परिच्छेद ३
भक्तों के हृदय में श्रीरामकृष्ण
(१)
नरेन्द्रादि का तीव्र वैराग्य
आज वेैशाखी पूर्णिमा है। शनिवार, ७ मई १८८७।
गुरुप्रसाद चौधरी लेन, कलकत्ता के एक मकान मे नरेन्द्र और मास्टर बैठे हुए वार्तालाप कर रहे है। यह मास्टर के पढ़ने का कमरा है। नरेन्द्र के आने के पहले वे- "मर्चेंट ऑफ़ वेनिस, कॉमस, ब्लैकीज़ सेल्फ-कल्चर (Merchant of Venice, Comus, Blackie's Self-culture.)" यही सब पुस्तकें पढ़ रहे थे। स्कूल मे विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए पाठ तैयार कर रहे थे।
नरेन्द्र और मठ के सब गुरुभाइयों के हृदय में तीव्र वेराग्य झलक रहा है। ईश्वर- दर्शन के लिए सब के सब व्याकुल हो रहे हैं।
नरेन्द्र - (मास्टर से) - मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता। आपके साथ बातचीत तो कर रहा हूँ, परन्तु जी चाहता है कि उठकर अभी चला जाऊँ।
नरेन्द्र कुछ देर तक चुप रहे। कुछ समय बाद कहने लगे, “ईश्वर-दर्शन के लिए मैं अनशन कर डालूँगा - प्राण तक दे दूँगा।”
मास्टर - अच्छा तो है, ईश्वर के लिए सब कुछ किया जा सकता है।
नरेन्द्र - अगर भूख न सम्हाल सका तो ?
मास्टर - तो कुछ खा लेना, और फिर से शुरू करना।
नरेन्द्र कुछ देर तक चुप रहे।
नरेन्द्र - जान पड़ता है, ईश्वर नहीं है। इतनी प्रार्थनाएँ मैंने की, उत्तर एक बार भी नहीं मिला।
“सोने के अक्षरों में लिखे हुए न जाने कितने मन्त्र चमकते हुए मैंने देखे!
“न जाने कितने काली रूप, और दूसरे दूसरे रूप देखे, फिर भी शान्ति नहीं मिल रही है!
“छ: पैसे दीजियेगा ?”
नरेन्द्र शोभाबाजार से गाड़ी में वराहनगर मठ जानेवाले हैं, इसीलिए किराये के छः पैसे चाहिए थे।
देखते ही देखते सातू (सातकौड़ी) गाड़ी से आ पहुँचे। सातू नरेन्द्र के ही उम्र के हैं, मठ के किशोर भक्तों को बड़ा प्यार करते हैं, मठ में सब आते-जाते भी हैं। उनका घर वराहनगर मठ के पास ही है, कलकत्ते के किसी आफिस में काम करते हैं। उनके घर की गाड़ी है। उसी गाड़ी से आफिस होकर आ रहे हैं।
नरेन्द्र ने मास्टर को पैसे वापस कर दिये, कहा, “अब क्या है, अब सातू के साथ चला जाऊँगा। आप कुछ खिलाइये।” मास्टर ने कुछ जलपान कराया।
उसी गाड़ी पर मास्टर भी बैठे। उनके साथ वे भी मठ जायेंगे। सब लोग शाम को मठ पहुँचे। मठ के भाई किस तरह दिन बिताते और साधना करते हैं, यह देखने की उनकी इच्छा है। श्रीरामकृष्ण किस तरह अपने पार्षदों के हृदय में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं यह देखने के लिए कभी कभी मास्टर मठ हो आया करते हैं। निरंजन मठ में नहीं हैं। घर में एकमात्र उनकी माँ बच रही हैं, उन्हें देखने के लिए वे घर चले गये हैं। बाबुराम, शरद और काली पुरी गये हुए हैं - कुछ दिन वहाँ रहेंगे, - उत्सव देखेंगे।
मठ के भाइयों की देख-रेख नरेन्द्र ही कर रहे हैं। प्रसन्न कुछ दिनों से कठोर साधना कर रहे थे। उनसे भी नरेन्द्र ने प्रायोपवेशन की बात कही थी। नरेन्द्र को कलकत्ता जाते हुए देख, वे भी कहीं अज्ञात स्थान के लिए चले गये। कलकत्ते से लौटकर नरेन्द्र ने सब कुछ सुना। उन्होंने दूसरे गुरुभाइयों से कहा, 'राजा (राखाल) ने क्यों उसे जाने दिया? परन्तु राखाल उस समय मठ में नहीं थे, वे मठ से दक्षिणेश्वर के बगीचे में टहलने चले गये थे। राखाल को सब भाई राजा कहकर पुकारते थे। 'राखालराज' श्रीकृष्ण का एक दूसरा नाम था।
नरेन्द्र - राजा को आने दो, मैं उसे एक बार फटकारूँगा कि क्यों उसे जाने दिया। (हरीश से) तुम तो पैर फैलाये लेक्चर दे रहे थे, उसे मना क्यों नहीं कर सके ?
हरीश - (मधुर स्वर से) - तारकदादा ने कहा तो, पर वह चला ही गया।
नरेन्द्र - (मास्टर से) - देखिये, मेरे लिए बड़ी मुश्किल है। यहाँ भी मैं एक माया के संसार में आ फँसा हूँ! न मालूम वह लड़का कहाँ चला गया!
राखाल दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर से लौट आये हैं। भवनाथ भी उनके साथ गये थे।
राखाल से नरेन्द्र ने प्रसन्न की बात कही। प्रसन्न ने नरेन्द्र को एक पत्र लिखा है, वह पत्र पढ़ा जा रहा है। पत्र इस आशय का है - “मैं पैदल ही वृन्दावन चला। मेरे लिए यहाँ रहना अच्छा नहीं है। यहाँ भाव का परिवर्तन हो रहा है। पहले तो मैं माता-पिता और घर के दूसरे मनुष्यों का स्वप्न देखा करता था, इसके पश्चात् मैंने माया की मूर्ति देखी। दो बार मुझे बड़ा कष्ट मिला, घर लौट जाना पड़ा था। इसीलिए अब की बार दूर जा रहा हूँ। श्रीरामकृष्णदेव ने मुझसे कहा था - 'तेरे वे घरवाले सब कुछ कर सकते हैं, उनका विश्वास न करना।'
राखाल कह रहे हैं, “वह इन्हीं अनेक कारणों से चला गया है। और उसने यह भी कहा है, “नरेन्द्र अपनी माँ और भाइयो की खबर लेने और मुकदमा आदि करने के लिए घर चला जाया करता है। मुझे भय है कि उसकी देखा-देखी कही मुझे भी घर जाने की इच्छा न हो। ”
यह सुनकर नरेन्द्र चुप हो रहे।
राखाल तीर्थ जाने की बातचीत कर रहे हैं। कह रहे हैं , 'यहाँ रहकर तो कहीं कुछ न हुआ। उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) जो कहा है - ईश्वरदर्शन, वह कहाँ हुआ?” राखाल लेटे हुए है। पास ही भक्तों मे कोई लेटे हुए है, कोई बैठे।
राखाल - चलो, नर्मदा की ओर निकल चलें।
नरेन्द्र - निकलकर क्या होगा ? ज्ञान इससे थोड़े ही होता है, जिसके सम्बन्ध में तूने इतनी रट लगा दी है।
एक भक्त - तो फिर संसार का त्याग तुमने क्यों किया?
नरेन्द्र - राम को नही पाया, इसलिए क्या श्याम के साथ रहना चाहिए? ईश्वरलाभ नहीं हुआ, इसलिए क्या बच्चे पैदा करते रहना चाहिए? यह कैसी बात है?
यह कहकर नरेन्द्र जरा उठ गये। राखाल लेटे हुए हैं।
कुछ देर बाद नरेन्द्र फिर लौटे और आसन ग्रहण किया।
मठ के एक भाई लेटे ही लेटे हास्य में कह रहे हैं मानो ईश्वर-दर्शन के बिना उन्हें बड़ा कष्ट हो रहा हो - “अरे, कोई है? - मुझे एक छुरी तो दो, प्राणान्त कर लूँ - बस अब तो कष्ट सहा नहीं जाता!”
नरेन्द्र - (मानो गम्भीर होकर) - वहीं है, हाथ बढ़ाकर उठा लो (सब हँसते हैं) फिर प्रसन्न की बात होने लगी।
नरेन्द्र - यहाँ भी माया! फिर हम लोगों ने संन्यास क्यों लिया ?
राखाल - 'मुक्ति और उसकी साधना' नामक पुस्तक में है कि संन्यासियों को एक जगह नहीं रहना चाहिए। 'संन्यासीनगर' की कथा उसमें है।
शशी - मैं संन्यास-फन्यास नहीं मानता। मेरे लिए ऐसा कोई स्थान नहीं है, जो अगम्य हो। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ में न रह सकूँ।
भवनाथ की बात चलने लगी। भवनाथ की स्त्री को कठिन पीड़ा हुई थी।
नरेन्द्र - (राखाल से) - जान पड़ता है, भवनाथ की बीबी बच गयी; इसीलिए मारे खुशी के दक्षिणेश्वर घूमने गया था।
काँकुड़गाछी के बगीचे की बातचीत होने लगी। रामबाबू वहाँ मन्दिर बनवाने का विचार कर रहे हैं।
नरेन्द्र - (राखाल से) - रामबाबू ने मास्टर महाशय को एक 'ट्रस्टी' (Trustee) बनाया है।
मास्टर - (राखाल से) - परन्तु मुझे तो इसकी कोई खबर नहीं ।
शाम हो गयी। शशी श्रीरामकृष्ण के कमरे में धूप देने लगे। दूसरे कमरों में श्रीरामकृष्ण के जितने चित्र थे, वहाँ भी धूप-धूना दिया गया। फिर मधुर कण्ठ से उनका नामोच्चारण करते हुए उन्हें प्रणाम किया।
अब आरती हो रही है। मठ के गुरु-भाई और दूसरे भक्त हाथ जोड़कर खड़े हुए आरती देख रहे हैं। झाँझ और घण्टे बज रहे हैं। भक्तवृन्द एकस्वर से आरती गा रहे हैं -
“जय शिव ओंकारा, भज शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव, हर हर हर महादेव।”
नरेन्द्र पहले गाते हैं, पीछे से उनके दूसरे गुरु-भाई। यही गायन श्रीकाशीधाम में विश्वेश्वर-मन्दिर मे हुआ करता है।
भोजन आदि समाप्त करते हुए रात के ग्यारह बज गये। भक्तों ने मास्टर के लिए एक बिछौना बिछा दिया और वे स्वयं भी सो गये।
आधी रात का समय है। मास्टर की आँख नही लगी। वे सोच रहे हैं। - 'सब तो है, - अयोध्या तो वही है, परन्तु बस राम नहीं हैं।” मास्टर चुपचाप उठ गये। आज वैशाख की पूर्णिमा है। मास्टर अकेले गंगाजी के तट पर टहल रहे हैं। श्रीरामकृष्ण की बाते सोच रहे हैं।
योगवासिष्ठ-पाठ। संकीर्तनानन्द तथा नृत्य
आज रविवार है। मास्टर शनिवार को आये हैं। बुध तक अर्थात् पाँच दिन मठ में रहेंगे। गृही भक्त प्राय: रविवार को ही मठ में दर्शन करने के लिए आया करते हैं। आजकल बहुधा योगवासिष्ठ का पाठ हुआ करता है। मास्टर ने श्रीरामकृष्ण से योगवासिष्ठ की कुछ बातें सुनी थी। देह-बुद्धि के रहते योगवासिष्ठ के 'सोऽहम्” भाव के अनुसार साधना करने की श्रीरामकृष्ण ने मनाही की थी और कहा था, 'सेव्यसेवक-भाव ही अच्छा है।'
मास्टर - अच्छा, योगवासिष्ठ में ब्रह्मज्ञान की कैसी बातें हैं ?
राखाल - भूख-प्यास, सुख-दु:ख, यह सब माया है, मन का नाश ही एक कमात्र उपाय है।
मास्टर - मन के नाश के पश्चात् जो कुछ बच रहता है, वही ब्रह्म है, क्यों?
राखाल - हाँ।
मास्टर - श्रीरामकृष्ण भी ऐसा ही कहते थे। न्यांगटा ने उनसे यही बात कही थी। अच्छा, राम को वशिष्ठजी ने संसार में रहने के लिए कहा है, क्या ऐसी कोई बात तुम्हें उस ग्रन्थ में मिली ?
राखाल - नहीं, अभी तक तो नहीं मिली। इसमें तो राम को कहीं अवतार ही नहीं लिखा है। यही बातचीत चल रही है, इसी समय नरेन्द्र, तारक तथा एक और भक्त गंगातट से टहलकर आ गये। उनकी इच्छा सैर करते हुए कोन्नगर तक जाने की थी, परन्तु नाव नही मिली। सब के सब आकर बेठे। योगवासिष्ठ का प्रसंग फिर चलने लगा।
नरेन्द्र - (मास्टर से) - बड़ी अच्छी कहानियाँ हैं। लीला की कथा आप जानते हैं ?
मास्टर - हाँ, योगवासिष्ठ में है, मैंने कुछ पढ़ा है। लीला को ब्रह्मज्ञान हुआ था न?
नरेन्द्र - हाँ, और इन्द्र-अहल्या-संवाद, तथा विदूरथ राजा चाण्डाल हुए - वह कथा ?
मास्टर - हाँ, याद आ रही है।
नरेन्द्र - वन का वर्णन भी कितना मनोहर है!
नरेन्द्र आदि भक्तगण गंगा-स्नान को जा रहे हैं। मास्टर भी जायेंगे। धूप देखकर मास्टर ने छाता ले लिया। वराहनगर के श्रीयुत शरच्चन्द्र भी साथ ही गंगा नहाने जा रहे है। ये सदाचारी ब्राह्मण युवक हैं। मठ में सदा आते रहते है। कुछ दिन पहले वैराग्य धारण करके ये तीर्थाटन भी कर चुके हैं।
मास्टर - (शरद से) - धूप बड़ी तेज है।
नरेन्द्र - तो यह कहो कि छाता ले लूँ।
(मास्टर हँसते हैं)
भक्तगण कन्धे पर अँगौछा डाले हुए मठ का रास्ता पार कर परामाणिक घाट के उत्तर तरफवाले घाट में नहा रहे हैं। सब के सब गेरुआ वस्त्र धारण किये हुए हैं। आज ८ मई, १८८७ है। धूप बड़ी तेज है।
मास्टर - (नरेन्द्र से) - कहीं लू न लग जाय।
नरेन्द्र - आप लोगों का शरीर भी तो वैराग्य में बाधक है - है न? मेरा मतलब है आपका, देवेन्द्रबाबू का -
मास्टर हँसने लगे और सोचने लगे - क्या केवल शरीर ही बाधक है?
स्नान करके भक्तगण मठ लौटे और हाथ-पैर धोकर श्रीरामकृष्ण के कमरे में (जहाँ श्रीरामकृष्ण की पूजा होती थी) गये। प्रणाम करके श्रीरामकृष्ण के पादपद्मों में प्रत्येक भक्त ने पुष्पांजलि चढ़ायी।
पूजा-घर में नरेन्द्र को जाने में कुछ देर हो गयी। श्रीगुरु महाराज को प्रणाम करके नरेन्द्र फूल लेने को बढ़े तो देखा, पुष्पपात्र में फूल एक भी नही था। उन्होंने पूछा - 'फूल नहीं हैं?” पुष्प-पात्र में दो-एक बिल्वदल बच रहे थे, चन्दन में उन्हें ही डुबाकर अर्पण किया। फिर एक बार घण्टाध्वनि की। अन्त में प्रणाम करके 'दानवों के कमरे' में जाकर बैठे।
मठ के गुरुभाई अपने आपको भूत तथा दानव कहते थे, क्योंकि भूत दानव शिवजी के अनुयायी हैं। और जिस कमरे में सब एक साथ बैठते थे, उसे 'दानवों का कमरा' कहते थे। जो लोग एकान्त में ध्यान-धारणा और पाठ आदि करते थे, वे लोग दक्षिण ओर के कमरे में रहते थे। काली द्वार बन्द करके अधिकतर उसी कमरे में रहते थे, इसलिए मठ के गुरुभाई उस कमरे को काली तपस्वी का कमरा कहते थे। काली तपस्वी के कमरे के उत्तर तरफ पूजा-घर था। उसके उत्तर ओर जो कमरा था, उसमें नैवेद्य रखा जाता था। उसी कमरे में खड़े होकर लोग आरती देखते और वही से भगवान श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करते थे। नैवेद्यवाले कमरे के उत्तर में 'दानवों का कमरा” था। यह कमरा खूब लम्बा था। बाहर के भक्तों के आने पर इसी कमरे में उनका स्वागत किया जाता था। 'दानवों के कमरे” के उत्तर तरफ एक और छोटासा कमरा था। यह 'पान-घर' के नाम से पुकारा जाता था। यहाँ भक्तगण भोजन करते थे।
'दानवों के कमरे' के पूर्व कोने में दालान थी। उत्सव होने पर भोजन आदि की व्यवस्था इसी कमरे में की जाती थी। दालान के ठीक उत्तर तरफ रसोईघर था।
पूजा-घर और काली तपस्वी के कमरे के पूर्व ओर बरामदा था। बरामदे के दक्षिण-पश्चिम कोने में वराहनगर की एक समिति का पुस्तकालय था। ये सब कमरे दुमंजले पर थे। जीने दो थे। एक तो पुस्तकालय और काली तपस्वी के कमरे के बीच से, और दूसरा, भक्तों के भोजन करनेवाले कमरे के उत्तर तरफ। नरेन्द्र आदि भक्तगण इसी जीने से शाम को कभी कभी छत पर जाते थे। वहाँ बैठकर वे लोग ईश्वर-सम्बन्धी अनेक विषयों की चर्चा किया करते थे। कभी भगवान श्रीरामकृष्ण की बातें, कभी शंकराचार्य की, कभी रामानुज की और कभी ईसा मसीह की बातें होती थी। कभी हिन्दू-दर्शन की बाते होती थीं तो कभी यूरोपीय दर्शन का प्रसंग चलता था, कभी वेदों, कभी पुराणों और कभी तन्त्रों की कथाएँ हुआ करती थीं।
'दानवों के कमरे' में बैठकर नरेन्द्र अपने दैवी कण्ठ से परमात्मा के नामों और उनके गुणों का कीर्तन किया करते थे। शरद अपने दूसरे भाइयों को गाना सिखलाते थे। काली वाद्य सीखते थे। इस कमरे में नरेन्द्र कितनी ही बार कीर्तन करते हुए आनन्द करते और आनन्दपूर्वक नृत्य किया करते थे।
नरेन्द्र तथा धर्मप्रचार। ध्यानयोग और कर्मयोग
नरेन्द्र 'दानवों के कमरे' में बैठे हुए हैं। चुन्नीलाल, मास्टर तथा मठ के और भाई भी बैठे हुए हैं। धर्म-प्रचार की बातें होने लगीं।
मास्टर - (नरेन्द्र से) - विद्यासागर कहते हैं, “मैं तो बेंतों की मार खाने के डर से ईश्वर की बात किसी दूसरे से नहीं कहता।'
नरेन्द्र - बेंतों की मार खाने का क्या मतलब?
मास्टर - विद्यासागर कहते हैं, 'सोचो मरने के बाद हम सब ईश्वर के पास गये। सोचो कि केशव सेन को यमदूत ईश्वर के पास ले गये। केशव ने संसार में पाप भी किया हैं। जब यह सप्रमाण सिद्ध हुआ, तब बहुत सम्भव है, ईश्वर कहें कि इसे पच्चीस बेंत लगाओ। इसके बाद, सोचो, मुझे ले गये। मैं भी अगर केशव सेन के समाज में जाता हूँ, अन्याय करता हूँ, तो इसके लिए सम्भव है, आदेश हो कि इसको बेंत लगाओ। तब, अगर मैं कहूँ कि केशव सेन ने ही मुझे इस तरह समझाया था, तो सम्भव है कि ईश्वर दूत से कहें, “केशव सेन को फिर ले आओ।” केशव के आने पर सम्भव है, उससे वे पूछें - “क्या तूने इसे उपदेश दिया था? खुद तो तू ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ जानता नहीं और दूसरे को उपदेश दे रहा था? है कोई - इसको पच्चीस बेंत और लगाओ।” (सब हँसते हैं)
“इसीलिए विद्यासागर कहते हैं, 'मैं खुद तो सम्हल सकता ही नहीं, फिर दूसरों के लिए बेंत क्यों सहूँ? (सब हँसते है) मैं खुद तो ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ जानता नहीं, फिर दूसरे को क्या लेक्चर देकर समझाऊँ? ”
नरेन्द्र - जिसने इस विषय को (ईश्वर को) नहीं समझा, उसने और दस-पाँच विषयों को कैसे समझ लिया?
मास्टर - दस-पाँच विषय कैसे ?
नरेन्द्र - जिसने इस विषय को नहीं समझा, उसने दया और उपकार कैसे समझ लिया? - स्कूल कैसे समझ लिया? स्कूल खोलकर बच्चों को विद्या पढ़ानी चाहिए और संसार में प्रवेश करके, विवाह करके, लड़कों और लड़कियों का बाप बनना ही ठीक है, यही कैसे समझ लिया?
“जो एक बात को अच्छी तरह समझता है, वह सब बातों की समझ रखता है।”
मास्टर - (स्वगत) - सच है, श्रीरामकृष्ण भी तो कहते थे - “जिसने ईश्वर को समझा है, वह सब कुछ समझता है।” और संसार में रहना, स्कूल करना, इन सब बातों के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, “ये सब रजोगुण से होते हैं।' विद्यासागर में दया है, इस प्रसंग में उन्होंने कहा था, “यह रजोगुणी सत्त्व है, इसमें दोष नहीं।”
'भोजन आदि के पश्चात् मठ के सब गुरुभाई विश्राम कर रहे हैं। मास्टर और चुन्नीलाल नैवेद्यवाले कमरे के पूर्व ओर अन्दर से महल की जो सीढ़ी है, उसके पटाव पर बैठे हुए वार्तालाप कर रहे हैं। चुन्नीलाल बतला रहे हैं किस तरह उन्होंने दक्षिणेश्वर में पहले-पहले श्रीरामकृष्ण के दर्शन किये। संसार में जी नही लग रहा था, इसलिए एक बार वे पहले संसार छोड़कर चले गये थे और तीर्थों में भ्रमण किया करते थे। वही सब बातें हो रही हैं। कुछ देर में नरेन्द्र भी पास आकर बैठे। फिर योगवासिष्ठ की बातें होने लगीं।
नरेन्द्र - (मास्टर से) - और विदूरथ का चाण्डाल होना?
मास्टर - क्या तुम लवण की बात कह रहे हो!
नरेन्द्र - अच्छा, क्या आपने योगवासिष्ठ पढ़ा है!
मास्टर - हाँ, कुछ पढ़ा है।
नरेन्द्र - क्या यहीं की पुस्तक पढ़ी है ?
मास्टर - नहीं, मैंने घर में कुछ पढ़ा था।
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मठ की इमारत से मिली हुई पीछे कुछ जमीन है। वहाँ बहुतसे पेड़-पौधे हैं। मास्टर पेड़ के नीचे अकेले बैठे हुए हैं, इसी समय प्रसन्न आ पहुँचे। दिन के तीन बजे का समय होगा।
मास्टर - इधर कुछ दिनों से कहाँ थे तुम! तुम्हारे लिए सब के सब बड़े सोच में पड़े हुए हैं। उनसे मुलाकात हुई ? तुम कब आये ?
प्रसन्न - मैं अभी आया, आकर मिल चुका हूँ।
मास्टर - तुमने चिट्ठी लिखी थी कि मैं वृन्दावन चला। हम लोग बड़ी चिन्ता में पड़े
थे। तुम कितनी दूर गये थे?
प्रसन्न - कोन्नगर तक गया था। (दोनों हँसते है)
मास्टर - बैठो, जरा कुछ कहो, सुनूँ। पहले तुम कहाँ गये थे ?
प्रसन्न - दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर - एक रात वहीं रहा।
मास्टर - (सहास्य) - हाजरा महाशय अब किस भाव में हैं ?
प्रसन्न - हाजरा ने कहा, 'मुझे भला क्या समझते हो ?' (दोनों हँसते है)
मास्टर - (सहास्य) - तुमने क्या कहा ?
प्रसन्न - मैं चुप हो रहा।
मास्टर - फिर ?
प्रसन्न - फिर उसने कहा, 'मेरे लिए तम्बाकू ले आये हो ?' (दोनों हँसते हैं) मेहनत पूरी करा लेना चाहता है। (हास्य)
मास्टर - फिर तुम कहाँ गये?
प्रसन्न - फिर कोन्नगर गया। रात को एक जगह पड़ा रहा। और भी आगे चले जाने के लिए सोचा। पश्चिम जाने के लिए किराये के लिए भलेमानसो से पूछा कि यहाँ किराया मिल सकता है या नहीं ।
मास्टर - उन लोगो ने क्या कहा?
प्रसन्न - कहा, 'धेली-रुपया कोई चाहे दे दे, पर इतना किराया अकेला कौनदेगा?' (दोनों हँसे)
मास्टर - तुम्हारे साथ क्या था?
प्रसन्न - दो-एक कपड़े और श्रीरामकृष्णदेव की तस्वीर। तस्वीर मैने किसी को नही दिखलायी।
पिता-पुत्र संवाद। पहले माँ-बाप या पहले ईश्वर?
श्रीयुत शशी के पिता आये हुए हैं। उनके पिता अपने लड़के को मठ से ले जाना चाहते हैं। श्रीरामकृष्ण की बीमारी के समय प्राय: नौ महीने तक लगातार शशी ने उनकी सेवा की थी। उन्होने कालेज मे बी. ए. तक अध्ययन किया था। प्रवेशिका में इन्हे छात्रवृत्ति मिली थी। इनके पिता गरीब होने पर भी निष्ठावान् ब्राह्मण हैं और साधना भी करते हैं। शशी अपने माता-पिता के सब से बड़े लड़के हैं। उनके माता-पिता को बड़ी आशा थी कि ये लिख-पढकर रोजगार करके उनका दुःख दूर करेंगे, परन्तु इन्होने ईश्वर-प्राप्ति के लिए सब को छोड़ दिया था। अपने मित्रो से ये रो-रोकर कहा करते थे, 'क्या करूँ, मेरी समझ मे कुछ नही आता! हाय! माता-पिता की में कुछ भी सेवा न कर सका। उन्होंने न जाने कितनी आशाएँ की थी! मेरी माता को अलंकार-आभूषण पहनने को नही मिले। मेरी कितनी साध थी कि उन्हे गहने पहनाऊँगा। कही कुछ भी न हुआ। घर लौट जाना मुझे भार-सा जान पड़ता है। उधर श्रीगुरुमहाराज ने कामिनी-कांचन का त्याग करने के लिए कहा है। अब तो जाने की जगह रही ही नहीं!'
श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के पश्चात् शशी के पिता ने सोचा, बहुत सम्भव है, अब वह घर लौटे, परन्तु कुछ दिन घर रहने के पश्चात् जब मठ स्थापित हुआ तब मठ में आते-जाते ही शशी सदा के लिए मठ में रह गये। जब से यह परिस्थिति हुई तब से उनके पिता उन्हें ले जाने के लिए प्रायः आया करते हैं। परन्तु शशी घर जाने का नाम भी नहीं लेते। आज जब उन्होंने यह सुना कि पिताजी आये हुए हैं, वे एक दूसरे रास्ते में नौ दो ग्यारह हो गये ताकि उनसे भेंट न हो।
उनके पिता मास्टर को पहचानते थे। वे मास्टर के साथ ऊपरवाले बरामदे मे टहलते हुए उनसे बातचीत करने लगे।
पिता - यहाँ कर्ता कौन है ? यही नरेन्द्र सारे अनर्थों का कारण जान पडता है। सब लड़के राजी-ख़ुशी घर लौट गए थे। फिर से स्कूल-कालेज जाने लगे थे।
मास्टर - यहाँ कर्ता (मालिक) कोई नहीं है। सब बराबर हैं। नरेन्द्र क्या करे ? बिना अपनी इच्छा के क्या कोई आ सकता है? क्या हम लोग सदा के लिए घर छोड़कर आ सके हैं?
पिता - अजी, तुम लोगों ने तो अच्छा किया, क्योंकि दोनों तरफ की रक्षा कर रहे हो, तुम लोग जो कुछ कर रहे हो, इसमें धर्म नहीं है क्या ? हम लोगों की भी तो यही इच्छा है कि शशी यहाँ भी रहे और वहाँ भी रहे। देखो तो जरा, उसकी माँ कितना रो रही है!
मास्टर दु:खित होकर चुप हो गये।
पिता - और साधुओं की तलाश में इतना क्यों मारा-मारा फिरता है ? वह कहे तो मैं उसे एक अच्छे महात्मा के पास ले जाऊंँ। इन्द्रनारायण के पास एक महात्मा आये हुए हैं, बहुत सुन्दर स्वभाव है। चलें, देखें न ऐसे महात्मा को!
राखाल और मास्टर काली तपस्वी के घर के पूर्व ओर के बरामदे में टहल रहे हैं। श्रीरामकृष्ण और उनके भक्तों के सम्बन्ध में वार्तालाप हो रहा है।
राखाल - (व्यस्त भाव से) - मास्टर महाशय, आइये, सब एक साथ साधना करें।
“देखिये न, अब घर भी सदा के लिए छोड़ दिया है। अगर कोई कहता है, “ईश्वर तो मिले ही नहीं, फिर क्यों अब यह सब हो रहा है ?' - तो इसका उत्तर नरेन्द्र बड़ा सुन्दर देता है। कहता है, 'राम नहीं मिले तो क्या इसलिए हमें श्याम (अमुक किसी भी) के साथ रहकर लड़के-बच्चों का बाप बनना ही होगा?” अहा! एक एक बात नरेन्द्र बड़े मार्के की कह देता है। जरा आप भी पूछियेगा।”
मास्टर - ठीक तो है। राखाल भाई, देखता हूँ, तुम्हारा मन भी खूब व्याकुल हो रहा है।
राखाल - मास्टर महाशय, क्या कहूँ, दोपहर को नर्मदा जाने के लिए जी में कैसी विकलता थी। मास्टर महाशय, साधना कीजिये, नहीं तो कहीं कुछ न होगा। देखिये न,शुकदेव भी डरते थे। जन्मग्रहण करते ही भगे। व्यासदेव ने खड़े होने के लिए कहा, परन्तु वे खड़े भी नहीं होते थे।
मास्टर - योगोपनिषद् की कथा है। माया के राज्य से शुकदेव भाग रहे थे। हाँ, व्यास और शुकदेव की कथा बड़ी ही रोचक है। व्यास संसार में रहकर धर्म करने के लिए कह रहे थे। शुकदेव ने कहा, 'ईश्वर के पादपद्मों में ही सार है।” और संसारियों के विवाह तथा स्त्री के साथ रहने पर उन्होंने घृणा प्रकट की।
राखाल - बहुतेरे सोचते हैं, स्त्री को न देखा तो बस फतह है। स्त्री को देखकर सिर झुका लेने से क्या होगा? कल रात को नरेन्द्र ने खूब कहा, जब तक अपने भीतर काम है, तभी तक स्त्री की सत्ता है; अन्यथा स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं रह जाता।'
मास्टर - ठीक है। बालक और बालिकाओं में यह भेद-बुद्धि नही रहती।
राखाल - इसलिए तो कहता हूँ, हम लोगों को चाहिए कि साधना करें। माया के पार गये बिना ज्ञान कैसे होगा? चलिये, बड़े कमरे में चलें। वराहनगर से कुछ शिक्षित मनुष्य आये हुए हैं। नरेन्द्र से उनकी क्या बातचीत हो रही है, चलिये सुनें।
⚜️🔱नरेन्द्र तथा शरणागति⚜️🔱
नरेन्द्र वार्तालाप कर रहे हैं। मास्टर भीतर नहीं गये। बड़े घर के पूर्व ओरवाले दालान में टहलते रहे, कुछ अंश सुनायी पड़ रहा था।
नरेन्द्र कह रहे हैं, 'सन्ध्यादि कर्मों के लिए न तो अब स्थान ही है, न समय ही।'
एक सज्जन - क्यों महाशय, साधना करने से क्या वे मिलेंगे?
नरेन्द्र - उनकी कृपा। गीता में कहा है -
“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्-प्रसादात परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।
“उनकी कृपा के बिना हुए साधन-भजन कहीं कुछ नहीं होता। इसलिए उनकी शरण में जाना चाहिए।
सज्जन - हम लोग यदा-कदा यहाँ आकर आपको कष्ट देंगे।
नरेन्द्र - जरूर, जब जी चाहे, आया कीजिये।
“आप लोगों के वहाँ, गंगा-घाट मे हम लोग नहाने के लिए जाया करते हैं।''
सज्जन - इसके लिए हमारी ओर से कोई रोक-टोक नहीं। हाँ, कोई और न जाया करे।
नरेन्द्र - नहीं, अगर आप कहें तो हम भी न जाया करें।
सज्जन - नही, नहीं, ऐसी बात नहीं; परन्तु हाँ, अगर आप देखें कि कुछ और लोग भी जा रहे हैं तो आप न जाइयेगा।
सन्ध्या के बाद फिर आरती हुई। भक्तगण फिर हाथ जोड़कर एकस्वर से 'जय शिव ओंकार' गाते हुए श्रीरामकृष्ण की स्तुति करने लगे। आरती हो जाने पर भक्तगण दानवों के कमरे में जाकर बैठे। मास्टर बैठे हुए हैं। प्रसन्न गुरुगीता का पाठ करके सुनाने लगे। नरेन्द्र स्वयं आकर सस्वर पाठ करने लगे। नरेन्द्र गा रहे हैं -
“ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं ।
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ॥
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम्,
भावतीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।
[ अर्थःब्रह्मानन्दं – जो ब्रह्मानन्द स्वरूप हैं, परमसुखदं – परम सुख देने वाले हैं, केवलं ज्ञानमूर्तिं – जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, द्वन्द्वातीतं – (सुख-दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वंद्वों से रहित हैं, गगनसदृशं – आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् – तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एकं – एक हैं, नित्यं – नित्य हैं, विमलमचलं – मलरहित हैं, अचल हैं, सर्वधीसाक्षिभूतं – सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, भावातीतं – भावों या मानसिक स्थितियों के अतीत माने परे हैं, त्रिगुणरहितं – सत्त्व, रज, और तम तीनों गुणों के रहित हैं, सद्गुरूं तं नमामि – ऐसे श्री सद्गुरूदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ।
जो ब्रह्मानंदस्वरूप हैं, परम सुख देनेवाले हैं जो केवल ज्ञानस्वरूप हैं, (सुख, दुःख, शीत-उष्ण आदि) द्वन्द्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्यार्थ हैं, एक हैं, नित्य हैं, मलरहित हैं, अचल हैं, सर्व बुद्धियों के साक्षी हैं, भावना- मानसिक स्थितियों से परे हैं, सत्व, रज और तम तीनों गुणों से रहित हैं ऐसे श्री सदगुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ | (52)]
फिर गाते हैं -
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम् ।
शिवशासनत: शिवशासनत: शिवशासनत: शिवशासनत: ।। (गुरुगीता-122)
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं स्मरामि,
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं भजामि ।
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं वदामि,
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं नमामि ॥ (श्री गुरुगीता द्वितीयोध्यायः 110 ॥)
नरेन्द्र सस्वर गीता का पाठ कर रहे हैं और भक्तों का मन उसे सुनते हुए निर्वात निष्कम्प दीप-शीखा की भाँति स्थिर हो गया। श्रीरामकृष्ण सत्य कहते थे कि 'बंसी की मधुर ध्वनि सुनकर सर्प जिस तरह फन खोलकर स्थिर भाव से खड़ा रहता है, उसी प्रकार नरेन्द्र का गाना सुनकर हृदय के भीतर जो हैं, वे भी चुपचाप सुनते रहते हैं! अहा! मठ के भाइयों की गुरु के प्रति कैसी तीव्र भक्ति है!
⚜️🔱श्रीरामकृष्ण का प्रेम तथा राखाल⚜️🔱
राखाल काली तपस्वी के कमरे में बैठे हुए है। पास ही प्रसन्न है। उसी कमरे मे मास्टर भी है।
राखाल अपनी स्त्री और लड़के को छोड़कर आये हैं। उनके हृदय मे वैराग्य की गति तीव्र हो रही है। उन्हें एक यही इच्छा हे कि अकेले नर्मदा के तट पर या कहीं अन्यत्र चले जायें। फिर भी वे प्रसन्न को बाहर भागने से समझा रहे हैं।
राखाल - (प्रसन्न से) - कहाँ तू बाहर भागता फिरता है ? यहाँ साधुओ का संग - क्या इसे छोड़कर कहीं जाना होता है? - तिसपर नरेन्द्र जैसे व्यक्ति का साथ छोड़कर ? यह सब छोड़कर तू कहाँ जायगा!
प्रसन्न - कलकत्ते मे माँ-बाप हैं। मुझे भय होता है कि कहीं उनका स्नेह मुझे खींच न ले। इसीलिए कही दूर भाग जाना चाहता हूँ।
राखाल - श्रीगुरु महाराज जितना प्यार करते थे, क्या माँ-बाप उतना प्यार कर सकते हैं ? हम लोगों ने उनके लिए क्या किया है, जो वे हमें उतना चाहते थे? क्यों वे हमारे शरीर, मन और आत्मा के कल्याण के लिए इतने तत्पर रहा करते थे? हम लोगों ने उनके लिए क्या किया है?
मास्टर - (स्वगत) - अहा! राखाल ठीक ही तो कह रहे हैं, इसीलिए उन्हें (श्रीरामकृष्ण को) अहेतुक कृपासिन्धु कहते हैं।
प्रसन्न - क्या बाहर चले जाने के लिए तुम्हारी इच्छा नहीं होती ?
राखाल - जी तो चाहता है कि नर्मदा के तट पर जाकर रहूँ। कभी कभी सोचता हूँ कि वहीं किसी बगीचे में जाकर रहूँ और कुछ साधना करूँ। कभी यह तरंग उठती है कि तीन दिन के लिए पंचतप करूँ; परन्तु संसारी मनुष्यों के बगीचे में जाने से हृदय इनकार भी करता है।
क्या ईश्वर हैं?
'दानवों के कमरे' में तारक और प्रसन्न दोनो वार्तालाप कर रहे हैं। तारक की माँ नहीं है। उनके पिता ने राखाल के पिता की तरह दूसरा विवाह कर लिया है। तारक ने भी विवाह किया था, परन्तु पत्नी-वियोग हो गया है। मठ ही तारक का घर हो रहा है। प्रसन्न को वे भी समझा रहे है।
प्रसन्न - न तो ज्ञान ही हुआ और न प्रेम ही, बताओ क्या लेकर रहा जाय?
तारक - ज्ञान होना अवश्य कठिन है परन्तु यह कैसे कहते हो कि प्रेम नहीं हुआ?
प्रसन्न - रोना तो आया ही नहीं, फिर कैसे कहूँ कि प्रेम हुआ? और इतने दिनों में हुआ भी क्या?
तारक - क्यों? तुमने श्रीरामकृष्णदेव को देखा है या नहीं ? फिर यह क्यों कहे कि तुम्हें ज्ञान नहीं हुआ?
प्रसन्न - क्या खाक होगा ज्ञान? ज्ञान का अर्थ है जानना। क्या जाना? ईश्वर है या नही इसी का पता नही चलता -
तारक - हाँ, ठीक है, ज्ञानियों के मत से ईश्वर है ही नहीं।
मास्टर - (स्वगत) - अहा। प्रसन्न की कैसी अवस्था है! श्रीरामकृष्ण कहते थे, 'जो लोग ईश्वर को चाहते हैं, उनकी ऐसी अवस्था हुआ करती है। कभी कभी ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह होता है।' जान पड़ता है, तारक इस समय बौद्ध मत का विवेचन कर रहे हैं, इसीलिए शायद उन्होंने कहा - 'ज्ञानियों के मत से ईश्वर है ही नहीं।' परन्तु श्रीरामकृष्ण कहते थे - 'ज्ञानी और भक्त, दोनो एक ही जगह पहुँचेंगे।'
⚜️🔱गुरुभाइयों के साथ नरेन्द्र⚜️🔱
ध्यानवाले कमरे में अर्थात् काली तपस्वीवाले कमरे में नरेन्द्र और प्रसन्न आपस में बातचीत कर रहे हैं। कमरे मे एक टूसरी तरफ राखाल, हरीश और छोटे गोपाल हैं। बाद में बूढ़े गोपाल भी आ गये।
नरेन्द्र गीतापाठ करके प्रसन्न को सुना रहे है :-
" ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।
[ईश्वरः सर्व-भूतानाम् हृत्-देशे अर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्व-भूतानि यन्त्र-आरूढानि मायया।। ]
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।
[तम् एव शरणम् गच्छ, सर्व-भावेन भारत। तत्-प्रसादात् पराम् शान्तिम् स्थानम् प्राप्सयसि शाश्वतम्।]
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
[सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज। अहम् त्वाम् सर्व पापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः। (डरो मत।)
नरेन्द्र - देखा ? - 'यन्त्रारूढ़'! 'भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया।” इस पर भी ईश्वर को जानने की चेष्टा! तू कीट से भी गया-बीता है, तू उन्हें जान सकता है ? जरा सोच तो सही आदमी क्या है। ये जो अगणित नक्षत्र देख रहा है, इनके सम्बन्ध में सुना है, ये एक एक Solar System (सौरजगत्) हैं। हम लोगों के लिए जो यह एक ही Solar System है, इसी में आफत है। जिस पृथ्वी की सूर्य के साथ तुलना करने पर वह एक भंटे की तरह जान पड़ती है, उस उतनी ही पृथ्वी में मनुष्य चल-फिर रहा है।
नरेन्द्र गा रहे हैं।
गाने का भाव :-
“तुम पिता हो, हम तुम्हारे नन्हें-से बच्चे हैं। पृथ्वी की धूलि से हमारा जन्म हुआ है और पृथ्वी की धूलि से हमारी आँखे भी ढँकी हुई हैं। हम शिशु होकर पैदा हुए हैं और धूलि में ही हमारी क्रीड़ाएँ हो रही हैं, दुर्बलों को अपनी शरण में ग्रहण करनेवाले, हमें अभय प्रदान करो। एक बार हमें भ्रम हो गया है, क्या इसीलिए तुम हमें गोद में न लोगे ?- क्या इसीलिए एकाएक तुम हमसे दूर चले जाओगे ? अगर ऐसा करोगे तो, हे प्रभु हम फिर कभी उठ न सकेंगे, चिरकाल तक भूमि में ही अचेत होकर पड़े रहेंगे। हम बिलकुल शिशु है, हमारा मन बहुत ही क्षुद्र है। हे पिता, पग-पग पर हमारे पैर फिसल जाते हैं। इसलिए तुम हमें अपना रुद्रमुख क्यों दिखलाते हो? - क्यों हम कभी कभी तुम्हारी भौंहों को कुटिल देखते हैं? हम क्षुद्र जीवों पर क्रोध न करो। हे पिता, स्नेह-शब्दों में हमे समझाओ - हमसे कौनसा दोष हो गया है ? यदि हमसे सैकड़ों बार भी भूल हो जाय, तो सैकड़ों ही बार हमें गोद में उठा लो। जो दुर्बल हैं, वे भला कर क्या सकते हैं?”
“तू पड़ा रह। उनकी शरण में पड़ा रह।"
नरेन्द्र भावावेश में आये हुए-से फिर गा रहे हैं - (भावार्थ) -
“हे प्रभु, मैं तुम्हारा गुलाम हूँ। मेरे स्वामी तुम्हीं हो। तुम्हीं से मुझे दो रोटियाँ और एक लंगोटी मिल रही है।”
“उनकी (श्रीरामकृष्णदेव की) बात क्या याद नहीं है ? ईश्वर शक्कर के पहाड़ हैं, और तू चींटी, बस एक ही दाने से तो तेरा पेट भरता है, और तू सोच रहा है कि मैं यह पहाड़ का पहाड़ उठा ले जाऊँगा। उन्होंने कहा है, याद नहीं? - 'शुक-देव अधिक से अधिक एक बड़ी चींटी समझे जा संकते हैं।' इसीलिए तो मैं काली से कहा करता था,'क्यों रे, तू गज और फीता लेकर ईश्वर को नापना चाहता है?”
“ईश्वर दया के सागर हैं। उनकी शरण में तू पड़ा रह। वे कृपा अवश्य करेंगे। उनसे प्रार्थना कर - 'यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम्।' -
[अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते । रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ॥(श्वेताश्वतरोपनिषद्: 4 -21) हे रुद्र संहारक अजन्मा , आप मृत्यु विहीन हैं, हम जन्म - मृत्यु के भय ग्रसित, मानव हैं बुद्धि विहीन हैं, हम जन्म - मृत्यु भय विहीन हों , अथ शरण हैं आपकी, मम सर्वदा रक्षा करो, हटे भावना संताप की॥]
ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।
आविराविर्म एधि॥
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखम्।
तेन मां पाहि नित्यम्॥”
प्रसन्न - कौनसी साधना की जाय?
नरेन्द्र - सिर्फ उनका नाम लो। श्रीरामकृष्ण का गाना याद है या नहीं ?
नरेन्द्र श्रीरामकृष्णदेव का वह गाना गा रहे है, जिसका भाव है -
“ऐ श्यामा, मुझे तुम्हारे नाम का ही भरोसा है। पूजनसामग्री, लोकाचार और दाँत निकालकर हँसने से मुझे क्या काम? तुम्हारे नाम के प्रताप से काल के कुल पाश छिन्नभिन्न हो जाते हैं, शिव ने इसका प्रचार भी खूब कर दिया है, मैंने तो अब इसे ही अपना आधार समझ लिया है। नाम लेता जा रहा हूँ; जो कुछ होने का है, होता रहेगा। क्यों मैं अकारण सोचकर जीवन नष्ट करूँ? ऐ शिवे, मैंने शिव के वाक्य को सर्वसार समझ लिया हैं।''
प्रसन्न - तुम अभी तो कह रहे हो, ईश्वर हैं। फिर तुम्हीं बदलकर कहते हो, 'चार्वाक और अन्य दूसरे दर्शनाचार्य कह गये है, यह संसार आप ही आप हुआ है।'
नरेन्द्र - तुने Chemistry (रसायन-शास्त्र) नहीं पढ़ा? अरे यह तो बता, Combination (संयोजन-मिश्रण) कौन करता है ? पानी तैयार करने के लिए आक्सीजन, हाइड्रोजन और इलेक्ट्रिसिटी, # इन सब चीजों को मनुष्य का हाथ इकट्ठा करता है।
“ Intelligent Force (ज्ञानपूर्वक शक्तिचालना) तो सब लोग मानते हैं। ज्ञानस्वरूप एक ही है, जो इन सब पदार्थों को चला रहा है।''
प्रसन्न - दया उनमें है, यह हम कैसे जानें ?
नरेन्द्र - “यत्ते दक्षिणं मुखं' वेदों में कहा है।
“जॉन स्टुअर्ट मिल भी यही कहते हैं। जिन्होंने मनुष्य के भीतर दया दी, उनमें न जाने कितनी दया है! वे (श्रीरामकृष्ण) भी तो कहते थे - 'विश्वास ही सार है।' वे तो पास ही हैं। विश्वास करने से ही सिद्धि होती हैं।”
इतना कहकर नरेन्द्र मधुर कण्ठ से गाने लगे -
“मोको कहाँ ढूँढ़ो बन्दे मैं तो तेरे पास में।
(मोको कहां ढूँढ़े रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।)
ना रहता मैं झगड़ि बिगड़ि में, ना छुरी गढ़ास में।
ना रहता मैं खाल रोम में, ना हड्डी ना माँस में॥
ना देवल में ना मसजिद में, ना काशी-कैलास में।
ना रहता मैं अवध-द्वारका, मेरी भेंट विश्वास में।।
ना रहता मैं क्रिया करम में, ना योग संन्यास में।
खोजोगे तो आन मिलूँगा, पल भर की तलाश में।।
शहर से बाहर डेरा मेरा, कुटिया मेरी मवास में।
कहत कबीर सुनो भई साधो, सब सन्तन के साथ में।।”
⚜️🔱वासना के रहते ईश्वर में अविश्वास होता है⚜️🔱
प्रसन्न - कभी तो तुम कहते हो, भगवान हैं ही नहीं और अब ये सब बातें सुना रहे हो। तुम्हारी बातों का कुछ ठीक ही नहीं। तुम प्राय: मत बदलते रहते हो। (सब हँसते हैं)
नरेन्द्र - यह बात अब कभी न बदलूँगा - जब तक वासनाएँ रहती हैं तब तक ईश्वर पर अविश्वास रहता है। कोई न कोई कामना रहती ही है। कुछ नहीं तो भीतर ही भीतर पढ़ने की इच्छा रह गयी। पास करूँगा, पण्डित होऊँगा, इस तरह की वासना।
नरेन्द्र भक्ति से गदगद होकर गाने लगे।
“वे शरणागतवत्सल हैं, पिता और माता हैं। ...'
जय देव, जय देव, जय मंगलदाता, जय जय मंगलदाता।
संकटभयदु:खत्राता, विश्वभुवनपाता, जय देव, जय देव॥
नरेन्द्र फिर गा रहे हैं। भाइयों से हरिरस का प्याला पीने के लिए कह रहे हैं। कहते हैं, ईश्वर पास ही हैं, जैसे मृग के पास कस्तुरी।
पीले अवधूत, हो मतवाला, प्याला प्रेम हरिरस का रे।
बाल अवस्था खेलि गँवायो, तरुण भयो नारी बस का रे।
वृद्ध भयो कफ वायु ने घेरा, खाट पड़ो रह्यो शाम-सकारे।
नाभि-कमल में है कस्तूरी, कैसे भरम मिटे पशु का रे।
बिन सद्गुरु नर ऐसहि ढूँढ़े, जैसे मिरिंग फिरै बन का रे॥”
मास्टर बरामदे से ये सब बातें और संगीत सुन रहे हैं। नरेन्द्र उठे। कमरे में आते समय कह रहे हैं - ' इन युवकों से बातचीत करते करते मेरा सिर गरम हो गया।' बरामदे में मास्टर को देखकर उन्होंने कहा, 'मास्टर महाशय,आइये पानी पियें।'
मठ के एक भाई नरेन्द्र से कह रहे हैं, 'इतने पर भी तुम क्यों कहते हो कि ईश्वर नहीं हैं? नरेन्द्र हँसने लगे।
नरेन्द्र का तीव्र वैराग्य। गृहस्थाश्रम
दूसरे दिन सोमवार है। ९ मई १८८७। सबेरे मास्टर मठ के बगीचे में एक पेड़ नीचे बेठे हुए हैं। मास्टर सोच रहे हैं - “श्रीरामकृष्ण ने मठ के भाइयों का काम-कांचन छुड़ा दिया। अहा! ईश्वर के लिए ये लोग व्याकुल हो रहै हैं! यह स्थान मानो साक्षात् वैकुण्ठ है! मठ के भाई मानो साक्षात् नारायण हैं! श्रीरामकृष्ण को गये अभी अधिक दिन नहीं हुए। इसलिए वे सब भाव अब भी ज्यों के त्यों बने है।
“अयोध्या तो वही है, परन्तु राम नही है।'
“इनसे तो उन्होने (श्रीरामकृष्ण ने) गृहत्याग करा लिया, फिर कुछ और जो हैं, उन्हें ही क्यों घर मे रखा है, उनके लिए क्या कोई उपाय नही है?”
नरेन्द्र ऊपर के कमरे से देख रहे हैं। मास्टर अकेले पेड़ के नीचे बैठे हैं। उतरकर हँसते हुए वे कह रहे हैं - 'क्यों मास्टर महाशय, क्या हो रहा है?” कुछ बाते हो जाने पर मास्टर ने कहा - 'अहा। तुम्हारा स्वर बड़ा मधुर है! कोई श्लोक कहो।'
नरेन्द्र स्वर से अपराध-भंजन स्तव कहने लगे। गृहस्थगण ईश्वर को भूले हुए हैं, - बाल्य, प्रौढ़ और वार्धक्य तक वे न जाने कितने अपराध करते हैं ! क्यों वे मनसा, वाचा और कर्मणा ईश्वर की सेवा नही करते ? -
बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति।
नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।
हे प्रभु ! बाल्यावस्था में मुझे अधिक दुःख सहना पड़ा। मेरा शरीर मल-मूत्र से लिथड़ा रहता था और निरन्तर स्तनपान की लालसा रहती थी। मेरी इन्द्रियों में कोई कार्य करने की सामर्थ्य नहीं थी। शैवी माया से उत्पन्न हुए नाना जन्तु मुझे काटते थे; नाना रोगादि दुःखों के कारण मैं रोता ही रहता था। उस समय मैं आपका स्मरण नहीं कर पाया । इसलिये, - हे भगवान शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! आप मेरा अपराध क्षमा कीजिये ! क्षमा कीजिये।
प्रौढो5हं यौवनस्थो विषयविषधरैर्पचभिर्मर्मसन्धौ,
दष्टो नष्टो विवेक: सुतधनयु उतिस्वादुसौंख्ये निषण्ण:।
शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढम्,
क्षन्तव्यो मेडपपराध: शिव शिव शिव भो!
श्रीमहादेव शम्भो॥ वार्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदवादितापै :,
पापै: रोगैवियोर्गस्त्वनवसितवपु: प्रौढिहीनं च दीनम्।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेध्यनिशुन्यम्,
क्षन्तव्यो मेपपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥
स्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधी नाहतं गांगतोयं,
पूजार्थ वा कदाचित् बहुतरगहनात् खण्डबिल्वीदलानि।
नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धधुपौ त्वदर्थ,
क्षन्तव्यो मेडपराध: शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो॥
गात्रं भस्मसितं सित॑ च हसित॑ हस्ते कपाल॑ सित॑,
खट्वांगं च सितं सितश्च वृषभ: कर्ण सिते कुण्डले।
गंगाफेनसिता जटा पशुपतेश्चन्द्र: सितो मूर्धनि,
सो<यं सर्वसितो ददातु विभव॑ पापक्षयं सर्वदा॥ ..."
स्तवपाठ हो गया। फिर बातचीत होने लगी।
नरेन्द्र - निर्लिप्त संसार कहिये या चाहे जो कहिये, काम-कांचन का त्याग बिना किये न होगा। स्त्री के साथ सहवास करते हुए घृणा नहीं होती ? जहाँ कृमि, कफ, मेध, दुर्गन्ध
“अमेध्यपूर्णे कृमिजालसंकुले स्वभावदुर्गन्धिविनिन्दितान्तरे।
कलेवरे मूत्रपूरीषभाविते रमन्ति मूढ़ा विर्मन्ति पण्डिता:।॥।
“वेदान्त-वाक्यों में जो रमण नहीं करता, हरिरस का जो पान नहीं करता, उसका जीवन ही वृथा है।
“ओकारमूलं परम पदान्तरं गायत्रीसावित्रीसुभाषितान्तरम्|
वेदान्तरं यः पुरुषो न सेवते वृथान्तरं तस्थ नरस्य जीवनम्।|
“एक गाना सुनिये - (भावार्थ)
“मोह और कुमन्त्रणा को छोड़ो, उन्हें जानो, तब सम्पूर्ण कष्ट छूट जायेंगे। चार दिन के सुख के लिए अपने जीवन-सखा को भूल गये, यह कैसा?
“कौपीन धारण बिना किये दूसरा उपाय नही - संसारत्याग! ” - यह कहकर नरेन्द्र
सस्वर गाने लगे -
“वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्त:।
अशोकमन्त:करणे चरन्त: कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त:॥
नरेन्द्र फिर कह रहे हैं - “मनुष्य संसार में बँधा क्यों रहेगा ? क्यों वह माया में पड़े? मनुष्य का स्वरूप क्या है? ' चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्' मैं ही वह सच्चिदानन्द हूँ। "
फिर स्वरसहित नरेन्द्र शंकराचार्य-कृत स्तव पढ़ने लगे -
ॐ मनो बुद्धि अहंकार चित्तानी नाहं
नच श्रोत्र जिव्हे नच घ्राण नेत्रे
नच व्योम भूमि न तेजो न वायु
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||१||
नच प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: नवा पञ्चकोशः
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायुः
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||२||
नमे द्वेषरागौ नमे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||३||
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||४||
नमे मृत्युशंका नमे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||५||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानन्द रूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||६||
शिवोऽहम् शिवोऽहम् शिवोऽहम् शिवोऽहम्
एक दूसरा स्तव वासुदेवाष्टक/श्रीमधुसूदनस्तोत्रम् भी नरेन्द्र सस्वर पढ़ रहे हैं। हे मधुसूदन! मैं तुम्हारे शरणागत हूँ, मुझ पर कृपा करके काम, निद्रा, पाप, मोह, स्त्री-पुत्र का मोहजाल, विषयतृष्णा, इन सब से मेरा परित्राण करो और अपने पाद-पद्यों में भक्ति दो।”
वासुदेवाष्टक
“ॐ इति ज्ञानरूपेण रागाजीर्णेन जीर्यत:।
कामनिद्रां प्रपन्नो$स्मि त्राहि मां मधुसूदन।।
म गतिरविद्यते नाथ त्वमेक: शरण प्रभों।
पापपंके निमग्नोडस्मि त्राहि मां मधुसूदन।।
मोहितो मोहजालेन पुत्रदारगृहादिषु।
तृष्णया पीड्यमानोउहं त्राहि मां मधुसूदन॥।
भक्तिहीनं च दीन च दुःखशोकातुरं प्रभो।
अनाश्रयमनाथ॑ च त्राहि मां मधुसूदन।।
गतागतेन श्रान्तो5हं दीर्घसंसारवर्त्मसु।
येन भूयो न गच्छामि त्राहि मां मधुसूदन॥
बहुधा5पि मया दृष्टं योनिद्वारं पृथक् पृथक्।
गर्भवासे महददु:खं त्राहि मां मधुसूदन।।
तेन देव प्रपन्नोइस्मि नारायणपरायण:।
जगत्संसारमोक्षार्थ त्राहि मां मधुसूदन।।
वाचयामि यथोत्पन्नं प्रणमामि त्तवाग्रत:।
जरामरणभीतोऊस्मि त्राहि मां मधुसूदन॥।
सुकृत॑ न कृतं किचित् दुष्कृतं च कृतं मया।
संसारे पापपंकेउस्मिन् त्राहि मां मधुसूदन।।
देहान्तरसहस्नाणामन्योन्यं च कृतं मया।
कर्तृत्वं च मनुष्याणां त्राहि मां मधुसूदन।।
वाक्येन यत्ञतिज्ञातं कर्मणा नोपपादितम्|
सो5हं देव दुराचारस्त्राहि मां मधुसूदन।
यत्र यत्र हि जातो5स्मि स्त्रीषु वा पुरुषेषु वा।
तत्र तत्राचला भक्तिस्त्राहि मां मधुसूदन।।”
श्रीमधुसूदनस्तोत्रम्
श्रीगणेशाय नमः ॥
ओमिति ज्ञानमात्रेण रोगाजीर्णेन निर्जिता ।
कामनिद्रां प्रपन्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ १॥
न गतिर्विद्यते चान्या त्वमेव शरणं मम ।
पापपङ्के निमग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ २॥
मोहितो मोहजालेन पुत्रदारगृहादिषु ।
तृष्णया पीड्यमानोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ३॥
भक्तिहीनं च दीनं च दुःखशोकातुरं प्रभो ।
अनाश्रयमनाथं च त्राहि मां मधुसूदन ॥ ४॥
गतागतेन श्रान्तोऽस्मि दीर्घसंसारवर्त्मसु ।
येन भूयो न गच्छामि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ५॥
बहुधाअपि मया दृष्टं योनिद्वारं पृथक् पृथक् ।
गर्भवासे महद्दुःखं त्राहि मां मधुसूदन ॥ ६॥
तेन देव प्रपन्नोऽस्मि नारायणपरायणः ।
दुःखार्णवपरित्राणात् त्राहि मां मधुसूदन ॥ ७॥
वाचा यच्च प्रतिज्ञातं कर्मणा नोपपादितम् ।
तत्पापार्जितमग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ८॥
सुकृतं न कृतं किञ्चिद्दुष्कृतं च कृतं मया ।
संसारघोरे मग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ९॥
देहान्तरसहस्रेषु चान्योन्यभ्रामितो मया ।
तिर्यक्त्वं मानुषत्वं च त्राहि मां मधुसूदन ॥ १०॥
वाचयामि यथोन्मत्तः प्रलपामि तवाग्रतः ।
जरामरणभीतोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ११॥
यत्र यत्र च यातोऽस्मि स्त्रीषु वा पुरुषेषु च ।
तत्र तत्राचला भक्तिस्त्राहि मां मधुसूदन ॥ १२॥
गत्वा गत्वा निवर्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः ।
अद्यापि न निवर्तन्ते द्वादशाक्षरचिन्तकाः ॥ १३॥
ऊर्ध्वपातालमर्त्येषु व्याप्तं लोकं जगत्त्रयम् ।
द्वादशाक्षरात्परं नास्ति वासुदेवेन भाषितम् ॥ १४॥
द्वादशाक्षरं महामन्त्रं सर्वकामफलप्रदम् ।
गर्भवासनिवासेन शुकेन परिभाषितम् ॥ १५॥
द्वादशाक्षरं निराहारो यः यः पठेद्धरिवासरे ।
स गच्छेद्वैष्णवं स्थानं यत्र योगेश्वरो हरिः ॥ १६॥
इति श्रीशुकदेवविरचितं मधुसूदनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
मास्टर - (स्वगत) - नरेन्द्र को तीव्र वैराग्य है। इसलिए मठ के अन्य भाइयों की भी यही अवस्था है। इन लोगों को देखते ही श्रीरामकृष्ण के उन भक्तों में, जो संसार में अब भी हैं, कामिनी-कांचन त्याग की इच्छा प्रबल हो जाती है। अहा! इनकी यह कैसी अवस्था है! दूसरे कुछ भक्तों को उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) अब भी संसार में क्यों रखा है ? क्या वे कोई उपाय करेंगे ? क्या वे तीव्र वैराग्य देगे या संसार में ही भुलाकर रख छोड़ेंगे ? नरेन्द्र तथा और दो-एक अन्य भाई भोजन करके कलकत्ता गये। नरेन्द्र रात को फिर लौटेंगे। नरेन्द्र के घरसम्बन्धी मुकदमे का अब भी फैसला नहीं हुआ। मठ के भाइयों को नरेन्द्र की अनुपस्थिति सह्य नहीं होती। सब सोच रहे हैं कि नरेन्द्र कब लौटें।
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योग वशिष्ठ में 'लीला की कथा' एक प्रसिद्ध कहानी है जो 'उत्पत्ति प्रकरण' में आती है। यह कहानी राजा पद्म और रानी लीला के पुनर्जन्मों और समय यात्रा के बारे में है, जिसमें देवी सरस्वती भी शामिल हैं। संक्षेप में 'लीला की कथा':
" राजा पद्म और रानी लीला एक सुखी जीवन जीते हैं, लेकिन लीला को अपने पिछले जन्मों की यादें सताती हैं। लीला देवी सरस्वती की कृपा से अपने पिछले जन्मों को देखती है, जिसमें वह एक गरीब ब्राह्मण की पत्नी थी, जिसने अपने पति की मृत्यु के बाद सती होने का फैसला किया था। उस ब्राह्मण का पुनर्जन्म राजा पद्म के रूप में होता है और लीला उसकी पत्नी के रूप में जन्म लेती है। लीला और राजा पद्म, देवी सरस्वती की सहायता से, अपने पिछले जन्मों के कर्मों को समझकर, वर्तमान जीवन में मुक्ति प्राप्त करते हैं।
कथा का महत्व: यह कहानी कर्म, पुनर्जन्म, और समय की अवधारणा को दर्शाती है। यह मन की शक्ति और इच्छाओं के प्रभाव को भी उजागर करती है। लीला की कहानी हमें यह सिखाती है कि कैसे कर्म और इच्छाएं हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं और कैसे आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
कथा का सार: योग वशिष्ठ के अनुसार, यह कहानी मन की रचना है और यह दिखाती है कि कैसे विचार और कल्पनाएं वास्तविकताओं को जन्म दे सकती हैं। यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि हमें अपने कर्मों के प्रति सचेत रहना चाहिए और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए।
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योग बशिष्ठ में एक कथा है जिसमें श्री राम जी अपने गुरु वशिष्ठ से पूछते हैं-
"इस ब्रम्हांड का आधार क्या है? इसका शुरु कहां हैं ? और अंत कहां हैं?''
उत्तर में बशिष्ठ जी कहते हैं। " देखो बेटा राम इस प्रश्न का उत्तर में नहीं दे सकता। संसार का शुरू एबं अंत कहां हैं ये केवल परमेश्वर को पता है।
और किसीको नहीं। कोई ऐसा ज्ञानी नहीं कोई ऐसा गुरु नहीं जो तुमको इसका शुरु अंत की धारणा बता सकते।
उदाहरण स्वरूप उन्होंने एक कहानी बताए जो संक्षेप में प्रस्तुत हैं।
प्राचीन काल में पद्म नामक एक राजा था। उनकी लीला नाम की एक रानी थी, और उन्होंने हजारों मील तक फैले एक बड़े राज्य पर शासन किया। रानी को अपने पति से इतना लगाव था कि वह नहीं चाहती थी कि वह कभी मरे। अपने पति की मृत्यु को कैसे टाला जा सकता है, इस बारे में अपने मन में दु: ख के साथ, उसने राजा की सभा के दरबारियों, मंत्रियों और विद्वान पंडितों से परामर्श किया।
"क्या मेरे पति की मृत्यु को रोकने का कोई तरीका है?" रानी ने पूछा।
उन सबने कहा, “कोई नहीं है जो तुम्हारे पति की मृत्यु को रोक सके। इसका कोई उपाय नहीं है। हर कोई जो पैदा हुआ है उसे मरना ही है।"
रोते हुए, रोते हुए, रानी अपने कमरे के अंदर चली गई और वेदना में फूट पड़ी, और विद्या की देवी, सरस्वती से गहरी प्रार्थना कर रही थी। ज्ञान की देवी से आशीर्वाद पाने के लिए रानी की बड़ी तपस्या में कई दिन बीत गए।
देवी ने प्रकट होकर लीला से पूछा, "तुम क्या चाहती हो?"
“मैं नहीं चाहती कि मेरे पति की मृत्यु हो। कृपया मुझे आशीर्वाद दें, ”लीला रो पड़ी। "मुझे इस वरदान से आशीर्वाद दो।"
देवी ने प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। उसने बस इतना कहा, "जब वह मर जाए, तो उसके शरीर को एक कपड़े से ढँक दो, और मुझे याद करो।"
कई वर्षों के बाद राजा की मृत्यु महल के एक कमरे में हुई। रानी अपनी बुद्धि के अंत में थी। वह फिर रोई और रोई, और सरस्वती को पुकारा, "कृपया आओ और मुझे आशीर्वाद दो। मैंने सब कुछ खो दिया है।"
फिर से महान देवी सरस्वती प्रकट हुईं। "आप क्या पूछ रहे थे?"
"मैं अपने पति को देखना चाहती हूँ, वह जहाँ भी है," रानी ने उत्तर दिया।
"ओह, मैं देखती हूँ," सरस्वती ने कहा। "मैं तुम्हें उस स्थान पर ले जाऊंगी जहाँ तुम्हारा पति रहता है।"
सरस्वती ने रानी के सिर को छुआ, और उन्हें अंतरिक्ष और समय (space and time) के दूसरे क्रम में ले जाया गया जहां उनके पति ने पुनर्जन्म लिया था और दूसरे साम्राज्य पर शासन कर रहे थे।
रानी ने चारों ओर देखा। "मैं कहाँ हूँ?"
उसके बगल में मौजूद सरस्वती ने कहा, "यह आपके अपने पति का साम्राज्य है, जिसने एक और अंतरिक्ष-समय (space and time) में पुनर्जन्म लिया है।"
"मेरे पति कहां हैं? वह बहत्तर साल का एक बूढ़ा आदमी था, ”रानी ने कहा। "और यह पति बहत्तर साल का है, हालांकि कल ही उसकी मृत्यु हो गई।"
"प्रश्न मत पूछो। मैं जो कुछ भी कहता हूं, उसे सुनो, ”सरस्वती ने कहा।
"नहीं, यह संभव नहीं है," लीला रो पड़ी। "तुम क्या कह रहे हो? एक व्यक्ति जो कल मर गया उसका पुनर्जन्म हुआ है और अब वह बहत्तर वर्ष का है? क्या आप कह रहे हैं कि वह इस दुनिया में बहत्तर साल पहले पैदा हुआ था, कल ही मर गया? मैं इस पर विश्वास न कर सकूं। मेरे दिमाग को भ्रमित मत करो। हे देवी, मुझे आशीर्वाद दो। तुम क्या कह रहे हो?"
सरस्वती ने कहा, “मैं तुम्हें और भ्रमित कर दूंगी। कहीं और अंतरिक्ष-समय (space and time) में एक ब्राह्मण जोड़ा था जो बहुत गरीब था, एक छोटे से कमरे में रह रहा था। गरीबी ही उनकी संपत्ति थी, दुख ही उनकी नियति थी।
एक दिन उन्होंने एक विशाल जुलूस देखा जिसमें देश के राजा को पालकी पर ले जाया जा रहा था। 'ओह,' उन्होंने कहा, 'क्या महिमा है! काश हमें भी राजा-रानी होने का वह अनुभव होता।' इस गहरे विचार के साथ वे मर गए।”
अपनी कहानी जारी रखते हुए, देवी सरस्वती ने कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो। यह ब्राह्मण दंपत्ति, जिनकी आठ दिन पहले मृत्यु हो गई थी,(अपनी आकांक्षाओं के कारण) आपका और आपके पति के रूप में एक अन्य अंतरिक्ष-समय में पुनर्जन्म हुआ, जहां आपके राजा ने पचास वर्षों तक शासन किया, और उनकी मृत्यु हो गई।
"तुम क्या कह रहे हो?" रानी ने कहा। “जिन लोगों की मृत्यु आठ दिन पहले हुई थी, उनका उस राज्य में पुनर्जन्म हुआ है, जहां पति ने पचास वर्षों तक शासन किया था? हमारे जीवन के आठ दिनों और पचास वर्षों के बीच क्या संबंध है?”
“चुप रहो और आगे मेरी बात सुनो। यह बूढ़ा आदमी तुम्हारा अपना पति है, जो दूसरे अंतरिक्ष-समय में फिर से पैदा हुआ है। वह बहत्तर साल का है।"
लीला फिर चौंक गई। "यह कैसे संभव है?"
सरस्वती जारी रही। "ये शब्द मत कहो, 'यह कैसे संभव है?' कल बन सकता है कल; कल वर्तमान बन सकता है। ब्रह्मांड में हर जगह स्थायी रूप से मौजूद स्थान और समय (space and time ) के क्रम की कोई व्यवस्थित व्यवस्था नहीं है। भूत, वर्तमान और भविष्य का यह विचार उस तरीके से जुड़ा है जिसमें चेतना अंतरिक्ष-समय के संचालन को बाहर देखती है; और किसी भी व्यक्तिगत पर्यवेक्षक की परिचालन प्रक्रिया में अंतरिक्ष-समय द्वारा वातानुकूलित होने के कारण वस्तु की प्रकृति और देखने के बीच सापेक्षता की बातचीत होती है, ताकि आप यह नहीं जान सकें कि वास्तव में क्या हो रहा है। लेकिन अगर विकास की प्रक्रिया के दौरान पर्यवेक्षक और अंतरिक्ष और समय (space and time) की देखी गई घटनाओं का यह संबंध बदल जाता है, तो तुरंत आज कल बन जाता है, और एक व्यक्ति कल आ सकता है और कल छोड़ सकता है।
"अब मेरे पति कहाँ हैं?" लीला से पूछा।
सरस्वती ने उत्तर दिया, "यहाँ वह बहत्तर वर्षीय व्यक्ति है।"
जब वे बोल रहे थे, इस बहत्तर वर्षीय व्यक्ति के साम्राज्य पर शत्रु शक्तियों ने आक्रमण कर दिया। अचानक युद्ध छिड़ गया, और बूढ़ा राजा इस सैन्य बल के साथ दौड़ा और सैन्य अभियानों के बैराज में प्रवेश किया। योग वशिष्ठ में इस युद्ध का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। युद्ध में हुई हर छोटी बात का वर्णन किया गया है। कभी-कभी आक्रमणकारी जीतता हुआ दिखाई देता था; कभी-कभी राजा जीतता हुआ दिखाई देता था। अंत में, बूढ़े राजा की मृत्यु हो गई।
लीला रोई, "तुम मुझे बताओ कि यह मेरा पति है, और अब वह दूसरी बार मर गया है। ओह, मैं पागल हो रही हूँ। मैं और कुछ नहीं सुनना चाहती।"
सरस्वती ने कहा, "नहीं, तुम मेरी कृपा से पागल नहीं हो सकते। मैं आपको केवल ज्ञान दे रहा हूं। अब तुम क्या चाहते हो?"
"मैं अपने पति को देखना चाहती हूँ," रानी ने कहा।
जब लीला ने कहा कि वह अपने पति को देखना चाहती है, तो उसका मतलब यह नहीं था कि वह बूढ़े आदमी को देखना चाहती थी। वह उस रूप को देखना चाहती थी जो एक अलग जगह के कमरे में मरा हुआ था।
हुआ यूँ कि जिस बूढ़े राजा की अभी-अभी युद्ध में मृत्यु हुई थी, उसकी एक रानी भी थी, और संयोगवश उसका नाम भी लीला था। यह एक ऐसा रहस्य है जिसकी व्याख्या योग वशिष्ठ नहीं करते हैं।
तब देवी सरस्वती ने कहा, "यहाँ तुम्हारा पति है। उसके पास तुम्हारी तरह एक रानी है, और वह तुमसे मिलती-जुलती है। उसका नाम लीला है।"
"ओह! मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरे पति की दूसरी रानी होगी। मैं रानी हूँ," लीला ने कहा।
सरस्वती ने उत्तर दिया, "सापेक्ष ब्रह्मांड में, आप 'मेरा' नहीं कह सकते। कोई 'मेरा' नहीं है, और न ही आप और न ही किसी और का कोई अंतर्संबंध है। यह अंतर्संबंध स्थान और समय की नृत्य प्रक्रिया का एक झूठा संचालन है, और आप भ्रमित हैं क्योंकि आप अंतरिक्ष और समय (space and time) के एक विशेष संबंध से जुड़े हुए हैं। ”
"अब, मैं अंत में कहाँ हूँ?" रानी ने कहा। "मुझे मेरा पति चाहिए।"
तुरंत सरस्वती की कृपा काम करने लगी। उसने बूढ़े राजा की आत्मा को उस लाश में प्रवेश करने दिया जिसे लीला ने कपड़े से ढक दिया था। राजा उठ गया, मानो एक लंबे सपने से। वह यह नहीं समझ सका कि वह एक अलग अंतरिक्ष-समय में एक साम्राज्य पर शासन कर रहा था, और उसने युद्ध छेड़ दिया था और वहीं मर गया था। उसका कुछ पता नहीं चला। उसने बस खुद को हिलाया और जाग गया।
सरस्वती, जो भी कारण से, दूसरी लीला को भी उसी कमरे में वापस ले आई जहाँ राजा की मृत्यु हुई थी और उसकी लाश में फिर से प्रवेश किया, इसलिए अब उसकी दो रानियाँ थीं।
लीला को यह समझ नहीं आया। "मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। मुझे पागल मत बनाओ!"
"नहीं, मेरी कृपा से तुम पागल नहीं होओगी। मैं केवल आपको प्रबुद्ध करने की कोशिश कर रही हूं, ”सरस्वती ने कहा।
तब राजा पद्मा ने दो रानियों के साथ एक बार फिर राज्य पर शासन किया।
"मैं आपको कुछ और बताऊंगी," देवी ने कहा।
"मुझे और कुछ मत बताओ," लीला ने कहा। "यह मेरे लिए काफी है!"
"नहीं, मैं तुम्हें ठीक से प्रकाशित करना चाहता हूँ। हजारों मील का पूरा राज्य जिस पर आपके युवा पति शासन कर रहे थे, वास्तव में उस गरीब ब्राह्मण दंपत्ति के कमरे के अंदर ही वो राज्य था जो मर गया था। क्योंकि ब्रह्मांड छोटे बड़े सभी तरह के हो सकते है”
लीला ने कहा, "वह कमरा इतना छोटा था, उस राज्य में लगभग दस फुट गुणा बारह फुट, जबकि मेरे पति का राज्य हजारों मील था।"
"अंतरिक्ष-समय के संचालन रहस्यमय हैं। वे आपको किसी भी चीज के विश्वास में बहका सकते हैं, और आपको पता नहीं चलेगा कि वास्तव में क्या हो रहा है। पद्म का विशाल साम्राज्य वास्तव में ब्राह्मण दंपत्ति के कमरे के अंदर था, जो कि इतना छोटा था।
सरस्वती जारी रही। "अब मैं और आगे जाऊंगा। बूढ़े राजा का बड़ा राज्य इस कमरे के अंदर है जहाँ तुम्हारे पति की मृत्यु हुई थी।”
"पर्याप्त," लीला ने कहा। "मैं और कुछ नहीं सुनना चाहती !"
समय का भी अंतर देखो ब्राह्मण दम्पति के मृत्यु को आठ ही दिन हुए जिसमें उनके कमरे के दुसरे ब्रह्माण्ड में तुमने ओर महाराज पद्म ने आधा जीवन जिया।
ओर इसी कमरे के किसी ब्रह्मांड में राजा पद्म 72 साल जी लिए।
देवी ने कहा, "मैं आपको यह सब इसलिए बता रही हूं ताकि आप समझ सकें कि कुछ भी स्वतंत्र रूप से मौजूद नहीं है। न तुम विद्यमान हो, न तुम्हारा पति, न संसार। कुछ नहीं है।
[जबरदस्त एक बार पढ़ने में तो सर के ऊपर से निकल ही गया और इसका कुछ ही अंश उनको ही समझ में आएगा जिनको थोड़ा सा भी इसका अनुभव है।
किसी की मृत्यु होने पर "RIP" मत कहिये।*RIP यानी rest in peace जो दफ़नाने वालों के लिए कहा जाता है।*आप कहिये - "ओम शांति", "सद्गति मिले", अथवा "मोक्ष प्राप्ति हो" ! आत्मा कभी एक स्थान पर आराम या विश्राम नहीं करती ! आत्मा का पुनर्जन्म होता है अथवा उसे मोक्ष मिलता है ! .हमारें मंदिरों को प्रार्थनागृह न कहें !* मंदिर देवालय होते हैं, भगवान के निवासगृह ! वह प्रार्थनागृह नहीं होते ! मंदिर में केवल प्रार्थना नहीं होती ! अन्य पूजा पद्धति में साप्ताहिक प्रार्थना होती है जबकि हिंदू धर्म में ये नित्य कर्म है।
अपने बच्चों के जन्मदिन पर दीप बुझा के अपशकुन न करें ! अग्निदेव को न बुझाए!*अपितु बच्चों को दीप की प्रार्थना सिखाएं "तमसो मा ज्योतिर्गमय" ( हे अग्नि देवता, मुझे अंधेरे से उजाले की ओर जाने का रास्ता बताएं" ! ये सारे प्रतीक बच्चों के मस्तिष्क में गहरा असर करते हैं !*
क्या आप भगवान से डरते है ? नहीं ना ; डरना भी नही चाहिए ? क्यों ? क्योंकि भगवान तो चराचर मे विद्यमान हैं,अजन्मा, निराकार, परोपकारी, न्यायकारी और सर्वशक्तिमान है ! इतना ही नहीं हम स्वयं भगवान का ही रूप हैं ! भगवान कोई हमसे पृथक नहीं जो हम उनसे डरें !! तो फिर अपने आप को "God fearing" अर्थात भगवान से डरने वाला मत कहिये !
कभी भी किसी को बधाई देनी हो तो बधाई या शुभकामनाएं शब्द का प्रयोग कीजिये और बधाई स्वीकार करनी हो तो धन्यवाद शब्द प्रयोग कीजिये , *मुबारक और शुक्रिया शब्द का प्रयोग न किया जाए क्योंकि इनके अर्थ अलग हैं ।*
हिन्दुओं में 7 फेरे लेकर विवाह किया जाता है कोई कॉन्ट्रैक्ट का विवाह नही होता इसलिए TV आदि फिल्में देखकर देखकर भेड़चाल में अपनी धर्मपत्नी को बीवी मत कहिए , यदि आप उन्हें अपनी जीवन संगिनी मानते हैं तो पत्नी शब्द प्रयोग कीजिये ,यदि आप उनको कॉन्ट्रैक्ट के साथ ब्याह कर लाये हैं तो आप बीवी कह सकते हैं ।ध्यान रहे, विश्व मे केवल उनका सम्मान होता है जो स्वयं का सम्मान करते है ! मेरी पोस्ट किसी के विरुद्ध नही है ये बस अपनी संस्कृति के लिए आदर है ।
साभार : VEDIC Science's post
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योगवासिष्ठ में इन्द्र-अहल्या-संवाद :सारांश - 'छली इंद्र की कथा ': यह दर्शाने के बाद कि ब्रह्माण्ड और कुछ नहीं, बल्कि मन है जो केवल ब्रह्म की शक्ति के माध्यम से ही प्रकट होता है , लेखक अब इस कहानी में यह तथ्य स्पष्ट करने के लिए आगे बढ़ता है कि शरीर और उसके अंग आदि मन के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। अतुलनीय लोकों का रचयिता और आत्मा का संहारक मन ही है। मन के कर्म ही कर्म हैं, शरीर के कर्म नहीं।
योगवासिष्ठ में राजा विदूरथ चांडाल बने थे। यह कथा योगवासिष्ठ में वर्णित है, जिसमें राजा विदूरथ का पूर्वजन्म में एक ब्राह्मण के रूप में वर्णन है, जो बाद में चांडाल योनि में जन्म लेता है। यह कथा चित्त की शुद्धि और कर्मों के फल को दर्शाती है। योगवासिष्ठ में, राजा विदूरथ ने पूर्वजन्म में एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण के रूप में जीवन जिया था। उनकी पत्नी का नाम अरुन्धती था, और वे दोनों एक गांव में पशु पालते थे। अपने कर्मों और चित्त की शुद्धि के कारण, उन्होंने अगले जन्म में राजा पद्मा और रानी लीला के रूप में जन्म लिया। युद्ध में राजा पद्मा की मृत्यु के बाद, विदूरथ राजा के रूप में फिर से जन्म लेते हैं, जो एक धर्मनिष्ठ शासक थे। लीला को सरस्वती देवी से मिले वरदान के कारण, राजा विदूरथ युद्ध में मारे जाते हैं। इसके बाद, वे चांडाल के रूप में जन्म लेते हैं, और इस जन्म में भी वे अपने कर्मों के कारण दुख भोगते हैं।
यह कथा दर्शाती है कि किस प्रकार कर्मों का फल व्यक्ति को विभिन्न योनियों में ले जाता है। इस कथा में, राजा विदूरथ के चांडाल बनने का कारण उनके पूर्वजन्मों के कर्म और वासनाएं हैं। यह योगवासिष्ठ के मुख्य विषयों में से एक है, जो कर्म, पुनर्जन्म, और चित्त की शुद्धि के महत्व को उजागर करता है। यह कथा दर्शाती है कि कैसे कर्मों का फल व्यक्ति को विभिन्न योनियों में ले जाता है, और कैसे आत्म-ज्ञान और चित्त की शुद्धि से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
[https://ia801508.us.archive.org/18/items/in.ernet.dli.2015.480283/2015.480283.yogvasishta-sudha_text.pdf]
[https://aumyogavasistha.wordpress.com/2011/01/24/yoga-vasistha-the-science-of-self-knowledge/]
(पाठ के श्री रामनाश्रम प्रकाशन का परिचय/योग वशिष्ठ का सार :लगभग 230 दोहों में, योग वशिष्ठ सार के रूप में दस अध्यायों में विभाजित किया गया था, जिनमें से यह अनुवाद पहली बार प्रस्तुत किया गया है।) https://navbharattimes.indiatimes.com/speakingtree/yoga-meditation/test-810609/articleshow/102455744.cms
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“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्-प्रसादात परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
।।18.61।।ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। हे अर्जुन ! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया से शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को (उनके स्वभावके अनुसार) भ्रमण कराता रहता है।
गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - मेरा स्मरण ईश्वर अर्थात् सम्पूर्ण विश्व के शासक के रूप में करो। ईश्वर ही नियामक और नियन्ता है। उसकी उपस्थिति में ही जगत् की समस्त घटनाएं घट सकती हैं, अन्यथा नहीं। जैसै कि वाष्प इंजन का ईश्वर वाष्प है, जिसके बिना इंजन में गति नहीं आ सकती।
ईश्वर का स्मरण केवल सगुणसाकार अर्थात् शक्ति के मानवीय रूप 'अवतार वरिष्ठ' के रूप में ईश्वर तो भूतमात्र के हृदय में निवास कर रहा अंतरयामी है। उनकी पहचान हृदय में ही हो सकती है। जिस प्रकार विशाल महानगरी में किसी व्यक्ति से मिलने के लिये उसके निवासस्थान का पता बताया जाता है उसी प्रकार, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपना स्थानीय पता बता रहे हैं - 'हृदय !'
'हृदय' शब्द से तात्पर्य शारीरिक अंग रूप ब्लड पम्पिंग मशीन हृदय से नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय का अर्थ लाक्षणिक है, शाब्दिक नहीं। प्रेम, करुणा, धृति, उत्साह, स्नेह, कोमलता, क्षमा, उदारता जैसे दैवी गुणों से सम्पन्न मन ही हृदय कहलाता है।
परमेश्वर ही चेतनता (साक्षी चैतन्य ?) और शक्ति का स्रोत हैं जो अपनी शक्ति प्राणीमात्र को प्रदान करता है। समस्त प्राणी ईश्वर के ही चारों ओर इस प्रकार घूमते रहते हैं, जैसे कठपुतलियां किसी के हाथों में बन्धी खेल करती है। कठपुतलियों की अपनी कोई सार्मथ्य, शक्ति या भावना नहीं होती, वे जो कुछ खेल करती दिखाई देती हैं, वह सब अदृश्य हाथ की शक्ति है जो उन कठपुतलियों को धारण किये रहता है।
पारमर्थिक दृष्टि से ईश्वर का अर्थ चैतन्यस्वरूप ब्रह्म है। इस चैतन्य के सम्बन्ध से ही शरीर, मन आदि जड़ उपाधियाँ कार्य करने में सक्षम होती हैं। अन्यथा, जड़ पदार्थ में स्वयं न कर्म करने की शक्ति है और न वस्तुओं को जानने की। इस दृष्टि से इस श्लोक का अर्थ यह होगा कि चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपस्थिति में प्राणीमात्र अपनेअपने स्वभाव के अनुसार यत्रतत्र भ्रमण करते रहते हैं। इसी तथ्य को यहाँ इस प्रकार कहा गया है कि ईश्वर अपनी माया से भूतमात्र को घुमाता है।
इसी श्लोक का दूसरा अर्थ निम्न प्रकार से होगा। समष्टि माया में व्यक्त चैतन्यस्वरूप परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) ही ईश्वर कहलाता है, जो सर्वज्ञसर्वशक्तिमान् है। वह ईश्वर अपनी माया से समस्त जीवों को घुमाता है इसका अर्थ यह हुआ कि वह ईश्वर समस्त जीवों को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करता है। ईश्वर के बिना व्यष्टि जीवों का अस्तित्व संभव ही नहीं है। समस्त जीवों को कर्म और ज्ञान की शक्तियां ईश्वर से ही प्राप्त होती हैं। इस प्रकार, वेदान्त के सिद्धांत को समझकर इस श्लोक के अध्ययन से यहाँ प्रयुक्त रूपक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
।।18.62।। तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! तू सर्वभाव से उस ईश्वर की ही शरण में चला जा। उसकी कृपा से तू परमशान्ति-(संसार से सर्वथा उपरति-) को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जायगा।
अहंकार का त्याग करके अपने कर्त्तव्य करो यह तो मानो गीता का मूल मंत्र ही है। आत्मा और अनात्मा के मिथ्या सम्बन्ध से ही कर्तृत्वाभिमानी जीव की उत्पत्ति होती है। यह जीव ही संसार के दुखों को भोगता रहता है। अतः इससे अपनी मुक्ति के लिए अहंकार का परित्याग करना चाहिए। यहाँ प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अहंकार का त्याग कैसे करें ?
इसके उत्तर में ईश्वरार्पण की भावना का वर्णन किया गया है। पूर्वश्लोक में ही ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के स्वरूप को दर्शाया गया है। इसलिए, अब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं तुम उसी हृदयस्थ ईश्वर (अपने इष्टदेव) की शरण में जाओ।
शरण में जाने का अर्थ है अभिमान एवं फलासक्ति का त्याग करके कर्माध्यक्ष कर्मफलदाता ईश्वर का सतत स्मरण करते हुए कर्म करना। इसके फलस्वरूप चित्त की शुद्धि प्राप्त होगी, जो आत्मज्ञान में सहायक होगी। आत्मज्ञान की दृष्टि से शरण का अर्थ होगा समस्त अनात्म उपाधियों के तादात्म्य को त्यागकर आत्मस्वरूप ईश्वर के साथ एकत्व का अनुभव करना। यह शरणागति अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ ही हो सकती है (सर्वभावेन) अधूरे हृदय से नहीं।
राधा, हनुमान और प्रह्लाद जैसे भक्त इसके उदाहरण हैं। चित्त की शुद्धि और आत्मानुभूति ही ईश्वर की कृपा अथवा प्रसाद है। जिस मात्रा में अनात्मा के साथ हमारा तादात्म्य निवृत्त होगा, उसी मात्रा में हमें ईश्वर का यह प्रसाद प्राप्त होगा।
भारत भरतवंश में जन्म लेने के कारण अर्जुन का नाम भारत था। शब्द व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ है वह पुरुष जो भा अर्थात् प्रकाश (ज्ञान) में रत है। आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश में रमने वाले ऋषियों के कारण ही यह देश भारत कहा गया है।
(18.66) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।। सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।
श्री रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है। धर्म शब्द हिन्दू संस्कृति का हृदय है। विभिन्न सन्दर्भों में इस शब्द का प्रयोग किन्हीं विशेष अभिप्रायों से किया जाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष के निवासियों ने इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिक सम्पदा का आनन्द उपभोग किया और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की। हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है अस्तित्व का नियम (law of existence)। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है अन्यथा नहीं; वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है, उष्णता के अभाव में नहीं, इसलिए- अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है। मधुरता चीनी का धर्म है , कटु चीनी मिथ्या है।
जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म (कृत्रिम या नैमित्तिक) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है, परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है, जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है। इस दृष्टि से मनुष्य का निश्चित रूप से धर्म क्या है ? उसकी त्वचा का वर्ण असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार, उसका स्वभाव (संस्कार) उसके शरीर मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं, ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। यही आत्मा समस्त उपाधियों को (जड़ देह और मन को) सत्ता और चेतनता प्रदान करता है। इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए, मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है।
यद्यपि नैतिकता, सदाचार, जीवन के समस्त कर्तव्य, श्रद्धा, दान, विश्व कल्याण की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। सदाचार (या चरित्र) आदि को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार, सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है। इसलिए, हमारे धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को धर्म की संज्ञा दी गयी है, जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं।
इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कतिपय श्लोकों में, भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है। और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे। उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में, अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं। ध्यानयोग के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं (1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा सब धर्मों का त्याग? (2) मेरी (ईश्वर की) ही शरण में आना, और? (3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना। इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। यह आश्वासन मानवमात्र के लिये दिया गया है। गीता एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है, मानवता का कुरान और हिन्दुओं का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है।
सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है ; और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त धर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं, अथवा क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण मनुष्य अपने शरीर मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न र्मत्य जीव (M/F) का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा, मन्ता, ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता रूप जीव ही संसार के दुखों को भोगता है। वह शरीरादि (नाम-रूप) उपाधियों के, शरीर के जन्म-मरणादि धर्मों को ही अपना धर्म समझता है। परन्तु वस्तुतः ये हमारे शुद्ध स्वरूप का धर्म नहीं हैं। वे गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है। इसलिए, समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर, मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है, उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं।
मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है, जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन (अवतार वरिष्ठ का सगुण आदर्श) प्रदान नहीं करते हैं।
अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं। साधना के केवल निषेधात्मक पक्ष को ही बताने से भारतीय दार्शनिकों को सन्तोष नहीं होता है निषेधात्मक आदेशों की अपेक्षा विधेयात्मक उपदेशों में वे अधिक विश्वास रखते हैं। भारतीय दर्शन की स्वभावगत विशेषता है, उसकी व्यावहारिकता। और इस श्लोक में हमें यही विशेषता देखने को मिलती है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं, तुम मेरी शरण में आओ; मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा। मा शुच (तुम शोक मत करो) उपर्युक्त दो गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक को ध्यानाभ्यास (एकाग्रता के अभ्यास) में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है।
परन्तु यह शान्ति भी स्वरूपभूत शान्ति नहीं है। तथापि ऐसे शान्त मन का उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति पाने के लिए करना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य से आत्मसाक्षात्कार की व्याकुलता या उत्कण्ठा ही इस शान्ति को भंग कर देती है। चिन्ता का स्पर्श पाकर एक स्वाप्निक सेतु के समान यह शान्ति लुप्त हो जाती है। बाह्य विषयों तथा शरीरादि उपाधियों से मन के ध्यान को निवृत्त करके उसे आत्मस्वरूप में समाहित कर लेने पर साधक को साक्षात्कार की उत्कण्ठा का भी त्याग कर देना चाहिए। ऐसी उत्कण्ठा भी चरम उपलब्धि में बाधक बन सकती है।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा) जो हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके हमारी शक्तियों को बिखेर देता है, वह पाप कहलाता है। हमारे कर्म ही हमारी शक्ति का ह्रास कर सकते हैं, क्योंकि मन और बुद्धि की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। संक्षेप में कर्म मनुष्य के अन्तकरण में (चित्त में कार्बन कॉपी) वासनाओं को अंकित करते जाते हैं, जिन से प्रेरित होकर मनुष्य बारम्बार उसी कर्म में प्रवृत्त होता है। कर्म करने से पहले मन में विचार उठते हैं , शुभ वासनाएं शुभ विचारों को जन्म देती हैं, तो अशुभ वासनाओं से अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं। वृत्ति रूप मन है, अत जब तक शुभ या अशुभ वृत्तियों का प्रवाह बना रहता है तब तक मन का भी अस्तित्व यथावत् बना रहता है। इसलिए वासनाक्षय का अर्थ ही वृत्तिशून्यता है और यही मनोनाश भी है। (योगः चित्तवृत्ति निरोधः) मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप कृष्णतत्व का साक्षात्कार करना है।
जिस मात्रा में एक साधक अनात्मा से तादात्म्य का त्याग करने और आत्मानुसंधान करने में सफल होता है, उसी मात्रा में वह इस आत्मदर्शन को प्राप्त करता है। इस नवप्राप्त अनुभव में वह अपनी सूक्ष्मतर वासनाओं के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता जाता है। वासनाओं का यह भान अत्यन्त पीड़ादायक होता है। अतः भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं, तुम शोक मत करो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। मन को विचलित करने वाली कर्मों की प्रेरक इच्छा और विक्षेपों को उत्पन्न करने वाली ये वासनाएं ही पाप हैं।
यह श्लोक महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि यहाँ स्वयं सर्वशक्तिमान् भगवान् ही ऐसे साधक की सहायता करने के लिए तत्परता दिखाते हैं जो उत्साह के साथ सर्वसंभव प्रयत्नों के द्वारा अपना योगदान देने को उत्सुक है। साधनाकाल में यदि साधक अपने मन में दुर्दम्य आशावाद का स्वस्थ वातावरण बनाये रख पाता है, तो अध्यात्म मार्ग में उसकी प्रगति निश्चित होती है। इसके विपरीत, जिस साधक का मन नैराश्य और रुदन, विषाद और अवसाद से भरा रहता है वह कभी पूर्ण हृदय से आवश्यक प्रयत्न कर ही नहीं कर सकता है। और स्वाभाविक ही है कि उसके आत्मविकास का लक्ष्य कहीं दूरदूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। गूढ़ अभिप्रायों एवं व्यापक आशयों से पूर्ण यह एक श्लोक ही अपने आप में इस दार्शनिक काव्य गीता का उपसंहार है।
।।18.67।।यह ज्ञान ऐसे पुरुष से नहीं कहना चाहिए, जो अतपस्क (तपरहित) है, और न उसे जो अभक्त है; उसे भी नहीं जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है और उस पुरुष से भी नहीं कहना चाहिए, जो मुझ (ईश्वर) से असूया करता है, अर्थात् मुझ में दोष देखता है।।
प्रायः अध्यात्मशास्त्र के समस्त ग्रन्थों के अन्तिम भाग में शास्त्रसंप्रदाय की विधि अर्थात् ज्ञान के अधिकारी का वर्णन किया जाता है। इसी महान् परम्परा का अनुसरण करते हुए इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह ज्ञान किसे नहीं देना चाहिए।
यह ज्ञान ऐसे पुरुष को नहीं देना चाहिए जो (1) तपरहित है। शरीर वाणी और मन का संयम ही तप है। जिसके द्वारा हम समस्त शक्तियों का संचय कर सकते हैं। संयमरूपी तप से रहित पुरुष में इस ज्ञान को ग्रहण करने की मानसिक और बौद्धिक क्षमता ही नहीं होती। इसलिए तप रहित व्यक्ति से ज्ञान नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इससे उस व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होगा।यह कथन इसी प्रकार का है कि कृपया चट्टानों पर बीजारोपण मत करो। कारण यह है कि कृषक को इससे कोई फसल प्राप्त नहीं होगी।
(2) जो अभक्त है - तपयुक्त हो किन्तु भक्त न हो तो उस पुरुष से भी यह ज्ञान नहीं कहना चाहिए। जो साधक अपने लक्ष्य (Ishtdev) के साथ तादात्म्य नहीं कर सकते, उससे प्रेम नहीं कर सकते, वे इस ज्ञान के अधिकारी नहीं हैं। प्रेम के अभाव में त्याग और उत्साह संभव नहीं है। प्रेमालिंगन में अपने आदर्श को बांध लेना ही भक्ति है।
(3) जो अशुश्रुषु (सेवा में अतत्पर) है - यदि कोई पुरुष तपस्वी और भक्त है, परन्तु गुरुसेवा और जनसेवा करने में संकोच करता है; तो वह भी योग्य विद्यार्थी नहीं कहा जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण गीता में निस्वार्थ सेवा पर विशेष बल दिया है क्योंकि चित्तशुद्धि का वही सर्वश्रेष्ठ साधन है। स्वार्थी लोग कभी भी इस ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पाते हैं और न ही उसके आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।
(4) जो मुझे से असूया अर्थात् मुझमें दोष देखता है - गुणों में दोष देखना असूया है। जो लोग ईश्वर, गुरु और शास्त्रप्रमाण में भी दोष देखते हैं; वे किस प्रकार आत्मज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं ? बल प्रयोग के द्वारा कराये गये धर्म परिवर्तन से उस मत के अनुयायियों का संख्याबल तो बढ़ाया जा सकता है, परन्तु ऐसे प्रयोग से आत्मविकास नहीं कराया जा सकता। किसी के भी ऊपर धर्म को नहीं थोपना चाहिए। यदि तत्त्वज्ञान के प्रति मन में तिरस्कार का भाव है तो बुद्धि से उसे समझने पर भी हम उसे अपने जीवन में कार्यान्वित नहीं कर सकते हैं। इसलिए असूया युक्त पुरुष इस ज्ञान का अधिकारी नहीं है।
इस श्लोक का अभिप्राय यह हुआ कि तप, भक्ति, सेवाभाव और अवतारवरिष्ठ जगतगुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस के प्रति आदर से युक्त पुरुष ही आत्मज्ञान का उत्तम अधिकारी है। यदि हम शास्त्र के अध्ययन से अधिक लाभान्वित नहीं होते हैं, तो निश्चय ही हममें किसी आवश्यक गुण का अभाव होना चाहिए। उस स्थिति में आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम आत्मशोधन करें। जैसे दर्पण पर जमी धूल को स्वच्छ कर देने से प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देता है उसी प्रकार अन्तकरण के शुद्ध और स्थिर होने पर आत्मानुभव स्पष्ट होता है।
।। श्रीगुरु- स्तोत्रम् ।।
(हिन्दीअर्थ सहित)
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम्।
उत्कलकाशीगङ्गामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।१।
भावार्थ-
गुरु की महिमा जीवात्मा और परमात्मा से भी श्रेष्ठ है। दान, ध्यान, योग, ज्ञान और उत्कल, काशी तथा गंगा में मरण- ये सब भी गुरु से बढ़कर नहीं हैं। गुरु इन सबसे श्रेष्ठ हैं।
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम्।
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।२।।
भावार्थ-
प्राण, शरीर, घर, राज्य, स्वर्ग, सुख-भोग, योग, मोक्ष; पत्नी, प्रिय वस्तु, पुत्र और मित्र- इनमें से कोई भी गुरु से बढ़कर नहीं है। गुरु सबसे महान हैं।
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम्।
साधोःसेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।३।।
भावार्थ-
वानप्रस्थ, यति-धर्म, परमहंस-जीवन, भिक्षुक की चर्या, संतों की सेवा, और अपार सुखभोग – इन सब से भी गुरु श्रेष्ठ हैं। इनसे भी अधिक महत्त्व गुरु का ही है।
विष्णोभक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरिभक्तिम्।
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।४।।
भावार्थ-
भगवान विष्णु की भक्ति, पूजन में रुचि, वैष्णवों की सेवा, माता-पिता की सेवा में विष्णुतुल्य समर्पण- ये सभी भी गुरु की महिमा के समकक्ष नहीं हैं। गुरु की महत्ता सर्वोपरि है।
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायामं न्यासविधानम्।
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।५।।
भावार्थ-
प्रत्याहार, इन्द्रियों का संयम, प्राणायाम, न्यास-विधान, इष्टदेव की पूजा, जप, तप और भक्ति- ये सभी साधन भी गुरु की महिमा की बराबरी नहीं कर सकते।
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा।
श्रीमातङ्गी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।६।।
भावार्थ-
काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरा, भीमा, बगला, पूर्णा, मातंगेश्वरी, धूमावती और तारा- ये सभी शक्तियाँ भी गुरु से बढ़कर नहीं हैं।
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम्।
नरनारायणचरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।७।।
भावार्थ-
मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि विष्णु के अवतार और उनका योगचरित्र — ये सब भी गुरु से बढ़कर नहीं हैं।
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम्।
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।८।।
भावार्थ-
भृगु मुनि, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, कल्कि आदि सभी अवतार और दशावतार- साथ ही समस्त वेदविधान भी- गुरु की महिमा से श्रेष्ठ नहीं हैं।
गङ्गा काशी काञ्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा।
यमुना रेवा पुष्करतीर्थं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।९।।
भावार्थ-
गंगा, काशी, कांची, द्वारका, माया (हरिद्वार), अयोध्या, अवंती (उज्जयिनी), मथुरा, यमुना, रेवा (नर्मदा) और पुष्कर तीर्थ- इन सभी की महानता भी गुरु से कम है।
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावनमधुपुररटनम्।
एतत् सर्वंसुन्दरि! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।१०।।
भावार्थ-
गोकुलगमन, गोपुर (गोपियों) के साथ रमण, वृन्दावन और मधुपुरी में भगवान का विहार- यह सब भी गुरु की महिमा से श्रेष्ठ नहीं है।
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गङ्गासागरसङ्गममुक्तिः।
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।११।।
भावार्थ-
तुलसीसेवा, हरि-हर की भक्ति, गंगासागर संगम की मुक्ति, और कृष्णभक्ति- ये सब भी गुरु से बढ़कर नहीं हैं। गुरु की उपासना ही सर्वोपरि है।
एतत्सोत्रं पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि चधन्यम्।
ब्रह्माण्डान्तर्यद्यद्ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।।१२।।
भावार्थ-
जो व्यक्ति इस गुरुस्तोत्र का नित्य पाठ करता है, वह मोक्ष को जानने वाला और धन्य होता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी ध्यान योग्य है, वह भी गुरु से बढ़कर नहीं है।
।। इति बृहद्विज्ञान परमेश्वरतन्त्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोः स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।।
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श्री गुरुगीता प्रथमोध्यायः
श्रीगुरुभ्यो नमः ।
हरिः ओम् ।
ध्यानम्
हंसाभ्यां परिवृत्तपत्रकमलैर्दिव्यैर्जगत्कारणं
विश्वोत्कीर्णमनेकदेहनिलयं स्वच्छंदमानंदकम् ।
आद्यंतैकमखंडचिद्घनरसं पूर्णं ह्यनंतं शुभं
प्रत्यक्षाक्षरविग्रहं गुरुपदं ध्यायेद्विभुं शाश्वतम् ॥
अथ प्रथमोऽध्यायः ॥
अचिंत्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गणात्मने ।
समस्तजगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥ 1 ॥
ऋषय ऊचुः ।
सूत सूत महाप्राज्ञ निगमागमपारग ।
गुरुस्वरूपमस्माकं ब्रूहि सर्वमलापहम् ॥ 2 ॥
यस्य श्रवणमात्रेण देही दुःखाद्विमुच्यते ।
येन मार्गेण मुनयः सर्वज्ञत्वं प्रपेदिरे ॥ 3 ॥
यत्प्राप्य न पुनर्याति नरः संसारबंधनम् ।
तथाविधं परं तत्त्वं वक्तव्यमधुना त्वया ॥ 4 ॥
गुह्याद्गुह्यतमं सारं गुरुगीता विशेषतः ।
त्वत्प्रसादाच्च श्रोतव्या तत्सर्वं ब्रूहि सूत नः ॥ 5 ॥
इति संप्रार्थितः सूतो मुनिसंघैर्मुहुर्मुहुः ॥
कुतूहलेन महता प्रोवाच मधुरं वचः ॥ 6 ॥
सूत उवाच ।
श्रुणुध्वं मुनयः सर्वे श्रद्धया परया मुदा ।
वदामि भवरोगघ्नीं गीतां मातृस्वरूपिणीम् ॥ 7 ॥
पुरा कैलासशिखरे सिद्धगंधर्वसेविते ।
तत्र कल्पलतापुष्पमंदिरेऽत्यंतसुंदरे ॥ 8 ॥
व्याघ्राजिने समासीनं शुकादिमुनिवंदितम् ।
बोधयंतं परं तत्त्वं मध्ये मुनिगणे क्वचित् ॥ 9 ॥
प्रणम्रवदना शश्वन्नमस्कुर्वंतमादरात् ।
दृष्ट्वा विस्मयमापन्न पार्वती परिपृच्छति ॥ 10 ॥
पार्वत्युवाच ।
ॐ नमो देव देवेश परात्पर जगद्गुरो ।
त्वां नमस्कुर्वते भक्त्या सुरासुरनराः सदा ॥ 11 ॥
विधिविष्णुमहेंद्राद्यैर्वंद्यः खलु सदा भवान् ।
नमस्करोषि कस्मै त्वं नमस्काराश्रयः किल ॥ 12 ॥
दृष्ट्वैतत्कर्म विपुलमाश्चर्य प्रतिभाति मे ।
किमेतन्न विजानेऽहं कृपया वद मे प्रभो ॥ 13 ॥
भगवन् सर्वधर्मज्ञ व्रतानां व्रतनायकम् ।
ब्रूहि मे कृपया शंभो गुरुमाहात्म्यमुत्तमम् ॥ 14 ॥
केन मार्गेण भो स्वामिन् देही ब्रह्ममयो भवेत् ।
तत्कृपां कुरु मे स्वामिन् नमामि चरणौ तव ॥ 15 ॥
इति संप्रार्थितः शश्वन्महादेवो महेश्वरः ।
आनंदभरितः स्वांते पार्वतीमिदमब्रवीत् ॥ 16 ॥
श्री महादेव उवाच ।
न वक्तव्यमिदं देवि रहस्यातिरहस्यकम् ।
न कस्यापि पुरा प्रोक्तं त्वद्भक्त्यर्थं वदामि तत् ॥ 17 ॥
मम रूपाऽसि देवि त्वमतस्तत्कथयामि ते ।
लोकोपकारकः प्रश्नो न केनापि कृतः पुरा ॥ 18 ॥
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशंते महात्मनः ॥ 19 ॥
यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः ।
विकल्पं यस्तु कुर्वीत स नरो गुरुतल्पगः ॥ 20 ॥
दुर्लभं त्रिषु लोकेषु तच्छृणुष्व वदाम्यहम् ।
गुरुब्रह्म विना नान्यः सत्यं सत्यं वरानने ॥ 21 ॥
वेदशास्त्रपुराणानि चेतिहासादिकानि च ।
मंत्रयंत्रादिविद्यानां मोहनोच्चाटनादिकम् ॥ 22 ॥
शैवशाक्तागमादीनि ह्यन्ये च बहवो मताः ।
अपभ्रंशाः समस्तानां जीवानां भ्रांतचेतसाम् ॥ 23 ॥
जपस्तपो व्रतं तीर्थं यज्ञो दानं तथैव च ।
गुरुतत्त्वमविज्ञाय सर्वं व्यर्थं भवेत्प्रिये ॥ 24 ॥
गुरुबुद्ध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने ।
तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु कर्तव्यश्च मनीषिभिः ॥ 25 ॥
गूढाविद्या जगन्माया देहश्चाज्ञानसंभवः ।
विज्ञानं यत्प्रसादेन गुरुशब्देन कथ्यते ॥ 26 ॥
यदंघ्रिकमलद्वंद्वं द्वंद्वतापनिवारकम् ।
तारकं भवसिंधोश्च तं गुरुं प्रणमाम्यहम् ॥ 27 ॥
देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थं वदामि तत् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात् ॥ 28 ॥
सर्वतीर्थावगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः ।
गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन् ॥ 29 ॥
शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः ।
गुरोः पादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम् ॥ 30 ॥
अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् ।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं गुरोः पादोदकं पिबेत् ॥ 31 ॥
गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्टभोजनम् ।
गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरोर्नाम सदा जपः ॥ 32 ॥
स्वदेशिकस्यैव च नामकीर्तनं
भवेदनंतस्य शिवस्य कीर्तनम् ।
स्वदेशिकस्यैव च नामचिंतनं
भवेदनंतस्य शिवस्य चिंतनम् ॥ 33 ॥
यत्पादांबुजरेणुर्वै कोऽपि संसारवारिधौ ।
सेतुबंधायते नाथं देशिकं तमुपास्महे ॥ 34 ॥
यदनुग्रहमात्रेण शोकमोहौ विनश्यतः ।
तस्मै श्रीदेशिकेंद्राय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ 35 ॥
यस्मादनुग्रहं लब्ध्वा महदज्ञानमुत्सृजेत् ।
तस्मै श्रीदेशिकेंद्राय नमश्चाभीष्टसिद्धये ॥ 36 ॥
काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम् ।
गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चयः ॥ 37 ॥
गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः ।
तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनस्ततम् ॥ 38 ॥
गुरुमूर्तिं स्मरेन्नित्यं गुरोर्नाम सदा जपेत् ।
गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत् ॥ 39 ॥
गुरुवक्त्रे स्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः ।
गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतिं यथा ॥ 40 ॥
स्वाश्रमं च स्वजातिं च स्वकीर्तिं पुष्टिवर्धनम् ।
एतत्सर्वं परित्यज्य गुरुमेव समाश्रयेत् ॥ 41 ॥
अनन्याश्चिंतयंतो ये सुलभं परमं सुखम् ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरोराराधनं कुरु ॥ 42 ॥
गुरुवक्त्रे स्थिता विद्या गुरुभक्त्या च लभ्यते ।
त्रैलोक्ये स्फुटवक्तारो देवर्षिपितृमानवाः ॥ 43 ॥
गुकारश्चांधकारो हि रुकारस्तेज उच्यते ।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ॥ 44 ॥
गुकारश्चांधकारस्तु रुकारस्तन्निरोधकृत् ।
अंधकारविनाशित्वाद्गुरुरित्यभिधीयते ॥
गुकारो भवरोगः स्यात् रुकारस्तन्निरोधकृत् ।
भवरोगहरत्वाच्च गुरुरित्यभिधीयते ॥ 45 ॥
गुकारश्च गुणातीतो रूपातीतो रुकारकः ।
गुणरूपविहीनत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥ 46 ॥
गुकारः प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः ।
रुकारोऽस्ति परं ब्रह्म मायाभ्रांतिविमोचकम् ॥ 47 ॥
एवं गुरुपदं श्रेष्ठं देवानामपि दुर्लभम् ।
हाहाहूहूगणैश्चैव गंधर्वाद्यैश्च पूजितम् ॥ 48 ॥
ध्रुवं तेषां च सर्वेषां नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ।
गुरोराराधनं कुर्यात् स्वजीवत्वं निवेदयेत् ॥ 49 ॥
आसनं शयनं वस्त्रं वाहनं भूषणादिकम् ।
साधकेन प्रदातव्यं गुरुसंतोषकारणम् ॥ 50 ॥
कर्मणा मनसा वाचा सर्वदाऽऽराधयेद्गुरुम् ।
दीर्घदंडं नमस्कृत्य निर्लज्जो गुरुसन्निधौ ॥ 51 ॥
शरीरमिंद्रियं प्राणमर्थस्वजनबांधवान् ।
आत्मदारादिकं सर्वं सद्गुरुभ्यो निवेदयेत् ॥ 52 ॥
गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम् ॥ 53 ॥
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम् ।
वेदांतार्थप्रवक्तारं तस्मात् संपूजयेद्गुरुम् ॥ 54 ॥
यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम् ।
स एव सर्वसंपत्तिः तस्मात्संपूजयेद्गुरुम् ॥ 55 ॥
[पाठभेदः -
कृमिकोटिभिराविष्टं दुर्गंधमलमूत्रकम् ।
श्लेष्मरक्तत्वचामांसैर्नद्धं चैतद्वरानने ॥]
कृमिकोटिभिराविष्टं दुर्गंधकुलदूषितम् ।
अनित्यं दुःखनिलयं देहं विद्धि वरानने ॥ 56 ॥
संसारवृक्षमारूढाः पतंति नरकार्णवे ।
यस्तानुद्धरते सर्वान् तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 57 ॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुस्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 58 ॥
अज्ञानतिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 59 ॥
अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 60 ॥
स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम् ।
त्वं पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 61 ॥
चिन्मयव्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।
असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 62 ॥
निमिषान्निमिषार्धाद्वा यद्वाक्याद्वै विमुच्यते ।
स्वात्मानं शिवमालोक्य तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 63 ॥
चैतन्यं शाश्वतं शांतं व्योमातीतं निरंजनम् ।
नादबिंदुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 64 ॥
निर्गुणं निर्मलं शांतं जंगमं स्थिरमेव च ।
व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 65 ॥
स पिता स च मे माता स बंधुः स च देवता ।
संसारमोहनाशाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 66 ॥
यत्सत्त्वेन जगत्सत्त्वं यत्प्रकाशेन भाति तत् ।
यदानंदेन नंदंति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 67 ॥
यस्मिन् स्थितमिदं सर्वं भाति यद्भानरूपतः ।
प्रियं पुत्रादि यत्प्रीत्या तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 68 ॥
येनेदं दर्शितं तत्त्वं चित्तचैत्यादिकं तथा ।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 69 ॥
यस्य ज्ञानमिदं विश्वं न दृश्यं भिन्नभेदतः ।
सदैकरूपरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 70 ॥
यस्य ज्ञातं मतं तस्य मतं यस्य न वेद सः ।
अनन्यभावभावाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 71 ॥
यस्मै कारणरूपाय कार्यरूपेण भाति यत् ।
कार्यकारणरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 72 ॥
नानारूपमिदं विश्वं न केनाप्यस्ति भिन्नता ।
कार्यकारणरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 73 ॥
ज्ञानशक्तिसमारूढतत्त्वमालाविभूषिणे ।
भुक्तिमुक्तिप्रदात्रे च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 74 ॥
अनेकजन्मसंप्राप्तकर्मबंधविदाहिने ।
ज्ञानानलप्रभावेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 75 ॥
शोषणं भवसिंधोश्च दीपनं क्षरसंपदाम् ।
गुरोः पादोदकं यस्य तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 76 ॥
न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।
न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 77 ॥
मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।
ममाऽऽत्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 78 ॥
गुरुरादिरनादिश्च गुरुः परमदैवतम् ।
गुरुमंत्रसमो नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 79 ॥
एक एव परो बंधुर्विषमे समुपस्थिते ।
गुरुः सकलधर्मात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 80 ॥
गुरुमध्ये स्थितं विश्वं विश्वमध्ये स्थितो गुरुः ।
गुरुर्विश्वं न चान्योऽस्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 81 ॥
भवारण्यप्रविष्टस्य दिङ्मोहभ्रांतचेतसः ।
येन संदर्शितः पंथाः तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 82 ॥
तापत्रयाग्नितप्तानामशांतप्राणिनां मुदे ।
गुरुरेव परा गंगा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 83 ॥
[पाठभेदः -
अज्ञानेनाहिना ग्रस्ताः प्राणिनस्तान् चिकित्सकः ।
विद्यास्वरूपो भगवांस्तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥]
अज्ञानसर्पदष्टानां प्राणिनां कश्चिकित्सकः ।
सम्यग्ज्ञानमहामंत्रवेदिनं सद्गुरु विना ॥ 84 ॥
हेतवे जगतामेव संसारार्णवसेतवे ।
प्रभवे सर्वविद्यानां शंभवे गुरवे नमः ॥ 85 ॥
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मुक्तिमूलं गुरोः कृपा ॥ 86 ॥
सप्तसागरपर्यंततीर्थस्नानफलं तु यत् ।
गुरोः पादोदबिंदोश्च सहस्रांशे न तत्फलम् ॥ 87 ॥
शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ।
लब्ध्वा कुलगुरुं सम्यग्गुरुमेव समाश्रयेत् ॥ 88 ॥
मधुलुब्धो यथा भृंगः पुष्पात्पुष्पांतरं व्रजेत् ।
ज्ञानलुब्धस्तथा शिष्यो गुरोर्गुर्वंतरं व्रजेत् ॥ 89 ॥
वंदे गुरुपदद्वंद्वं वाङ्मनातीतगोचरम् ।
श्वेतरक्तप्रभाभिन्नं शिवशक्त्यात्मकं परम् ॥ 90 ॥
गुकारं च गुणातीतं रूकारं रूपवर्जितम् ।
गुणातीतमरूपं च यो दद्यात्स गुरुः स्मृतः ॥ 91 ॥
अत्रिनेत्रः शिवः साक्षात् द्विबाहुश्च हरिः स्मृतः ।
योऽचतुर्वदनो ब्रह्मा श्रीगुरुः कथितः प्रिये ॥ 92 ॥
अयं मयांजलिर्बद्धो दयासागरसिद्धये ।
यदनुग्रहतो जंतुश्चित्रसंसारमुक्तिभाक् ॥ 93 ॥
श्रीगुरोः परमं रूपं विवेकचक्षुरग्रतः ।
मंदभाग्या न पश्यंति अंधाः सूर्योदयं यथा ॥ 94 ॥
कुलानां कुलकोटीनां तारकस्तत्र तत्क्षणात् ।
अतस्तं सद्गुरुं ज्ञात्वा त्रिकालमभिवादयेत् ॥ 95 ॥
श्रीनाथचरणद्वंद्वं यस्यां दिशि विराजते ।
तस्यां दिशि नमस्कुर्यात् भक्त्या प्रतिदिनं प्रिये ॥ 96 ॥
साष्टांगप्रणिपातेन स्तुवन्नित्यं गुरुं भजेत् ।
भजनात् स्थैर्यमाप्नोति स्वस्वरूपमयो भवेत् ॥ 97 ॥
दोर्भ्यां पद्भ्यां च जानुभ्यामुरसा शिरसा दृशा ।
मनसा वचसा चेति प्रणामोऽष्टांग उच्यते ॥ 98 ॥
तस्यै दिशे सततमंजलिरेष नित्यं
प्रक्षिप्यतां मुखरितैर्मधुरैः प्रसूनैः ।
जागर्ति यत्र भगवान् गुरुचक्रवर्ती
विश्वस्थितिप्रलयनाटकनित्यसाक्षी ॥ 99 ॥
अभ्यस्तैः किमु दीर्घकालविमलैर्व्याधिप्रदैर्दुष्करैः
प्राणायामशतैरनेककरणैर्दुःखात्मकैर्दुर्जयैः ।
यस्मिन्नभ्युदिते विनश्यति बली वायुः स्वयं तत्क्षणात्
प्राप्तुं तत्सहजस्वभावमनिशं सेवेत चैकं गुरुम् ॥ 100 ॥
ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरुभक्तितः ।
गुरोस्समानतो नान्यत् साधनं गुरुमार्गिणाम् ॥ 101 ॥
यस्मात्परतरं नास्ति नेति नेतीति वै श्रुतिः ।
मनसा वचसा चैव सत्यमाराधयेद्गुरुम् ॥ 102 ॥
गुरोः कृपाप्रसादेन ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
सामर्थ्यमभजन् सर्वे सृष्टिस्थित्यंतकर्मणि ॥ 103 ॥
देवकिन्नरगंधर्वाः पितृयक्षास्तु तुंबुरः ।
मुनयोऽपि न जानंति गुरुशुश्रूषणे विधिम् ॥ 104 ॥
तार्किकाश्छांदसाश्चैव दैवज्ञाः कर्मठाः प्रिये ।
लौकिकास्ते न जानंति गुरुतत्त्वं निराकुलम् ॥ 105 ॥
महाहंकारगर्वेण ततोविद्याबलेन च ।
भ्रमंति चास्मिन् संसारे घटीयंत्रं यथा पुनः ॥ 106 ॥
यज्ञिनोऽपि न मुक्ताः स्युः न मुक्ता योगिनस्तथा ।
तापसा अपि नो मुक्ता गुरुतत्त्वात्पराङ्मुखाः ॥ 107 ॥
न मुक्तास्तु च गंधर्वाः पितृयक्षास्तु चारणाः ।
ऋषयः सिद्धदेवाद्या गुरुसेवापराङ्मुखाः ॥ 108 ॥
इति श्रीस्कंदपुराणे उत्तरखंडे उमामहेश्वर संवादे
श्री गुरुगीतायां प्रथमोऽध्यायः ॥
श्री गुरुगीता द्वितीयोध्यायः
अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥
ध्यानं श्रुणु महादेवि सर्वानंदप्रदायकम् ।
सर्वसौख्यकरं चैव भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥ 109 ॥
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं स्मरामि
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं भजामि ।
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं वदामि
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं नमामि ॥ 110 ॥
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥ 111 ॥
हृदंबुजे कर्णिकमध्यसंस्थे
सिंहासने संस्थितदिव्यमूर्तिम् ।
ध्यायेद्गुरुं चंद्रकलाप्रकाशं
सच्चित्सुखाभीष्टवरं दधानम् ॥ 112 ॥
श्वेतांबरं श्वेतविलेपपुष्पं
मुक्ताविभूषं मुदितं द्विनेत्रम् ।
वामांकपीठस्थितदिव्यशक्तिं
मंदस्मितं पूर्णकृपानिधानम् ॥ 113 ॥
आनंदमानंदकरं प्रसन्नं
ज्ञानस्वरूपं निजभावयुक्तम् ।
योगींद्रमीड्यं भवरोगवैद्यं
श्रीमद्गुरुं नित्यमहं नमामि ॥ 114 ॥
वंदे गुरूणां चरणारविंदं
संदर्शितस्वात्मसुखावबोधे ।
जनस्य ये जांगलिकायमाने
संसारहालाहलमोहशांत्यै ॥ 115 ॥
यस्मिन् सृष्टिस्थितिध्वंसनिग्रहानुग्रहात्मकम् ।
कृत्यं पंचविधं शश्वत् भासते तं गुरुं भजेत् ॥ 116 ॥
पादाब्जे सर्वसंसारदावकालानलं स्वके ।
ब्रह्मरंध्रे स्थितांभोजमध्यस्थं चंद्रमंडलम् ॥ 117 ॥
अकथादित्रिरेखाब्जे सहस्रदलमंडले ।
हंसपार्श्वत्रिकोणे च स्मरेत्तन्मध्यगं गुरुम् ॥ 118 ॥
नित्यं शुद्धं निराभासं निराकारं निरंजनम् ।
नित्यबोधं चिदानंदं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम् ॥ 119 ॥
सकलभुवनसृष्टिः कल्पिताशेषसृष्टिः
निखिलनिगमदृष्टिः सत्पदार्थैकसृष्टिः ।
अतद्गणपरमेष्टिः सत्पदार्थैकदृष्टिः
भवगुणपरमेष्टिर्मोक्षमार्गैकदृष्टिः ॥ 120 ॥
सकलभुवनरंगस्थापनास्तंभयष्टिः
सकरुणरसवृष्टिस्तत्त्वमालासमष्टिः ।
सकलसमयसृष्टिस्सच्चिदानंददृष्टिः
निवसतु मयि नित्यं श्रीगुरोर्दिव्यदृष्टिः ॥ 121 ॥
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम् ।
शिवशासनतः शिवशासनतः
शिवशासनतः शिवशासनतः ॥ 122 ॥
इदमेव शिवं इदमेव शिवं
इदमेव शिवं इदमेव शिवम् ।
हरिशासनतो हरिशासनतो
हरिशासनतो हरिशासनतः ॥ 123 ॥
विदितं विदितं विदितं विदितं
विजनं विजनं विजनं विजनम् ।
विधिशासनतो विधिशासनतो
विधिशासनतो विधिशासनतः ॥ 124 ॥
एवंविधं गुरुं ध्यात्वा ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम् ।
तदा गुरूपदेशेन मुक्तोऽहमिति भावयेत् ॥ 125 ॥
गुरूपदिष्टमार्गेण मनश्शुद्धिं तु कारयेत् ।
अनित्यं खंडयेत्सर्वं यत्किंचिदात्मगोचरम् ॥ 126 ॥
ज्ञेयं सर्वं प्रतीतं च ज्ञानं च मन उच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं समं कुर्यान्नान्यः पंथा द्वितीयकः ॥ 127 ॥
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटिशतैरपि ।
दुर्लभा चित्तविश्रांतिः विना गुरुकृपां पराम् ॥ 128 ॥
करुणाखड्गपातेन छित्वा पाशाष्टकं शिशोः ।
सम्यगानंदजनकः सद्गुरुः सोऽभिधीयते ॥ 129 ॥
एवं श्रुत्वा महादेवि गुरुनिंदां करोति यः ।
स याति नरकान् घोरान् यावच्चंद्रदिवाकरौ ॥ 130 ॥
यावत्कल्पांतको देहस्तावद्देवि गुरुं स्मरेत् ।
गुरुलोपो न कर्तव्यः स्वच्छंदो यदि वा भवेत् ॥ 131 ॥
हुंकारेण न वक्तव्यं प्राज्ञशिष्यैः कदाचन ।
गुरोरग्र न वक्तव्यमसत्यं तु कदाचन ॥ 132 ॥
गुरुं त्वंकृत्य हुंकृत्य गुरुसान्निध्यभाषणः ।
अरण्ये निर्जले देशे संभवेद् ब्रह्मराक्षसः ॥ 133 ॥
अद्वैतं भावयेन्नित्यं सर्वावस्थासु सर्वदा ।
कदाचिदपि नो कुर्यादद्वैतं गुरुसन्निधौ ॥ 134 ॥
दृश्यविस्मृतिपर्यंतं कुर्याद् गुरुपदार्चनम् ।
तादृशस्यैव कैवल्यं न च तद्व्यतिरेकिणः ॥ 135 ॥
अपि संपूर्णतत्त्वज्ञो गुरुत्यागी भवेद्यदा ।
भवत्येव हि तस्यांतकाले विक्षेपमुत्कटम् ॥ 136 ॥
गुरुकार्यं न लंघेत नापृष्ट्वा कार्यमाचरेत् ।
न ह्युत्तिष्ठेद्दिशेऽनत्वा गुरुसद्भावशोभितः ॥ 137 ॥
गुरौ सति स्वयं देवि परेषां तु कदाचन ।
उपदेशं न वै कुर्यात् तथा चेद्राक्षसो भवेत् ॥ 138 ॥
न गुरोराश्रमे कुर्यात् दुष्पानं परिसर्पणम् ।
दीक्षा व्याख्या प्रभुत्वादि गुरोराज्ञां न कारयेत् ॥ 139 ॥
नोपाश्रयं च पर्यकं न च पादप्रसारणम् ।
नांगभोगादिकं कुर्यान्न लीलामपरामपि ॥ 140 ॥
गुरूणां सदसद्वाऽपि यदुक्तं तन्न लंघयेत् ।
कुर्वन्नाज्ञां दिवा रात्रौ दासवन्निवसेद्गुरो ॥ 141 ॥
अदत्तं न गुरोर्द्रव्यमुपभुंजीत कर्हिचित् ।
दत्ते च रंकवद्ग्राह्यं प्राणोऽप्येतेन लभ्यते ॥ 142 ॥
पादुकासनशय्यादि गुरुणा यदभीष्टितम् ।
नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित् ॥ 143 ॥
गच्छतः पृष्ठतो गच्छेत् गुरुच्छायां न लंघयेत् ।
नोल्बणं धारयेद्वेषं नालंकारांस्ततोल्बणान् ॥ 144 ॥
गुरुनिंदाकरं दृष्ट्वा धावयेदथ वासयेत् ।
स्थानं वा तत्परित्याज्यं जिह्वाच्छेदाक्षमो यदि ॥ 145 ॥
नोच्छिष्टं कस्यचिद्देयं गुरोराज्ञां न च त्यजेत् ।
कृत्स्नमुच्छिष्टमादाय हविरिव भक्षयेत्स्वयम् ॥ 146 ॥
नाऽनृतं नाऽप्रियं चैव न गर्वं नाऽपि वा बहु ।
न नियोगपरं ब्रूयात् गुरोराज्ञां विभावयेत् ॥ 147 ॥
प्रभो देवकुलेशानां स्वामिन् राजन् कुलेश्वर ।
इति संबोधनैर्भीतो गुरुभावेन सर्वदा ॥ 148 ॥
मुनिभिः पन्नगैर्वापि सुरैर्वा शापितो यदि ।
कालमृत्युभयाद्वापि गुरुः संत्राति पार्वति ॥ 149 ॥
अशक्ता हि सुराद्याश्च ह्यशक्ताः मुनयस्तथा ।
गुरुशापोपपन्नस्य रक्षणाय च कुत्रचित् ॥ 150 ॥
मंत्रराजमिदं देवि गुरुरित्यक्षरद्वयम् ।
स्मृतिवेदपुराणानां सारमेव न संशयः ॥ 151 ॥
सत्कारमानपूजार्थं दंडकाषयधारणः ।
स सन्न्यासी न वक्तव्यः सन्न्यासी ज्ञानतत्परः ॥ 152 ॥
विजानंति महावाक्यं गुरोश्चरण सेवया ।
ते वै सन्न्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः ॥ 153 ॥
[पाठभेदः –
नित्यं ब्रह्म निराकारं निर्गुणं बोधयेत्परम् ।
भासयन् ब्रह्मभावं च दीपो दीपांतरं यथा ॥
]
नित्यं ब्रह्म निराकारं निर्गुणं सत्यचिद्धनम् ।
यः साक्षात्कुरुते लोके गुरुत्वं तस्य शोभते ॥ 154 ॥
गुरुप्रसादतः स्वात्मन्यात्मारामनिरीक्षणात् ।
समता मुक्तिमार्गेण स्वात्मज्ञानं प्रवर्तते ॥ 155 ॥
आब्रह्मस्तंबपर्यंतं परमात्मस्वरूपकम् ।
स्थावरं जंगमं चैव प्रणमामि जगन्मयम् ॥ 156 ॥
वंदेऽहं सच्चिदानंदं भावातीतं जगद्गुरुम् ।
नित्यं पूर्णं निराकारं निर्गुणं स्वात्मसंस्थितम् ॥ 157 ॥
परात्परतरं ध्यायेन्नित्यमानंदकारकम् ।
हृदयाकाशमध्यस्थं शुद्धस्फटिकसन्निभम् ॥ 158 ॥
स्फाटिके स्फाटिकं रूपं दर्पणे दर्पणो यथा ।
तथाऽऽत्मनि चिदाकारमानंदं सोऽहमित्युत ॥ 159 ॥
अंगुष्ठमात्रं पुरुषं ध्यायेच्च चिन्मयं हृदि ।
तत्र स्फुरति यो भावः शृणु तत्कथयामि ते ॥ 160 ॥
अजोऽहममरोऽहं च अनादिनिधनो ह्यहम् ।
अविकारश्चिदानंदो ह्यणीयान्महतो महान् ॥ 161 ॥
अपूर्वमपरं नित्यं स्वयंज्योतिर्निरामयम् ।
विरजं परमाकाशं ध्रुवमानंदमव्ययम् ॥ 162 ॥
अगोचरं तथाऽगम्यं नामरूपविवर्जितम् ।
निश्शब्दं तु विजानीयात्स्वभावाद्ब्रह्म पार्वति ॥ 163 ॥
यथा गंधस्वभावत्वं कर्पूरकुसुमादिषु ।
शीतोष्णत्वस्वभावत्वं तथा ब्रह्मणि शाश्वतम् ॥ 164 ॥
यथा निजस्वभावेन कुंडले कटकादयः ।
सुवर्णत्वेन तिष्ठंति तथाऽहं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ 165 ॥
स्वयं तथाविधो भूत्वा स्थातव्यं यत्र कुत्र चित् ।
कीटो भृंग इव ध्यानाद्यथा भवति तादृशः ॥ 166 ॥
गुरुध्यानं तथा कृत्वा स्वयं ब्रह्ममयो भवेत् ।
पिंडे पदे तथा रूपे मुक्तास्ते नात्र संशयः ॥ 167 ॥
श्रीपार्वती उवाच ।
पिंडं किं तु महादेव पदं किं समुदाहृतम् ।
रूपातीतं च रूपं किं एतदाख्याहि शंकर ॥ 168 ॥
श्रीमहादेव उवाच ।
पिंडं कुंडलिनी शक्तिः पदं हंसमुदाहृतम् ।
रूपं बिंदुरिति ज्ञेयं रूपातीतं निरंजनम् ॥ 169 ॥
पिंडे मुक्ताः पदे मुक्ता रूपे मुक्ता वरानने ।
रूपातीते तु ये मुक्तास्ते मुक्ता नाऽत्र संशयः ॥ 170 ॥
गुरुर्ध्यानेनैव नित्यं देही ब्रह्ममयो भवेत् ।
स्थितश्च यत्र कुत्राऽपि मुक्तोऽसौ नाऽत्र संशयः ॥ 171 ॥
ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्यं यशश्रीः स्वमुदाहृतम् ।
षड्गुणैश्वर्ययुक्तो हि भगवान् श्रीगुरुः प्रिये ॥ 172 ॥
गुरुश्शिवो गुरुर्देवो गुरुर्बंधुः शरीरिणाम् ।
गुरुरात्मा गुरुर्जीवो गुरोरन्यन्न विद्यते ॥ 173 ॥
एकाकी निस्स्पृहः शांतश्चिंताऽसूयादिवर्जितः ।
बाल्यभावेन यो भाति ब्रह्मज्ञानी स उच्यते ॥ 174 ॥
न सुखं वेदशास्त्रेषु न सुखं मंत्रयंत्रके ।
गुरोः प्रसादादन्यत्र सुखं नास्ति महीतले ॥ 175 ॥
चार्वाकवैष्णवमते सुखं प्राभाकरे न हि ।
गुरोः पादांतिके यद्वत्सुखं वेदांतसम्मतम् ॥ 176 ॥
न तत्सुखं सुरेंद्रस्य न सुखं चक्रवर्तिनाम् ।
यत्सुखं वीतरागस्य मुनेरेकांतवासिनः ॥ 177 ॥
नित्यं ब्रह्मरसं पीत्वा तृप्तो यः परमात्मनि ।
इंद्रं च मन्यते तुच्छं नृपाणां तत्र का कथा ॥ 178 ॥
यतः परमकैवल्यं गुरुमार्गेण वै भवेत् ।
गुरुभक्तिरतः कार्या सर्वदा मोक्षकांक्षिभिः ॥ 179 ॥
एक एवाऽद्वितीयोऽहं गुरुवाक्येन निश्चितः ।
एवमभ्यस्यता नित्यं न सेव्यं वै वनांतरम् ॥ 180 ॥
अभ्यासान्निमिषेणैव समाधिमधिगच्छति ।
आजन्मजनितं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥ 181 ॥
किमावाहनमव्यक्ते व्यापके किं विसर्जनम् ।
अमूर्ते च कथं पूजा कथं ध्यानं निरामये ॥ 182 ॥
गुरुर्विष्णुः सत्त्वमयो राजसश्चतुराननः ।
तामसो रुद्ररूपेण सृजत्यवति हंति च ॥ 183 ॥
स्वयं ब्रह्ममयो भूत्वा तत्परं चावलोकयेत् ।
परात्परतरं नान्यत् सर्वगं तन्निरामयम् ॥ 184 ॥
तस्यावलोकनं प्राप्य सर्वसंगविवर्जितः ।
एकाकी निस्स्पृहः शांतः स्थातव्यं तत्प्रसादतः ॥ 185 ॥
लब्धं वाऽथ न लब्धं वा स्वल्पं वा बहुलं तथा ।
निष्कामेनैव भोक्तव्यं सदा संतुष्टमानसः ॥ 186 ॥
सर्वज्ञपदमित्याहुर्देही सर्वमयो भुवि ।
सदाऽऽनंदः सदा शांतो रमते यत्र कुत्र चित् ॥ 187 ॥
यत्रैव तिष्ठते सोऽपि स देशः पुण्यभाजनः ।
मुक्तस्य लक्षणं देवि तवाऽग्रे कथितं मया ॥ 188 ॥
उपदेशस्त्वयं देवि गुरुमार्गेण मुक्तिदः ।
गुरुभक्तिः तथाऽत्यंता कर्तव्या वै मनीषिभिः ॥ 189 ॥
नित्ययुक्ताश्रयः सर्ववेदकृत्सर्ववेदकृत् ।
स्वपरज्ञानदाता च तं वंदे गुरुमीश्वरम् ॥ 190 ॥
यद्यप्यधीता निगमाः षडंगा आगमाः प्रिये ।
अध्यात्मादीनि शास्त्राणि ज्ञानं नास्ति गुरुं विना ॥ 191 ॥
शिवपूजारतो वाऽपि विष्णुपूजारतोऽथवा ।
गुरुतत्त्वविहीनश्चेत्तत्सर्वं व्यर्थमेव हि ॥ 192 ॥
शिवस्वरूपमज्ञात्वा शिवपूजा कृता यदि ।
सा पूजा नाममात्रं स्याच्चित्रदीप इव प्रिये ॥ 193 ॥
सर्वं स्यात्सफलं कर्म गुरुदीक्षाप्रभावतः ।
गुरुलाभात्सर्वलाभो गुरुहीनस्तु बालिशः ॥ 194 ॥
गुरुहीनः पशुः कीटः पतंगो वक्तुमर्हति ।
शिवरूपं स्वरूपं च न जानाति यतस्स्वयम् ॥ 195 ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सर्वसंगविवर्जितः ।
विहाय शास्त्रजालानि गुरुमेव समाश्रयेत् ॥ 196 ॥
निरस्तसर्वसंदेहो एकीकृत्य सुदर्शनम् ।
रहस्यं यो दर्शयति भजामि गुरुमीश्वरम् ॥ 197 ॥
ज्ञानहीनो गुरुस्त्याज्यो मिथ्यावादी विडंबकः ।
स्वविश्रांतिं न जानाति परशांतिं करोति किम् ॥ 198 ॥
शिलायाः किं परं ज्ञानं शिलासंघप्रतारणे ।
स्वयं तर्तुं न जानाति परं निस्तारयेत् कथम् ॥ 199 ॥
न वंदनीयास्ते कष्टं दर्शनाद्भ्रांतिकारकाः ।
वर्जयेत्तान् गुरून् दूरे धीरस्य तु समाश्रयेत् ॥ 200 ॥
पाषंडिनः पापरताः नास्तिका भेदबुद्धयः ।
स्त्रीलंपटा दुराचाराः कृतघ्ना बकवृत्तयः ॥ 201 ॥
कर्मभ्रष्टाः क्षमानष्टा निंद्यतर्कैश्च वादिनः ।
कामिनः क्रोधिनश्चैव हिंस्राश्चंडाः शठास्तथा ॥ 202 ॥
ज्ञानलुप्ता न कर्तव्या महापापास्तथा प्रिये ।
एभ्यो भिन्नो गुरुः सेव्यः एकभक्त्या विचार्य च ॥ 203 ॥
शिष्यादन्यत्र देवेशि न वदेद्यस्य कस्यचित् ।
नराणां च फलप्राप्तौ भक्तिरेव हि कारणम् ॥ 204 ॥
गूढो दृढश्च प्रीतश्च मौनेन सुसमाहितः ।
सकृत्कामगतो वाऽपि पंचधा गुरुरीरितः ॥ 205 ॥
सर्वं गुरुमुखाल्लब्धं सफलं पापनाशनम् ।
यद्यदात्महितं वस्तु तत्तद्द्रव्यं न वंचयेत् ॥ 206 ॥
गुरुदेवार्पणं वस्तु तेन तुष्टोऽस्मि सुव्रते ।
श्रीगुरोः पादुकां मुद्रां मूलमंत्रं च गोपयेत् ॥ 207 ॥
नताऽस्मि ते नाथ पदारविंदं
बुद्धींद्रियप्राणमनोवचोभिः ।
यच्चिंत्यते भावित आत्मयुक्तौ
मुमुक्षिभिः कर्ममयोपशांतये ॥ 208 ॥
अनेन यद्भवेत्कार्यं तद्वदामि तव प्रिये ।
लोकोपकारकं देवि लौकिकं तु विवर्जयेत् ॥ 209 ॥
लौकिकाद्धर्मतो याति ज्ञानहीनो भवार्णवे ।
ज्ञानभावे च यत्सर्वं कर्म निष्कर्म शाम्यति ॥ 210 ॥
इमां तु भक्तिभावेन पठेद्वै शृणुयादपि ।
लिखित्वा यत्प्रदानेन तत्सर्वं फलमश्नुते ॥ 211 ॥
गुरुगीतामिमां देवि हृदि नित्यं विभावय ।
महाव्याधिगतैर्दुःखैः सर्वदा प्रजपेन्मुदा ॥ 212 ॥
गुरुगीताक्षरैकैकं मंत्रराजमिदं प्रिये ।
अन्ये च विविधाः मंत्राः कलां नार्हंति षोडशीम् ॥ 213 ॥
अनंत फलमाप्नोति गुरुगीता जपेन तु ।
सर्वपापहरा देवि सर्वदारिद्र्यनाशिनी ॥ 214 ॥
अकालमृत्युहरा चैव सर्वसंकटनाशिनी ।
यक्षराक्षसभूतादिचोरव्याघ्रविघातिनी ॥ 215 ॥
सर्वोपद्रवकुष्ठादिदुष्टदोषनिवारिणी ।
यत्फलं गुरुसान्निध्यात्तत्फलं पठनाद्भवेत् ॥ 216 ॥
महाव्याधिहरा सर्वविभूतेः सिद्धिदा भवेत् ।
अथवा मोहने वश्ये स्वयमेव जपेत्सदा ॥ 217 ॥
कुशदूर्वासने देवि ह्यासने शुभ्रकंबले ।
उपविश्य ततो देवि जपेदेकाग्रमानसः ॥ 218 ॥
शुक्लं सर्वत्र वै प्रोक्तं वश्ये रक्तासनं प्रिये ।
पद्मासने जपेन्नित्यं शांतिवश्यकरं परम् ॥ 219 ॥
वस्त्रासने च दारिद्र्यं पाषाणे रोगसंभवः ।
मेदिन्यां दुःखमाप्नोति काष्ठे भवति निष्फलम् ॥ 220 ॥
कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिः मोक्षश्रीर्व्याघ्रचर्मणि ।
कुशासने ज्ञानसिद्धिः सर्वसिद्धिस्तु कंबले ॥ 221 ॥
आग्नेय्यां कर्षणं चैव वायव्यां शत्रुनाशनम् ।
नैरृत्यां दर्शनं चैव ईशान्यां ज्ञानमेव च ॥ 222 ॥
उदङ्मुखः शांतिजाप्ये वश्ये पूर्वमुखस्तथा ।
याम्ये तु मारणं प्रोक्तं पश्चिमे च धनागमः ॥ 223 ॥
मोहनं सर्वभूतानां बंधमोक्षकरं परम् ।
देवराजप्रियकरं राजानं वशमानयेत् ॥ 224 ॥
मुखस्तंभकरं चैव गुणानां च विवर्धनम् ।
दुष्कर्मनाशनं चैव तथा सत्कर्मसिद्धिदम् ॥ 225 ॥
असिद्धं साधयेत्कार्यं नवग्रहभयापहम् ।
दुःस्वप्ननाशनं चैव सुस्वप्नफलदायकम् ॥ 226 ॥
मोहशांतिकरं चैव बंधमोक्षकरं परम् ।
स्वरूपज्ञाननिलयं गीताशास्त्रमिदं शिवे ॥ 227 ॥
यं यं चिंतयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चयम् ।
नित्यं सौभाग्यदं पुण्यं तापत्रयकुलापहम् ॥ 228 ॥
सर्वशांतिकरं नित्यं तथा वंध्या सुपुत्रदम् ।
अवैधव्यकरं स्त्रीणां सौभाग्यस्य विवर्धनम् ॥ 229 ॥
आयुरारोग्यमैश्वर्यं पुत्रपौत्रविवर्धनम् ।
निष्कामजापी विधवा पठेन्मोक्षमवाप्नुयात् ॥ 230 ॥
अवैधव्यं सकामा तु लभते चान्यजन्मनि ।
सर्वदुःखमयं विघ्नं नाशयेत्तापहारकम् ॥ 231 ॥
सर्वपापप्रशमनं धर्मकामार्थमोक्षदम् ।
यं यं चिंतयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ॥ 232 ॥
काम्यानां कामधेनुर्वै कल्पते कल्पपादपः ।
चिंतामणिश्चिंतितस्य सर्वमंगलकारकम् ॥ 233 ॥
लिखित्वा पूजयेद्यस्तु मोक्षश्रियमवाप्नुयात् ।
गुरूभक्तिर्विशेषेण जायते हृदि सर्वदा ॥ 234 ॥
जपंति शाक्ताः सौराश्च गाणपत्याश्च वैष्णवाः ।
शैवाः पाशुपताः सर्वे सत्यं सत्यं न संशयः ॥ 235 ॥
इति श्रीस्कंदपुराणे उत्तरखंडे उमामहेश्वर संवादे
श्री गुरुगीतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥
श्री गुरुगीता तृतीयोध्यायः
अथ तृतीयोऽध्यायः ॥
अथ काम्यजपस्थानं कथयामि वरानने ।
सागरांते सरित्तीरे तीर्थे हरिहरालये ॥ 236 ॥
शक्तिदेवालये गोष्ठे सर्वदेवालये शुभे ।
वटस्य धात्र्या मूले वा मठे बृंदावने तथा ॥ 237 ॥
पवित्रे निर्मले देशे नित्यानुष्ठानतोऽपि वा ।
निर्वेदनेन मौनेन जपमेतत् समारभेत् ॥ 238 ॥
जाप्येन जयमाप्नोति जपसिद्धिं फलं तथा ।
हीनं कर्म त्यजेत्सर्वं गर्हितस्थानमेव च ॥ 239 ॥
श्मशाने बिल्वमूले वा वटमूलांतिके तथा ।
सिद्ध्यंति कानके मूले चूतवृक्षस्य सन्निधौ ॥ 240 ॥
पीतासनं मोहने तु ह्यसितं चाभिचारिके ।
ज्ञेयं शुक्लं च शांत्यर्थं वश्ये रक्तं प्रकीर्तितम् ॥ 241 ॥
जपं हीनासनं कुर्वन् हीनकर्मफलप्रदम् ।
गुरुगीतां प्रयाणे वा संग्रामे रिपुसंकटे ॥ 242 ॥
जपन् जयमवाप्नोति मरणे मुक्तिदायिका ।
सर्वकर्माणि सिद्ध्यंति गुरुपुत्रे न संशयः ॥ 243 ॥
गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्ध्यंति नाऽन्यथा ।
दीक्षया सर्वकर्माणि सिद्ध्यंति गुरुपुत्रके ॥ 244 ॥
भवमूलविनाशाय चाष्टपाशनिवृत्तये ।
गुरुगीतांभसि स्नानं तत्त्वज्ञः कुरुते सदा ॥ 245 ॥
स एवं सद्गुरुः साक्षात् सदसद्ब्रह्मवित्तमः ।
तस्य स्थानानि सर्वाणि पवित्राणि न संशयः ॥ 246 ॥
सर्वशुद्धः पवित्रोऽसौ स्वभावाद्यत्र तिष्ठति ।
तत्र देवगणाः सर्वे क्षेत्रपीठे चरंति च ॥ 247 ॥
आसनस्थाः शयाना वा गच्छंतस्तिष्ठतोऽपि वा ।
अश्वारूढा गजारूढाः सुषुप्ता जाग्रतोऽपि वा ॥ 248 ॥
शुचिर्भूता ज्ञानवंतो गुरुगीतां जपंति ये ।
तेषां दर्शनसंस्पर्शात् दिव्यज्ञानं प्रजायते ॥ 249 ॥
समुद्रे वै यथा तोयं क्षीरे क्षीरं जले जलम् ।
भिन्ने कुंभे यथाऽऽकाशं तथाऽऽत्मा परमात्मनि ॥ 250 ॥
तथैव ज्ञानवान् जीवः परमात्मनि सर्वदा ।
ऐक्येन रमते ज्ञानी यत्र कुत्र दिवानिशम् ॥ 251 ॥
एवंविधो महायुक्तः सर्वत्र वर्तते सदा ।
तस्मात्सर्वप्रकारेण गुरुभक्तिं समाचरेत् ॥ 252 ॥
गुरुसंतोषणादेव मुक्तो भवति पार्वति ।
अणिमादिषु भोक्तृत्वं कृपया देवि जायते ॥ 253 ॥
साम्येन रमते ज्ञानी दिवा वा यदि वा निशि ।
एवंविधो महामौनी त्रैलोक्यसमतां व्रजेत् ॥ 254 ॥
अथ संसारिणः सर्वे गुरुगीता जपेन तु ।
सर्वान् कामांस्तु भुंजंति त्रिसत्यं मम भाषितम् ॥ 255 ॥
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं धर्मसारं मयोदितम् ।
गुरुगीतासमं स्तोत्रं नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् ॥ 256 ॥
गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः ।
गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ॥ 257 ॥
धन्या माता पिता धन्यो गोत्रं धन्यं कुलोद्भवः ।
धन्या च वसुधा देवि यत्र स्याद्गुरुभक्तता ॥ 258 ॥
आकल्पजन्म कोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः ।
ताः सर्वाः सफला देवि गुरूसंतोषमात्रतः ॥ 259 ॥
शरीरमिंद्रियं प्राणमर्थं स्वजनबंधुता ।
मातृकुलं पितृकुलं गुरुरेव न संशयः ॥ 260 ॥
मंदभाग्या ह्यशक्ताश्च ये जना नानुमन्वते ।
गुरुसेवासु विमुखाः पच्यंते नरकेऽशुचौ ॥ 261 ॥
विद्या धनं बलं चैव तेषां भाग्यं निरर्थकम् ।
येषां गुरूकृपा नास्ति अधो गच्छंति पार्वति ॥ 262 ॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च देवाश्च पितृकिन्नराः ।
सिद्धचारणयक्षाश्च अन्ये च मुनयो जनाः ॥ 263 ॥
गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम् ।
सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चरणांबुजम् ॥ 264 ॥
कन्याभोगरता मंदाः स्वकांतायाः पराङ्मुखाः ।
अतः परं मया देवि कथितं न मम प्रिये ॥ 265 ॥
इदं रहस्यमस्पष्टं वक्तव्यं च वरानने ।
सुगोप्यं च तवाग्रे तु ममात्मप्रीतये सति ॥ 266 ॥
स्वामिमुख्यगणेशाद्यान् वैष्णवादींश्च पार्वति ।
न वक्तव्यं महामाये पादस्पर्शं कुरुष्व मे ॥ 267 ॥
अभक्ते वंचके धूर्ते पाषंडे नास्तिकादिषु ।
मनसाऽपि न वक्तव्या गुरुगीता कदाचन ॥ 268 ॥
गुरवो बहवः संति शिष्यवित्तापहारकाः ।
तमेकं दुर्लभं मन्ये शिष्यहृत्तापहारकम् ॥ 269 ॥
चातुर्यवान् विवेकी च अध्यात्मज्ञानवान् शुचिः ।
मानसं निर्मलं यस्य गुरुत्वं तस्य शोभते ॥ 270 ॥
गुरवो निर्मलाः शांताः साधवो मितभाषिणः ।
कामक्रोधविनिर्मुक्ताः सदाचाराः जितेंद्रियाः ॥ 271 ॥
सूचकादिप्रभेदेन गुरवो बहुधा स्मृताः ।
स्वयं सम्यक् परीक्ष्याथ तत्त्वनिष्ठं भजेत्सुधीः ॥ 272 ॥
वर्णजालमिदं तद्वद्बाह्यशास्त्रं तु लौकिकम् ।
यस्मिन् देवि समभ्यस्तं स गुरुः सुचकः स्मृतः ॥ 273 ॥
वर्णाश्रमोचितां विद्यां धर्माधर्मविधायिनीम् ।
प्रवक्तारं गुरुं विद्धि वाचकं त्विति पार्वति ॥ 274 ॥
पंचाक्षर्यादिमंत्राणामुपदेष्टा तु पार्वति ।
स गुरुर्बोधको भूयादुभयोरयमुत्तमः ॥ 275 ॥
मोहमारणवश्यादितुच्छमंत्रोपदेशिनम् ।
निषिद्धगुरुरित्याहुः पंडितास्तत्त्वदर्शिनः ॥ 276 ॥
अनित्यमिति निर्दिश्य संसारं संकटालयम् ।
वैराग्यपथदर्शी यः स गुरुर्विहितः प्रिये ॥ 277 ॥
तत्त्वमस्यादिवाक्यानामुपदेष्टा तु पार्वति ।
कारणाख्यो गुरुः प्रोक्तो भवरोगनिवारकः ॥ 278 ॥
सर्वसंदेहसंदोहनिर्मूलनविचक्षणः ।
जन्ममृत्युभयघ्नो यः स गुरुः परमो मतः ॥ 279 ॥
बहुजन्मकृतात् पुण्याल्लभ्यतेऽसौ महागुरुः ।
लब्ध्वाऽमुं न पुनर्याति शिष्यः संसारबंधनम् ॥ 280 ॥
एवं बहुविधा लोके गुरवः संति पार्वति ।
तेषु सर्वप्रयत्नेन सेव्यो हि परमो गुरुः ॥ 281 ॥
निषिद्धगुरुशिष्यस्तु दुष्टसंकल्पदूषितः ।
ब्रह्मप्रलयपर्यंतं न पुनर्याति मर्त्यताम् ॥ 282 ॥
एवं श्रुत्वा महादेवी महादेववचस्तथा ।
अत्यंतविह्वलमनाः शंकरं परिपृच्छति ॥ 283 ॥
पार्वत्युवाच ।
नमस्ते देवदेवात्र श्रोतव्यं किंचिदस्ति मे ।
श्रुत्वा त्वद्वाक्यमधुना भृशं स्याद्विह्वलं मनः ॥ 284 ॥
स्वयं मूढा मृत्युभीताः सुकृताद्विरतिं गताः ।
दैवान्निषिद्धगुरुगा यदि तेषां तु का गतिः ॥ 285 ॥
श्री महादेव उवाच ।
शृणु तत्त्वमिदं देवि यदा स्याद्विरतो नरः ।
तदाऽसावधिकारीति प्रोच्यते श्रुतिमस्तकैः ॥ 286 ॥
अखंडैकरसं ब्रह्म नित्यमुक्तं निरामयम् ।
स्वस्मिन् संदर्शितं येन स भवेदस्यं देशिकः ॥ 287 ॥
जलानां सागरो राजा यथा भवति पार्वति ।
गुरूणां तत्र सर्वेषां राजाऽयं परमो गुरुः ॥ 288 ॥
मोहादिरहितः शांतो नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
तृणीकृतब्रह्मविष्णुवैभवः परमो गुरुः ॥ 289 ॥
सर्वकालविदेशेषु स्वतंत्रो निश्चलस्सुखी ।
अखंडैकरसास्वादतृप्तो हि परमो गुरुः ॥ 290 ॥
द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तः स्वानुभूतिप्रकाशवान् ।
अज्ञानांधतमश्छेत्ता सर्वज्ञः परमो गुरुः ॥ 291 ॥
यस्य दर्शनमात्रेण मनसः स्यात् प्रसन्नता ।
स्वयं भूयात् धृतिश्शांतिः स भवेत् परमो गुरुः ॥ 292 ॥
सिद्धिजालं समालोक्य योगिनां मंत्रवादिनाम् ।
तुच्छाकारमनोवृत्तिः यस्यासौ परमो गुरुः ॥ 293 ॥
स्वशरीरं शवं पश्यन् तथा स्वात्मानमद्वयम् ।
यः स्त्रीकनकमोहघ्नः स भवेत् परमो गुरुः ॥ 294 ॥
मौनी वाग्मीति तत्त्वज्ञो द्विधाऽभूच्छृणु पार्वति ।
न कश्चिन्मौनिनां लोभो लोकेऽस्मिन्भवति प्रिये ॥ 295 ॥
वाग्मी तूत्कटसंसारसागरोत्तारणक्षमः ।
यतोऽसौ संशयच्छेत्ता शास्त्रयुक्त्यनुभूतिभिः ॥ 296 ॥
गुरुनामजपाद्देवि बहुजन्मार्जितान्यपि ।
पापानि विलयं यांति नास्ति संदेहमण्वपि ॥ 297 ॥
श्रीगुरोस्सदृशं दैवं श्रीगुरोसदृशः पिता ।
गुरुध्यानसमं कर्म नास्ति नास्ति महीतले ॥ 298 ॥
कुलं धनं बलं शास्त्रं बांधवास्सोदरा इमे ।
मरणे नोपयुज्यंते गुरुरेको हि तारकः ॥ 299 ॥
कुलमेव पवित्रं स्यात् सत्यं स्वगुरुसेवया ।
तृप्ताः स्युस्सकला देवा ब्रह्माद्या गुरुतर्पणात् ॥ 300 ॥
गुरुरेको हि जानाति स्वरूपं देवमव्ययम् ।
तद्ज्ञानं यत्प्रसादेन नान्यथा शास्त्रकोटिभिः ॥ 301 ॥
स्वरूपज्ञानशून्येन कृतमप्यकृतं भवेत् ।
तपोजपादिकं देवि सकलं बालजल्पवत् ॥ 302 ॥
शिवं केचिद्धरिं केचिद्विधिं केचित्तु केचन ।
शक्तिं दैवमिति ज्ञात्वा विवदंति वृथा नराः ॥ 303 ॥
न जानंति परं तत्त्वं गुरुदीक्षापराङ्मुखाः ।
भ्रांताः पशुसमा ह्येते स्वपरिज्ञानवर्जिताः ॥ 304 ॥
तस्मात्कैवल्यसिद्ध्यर्थं गुरुमेव भजेत्प्रिये ।
गुरुं विना न जानंति मूढास्तत्परमं पदम् ॥ 305 ॥
भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यंते सर्वसंशयाः ।
क्षीयंते सर्वकर्माणि गुरोः करुणया शिवे ॥ 306 ॥
कृताया गुरुभक्तेस्तु वेदशास्त्रानुसारतः ।
मुच्यते पातकाद्घोरात् गुरुभक्तो विशेषतः ॥ 307 ॥
दुस्संगं च परित्यज्य पापकर्म परित्यजेत् ।
चित्तचिह्नमिदं यस्य तस्य दीक्षा विधीयते ॥ 308 ॥
चित्तत्यागनियुक्तश्च क्रोधगर्वविवर्जितः ।
द्वैतभावपरित्यागी तस्य दीक्षा विधीयते ॥ 309 ॥
एतल्लक्षणयुक्तत्वं सर्वभूतहिते रतम् ।
निर्मलं जीवितं यस्य तस्य दीक्षा विधीयते ॥ 310 ॥
क्रियया चान्वितं पूर्वं दीक्षाजालं निरूपितम् ।
मंत्रदीक्षाभिधं सांगोपांगं सर्वं शिवोदितम् ॥ 311 ॥
क्रियया स्याद्विरहितां गुरुसायुज्यदायिनीम् ।
गुरुदीक्षां विना को वा गुरुत्वाचारपालकः ॥ 312 ॥
शक्तो न चापि शक्तो वा दैशिकांघ्रि समाश्रयेत् ।
तस्य जन्मास्ति सफलं भोगमोक्षफलप्रदम् ॥ 313 ॥
अत्यंतचित्तपक्वस्य श्रद्धाभक्तियुतस्य च ।
प्रवक्तव्यमिदं देवि ममात्मप्रीतये सदा ॥ 314 ॥
रहस्यं सर्वशास्त्रेषु गीताशास्त्रमिदं शिवे ।
सम्यक्परीक्ष्य वक्तव्यं साधकस्य महात्मनः ॥ 315 ॥
सत्कर्मपरिपाकाच्च चित्तशुद्धिश्च धीमतः ।
साधकस्यैव वक्तव्या गुरुगीता प्रयत्नतः ॥ 316 ॥
नास्तिकाय कृतघ्नाय दांभिकाय शठाय च ।
अभक्ताय विभक्ताय न वाच्येयं कदाचन ॥ 317 ॥
स्त्रीलोलुपाय मूर्खाय कामोपहतचेतसे ।
निंदकाय न वक्तव्या गुरुगीता स्वभावतः ॥ 318 ॥
सर्वपापप्रशमनं सर्वोपद्रववारकम् ।
जन्ममृत्युहरं देवि गीताशास्त्रमिदं शिवे ॥ 319 ॥
श्रुतिसारमिदं देवि सर्वमुक्तं समासतः ।
नान्यथा सद्गतिः पुंसां विना गुरुपदं शिवे ॥ 320 ॥
बहुजन्मकृतात्पापादयमर्थो न रोचते ।
जन्मबंधनिवृत्त्यर्थं गुरुमेव भजेत्सदा ॥ 321 ॥
अहमेव जगत्सर्वमहमेव परं पदम् ।
एतद्ज्ञानं यतो भूयात्तं गुरुं प्रणमाम्यहम् ॥ 322 ॥
अलं विकल्पैरहमेव केवलं
मयि स्थितं विश्वमिदं चराचरम् ।
इदं रहस्यं मम येन दर्शितं
स वंदनीयो गुरुरेव केवलम् ॥ 323 ॥
यस्यांतं नादिमध्यं न हि करचरणं नामगोत्रं न सूत्रम् ।
नो जातिर्नैव वर्णो न भवति पुरुषो नो नपुंसो न च स्त्री ॥ 324 ॥
नाकारं नो विकारं न हि जनिमरणं नास्ति पुण्यं न पापम् ।
नोऽतत्त्वं तत्त्वमेकं सहजसमरसं सद्गुरुं तं नमामि ॥ 325 ॥
नित्याय सत्याय चिदात्मकाय
नव्याय भव्याय परात्पराय ।
शुद्धाय बुद्धाय निरंजनाय
नमोऽस्तु नित्यं गुरुशेखराय ॥ 326 ॥
सच्चिदानंदरूपाय व्यापिने परमात्मने ।
नमः श्रीगुरुनाथाय प्रकाशानंदमूर्तये ॥ 327 ॥
सत्यानंदस्वरूपाय बोधैकसुखकारिणे ।
नमो वेदांतवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे ॥ 328 ॥
नमस्ते नाथ भगवन् शिवाय गुरुरूपिणे ।
विद्यावतारसंसिद्ध्यै स्वीकृतानेकविग्रह ॥ 329 ॥
नवाय नवरूपाय परमार्थैकरूपिणे ।
सर्वाज्ञानतमोभेदभानवे चिद्घनाय ते ॥ 330 ॥
स्वतंत्राय दयाक्लुप्तविग्रहाय शिवात्मने ।
परतंत्राय भक्तानां भव्यानां भव्यरूपिणे ॥ 331 ॥
विवेकिनां विवेकाय विमर्शाय विमर्शिनाम् ।
प्रकाशिनां प्रकाशाय ज्ञानिनां ज्ञानरूपिणे ॥ 332 ॥
पुरस्तात्पार्श्वयोः पृष्ठे नमस्कुर्यादुपर्यधः ।
सदा मच्चित्तरूपेण विधेहि भवदासनम् ॥ 333 ॥
श्रीगुरुं परमानंदं वंदे ह्यानंदविग्रहम् ।
यस्य सन्निधिमात्रेण चिदानंदाय ते मनः ॥ 334 ॥
नमोऽस्तु गुरवे तुभ्यं सहजानंदरूपिणे ।
यस्य वागमृतं हंति विषं संसारसंज्ञकम् ॥ 335 ॥
नानायुक्तोपदेशेन तारिता शिष्यसंततिः ।
तत्कृपासारवेदेन गुरुचित्पदमच्युतम् ॥ 336 ॥
[पाठभेदः -
अच्युताय नमस्तुभ्यं गुरवे परमात्मने ।
स्वारामोक्तपदेच्छूनां दत्तं येनाच्युतं पदम् ॥]
अच्युताय नमस्तुभ्यं गुरवे परमात्मने ।
सर्वतंत्रस्वतंत्राय चिद्घनानंदमूर्तये ॥ 337 ॥
नमोऽच्युताय गुरवेऽज्ञानध्वांतैकभानवे ।
शिष्यसन्मार्गपटवे कृपापीयूषसिंधवे ॥ 338 ॥
ओमच्युताय गुरवे शिष्यसंसारसेतवे ।
भक्तकार्यैकसिंहाय नमस्ते चित्सुखात्मने ॥ 339 ॥
गुरुनामसमं दैवं न पिता न च बांधवाः ।
गुरुनामसमः स्वामी नेदृशं परमं पदम् ॥ 340 ॥
एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नैव मन्यते ।
श्वानयोनिशतं गत्वा चांडालेष्वपि जायते ॥ 341 ॥
गुरुत्यागाद्भवेन्मृत्युः मंत्रत्यागाद्दरिद्रता ।
गुरुमंत्रपरित्यागी रौरवं नरकं व्रजेत् ॥ 342 ॥
शिवक्रोधाद्गुरुस्त्राता गुरुक्रोधाच्छिवो न हि ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन गुरोराज्ञां न लंघयेत् ॥ 343 ॥
संसारसागरसमुद्धरणैकमंत्रं
ब्रह्मादिदेवमुनिपूजितसिद्धमंत्रम् ।
दारिद्र्यदुःखभवरोगविनाशमंत्रं
वंदे महाभयहरं गुरुराजमंत्रम् ॥ 344 ॥
सप्तकोटिमहामंत्राश्चित्तविभ्रमकारकाः ।
एक एव महामंत्रो गुरुरित्यक्षरद्वयम् ॥ 345 ॥
एवमुक्त्वा महादेवः पार्वतीं पुनरब्रवीत् ।
इदमेव परं तत्त्वं शृणु देवि सुखावहम् ॥ 346 ॥
गुरुतत्त्वमिदं देवि सर्वमुक्तं समासतः ।
रहस्यमिदमव्यक्तं न वदेद्यस्य कस्यचित् ॥ 347 ॥
न मृषा स्यादियं देवि मदुक्तिः सत्यरूपिणी ।
गुरुगीतासमं स्तोत्रं नास्ति नास्ति महीतले ॥ 348 ॥
गुरुगीतामिमां देवि भवदुःखविनाशिनीम् ।
गुरुदीक्षाविहीनस्य पुरतो न पठेत् क्वचित् ॥ 349 ॥
रहस्यमत्यंतरहस्यमेतन्न पापिना लभ्यमिदं महेश्वरि ।
अनेकजन्मार्जितपुण्यपाकाद्गुरोस्तु तत्त्वं लभते मनुष्यः ॥ 350 ॥
यस्य प्रसादादहमेव सर्वं
मय्येव सर्वं परिकल्पितं च ।
इत्थं विजानामि सदात्मरूपं
तस्यांघ्रिपद्मं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ॥ 351 ॥
अज्ञानतिमिरांधस्य विषयाक्रांतचेतसः ।
ज्ञानप्रभाप्रदानेन प्रसादं कुरु मे प्रभो ॥ 352 ॥
इति श्रीस्कंदपुराणे उत्तरखंडे उमामहेश्वर संवादे श्री गुरुगीता समाप्त ॥
मंगलं
मंगलं गुरुदेवाय महनीयगुणात्मने ।
सर्वलोकशरण्याय साधुरूपाय मंगलम् ॥
[साभार -https://vignanam.org/hindi/sri-gurugita-chapter-1.html]
"शिवशासनतः" शब्द संस्कृत का है, जिसका अर्थ है "शिव के शासन के अधीन" या "शिव के आदेश से"। यह शब्द "श्री गुरुगीता" में आता है, जहाँ इसका अर्थ "गुरु के आदेश से" या "गुरु की आज्ञा से" है। विस्तार में: "शिवशासनतः" शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है: "शिव" और "शासनतः"। "शिव" भगवान शिव को संदर्भित करता है, और "शासनतः" का अर्थ है "शासन के अधीन" या "आज्ञा से"। "श्री गुरुगीता" में, "शिवशासनतः" शब्द का उपयोग गुरु की आज्ञा का पालन करने के महत्व को दर्शाने के लिए किया जाता है। इसलिए, "शिवशासनतः" का अर्थ है "गुरु के शासन के अधीन" या "गुरु की आज्ञा से"।
अपराध-भंजन स्तव : श्रीमत् शंकराचार्यजी द्वारा विरचित यह स्तोत्र है । इस स्तोत्र में साधक भगवान् शिव से अपने अपराध के लिए क्षमा-याचना करता है । श्री शंकराचार्य जी लिखते हैं की हे भूत भावन भोलेनाथ आपकी सेवा के विषय में मैं नहीं जानता हूँ अतः जो कुछ भी पूजा में अल्पता मेरे माध्यम से रह गयी है आप उसे मुझे अल्पज्ञ जानकर क्षमा करें । इस स्तोत्र का पाठ करने से जो भी न्यूनता पूजा के अंतर्गत् रह जाती है, वह पूर्ण हो जाती है और भगवान् शिव उस साधक का कल्याण करते हैं ।
आदौ कर्मप्रसङ्गात् कलयति कलुषं मातृकुक्षौ स्थितं मां
विण्मूत्रामेध्यमध्ये क्वथयति नितरां जाठरो जातवेदाः।
यद्यद्वै तत्र दुःखं व्यथयति नितरां शक्यते केन वक्तुं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो ।।१।।
पहले कर्मप्रसंग से किया हुआ पाप मुझे माता की कुक्षि में ला बिठाता है, फिर उस अपवित्र विष्ठा-मूत्र के बीच जठराग्नि खूब सन्तप्त करता है । वहाँ जो-जो दुःख निरन्तर व्यथित करते रहते हैं उन्हें कौन कह सकता है ? हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ।
बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपुः स्तन्यपाने पिपासा
नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति।
नानारोगादिदुःखाद्रुदनपरवशः शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।२।।
बाल्यावस्था में दुःख की अधिकता रहती थी, शरीर मल-मूत्र से लिथड़ा रहता था । और निरन्तर स्तनपान की लालसा रहती थी; इन्द्रियों में कोई कार्य करने की सामर्थ्य न थी; शैवी माया से उत्पन्न हुए नाना जन्तु मुझे काटते थे; नाना रोगादि दुःखों के कारण मैं रोता ही रहता था, (उस समय भी) मुझसे शंकर का स्मरण नहीं बना, इसलिये हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो।
प्रौढोऽहं यौवनस्थो विषयविषधरैः पंचभिर्मर्मसन्धौ
दष्टो नष्टो विवेकः सुतधनयुवतिस्वादसौख्ये निषण्ण:।
शैवीचिन्ताविहीनं मम हृदयमहो मानगर्वाधिरूढं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।३।।
जब मैं युवा-अवस्था में आकर प्रौढ़ हुआ तो पाँच विषयरूपी सर्पों ने मेरे मर्मस्थानों में डंसा (काटा) , जिससे मेरा विवेक नष्ट हो गया और मैं धन, स्त्री और सन्तान के सुख भोगने में लग गया । उस समय भी आपके चिन्तन को भूलकर मेरा हृदय बड़े घमण्ड और अभिमान से भर गया । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ।
वार्द्धक्ये चेन्द्रियाणां विगतगतिमतिश्चाधिदैवादितापैः
पापै रोगैर्वियोगैस्त्वनवसितवपुः प्रौढिहीनं च दीनम्।
मिथ्यामोहाभिलाषैर्भ्रमति मम मनो धूर्जटेर्ध्यानशून्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।४।।
वृद्धावस्था में भी, जब इन्द्रियों की गति शिथिल हो गयी है, बुद्धि मन्द पड़ गयी है और आधिदैविकादि तापों, पापों, रोगों और वियोगों से शरीर जर्जरित हो गया है, मेरा मन मिथ्या मोह और अभिलाषाओं से दुर्बल और दीन होकर (आप) श्रीमहादेवजी के चिन्तन से शून्य ही भ्रम रहा है। अतः हे शिव! हे शिव! हे शंकर! हे महादेव! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो।
नो शक्यं स्मार्तकर्म प्रतिपदगहनप्रत्यवायाकुलाख्यं
श्रौते वार्ता कथं मे द्विजकुलविहिते ब्रह्ममार्गे सुसारे।
नास्था धर्मे विचारः श्रवणमननयोः किं निदिध्यासितव्यं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।५।।
पद-पदपर अति गहन प्रायश्चित्तोंसे व्याप्त होनेके कारण मुझसे तो स्मार्तकर्म भी नहीं हो सकते, फिर जो द्विजकुलके लिये विहित हैं, उन ब्रह्मप्राप्तिके मार्गस्वरूप श्रौतकर्मों की तो बात ही क्या है?[याने श्रुति और स्मृति में बताये गये नियमों का आचरण/ पालन] धर्म में आस्था नहीं है और श्रवण-मनन के विषय में विचार ही नहीं होता, निदिध्यासन (आचरण में चरित्र के गुणों की अभिव्यक्ति) भी कैसे किया जाय ? अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो! क्षमा करो ।
स्नात्वा प्रत्यूषकाले स्नपनविधिविधौ नाहृतं गाङ्गतोयं
पूजार्थं वा कदाचिद्बहुतरगहनात्खण्डबिल्वीदलानि ।
नानीता पद्ममाला सरसि विकसिता गन्धपुष्पे त्वदर्थं
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।६।।
प्रातःकाल स्नान करके आपका अभिषेक करने के लिये मैं गंगाजल लेकर प्रस्तुत नहीं हुआ, न कभी आपकी पूजा के लिये वन से बिल्वपत्र ही लाया और न आपके लिये तालाब में खिले हुए कमलों की माला तथा गन्ध-पुष्प ही लाकर अर्पण किये । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरा अपराध क्षमा करो ! क्षमा करो ।
दुग्धैर्मध्वाज्ययुक्तैर्दधिसितसहितैः स्नापितं नैव लिङ्ग
नो लिप्तं चन्दनाद्यैः कनकविरचितैः पूजितं न प्रसूनैः।
धूपैः कर्पूरदीपैर्विविधरसयुतैर्नैव भक्ष्योपहारैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।७।।
मधु, घृत, दधि और शर्करायुक्त दूध (पंचामृत) से मैंने आपके लिंग को स्नान नहीं कराया, चन्दन आदि से अनुलेपन नहीं किया, धतूरे के फूल, धूप, दीप, कपूर तथा नाना रसों से युक्त नैवेद्यों द्वारा पूजन भी नहीं किया। अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! प्रभु क्षमा करो ।
ध्यात्वा चित्ते शिवाख्यं प्रचुरतरधनं नैव दत्तं द्विजेभ्यो
हव्यं ते लक्षसंख्यैर्हुतवहवदने नार्पितं बीजमन्त्रैः।
नो तप्तं गाङ्गतीरे व्रतजपनियमै रुद्रजाप्यैर्न वेदैः
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।८।।
मैंने चित्त में शिव नामक आपका स्मरण करके ब्राह्मणों को प्रचुर धन नहीं दिया, न आपके एक लक्ष बीजमन्त्रों द्वारा अग्नि में आहुतियाँ दीं और न व्रत एवं जप के नियम से तथा रुद्रजाप और वेदविधि से गंगातट पर कोई साधना ही की । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो।
स्थित्वा स्थाने सरोजे प्रणवमयमरुत्कुण्डले सूक्ष्ममार्गे
शान्ते स्वान्ते प्रलीने प्रकटितविभवे ज्योतिरूपे पराख्ये।
लिङ्गज्ञे ब्रह्मवाक्ये सकलतनुगतं शङ्करं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।९।।
जिस सूक्ष्ममार्गप्राप्य सहस्त्रदल कमल में पहुँचकर प्राणसमूह प्रणवनाद में लीन हो जाते हैं और जहाँ जाकर वेद के वाक्यार्थ तथा तात्पर्यभूत पूर्णतया आविर्भूत ज्योतिरूप शान्त परम तत्त्व में लीन हो जाता है, उस कमल में स्थित होकर मैं सर्वान्तर्यामी कल्याणकारी आपका स्मरण नहीं करता हूँ । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ।
नग्नो निःसङ्गशुद्धस्त्रिगुणविरहितो ध्वस्तमोहान्धकारो
नासाग्रे न्यस्तदृष्टिर्विदितभवगुणो नैव दृष्टः कदाचित्।
उन्मन्यावस्थया त्वां विगतकलिमलं शंकरं न स्मरामि
क्षन्तव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भो श्रीमहादेव शम्भो।।१०।।
नग्न, निःसंग, शुद्ध और त्रिगुणातीत होकर, मोहान्धकार का ध्वंस कर तथा नासिकाग्र में दृष्टि स्थिर कर मैंने (आप) शंकर के गुणों को जानकर कभी आपका दर्शन नहीं किया और न उन्मनी-अवस्था से कलिमल रहित आप कल्याणस्वरूप का स्मरण ही करता हूँ । अतः हे शिव ! हे शिव ! हे शंकर ! हे महादेव ! हे शम्भो ! अब मेरे अपराधों को क्षमा करो ! क्षमा करो ।
चन्द्रोद्भासितशेखरे स्मरहरे गङ्गाधरे शंकरे
सर्वैर्भूषितकण्ठकर्णविवरे नेत्रोत्थवैश्वानरे।
दन्तित्वक्कृतसुन्दराम्बरधरे त्रैलोक्यसारे हरे
मोक्षार्थं कुरु चित्तवृत्तिमखिलामन्यैस्तु किं कर्मभिः।।११।।
चन्द्रकला से जिनका ललाट-प्रदेश भासित हो रहा है, जो कन्दर्पदर्पहारी हैं, गंगाधर हैं, कल्याणस्वरूप हैं, सर्पों से जिनके कण्ठ और कर्ण भूषित हैं, नेत्रों से अग्नि प्रकट हो रहा है, हस्तिचर्म की जिनकी कन्था है तथा जो त्रिलोकी के सार हैं, उन शिव में मोक्ष के लिये अपनी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों को लगा दे; और कर्मों से क्या प्रयोजन है ?
किं वानेन धनेन वाजिकरिभिः प्राप्तेन राज्येन किं
किं वा पुत्रकलत्रमित्रपशुभिर्देहेन गेहेन किम्।
ज्ञात्वैतत्क्षणभङ्गुरं सपदि रे त्याज्यं मनो दूरतः
स्वात्मार्थं गुरुवाक्यतो भज भज श्रीपार्वतीवल्लभम्।।१२।।
इस धन, घोड़े, हाथी और राज्यादि की प्राप्ति से क्या ? पुत्र, स्त्री, मित्र, पशु, देह और घर से क्या ? इनको क्षणभंगुर जानकर रे मन ! दूर ही से त्याग दे और आत्मानुभव के लिये गुरुवचनानुसार पार्वतीवल्लभ श्रीशंकर का भजन कर ।
आयुर्नश्यति पश्यतां प्रतिदिनं याति क्षयं यौवनं
प्रत्यायान्ति गताः पुनर्न दिवसाः कालो जगद्भक्षकः।
लक्ष्मीस्तोयतरङ्गभङ्गचपला विद्युच्चलं जीवितं
तस्मान्मां शरणागतं शरणद त्वं रक्ष रक्षाधुना।।१३।।
देखते-देखते आयु नित्य नष्ट हो रही है, यौवन प्रतिदिन क्षीण हो रहा है; बीते हुए दिन फिर लौटकर नहीं आते; काल सम्पूर्ण जगत् को खा रहा है । लक्ष्मी जल की तरंगमाला के समान चपल है; जीवन बिजली के समान चंचल है; अतः मुझ शरणागत की हे शरणागतवत्सल शंकर ! अब रक्षा करो ! रक्षा करो ।
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥१४।।
हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णों से, नेत्रों से अथवा मन से भी जो अपराध किये हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको हे करुणा- सागर महादेव शम्भो ! क्षमा कीजिये । आपकी जय हो, जय हो ।
॥ इस प्रकार श्री मत् शंकराचार्य विरचित श्रीशिवापराधक्षमापन स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥
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[# पानी बनाने के लिए, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैसों को एक साथ मिलाकर, एक रासायनिक प्रतिक्रिया (combustion-कम्बस्चन) की आवश्यकता होती है। इस प्रतिक्रिया में, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के परमाणु मिलकर पानी के अणु (H2O) बनाते हैं। विद्युत ऊर्जा का उपयोग करके, पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजित किया जा सकता है, इस प्रक्रिया को इलेक्ट्रोलिसिस कहते हैं।]
मोको कहां ढूँढ़े रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकान्त निवास में।।
ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में।
मैं तो तेरे पास में बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं बरत उपास में।
ना मैं किरिया करम में रहता, नहीं जोग सन्यास में।।
नहीं प्राण में नहीं पिंड में, ना ब्रह्याण्ड आकाश में।
ना मैं प्रकृति प्रवार गुफा में, नहीं स्वांसों की स्वांस में।।
खोजि होए तुरत मिल जाऊं, इक पल की तलाश में।
कहत कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूं विश्वास में।
मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में॥
पी ले प्याला हो मतवाला, प्याला प्रेम हरि रस का रे।
1. बालपना सब खेल गंवाया, तरूण नारीबस का रे,
न सत्संग न कथा कीर्तन, न प्रभु चरण प्रेम बसाया रे।
2. न सत्संग न कथा कीर्तन, न प्रभु चरणन प्रेम रचा रे।
अबहुं सोच समझ अज्ञानी, जग में नहीं कोई अपना रे।
3. देह मोह में क्यों भरमाया, गल विच फंद यम का रे,
चौरासी से उबरा चाहे, छोड़ कामिनी का चसका रे|
4. नाभि कमल विच है कस्तूरी, मृग फिरे बन का रे,
कहे कबीर सुनो भई साधो, कबहूं न सतपथ खोजा रे।
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