ पहाड़। 

मैं पूजूँ पहाड़। 

दूध पीने से हरि मिलें, दूध पीने से हरि मिलें तो। 

बहुत वत्स बाला,  बहुत वत्स बाला। 

नारी छोड़न से हरि मिले तो , बहुत रहे हैं खोजा,  

मीरा कहे बिना प्रेम से, मीरा कहे बिना प्रेम से; नहीं मिलें नंदलाला,

 नहीं मिलें नंदलाला, नहीं मिलें नंदलाला।  

183 सिर पर जो जग बोझ रख , सुमर सके भगवान। 

290 रामकृष्ण कह तेहि सम , साधक वीर न आन।। 

संसार में रहकर सब कर्तव्यों को करते हुए , जो मन को ईश्वर में स्थिर रखकर साधन कर सकता है , वह यथार्थ में वीर साधक है। शक्तिवान पुरुष ही सिर पर दो मन भारी बोझ लादकर चलते हुए , गर्दन मोड़कर राह से गुजरती हुई बारात की ओर देख सकता है !! 

       (अमृतवाणी~ 293) वह मनुष्य धन्य है जिसका देह, मन और हृदय तीनों (3H) ही समान रूप से विकसित हुए हैं। सभी परिश्थितियों में वह सरलता के साथ उत्तीर्ण हो जाता है। भगवान श्रीरामकृष्ण देव के प्रति उसमें सरल विश्वास और दृढ़ श्रद्धा-भक्ति होती है , साथ ही उसमें आचार -व्यवहार में भी कोई कमी नहीं होती। सांसारिक व्यवहार के समय वह पूरा -पूरा व्यवसायी होता है , विद्वान् पण्डितों की सभा में वह सर्वश्रेष्ठ विद्वान् सिद्ध होता है; वाद-विवाद में अकाट्य युक्तियों के द्वारा वह अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का परिचय देता है। मातापिता-गुरु के सम्मुख वह विनयी, आज्ञाकारी होता है , आत्मीय-स्वजन और मित्रों को वह अतिशय प्रिय प्रतीत होता है , पड़ोसियों के प्रति वह दया और सहानुभूति रखता है और सदा उनकी मदद के लिए तैयार रहता है , पत्नी के सामने वह मानो साक्षात् मदनदेवता होता है। इस तरह का मनुष्य वास्तव में सर्वगुण -सम्पन्न होता है।  

178 चार घड़ा भर सिर रखे , जल इक छलकत नाहिं। 

284 तस हरि सुमिरत काज कर , पग बेताल न जाहिं।।

179 दस घड़ा सिर रख चले, साधे सब सध जाये। 

284 तस साधन ते मन सधे , क्षणमपि हरि न भुलाय।।

उत्तर भारत (राजस्थान ) की ग्रामीण स्त्रियाँ सिर पर एक साथ चार-पाँच घड़े लेकर आपस में सुख-दुख की बातें करती हुई रास्ते से चली जाती हैं , घड़े से एक बून्द भी पानी नहीं गिरता। धर्मपथ के पथिक को भी ऐसा ही होना चाहिए। सभी अवस्थाओं में उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि मन ईश्वर के पथ से दूर न हट जाये।

[ स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयम का अभ्यास करने से , या  " विवेकदर्शन का अभ्यास" करने से उभयतो वाहिनी चित्तनदी का विवेक-श्रोत उद्घाटित हो जाता है; और उसके फलस्वरूप एक क्षण भी वे हरि--जिन्होंने नारद को माया-दर्शन करवा देने के बाद ," सन्तुलन (Poise)" में लाने के लिये पूछा था पानी ले आये नारद ? विस्मृत नहीं होते अर्थात भगवान विष्णु के अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण, विस्मृत नहीं होते !]       

175 छू हरिचरण जो जग करे , माया बांध न पाहिं। 

279 जस ढाई छू खेल करे , पकड़न भय कछु नाहिं।।

जैसे लुकी -लुकउअल के खेल में अगर कोई ढाई को छू ले तो उसे चोर नहीं बनना पड़ता , वैसे ही मनुष्य यदि एक बार भगवान के चरण कमलों को छू ले , तो वह संसार बंधन में आबद्ध नहीं होता। जैसे ढाई को छू लेने पर खेल में पकड़े जाने या दाँव देने का डर नहीं रह जाता , वैसे ही भगवान के चरणों को छू लेने पर , उनका आश्रय लेने पर ; संसाररूपी खेल के मैदान में बद्ध होने का भय नहीं रह जाता। [ जो भगवान दिखाई नहीं पड़ते , उन भगवान के चरण कमलों को छूने की पद्धति क्या है ?]   

176 धान कूटे  सौदा करे , रख मन मूसल माहिं। 

282 तस मनवा जग करम करो , रख मन प्रभु पद पाहिं।।

संसार और ईश्वर दोनों बातें एक साथ होना कैसे सम्भव है ? -चिउड़ा कुटनेवाली स्त्री एक हाथ से ढेंकी की ओखली के भीतर चिउड़ा डालती जाती है , दूसरे हाथ से बच्चे को गोद लेकर दूध पिलाती है , साथ ही ग्राहकों से लेनदेन का हिसाब करती जाती  है। 

इस तरह वह एक ही साथ अनेकों काम करती रहती है , पर उसका मन सदा ढेंकी के मुसल की ओर लगा रहता है;  कि कहीं वह हाथ पर नहीं आ गिरे ! इसी प्रकार तुम संसार में रहते हुए सब काम करो , किन्तु सतत ध्यान रखो कि कहीं ईश्वर के पथ से दूर न चले जाओ।  

173 दूध मिले नवनीत नहिं , रहहि जलद उपलाई। 

277 तिमि नर जग कारज करहु , जग ते मन बिगलाई।।

174 जस कटहल चिपके नहिं,  काटो तेल लगाय। 

277 पा दरसन तस जगत करो , माया बाँध न पाय।।

दूध को यदि पानी में डालें तो वह पानी के साथ घूलमिल जायेगा। लेकिन यदि दूध का दही जमाकर उसका मक्खन निकाल लें ; और उसे पानी में छोड़ें तब मक्खन जल के ऊपर तैरता रहेगा। उसी तरह मनुष्य को पहले मनःसंयोग (विवेकदर्शन) की पद्धति सीखकर , मन को ठाकुर के चरणों में नियोजित रखते हुए  जगत के कार्य करना चाहिए। 

" यदि तुम हाथ में तेल लगाकर कच्चे कटहल को काटो तो तुम्हारे हाथ में उसका दूध नहीं चिपकेगा। इसी तरह यदि ब्रह्मज्ञान लाभ कर लेने के बाद संसार में रहो , तो तुम्हें कामिनी -कांचन की बाधा नहीं होगी। "     

180 बंचक औरत काज करे , सुमिरे मन से यार। 

285 तस मनुवा जग काज करो , सुमिरत हरि उदार।।

बदचलन औरत संसार में रहती हुई गृहस्थी के काम-काज में मग्न रहती है , पर उसका मन सदा अपने यार की ओर ही पड़ा रहता है। हे संसारी जीव , तुम भी संसार में अपने कर्तव्यों को करते रहो , पर मन सदा ईश्वर में लगाए रखो। 

181 रहो सदा संसार में , इक दासी की नाइ। 

286 मालिक घर सब काम करे , बिन मंमता उपजाइ।।

जिस प्रकार धनिकों के घर की दासी मालिक के बच्चे को अपने ही बच्चों की तरह प्रेम से पालती -पोसती है,पर मन ही मन निश्चित जानती है कि इन पर मेरा कोई अधिकार नहीं। उसी प्रकार , तूम भी अपने बच्चों का प्रेम से पालन-पोषण करो, परन्तु मन ही मन यह जान रखो कि उन पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं, भगवान ही उनके यथार्थ पिता हैं। 

[ठाकुर -माँ उनके भी माता-पिता हैं और स्वामीजी बड़े भाई हैं !]      

182 हाथ बजावे एक तारा , मुख से बाउल गान। 

287 तस कर से जग काज करो , मुख ते प्रभु गुणगान।।

'बाउल ' सम्प्रदाय के फ़क़ीर जैसे एक हाथ से इकतारा और दूसरे हाथ से डफली बजाते हैं; और मुँह से भजन भी गाते जाते हैं। वैसे ही, हे संसारी जीव , तुम भी हाथों से संसार के काम-काज करते रहो , परन्तु मुँह से ईश्वर का नाम जपना न भूलो।   

171 परम आत्मीय नाथ मम , तव बिन नहिं मम कोई। 

275 का विधि पावहुँ दरस अब , सोचहु निशि दिन खोई।।

तुम यदि संसार में निर्लिप्त भाव से रहना चाहो तो पहले तुम्हें निर्जन रहकर साधना करनी चाहिये। निर्जन में जाना जाना जरुरी है - एक साल के लिए , छह महीने के लिये , एक महीने के लिए , या कम से कम बारह ही दिनों के लिए सही। एकान्त रहते हुए ईश्वर का आन्तरिकता के साथ ध्यान-चिंतन करना चाहिये , ज्ञान-भक्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिये। 

      मन ही मन विचार करना (मनन करना - यानि doubt clear कर लेना चाहिए, कि हमारे सर्वस्व कौन हैं ?), चाहिए - " इस संसार में मेरा कोई नहीं है। जिन्हें मैं अपना समझता हूँ, वे दो दिन के लिये हैं - सब चले जाने वाले हैं। भगवान ही मेरे आत्मीयजन हैं। वे मेरे सर्वस्व हैं। हाय , उन्हें मैं कैसे पाऊँ ? यही सब चिंतन करते रहना चाहिए। "  

172 विधर्मी निन्दहिं धरम , और करहि उपहास। 

276 कह ठाकुर साधन समय , जाहु न रखहु पास।।

जो लोग किसी को पूजा -उपासना करते देख उसकी खिल्ली उड़ाते हैं , धर्म की या धार्मिक व्यक्तियों की निन्दा करते हैं , साधना की अवस्था में ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिये। 

177 खम्भा धर बालक घूमे , जस गिरन डर नाहिं। 

283 तस धर हरि सब काज कर , विपद सकल छूट जाहिं।।

जिस प्रकार बालक एक हाथ से खम्भा पकड़कर जोरों से गोल-गोल घूमता है - उसे गिर पड़ने का डर नहीं होता। उसी प्रकार ईश्वर को पक्का पकड़कर संसार के सभी काम करो, इससे तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।        

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श्री रामकृष्ण दोहावली (17) एक हाथ जग करम करो , दूजे धर प्रभु पाद ~" साँप के मुँह में मेढक को नचाओ, पर साँप उसे निगल न पाए। " गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले साधकों के प्रति उपदेश/भक्त ह्रदय आनन्द झरे , करत प्रभु से बात- " भक्तों का आपसी नाता "

                       श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(17) 

गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले साधकों के प्रति उपदेश  

162 एक हाथ जग करम करो , दूजे धर प्रभु पाद। 

267 शेष होत सब करम के , सोलह मन कर याद।।

तुम संसार में रहकर गृहस्थी चला रहे हो - इसमें हानि नहीं , परन्तु तुम्हें अपना मन ईश्वर की ओर रखना चाहिये। एक हाथ से कर्म करो , और दूसरे हाथ से ईश्वर के चरणों को पकड़े रहो। जब संसार के कर्मों का अन्त  जायेगा , तब दोनों हाथों से ईश्वर के चरणों को पकड़ना। [ गजानन्द पाठक की,  फिल्म - पुनर्जागरण से !]   

168 ले शरण सब सौंप दो , प्रभु को जीवन डोर। 

271 कल्प तरु तर बैठ फिर , कहाँ दुःख की ठोर।।

जब भगवान ने ही तुम्हें संसार में (गृहस्थ जीवन में) रखा है , तो तुम क्या करोगे ? उनकी शरण लो, उन्हें सबकुछ सौंप दो , उनके चरणों में आत्मसमर्पण करो , ऐसा करने से फिर कोई कष्ट नहीं रह जायेगा। तब तुम देखोगे कि सब कुछ उन्हीं की इच्छा से हो रहा है।

जिस प्रकार बालक एक हाथ से खम्भा पकड़कर जोरों से गोल गोल घूमता है -उसे गिर पड़ने का डर नहीं होता। - उसी प्रकार ईश्वर को [माँ सारदा जगदम्बा को] पक्का पकड़कर संसार के सभी काम करो , इससे तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।    

 [अर्थात जब माँ काली (श्रीरामकृष्ण) ने ही तुम्हें पूर्वजन्म की tendency के अनुसार,  प्रवृत्ति धर्म का पालन करते हुए निवृत्ति में आने के योग्य समझा है , तो तुम क्या करोगे? जगतजननी माँ सारदा देवी की शरण लो, उन्हें सब कुछ सौंप दो , उनके चरणों में आत्मसमर्पण करो, ऐसा करने से तुम विपत्ति से मुक्त रहोगे।] 

159 जब जीवन में हो जावे , एक या दो सन्तान। 

264 पति पत्नी संयम करो , भाई बहन समान।। 

कामिनी -कांचन का पूर्ण त्याग संन्यासी के लिए है। संन्यासी को स्त्री स्त्रियों का चित्र तक नहीं देखना चाहिए। अचार या इमली की याद आते ही मुँह में पानी आ जाता है , देखने या छूने की तो बात ही क्या ! पर तुम जैसे गृहस्थों के लिये इतना कठिन नियम नहीं है, यह केवल संन्यासियों के लिए है। तुम ईश्वर की ओर मन रखकर , अनासक्त भाव से स्त्री के साथ रह सकते हो।

        पर मन को ईश्वर में लगाने और अनासक्त बनाने के लिये बीच-बीच में निर्जन-वास ** करना चाहिये। ऐसे निर्जन स्थान में जाकर तीन दिन , या संभव न हो तो एक ही दिन अकेले रहते हुए व्याकुल होकर ईश्वर को पुकारना चाहिये। 

    एक या दो सन्तान हो जाने के बाद पति-पत्नी को भाई -बहन की तरह रहते हुए सतत भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि " हे प्रभो ,हमें शक्ति दो ताकि हम संयम और पवित्रतापूर्ण जीवन बिता सकें। "  

{ निर्जनवास * = ऐसी जगह जहाँ 24 घंटे केवल चरित्र-निर्माण और ठाकुर, माँ और स्वामीजी के जीवन और उपदेशों पर चर्चा होती हो, जैसे महामण्डल का छः दिवसीय, तीन दिवसीय या एक दिवसीय -  युवा प्रशिक्षण शिविर और साप्ताहिक पाठचक्र !]   

160 मेढ़क नचाओ सर्प मुख , सर्प निगल नहीं पाये। 

265 अनासक्त हो जगत करो , सुन्दर सहज उपाय।।

संसार में रहो , पर संसारी मत बनो। जैसी की कहावत है, " साँप के मुँह में मेढक को नचाओ, पर साँप उसे निगल न पाए। "       

169 जनक जनक सब कोई कहे , जनक बनत नहीं कोई। 

272 जनम जनम जब तप करे , तब कोई जनक होई।।

गृहस्थाश्रम में रहकर भी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। जैसे राजर्षि जनक को हुए थे। परन्तु कहने मात्र से ही कोई राजा होकर भी ऋषि , राजर्षि जनक नहीं बन जाता। जनक राजा ने पहले निर्जन में जाकर कितने वर्षों तक उग्र तपस्या की थी ! गृहस्थों को बीच -बीच में , कम से कम तीन ही दिन के लिए , निर्जन में ** जाकर ईश्वरदर्शन के लिए प्रार्थना करनी चाहिए - इससे अत्यन्त लाभ होता है। 

 [ निर्जन  ** का अर्थ होता है - महामण्डल का छः दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर -जहाँ छः दिनों तक " Be and Make " के सिवा अन्य कोई चर्चा नहीं होती !]   

170 दही जमे एकान्त में , तस निर्जन में ध्यान। 

273 निर्जन में हरिभजन करो , कह ठाकुर सुजान।। 

एक बार ब्रह्मसमाज के कुछ सदस्यों ने मुझसे कहा था, " हम राजर्षि जनक को अपना आदर्श मानते हैं। हमलोग लोग उन्हीं की तरह निर्लिप्त होकर संसार करेंगे।  "  मैंने उनसे कहा - जनक राजा का उदाहरण देना आसान है , पर स्वयं राजा जनक जैसा बनना इतनी सरल बात नहीं। संसार में रहकर निर्लिप्त रहना बड़ा कठिन है। जनक राजा ने पहले कितनी कठोर तपस्या की थी ! तुम्हें इतनी कठोर तपस्या करने की जरूरत नहीं। परन्तु साधना करनी होगी, निर्जनवास करना ही होगा। निर्जन में ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके फिर संसार में प्रवेश कर सकते हो। दही एकान्त में ही अच्छा जमता है , हिलाने -डुलाने से नहीं जमता। 

      जनक निर्लिप्त थे , इसलिए उनका एक नाम 'विदेह ' था --विदेह माने देहबोध रहित! वे संसार में रहते हुए भी जीवनमुक्त थे। परन्तु देहबोध का नष्ट होना अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बहुत साधना चाहिए।   

     जनक राजा बड़े वीर थे।  वे एक ही साथ दो तलवारें चलाते थे -एक ज्ञान की दूसरी कर्म की ! 

{  .....  एई संसारई मजार कुटि , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी। जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिल त्रुटि। से जे येदिक उदिक दुदिक रेखे , खेयेछिल दूधेर बाटि।। अर्थात अपना गृहस्थ धर्म निभाते हुए लगातार महामण्डल का वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिवीर में भाग लेना ही होगा और महामण्डल केंद्रीय समिति के साथ सम्पर्क बनाये रखना होगा।  "এই সংসারই মজার কুটি, আমি খাই-দাই আর মজা লুটি।জনক রাজা মহাতেজা, তার কিসের ছিল ক্রটি।সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।” শ্রীশ্রীরামকৃষ্ণ কথামৃত /১৮৮২, ২৭শে অক্টোবর/}    

161 हो निर्लिप्त जग में रहो , जग न रहे तुम माहिं। 

266 नाव चलत जल पर सदा , भरत तुरत डूब जाहिं।।

 नाव पानी में रहे तो कोई हर्ज नहीं , पर नाव के अन्दर पानी न रहे, वरना नाव डूब जाएगी। साधक संसार में रहे तो कोई हर्ज नहीं , परन्तु साधक के भीतर संसार न रहे।   

163 रहो सदा संसार में , कमल पात की नाइ। 

268 पात सदा जल पर रहे , सकत न जल भिगाई।। 

164 रहो सदा संसार में , इक चींटी की नाइ। 

268 बालू चीनी मेल से लेत चीनी बिलगाइ।।

165 रहो सदा संसार में , हंस पक्षी की नाइ। 

268 सत असत मँह असत तज , लेवत सत बिलगाइ।।

निर्लिप्त होकर संसार में रहना कैसा है , जानते हो ? जैसे कमल का फूल या कीचड़ में रहने वाली 'पाँकाल' मछली। जल में रहने पर भी कमल की पँखुड़ियों में जल नहीं लगता , कीचड़ में रहते हुए भी 'पाँकाल ' मछली के अंग में कीचड़ नहीं लगता। 

166 पीठ घाव मन रहे जस , करे जगत के काम। 

269 तस मनवा भज सदा , जगपति राजा राम।। 

167 दाँत दरद मन रहे जस , करे जगत के काम। 

269 तस मनवा भज ले सदा ,  जगपति राजा राम।।

तुम संसार में यदि रहो भी तो इसमें कोई विशेष हानि नहीं। मन को सदा ईश्वर में रखकर निर्लिप्त भाव से संसार के सब काम किये जाओ। जैसे , अगर किसी की दाँत में दर्द हो,तो वह लोगों से बातचीत या दूसरे व्यवहार आदि तो करता है , पर उसका मन सब समय उस घाव के दर्द की ओर ही पड़ा रहता है। 

[" हंसा यह पिंजड़ा नहीं तेरा " के चिंतन में मन रमा रहे। 

158 धन अरजन जग में करो , रख कर विवेक विचार। 

260 सत कमाई सदा फले , असत फले कुविचार।।

एक गृहस्थ भक्त --महाराज , क्या मुझे ज्यादा पैसा कमाने के लिये कोशिश करनी चाहिए?  

श्रीरामकृष्ण : हाँ , यदि तुम विवेक-विचार के साथ संसार-धर्म का पालन करो, तो ऐसे संसार के लिए आवश्यक धन कमा सकते हो। पर ख्याल रहे तुम्हारी कमाई ईमानदारी की हो , क्योंकि तुम्हारा मुख्य उद्देश्य धन कमाना नहीं है , ईश्वर की सेवा करना ही तुम्हारा उद्देश्य है, ईश्वर की सेवा के लिए धन कमाने में कोई दोष नहीं है।   

भक्त -महाराज , संसार (परिवार) के प्रति कर्तव्य कब तक रहता है ? 

श्रीरामकृष्ण - जब तक संसार में सब की गुजर -बसर का प्रबन्ध न हो जाये।  अगर तुम्हारे बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ तो फिर उनके प्रति तुम्हारा कर्तव्य नहीं रह जाता।    

" भक्तों का आपसी नाता "

156 भक्त ह्रदय आनन्द झरे , करत प्रभु से बात। 

255 अपर भगत को कहहि सकल , कहहि न विषयी जात।।

स्त्रियों की अपने पति के साथ एकान्त में जो कुछ बातचीत होती है , उसे वे किसी के सामने कहते लजाती हैं। उन बातों को वे न तो किसी को बताती हैं , और न बताना चाहती हैं ; वे बातें यदि किसी तरह किसी के सामने प्रकट हो जायें तो स्त्रियाँ नाराज हो जाती हैं। परन्तु अपनी सहेलियों को वे स्वयं ही उन बातों को बताया करती हैं , इतना ही नहीं , वे उन्हें बतलाने के लिए उत्सुक भी रहती हैं, और बतलाकर आनन्दित होती हैं।  इसी प्रकार, भगवद्भक्त भी , भावावस्था में ईश्वर के साथ उसका जो वार्तालाप होता है , और उससे उसे हृदय में जिस प्रकार आनन्द अनुभव होता है , उस सब के विषय में हर किसी को बताना नहीं चाहता , क्योंकि उससे उसे सुख नहीं मिलता। किन्तु यथार्थ भक्त को [कुम्हड़ा -लौकी श्रेणी के भक्त ?] वह दिल खोलकर सब कुछ बताता है; बतलाने के लिए उत्सुक रहता है और बतलाकर आनन्दित होता है।  

157 भक्त भक्त संग मेल करे , करे हरि गुण गान। 

257 करे गंजेड़ी सकल मिल , जैसे गांजा पान।। 

क्या कारण है कि भक्त अकेला रहना पसन्द नहीं करता ? गँजेड़ी को अकेले गाँजा पीने में आनन्द नहीं मिलता। गँजेड़ी की ही तरह भक्त को भी अकेले ही भगवान का नाम गुणगान करने में मजा नहीं आता।

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श्री रामकृष्ण दोहावली (16) " यथार्थ साधक के लक्षण "

                         श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(16) 

" यथार्थ साधक के लक्षण  " 

148 यथार्थ भगत चकमक सम , बुझे न पाइ कुसंग। 

240 सुनतहि गदगद होहि अति , हरि गुण नाम प्रसंग।।

चकमक पत्थर अगर सैकड़ों साल पानी में पड़ा रहे फिर भी उसके भीतर की अग्नि नष्ट नहीं होती।  पानी के बाहर निकाल कर उस पर लोहे से चोट मारते ही उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगती हैं।  यथार्थ विश्वासी भक्त भी इसी तरह का होता है। हजारों अपवित्र विषयी लोगों से घिरा रहने पर भी उसके विश्वास या भक्ति की तनिक भी हानि नहीं होती। भगवान का नाम , भगवत्प्रसङ्ग सुनते ही वह प्रेम में मत्त हो उठता है।   

149 जिमि चख चीनी स्वाद नर , करत न गुड़ उपभोग। 

243 तिमि चख ब्रह्मानन्द रस , चखहि न विषयन भोग।।

विषयसुखों के प्रति आसक्ति कब नष्ट होती है ? जब मनुष्य समस्त सुखों की समष्टिस्वरुप, अखण्ड सच्चिदानन्द को प्राप्त कर लेता है , तब। जो उस आनन्दस्वरूप का उपभोग कर लेते हैं , उन्हें संसार के तुच्छ विषयसुखों में आसक्ति का त्याग करना नहीं पड़ता , वह आसक्ति (=मूर्खता, सम्मोहित अवस्था , भेंड़त्व की अवस्था) स्वतः चली जाती है। जिसने एक बार ताल मिश्री का स्वाद चखा है, उसे क्या सस्ते गुड़ का स्वाद अच्छा लगेगा?  जो एक बार ऊँची अटारी में सो चुका है , क्या उसे गन्दी झोपडी में सोना अच्छा लगेगा? इसी तरह जिसने एक बार ब्रह्मानन्द का स्वाद चख लिया है , वह क्या कभी तुच्छ विषयानन्द में रमा हुआ रह सकता है?    

  भीतर से विकसित होकर मनुष्यत्व प्राप्त करें  ---जब किसी अण्डे को बाहरी बल से तोड़ा जाता है , तो एक जीवन समाप्त हो जाता है। और यदि अण्डा भीतर से विकसित होकर टूट जाये , तब एक नया जीवन प्रारम्भ होता है ! महान मनुष्य (विद्वान्-ब्रह्मविद) का विकास सदैव भीतर से ही प्रारम्भ होता है। 

150 बालू चीनी मेल सम , गुण अवगुण जग माहि। 

247 संत हंस बिलगाइ तेहि , गुण निज शिस चढ़ाहि।। 

अगर शक्कर और बालू मिली हुई हो तो चींटी उसमें से बालू को छोड़कर शक्कर ही ग्रहण करती है। इसी तरह परमहंस और सत्पुरुष गण अच्छे -बुरे के मिश्रण में से अच्छे को ही ग्रहण करते हैं। [ अब प्रश्न होगा कि अच्छा किसे कहेंगे ? इस समझ को 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन ' से, श्रेय-प्रेय विवेक , शाश्वत-नश्वर विवेक, सत -असत विवेक ...आदि द्वारा बढ़ाया जा सकता है।]   

151 साधन नदी मँह भँवर सम , संशय दुःख निराश। 

248 सत साधक अटके नहिं , बढ़त तोड़ सब पाश।। 

      प्रवाह का जल वेग से बहता हुआ किसी किसी स्थान पर थोड़ी देर भंवर में घूमने लगता है, परन्तु फिर शीघ्र ही वह सीधी गति में वेग के साथ बह निकलता है। पवित्रहृदय , धार्मिक , व्यक्तियों का मन भी कभी- कभी दुःख-निराशा , अविश्वास आदि के भँवर में पड़ जाता है , पर वह अधिक देर तक उसमें अटका नहीं रहता , शीघ्र ही उससे छूटकर आगे निकल जाता है। 

152 खुजलावत जस दाद को , पुनः पुनः खुजलाहिं। 

250 भजत भजत तस नाम-गुण, भगत कबहुँ न अघाहिं।।

दाद को जितना खुजाओ उतनी ही और खुजाने की इच्छा होती है ; और उतना ज्यादा आराम मिलता है। इसी तरह भक्त भी भगवान का गुणगान करते नहीं अघाते।  

153 सुनत नाम अश्रु झरे , रोम रोम पुलकाहिं। 

251 जानहु तिन्हके अंत जनम , पुनि जग महँ नहि आहिं।

एक बार भगवान का नाम सुनते ही जिसके शरीर में रोमांच उत्पन्न होता है , और आँखों से प्रेमाश्रु की धार बहने लग जाती है , उसका यह निश्चित ही आखरी जन्म है। 

154 लख मोहर उजड़े घर में , उपजे न लालच भाव। 

253 यथार्थ धार्मिक का यह , होत न कबहु स्वभाव। 

155 लोक दिखावा लोक भय , धरे धरम के पाँव। 

253 यथार्थ धार्मिक का यह, होत न कबहु स्वभाव।।

जो व्यक्ति सब की दृष्टि से दूर एकान्त में भी - " भगवान देख रहे हैं " इस भय से कोई अधर्म-आचरण नहीं करता , वही यथार्थ धार्मिक है। निर्जन वन में सुन्दर नवयुवती को अकेली देखकर भी जो धर्म के भय से भीत होकर उस पर कुदृष्टि नहीं डालता , वही यथार्थ धार्मिक है। जो वीरान में , किसी उजाड़ घर में मुहरों से भरी थैली देखकर भी उसे उठाने के मोह को रोक सकता है , वही ठीक ठीक धार्मिक है। जो केवल दिखावे भर के लिए या ' लोग क्या कहेंगे ? ' इस भय से सिर्फ लोगों के सामने धर्म का अनुष्ठान करता है , उसे ठीक ठीक धार्मिक नहीं कहा जा सकता। निर्जन नीरव में अनुष्ठित होने वाला धर्म ही यथार्थ धर्म है , भीड़-भाड़ या और कोलाहल में अनुष्ठित होने वाला धर्म, धर्म नहीं हैं।  

        [ ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है और इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसकी निगाह से दूर हो। वह सभी को देख रहा है। उससे छिपाकर कोई काम नहीं किया जा सकता।]

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श्री रामकृष्ण दोहावली (15) नित्यसिद्ध (नेता) को ईश्वर का लाभ पहले हो जाता है , साधना पीछे से होती है; जैसे लौकी , कुम्हड़े लत्तर में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं।

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(15) 

" साधकों की श्रेणी "

140 जस पतंग लाखों मँह , कटत बस दुइ -चार। 

227 तस कोटिन्ह साधक मँह , इक दुइ उतरत पार।।  

पतंगे लाखों में एक-दो ही कटती हैं। इसी तरह सैंकड़ो साधक साधना करते हैं , पर उनमें से एक या दो ही भवबन्धन से मुक्त हो पाते हैं। 

141 प्रथम फले फिर फूलत है , जस लौकी के नार। 

230 नित्य सिद्ध तस दरस प्रथम , पाछल साधन सार।।

पौधों में साधारणतः पहले फूल आते हैं , बाद में फल। परन्तु लौकी , कुम्हड़े आदि की बेल में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वर -लाभ होता है; किन्तु जो नित्यसिद्ध (नेता) की श्रेणी के साधक होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है , साधना पीछे से होती है।   

142 कच्चा बाँस झुके सहज , इत उत जित झुकाव। 

233 तस बालक मन सरल सहज , झुकत प्रभु के पाँव।।

जैसे कच्चे बाँस को आसानी से झुकाया जा सकता है , पर पक्का बाँस जबरदस्ती झुकाये जाने पर टूट जाता है। वैसे ही युवकों का मन सरलता से ईश्वर की ओर लाया जा सकता है, परन्तु बड़े-बूढ़ों के मन को उस ओर झुकाने की कोशिश करने पर भाग खड़े होते हैं।  

143 जैसे तोता कण्ठ बिना , पढ़त सहज जो पढ़ाव। 

234 तैसे बालक का मन सरल सहज, धरत प्रभु के पाँव।।  

तोते के गले में कण्ठी निकल जाने पर उसे पढ़ाया नहीं जा सकता , जब तक वह बच्चा रहता है तभी तक आसानी से पढ़ना सीखता है। इसी तरह मनुष्य के बूढ़ा हो जाने पर उसका मन सहज में ईश्वर में स्थिर नहीं होता। बचपन में मन थोड़े ही प्रयत्न से आसानी से स्थिर हो सकता है।  

144 दागी फल नहीं नहिं देव धरे , धरे न द्विज अरु संत। 

235 तस विषयी मन चढ़त कठिन , परमारथ के पंथ।।

पका हुआ साबूत आम भगवान के भोग में और अन्य सभी कामों में आ सकता है ; पर वह अगर कौवों ठुनका हुआ हो तो किसी काम में नहीं आता। ऐसा दागी फल न तो देवता के भोग में चढ़ता है , न ब्राह्मण को दान दिया जा सकता है , और न स्वयं के खाने में आता है। इसीलिए पवित्र हृदय बालकों और युवाओं को धर्ममार्ग पर ले जाने का प्रयत्न करना चाहिए , उन्हें भगवान की सेवा में लगाना चाहिए , क्योंकि उनके मन में विषयवासना की कालिमा नहीं लगी होती। अगर मन में एकबार विषयबुद्धि प्रवेश कर जाये, या विषयभोग रूपी विकराल राक्षस की छाया पड़ जाए , तो फिर परमार्थपथ पर ले जाना अत्यंत दूभर हो जाता है।    

145 सात्विक करे उपासना , मन मन धर हिय ध्यान। 

239 नहिं दिखावा वेशभुषा , जपत सदा भगवान।।

प्रश्न -सात्विक , राजसिक और तामसिक पूजा -उपासना में क्या अंतर है ? 

उत्तर - जो तनिक भी दिखावा या आडम्बर न करते हुए हृदय की गहराई से आंतरिक भक्तिपूर्वक भगवान की उपासना करता है , वह सात्विक उपासक है।

146 राजसिक करे उपासना , नेवते सब संसार। 

239 झमझम पूजा घर करे , महके भोग भंडार।।

जो पूजा -अनुष्ठान के उपलक्ष में घर की सजावट , नृत्य-गीत , धूमधाम , उत्तम भोज आदि आडंबरों की ओर अधिक ध्यान देता है , वह राजसिक उपासक है। 

147 तामसिक करे उपासना , बकरा बलि चढ़ाइ। 

239 रह रह मदिरा पान करे , गावे गाल बजाइ।।  

जो देवता सामने सैकड़ों बकरों की बलि चढ़ाता है , मांस -मदिरा आदि भोग लगाता है और पूजा के नाम पर नाचने -गाने में ही मग्न रहता है , वह तामसिक उपासक है।

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श्री रामकृष्ण दोहावली (14) गुरु (भ्रमर ) का मानसिक सुमिरण (विवेक-दर्शन)/संसारी जीव और साधना ~ सरसों के दानों के भीतर अगर भूत घुस जाये तो उनके द्वारा भूत कैसे उतरे !

                      श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(14) 

संसारी जीव और साधना 

134 विषय वासना मान यश , खेत के बिल समान। 

216 श्रम कर कर जल सींचहि पर , दिखै न एक भरान।।

किसी किसान ने सारा दिन गन्ने के खेत में पानी सींचने के बाद , जाकर देखा तो खेत में बूँद भर भी पानी नहीं पहुँचा है ; खेत में कुछ बड़े बड़े बिल थे , और सारा पानी उन बिलों से होकर दूसरी ओर बह गया था। 

इसी प्रकार जो व्यक्ति मन में विषय-वासना , मान-यश, सुख-सुविधा की आकांक्षा रखते हुए ईश्वर की उपासना करता है,  वह यदि जीवन भर भी नियमित रूप से साधना [आसन-प्रत्याहार -धारणा  का अभ्यास] करता रहे तो भी अंत में यही देखता है कि उसकी सारी साधना उन वासनारूपी बिलों से बाहर निकल गयी है। और वह महामण्डल से जुड़ने के पहले जैसा था,वैसा ही रह गया है। मन को वशीभूत करने की दिशा में  तनिक भी प्रगति नहीं कर पाया है।

 [जो व्यक्ति यम-नियम का पालन किये बिना, अर्थात  'उभयतो वाहिनी चित्तनदी के प्रवाह पर वैराग्य का फाटक' लगाए बिना ही मनःसंयोग (विवेकदर्शन) का अभ्यास करता रहता है, तो अन्त में वह यही देखता है कि  'विवेकश्रोत' को उद्घाटित करने की दिशा में उसकी तनिक भी प्रगति नहीं हुई है।]  

135 जब तक मन में वासना , विषय रस ओत प्रोत। 

218 तब तक हरि का भजन नहिं , नहिं आनन्द का श्रोत।।

अगर किसी पर भूत का आवेश हो जाये तो सरसों के दानों पर मन्त्र पढ़कर उनसे भूत उतारा जाता है। परन्तु जिन सरसों के दानों के द्वारा भूत उतारना है, उन्हीं सरसों के दानों के भीतर अगर भूत घुस जाये तो उनके द्वारा भूत कैसे उतरे ! जिस मन के द्वारा ध्यान-भजन , भगवद्चिंतन [= विवेक-दर्शन का अभ्यास ] करना है , वही यदि विषय-चिन्ता में लिप्त रहे , तो उस मन के द्वारा भला साधन -भजन [विवेकश्रोत का उद्घाटन] कैसे होगा ?  

136 गीली माचिस जले नहीं , घस लो बारम्बार। 

219 तस विषयी मन भक्ति नहिं , दो उपदेश हजार।।

गीली दियासलाई को तुम कितना भी घीसो , वह नहीं जलती। पर सुखी दियासलाई एक बार घिसते ही तुरन्त जल जाती है। सच्चे भक्त का मन सूखी दियासलाई के समान होता है।  थोड़ा ईश्वर का नाम सुनते ही उसमें प्रेम-भक्ति की ज्योति जल उठती है। 

परन्तु संसारी व्यक्ति का मन गीली दियासलाई की भाँति काम-कांचन की आसक्ति में भीगा होता है , उसे ईश्वर की महिमा कितनी भी सुनाई जाये , उसमें भगवद्भक्ति  (माँ जगदम्बा के अवतार वरिष्ठ की भक्ति) की चिंगारी नहीं सुलगाई जा सकती ! 

137 संसारी दुःख -क्लेश सहे , जदपि योगी समान। 

220 बिरथा सब हरि प्रीत बिना , चाहत धन यश मान।।

संसारी व्यक्ति में ज्ञानी पुरुषों के समान ज्ञान और बुद्धि हो सकती है , वह योगियों की तरह कष्ट-क्लेश सह सकता है , और तपस्वियों की भाँति त्याग कर सकता है ; परन्तु उसके ये सारे श्रम व्यर्थ ही होते हैं। क्योंकि शक्तियाँ गलत दिशा में प्रवाहित होती हैं , वह अपनी सारी शक्ति नामयश और धन कमाने में ही लगा देता है -भगवान के लिए नहीं ! 

[ अर्थात 'अर्थ' और 'काम' (या तीन ऐषणाओं की पूर्ति) में ही लगा देता है , चतुर्थ पुरुषार्थ -  'मोक्ष ' या सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को पाने या de-hypnotized होने के लिए नहीं!] 

138 जस परछाई दिखहि नहिं , मैले दर्पण माहि। 

221 तस अपावन हृदय महँ , प्रभु का दर्शन नाहिं।।

मैले दर्पण में सूर्य का प्रकाश प्रतिबिम्बित नहीं होता , स्वच्छ दर्पण में ही प्रतिबिम्बित होता है। इसलिए " विशुद्ध बनने का प्रयत्न करो।"  

139 जस प्रतिबिम्ब अति उज्ज्वल , स्वच्छ दर्पण माहिं। 

221 तस पावन हिय सहजहि , प्रभु के दरसन पाहिं।। 

               मायामुग्ध, अशुद्ध और अपवित्र हृदयवाले व्यक्ति ईश्वरीय महिमा का प्रकाश नहीं देख पाते , विशुद्ध ह्रदय व्यक्ति ही उसे देख पाते हैं। 

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श्री रामकृष्ण दोहावली (13) गर्म तवा बून्द सम , विषयी जन का मन।~ कितना beautiful -फूल बनाया है ?

                       श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(13) 

" संसारियों की भक्ति की अस्थिरता  " 

133 गर्म तवा बून्द सम , विषयी जन का मन। 

215 पा सत्संग क्षुण क्षुण करे , फिर से वही खन खन।।

विषयी लोगों का ' भगवान ' कैसा होता है , जानते हो ? जैसे घर में चाचियों या ताइयों को परस्पर लड़ते समय कसम खाते देख बच्चे भी  खेलते समय आपस में कहते हैं -'भगवान कसम ! ' या जैसे कोई शौक़ीन बाबू सज-धजकर पान चबाते चबाते , हाथ में छड़ी घुमाते हुए बगीचे में शान से टहलते एक फूल तोड़कर मित्र से कहता है - " वाह ! भगवान ने कितना beautiful -फूल बनाया है ! " विषयी लोगों का यह भाव क्षणिक होता है, जैसे- "  तप्त लोहे पर पानी के छींटे !" *   

इसीलिए कहता हूँ , भगवान के लिए व्याकुल होओ।  डुबकी लगाओ। भक्तिसमुद्र में गहरी डुबकी लगाओ। 

127 सुख हित विषयी धरम करे, दुःख में दुखड़ा रोय। 

210 जस तोता श्री राम रटे , दुःख में टें टें होय।। 

विषयी लोग संसार में पार्थिव लाभ की आशा से अनेक दान-पुण्य आदि धार्मिक कृत्य किया करते हैं , परन्तु दुःख, दैन्य , दुर्दशा के आते ही वे यह सब भूल जाते हैं।  तोता वैसे तो दिनभर ' राधाकृष्ण राधाकृष्ण ' रटता है, पर बिल्ली के धर दबाते ही 'राधाकृष्ण ' भूल कर ' टें टें ' चिल्लाने लग जाता है।      

128 उपदेश ताको व्यर्थ है , विषय में जाको मन। 

210 विषय भोग अति प्रिय लगे , कबहुँ न रुचे भजन।। 

इसीलिये तुमसे कहता हूँ कि ऐसे लोगों को धर्मोपदेश देना व्यर्थ है। तुम कितना भी उपदेश दो , ये तो ज्यों के त्यों विषयासक्त बने रहेंगे। 

129 स्प्रिंग सम तेहि जानिए , विषयी जन का मन। 

211 दबा रखो तो धरम करे , फिर से विषय जतन।। 

स्प्रिंग लगी हुई गद्दी किसी के बैठते ही दब जाती है , और उसके उठते ही पहले जैसी हो जाती है।  संसारी लोग भी इसी तरह के होते हैं।  जब तक वे धर्मप्रसङ्ग सुनते हैं तबतक उनमें धर्मभाव बना रहता है , पर ज्योंही वे अपने रोज के सांसारिक कामों में प्रवेश करते हैं, त्योंही सबकुछ भूलकर पूर्ववत विषयी बन जाते हैं।  

130 भट्टी भीतर लोह सम , विषयी जन का मन। 

212 सत्संग में धरमी रहे , फिर से विषय जतन।। 

लोहा जब तक भट्ठी में रहता है तब तक लाल दिखाई देता है , बाहर निकालते ही काला बन जाता है। इसी तरह , संसारी मनुष्य जब तक किसी मन्दिर या धार्मिक व्यक्तियों के सत्संग में (Recovery Room या रोगनिवृत्ति कमरा में ?) रहते हैं , तब तक वे धर्मभावपूर्ण रहते हैं , परन्तु जैसे ही वे वहाँ से बाहर आते हैं , उनका वह भक्तिभाव का उच्छवास जाने कहाँ चला जाता है।      

131 जस मक्खी की चाल है , तस विषयी का मन। 

213 क्षण मँह धर्म प्रसंग करे , क्षण मँह विषयन रंग।।

जिस प्रकार मक्खी अभी भगवान के भोग पर बैठती है , तो दूसरे ही क्षण सड़े घाव पर। कमिनी -कांचन के भोग-सुख में मग्न हो जाता है।   

132 गोबर कीड़ा जानिए , विषयी जन का मन। 

214 विषय रहत सुख चैन है , तेहि बिन तजहहिं तन।।

विषयी लोगों का मन गोबर के कीड़े की तरह होता है। गोबर का कीड़ा सदा गोबर में ही रहता है और गोबर में ही रहना पसंद करता है। यदि कोई उसे उठाकर कमल के फूल पर बैठा दे तो वह छटपटाकर मर जाता है।  इसी तरह विषयी पुरुष संसार की विषय-वासनाओं से भरे दूषित वातावरण को छोड़ एक क्षण के लिए भी बाहर नहीं रहना चाहता। 

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{ *विषयी लोगों के भगवान को जानने की व्याकुलता के ऊपर मैथिल कवि विद्यापति कहते है - 

‘‘ तातल सैकत वारि-विंदू सम सुत वित रमनि समाजे, 

तोहे विसारि मन ताहे समरपिलु अब मझु होवे कोन काजे’’ 

माधव हम परिणाम निराशा।

‘‘जिस प्रकार गर्म रेत पर पानी की एक बूंद का अस्तित्व होता है, वैसे ही पुत्र, धन और प्रेयसी का संबंध व्यक्ति के जीवन में है। माधव (ईश्वर) तुम्हें विसरा कर (भुला कर) हमने अपना जीवन उन्हें समर्पण कर दिया। अब हमारा क्या होगा।’’ 

     [Like offering a drop of water unto the burning hot sands of the beach, I have offered my mind unto the society of women, children, and friends, abandoning You; now what use am I?] 

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श्री रामकृष्ण दोहावली (12) संसारी नहीं भजन करे , करे न धर्म क्षणिक है और संस्कार ---अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ - " Be and Make " एक दीर्धकालीन प्रक्रिया है

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(12) 

" संसारियों की भक्ति की अस्थिरता " 

114 संसारी नहीं भजन करे , करे न धर्म प्रसंग। 

195 हँसी उड़ावे भक्त का , मारे कटु कटु व्यंग।।

संसारी जीव को धर्मप्रसङ्ग नहीं सुहाता। वह स्वयं तो कभी भजन-कीर्तन या हरिनाम सुनता ही नहीं , बल्कि दूसरों को भी सुनने नहीं देता। वह धार्मिक संस्थाओं और धर्मात्माओं की निन्दा करता है , और कोई ईश्वर की उपासना करे तो उसकी हँसी उड़ाता है। 

यहाँ [ठाकुर के पास ] भक्तों के साथ कभी-कभी विषयासक्त संसारी लोग भी आ जाते हैं। उन्हें धर्म-सम्बन्धी बातें बिल्कुल नहीं सुहातीं। अगर उनके साथी अधिक देर तक धर्मप्रासांग सुनते रहें तो वे बेचैनी से अधीर हो उठते हैं। जाने के लिए उतावले होकर अपने साथी को केहुनी के इशारे से कहते हैं , " चलो न , और कब तक बैठोगे ! " यदि उसके साथी न उठें और कहें कि " थोड़ा रुक जाओ , अभी चलेंगे ," तो थोड़ी देर में उकताकर वे कहते हैं ," अच्छा , तो तुम यहीं बैठो , हम तब तक नाव पर बैठकर तुम्हारी राह देखते हैं। "  

भय का कारण है अनेकता का भ्रांतिपूर्ण बोध। इस भ्रान्तिजन्य भय या अपने मिथ्या अहंकार को दूर करने का सबसे सरल उपाय है, दक्षिणेश्वर काली मंदिर के माँ भवतारिणी काली का 'अश्विनी भिड़े देशपांडे' द्वारा गाया यह राजस्थानी भजन ! 


मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! 

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली !

मुख में बीड़ा पान बिराजे, मुख सोहे लाली। 

नाकन में नकबेसर सोहे, कर्ण फूल बाली ।। १।। 

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

 ऊँचे पर्वत वास तिहारो , भोला घरवारी । 

नीचे शहर बसाया जामें, बिजली की उजियारी।। २।। 

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

ऐसा तुम्हरा रूप भयंकर , श्याम वर्ण वाली। 

कालीराम कहे सुन भन्ना , कलकत्ते वाली।। २।।

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

सवा पहर ले बीच भवन में, खप्पर भर खाली |

कर दुष्टन का नाश, भगत की करना रखवाली ।। ३ ।।  

मैं धरूँ तिहारो ध्यान, ज्ञान मोहे दीजै हे काली ! .... 

126 जब तक मन में भोग है , और अशुभ संस्कार। 

209 बद्ध जीव तब तक नहीं , त्याग सके संसार।। 

इच्छा होते हुए भी मनुष्य संसार का त्याग नहीं कर सकता क्योंकि वह पूरी तरह प्रारब्ध कर्म और पूर्व जन्म के संस्कारों के वशीभूत होता है। एक बार एक योगी ने किसी राजा से कहा , " तुम इस वन में मेरे पास बैठकर भगवान का ध्यान चिंतन करो।  " तब राजा बोला , " नहीं महाराज , अभी भी मेरे भोग बाकी हैं। मैं आपके निकट रह तो रह तो सकता हूँ, मगर विषयभोग की तृष्णा मेरे भीतर बनी ही रहेगी।  अगर मैं इस वन में रहूं तो हो सकता है कि यहीं पर एक राज्य बस जाए ! 

115 अति घुँघराले बाल सम , होवत दुर्जन मन। 

198 कबहुँ न होवत शुद्ध सरल , कर लो लाख जतन।। 

दुर्जन व्यक्ति का मन घुँघराले बाल की तरह होता है। जिस प्रकार कितनी भी कोशिश करो पर घुँघराले बाल को सीधा नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति के मन को प्रयत्न करने पर भी सरल , शुद्ध नहीं किया जा सकता। 

116 घूमे कमण्डल तीर्थ सब , जात न कडुवापन। 

199 तस विषयी के भोग सब , कर लो लाख जतन।। 

साधु का कमण्डलु चारों धाम घूम आता है , पर उसका कडुआपन ज्यों का त्यों ही रह जाता है। विषयी जीव का मन भी ऐसा ही होता है। 

117 पक्की माटी चढ़त नहि , पुनि कुम्हार के चाक। 

200 तस मन से हरि भजन नहीं , जला जो विषयन आग।।

कच्ची मिट्टी से कुम्हार चाहे जैसी वस्तु गढ़ लेता है , परन्तु मिट्टी यदि एक बार जलकर पक्की हो जाये ; तो उसके द्वारा गढ़ना नहीं हो सकता। इसी तरह यदि हृदय विषयवासना की आग में एक बार जलकर पक जाये , तो उस पर ईश्वरीय भावों का प्रभाव नहीं होता , उसे अभीप्सित आकार नहीं दिया जा सकता। 

118 पाथर जल सोखत नहि , जदपि डूबा दिन रात। 

201 बद्ध जीव तस धरत नहिं , धरम  करम की बात।। 

जिस प्रकार पत्थर पानी को नहीं सोखता , उसी प्रकार बद्ध जीव धर्मोपदेश को आत्मसात नहीं करता है। 

119 पाथर में नहि कील धसे , बद्ध न सत उपदेश। 

202 सरल हृदय मन ग्रहण करे , जस जमीन बिन क्लेश।।

पत्थर पर यदि कील ठोकी जाये , तो वह अंदर नहीं जाती। परन्तु जमीन में आसानी से चली जाती है ; उसी प्रकार सत्पुरुषों का उपदेश बद्ध्जीवों के हृदय में प्रवेश नहीं कर पाता, किन्तु विश्वासी व्यक्तियों के हृदय में सरलता के साथ गहराई तक चला जाता है।    

120 बद्ध धरे सत वाणी कस , पुल नीचे जस वारी। 

204 एक कान से ग्रहण करे , दूजे से निकारी।।

जिस प्रकार पुल के नीचे नाले का पानी एक ओर से आता और दूसरी ओर से निकल जाता है, उसी प्रकार धार्मिक बातें बद्ध जीवों के एक कान से भीतर प्रवेश करती है और दूसरे कान से बाहर निकल जाती है , उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।    

121 विषय सुख विषयी तजे नहीं , ऊँट न काँटा घास। 

207 भोगत घर घर खून गिरे , छोड़त जनु बिनु स्वास।।

बद्धजीवों -संसारी जीवों - को किसी तरह होश नहीं आता। वे इतना दुःख भोगते हैं , इतना धोखा खाते हैं , इतनी विपदायें झेलते हैं , फिर भी वे नहीं चेतते - उन्हें चैतन्य नहीं होता। 

ऊँट कटीली घास खाना बहुत पसंद करता है , किन्तु जितना खाता है उतना ही मुँह से खून गिरता है।  फिर भी वह कटीली घास खाते ही रहता है , उसे  खाना नहीं छोड़ता। संसारी लोग भी इतना शोक -ताप पाते हैं , परन्तु कुछ ही दिनों के अंदर सब कुछ भूलकर ज्यों के त्यों हो जाते हैं। बीबी गुजर गयी या बदचलन निकली , फिर भी वह दूसरी शादी कर लेता है। बच्चा चल बसा , कितना शोक हुआ , पर कुछ ही दिनों में सब भूल बैठता है। बच्चे की वही माँ जो शोक के मारे अधीर हो रही थी , कुछ दिनों बाद फिर केश संवारती है , गहने पहनती है। ऐसा व्यक्ति बेटी के व्याह में सारा धन खर्च कर तबाह हो जाता है , फिर भी उसके घर हर साल बच्चे पैदा होते ही जाते हैं। मुकदमेबाजी में सब कुछ गंवाकर कंगाल हो जाता है , तो भी मुकदमा लड़ने के लिए सदा तैयार ही रहता है। जितने लड़के -बच्चे हुए हैं , उन्हीं को ठीक से खिला-पिला नहीं सकता , पढ़ा नहीं सकता , अच्छी जगह में रख नहीं सकता , और ऊपर से हर साल बच्चा पैदा करता जाता है।    

122 विष्ठा कीट सम विषयी , विषय भोग मन भाय। 

207 जो हठ सत संगत दीजै , तड़प तड़प मर जाय।।

   अगर उसे संसार से हटाकर किसी अच्छे वातावरण में रखा जाये तो वह क्लेश से तड़प तड़प कर मर जायेगा। विष्ठा का कीट विष्ठा में ही आनंद से रहता है , उसी में वह हृष्ट -पुष्ट होता है।  अगर उसे चावल के बोरे में रख दिया जाए तो वह मर जायेगा।  

123 जग असार बद्ध जानहिं , जो हो भाग सहाइ। 

207 निगल सके न उगल सके , साँप छुछुंदर नाइ।।

फिर कभी - कभी तो 'साँप -छछूँदर ' वाली स्थिति हो जाती है - (ओह !)  न निगल सकता है और न उगल सकता है। बद्धजीव (अहंकारी मनुष्य ? ) अगर कभी समझ भी गया कि संसार में कुछ सार नहीं है , अमड़े के फल की तरह सिर्फ 'गुठली ' और 'छिलका ' ही है , तो भी वह उसे छोड़ नहीं सकता , मन को ईश्वर की ओर नहीं लगा सकता।  

124 दूध फटे दधि हांड पड़े ,सुधा वचन बद्ध जीव। 

208 उच्च ज्ञान गुरु देत नहीं , पा विषयी निर्जीव।।

जिस हाँडी में एक बार दही जमाया गया हो , उसमें कोई दूध नहीं रखता कि कहीं वह फट न जाये।  उस हांडी को रसोई बनाने के काम में भी नहीं लाया जा सकता , क्योंकि चूल्हे पर चढ़ाने से उसके तड़ककर फूट जाने का डर रहता है। इस प्रकार वह हाँडी करीब करीब बेकार ही हो जाती है।

125 उपदेश तेहि न दीजिये , जिससे धरा न जाये। 

208 दही हांड में दूध पड़े , पड़त सकल फट जाये।।

जो यथार्थ अनुभवी गुरु /नेता होता है , वह संसारी शिष्य को कभी ऊँचे और मूल्यवान उपदेश प्रदान नहीं करता , क्योंकि वह जानता है कि ऐसा करने पर शिष्य निश्चित ही उसका उल्टा अर्थ समझकर अपनी कार्यसिद्धि के लिए उनका मनमाना प्रयोग करेगा। वह गुरु ऐसे शिष्य को ऐसा कोई काम नहीं बताता जिसमें थोड़ी मेहनत लगे , जिससे कहीं शिष्य ऐसा न सोचने लगे कि गुरूजी अपने फायदे के लिए हमसे यह काम करवा ले रहे हैं।

[अहंकार और संस्कार की तुलना भ्रान्तिपूर्ण है। अहंकार:- 'अहंकार' का शाब्दिक अर्थ- "औरों से भिन्न अपनी पृथक सत्ता का भान। यह व्यक्ति विशेष (या पूरे कुर्थौल ग्राम) का ऐसा अवगुण है, जो समूचे विश्व को अपने से हीन भावना से देखता, जानता और समझता है। उन्हें लगता हैं जो उन्होने सोचा, समझा और जाना वही सर्वोपरि है। ऐसे व्यक्ति भ्रम को ही वास्तविकता मान लेते हैं। 

 और  संस्कार:- शाब्दिक अर्थ है "व्यवस्थित करना"। यह श्रेष्ठ मानव (ऋषियों) द्वारा निर्मित नियम कायदों की वह प्रथा है, जो मनुष्य-जीवन को व्यवस्थित रूप प्रदान करती है। अंहकार क्षणिक है और संस्कार  एक दीर्धकालीन प्रक्रिया है ---अर्थात मनुष्य बनो और बनाओ - " Be and Make " (युवा प्रशिक्षण शिविर या साप्ताहिक पाठचक्र)  एक दीर्धकालीन प्रक्रिया है

संस्कार  पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली, समूह आधारित प्रक्रिया  है और अहंकार व्यक्ति आधारित। यास्क मुनि के अनुसार-  " जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः। अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। संस्कार मानवचरित्र में स्थायित्व प्रदान करने वाली प्रक्रिया है, वहीं अहंकार अस्थायी। संस्कार  का अभिप्राय उस शिक्षा (प्रशिक्षण)' से है जो किसी व्यक्ति को अपने देश का प्रबुद्ध नागरिक बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय (Heart 3H) को पवित्र करने के लिए किए जाते हैं । व्यक्ति  के अहंकार को परिष्कृत करने या संस्कारित करने के उद्देश्य से जो पद्धति (5 अभ्यास की प्रक्रिया) अपनाई जाती है, उसे ही संक्षेप में 'मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया' कहते हैं।

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[देखें पुराने ब्लॉग : रविवार, 2 अगस्त 2015/ पंचम वेद -४ : " परमात्मा यदि दयालु है तो संसार में इतने दुख क्यों हैं? " ' पुनर्जन्मवाद और कर्मवाद' ]