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शनिवार, 5 जून 2021

$$$श्री रामकृष्ण दोहावली (40)~पुरुषार्थ और हरिकृपा

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(40)

पुरुषार्थ और हरिकृपा 

{Self Effort and the God's grace} 

354 व्याकुलता बिन कृपा नहीं , कृपा बिना भगवान। 

673 ब्याकुल हिय पुकार नर , प्रभु का धर ले ध्यान।।

प्रश्न - किस प्रकार के कर्म से हम ईश्वर को पा सकते हैं ? 

उत्तर - मनुष्य उन्हें अमुक कर्म से पा सकता है , अमुक से नहीं -ऐसी बात नहीं है। उनकी प्राप्ति होना उन्हीं की कृपा पर निर्भर है। पर उनकी कृपा के लिए व्याकुल होकर कुछ कर्म करते रहना चाहिए। उनकी कृपा से सुयोग मिल जाता है , अनुकूलता हो जाती है। 

     कभी ऐसा सुयोग हो जाता है कि भाई ने परिवार का पूरा भार ले लिया , तुम निश्चिन्त हो गए। स्त्री 'विद्याशक्ति ' धार्मिक निकली -उसकी ओर से कोई बाधा नहीं रही ; या किसीका विवाह ही नहीं हुआ। 

इस प्रकार का सुयोग के मिलने से काम बन जाता है। 

355 जस अँधियारा तुरत नशे , पाकर तीली प्रकाश। 

674 तस हरि कृपा पड़त नर , सकल पाप कै नाश।।

हजारों साल से बंद कमरे का अंधकार भी दियासलाई की एक तीली के जलते ही  उसी क्षण दूर हो जाता है ! वैसे ही एक बार ईश्वर(नेता विवेकानन्द) की कृपादृष्टि के पड़ते ही जीव के जनजन्मान्तर के पापपुंज तत्काल दूर हो जाते हैं।   

356 मलय पवन के छुवत जस , चंदन होवहि झार। 

676 तस पूरन पा हरिकृपा , जिनके हिय कछु सार। 

मलय पवन के लगने से जिन पेड़ों में कुछ सार है , वे सब चंदन बन जाते हैं। परन्तु बाँस , केला आदि साररहित वृक्षों पर कुछ असर नहीं होता। इसी तरह भगवत्कृपा पाकर , जिनमें कुछ सार है वे तो तत्काल सद्भाव से परिपूर्ण हो जाते हैं , किन्तु सारहीन # विषयासक्त मनुष्य का सहज में कुछ नहीं होता।  

[# सारग्राही जनार्दनः ? विषयासक्त मनुष्य के सर्जरी के बाद 'रोग निवर्ती कमरा' (recovery room)में गए बिना कुछ नहीं होता ?] 

357 कृपा वायु दिन रात बहे , खोल नाव के पाल। 

677 तज चतुराई भजन कर , प्रभु मिले तत्काल।।

एक भक्त बहुत जप किया करता था। श्रीरामकृष्ण ने उससे कहा , " तुम एक ही जगह क्यों अड़े हो ? आगे बढ़ो ! " इस पर भक्त ने कहा , " यह तो उनकी कृपा के बिना नहीं हो सकता। " तब श्रीरामकृष्ण बोले , " उनका कृपारूपी पवन तो दिन रात बह ही रहा है। भवसागर पार करना है तो अपनी नाव की पाल तान दो। 

358 कृपा वायु दिन रात बहे , आलस लेत न सार। 

678 पाल तान उद्यमी नर , उतरत सागर पार।।

भगवत्कृपा का पवन सदा बह रहा है। आलसी लोग उसका सदुपयोग नहीं करते। परन्तु जो उद्यमशील होते हैं वे अपनी नौका का पाल फहरा देकर आसानी से पार हो जाते हैं। 

359 बंसी चारा डाल धरे , मछली धींवर धीर। 

680 एक चित्त तस भजन कर जो चाहत रघुबीर।।

एक गृहस्थ भक्त - महाराज हमने सुना है कि आप ईश्वरदर्शन करते रहते हैं ! तो हमें भी करा दीजिये। उनके दर्शन कैसे हों ? 

श्रीरामकृष्ण - सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अधीन है। परन्तु कर्म चाहिए , तब ईश्वरदर्शन होते हैं। केवल 'ईश्वर हैं ' कहकर बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। 

    तालाब में बहुत सी मछलियां हैं , परन्तु 'मछलियां हैं ' कहकर केवल बैठे रहने से क्या कहीं मछली पकड़ी जा सकती है ? बंसी-डोर ले आओ , पानी में चारा डालो , धीरे-धीरे गहरे पानी में से मछलियां जब निकलकर चारे के पास आएंगी , तब तो तुम उन्हें पकड़ सकोगे ! 

यह भी कमाल की सोच है , ईश्वर से मिला दो , और आप चुपचाप बैठे रहेंगे ? दही जमाकर , उसे मथकर मक्खन निकलकर उनके मुख तक कोई पहुंचा दे ! या मछली पकड़ कर उनके हाथ में रख दी जाय ! अच्छी बला है !  

360 उड़ उड़ पाखी थकहिं जब , बैठहिं मस्तूल नाव। 

681 तस साधक हो विफल थकित , बैठहिं श्री हरि पांव।।

बीच समुद्र में जहाज के मस्तूल पर बैठा हुआ पक्षी उकता कर नई जगह पाने के लिए एक-एक करके पूरब-पश्चिम , उत्तर-दक्षिण सभी दिशाओं में उड़ आता है, पर पानी के सिवा कहीं कुछ दिखाई नहीं देता। थक कर , निरुपाय होकर वह फिर उसी मस्तूल पर आकर बैठ जाता है।

       इसी प्रकार साधक भी अनुभवसिद्ध (जीवनमुक्त) , हितैषी गुरु के द्वारा निर्देशित साधना-विधि (3H विकास के 5 अभ्यास ) का नित्य पालन करते करते उकता जाता है तथा हताश हो जाता है।  और अपने गुरु/नेता में विश्वास खोकर निजी-प्रयत्न के द्वारा भगवत्प्राप्ति करने के लिए  मनमाने साधन-मार्गों में भटकने लगता है। पर उसका सब परिश्रम विफल ही होता है। 

अंत में हारकर उसे उसी गुरु की शरण में लौट आना पड़ता है। 

361 चलन लगे मारुत जब , नहिं पंखा के काज। 

683 तस हरि किरपा होत नर , काम न साधन साज।।

हवा बहने लगे तब पंखे की जरूरत नहीं रह जाती। ईश्वर की कृपा हो जाये तो साधन-भजन की आवश्यकता नहीं रहती। 

362 जे हिय कर्तापन अहम , ते हिय नहिं भगवान। 

685 हरि कृपा ते नशे अहम , उदित होत तब ज्ञान।।

कितनी भी चेष्टा करो , भगवान की कृपा के बिना कुछ नहीं होता। उनकी कृपा के बिना उनके दर्शन नहीं मिलते। 

परन्तु उनकी कृपा भी सहज में नहीं होती। उसके लिए अहंकार का सम्पूर्ण त्याग कर देना पड़ता है। 'मैं कर्ता हूँ ' --इस बोध के रहते उनके दर्शन नहीं हो सकते। विवाह के मौके पर  भण्डारघर में अगर कोई हो , और उस समय घर के मालिक से अगर कोई कहे कि आप भण्डार से अमुक चीज निकाल दीजिये , तो मालिक यही कहता है कि वहाँ तो -अमुक [सोनपुर के फूफाजी] है न , फिर मेरे जाने की  क्या जरूरत ?  जो खुद ही कर्ता  बना बैठा है , उसके हृदय में भगवान आसानी से नहीं आते।   

363 निज मुख धरहि प्रकाश जब , कृपासिन्धु भगवान। 

686 तब जीव पाहिं दरस अरु , होहि उदित हिय ज्ञान।।

[फाइनल बात -- ] उनकी कृपा से ही उनके दर्शन होते हैं ! वे ज्ञानसूर्य हैं। उनकी एक किरण से ही संसार में यह ज्ञान का प्रकाश फैला हुआ है। 

उसीकी सहायता से हम एकदूसरे को पहचानते हैं और संसार में तरह तरह की विद्याएं सीखते हैं। यदि वे एक बार अपना प्रकाश अपने चेहरे पर डालें तो हमें उनके दर्शन हो सकते हैं। 

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{माँ तारा की कृपा से  'तारा निकेतन' में जन्म ......भाई , परिवार !  }     


*गुप्त वैष्णवीमुद्रा* श्री रामकृष्ण दोहावली (39)~* भक्तों की सांसारिक परिस्थिति ~संग सदा श्री कृष्ण रहे , पाण्डव दुःख न जाये *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(39)

* भक्तों की सांसारिक परिस्थिति *

350 प्रभु लीला अनन्त है , मनवा समझ न पाए। 
666 संग सदा श्री कृष्ण रहे , पाण्डव दुःख न जाये। 

शरशैय्या पर पड़े पितामह भीष्म की आँखों में देहत्याग के समय आँसू आते देखकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा , " सखे , कितना आश्चर्य है ! स्वयं पितामह , जो सत्यवादी , जितेन्द्रिय और ज्ञानी हैं , जो अष्टवसुओं में से एक हैं , वे भी देह को त्यागते समय माया के कारण रो रहे हैं। श्रीकृष्ण ने जब यह बात भीष्म से कही , तो वे बोले , 

              " कृष्ण , तुम अच्छीतरह जानते हो कि मैं देह के लिए नहीं रो रहा हूँ , मैं तो इसलिए रो रहा हूँ कि भगवान की लीला कुछ समझ नहीं पाया। जिनका नाम मात्र जपने से लोग विपदाओं से तर जाते हैं , वे भगवान मधुसूदन स्वयं पाण्डवों के सखा और सारथि के रूप में विद्यमान होते हुए भी पाण्डवों की विपत्तियों का अन्त नहीं है ! " 

*भगवान कैसे प्रकट होते हैं *

351 जस जस जावहि निकट नर , परमात्मा के पास। 
668 तस प्रगटहिं भाव बहु , मिलतहि एक प्रकाश।।

उस विराट पुरुष के जो जितने निकट आता है , उसे उसके उतने ही नए नए भाव दिखाई देते हैं , अंत में वह उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसके साथ मिलकर एक हो जाता है।  



* वैष्णवी मुद्रा *

अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृष्टिर्निमेषोन्मेषवर्जिता। 
एषा सा वैष्णवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ॥ 
( शाण्डिल्योपनिषद् 1.14)
 
बाहर की ओर निर्निमेष दृष्टि (निमेष-उन्मेष) अर्थात् पलक झपकने से विहीन या स्थिर दृष्टि हो , और भीतर की तरफ लक्ष्य हो, उसको सब तंत्रों में गुप्त वैष्णवीमुद्रा कहते हैं, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।
{https://upanishads.org.in/otherupanishads/32/1/7/20}

*भगवान धन की परवाह नहीं करते * 

352 भगवन को नहीं चाहिए , धन, ऐश्वर्य  , विधि नेम।
669 चाहत विवेक विराग नर , भाव भगति अरु प्रेम।।

क्या भगवान धन ऐश्वर्य के वश में हैं ? नहीं, वे तो भक्ति के वश में हैं। वे रुपया नहीं चाहते -भाव, भक्ति , प्रेम , विवेक , वैराग्य यही सब चाहते हैं।  

353 धन दौलत प्रिय जीव को , प्रभुहि माटी समान। 
670 भेंट भेंट धन हे मनवा , काहे करत गुमान।।  

एकबार शम्भु मल्लिक ने मुझसे कहा था , " अब तो यही आशीर्वाद दीजिये कि जिससे यह सारा ऐश्वर्य जगदम्बा के पदपद्मों में अर्पण करके मर सकूँ। " 
मैंने कहा , " यह तुम क्या कहते हो ! यह तुम्हारी दृष्टि में ही ऐश्वर्य है, जगदम्बा के लिए तो यह सब धूल और मिट्टी के बराबर है। 
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रहता दीपक रतन का, नारी नाग न मंद ।
विषय वायु जो ना बुझे, कलि अजरावर१ कंद२ ॥२५॥

जैसे रत्न-दीपक नाग-नागिन की फूंकार वा वायु से नहीं बुझता । वैसे ही चरित्रवान (या शीलव्रत से युक्त) व्यक्ति विषयासक्ति के कारण नारी के अधीन नहीं होता । ऐसे व्यक्ति को कलियुग में भी, 'अजरावर १ ' अर्थात  देवताओं से श्रेष्ठ कहा जाता है , और वह 'कंद २ ' अर्थात विश्व के मूल ब्रह्म को ही प्राप्त होता है ।
अहि (सर्प) अबला (नारी) देखत बुझे, अग्नि दीप आदम्म (मनुष्य) ।
तहां हीरा हरिजन अबुझ, नैनों दैखैं हम्म ॥२८॥

सर्प के देखते ही अर्थात सर्प की फूंकार से अग्नि दीपक बुझ जाता है,  वैसे ही नारी को कामुक दृष्टि से देखते ही मनुष्य तेज हीन हो जाता है।  किंतु सर्प की फूंकार के सामने यदि हीरा रूपी दीपक हो तो नहीं बुझता । वैसे ही किसी सच्चे हरिभक्त का तेज नारी को देखने से कभी क्षीण नहीं होता यह हम नेत्रों से देखते हैं ।
साभार https://aneela-daduji.blogspot.com/2021/08/}
{अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
हृदा मन्वीशो मनसाभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥ -(श्वेताश्वतरोपनिषद 3.13)  
अनन्त पुरुष अंगुष्ठमात्र आकार में बुद्धि, भावना, कल्पना तथा संकल्प के द्वारा सभी प्राणियों के हृदय में उनकी अन्तरात्मा के रूप में निवास करता है। जो इस सत्य  (परमेश्वर =माँ काली) को अनुभव कर लेते हैं वे अमृतत्व प्राप्त कर लेते हैं।
अर्थात जिस राजयोगी का लक्ष्य अन्तःकरण में निहित हो, तथा बाह्य की दृष्टि निमेष-उन्मेष अर्थात् पलक झपकने से विहीन हो, यही वैष्णवी मुद्रा है।  तथा इसे ही समस्त तन्त्र-शास्त्रों में, उस गुप्त रहस्य के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ॥
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श्री रामकृष्ण दोहावली (38)~ * भगवान और भक्त *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(38)

* भगवान क्यों नहीं दिखाई देते  * 

339 पानी ओट काई जस , चिक ओट जस नारि। 

640 तस माया आच्छन्न हरि , भगत हृदय बिहारि।।

तालाब का पानी काई और घास-पत्तियों से ढका होने के कारण उसमें खेलती हुई मछली दिखाई नहीं पड़ती। इसी भाँति मनुष्य की दृष्टि माया के आवरण से आच्छन्न होने के कारण वह अपने हृदय में लेलायमान प्रभु को देख नहीं पाता। 

340 श्री हरि देखहिं सकल जग , पर हरि को नहिं कोय। 

642 प्रभु स्वयं प्रकाश करे , तब ही दर्शन होय।।

अँधरे में गश्त लगाने वाला पहरेदार अपनी लालटेन के उजाले में सब को देख सकता है पर उसे कोई नहीं देख पाता। अगर वह स्वयं अपने लालटेन का प्रकाश अपने चेहरे पर डाले तभी उसे देखा जा सकता है। इसी प्रकार , भगवान भी सब को देखते हैं , परन्तु उन्हें कोई नहीं देख पाता। पर यदि वे कृपा करके स्वयं को प्रकाशित करें तो ही मनुष्य उन्हें देख पाता है। 

*भगवान तथा भक्त* 

346 चीनी पर्वत सम प्रभु , भक्त है चींटी समान। 

656 भाव धरे जस शक्ति निज , न कोउ पूरन ज्ञान।।

भगवान मानो चीनी के पर्वत हैं और भक्तगण चीटियाँ। छोटी चींटी चीनी के पर्वत में से एक छोटा कण ले जाती है और बड़ी चींटी कुछ बड़ा कण ; परन्तु पर्वत जैसा था वैसा ही बना रहता है। इसी प्रकार , भक्तगण भी अनंतभावमय भगवान का एक-एक भाव पाकर ही परिपूर्ण हो जाते हैं ; सम्पूर्ण भावों को कोई ग्रहण नहीं कर पाता। 

345 परमानन्द अमृत के , प्रभु को सागर जान। 

655 पी घूट भर आनंद करे , साधु महन्त महान।।

कलवार की दुकान में बहुत शराब रहती है , पर कोई आधी तो कोई एक या दो बोतल पीकर ही मस्त हो जाता है। इसी प्रकार , भगवान तो अपार आनंद के सागर हैं , परन्तु भक्तगण थोड़ी बहुत मात्रा में उस आनंद का उपभोग कर तृप्त हो जाते हैं। 

 338 बड़ा सूरज छोटा लगे , बहुत दूर आकाश। 

639 तस अनन्त हरि अल्प लगे , प्रभु महिमा प्रकाश।।

सूर्य पृथ्वी से कितने (109)  गुना बड़ा है ?* पर बहुत दूर होने के कारण वह सिर्फ एक थाली जितना बड़ा प्रतीत होता है। इसी प्रकार भगवान अनन्त हैं , परन्तु हम उनसे बहुत दूर होने के कारण उनकी यथार्थ महिमा को नहीं समझ पाते हैं।

347 परमानन्द समुद्र की , कौन बतावे थाह। 

657 तीन घूंट शिव शव भयो , शुक छुवत जड़ राह।।

348 आम बगीचे आये हो , जी भर खा लो आम। 

657 कितने पत्ते पेड़ में , गिनने का क्या काम।।

ब्रह्मसमुद्र की हवा लगने पर मनुष्य पिघल जाता है - अर्थात उसका अहं भाव नष्ट हो जाता है ! वही हवा खाकर सनक , सनातन आदि पांच प्राचीन ऋषि पूरे पिघल गए। नारद दूर से ही ब्रह्मसागर के दर्शन पाकर अपना अस्तित्व खो बैठे और हरिगुण -गान गाते हुए उन्मत्त की तरह पृथ्वी का पर्यटन करने लगे शुकदेव ने तट पर जाकर तीन बार जल का स्पर्श किया , और ब्रह्मभाव में विभोर हो जड़वत विचरण करने लगे।  सद्गुरु महादेव उसमें से तीन चुल्लू जल पी शव की तरह निश्चल पड़े रहे। ऐसे ब्रह्मसमुद्र की भला कौन थाह पाए ? 

349 परमानन्द सागर मँह , नहि डूबन का भय। 

662 डूब सके तो डूब ले , हो करके निर्भय।।

ईश्वर के प्रेम के समुद्र में डूब जाओ। इसमें डूबने से डरो मत , यह तो अमृत समुद्र है ! मैंने एक बार नरेंद्र से कहा , 'ईश्वर रस के सागर हैं। क्या तुझे  इस रस के समुद्र में डुबकी लगाने की इच्छा नहीं होती ? अच्छा , ऐसा सोच कि एक कटोरे में रस भरा है , और तू मक्खी बना है , तब तू कहाँ बैठकर रस पियेगा ? ' नरेंद्र ने कहा , ' मैं कटोरे के किनार पर बैठकर मुंह बढ़कर रस पिऊंगा , क्योंकि ज्यादा बढ़ने पर गिरकर उसमें डूब मरूंगा। ' तब मैं बोला , 'बेटा , सच्चिदानन्द -समुद्र में मरने का भय नहीं है। वह तो अमृत का सागर  है।  उसमें डूबने से मनुष्य मरता नहीं , अमर हो जाता है। ईश्वर के प्रेम में मत्त होने से मनुष्य पागल नहीं हो जाता। '    

341 बापू कहे या बा कहे , पावत प्रेम समान। 

644 तस पण्डित मूरख सब पर , करहि कृपा भगवान।।

उन्हें पा लिया तो सब हो गया। संस्कृत न सीखी तो क्या हुआ ? उनकी कृपा पण्डित मूर्ख सब सन्तानों पर है जो उन्हें पाने के लिए व्याकुल है। जैसे पिता के पांच बच्चे हैं।  पिता का सब बच्चों पर समान स्नेह है।  उनमें से एक दो जन ही 'बाबूजी ' कहकर पुकार सकते हैं। बाकी कोई 'बा ' कहकर पुकारता है , तो कोई 'पा ' - पूरा उच्चारण नहीं कर पाता।  पर जो 'बाबूजी ' कहता है उस पर क्या पिता का प्यार ज्यादा होगा ? और जो केवल 'पा ' कहता है उसपर कम ? पिता जानता है कि बच्चा अभी बहुत छोटा है, साफ 'बाबूजी ' नहीं बोल पाता।  

343 एक आलू सब्जी अनेक , तला सूखी रसदार। 

646 तस साधक रूचि रूप हरि , माँ पिता करतार।।

जिस प्रकार एक ही आलू को अपनी रूचि के अनुसार उबालकर , तलकर , सूखी या रसेदार सब्जी बनाकर खाया जा सकता है, उसी प्रकार जगत्कारण ईश्वर एक होते हुए भी उपासकों की रूचि के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होते हैं , ताकि सभी साधक उन्हें अपने प्रेमास्पद के रूप में पा सकें। किसी के लिए वे दयालु स्वामी या प्रेममय पिता हैं , तो किसी के लिए मधुर हासिनि माता , किसी के लिए सुहृत सखा , तो किसी के लिए प्रिय पति या आज्ञाकारी पुत्र।   

344 भगवन भागवत अरु भगत , तीनों एक ही जान। 

651 नहि भेद तीन एक कहे , रामकृष्ण भगवान।।

भागवत (शास्त्र) , भक्त , भगवान --तीनो एक ही हैं ! 

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[ पृथ्वी और सूर्य की औसत दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है।  उसका व्यास कोई 13 लाख 90 हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग 109 गुना बड़ा हुआ।  प्रकाश की किरण एक सेकेंड में तीन लाख किलोमीटर चलती है। इसके बावजूद सूर्य की रोशनी को हम तक पहुंचने में 8 मिनट 17 सेकेंड लग जाते हैं।] 


श्री रामकृष्ण दोहावली (37)~ईश्वर के लिए व्याकुलता (सती का पति, कृपण का धन तथा विषयी का विषय की ओर जो आकर्षण - वैसी व्याकुलता)

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(37)

ईश्वर के लिए व्याकुलता 

329 इसी जन्म में इसी क्षण , पावहुँ श्री भगवान। 

625 तीव्र तरस अस होहिं जब , देहि दरस भगवान।।

इसी जन्म में ईश्वर को प्राप्त करूँगा।  तीन दिन में प्राप्त करूँगा।  एक ही बार उनका नाम लेने उन्हें प्राप्त कर लूँगा। ' इस प्रकार की तीव्र भक्ति होनी चाहिए , तभी भगवत्प्राप्ति (God Realization) होती है। ' हो रहा है , हो जायेगा ' इस प्रकार की मंद भक्ति ठीक नहीं।  

325 डूबत चाहे स्वास जस , किरपन चाहे धन। 

619 तस व्याकुल हो चाह प्रभु, होहि तुरत दर्शन।।

कृपण व्यक्ति जिस प्रकार सोने- चाँदी के लिए व्याकुल होता है , भगवान के लिए उसी प्रकार व्याकुल होओ।  

328 सतीही पति प्रिय- कृपण धन , विषयी विषय-प्रेम।

623 तीन प्रेम मिल एक होहिं जब , पावहि दर्शन नेम।।

भगवान के प्रति किस प्रकार का आकर्षण होना चाहिए ? सती का पति की ओर , कृपण का धन की ओर तथा विषयी का विषय की ओर जो आकर्षण होता है , उतना यदि भगवान के प्रति हो तो उनका लाभ होता है। 

326 स्वान सिर रहे घाव जब , रहे सदा बेचैन। 

621 तस दर्शन को तरस जब , तुरत जुड़ावहिं नैन।।

भगवान प्राप्त करने के लिए किस प्रकार की व्याकुलता चाहिए , जानते हो ? सिर में घाव हो जाने पर कुत्ता जिस प्रकार बेचैन होकर दौड़ता फिरता है , भगवान के लिए भी उसी प्रकार की छटपटाहट चाहिए। 

327 सहज सरल व्याकुल मन से , हरि को लो पुकार। 

622 सुन व्याकुल पुकार हरि , दौड़े आवहि द्वार।।

हे मन , श्यामा माँ को एक बार ठीक -ठीक आन्तरिकता के साथ पुकार , देखें तो सही वह आये बिना कैसे रह सकती है। " ठीक-ठीक हृदय से पुकारा जाये तो भगवान दर्शन दिए बिना नहीं रह सकते। 

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श्री रामकृष्ण दोहावली (36)~* मनःसंयोग * Practice of Discernment (विवेकदर्शन का अभ्यास)*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(36)

* मनःसंयोग ~ Practice of Discernment~विवेकदर्शन का अभ्यास *  

322 बहेलिया जस पंछी महँ , मछुआ बंसी माहिं। 

607 दत्तचित्त तस ध्यान धर , परमात्मा को पाहिं।।

एक दिन एक मैदान पर से चलते हुए अवधूत ने देखा कि सामने से ढोल-नगाड़े बजाते -बजाते , बड़ी धूम-धाम के साथ एक बारात आ रही है। पास ही में एक बहेलिया दत्तचित्त होकर एक चिड़िया पर निशाना साध रहा है। वह अपने लक्ष्य में तल्लीन था कि इतने नजदीक से गुजरने वाली बारात की ओर उसने एक बार भी नजर उठाकर नहीं देखा। अवधूत ने उस बहेलिये को नमस्कार करते हुए कहा , " महाराज , आप मेरे गुरु हैं ! जब मैं एकाग्रता का अभ्यास करने बैठूं तब मेरा मन भी इसी तरह 'ध्येय वस्तु' [स्वामी विवेकानन्द की छवि] पर एकाग्र रहे। 

324 पंछी मारे चोंच सिर , योगी समझ न पाहीं। 

612 जानहु ठीक ठीक ध्यान नर , रामकृष्ण प्रभु गाहिं।।  

तुम चाहे जिस मार्ग से जाओ , मन के स्थिर हुए बिना योग नहीं होता। मन योगी के वश में होता है , योगी कभी मन के वश में नहीं होता।  

जो ध्यान करते हुए इतना मग्न हो जाता है कि सिर पर चिड़ियों के बैठने पर भी समझ नहीं पाता , वही ठीक ठीक ध्यान करता है। 

320 जग में मन ऐसे घुले , जैसे जल में दूध। 

597 निर्जन में मक्खन करे , ज्ञानी भगत और  बुद्ध।।

प्रथम अवस्था में (विद्यार्थी जीवन में) निर्जन स्थान में जाकर एकाग्र चित्त से ईश्वरचिन्तन करना चाहिए ; नहीं तो मन में नाना विक्षेप आते हैं। दूध और पानी को यदि एकत्र कर दो तो दूध पानी में मिल जायेगा ; परन्तु यदि उसी दूध का निर्जन में मक्खन बना लो तो वह पानी में उतराता रहेगा -मिलेगा नहीं। इसी तरह साधना-अभ्यास के द्वारा चित्त की एकाग्रता प्राप्त कर लेने पर मनुष्य चाहे जिस परिस्थिति में रहे , उसका मन उससे ऊपर उठकर ईश्वर में ही लीन रहता है ! 

323 योगी बैठे ध्यान में , बाह्यज्ञान कछु नाहिं। 

611 तन पर चलहिं साँप पर , कण भर समझ न पाहिं।।

गहरे ध्यान में मनुष्य बाह्यज्ञानरहित हो जाता है। ध्यान -अवस्था में इतनी एकाग्रता आ जाती है कि 'ध्येय-वस्तु ' के सिवा दूसरा कुछ भी दिखाई-सुनाई नहीं देता। यहाँ तक कि स्पर्श का भी बोध नहीं रहता। इस समय यदि देह पर से साँप भी चला जाये तो न तो न तो जो ध्यान में लीन  है, उसे पता चलता है और न उस साँप को ही।    

                                    318 मन सरसों की बीज सम, बिखरत लगे न बार। 

595 कर शासन धर धीर नर , हरि को ले पुकार।।

अगर सरसों की पुड़िया में से एक बार सरसों के दाने बिखर गए तो फिर उन्हें चुनकर इकट्ठा करना दूभर हो जाता है , उसी प्रकार मनुष्य का मन यदि एकबार संसार के विषयों में बिखर जाये तो फिर उसे समेटकर एकाग्र करना दूभर हो जाता है। 

(5 विषयों-रूप,रस, गंध , शब्द और स्पर्श आदि के लाखों उप-विषयों में बिखर जाये तो फिर उसे समेटकर एकाग्र करना दूभर हो जाता है।)

319 वन में मन में कोने में , मनुवा धर ले ध्यान। 

596 साध साधना निरंतर , उदित होही तब ज्ञान।।

मनःसंयोग की साधना, मन को एकाग्र की साधना [ या सरसों के बिखरे हुए दानों को समेटने की साधना ?] मन में , वन में या कोने में करनी चाहिए। 

321 मसहरी भीतर ध्यान धरे , सात्विक सन्त सूजान।

603 गहरी रात जब सोत सब , पावत नहिं कोऊ मान।। 

सात्विक मनुष्य किस प्रकार एकाग्रता का अभ्यास करता है , जानते हो ? वह गहरी रात के समय मसहरी के भीतर बिछौने पर बैठकर प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास किया करता है , ताकि कोई उसका 'ध्यान' होता हुआ देख नहीं पाये।  

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श्री रामकृष्ण दोहावली (35)~ * ईश्वर दर्शन का उपाय है ~ गुरुवाक्य पर विश्वास * गुरु के उपदेश - (तत्त्वमसि) पर विश्वास रखकर, साधना किये बिना शास्त्रों की अवधारणा नहीं होती*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(35)

*साधना किये बिना शास्त्रों की अवधारणा नहीं होती* 

314 बिना मथे मक्खन नहिं , बिन पेरे नहीं तेल। 

582 तस मनवा बिन साधना , नहि भगवन से मेल।।

   तुम जो वस्तु प्राप्त करना चाहते हो उसके अनुरूप साधना करो , नहीं तो कैसे होगा ? 'दूध में मक्खन है ' कहकर सिर्फ चिल्लाने से मक्खन नहीं मिल जायेगा, यदि मक्खन चाहते हो तो दूध का दही जमाओ, उसे अच्छी तरह मथो , तभी मक्खन निकलेगा।  

    इसी तरह, यदि तुम ईश्वर दर्शन करना चाहते हो साधना करो [मनःसंयोग पद्धति से विवेकदर्शन का अभ्यास करो]  तभी उनके दर्शन पाओगे। 'ईश्वर , ईश्वर ' कहकर सिर्फ शोरगुल मचाने से क्या फायदा?  

[(14 सितंबर,1884) परिच्छेद ~ 90, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] What is the use of merely repeating, There is butter in the milk'? Turn the milk into curd and churn it. Only then will you get butter."  

                                     315 जस काई पानी ढके , तस ज्ञानहि अज्ञान। 

584 जो चाहत तू ज्ञान तो , कर ले जप तप ध्यान।।

कर्म चाहिए , तभी ईश्वर -दर्शन होते हैं। एक दिन मैंने भावावस्था में हालदार -पुकुर देखा। देखा , एक नीचीजाति  का आदमी काई हटाकर पानी भर रहा है , और बीचबीच में एक-एक बार हाथ में लेकर देख रहा है। मानो उसने [माँ जगदम्बा ने ] यह दिखया कि काई हटाए बिना पानी नहीं दिखाई देता - अर्थात कर्म किये बिना भक्ति नहीं होती , ईश्वरदर्शन नहीं होते।

 ध्यान-जप , यही कर्म है , उनका नामगुण -कीर्तन भी कर्म है , और दान , यज्ञ (निष्काम कर्म - Be and Make) ये सब भी कर्म ही हैं।  

* ईश्वर दर्शन का उपाय है ~ गुरुवाक्य पर विश्वास * 

313 जो चाहत हरिलाभ नर , जस उपदेश तस साध। 

580 विरथा वाद विवाद तज , धर धीरज अगाध।।

छिछले तालाब का पानी पीना हो तो उसे हिंडोले बिना ऊपर का निथरा पानी धीरे धीरे लेना चाहिए। ज्यादा खलबला देने से नीचे का कीचड़ ऊपर आकर सारा पानी गँदला हो जाता है। 

यदि तुम सच्चिदानन्द का लाभ करना चाहते हो तो गुरु के उपदेश - (तत्त्वमसि) पर विश्वास रखकर धीरज के साथ साधना किये चलो। वृथा शस्त्र-विचार या तर्क-वितर्क में मत पड़ो , नहीं तो तुम्हारी क्षुद्र बुद्धि गड़बड़ा जाएगी। 

316 एक आना उपदेश मम , जो पालहि चित्त लाई। 

588 वो पावहि मुक्ति निश्चय , कह ठाकुर गदाई।।

श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " क्या तुम मेरे आदेश का सोलहो आना पालन कर सकोगे ? मैं जो कहता हूँ उसका एक आना भी यदि यदि तुम कर सको तो तुम्हारी मुक्ति निश्चित है। " 

317 नाम शक्ति अमोल है , आवहिं भगवन खींच। 

590 कर विश्वास हरिनाम जप , भगति वारी सींच।। 

एक बार यदि किसी भी भगवन्नाम की शक्ति पर विश्वास हो जाये और वह सतत नाम जपने लगे तो फिर उसके लिए विवेक-विचार या अन्य किसी भी तरह के साधन-भजन की आवश्यकता नहीं रह जाती। उसके सब सन्देह दूर हो जाते हैं , चित्त शुद्ध हो जाता है , तथा नाम के सामर्थ्य से स्वयं नामी [ सच्चिदानन्द घन ठाकुरदेव ] का साक्षात्कार हो जाता है।  

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श्री रामकृष्ण दोहावली (34)~*चरित्रगठन हुए बिना ईश्वर लाभ नहीं होता* उद्यमशीलता-धैर्य - अध्यवसाय के साथ, 3-H विकास के 5 अभ्यास *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(34)

 *चरित्रनिर्माण या 3-H विकास के 5 अभ्यास *  

[प्रार्थना ,मनःसंयोग ,व्यायाम , स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग]  

310 उच्च भाव जगाये रखे , पुनि पुनि धर धर ध्यान। 

574 फूँक फूँक जस रखे नर , आग सदा संज्ञान।।

प्रश्न - कभी कभी कुछ समय के लिए मन में कैसा उच्च भाव आता है , परन्तु वह अधिक समय तक टिकता नहीं। ऐसा क्यों होता है ? 

उत्तर - बाँस की आग जल्दी बुझ जाती है , उसे फूँक -फूँककर प्रज्ज्वलित रखना पड़ता है। मन में उच्च भाव रखने के लिए निरन्तर साधना करनी पड़ती है। 

312 मन घुंघराले बाल है, खींच रखो तो ठीक। 

578 जो छोड़ा गड़बड़ करे , मानो नटखट ढीठ।। 

मन मानो घुँघराले बाल की तरह होता है। घुँघराले बाल को जबतक खींचकर रखो तबतक वह सीधा रहता है , छोड़ देते ही फिर सिकुड़ जाता है। इसी भाँति , मन को भी जबतक जबरदस्ती खींचकर वश में रखा जाता है , तभी तक वह ठीक रहता है, ढीला छोड़ते ही गड़बड़ करने लगता है 

311 दूध उफ़न ऊपर उठे , जब तक निचे आग। 

576 तस मनवा उर्ध्वमुखी रहे , पाकर जप तप आग। 

जबतक नीचे आग है तभी तक दूध उफनकर ऊपर को उठता है। आग को हटा लेने पर वह फिर ज्यों-का-त्यों हो जाता है। साधना-अवस्था में भी जब तक साधना अग्नि जलती रहती है  तभी तक मन उर्ध्वगामी रहता है। 

[साधना अग्नि =चरित्रनिर्माण या 3-H विकास के 5 अभ्यास]

'चरित्रगठन हुए बिना ईश्वर लाभ नहीं होता' 

उद्यमशीलता 

307 इच्छावान उद्यमशील , सतत भजन में लीन। 

568 पावहिं दरसन सहज नर , नहि आलस बलहीन।। 

किसान लोग जब बैल खरीदने जाते हैं , तो अच्छा बैल कैसे पहचानते हैं , जानते हो ? इस बारे में वे बड़े जानकार होते हैं। वे बैल की पूँछ पर हाथ लगाकर देखते हैं ; जिस बैल में दम नहीं होता वह पूँछ पर हाथ लगाने से ही अंग ढीला कर जमीन पर लेट जाता है। परन्तु जो बैल फुर्तीला , तेज होता है वह पूँछ को छूते ही चिढ़कर उछलने लगता है। किसान लोग ऐसे ही बैल को खरीदा करते हैं।

 जीवन में सफलता पानी हो तो अपने भीतर पुरुषार्थ , मर्दानापन (पौरुष) रखना चाहिए। कई लोग ऐसे होते हैं जिनमें कोई दम ही नहीं होता - मानो दूध में भिगोया हुआ चिउड़ा हो , नरम और ठण्ढा ! भीतर कोई जोर ही नहीं ! उद्यम करने की सामर्थ्य नहीं ! इच्छाशक्ति नहीं ! ऐसे लोग जीवन में कभी सफल नहीं होते। 

[ चरित्र गठन में आलस करने से ईश्वर लाभ नहीं होता ]

धैर्य     

308 बंसी डार मछली धरे , धर धीरज मन प्राण। 

569 तस धर धीरज भज हरि , मिलहि श्री भगवान।। 

बड़ी मछली पकड़नी हो तो मनुष्य को पानी में बंसी डालकर घण्टों धीरज धर कर बैठे रहना पड़ता है। तब कहीं बड़ी मछली फँसती है। इसी तरह जो धैर्य के साथ साधन-भजन करता रहता है उसे अन्त में अवश्य ही भगवान लाभ होता है। 

अध्यवसाय 

309 गीरत उठत बछड़ा सीखे , खड़े होवन का ज्ञान। 

572 तस साधक गीरत उठत , पावत है भगवान।।

 बछड़ा बीसों बार गिरता बीसों बार उठता है , तब कहीं ठीक से खड़े होना सीखता है। साधना में भी अनेक बार गिरना और उठना पड़ता है , तब जाकर सिद्धि मिलती है। 

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$$$$ श्री रामकृष्ण दोहावली (33) ~ * विवेक-वैराग्यरूपी पंख (अनासक्ति रूपी पंख) के महाबल से - 'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी * वैराग्य= समूचे मैदान को चमड़े से मढ़ना असंभव है , अतः पैरों में जूते पहनना ही उचित * Full text of "Shree Ram Krishan Lila Prasang"/https://vivek-jivan.blogspot.com/2013/04/18.html]

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर 

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(33)

 *आध्यात्मिक जीवन के लिए आवश्यक बातें *

[Essentials for Spiritual Life]   

अनासक्ति (वैराग्य) 

[गृहस्थ को आवश्यकता आधारित दृष्टिकोण  ( need-based approach) 

रखना चाहिये, लेकिन तृष्णा, लालच या अति लोभ  का त्याग करना चाहिये ।]    

293 मन वासना अनन्त है , पावत नहि है अंत। 

547 अस विचार त्यागत सकल , जे गुनी ज्ञानी संत।।

कंटीली झाड़ियों से भरे मैदान पर से नंगे पैर नहीं चला जाता। उस पर से चलने के लिए या तो पूरे मैदान को चमड़े से ढक देना होगा या फिर अपने पैरों में चमड़े के जूते चढ़ाने होंगे। समूचे मैदान को चमड़े से मढ़ना असंभव है , अतः पैरों में जूते पहनना ही उचित है। 

इसी तरह इस वासनापूर्ण संसार में असंख्य कामना-वासनाओं की पीड़ा से छुटकारा पाना हो , तो या  तो सभी वासनाओं की पूर्ति हो जानी चाहिये , या फिर सभी का त्याग हो जाना चाहिए। परन्तु वासनाओं की पूर्ति होना कभी सम्भव नहीं , क्योंकि एक वासना को पूरी करने जाओ तो दूसरी वासना आ खड़ी होती है। इसीलिए ज्ञान-विचार (विवेक-प्रयोग) और संतोष के द्वारा वासनाओं का त्याग करना करना ही उचित है।   

 (560 ~ लेकिन ) जो परमहंस होता है , पूर्ण ज्ञानी होता है , वह मोची -मेहतर की अवस्था से लेकर राजा-महाराजा की अवस्था तक सब कुछ स्वयं भोगकर देख आता है। इसके बिना ठीक-ठीक वैराग्य कैसे आएगा ! 

 [ परमहंस =Lighthouse -a tower containing a beacon light to warn or guide ships at sea. पूर्ण ज्ञानी, या विज्ञानी, नित्य से लीला में -और लीला से नित्य में पहुँचने में सक्षम धैर्यरेता ~ भावी नेता  'would be Leader of the mankind '

विवेक-वैराग्यरूपी पंख * 

299 रेशम कीट सम फँसहहि, मन निज वासना जाल। 

554 विवेक विराग पंख से , काट उड़हि तत्काल।।

रेशम का कीड़ा (silk worm)  जिस प्रकार अपने ही कोश   में आप ही फँस जाता है , उसी प्रकार संसारी जीव भी अपनी ही वासनाओं के जाल में आप अटक जाता है। फिर जैसे उस कीड़े से  तितली (butterfly ) बन जाने पर वह कोश (shell) को चीर कर बाहर उड़ जाती है ; वैसे ही विवेक-वैराग्यरूपी पंख आ जाने पर संसार में आबद्ध जीव भी उसमें से उड़ निकलता है !  

 { स्वामीजी कहते हैं - " भोगस्पृहा (तृष्णा) का त्याग न होने पर , ' वैराग्य ' न आने पर -  क्या कुछ होना सम्भव है ? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो ।   जो सभी उपाधियों (कामिनी -कांचन)  से अपनी आसक्ति को त्याग देने के लिये कमर -कसकर प्रस्तुत है, जो सुख, दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है,  वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है ।   'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  -  वही अनासक्ति के महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल आता है

https://vivek-jivan.blogspot.com/2013/04/18.html]

295 मछली सम जग वासना , रहत होहि मन क्लान्त। 

549 जो छूटे चील मुख से , होवत चहुँ दिग शान्त।।

एक चील को चोंच में एक मछली पकड़े हुए उड़ते देख सैकड़ों कौए और चील उसका पीछा करने लगे। तथा उसे टोंचते और काटते हुए उस मछली को छीनने की कोशिश करने लगे। वह चील जिधर जाता, ये कौए और चील भी चिल्लाते हुए उधर ही जाते।  अंत में परेशान होकर उसने मछली फेंक दी।

 तुरंत ही दूसरी चील ने उसे उठा लिया। देखते ही देखते सभी कौओं और चीलों ने पहली चील को छोड़कर दूसरी का पीछा करना शुरू  किया।

तब पहली चील निश्चिन्त होकर एक पेड़ की डाली पर चुपचाप बैठ गयी। 

उसकी इस शांत और निश्चिन्त अवस्था को देखकर अवधूत ने उसे प्रणाम करते हुए कहा , " तुम मेरी गुरु हो ! तुमने मुझे सिखाया कि संसार की वासनाओं और उपाधियों को छोड़ देने से ही शांति मिल सकती है , वरना महान विपत्तियां झेलनी पड़ती हैं।  

301 मंद वैरागी भजहि हरि , बनत बनत बन जाई। 

558 पावत तीव्र विराग नर , चलहि जग ठुकराई।।

302  जाको तीव्र विराग है , पाने को भगवान। 

558 निजपरिजन तेहि लागहि , काला नाग समान।।

प्रश्न - बद्ध जीव के मन की अवस्था कैसी हो जाये , जिससे उसे मुक्ति मिल सकती है ? 

उत्तर - ईश्वर की कृपा से यदि उसे तीव्र वैराग्य हो जाये तो कामिनी -कांचन से निस्तार हो सकता है। यह तीव्र वैराग्य किसे कहते हैं जानते हो ? ' बनत बनत बनि जाई ' --अर्थात भगवान का नाम लेते रहो , सब हो जायेगा। ' यह मंद वैराग्य के लक्षण हैं । जिसे तीव्र वैराग्य होता है उसके प्राण भगवान के लिए व्याकुल हो उठते हैं , जिस प्रकार माँ के प्राण अपने बच्चे के लिए व्याकुल हो उठते हैं। जिसे तीव्र वैराग्य होता है वह भगवान के सिवा और कुछ नहीं चाहता। संसार उसे कुँए जैसा प्रतीत होता है। उसे डर लगता है कि कहीं मैं डूब न जाऊँ। आत्मीयों को वह काले  नाग के समान देखता है , उनसे दूर भागने को मन होता है और भागता भी है। 'घर-गृहस्थी का बंदोबस्त कर लूँ , फिर ईश्वरचिंतन करूँगा 'ऐसा विचार वह नहीं करता। उसके भीतर बड़ी जिद होती है। 

297 कंचन काम जो काट ले , त्याग मंत्र से झार। 

552 जहर उतर जब धरहि तब , साधन भजन बुखार।।

एक प्रकार की जहरीली मकड़ी होती है ; वह यदि काट ले तो कोई दवा लगाने के पहले मंत्र के सहारे हल्दी का धुआँ देते हुए विष उतारना पड़ता है। उसक बाद ही दूसरी दवाइयों का असर होता है , अन्यथा नहीं। इसी प्रकार जीव को यदि कामिनी कांचन रूपी जहरीली मकड़ी काट ले , तो पहले त्याग रूपी मंत्र से उसका जहर उतारना पड़ता है , उसके बाद ही दूसरी दवाइयाँ - जैसे साधन-भजन में सफलता मिल पाती है।   

304 त्याग बिना नहि ज्ञान नर , तेहि बिनु संशय नाश। 

561 विषय वासना तज मनुवा , भज हरि होहि प्रकाश।।

कामिनी-कांचन का त्याग हुए बिना ज्ञान नहीं होता। त्याग होने पर ही अज्ञान -अविद्या का नाश होता है। कॉन्वेक्स लेंस पर सूर्य की किरणें पड़ने पर उससे कितनी वस्तुएं जल जाती हैं , परन्तु कमरे में जहाँ छाया हो, कॉन्वेक्स लेंस ले जाने पर यह नहीं हो पाता। इसके लिए घर छोड़कर बाहर निकलना पड़ता है।    

300 बिना विवेक विराग के , वृथा शास्त्र कर ज्ञान। 

556 जनु जल लंगर डार नर , खेवहि नाव अजान।।

मन में विवेक-वैराग्य के रहे बिना शास्त्र-ग्रन्थ पढ़ना वृथा है। विवेक-वैराग्य के बिना आध्यात्मिक उन्नति असंभव है।  

303 कीट पतंग प्रकाश को , चींटी जस गुड़ चाह। 

559 तस भक्तन भगवान को , प्रेम करत अथाह।।

भक्तगण भगवान के लिए सबकुछ छोड़ क्यों देते हैं ? पतंगा यदि एक बार प्रकाश को देखले तो फिर अँधेरे में नहीं जाता ; चींटी गुड़ में लिपटकर भले ही प्राण देदे , पर उसे नहीं छोड़ती। इसी प्रकार भक्त भी ईश्वर (सत्य) के लिए प्राणों की बाजी लगा देता है , परन्तु दूसरी कोई चीज नहीं चाहता। 

305 धन यश परिजन प्रिय लगे , सहित सकल संसार। 

563 पर निरखत आनंदमयी , लागहि सब निःसार।।

छोटे बच्चे कमरे में अकेले गुड़िया लेकर निश्चिन्त होकर अपनी ही धुन में खेलते रहते हैं।  परन्तु ज्यों ही वहाँ उनकी माँ आ पहुँचती है कि वे गुड़िया छोड़कर 'माँ माँ ' करते हुए उसकी ओर दौड़ पड़ते हैं। 

इस समय तुम लोग धन , मान , यश आदि की  गुड़िया लेकर संसार में मग्न हो खेल रहे हो , किसी बात की चिंता नहीं है। परन्तु यदि तुम आनंदमयी माँ को एक बार भी देख पाओ तो फिर तुम्हें धन , मान , यश आदि नहीं भायेंगे। तब तुम सब छोड़कर उसी की ओर दौड़ पड़ोगे। 

296 तेल लगे कागज मँह , कुछ भी लिखा न जाय। 

551 तस जिन्हके मन वासना , सत साधन न सुहाय।।

कागज पर यदि तेल लगा हो तो उस पर लिखा नहीं जा सकता ; इसीतरह जीव के मन में यदि कामिनी-कांचन रूपी तेल लग जाये तो उसके द्वारा साधना नहीं हो सकती। परन्तु , फिर जिस प्रकार उस तेल लगे हुए कागज पर खड़िया  रगड़ देने से उस पर लिखा जा सकता है। उसी प्रकार कामिनी -कंचन रूपी तेल लगे मन को त्यागरूपी खड़िये से घिस लिया जाये तो उसके द्वारा साधना की जा सकती है।  

294 भोग वासना दाद सम , कर विचार मन खुद। 

548 जो खुजलावे सुख मिले , छोड़त होवे दुःख।।

दाद को खुजलाते समय तो आराम मालूम होता है पर बाद में असह्य जलन होने लगती है। संसार के भोग भी ऐसे ही हैं - शुरू-शुरू में तो वे बड़े ही सुखप्रद मालूम होते हैं , परन्तु बाद में उनका परिणाम अत्यंत भयंकर और दुःखमय होता है।   

298 विषय वासना लिप्त मन , जनु घट गंदा जल। 

553 फिटकरी विवेक विराग की, पड़त हि होय निर्मल।।

गंदे पानी में यदि तुम एक टुकड़ा फिटकरी डाल दो तो सारा मैल नीचे बैठकर पानी स्वच्छ हो जाता है। विवेकज ज्ञान और वैराग्य मानो फिटकरी (alum) हैं। इन्हीं के द्वारा संसारी मनुष्य की विषयासक्ति दूर होकर वह शुद्ध बनता है। 

306 काम क्रोध मद लोभ सब , जग महँ मगर समान। 

567 हल्दी विवेक विराग की , मल मल कर असनान।। 

सच्चिदानन्द- सागर में डूब जाओ। कामक्रोध -रूपी मगरों से मत डरो ; शरीर पर विवेक-वैराग्य रूपी हल्दी लगाकर डुबकी लगाओ तो ये मगर तुम्हारे पास नहीं फटकेंगे। 

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शिष्य  -  तो फिर ईश्वर सर्वशक्तिमान व्यक्तिविशेष है  -  यह बात कैसे सत्य हो सकती है ?

      स्वामीजी  -  मनरूपी उपाधि को लेकर ही मनुष्य है ।  मन के ही द्वारा मनुष्य को सभी विषय समझना पड़ रहा है ।  परन्तु मन में जो सोचता है वह सीमित होगा ही ।  इसलिए अपने व्यक्तित्व से ईश्वर के व्यक्तित्व की कल्पना करना जीव का स्वतःसिद्ध स्वभाव है, मनुष्य अपने आदर्श को मनुष्य के रूप में ही सोचने में समर्थ है ।

     इस जरामृत्युपूर्ण जगत् में आकर मनुष्य दुःख की ताड़ना से 'हा हतोऽस्मि'  करता है और किसी ऐसे व्यक्ति का आश्रय लेना चाहता है जिस पर निर्भर होकर वह चिन्ता से मुक्त हो सके । परन्तु ऐसा आश्रय है कहाँ ? निराधार सर्वज्ञ आत्मा ही एकमात्र आश्रयस्थल है । 

पहले पहल मनुष्य यह बात जान नहीं सकता । विवेक-वैराग्य आने पर ध्यान-धारणा करते करते धीरे धीरे यह जान जाता है ।  परन्तु कोई भी किसी भी भाव से साधना क्यों न करे,  सभी अपने अनजान में अपने भीतर स्थित ब्रह्मभाव को जगा रहे हैं ।  हाँ, आलम्बन अलग अलग हो सकता है ।  जिसका ईश्वर में व्यक्तिविशेष होने में विश्वास है, उसी उसी भाव को पकड़कर साधन-भजन आदि करना चाहिए । एकान्तिका आने पर उसीसे समय पर ब्रह्मरूपी सिंह उनके भीतर से जाग उठता है। ब्रह्मज्ञान ही जीव का एकमात्र प्राप्तव्य है ।

 परन्तु अनेक पथ - अनेक मत हैं । जीव का पारमार्थिक स्वरूप ब्रह्म होने पर भी मनरूपी उपाधि में अभिमान रहने के कारण, वह तरह तरह के सन्देह, संशय,  सुख, दुख आदि भोगता है, परन्तु अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्त सभी गतिशील हैं ।  जब तक  अहंब्रह्मास्मि ~ 'अहं ब्रह्म'  यह तत्त्व प्रत्यक्ष न होगा, तब तक जन्ममृत्यु की गति के पंजे से किसी का छुटकारा नहीं है ।  

मनुष्यजन्म प्राप्त करके मुक्ति की इच्छा प्रबल होने तथा महापुरुष की कृपा प्राप्त होने पर ही मनुष्य की आत्मज्ञान की इच्छा बलवान होती है; नहीं तो काम-कांचन में लिप्त व्यक्तियों की उधर प्रवृत्ति ही नहीं होती ।जिसके मन में स्त्री,  पुत्र,  धन,  मान प्राप्त करने का संकल्प है,  उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे होगी ?  

जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है, जो सुख, दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है,  वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है ।  'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  - वही वैराग्य के महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल आता है ।

शिष्य - महाराज,  क्या संन्यास के बिना ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता ?

स्वामीजी - क्या यह बार बार कहने का है ? वैराग्य न आने पर - त्याग न होने पर - भोगस्पृहा का त्याग न होने पर क्या कुछ होना सम्भव है ? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो । अन्तर्वाह्य दोनों प्रकार से संन्यास का अवलम्बन करना चाहिए,  आचार्य शंकर ने भी उपनिषद् के  '*तपसो वाप्यलिंगात्'* - इस अंश की व्याख्या के प्रसंग में कहा है, 'लिंगहीन अर्थात् संन्यास के वाह्य चिन्हों के रूप में गेरूआ वस्त्र, दण्ड, कमण्डलु आदि धारण न करके तपस्या करने पर कष्ट से प्राप्त करने योग्य ब्रह्मतत्त्व प्रत्यक्ष नहीं होता ।' 

Full text of "Shree Ram Krishan Lila Prasang"/

https://archive.org/stream/in.ernet.dli.2015.479649/2015.479649.Shree-Ram_djvu.txt

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