परिच्छेद- ४
वराहनगर मठ
(१)
रवीन्द्र का पूर्वजीवन
आज सोमवार है, ९ मई, १८८७, जेष्ठ कृष्ण की द्वितीया। नरेन्द्र आदि भक्तगण मठ में हैं। शरद, बाबूराम और काली पुरी गये हुए हैं और निरंजन माता को देखने के लिए। मास्टर आये हैं। भोजन आदि के पश्चात् मठ के भाई जरा देर विश्राम कर रहे हैं । गोपाल (बूढ़े गोपाल) गाने की कापी में गाना उतार रहे हैं।
दिन ढल रहा हे। रवीन्द्र पागल की तरह आकर उपस्थित हुए। नंगे पैर, काली धारी की सिर्फ आधी धोती पहने हुए हैं, पागल की तरह आँखों की पुतलियाँ घूम रही हैं। लोगों ने पूछा, 'क्या हुआ?' रवीन्द्र ने कहा, 'जरा देर बाद बतलाता हूँ, मैं अब और घर न लौटूँगा, यही आप लोगों के साथ रहूँगा। उसने विश्वासघात किया, जरा देखिये तो साहब, पूरे पाँच साल की आदत, - सो शराब पीना तक मैंने उसके लिए छोड़ दिया -आज आठ महीने हुए मुझे शराब छोड़े, इसका फल यह कि वह पूरी धोखेबाज निकली।॥' मठ के भाइयों ने कहा - 'तुम जरा ठण्डे हो लो, तुम आये किस सवारी से ?'
रवीन्द्र - में कलकत्ते से बराबर नंगे पैर पैदल चला आ रहा हूँ।
भक्तों ने पूछा, 'तुम्हारी आधी धोती क्या हो गयी?” रवीन्द्र ने कहा, “आते समय उसने धर-पकड़ की, इसी में आधी धोती फट गयी।” भक्तों ने कहा, तुम गंगा-स्नान करके आओ, आकर ठण्डे होओ, फिर बातचीत होगी।'
रवीन्द्र का जन्म कलकत्ते के एक बहुत ही प्रतिष्ठित कायस्थ वंश में हुआ है। उम्र २०-२२ साल की होगी। श्रीरामकृष्ण को उन्होंने दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में देखा था और उनकी कृपा प्राप्त की थी। एक बार तीन रात लगातार वहाँ रह भी चुके थे। स्वभाव के बड़े मधुर और कोमल हैं। श्रीरामकृष्ण इन पर बड़ा स्नेह करते थे। परन्तु उन्होंने कहा था, “तेरे लिए अभी देर है अभी तेरे लिए कुछ भोग बाकी है। अभी कुछ न होगा। जब डाकू छापा मारते हैं, तब ठीक उसी समय पुलिस कुछ कर नहीं सकती। जब हलचल कुछ शान्त हो जाती है तब पुलिस आकर गिरफ्तार करती है।” आज रवीन्द्र वारांगना के जाल मे पड गये हैं, परन्तु और सब गुण उनमें है। गरीबो के प्रति दया, ईश्वर-चिन्तन, यह सब उनमें है। वेश्या को विश्वासघातक जानकर आधी धोती पहने हुए मठ मे आये है। संसार मे अब नही लौटेगे, इसका उन्होने दृढ़ संकल्प कर लिया है।
रवीन्द्र गंगा-स्नान के लिए जा रहे हैं। परामाणिक घाट पर जायेंगे । एक भक्त भी साथ जा रहे हैं।
उनकी हार्दिक इच्छा है कि साधुओं के साथ इस युवक मे चेतना का संचार हो। गंगा-स्नान के पश्चात् रवीन्द्र को वे घाट ही के पासवाले एक श्मशान मे ले गये। वहाँ उसे लाशे दिखलाने लगे। कहा - “यहाँ कभी कभी रात को मठ के भाई आकर ध्यान करते है। यहाँ हम लोगो के लिए ध्यान करना अच्छा है। संसार की अनित्यता खूब समझ मे आती है।” उनकी यह बात सुनकर रवीन्द्र ध्यान करने के लिए बैठे, परन्तु ज्यादा देर तक ध्यान नही कर सके। मन चंचल हो रहा था।
दोनों मठ लौटे। पूजा-घर मे आकर दोनों ने श्रीरामकृष्ण के चित्र को प्रणाम किया। भक्त ने कहा, मठ के भाई इसी कमरे में ध्यान करते है। रवीन्द्र जरा देर के लिए ध्यान करने बैठे। परन्तु ध्यान अधिक देर तक न हो सका।
मास्टर - क्या मन बहुत चंचल हो रहा है ? शायद इसलिए तुम इतनी ज॑ल्दी उठ पड़े ? शायद ध्यान अच्छी तरह जमा नही?
रवीन्द्र - यह निश्चय है कि अब घर न लौटूँगा, परन्तु मन चंचल जरूर है।
मास्टर और रवीन्द्र मठ मे एकान्त स्थ।न पर खड़े हैं। मास्टर बुद्ध की बातें कर रहे हैं । देवकन्यायों का एक गाना सुनकर बुद्ध को पहले-पहल चेतन्य हुआ था। आजकल मठ मे बुद्धचरित्र और चैतन्यचरित्र की चर्चा प्रायः हुआ करती है। मास्टर वही गाना गा रहे हैं।
रात को नरेन्द्र, तारक और हरीश कलकत्ते से लौटे। आते ही उन्होंने कहा - 'ओह, खूब खाया!” कलककत्ते मे किसी भक्त के यहाँ उनकी दावत थी।
नरेन्द्र और मठ के दूसरे भाई, मास्टर तथा रवीन्द्र आदि भी, 'दानवो के कमरे! मे बैठे हुए हैं। मठ में नरेन्द्र को रवीन्द्र का सब हाल मिल चुका है।
दुःखी जीव तथा नरेन्द्र का उपदेश
नरेन्द्र गा रहे है। गाते हुए रवीन्द्र को मानो उपदेश दे रहे हैं।
गाने का भाव - “तुम मोह और कुमन्त्रणाएँ छोड़ उन्हें समझो, तुम्हारी सम्पूर्ण व्यथा इस तरह दुर हो जायेगी।” नरेन्द्र फिर गा रहे हैं-
“पी ले अवधूत, हो मतवाला, प्याला प्रेम हरिरंस का रे।
बाल अवस्था खेलि गँवायो, तरुण भयो नारीबस का रे,
वृद्ध भयो कफ वायु ने घेरा, खाट पडो रह्यो शाम-सकारे॥।
नाभि-कमल मे है कस्तुरी, कैसे भरम मिटे पशु का रे;
बिन सद्गुरु नर ऐसहि ढूँढे, जैसे मिरिंग फिरै वन का रे॥”
कुछ देर बाद सब गुरुभाई काली तपस्वी के कमरे मे आकर बेठे। गिरीश का बुद्धचरित्र और चैतन्यचरित्र, ये दो नयी पुस्तकें आयी हैं । नरेन्द्र, शशी, राखाल, प्रसन्न, मास्टर आदि बेठे है। नये मठ मे जब से आना हुआ है, तब से शशी श्रीरामकृष्ण की पूजा और उन्ही की सेवा मे दिनरात लगे रहते है। उनकी सेवा देखकर दूसरो को आश्चर्य हो रहा है। श्रीरामकृष्ण की बीमारी के समय वे दिनरात जिस नरह उनकी सेवा किया करते थे, आज भी उसी तरह अनन्यचित्त होकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा किया करते है।
मठ के एक भाई बुद्धचरित्र और चेतन्यचरित्र पढ़ रहे है। स्वरसहित जरा व्यंग के भाव से चेतन्यचरित्र पढ रहे है। नरेन्द्र ने उनसे पुस्तक छीन ली और कहा - 'इस तरह कोई अच्छी चीज को भी मिट्टी मे मिलाता है ? नरेन्द्र स्वयं चेतन्यदेव के 'प्रेम-वितरण' की कथा पढ़ रहे है।
मठ के एक भाई - मैं कहता हूँ, कोई किसी को प्रेम दे नहीं सकता।
नरेन्द्र - मुझे तो श्रीरामकृष्णदेव ने प्रेम दिया है।
मठ के भाई - अच्छा, क्या मचमुच ही तुम्हें प्रेम दिया है ?
नरेन्द्र - तू क्या समझेगा! तू (ईश्वर के) नौकरों के दर्जे का है। मेरे सब पैर दाबेंगे , - शरता, मित्तर और देसो भी। (सब हँसते है) तू शायद यह सोच रहा है कि तूने सब कुछ समझ लिया? (हास्य)
मास्टर - (स्वगत) - श्रीरामकृष्ण ने मठ के सभी भाइयों के भीतर शक्ति का संचार किया है, केवल नरेन्द्र के भीतर ही नहीं। बिना इस शक्ति के क्या कभी कामिनी और कांचन का त्याग हो सकता है?
दूसरे दिन मंगल है, १० मई। आज महामाया की पूजनतिथि है। नरेन्द्र तथा मठ के सब भाई आज विशेष रूप से जगन्माता की पूजा कर रहे है। पूजा-घर के सामने त्रिकोण यन्त्र की रचना की गयी, होम होगा। नरेन्द्र गीता-पाठ कर रहे हैं।
मणि गंगा-स्नान को गये। रवीन्द्र छत पर अकेले टहल रहे हैं। स्वरसमेत नरेन्द्र स्तवन (निर्वाण षट्कम) पढ़ रहे हैं, रवीन्द्र वहीं से सुन रहे हैं :-
ॐ मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||
रवीन्द्र गंगा-स्नान करके आ गये, धोती भीगी हुई है।
नरेन्द्र - (मणि के प्रति, एकान्त मे) - यह देखो, नहाकर आ गया, अब इसे संन्यास दे दिया जाय तो बहुत अच्छा हो!
(नरेन्द्र और मणि हँसते हैं)
प्रसन्न ने रवीन्द्र मे भीगी धोती उतारने के लिए कहा, साथ ही उन्होंने एक गेरुआ वस्त्र भी दिया।
नरेन्द्र - (मणि से) - अब वह त्यागियों का वस्त्र पहनेगा।
मणि - (हँसकर) - किस चीज का त्याग?
नरेन्द्र - काम-कांचन का त्याग!
गेरुआ वस्त्र पहनकर रवीन्द्र एकान्त में काली तपस्वी के कमरे मे जाकर बैठे। जान पड़ता है कि कुछ ध्यान करेंगे।
=============
जब आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा । बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है… यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
No comments:
Post a Comment