[निर्झर का स्वप्नभंग]
महाकाल रूपी रथ के पहियों की घड़घड़ाहट में इस क्षणिक स्मरण-मनन से उत्पन्न उत्साह फिर विस्मृति के सागर में विलीन हो जाता है। व्यक्तिगत रूप से पूछने पर भारतभूमि पर जन्म लिया हुआ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो स्वामी जी प्रति श्रद्धा के दो शब्द न बोल पाये। किन्तु, यदि हम अपने सामाजिक जीवन और राष्ट्रीय जीवन पर दृष्टि डालते हैं, उनको परिचालित करने वाले नीतियों और योजनाओं को देखते हैं, तब यह पाते हैं कि इस महीने में सभा-समिति एवं समसामयिक लेखों में हम जो भी उल्लेख करते हैं, इन दोनों में कोई सामंजस्य नहीं है।
ऐसा लगता है मानो यह सब केवल बोलने के लिये हैं, करने के लिये नहीं। यह सब बोलने के लिये कुछ पुस्तकों के कुछ पन्नो को उलट -पलट लेना ही यथेष्ट है। किन्तु करने में बहुत कष्ट है। हमारी इस महान राष्ट्रीय दोष के प्रति स्वामी जी ने हमें बहुत पहले ही सावधान कर दिया था। किन्तु, हमलोग इस मार्ग में अपना कदम क्यों नहीं बढ़ा पाते ? इसके दो कारण हो सकते हैं - पहला है, स्वामी जी ने क्या -क्या किया था, इसके बार में थोड़ी-बहुत जानकारी रखने पर भी स्वामीजी क्या चाहते थे, इस पर विशेष ध्यान नहीं देते। दूसरा कारण है विद्यार्थी जीवन में शिक्षकों की व्यक्तिगत इच्छा होने पर क्लास में स्वामीजी की दो-एक कहानियाँ सुना देने के अतिरिक्त और कुछ सिखाने की व्यवस्था हमारी शिक्षा पद्धति में नहीं है। इसीलिए हमारा काम है स्वामी जी प्रति कुछ बोलने के समय श्रद्धा निवेदन कर देना। किन्तु उनके प्रति श्रद्धा निवेदन का मतलब है अपना जीवन समर्पित करना, उसे हम अपना कर्तव्य नहीं समझते। दूसरा -स्वामी जी हमसे क्या चाहते थे, यह हम (व्यक्तिगत और राष्ट्रिय जीवन में) थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं, तो 'समझ नहीं सके हैं ' का बहाना कर दायित्व से बचना चाहते हैं। क्योंकि यह घोषणा करने पर कि हम समझ चुके हैं हमें सर्वस्व त्यागकर सबके कल्याण के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा,यह बात सोचकर ही हम सिहर उठते हैं।
स्वामी जी ने इसका भी कारण बतलाया था। मनुष्य के अनेकों स्वभावों में से एक है -जड़ता, अर्थात किसी जड़पिण्ड के समान स्थिर रहना। जैसा हैं, वैसा ही बने रहना। लेकिन स्वामीजी के भाव को ग्रहण करने के लिए अपनी जड़ता तोड़नी होगी। इस भाव को लेने पर हम विगत वर्ष जिस जगह पर थे, उसी जगह पर बने नहीं रह सकते। विगत समय में हम जितना मनुष्य बन सके थे, आज भी उसी जगह खड़े रहना सम्भव नहीं हो पाता है। यहाँ तक कि अभी जो क्षण बीता है उस समय में मैं जो था, उसी जगह पर वर्तमान क्षण में नहीं रह सकता। हमें प्रति मुहूर्त आगे बढ़ते रहना पड़ता है। शरीर का बड़ा होना और वार्धक्य को पाकर अन्ततः नष्ट हो जाना, यह तो प्राकृतिक रूप से घटित होता रहता है। इसके लिए हमें कोई यत्न नहीं करना पड़ता। हमें मन को शक्तिशाली बनाने, हृदय का द्वार खोलने एवं इसका विस्तार करते रहना पड़ता है। प्रतिक्षण अपने क्षुद्र 'मैं ' पन को पूरी निर्ममता से त्याग कर, उसे विराट बन जाने की चेष्टा में स्वामीजी के भाव को लगाए रखना चाहिए। ह्रदय के बन्द द्वारा के खुलने से जब मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है तो 'हेसे खलखल गेये कलकल ' उसकी निर्झरता की खिलखिलाती कलकल ध्वनि को सुन हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। और इसकी धारा में स्नान करके हम अपने छोटे- छोटे स्वार्थों का त्याग करते हुए यथार्थ जीवन रूपी समुद्र के आमने -सामने खड़े हो जाते हैं। (मठ में आयोजित -2016 गोल्डन जुबली कैम्प का थीम यही था।) इस क्षुद्रताओं को त्यागकर महत की प्राप्ति के प्रति भयभीत क्यों होना चाहिए ? ऐसा भय केवल अपनी जड़ता को बनाये रखने के कारण होता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- ' चलते रहना ही जीवन है और थम जाना ही मृत्यु है। उठो, जागो, अब और सपने मत देखो ! घोर निद्रा को त्यागकर खड़े हो जाओ और आगे बढ़ो - चरैवेति चरैवेति !' यही है स्वामीजी का जीवन मन्त्र। स्वामी जी के महाजन्म का स्मरण करके यदि इस नवजीवन के मंत्र से में हम दीक्षित नहीं हो सके तो उनके प्रति केवल मौखिक श्रद्धा निवेदन का कोई मूल्य नहीं होगा।
किन्तु, केवल इतना ही से नहीं होगा। अपने जीवन रूपी दीपक को प्रज्वलित कर स्वयं जागना होगा एवं दूसरों को भी इसी तरह जगाना होगा। सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ते हुए इसी भाव में जागृत होना होगा। व्यक्ति से लेकर पारिवारिक,पारिवारिक से सामाजिक, तदन्तर राष्ट्रिय जीवन को इसी 'चरैवेति, चरैवेति' के मंत्र से दीक्षित करना होगा।
इस महाजागरण की वाणी को खेत-खलिहान, कल-कारखाने, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यवसाय करने वाले बणिकों की गद्दीयों, राष्ट्रचालकों के मसनदों तक सर्वत्र प्रसारित करना होगा। स्वामी जी भारतवर्ष के पूर्ण जागरण के लिए ही आये थे। हमने स्वामी जी को इस भाव में देखना सीखा ही नहीं है। किन्तु, ऐसा देखना होगा और दूसरों को भी दिखाना होगा। स्वामी जी कहते थे भारत झोपड़ियों में वास करता है। अतः जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। यदि भारत को उठाना चाहते हों तो देश के जनसाधारण को उठाना होगा। तुम सबों को उठा नहीं सकते लेकिन तुम उनके कानों तक इस महाजीवन की वाणी को अवश्य पहुँचा सकते हो। प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है। इस शक्ति के जग जाने से फिर कोई अवरोध उसे रोक नहीं सकता। जब वे अपने अधिकार को जान पायेंगे तब उनमें दायित्व का बोध जगेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध के साथ अपने पैरों पर खड़ा होगा, सिर उठाकर चलना शुरू करेगा, अपने निजी सुख को तुच्छ समझकर, उनका त्याग करेगा और दूसरों के कल्याण के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देगा तभी भारत जगेगा। इस नवजीवन को जो धारण करता है वही है स्वामीजी का धर्म।
यह धर्म कोई अफीम का नशा नहीं है। जिस जड़ता रूपी अफीम ने हमें घोर निद्रा में निमग्न कर रखा है, उस महानिद्रा को त्याग कर उठ खड़े होने का आह्वान स्वामी जी करते हैं। प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवा को इस आह्वान को समझना होगा और समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण व्यवस्था को यह समझाने का दायित्व लेना होगा। स्वामीजी को महान बताकर भाषण देना या समाचार पत्रों में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली व्यक्त करने से देश आगे नहीं बढ़ेगा। भारत अभी तक जितना सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है वह स्वामीजी के इसी - चरैवेति, चरैवेति मंत्र के कारण हुआ है।
इस आह्वान की उपेक्षा कर, अवहेलना कर हम उस कीमती रत्न को खो देंगे जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को महाजीवन में बदलने में समर्थ है। यदि हम इसे खोयें नहीं , इसका उचित मूल्य लगाकर उसका वरण कर सकें तो यही स्वामीजी के महाजन्म के शुभ मुहूर्त के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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