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Friday, July 11, 2025

⚜️🔱श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के पश्चात्‌ ⚜️🔱 (ग) 1. ⚜️🔱पहला श्रीरामकृष्ण मठ : एकाएक कर्णधार को न देखकर आरोहियों को भय हो गया है⚜️🔱2.नरेन्द्रादि भक्तों का शिवरात्रि-व्रत : 'सोSहं' के कहने पर जिस 'मैं' का ज्ञान होता है, वह यह 'मैं' नहीं है। मन, देह, यह सब छोड़ देने पर जो कुछ रहता है, वही वह ''मैं'' है। ]

 (ग)

परिच्छेद १

श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के पश्चात्‌

(१)

पहला श्रीरामकृष्ण मठ

    रविवार, १५ अगस्त १८८६ ई. को श्रीरामकृष्ण, भक्तों को दु:ख के असीम समुद्र में बहाकर स्वधाम को चले गये। अविवाहित और विवाहित भक्तगण श्रीरामकृष्ण की सेवा करते समय आपस में जिस स्नेह-सूत्र में बँध गये थे, वह कभी छिन्न होने का न था। एकाएक कर्णधार को न देखकर आरोहियों को भय हो गया है। वे एक दूसरे का मुँह ताक रहे हैं। इस समय उनकी ऐसी अवस्था है कि बिना एक दूसरे को देखे उन्हें चैन नहीं - मानो उनके प्राण निकल रहे हों। दूसरों से वार्तालाप करने को जी नहीं चाहतासब के सब सोचते है - क्या अब उनके दर्शन न होंगे? वे तो कह गये है कि व्याकुल होकर पुकारने पर, हृदय की पुकार सुनकर ईश्वर अवश्य दर्शन देगे! वे कह गये हैं - आन्तरिकता होने पर ईश्वर अवश्य सुनेंगे।' जब वे लोग एकान्त में रहते हैं, तब उसी आनन्दमयी मूर्ति की याद आती हैं। रास्ता चलते हुए भी उन्हीं की स्मृति बनी रहती है; अकेले रोते फिरते हैं। श्रीरामकृष्ण ने शायद इसीलिए मास्टर से कहा था, “तुम लोग रास्ते में रोते फिरोगे। इसीलिए मुझे शरीर-त्याग करते हुए कष्ट हो रहा है।' कोई सोचते है, वे तो चले गये और में अभी भी बचा हुआ हूँ। इस अनित्य संसार में अब भी रहने को इच्छा! में अगर चाहूँ तो शरीर का त्याग कर सकता हूँ, परन्तु करता कहाँ हूँ!'

    किशोर भक्तों ने काशीपुर के बगीचे में रहकर दिनरात उनकी सेवा की थी। उनकी महासमाधि के पश्चात्‌, इच्छा न होते हुए भी, लगभग सब के सब अपने अपने घर चले गये। उनमें से किसी ने भी अभी संन्यासी का बाहरी चिह्न (गेरुआ वस्त्र आदि) धारण नहीं किया है। वे लोग श्रीरामकृष्ण के तिरोभाव के बाद कुछ दिनों तक दत्त, घोष, चक्रवर्ती, गांगुली आदि उपाधियों द्वारा लोगो को अपना परिचय देते रहे; परन्तु उन्हें श्रीरामकृष्ण हृदय से त्यागी कर गये थे। 

         लाटू, तारक और बूढ़े गोपाल के लिए कोई स्थान न था जहाँ वे वापस जाते। उनसे सुरेन्द्र ने कहा, “भाइयो, तुम लोग अब कहाँ जाओगे ? आओ, एक मकान लिया जाय। वहाँ तुम लोग श्रीरामकृष्ण की गद्दी लेकर रहोगे तो हम लोग भी कभी-कभी हृदय की दाह मिटने के लिए वहाँ आ जाया करेगे, अन्यथा संसार मे इस तरह दिन-रात कैसे रहा जायगा ? तुम लोग वहीं जाकर रहो। मैं काशीपुर के बगीचे मे श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए जो कुछ दिया करता था, वह अभी भी दूँगा। इस समय उतने से ही रहने और भोजन आदि का खर्च चलाया जायगा।” पहले-पहले दो-एक महीने तक सुरेन्द्र तैस रुपये महीना देते गये। क्रमश: मठ मे दूसरे दूसरे भाई ज्यों ज्यों  आकर रहने लगे, त्यों त्यों पचास-साठ रुपये का माहवार खर्च हो गया - सुरेन्द्र देते भी गये। अन्त में सौ रुपये तक का खर्च हो गया। वराहनगर मे जो मकान लिया गया था, उसका किराया और टैक्स दोनों मिलाकर ग्यारह रुपये पढ़ते थे। रसोइये को छ: रुपये महीना और बाकी खर्च भोजन आदि का थाबूढ़े गोपाल, लाटू और तारक के घर था ही नही। छोटे गोपाल काशीपुर के बगीचे से श्रीरामकृष्ण की गद्दी और कुल सामान लेकर उसी किराये के मकान मे चले आये। काशीपुर मे जो रसोइया था, उसे यहाँ भी लगाया गया। शरद रात को आकर रहते थे। तारक वृन्दावन गये हुये थे, कुछ दिनो में वे भी आ गये। नरेन्द्र, शरद, शशी, वाबूराम, निरंजन, काली ये लोग पहले-पहल घर से कभी कभी आया करते थे। राखाल, लाटू, योगीन और काली ठीक उसी समय व॒न्दावन गये हुये थे। काली एक महीने के अन्दर, राखाल कई महीने के बाद और योगीन पूरे साल भर बाद लोटे। 

      कुछ दिनों के पश्चात्‌ नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, शरद, शशी, बाबूराम, योगीन, काली और लाटू वहीं रह गये, - वे फिर घर नहीं लौटे। क्रमश: प्रसन्न और सुबोध भी आकर रह गये। गंगाधर सदा मठ में आया-जाया करते थे। नरेन्द्र को बिना देखे वे रह न सकते थे। बनारस के शिवमन्दिर मे गाया जानेवाला 'जय शिव ओंकार' स्तोत्र उन्होंने मठ के भाइयों को सिखलाया था। मठ के भाई “वाह गुरु की फतह” कहकर बीच-बीच मे जो जयध्वनि करते थे, यह भी उन्ही की सिखलायी हुई थी। तिब्बत से लौटने के पश्चात्‌ वे मठ मे ही रह गये। श्रीरामकृष्ण के और दो भक्त हरि तथा तुलसी सदा नरेन्द्र तथा मठ के दूसरे भाइयों को देखने के लिए आया करते थे। कुछ दिन बाद ये भी मठ मे रह गये। 

        सुरेन्द्र ! तुम धन्य हो! यह पहला मठ तुम्हारे ही हाथों से तैयार हुआ! तुम्हारी ही पवित्र इच्छा से इस आश्रम का संगठन हुआ! तुम्हें यन्त्रस्वरूप करके भगवान श्रीरामकृष्ण ने अपने मूलमन्त्र कामिनीकांचन-त्याग को मूर्तिमान कर लिया। कौमारकाल से ही वेराग्यव्रती शुद्धात्मा नरेन्द्रादि भक्तों द्वारा तुमने फिर से हिन्दू धर्म का प्रकाश मनुष्यों के सामने रखा! भाई, तुम्हारा ऋण कौन भूल सकता है ? मठ के भाई मातृहीन बच्चों की तरह रहते थे - तुम्हारी प्रतीक्षा किया करते थे कि तुम कब आओगे। आज मकान का किराया चुकाने में सब रुपये खर्च हो गये हैं - आज भोजन के लिए कुछ भी नहीं बचा - कब तुम आओगे - कब तुम आओगे और आकर अपने भाइयों के भोजन का बन्दोबस्त कर दोगे! तुम्हारे अकृत्रिम स्नेह की याद करके ऐसा कौन है जिसकी आँखो में आँसू न आ जाये!

     यह मठ श्रीरामकृष्ण के भक्तों में वराहनगर मठ के नाम से परिचित हुआ। वहीं श्रीठाकुर-मन्दिर में श्रीगुरुमहाराज भगवान श्रीरामकृष्ण की नित्यसेवा होने लगी। नरेन्द्र आदि सब भक्तो ने कहा, “अब हम लोग संसार-धर्म का पालन न करेगे। श्रीगुरुमहाराज ने कामिनी और कांचन त्याग करने की आज्ञा दी थी, अतएव हम लोग अब किस तरह घर लौट सकते है?” नित्यपूजन का भार शशी ने लिया। नरेन्द्र गुरु-भाइयों की देख-भाल किया करते थे। सब भाई भी उन्ही का मुँह जोहते थे। नरेन्द्र उनसे कहते थे, "साधना करनी होगी, नहीं तो ईश्वर नही मिल सकते।" वे और दूसरे गुरुभाई अनेक प्रकार की साधनाएँ करने लगे। वेद, पुराण, तन्त्र इत्यादी मतों के अनुसार अनेक प्रकार की साधनाओं मे वे प्राणपण से लग गये। कभी कभी एकान्त मे वृक्ष के नीचे, कभी अकेले श्मशान मे , कभी गंगा- तट पर साधना करते थे। मठ में कभी ध्यान करनेवाले कमरे के भीतर अकेले जप और ध्यान करते हुए दिन बिताने लगे। कभी कभी भाइयों के साथ एकत्र कीर्तन करते हुए नृत्य करते रहते। ईश्वर-प्राप्ति के लिए सब लोग, विशेषकर नरेन्द्र, बहुत ही व्याकुल हो गये। वे कभी कभी कहते थे, “उनकी प्राप्ति के लिए क्या मैं प्रायोपवेशन कर डालूँ?" [जीवनपर्यंत संकल्पपूर्वक आहार का त्याग करके ध्यानस्थ मुद्रा में आसीन होने को प्रायोपवेशन कहा है।] 

(२)

नरेन्द्रादि भक्तों का शिवरात्रि-व्रत

      आज सोमवार है, २१५ फरवरी १८८७। नरेन्द्र और राखाल आदि ने आज शिवरात्रि का उपवास किया है। आज से दो दिन बाद शरीरामकृष्ण की जन्मतिथि-पूजा होगी। नरेन्द्र और राखाल आदि भक्तों में इस समय तीव्र वेराग्य है। एक दिन राखाल के पिता राखाल को घर ले जाने के लिए आये थे। राखाल ने कहा, “आप लोग कष्ट करके क्यों आते हैं? मैं यहाँ बहुत अच्छी तरह हूँ। अब आशीर्वाद दीजिये कि आप लोग मुझे भूल जायँ और मैं भी आप लोगों को भूल जाऊँ।” इस समय सब लोगों में तीव्र वैराग्य है। सारा समय साधनभजन में ही जाता है। सब का एक ही उद्देश्य है कि किस तरह ईश्वर के दर्शन हों। 

     नरेन्द्र आदि भक्तगण कभी जप और ध्यान करते हैं, कभी शास्त्रपाठ। नरेन्द्र कहते हैं “गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिस निष्काम कर्म का उल्लेख किया है, वह पूजा, जप, ध्यान - यही सब है, सांसारिक कर्म नही।”

      आज सबेरे नरेन्द्र कलकत्ता गये हुए हैं। घर के मुकदमे की पैरवी करनी पड़ती है। अदालत में गवाह पेश करने पड़ते हैं। 

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        मास्टर सबेरे नो बजे के लगभग मठ में आये। कमरे मे प्रवेश करने पर उन्हें देखकर श्रीयुत तारक मारे आनन्द के शिव के सम्बन्ध मे रचित एक गाना गाने लगे - “ता थैया ता थैया नाचे भोला।” 

      उनके साथ राखाल भी गाने लगे और गाते हुए दोनो नाचने लगे। 

यह गाना नरेन्द्र को लिखे अभी कुछ ही समय हुआ है। 

         मठ के सब भाइयों ने व्रत किया है। कमरे मे इस समय नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, शरद, शशी, काली, बाबुराम, तारक, हरीश, सींती के गोपाल, सारदा और मास्टर हैं। योगीन और लाटू  वृन्दावन में हैं। उन लोगो ने अभी मठ नही देखा।

       आगामी शनिवार को शरद, काली, निरंजन और सारदा पुरी जानेवाले है - श्रीजगन्नाथजी के दर्शन करने के लिए। 

      श्रीयुत शशी दिनरात श्रीरामकृष्ण की सेवा मे रहते है।

        पूजा हो गयी। शरद तानपूरा लेकर गा रहे है - “शंकर शिव बम्‌ बम्‌ भोला, कैलासपति महाराज राज।” नरेन्द्र कलकत्ते से अभी ही लौट हैं। अभी उन्होने स्नान भी नहीं किया। काली नरेन्द्र से मुकदमे की बाते पूछने लगे।

नरेन्द्र - (विरक्तिपूर्वक) - इन सब बातों से तुम्हें क्या काम ? 

      नरेन्द्र मास्टर आदि से बाते कर रहे है। नरेन्द्र कह रहे है - “कामिनी और कांचन का त्याग जब तक न होगा, तब तक कुछ न होगा। कामिनी नरकस्य द्वारम्‌| जितने 'आदमी' है, सब स्त्रियों के वश मे हैं ('मनुष्य' नहीं ?)  शिव और कृष्ण की बात और है शक्ति को शिव ने दासी बनाकर रखा था। श्रीकृष्ण ने संसार-धर्म का पालन तो किया था, परन्तु वे कैसे निर्लिप्त थे! उन्होंने वृन्दावन केसे एकदम छोड़ दिया!

     राखाल - " और द्वारका का भी उन्होने कैसा त्याग किया! 

     गंगा-स्नान करके नरेन्द्र मठ लौटे। हाथ मे भीगी धोती है और अँगौछा। सारदा ने आकर नरेन्द्र को साष्टांग प्रणाम किया। उन्होने भी शिवरात्रि के उपलक्ष्य मे उपवास किया है। अब वे गंगा-स्नान के लिए जानेवाले हैं। नरेन्द्र ने पूजा-घर मे जाकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया और फिर आसन लगाकर कुछ समय तक ध्यान करते रहे। 

      भवनाथ की बातें हो रही हैं। भवनाथ ने विवाह किया है। इसलिए उन्हें नौकरी करनी पड़ती हे। 

नरेन्द्र कह रहे हैं, 'बे तो सब संसारी कीट हैं।'

दिन ढलने लगा। शिवरात्रि की पूजा के लिए व्यवस्था हो रही है। बेल की लकड़ी और बिल्वदल इकट्ठे किये गये। पूजा के बाद होम होगा। 

      शाम हो गयी। श्रीठाकुरघर में धूना देकर शशी दूसरे कमरों में भी धूना ले गये। हरएक देव-देवी के चित्र के पास प्रणाम करके बड़ी भक्ति के साथ उनका नाम ले रहे हैं-

 “ॐ श्रीश्रीगुरुदेवाय नम:। श्रीश्रीकालिकायेै नमः। 

श्रीश्रीजगन्नाथ-सुभद्रा -बलरामेभ्यो नम:। 

श्रीश्री षड्भुजाय  नम:। श्रीश्रीराधावल्लभाय नम:। 

श्रीनित्यानन्दाय, श्री अद्वैताय, श्रीभक्तेभ्यो नमः। 

श्रीगोपालाय, श्रीश्रीयशोदायै नम:। 

श्रीरामाय, श्रीलक्ष्मणाय, श्रीविश्वामित्राय नम:।

      मठ के बिल्ववृक्ष के नीचे पूजा का आयोजन हो रहा है। रात के नौ बजे का समय होगा। अभी पहली पूजा होगी, साढ़े ग्यारह बजे दूसरी। चारों पहर चार पूजाएँ होंगी। नरेन्द्र, राखाल, शरद, काली, सीतीं के गोपाल आदि मठ के सब भाई बेल के नीचे उपस्थित हो गये। भूपति और मास्टर भी आये हुए हैं। मठ के भाइयों में से एक व्यक्ति पूजा कर रहा है। 

     काली गीता-पाठ कर रहे हैं - सैन्यदर्शन, - सांख्ययोग, - कर्मयोग। पाठ के साथ ही बीच बीच में नरेन्द्र के साथ विचार चल रहा है

     काली - मैं ही सब कुछ हूँ। सृष्टि, स्थिति और प्रलय मैं कर रहा हूँ। 

      नरेन्द्र - मैं सृष्टि कहाँ कर रहा हूँ? एक दूसरी ही शक्ति मुझसे करा रही है। ये अनेक प्रकार के कार्य - यहाँ तक कि चिन्ता (चिंतन) भी वही करा रही है। 

    मास्टर - (स्वगत) - श्रीरामकृष्ण कहते थे, 'जब तक कोई यह सोचता है कि मैं ध्यान कर रहा हूँ, तब तक वह आदिशक्ति के ही राज्य में है। शक्ति को मानना ही होगा।'

    काली चुपचाप थोड़ी देर तक चिन्तन करते रहे। फिर कहने लगे, “जिन कार्यो की तुम चर्चा कर रहे हो, वे सब मिथ्या हैं - और इतना ही नहीं, स्वयं चिन्तन तक मिथ्या है। मुझे तो इन चीजों के विचार मात्र पर हँसी आती है।” 

     नरेन्द्र - 'सोSहं' के कहने पर जिस 'मैं” का ज्ञान होता है, वह यह 'मैं' नहीं है। मन, देह, यह सब छोड़ देने पर जो कुछ रहता है, वही वह 'मैं' है।

     गीता-पाठ हो जाने पर काली शान्ति-पाठ कर रहे हैं - ॐ शान्ति:! शान्ति:! शान्ति: !!

     अब नरेन्द्र आदि सब भक्त खड़े होकर नृत्य-गीत करते हुए बिल्ववृक्ष की बार बार परिक्रमा करने लगे। बीच बीच में एक स्वर से 'शिव गुरु! शिव गुरु!' इस मन्त्र का उच्चारण कर रहे हैं। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, रात्रि गम्भीर हो रही है। चारों ओर अन्धकार छाया हुआ है, जीव-जन्तु सब मौन हैं। गेरुआ वस्त्र पहने हुए इन आकौमारविरागी भक्तों के कण्ठ से उच्चारित 'शिव गुरु! शिव गुरु!” की महामन्त्रध्वनि मेघ की तरह गम्भीर रव से अनन्त आकाश  में गूँजकर अखण्ड सच्चिदानन्द में लीन होने लगी

     पूजा समाप्त हो गयी। उषा की लाली फैलने ही वाली है। नरेन्द्र आदि भक्तों ने इस ब्राह्म मुहूर्त में गंगास्नान किया। 

    सबेरा हो गया। स्नान करके भक्तगण मठ में श्रीठाकुरमन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके 'दानवों के कमरे' में आकर एकत्र होने लगे। नरेन्द्र ने सुन्दर नया गेरुआ वस्त्र धारण किया है। वस्त्र के सौन्दर्य के साथ उनके श्रीमुख और देह से तपस्यासम्भूत अपूर्व स्वर्गीय पवित्र ज्योति एक हो रही है। वदनमण्डल तेजपूर्ण और साथ ही प्रेमरंजित हो रहा है। मानो अखण्ड सच्चिदानन्द सागर के एक स्फुट अंश ने ज्ञान और भक्ति की शिक्षा देने के लिए शरीर-धारण किया हो - अवतार-लीला की सहायता के लिए। जो देख रहा है, वह फिर आँखें नही फेर सकता। नरेन्द्र की आयु ठीक चौबीस वर्ष की है। ठीक इसी आयु में श्रीचेतन्य ने संसार छोड़ा था। 

    भक्तों के व्रत के पारण के लिए श्रीयुत बलराम ने कल ही फल और मिष्टान्न आदि भेज दिये थे। राखाल आदि दो-एक भक्तों के साथ नरेन्द्र कमरे में खड़े हुए कुछ जलपान कर रहे हैं। दो-एक फल खाते ही आनन्दपूर्वक कह रहे हैं - “धन्य हो बलराम - तुम धन्य हो! ” (सब हंसते हैं) 

    अब नरेन्द्र बालक की तरह हँसी कर रहे हैं। रसगुल्ला मुख में डालकर बिलकुल निःस्पन्द हो गये। नेत्र निर्निमेष (एकटक) हैं। एक भक्त नरेन्द्र की अवस्था देखकर हँसी में उन्हें पकड़ने चले कि कहीं वे गिर न जायें ।

    कुछ देर बाद - तब भी रसगुल्ले को मुख में ही रखे हुए - नरेन्द्र पलकें खोलकर कह रहे हैं - “मेरी - अवस्था-अच्छी-है - !” (सब लोग ठहाका मारकर हँसने लगे)

    सब लोगों को अब मिठाई दी गयी। मास्टर यह आनन्द की हाट देख रहे हैं। भक्तगण हर्षपूर्वक जयध्वनि कर रहे हैं -

“जय श्रीगुरुमहाराज! जय श्रीगुरुमहाराज! 

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नियति का स्वीकार: कृष्ण ने द्वारका छोड़ने के अपने निर्णय को नियति के रूप में स्वीकार किया और इसे बदलने का कोई प्रयास नहीं किया। 

परमधाम गमन: द्वारका छोड़ने के बाद, कृष्ण प्रभास क्षेत्र में चले गए, जहां उनका देहावसान हुआ। प्रभास क्षेत्र, गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पास स्थित है जहां यदुवंशियों का विनाश हुआ और कृष्ण ने देह त्यागी।  

 काली चुपचाप थोड़ी देर तक चिन्तन करते रहे। फिर कहने लगे, “जिन कार्यो की तुम चर्चा कर रहे हो, वे सब मिथ्या हैं - और इतना ही नहीं, स्वयं चिन्तन तक मिथ्या है। मुझे तो इन चीजों के विचार मात्र पर हँसी आती है।” 

     नरेन्द्र - 'सोSहं' के कहने पर जिस 'मैं” का ज्ञान होता है, वह यह 'मैं' नहीं है। मन, देह, यह सब छोड़ देने पर जो कुछ रहता है, वही वह 'मैं' है। (उसी मैं को आत्मसाक्षात्कार होता है, 'तुमको' नहीं !)

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