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मंगलवार, 24 जुलाई 2012

🕊🏹 'स्वामी विवेकानन्द के प्रति श्रद्धांजलि 🕊🏹 [ प्रथम अध्याय -1.4 [निर्झर का स्वप्नभंग] : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.4 ]

 'स्वामी विवेकानन्द के प्रति श्रद्धांजलि ' 

[निर्झर का स्वप्नभंग] 

   जनवरी महीने में  
स्वामी जी का आविर्भाव हुआ था। इस महीने में हमलोग स्वामीजी की पूजा करते हैं, सभा-सम्मेलन का आयोजन कर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। एकबार फिर से हमलोग सर्वस्व त्यागी परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों का स्मरण करते हैं। विश्व धर्म-महासभा में भारत के महान विचारों के वज्रघोष के अनुभव से रोमांचित होते हैं। एक बार पुनः स्वीकार करते हैं कि स्वामी जी एक सच्चे देशभक्त थे, सच्चे मानवप्रेमी थे , सदियों से सबसे नीचे रहने वाले
 पददलितों के हमदर्द थे। और यह सब अनुभव करके गौरवान्वित होते हैं कि स्वामी जी हमारे ही यहाँ हुए थे। 
           महाकाल रूपी रथ के पहियों की घड़घड़ाहट में इस क्षणिक स्मरण-मनन से उत्पन्न उत्साह फिर विस्मृति के सागर में विलीन हो जाता है। व्यक्तिगत रूप से पूछने पर भारतभूमि पर जन्म लिया हुआ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो स्वामी जी प्रति श्रद्धा के दो शब्द न बोल पाये। किन्तु, यदि हम अपने सामाजिक जीवन और राष्ट्रीय जीवन पर दृष्टि डालते हैं, उनको परिचालित करने वाले नीतियों और योजनाओं को देखते हैं, तब यह पाते हैं कि इस महीने में सभा-समिति एवं समसामयिक लेखों में हम जो भी उल्लेख करते हैं, इन दोनों में कोई सामंजस्य नहीं है।   
           ऐसा लगता है मानो यह सब केवल बोलने के लिये हैं, करने के लिये नहीं। यह सब बोलने के लिये कुछ पुस्तकों के कुछ पन्नो को उलट -पलट लेना ही यथेष्ट है। किन्तु करने में बहुत कष्ट है। हमारी इस महान राष्ट्रीय दोष के प्रति स्वामी जी ने हमें बहुत पहले ही सावधान कर दिया था। किन्तु, हमलोग इस मार्ग में अपना कदम क्यों नहीं बढ़ा पाते ? इसके दो कारण हो सकते हैं - पहला है, स्वामी जी ने क्या -क्या किया था, इसके बार में थोड़ी-बहुत जानकारी रखने पर भी स्वामीजी क्या चाहते थे, इस पर विशेष ध्यान नहीं देते। दूसरा कारण है विद्यार्थी जीवन में शिक्षकों की व्यक्तिगत इच्छा होने पर क्लास में स्वामीजी की दो-एक कहानियाँ सुना देने के अतिरिक्त और कुछ सिखाने की व्यवस्था हमारी शिक्षा पद्धति में नहीं है। इसीलिए हमारा काम है स्वामी जी प्रति कुछ बोलने के समय श्रद्धा निवेदन कर देना। किन्तु उनके प्रति श्रद्धा निवेदन का मतलब है अपना जीवन समर्पित करना, उसे हम अपना कर्तव्य नहीं समझते। दूसरा -स्वामी जी हमसे क्या चाहते थे, यह हम (व्यक्तिगत और राष्ट्रिय जीवन में) थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं, तो 'समझ नहीं सके हैं ' का बहाना कर दायित्व से बचना चाहते हैं। क्योंकि यह घोषणा करने पर कि हम समझ चुके हैं हमें सर्वस्व त्यागकर सबके कल्याण के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा,यह बात सोचकर ही हम सिहर उठते हैं।    
        स्वामी जी ने इसका भी कारण बतलाया था। मनुष्य के अनेकों स्वभावों में से एक है -जड़ता, अर्थात किसी जड़पिण्ड के समान स्थिर रहना। जैसा हैं, वैसा ही बने रहना। लेकिन स्वामीजी के भाव को ग्रहण करने के लिए अपनी जड़ता तोड़नी होगी। इस भाव को लेने पर हम विगत वर्ष जिस जगह पर थे, उसी जगह पर बने नहीं रह सकते। विगत समय में हम जितना मनुष्य बन सके थे, आज भी उसी जगह खड़े रहना सम्भव नहीं हो पाता है। यहाँ तक कि अभी जो क्षण बीता है उस समय में मैं जो था, उसी जगह पर वर्तमान क्षण में नहीं रह सकता। हमें प्रति मुहूर्त आगे बढ़ते रहना पड़ता है। शरीर का बड़ा होना और वार्धक्य को पाकर अन्ततः नष्ट हो जाना, यह तो प्राकृतिक रूप से घटित होता रहता है।  इसके लिए हमें कोई यत्न नहीं करना पड़ता। हमें मन को शक्तिशाली बनाने, हृदय का द्वार खोलने एवं इसका विस्तार करते रहना पड़ता है। प्रतिक्षण अपने क्षुद्र 'मैं ' पन को पूरी निर्ममता से त्याग कर, उसे विराट बन जाने की चेष्टा में स्वामीजी के भाव को लगाए रखना चाहिए। ह्रदय के बन्द द्वारा के खुलने से जब मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है तो 'हेसे खलखल गेये कलकल ' उसकी निर्झरता की खिलखिलाती  कलकल ध्वनि को सुन हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। और इसकी धारा में स्नान करके हम अपने छोटे- छोटे स्वार्थों का त्याग करते हुए यथार्थ जीवन रूपी समुद्र के आमने -सामने खड़े हो जाते हैं। (मठ में आयोजित -2016  गोल्डन जुबली कैम्प का थीम यही था।) इस क्षुद्रताओं को त्यागकर महत की प्राप्ति के प्रति भयभीत क्यों होना चाहिए ? ऐसा भय केवल अपनी जड़ता को बनाये रखने के कारण होता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- ' चलते रहना ही जीवन है और थम जाना ही मृत्यु है। उठो, जागो, अब और सपने मत देखो ! घोर निद्रा को त्यागकर खड़े हो जाओ और आगे बढ़ो - चरैवेति चरैवेति !' यही है स्वामीजी का जीवन मन्त्र। स्वामी जी के महाजन्म का स्मरण करके यदि इस नवजीवन के मंत्र से में हम दीक्षित नहीं हो सके तो उनके प्रति केवल मौखिक श्रद्धा निवेदन का कोई मूल्य नहीं होगा। 
                किन्तु, केवल इतना ही से नहीं होगा। अपने जीवन रूपी दीपक को प्रज्वलित कर स्वयं जागना होगा एवं दूसरों को भी इसी तरह जगाना होगा। सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ते हुए इसी भाव में जागृत होना होगा। व्यक्ति से लेकर पारिवारिक,पारिवारिक से सामाजिक,  तदन्तर राष्ट्रिय जीवन को इसी 'चरैवेति, चरैवेति' के मंत्र से दीक्षित करना होगा। 
      इस महाजागरण की वाणी को खेत-खलिहान, कल-कारखाने, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यवसाय करने वाले बणिकों की गद्दीयों, राष्ट्रचालकों के मसनदों तक सर्वत्र प्रसारित करना होगा। स्वामी जी भारतवर्ष के पूर्ण जागरण के लिए ही आये थे। हमने स्वामी जी को इस भाव में देखना सीखा ही नहीं है। किन्तु, ऐसा देखना होगा और दूसरों को भी दिखाना होगा। स्वामी जी कहते थे भारत झोपड़ियों में वास करता है। अतः  जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। यदि भारत को उठाना चाहते हों तो देश के जनसाधारण को उठाना होगा। तुम सबों को उठा नहीं सकते लेकिन तुम उनके कानों तक इस महाजीवन की वाणी को अवश्य पहुँचा सकते हो। प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है। इस शक्ति के जग जाने से फिर कोई अवरोध उसे रोक नहीं सकता। जब वे अपने अधिकार को जान पायेंगे तब उनमें दायित्व का बोध जगेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध के साथ अपने पैरों पर खड़ा होगा, सिर उठाकर चलना शुरू करेगा, अपने निजी सुख को तुच्छ समझकर, उनका त्याग करेगा और दूसरों के कल्याण के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देगा तभी भारत जगेगा। इस नवजीवन को जो धारण करता है वही है स्वामीजी का धर्म। 
यह धर्म कोई अफीम का नशा नहीं है। जिस जड़ता रूपी अफीम ने हमें घोर निद्रा में निमग्न  कर रखा है, उस महानिद्रा को त्याग कर उठ खड़े होने का आह्वान स्वामी जी करते हैं। प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवा को इस आह्वान को समझना होगा और समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  व्यवस्था को यह समझाने का दायित्व लेना होगा। स्वामीजी को महान बताकर भाषण देना या समाचार पत्रों में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली व्यक्त करने से देश आगे नहीं बढ़ेगा। भारत अभी तक जितना सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है वह स्वामीजी के इसी - चरैवेति, चरैवेति मंत्र के कारण हुआ है। 
      इस आह्वान की उपेक्षा कर, अवहेलना कर हम उस कीमती रत्न को खो देंगे जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को महाजीवन में बदलने में समर्थ है। यदि हम इसे खोयें नहीं , इसका उचित मूल्य लगाकर उसका वरण कर सकें तो यही स्वामीजी के महाजन्म के शुभ मुहूर्त के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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शनिवार, 21 जुलाई 2012

"स्वामीजी का धर्म " [अध्याय-5.1 : "धर्म और समाज" : स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना/SVHS -5.1 ]

4.

"स्वामी विवेकानन्द का धर्म " 

     भाव रखना अच्छा है, किन्तु अतिशय भावुकता (excessive sentimentality) अच्छी चीज नहीं है। अपने आदर्श और उद्देश्य के प्रति संवेदनशील होना तो अच्छा है, किन्तु उसके प्रति बेहद भावुक हो जाना अच्छी चीज नहीं है। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति अतिशय भावावेग में बहते ही हैं। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि हम किसी भाव या उच्च आदर्श के प्रति गहराई से विचार किये बिना ही केवल भावुकता में बहकर उसे ग्रहण कर लेते हैं। 
     यह बात सत्य है, कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह भी सत्य है कि धर्म के साथ उसके गन्ध की तरह संयुक्त अतिशय भावुकता रूपी अफ़ीम के वशीभूत होकर कई बार हमलोग अपने कर्तव्यपथ से दूर चले जाते हैं। किन्तु, यह भी सत्य है कि अफीम के नशे की तरह अतिशय भावुकता भी स्थायी या सत्य नहीं है , परन्तु धर्म सत्य, सनातन और शाश्वत है।  स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के इसी सनातन -सत्य को अतिशय भावुकता रूपी अफीम से अलग कर समस्त मानव-जाति के लिए ग्राह्य (सुपाच्य) बनाकर एक विशुद्ध धर्म - "मनुष्य बनो और बनाओ (Be and Make)" के रूप में  प्रस्तुत किया है।  
            चाहे जिस कारण से भी हो, समय के प्रवाह में सच्चा धर्म भी दूषित हो ही जाता है। चाहे वह  राष्ट्रिय-विचारधारा के कारण हो, सामाजिक सोच के कारण हो या धार्मिक नासमझी के कारण; किन्तु प्रायः ऐसा देखा जाता है कि किसी भी धर्म का शुद्ध स्वरुप उसके अधिकांश अनुयायियों के आचरण से व्यक्त होता हुआ प्रतीत नहीं होता है।  
        केवल धर्म के क्षेत्र में ही ऐसा होता है , ऐसा दावा हम नहीं कर सकते। अन्यान्य क्षेत्रों में भी हमलोगों ने ऐसी घटनाओं को घटते देखा है, तथा आज भी देख रहे हैं। किन्तु , जब धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था आती है तब धर्म को नए रूप में समस्त मनुष्यों के लिए ग्राह्य बनाकर (स्वादिष्ट और सुपाच्य बनाकर) मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है और उसका प्रचार भी करना पड़ता है। ( अर्थात 'जब धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है'-- तब धर्म को पुनः संस्थापित करने के लिए किसी व्यक्ति या संगठन को आविर्भूत होना ही पड़ता है, और उसका प्रचार करना पड़ता है !
          स्वामीजी के इस नव प्रचार में केवल एक ही विशिष्टता है और वह वैशिष्टय भी 'भारतीय विचारधारा' के अनुरूप ही है। अन्यान्य क्षेत्रों के विचारकों ने केवल एक-एक विषय को लेकर ही चिन्तन किया है तथा उसका फल समाज को प्रदान किया है। किन्तु युगनायक विवेकानन्द का वैशिष्ट्य यही है कि उन्होंने मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हुए अपने विचार रखे हैं। उनके विचारों में 'समग्र मानव ' अर्थात मनुष्य की सम्पूर्ण सत्ता और समाज को  एक विषय के रूप में देखा जा सकता है। 
               अन्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के ऊपर चिन्तन किया है, तो किसी ने समाज के ऊपर। समाज में भी किसी ने जाति-प्रथा के ऊपर, तो किसी ने विभिन्न धर्मों पर, किसी ने शिक्षा पर, तो किसी ने कृषि पर, किसी ने कला के ऊपर , तो किसी ने साहित्य के और किसी ने संगीत के ऊपर अपने विचारों को व्यक्त किया है। 
   किन्तु, उपरोक्त समस्त क्षेत्र जिस मनुष्य के साथ जुड़े हुए हैं, स्वामी जी उसी मनुष्य के ऊपर चिन्तन किया है। तथा, उन्होंने ने एक ऐसे धागे  का आविष्कार किया जो इन सब विचारों के भीतर से होकर गुजर सकता है, फिर इस धागे (निःस्वार्थपरता) को मनुष्य के गले में पहना दिया, और नाम दिया -धर्मऔर कहा कि यह निःस्वार्थपरता ही वह धागा है जो मनुष्य को सभी ओर से संयम में रखेगा[क्योंकि धर्मो रक्षति रक्षितः>धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।‘‘जो पुरूष धर्म का नाश करता है, उसी का नाश धर्म कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म भी रक्षा करता है । इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले, इस भय से धर्म ( यानि निःस्वार्थपरता ) का हनन अर्थात् त्याग कभी न करना चाहिए। ]     
          इसीलिये भिन्न - भिन्न नाम वाले जितने भी धर्म हैं, वे समय के प्रवाह में केवल भावुकता प्रदान करते हैं या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। किन्तु, स्वामीजी का धर्म, इस तरह के विभिन्न नाम वाले धर्मों से [branded religion] पूर्णतया अलग किस्म का है। धर्म का नाम सुनते ही, जो लोग अपना नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं, वे यदि चाहें तो इसके लिए एक नये शब्द [जैसे शिक्षा ] का आविष्कार कर सकते हैं, ऐसा करने से वास्तव में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।  सा कहना, कि जो लोग एक विशेष निर्दिष्ट तरीके से जीवन-यापन करते हैं, वे ही धार्मिक हैं, शेष सभी अधार्मिक (काफ़िर) हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। जो अपने जीवन को सभी ओर से धर्म के वास्तविक केन्द्र में संयमित रख सकते हैं , वे ही यथार्थ धार्मिक हैं। कोई मनुष्य जब अपने केन्द्र से (आत्मा से) जुड़ जाता है , तभी वह दूसरे मनुष्यों के साथ स्वयं को जुड़ा हुआ अनुभव करता है। ऐसा योग तभी साधित होता है, जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक धागे (निःस्वार्थपरता) को धारण कर लेता है। 
          स्वामीजी जब मनुष्य को परिभाषित करते हैं तो उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित रहती है। स्वामीजी के अनुसार मनुष्य एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है लेकिन उसका केंद्र एक स्थान पर निश्चित है। जबकि इस धागे का निहितार्थ अत्यन्त विस्तृत है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म का अनुयायी होता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। यही विकास की कुँजी है। और मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही धर्म की मूल बात है।
       इस उन्नति के पथ पर अग्रसर रहते हुए मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता 'मैं'-पन को (मिथ्या अहंकार को) खोना सीख लेता है। एवं हृदय की संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ, मनुष्य अपनी महिमा को प्राप्त करने की ओर आगे बढ़ता जाता है। यह आगे बढ़ना, ह्रदय का ऐसा विस्तार होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के अनुसार,'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! '('Unselfishness is God!) ' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय तो भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? विश्व के किस जननायक ने धर्म के इसी मौलिक सिद्धान्त को, अन्य भाषा में अर्थात भिन्न प्रकार से नहीं कहा है? और जिन्होंने यह बात नहीं बताई या इस 'सार्वभौमिक सिद्धान्त' को अपना समर्थन नहीं दिया, समाज उनको कभी जननेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करता है। 
      फिलॉसफी, जप-तप, मन्दिर, दीपक, केले का थम, घंटी आदि चीजों को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म का अंग बताया है। किन्तु, जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व (unity of all living beings) की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने पर हमारे द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार हो जाता है, और वही है- धर्म। यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर दूसरों को मारता है, और वीर अपने कच्चे 'मैं'-पन को (अपने मिथ्या अहं) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं अपने सुखद जीवन का बाधक समझता हूँ, या हानि पहुंचाने वाला समझता हूँ, उसे मार देता हूँ क्योंकि वास्तव में मैं 'कायर' (नहीं मूर्ख) हूँ। 
[क्योंकि 'each soul is potentially divine ' की उपलब्धि मुझे नहीं हुई है। रामायण और महाभारत दोनों धर्म-ग्रन्थ भारत के भाइयों का इतिहास क्यों है ?  'सर्वेभवन्तु सुखिनः' प्रार्थना का मर्म नहीं जानता हूँ ! दुर्योधन ने कहा है-  "जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति: जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। केनापि देवेन हृदय स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।। " 'मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उसमें मेरी निवृत्ति नहीं होती।  मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।'दुर्योधन द्वारा कहा गया यह 'देव' अपवित्र 'काम' ( तीनो ऐषणाएँ या भोग और संग्रह में घोर आसक्ति) ही है, जिससे मनुष्य विवेक पूर्वक धर्म का पालन और अधर्म का त्याग नहीं कर पाता ]  
         किन्तु जो वीर होता है वह इस वृहत जगत (देश,काल,निमित्त) के पार जाने (या ब्रह्म तक पहुँचने) के लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - 'मैं' और 'मेरा'  को मारता है। इसीलिये धर्म कायरों के लिये नहीं, वीरों के लिये है। स्वामीजी ने कहा है, ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण होना ही धर्म है।' उस धर्म की अभिव्यक्ति - बुराई को हराने, कल्याण कार्यों को सम्पादित करने,भूखों को अन्नदान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने तथा शुद्ध बुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास में होती है।
      धर्म का मुख्य कार्य ही है मनुष्य को शान्ति प्रदान करना। स्वामीजी का विचार था कि - " जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख मिलेगा -का आश्वासन देना बिलकुल झूठी बात है।" यदि मनुष्य इस संसार में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो केवल अपने सुख-सुविधा की बात सोचने से वह सुख प्राप्त नहीं होगा। यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को उसकी असीम परिधि तक जन-कल्याण की भूमिका में नियोजित कर देता है।यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक (Conscience-नैतिकता)  का जागरण हो जाता है।  
        धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है और नीतिबोध (sense of morality) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की नीति को निर्धारित करता है। 

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गाने का  शीर्षक: " आई गवनवा की साड़ी, उमरि अजहुँ मोरी बारी "

आई  गवनवा की साड़ी , उमरि अजहूँ मोरी बारी।।
साज सजाय पिया लै आये, और कहरिया चारी।
बम्हना बेदर्दीं अचरा पकड़ी कें, जोरत गँठिया हमारी,
सखी सब गावत गारी।।

विधि गति बाम कछु समझ परै ना, बैरिन भई महतारी।
रोय रोय अँखियाँ कागजति है, घर सों देत निकारी,
भैं सबकों हम भारी।।

गवना कराय पिया लै चले, इत उत बाट निहारी।
छूटत गांव नगर सों नाता, छूटत महल अटारी,
करम-गति टारे न टारि।।

नदिया किनारा बलम मोरे रसिया, दीन्ह घुँघट पट तारी।
थार थारै तन कापन लाग्यौ, काहू न देख हमारी,
पिया लै आये गोहारी।।

कहत 'कबीर' सुनौ भाई साधो, यह मत लेहु विचारी।
अबकी गौना बहुरि नहिं अउना, करिलै कलाकार अकुँवारी,

एक बैरी मिलि लै प्रिय।।

गीतकार - कबीर :
$$$$ SVHS-5.1 स्वामीजी का धर्म (नये संस्करण में 5 वां अध्याय का पहला निबंध है )
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शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

🕊🏹"स्वामीजी का भाव " 🕊🏹 [ प्रथम अध्याय -1.3 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) ] 🕊🏹"स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.3 ]

[ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ]

[ प्रथम अध्याय -1.3 ] 

[स्वामी विवेकानन्द-  "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) ]
 
3. 

"स्वामीजी का भाव " 

      'अनुसरण ही सच्चा स्मरण '- पिछले निबन्ध में इसकी चर्चा करते समय हमलोगों ने देखा था कि स्वामी विवेकानन्द को स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हम उनके मूल भावों को समझने, एवं अनुसरण करने की चेष्टा करेंगे भले ही वह परिमाण में कितना ही छोटा क्यों न हो।  मनुष्य को यथार्थ मनुष्य के रूप में गठित करना ही स्वामी जी की शिक्षा का मूल भाव था। इस बात की चर्चा  हमने पिछले लेख में की थी । यह बहुत बड़ा कार्य है, पर छोटे पैमाने पर ही सही इस अनुसरण अनुसरण कार्य को करना ही होगा। यही एकमात्र रास्ता है।    
        इतनी बड़ी दुनिया, इतने बड़े-बड़े समाज, असंख्य लोगों की अनगिनत समस्यायें,असंख्य मतवादों पर आधारित अनगिनत आन्दोलन ! इतने सबकुछ के बीच खड़े होकर सबकुछ को अपने मतानुसार व्यवस्थित करने का स्वप्न देखना भी बड़े कलेजे की बात है। किन्तु, इस तरीके से कार्य को आगे बढ़ाने की व्यावहारिक सम्भावना बहुत कम ही दिखाई देती है। यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति 'यथार्थ' मनुष्य बनने की चेष्टा करे एवं दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता पहुँचा सके तभी बड़े-बड़े कार्य हो सकते हैं। स्वामीजी ने इसी पथ का अनुसरण कर आगे बढ़ने का परामर्श हमें कई रूपों में दिया है। स्वामी विवेकानन्द रूपी जीवन संगित का मुख्य आलाप (वादी -स्वर) था "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो!" उन्होंने कहा था - " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है मनुष्य को उसके दिव्य स्वरूप (Divinity) का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बतलाना। यदि इस आदर्श का अनुसरण किया जायेगा एवं जितने परिमाण इसे कार्यरूप दिया जायेगा,  उसी परिमाण में समाज का चेहरा भी बदलता जायेगा। यही है समाज की आध्यात्मिक क्रान्ति। 
       प्रत्येक जीव की प्रारंभिक चेष्टा प्राणरक्षा की होती है, यह सभी प्राणियों में सहजात प्रवृत्ति के रूप में विद्यमान रहती है। अकेले -अकेले प्रयत्न करने से सभी क्षेत्रों में सफलता नहीं मिल सकती - इसी अनुभव के आधार पर मनुष्यों ने समाज रचना की। " प्राण राखिते सदाई प्राणान्त"प्राण (साँस) को रोके रखने से प्राण निकल जाते हैं- इस सत्य को स्वीकार करने के बावजूद भी इसी के लिए कितने प्रयत्न किये जाते हैं। इसीलिए समाज को अधिक उपयोगी बनाने के लिए कितनी ही परियोजनायें चलाई जाती हैं और समय- समय पर विप्लव (क्रान्ति) की आवश्यकता पड़ती रहती है। 
    विप्लव शब्द 'प्लु' धातु से बना है। सम्पूर्ण समाज को किसी विचारधारा से आप्लावित कर देना ही विप्लव का मूल अर्थ है। जो सबकुछ को बहा कर ले जाय, उसे प्लावन कहते हैं, विप्लव नहीं कहते। यदि प्राणों की रक्षा करना सभी प्राणियों का प्राथमिक कार्य है तो प्राणों को विकसित करना- श्रेष्ठ जीव का महत कार्य है। साधारण जीवों के लिए जिसे सहज प्रवृत्ति कहते हैं, मनुष्य के लिए उसे महत प्रवृत्ति कहते हैं। जीव (मनुष्य) को पूर्णरूपेण विकसित करना एक आध्यात्मिक विषय है, और उसको विकसित करने की चेष्टा ही आध्यात्मिकता। इसी को समाज में संचारित कर देना आध्यात्मिक विप्लव है। सबकुछ को सैलाब के प्रवाह में प्रवाहित होने से रोक कर, पूर्ण रूप से विकसित कर लेना ही इस क्रान्ति का उद्देश्य होता है। और जितने भी तरीकों से समाज में परिवर्तन लाने की कोशिश की जाय -सब एक पक्षीय ही होंगे। हम खाद्यान्न उत्पादन, वस्तु उत्पादन, यातायात, शिक्षा , जमीन -मकान, न जाने किन-किन चीजों के लिए क्रान्तियाँ किया करते रहते हैं। किन्तु, इन सारी चीजों के पीछे इनके नियामक - मनुष्य की जो अन्तर्निहित सत्ता है, जिसके पूर्ण विकास होने से मनुष्य सर्वशक्तिमान हो उठता है एवं सभी समस्यायों का (मृत्यु का भी) समाधान कर सकता है, उसी जीवनदायिनी भावना से सबको भावित करने वाले आध्यात्मिक विप्लव की हम उपेक्षा कर देते हैं। किन्तु, वास्तव में यह मनुष्य के विकास की क्रान्ति को दबा देना है तथा उसके विकास की राह में रोड़ा उत्पन्न करना है, इस बात पर हम एकबार भी विचार नहीं करते हैं। 
             स्वामीजी कहते थे - मैं छोटे-छोटे परिवर्तन या समाज-सुधार में विश्वास नहीं करता। मैं आमूल-चूल परिवर्तन लाना चाहता हूँ। इसी विचार, इसी भाव से समाज के सभी स्तरों के मनुष्यों को आप्लावित कर देना ही वेदान्तिक या आध्यात्मिक विप्लव है। कवि रामप्रसाद का गीत है - 'मूल धोरे टान देबार' (जड़ से ही खींचने की जरूरत है।)  स्वामी विवेकानन्द उसी जड़ को पकड़ कर खींचना चाहते थे। जड़ से खींचने से जराजीर्ण प्राचीन दुराग्रह, निरर्थक चीजें आप ही झड़कर अलग हो जाएँगी। एवं उस जड़ से निकल पड़ेंगी नई डालियाँ, नये पल्ल्व , नवीन पुष्प। वृक्ष के ऊपर जल डालने से उसके पत्तियों को चमकाया जा सकता है, किन्तु उसकी जड़ों में रस का संचार नहीं किया जा सकता। इसीलिए जड़ में पानी सींचना पड़ता है, ताकि जड़ वृक्ष को मिट्टी से जकड़े रखे। मिट्टी से पानी खींचकर तनों और पत्तियों तक पहुंचाता रहे एवं उन्हें जीवित रखे।  केवल जीवित ही नहीं रखे , बल्कि वृद्धि भी करता रहे तथा फल-फूल से सजाता रहे।              
      मनुष्य जीवन रूपी वृक्ष को सींचने की बात कहकर ही स्वामीजी रुक नहीं गये थे, बल्कि  उसे पूर्ण रूप से सार्थक करने का रास्ता भी बतलाया था। इन सभी बातों को हमें धीरे- धीरे जानना होगा, उनपर गहराई से चिन्तन करना होगा, फिर उन भावों को अपने जीवन में एवं समाज के जीवन में रूपान्तरित करने का प्रयास भी करना होगा। स्वामी विवेकानंद ने कहा है, मैं बीज के स्वाभाविक विकास पर विश्वास करता हूँ। जिस बीज में जीवन है, जो सजीव है वह विकसित होकर स्वयं वृक्ष में परिवर्तित होता है बाहर से कोई चीज भीतर भर डालकर उसे ग्रहण नहीं करवाया जा सकता है। आज का जीव-विज्ञान जैव-कोशिकाओं के मूल को जानने की कोशिश कर रहा है। जीन (Gene) की खोज कर मनुष्य उसके रूप, प्रकृति में परिवर्तन कराकर जीवधारी की शरीर में आमूल परिवर्तन लाने पर शोध कर रहा है। इसे ही वैज्ञानिक पद्धति कहते हैं। स्वामीजी ने वर्षों पहले समाज के 'जीन' का आविष्कार कर लिया था, एवं उसके अध्यन और संवर्धन का उपदेश दिया था। [अजय +सुदीप का अनुवाद ?}
        समाज के मूल में मनुष्य है, इसीलिये एक-एक करके सभी मनुष्यों को दोषरहित मनुष्य में परिवर्तित होने पर ही समाज परिवर्तित हो पायेगा। एकमात्र आध्यात्मिक विप्लव ही इस कार्य में सक्षम है। यदि हम मानव समाज को पशु समाज में तब्दील होते देखना नहीं चाहते हैं तो हमें इस बात को अभी ही समझ लेना चाहिए। अभी हम अंधे के समान जिस रास्ते पर चल रहे हैं -उससे हमलोग दुर्भाग्य को टाल नहीं सकते। विपत्ति की गंभीरता को हमें अभी ही समझ लेना होगा।  बाघ अथवा सिंह मनुष्य की तुलना में अधिक शक्तिशाली होता है, किन्तु वह तो पशु की शक्ति है, ऐसी पाशविक शक्ति को बढ़ाने से मनुष्य की प्रगति नहीं हो सकती, बल्कि और पीछे जाना पड़ सकता है। मनुष्य की यथार्थ शक्ति है -उसका मनुष्यत्व- इस बात को पूरी मानव जाति को बतलाना होगा। 'मनुष्यत्व' धारण करने वाला मनुष्य किसी को हानि पहुँचाकर, दूसरों के सिर को कलम कर अपने उदरपूर्ति में लगे नहीं रह सकता है। वह तो दूसरों का कल्याण करते हुए स्वयं को कल्याण के मार्ग में अग्रसर रखता है। यही विचारणीय आदर्श एवं सर्वोच्च भाव है- और यही स्वामी जी का भाव भी है।   
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(My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.) 
 

     

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

🕊🏹अनुसरण ही सच्चा स्मरण 🕊🏹 [ प्रथम अध्याय -1.2 : "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ": SVHS-1.2 ]


2.

🕊अनुसरण ही सच्चा स्मरण🕊 

      153 वर्ष पूर्व 12 जनवरी 1863 ई० (28 पौष, 1259 बंगाब्द) को स्वामी विवेकानन्द का जन्म हुआ था।  मात्र 39 वर्ष के जीवनकाल में ही किसी आँधी के सदृश पूरी दुनिया को झकझोर देने के बाद 4 जुलाई 1902 ई ० को उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था।        
           जब वे जीवित थे तब हमने उनके विचारों का विरोध किया था, उनकी निन्दा की थी, उनके उपर झूठे आरोप लगाये थे, फिर हमने उनको प्यार भी किया था, प्रशंसा की थी, स्वागत में तोरण-द्वार सजाये थे, उनके रथ को घोड़ों के बजाय मनुष्यों ने खींची थी, धन्यवाद कहा था, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की थी, पूजा अर्पित की थी। उनके चले जाने के 114 वर्ष बाद (2016 ई ० में), उनके आविर्भाव को स्मरण कर हम नाना प्रकार से उनके प्रति श्रद्धा अर्पित करते हैं। परन्तु , आज हमारे जीवन में जो संधि बेला उपस्थित हुआ है वह हमें यह सोचने पर विवश करता है कि हम जिस प्रकार यह सब आयोजन कर रहे हैं, वह ठीक भी है या नहीं? बिल्कुल ठीक नहीं है। यदि सबकुछ ठीक होता तो हम यह अवश्य सोचते कि उनके संदेशों एवं परामर्शों को देख-सुन या समझ- बूझकर  आगे बढ़ना श्रेयष्कर है। किन्तु , ऐसा नहीं है। वास्तव में हमने उनके प्रति जो विरोध एवं उत्साह दिखलाई थी, वे एक हद तक हमारे मन की संकीर्णता व जड़ता एवं अतिशय भावुकता के परिणामस्वरूप थे। वस्तुतः हमारे क्रिया-कलापों के पीछे कोई सुविचारती आदर्श या उद्देश्य नहीं था। हम सोच-विचार कर निर्णय नहीं ले पाते कि जिस आदर्श को ग्रहण कर रहे हैं या अस्वीकार ग्रहण कर रहे हैं उसका आन्तरिक मूल्य कितना है
        विवेक-विचार कर के दृढ़ निर्णय लेना सबसे अच्छा होता है। बिना विवेक-विचार किये एक समूह (गुट) बनाकर किसी व्यक्ति की विशेष पूजा करने में जुट जाते हैं अथवा इसके उलटा उसका अनादर या वहिष्कार करने लगते हैं। इसलिये व्यक्ति-विशेष या आदर्श-विशेष के प्रति खूब सोच-विचार कर देखना चाहिए कि कौन सा आदर्श सही है।  इसके उपरान्त ही इसे ग्रहण अथवा अस्वीकार करना उचित है। इस प्रकार किसी आदर्श को अस्वीकार करने से भी कोई हानि नहीं होगी। फिर ग्रहण किये गए व्यक्तित्व आदर्श के प्रति पूरी आस्था के साथ समर्पित होना होगा तथा उस आदर्श को कार्यरूप देने में लग जाना होगा। क्योंकि केवल आदर्श का चयन कर लेने से ही  सबकुछ नहीं हो जायेगा। 
      स्वामी विवेकानन्द या अन्य किसी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का तबतक कोई मूल्य नहीं है जब तक हम उस भाव या आदर्श को निष्ठापूर्वक ग्रहण नहीं कर लेते और उन भावों को अपने जीवन एवं समाज में रूपायित करने का प्रयास नहीं करते। आजकल तो हाल यह है कि जिनका अधिकांश लोग विरोध करते हैं, 'स्मृति-सभा ' में उनको भी कुछ लोग श्रद्धा सुमन चढ़ा आते हैं। इस प्रकार एक के बाद एक शतवार्षिकी समारोहों को आयोजित होता देखकर यह आश्चर्य भी होता है कि इतने सारे 'स्मरणीय' लोग सौ वर्ष पूर्व के आसपास भारत में आविर्भूत हुए थे ! 
       हमलोग वर्ष दर वर्ष जितने लोगों को स्मरण करते हैं, उनके विचारों को अपने जीवन में कितना रूपायित कर पाते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम उनके विचारों को कितनी आन्तरिकता से ग्रहण करते हैं। यदि हम स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करना चाहते हों तो हमें उनका अनुसरण करने की चेष्टा करनी होगी नहीं तो उनकी स्मरण सभा का कोई महत्व नहीं रहेगा , सभा निरर्थक हो जाएगी।  इसलिए प्रश्न उठता है कि उनका स्मरण किस प्रकार किया जाय ? इसके लिए यह जानना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि उनकी शिक्षाओं का मूलभाव (वादी स्वर) क्या था ? 
              हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य को यथार्थ मनुष्य में विकसित करना या मनुष्य को सच्चे मनुष्य में रूपान्तरित कर देना ही- उनकी समस्त शिक्षाओं का मूलभाव है !  इस मूल भाव को मानव जीवन के समस्त क्षेत्रों में रूपायित किया जा सकता है और समाज के सभी स्तरों पर यह कार्य सम्भव है। इस भाव का प्रचार-प्रसार देश-काल की सीमा रेखा के परे भी सम्भव है, क्योंकि मनुष्य की सत्ता सभी देशों और सभी युगों में लगभग एक सी ही रहती है। यद्यपि इसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न देशों अथवा कालों में भिन्न-भिन्न हो सकती है इसलिए किसी  प्रकार की संकीर्णता या किसी वर्ण विशेष के आदर्शों की सीमाओं के भीतर इसे सीमित नहीं रखा जा सकता है।   
               स्वामी जी सभी देशों के सभी मनुष्यों को उनकी पूर्णता -प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे। जिन मनुष्यों में संभावनाओं को अभिव्यक्ति कम हुई है उन पर उनकी दृष्टि विशेष रूप से आकृष्ट हुई थी। जो लोग मूर्ख हैं, दरिद्र हैं, उपेक्षित और पददलित हैं, उनके प्रति स्वामी जी की वेदना सबसे अधिक है।
                  किन्तु, इस के साथ ही उन्होंने आनेवाली पीढ़ी के लोगों से एक अपूर्व अनुरोध भी किया था।उन्होंने कहा था- गरीबों को प्रकाश दो किन्तु धनीकों को और अधिक प्रकाश दो; क्योंकि वे और अधिक अंधकार में गिरे हुए हैं। अशिक्षितों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षितों को और अधिक प्रकाश दो क्योंकि इस समय विद्या का (डिग्री और उच्चजाति का) घमण्ड बहुत बढ़ गया है। जो लोग धन के घमण्ड में, विद्या के घमण्ड में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं।  क्योंकि वे समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा का अवसर पाने के बावजूद भी इस दुर्लभ जीवन का सदुपयोग नहीं करते। जो गरीबों के शोषण से अर्जित धन को खर्च कर शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिखकर उनके बारे में सोचते तक नहीं हैं, स्वामी जी ने उन्हें देशद्रोही कहा था। उन्होंने कहा था जब तक देश का एक कुत्ता भी भूखा है, उसको रोटी देना ही मेरा धर्म है। 
                 इसीलिये आज हमारे लिये यह जान लेना अत्यन्त आवश्यक है कि वास्तव में उनके आने का उद्देश्य क्या था ? वे हमें कितने अच्छे लगते हैं, इसी को लेकर बैठे रहना भावुकता का लक्षण है। ऐसा नहीं करके हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिये कि वे अपने क्रमानुयायियों 
से क्या अपेक्षा रखते होंगे ? उनके गेरुआ वस्त्र और प्रशान्त मुखमण्डल को देख भावुकता से ओतप्रोत हुए बिना यह उपलब्धि करनी होगी कि गैरिक वस्त्र अनन्त जीवन के संग्राम का प्रतीक है! उनको स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मूल भावों को समझने की चेष्टा करें, और फिर इन भावों का अनुसरण भी करें भले ही परिमाण में ये भाव  कितने ही छोटे क्यों न हों। 
हमलोगों ने समाज एवं मनुष्य की उन्नति के प्रेरणा श्रोत की दृष्टि से अभी तक व्यापक रूप से स्वामी विवेकानन्द को समझने की कोशिश ही नहीं की है, उनका अनुसरण करना तो बहुत दूर की बात है। आज स्वामीजी को स्मरण करते समय हमें इन बातों को नहीं भूलना चाहिए। 
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बुधवार, 18 जुलाई 2012

🏹"अतीत या भावी युग के नायक ?"🏹 ["स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " (प्रथम अध्याय ) : स्वामी विवेकानन्द~"व्यक्ति और मन " [ (SVHS-1.1) : (Swami Vivekananda ~ Person and Mind) ]

  " स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना "

लेखक ~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय  

हिन्दी अनुवादक का मन्तव्य :  
        स्वामी जी ने कहा था श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है।  'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर पुस्तकालय' (सह युवा चरित्र-निर्माणकारी संस्था) जो 14 जनवरी, 1985 को स्वामी विवेकानन्द की साक्षात् प्रेरणा से बेलाटांड़ दुर्गा मण्डप झुमरीतिलैया, कोडरमा, जिला हजारीबाग, तत्कालीन बिहार में स्थापित हुआ था ; वही युवा चरित्र-निर्माणकारी संगठन-अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव और माँ श्री सारदा देवी के आशीर्वाद से 'विवेकानन्द युवा महामण्डल' में रूपान्तरित होकर 14 जनवरी 2024 को अभ्रक नगरी (mica city) नाम से प्रसिद्ध झुमरीतिलैया, जिला कोडरमा, झारखण्ड  के झण्डा चौक पर स्थापित हो गया।  

        मेरा प्रथम वार्षिक शिविर बेलघड़िया में 1987 में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर से हुए था। उसी शिविर मैंने इस पुस्तक के सहित महामण्डल द्वारा प्रकाशित समस्त बंगला-अंग्रेजी पुस्तकों का दो-दो सेट खरीद लिया था। किन्तु बंगला पढ़ना बिल्कुल नहीं जानता था। महामण्डल द्वारा 1987 में बेलघड़ीया में आयोजित 20 वां वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, मेरे लिए महामण्डल का प्रथम कैम्प था। वह शिविर मेरे लिए  प्रवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों में से एक, विवेक-वाहिनी के संस्थापक सचिव C-IN-C श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय'  नवनीदा को साक्षात् देखने और "सत्ययुग स्थापित करने की पद्धति" से परिचित होने का पहला अवसर था।        उस शिविर से लौटने के बाद 12 जनवरी 1988 को ही 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' का विलय 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल ' में कर दिया गया था । और महामण्डल का बिहार राज्य स्तरीय प्रथम तीन दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर, सी. एच. हाई स्कूल में 27 से 29 मई 1988 को आयोजित हुआ। जिसमें महामण्डल के केन्द्रीय समीति के सभी सदस्यों का (केवल अध्यक्ष अमियो दा को छोड़कर) झुमरीतिलैया में पदार्पण हुआ। उस शिविर के बाद से ही जितनी आवश्यक पुस्तकें थीं उनका हिन्दी अनुवाद करने लगा, क्योंकि मेरे मित्र मण्डली में कुछ बंगाली भी थे। उनकी सहायता से बंगला पढ़ना और बंगला बोलना सीखने लगा। 1988 के वार्षिक शिविर से ही मुझे शिविर में दिए गए बंगला-अंग्रेजी भाषणों को सुनकर तुरन्त उसका हिन्दी सारांश बोलने का उत्तरदायित्व नवनीदा ने मेरे ऊपर सौंपा था। 

अनुवादक : 

श्री विजय कुमार सिंह


प्रकाशक का निवेदन 

        अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा बंगाली भाषा में लिखित ग्रन्थ ~ "स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना " का हिन्दी अनुवाद तथा हिन्दी पुस्तिका के रूप में "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना (भाग -1)" शीर्षक के साथ उसका प्रथम हिन्दी संस्करण 25 दिसम्बर, 2016 को प्रकाशित हुआ था। 
   
       यह बड़े हर्ष की बात है कि झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग ने उपरोक्त पुस्तक के हिन्दी अनुवाद में - जुलाई, 2012 में बंगाली भाषा में प्रकाशित ग्रंथ "স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা" के 10 अध्यायों में विभक्त समस्त लेखों के संशोधित और परिमार्जित अनुवाद को झुमरीतिलैया शाखा से प्रकाशित महामण्डल की मासिक हिन्दी संवाद पत्रिका " विवेक अंजन " में क्रमवार ढंग से पुनः छापने का निर्णय लिया है। करोना महामारी आदि विभिन्न कारणों से महामण्डल की हिन्दी संवाद पत्रिका 'विवेक अंजन ' का प्रकाशन बंद हो गया था , जिसे सितम्बर, 2024 से नियमित रूप में प्रकाशित करने का संकल्प लिया गया है।      

यद्यपि इस पुस्तक का चतुर्थ बंगला संस्करण 4 जुलाई 2012 को प्रकाशित हो चुका है , तथापि हिन्दी में यह पुस्तक अनुपलब्ध रहने के कारण हिन्दी पाठक इस पुस्तक का लाभ लेने से अबतक वंचित थे। 
        उल्लेखनीय है कि महामण्डल द्वारा प्रकाशित समस्त बंगला एवं अंग्रेजी साहित्य एवं व्याख्यानों का हिन्दी अनुवाद इस पुस्तक के अनुवादक द्वारा वर्षों से किया जा रहा है , और अधिकांश पुस्तकों को हिन्दी में प्रकाशित भी किया जा चुका है। यह बंगला पुस्तक मोटी थी, इसलिए इसका छपाई व्यय बहुत अधिक आता, यही सोचकर इसका प्रकाशन संभव नहीं हो पा रहा था। 
          किन्तु, अनुवादक जब इस पुस्तक का अनुवाद कर रहे थे तब इसमें समाहित लेखों को पढ़ने के बाद यह महसूस किये कि इस पुस्तक में मानवजाति और पूरे समाज की उन्नति के लिए अमूल्य सामग्री है, जिसे शीध्रता से प्रकाशित करने की आवश्यकता है। इस महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग' ने इसे पुनः प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। 
         किन्तु पुस्तक की मोटाई और आर्थिक अभाव को देखते हुए इसे प्रकाशित करना सम्भव नहीं हो पा रहा था, अतएव महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से अनुमति लेकर इसे खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया ताकि यह आसानी से छपता रहे और छात्र-छात्राओं को भी कम मूल्य पर प्राप्त होता रहे। 
      "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना (भाग -1)"  ग्रन्थ के प्रथम अध्याय का शीर्षक होगा -" स्वामी विवेकानन्द ~ व्यक्ति और मन " (Swami Vivekananda ~ The Person and his Mind) शीर्षक इस अध्याय में कुल नौ लेखों को समावेशित किया गया है। इसी प्रकार आगे के लेखों को अलग -अलग अध्यायों के शीर्षक के अनुसार विभाजित कर क्रमशः प्रकाशित किया जायेगा। प्रथम बंगला संस्करण के कुछ लेखों को इसके चतुर्थ संस्करण से हटा दिए गए थे, उन्हें यहाँ पुनः यथास्थान समाहित किया जा रहा है। 

'विवेक-अंजन', (महामण्डल की मासिक संवाद पत्रिका) सितम्बर -2024 :
मूल्य :  एक प्रति - 6 रु , वार्षिक -वार्षिक -60 रु। 

Editor: Bijay Kumar Singh. Assistant Editors : Ramchandra Mishra & Ajay Pandeya
  
Publication Office :

4th Floor, Hariom Press.  

Jhumri Telaiya, Koderma (Jharkhand)

Phone : Ajay, Ramchandra, Sudeep   
  
 Publisher :

 Sri Bijay Kumar Singh

Vice President,  

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 

6/1A , Justice Manmatha Mukherjee Row,

Kolkata, India -700009

Phone - 9386699949 
E-mail : singhbijay50@gmail.com
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अक्टूबर 1984 में बंगाली भाषा में प्रकाशित : 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' के  प्रथम प्रकाश के समय प्रकाशक का -

निवेदन    

      मानव-समाज के समक्ष कुछ न कुछ समस्या हर देश और हर युग में रहती है। कभी -कभी तो समस्यायें राष्ट्रीय संकट का रूप धारण कर लेती हैं। इन दिनों अधिकांश लोग मानने लगे हैं कि हमारा देश भारी संकट के दौर से गुजर रहा है। गरीबी, अशिक्षा,अनैतिकता और आम जनता के प्रति सच्ची सहानुभूति का अभाव, दूसरों को हानी पहुँचाकर भी अपना स्वार्थ पूरा करने का निर्लज्ज प्रयास, तथा मानवीय मूल्यों एवं आत्मविश्वास का घोर आभाव देखकर बहुत से लोगो को पीड़ा  होती है। किन्तु, इसके लिए दूसरों पर दोषारोपण कर निश्चिन्त हो जाते हैं। 
     हम लोग इस सच्चाई से ऑंखें मूंदे रहते हैं कि मनुष्य की आन्तरिक शक्ति और संभावनाओं को विकसित कर ही अवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है। मनुष्य के अन्तर्निहित दिव्यता के विकास की कोई सीमा नहीं है, तथा उन दिव्य सम्भावनाओं के विकास की भी कोई सीमा नहीं है। रचनात्मक विचार तथा कठोर परिश्रम की सहायता से इस संभावना को  प्रकाशित एवं विकसित कर ही हम समाज में परिवर्तन ला सकते हैं। 
     असाधारण हृदयवत्ता, मानव-प्रेम और उच्च मनीषा के अधिकारी स्वामी विवेकानन्द ने मानव समाज विशेषतः भारत के जन-जीवन के असीम दुःख-दैन्य के मूल कारण को समझा था एवं उसे मिटाने का उपाय भी बताया था। युवाओं की समस्यायों को देखकर समस्त विचारशील व्यक्तियों का ह्रदय व्यथित होता ही है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने युवा जीवन में ही सम्पूर्ण समाज की सम्यक उन्नति के बीज को निहित पाया था तथा युवा समाज के सर्वांगीण उन्नति के सपने को साकार करने के उद्देश्य से उन्होंने समस्त युवाओं को अपनी-अपनी सम्भावनाओं को प्रस्फुटित करने आह्वान किया था।
        इस पुस्तक में संकलित निबंधों का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द के इसी आह्वान को आमजन तक विशेष कर युवाओं के समक्ष सरल भाषा में प्रस्तुत करना है। महामण्डल विगत 56 वर्षों से विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से यही करता चला आ रहा है। इसकी मासिक द्विभाषी पत्रिका "विवेक-जीवन" भी विगत 54 वर्षों से प्रकाशित होती आ रही है। इस संकलन के अधिकांश लेख ' विवेक-जीवन ' के विभिन्न अंकों में सम्पादकीय के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। किन्तु सभी लेख ही प्रकाशित हुई हों ऐसा नहीं हैं। इनमें से कई शिविर की कक्षाओं में दिए गए व्याख्यान भी हैं जिन्हें बाद में सम्पादकीय के रूप में प्रकाशित किया गया है। इसीलिये यह संभव है कि सम्पूर्ण पुस्तक में भाषा और भाव की अभिव्यक्ति में कहीं कहीं अंतर दिखाई दे, और कहीं- कहीं एक ही विषय का दुबारा उल्लेख भी दिखे
    इधर बहुत दिनों से कुछ पाठक और महामंडल के शुभचिंतक ' विवेक-जीवन ' के सम्पादकीय लेखों को संकलित कर प्रकाशित करने का अनुरोध कर रहे थे। किन्तु, धन के अभाव में यह  संभव नहीं हो पा रहा था। यह समस्या अब भी रहने के बावजूद इसे प्रकाशित किया जा रहा है। इस पुस्तक की बिक्री से प्राप्त राशि का व्यय महामण्डल के कार्यों में ही किया जायेगा। आगे चल कर धन की सुविधा होने पर अंग्रेजी सम्पादकीय लेखों को भी संकलित कर प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा   
    विवेक-जीवन के सम्पादकीय लेखों के आलावा कुछ अन्य रचनाएँ भी आलोच्य विषय की  व्याख्या में सहायक सिद्ध होंगी -अतएव इसमें उन्हें भी समावेशित कर लिया गया है। जैसे- ' स्वामी विवेकानन्द एवं युवा समाज ' तथा ' राष्ट्रिय एकता एवं स्वामी विवेकानन्द ' ये दो लेख रामकृष्ण मिशन सारदा-पीठ की वार्षिक स्मारिका 'सारदा' में प्रकशित हो चुके हैं। ' युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द ' लेख बलराम मन्दिर में श्री श्री ठाकुर के पदार्पण की  शतवार्षिकी समारोह के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में मुद्रित हुआ था। इन तीनो लेखों के पुनर्मुद्रण की अनुमति देने के लिये हम रामकृष्ण मिशन सारदापीठ एवं बलराम मन्दिर के अध्यक्ष महोदय के प्रति आभार प्रकट करते हैं। 'काँथी रामकृष्ण मिशन आश्रम ' द्वारा आयोजित युवा सम्मेलन के अवसर पर उनके अनुरोध पर लिखित लेख- ' नारि-जाती की उन्नति के संदर्भ  में स्वामी विवेकानन्द के विचार ' को भी इसमें सम्मिलित किया गया है। ' स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग ' कई वर्ष पूर्व दिए गये व्याख्यान से लिया गया है । ये दोनों लेख पहले कहीं प्रकाशित नहीं हुए हैं।
 यदि इस संकलन में प्रकशित निबन्धों के अध्यन से थोड़े भी युवा विवेकानन्द के भाव को ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें तो हमारा परिश्रम सार्थक हो जाये। 

प्रकाशक 

प्रथम बंगला संस्करण : अक्टूबर, 1984


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बंगाली भाषा में प्रकाशित चतुर्थ संस्करण की भूमिका 

    पूर्व में प्रकाशित समस्त संस्करणों के समाप्त हो जाने के बाद, आठ नये निबन्धों को जोड़ कर तथा कुछ लेखों को हटाकर पुनः नये परिष्कृत कलेवर में इस ग्रन्थ का चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इस ग्रन्थ में स्वामीजी का दो नया चित्र भी इसमें डाला गया है, जिसमें से एक चित्र अमेरिका स्थित 'वेदान्ता सोसायटी ऑफ़ सेंट लुईस ' के अध्यक्ष स्वामी चेतनानन्द के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। स्वामी विवेकानन्द के सार्धशततम जन्म जयन्ती के अवसर पर महामण्डल प्रकाशन द्वारा प्रस्तावित प्रकाशन में से एक ग्रन्थ यह है। 
      भारत के राष्ट्रियकृत बैंकों में से एक 'यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया ' के प्राधिकारी वर्ग ने इस ग्रन्थ को प्रकाशित करने में विशेष रूप से आर्थिक सहायता प्रदान की है। उनके प्रति, विशेष रूप से यूनियन बैंक के चेयरमैन श्री देवब्रत सरकार के प्रति हम अपनी विनम्र आंतरिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। एवं सर्वश्री अमित कुमार दत्त, भूपेन्द्र चन्द्र भट्टाचार्य, अरुणाभ सेनगुप्त, तथा विश्वनाथ पाल आदि ने भी इस ग्रन्थ के प्रकाशन में कई तरह से सहायता पहुँचाई है। ग्रन्थ की रूपसज्जा श्री सुकेश मण्डल के सौजन्य से हुई है। श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामीजी का आशीर्वाद सबों के उपर वर्षित हो, यही प्रार्थना है।
 
  आर्थिक सहायता मिलने से भी इस संवर्धित संस्करण के कलेवर में वृद्धि तथा अन्य प्रासंगिक व्यय में अत्यधिक होने से न चाहते हुए भी ग्रन्थ के मूल्य में थोड़ी सी वृद्धि करनी पड़ी है। आशा करते हैं, इस विशेष संस्करण को सुधि पाठक वृन्द स्वीकार करेंगे, तथा स्वामीजी के सार्धशततम जन्म जयंती में साक्षात् भाग लेने के आनन्द का उपभोग करेंगे। -प्रकाशक

Publisher 

Shri Ranen Mukherjee,

Convener, Special Publications Sub-Committee,

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal

'Bhuvan- Bhavan', Po : Balaram Dharmasopan
Khardah, North Twenty Four Parganas 7000116
West Bengal

4 जुलाई 2012  
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स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 
 
 प्रथम अध्याय 

 स्वामी विवेकानन्द : व्यक्ति और मन ]

[Swami Vivekananda :Person and Mind]

(1) 

🏹🔱🕊 अतीत या भावी युग के नायक 🏹🔱🕊

     स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानों में प्रयुक्त कई शब्दों के अर्थ, सामान्यतः प्रचलित अर्थों से इतने भिन्न हैं कि हम प्रायः इनका अर्थ लगा बैठते हैं। दरअसल विवेकानन्द को पढ़ने एवं उनकी शिक्षाओं को गहराई से समझने की हमने अबतक कोशिश
 ही नहीं की है, इसलिए हम उन्हें एक धार्मिक भय ( religious awe) के रूप में देखते हैं, तथा उन्हें भी अपने देश के केवल महान धार्मिक सन्त समझकर उनके प्रति एक भयमिश्रित आदर का भाव पाल लेते हैं। इसी कारण हम उन्हें ठीक से समझ नहीं पाते हैं, और यह भययुक्त आदर का भाव उनके प्रति सच्ची श्रद्धा में परिणत नहीं हो पाता। तथा उनका अनुसरण करने की बात तो 
हम सोच भी नहीं पाते। उनके व्याख्यानों में आसानी से समझ में नहीं आने वाले बहुत से शब्दों को सुनकर हम उन्हें एक सामान्य प्राचीन धर्म प्रवक्ता समझ बैठते हैं। क्योंकि जिस समय उनका आना हुआ था उस समय से हम बहुत आगे निकल चुके हैं। अब तो हम चाँद पर पाँव रखने का गर्व करने वाले मनुष्य बन चुके हैं
       समय के साथ-साथ हम भी प्रवाहित हो रहे हैं। हम समय के साथ कदम मिलाकर चलना चाहते हैं। क्योंकि समय के साथ चलने वालों को ही आधुनिक कहा जाता है नहीं तो पुरातनपंथी समझा जाता है।  समय के साथ नहीं चल पाने के दो कारण हो सकते हैं - एक समय से पीछे रह जाना और दूसरा समय से आगे निकल जाना। इन दोनों अवस्थाओं में वर्तमान के साथ कदम नहीं मिल सकते। जब समय के साथ कदम नहीं मिलते तब उसे पुरातन-पंथी समझते हुए हम अपने को अत्यन्त प्रगतिवादी मान बैठते हैं। किन्तु जो समय के साथ नहीं चलते वे समय से आगे हो सकते हैं या पीछे भी हो सकते हैं।  
      स्वामी जी उस समूह के एक व्यक्ति थे, जिनके कदम समय से आगे रहते हैं वे अतीत के बजाय भविष्य के मनुष्य थे।  यहाँ तक कि वर्तमान को देखने के लिए भी उन्हें पीछे मुड़कर देखना पड़ता था।  विवेकानंद समय से आगे की बात सोचने वाले युवा- दल के नेता थे। वे तो अतीत के विपरीत भविष्यद्रष्टा थे ! यहाँ तक कि वर्तमान को देखने के लिए उन्हें पीछे मुड़कर देखना पड़ता था। इसलिए वे तत्कालीन भारत के आलस्य एवं जड़ता आदि सैकड़ों कारणों से वे पीड़ा का अनुभव करते थे। 
    जिस युग में वे आविर्भूत हुए थे, उस समय हमारे देश में पश्चिमी आधुनिकता का सैलाब आया हुआ था और हमारा नव शिक्षित समुदाय उस सैलाब में डूब-उतरा रहा था। उस समय स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी कि वे उन अनाड़ी आधुनिकों में से नहीं हैं जो ईश्वर को भी तड़ित के  परिणाम विशेष जैसा प्रमाणित करने की चेष्टा करते। वे ऐसे अत्याधुनिक व्यक्ति थे जो एक ही  दृष्टि में दिगंत तक विस्तृत अतीत से वर्तमान एवं उससे आगे भविष्य को भी इन्द्रधनुष के समान स्पष्ट रूप से देखने  में समर्थ थे। 
      नव आधुनिकों की तरह वे जो कुछ भी प्राचीन है उसे त्याग देने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने कहा था कि वर्जन (Exclusion) शब्द उनके शब्दकोश में नहीं है। उन्होंने गौरवमयी अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान के शिशु को अपने  पैरों पर खड़े होने तथा भविष्य को और भी अधिक महानता से गढ़ने की साधना में वीरतापूर्वक कदम आगे बढ़ाने का  आह्वान किया था।
     उन्होंने कामना का त्याग करने को कहा था। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि सबको  कामनाहीन, निरुत्साही और निश्चेष्ट हो जाना चाहिए। बल्कि कामना के दास होने से बचना चाहिए। [निवृत्ति अस्तु महाफला] उन्होंने विश्वधर्म  के इतिहास का अध्यन करके यह जान लिया था कि केवल इसी देश में धर्म, अर्थ और कामना को सुसमन्वित अभ्यास (3'P') के द्वारा फलोपयोगी बनाया गया था ! अन्तिम पुरुषार्थ - 'मोक्ष' को सबके लिए अनिवार्य नहीं किया गया था। क्योंकि मनुष्यों में इहलोक और परलोक के सुख भोगों के प्रति स्वाभाविक लालसा रहती है। धर्म को समझने के क्रम में कई बार उन्होंने यहाँ तक कहा है कि पाश्चात्य के लोगों में धर्म के प्रति अधिक आग्रह है। क्योंकि हमलोगों ने अभी तक उनके समान भोग सामग्रियों का उपभोग करके उसकी निस्सारता का अनुभव किया ही नहीं है। बिना भोग किये योग में प्रवृत्त होने के लिए अपनी बड़ाई हाँकने प्रवृत्ति की उन्होंने 'ढोंग' कहकर घोर निंदा की है।  यह तो सात्विकता के आवरण में लिपटी हुई घोर तामसिकता है !  
    स्वामीजी गुणों के क्रम विकास में [क्षात्र वीर्य और ब्रह्मतेज में] विश्वास रखते थे। वे जिस प्रकार तमोगुण का परित्याग करते हुए रजोगुण के प्रकाश में सतोगुण में लीन शान्ति  का आश्रय ग्रहण करने के पक्षधर थे, ठीक उसी प्रकार सामाजिक जीवन में शूद्रों की एकता, वैश्यों का आदान-प्रदान, क्षत्रियों के शौर्य एवं उनकी  वीरता की उपलब्धी कर लेने के पश्चात साधना के द्वारा ब्रह्मतेज प्राप्त करने के मार्ग में सबको अग्रसर होने की प्रेरणा देते थे।   
      दरिद्रता, अशिक्षा और अज्ञानता के अंधकार को अतीत की गहरी खाई में फेंककर मनुष्य में अन्तर्निहित शाश्वत दिव्यता (inherent divinity) को उद्घाटित करा देना ही उनके कर्मयोग  का रहस्य है। वे केवल हमें इतना स्मरण करा देना चाहते थे कि- " सैंकड़ों ब्रह्मा और इन्द्र 'बुद्धत्व' पाये हुए नर-देवों के चरणों पर लोट जाने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं। तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था पर मनुष्य मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। " ( वर्तमान भारत 9/204) 
      इस भविष्यद्रष्टा, वीर-योद्धा के समक्ष आधुनिकता की राग अलापना तो  नवजात शिशु का क्रंदन मात्र है। इसलिए प्रश्न यह उठता है कि स्वामीजी अतीत के नायक थे या भविष्य के ? 

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>>>'बुद्धत्व-प्राप्ति' की अवस्था - "... सैंकड़ों ब्रह्मा और इन्द्र बुद्धत्व पाये हुए नर-देवों के चरणों पर लोट जाने के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हैं। तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था पर मनुष्य मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है।"

[With the deluge which swept the land at the advent of Buddhism, the priestly power fell into decay and the royal power was in the ascendant.....बौद्ध विप्लव के साथ साथ पुरोहित-शक्ति का ह्रास और राजसी शक्ति का विकास हुआ। आधुनिक हिन्दू धर्म और राजपूत आदि जातियों का अभ्युत्थान हुआ।  इस समय समाज के नेता वशिष्ठ , विश्वामित्र आदि नहीं रहे। वरन चन्द्रगुप्त मौर्य , सम्राट अशोक आदि हुए।  इसी युग के अन्त में   The state of being a Buddha is superior to the heavenly positions of many a Brahmâ or an Indrawho vie with each other in offering their worship at the feet of the Buddha, the God-man!  And to this Buddhahood, every man has the privilege to attain; it is open to all even in this life." MODERN INDIA/Volume 4,page -443/-

 🏹(तड़ित# 'अनाड़ी आधुनिक' समूह की भौतिक विज्ञानी -"निकोला टेस्ला" जैसे (আহাম্মক)   नहीं थे,जो ईश्वर को तड़ित पर दृष्टि गड़ाकर खोजते थे, बल्कि स्वामीजी ऋषि और वैज्ञानिक दोनों में सामंजस्य करना चाहते थे।)
 
 🏹#  'पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे अवस्था या 'भेंड़त्व की अवस्था' को देखने के लिए, करुणावश उन्हें (सच्चिदानन्द अवस्था) से पीछे मुड़कर देखना पड़ता था अर्थात 'सिंहावलोकन' करना पड़ता था। युवाओं की सुस्ती, धीमी गति, और इस गति,जीवन - लक्ष्य की अनिश्चित्ता को देखने से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। 

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शनिवार, 14 जुलाई 2012

महामण्डल समाचार

महामण्डल समाचार 
16 फरवरी2012, कल्याणी विश्वविद्यालय (प0बंगाल) : विश्वविद्यालय के छात्रावास में रहने वाले छात्रों के प्रयास से स्वामी विवेकानन्द की वार्षिक जन्म-जयन्ती के अवसर पर विवेकानन्द सभागार में ' चर्चा-मंच ' का आयोजन हुआ। सभा का उद्घाटन कल्याणी विश्वविद्यालय के उप-कुलपति (Vice-chancellor) प्राध्यापक आलोक कुमार वंद्योपाध्याय ने किया। इस सभा में स्वामी विवेकानन्द की विचार-धारा के प्रसंग पर बेलुड़ मठ के वरिष्ठ सन्यासी श्रीमत स्वामी स्वतंत्रानन्द एवं अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के सचिव श्रीवीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ने चर्चा किया। महामण्डल के कल्याणी केन्द्र द्वारा सभा-प्रांगन में एक बुक-स्टाल की व्यवस्था की गयी थी।
26 मार्च 2012, वर्धमान विश्वविद्यालय के अरविन्द छात्रावास के छात्रों ने स्वामीजी की वार्षिक जन्म-जयंती  के उपलक्ष्य पर अपने होस्टल के विशेष-कक्ष में एक सभा का आयोजन किया। इस अवसर पर महामण्डल के भाई श्रीतपन गोड़ाई एवं श्रीअरुणाभ सेनगुप्त ने - ' विद्यार्थी-जीवन में मनःसंयोग की प्रयोजनीयता ' 
तथा ' स्वामीजी की शिक्षा की प्रासंगिकता ' के विषय में चर्चा किया। सभा में लगभग 67 छात्र उपस्थित थे। सभा के बाद उनलोगों ने ' प्रश्नोत्तर कार्यक्रम ' में भी हिस्सा लिया। तथा महामंडल के वर्धमान केन्द्र द्वारा लगाये गये बुक-स्टाल से उनहोंने प्रासंगिक पुस्तकों को खरीदा।
22 जनवरी 2012, नदिया जिला के नवद्वीप विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। इस शिविर में 290 छात्रों ने हिस्सा लिया। शिविर का सायं-कालीन सत्र सबों के लिए खुला था। इस सम्मेलन में ' राष्ट्र-निर्माण में महामण्डल की भूमिका ' के विषय पर अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के सचिव श्रीवीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ने अपने विचार रखे। वर्तमान समय में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता के विषय पर रामकृष्ण मिशन शिक्षण मन्दिर, बेलुड़ मठ के सन्यासी श्रीमत स्वामी गोकुलेशानन्द ने चर्चा किया। प्राध्यापक पार्थ सेनगुप्त ने संगीत प्रस्तुत किया।
23 दिसम्बर 2011, झारखण्ड राज्य के पूर्वी सिंहभूम जिले के पाथरी विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा विगत कई वर्षों से निष्ठा पूर्वक महामण्डल कार्य संचालित किया जा रहा है। विगत 23 दिसम्बर को पाथरी केन्द्र द्वारा एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। 12 जनवरी 2012 को स्वामी विवेकानन्द के जन्म-दिवस के अवसर पर प्रभातफेरी एवं आम-सभा का आयोजन किया गया। इस केन्द्र द्वारा साप्ताहिक पाठ-चक्र एवं शिशु-विभाग भी अच्छे ढंग से चलाया जा रहा है।
पूर्वी मेदिनीपुर जिले के खड़ीगेड़ीया विवेकानन्द युवा महामण्डल से संवाद :
यहाँ के केंद्र द्वारा साप्ताहिक पाठ-चक्र, दातव्य होमिओपैथी चिकित्साकेन्द्र एवं ' विवेकानन्द शिशु शिक्षा निकेतन ' के नाम से एक नर्सरी स्कुल नियमित रूप से संचालित हो रहा है। इस स्कुल में 266 बच्चे पढ़ रहे हैं। नैतिकता मूलक कहानी सुनाना, गाने, कविता, खेल-कूद के साथ साथ पढ़ने लिखने की व्यवस्था की गयी है। शिशु के सर्वांगीन विकास पर विशेष नजर राखी जाती है।
पश्चिम मेदिनीपुर के हासिमपुर विवेकानन्द युवा महामण्डल से संवाद : 
यहाँ किशोर एवं युवाओं के लिये अलग-अलग दो पाठ -चक्र, एवं शिशु-विभाग ' विवेक-वाहिनी ' का संचालन पूर्ण निष्ठां के साथ चलाया जा रहा है। इस केन्द्र द्वारा संचालित ' दातव्य चिकित्सा-केन्द्र ' में एलोपैथिक एवं होमियोपैथिक विभाग के अलावा नेत्र-रोग एवं दन्त चिकित्सा की व्यवस्था भी की गयी है। पिछले वर्ष 8 गाँवों के 113 गरीब लोगो को नये कपड़े दिए गये। 12 जनवरी को स्वामीजी के जन्म दिवस पर- शोभायात्रा,विभिन्न प्रतियोगिता, जन-सभा का आयोजन किया गया। इस दिन 16 गरीबों को कम्बल दिया गया। 5 फरवरी को आयोजित जन-सभा में मेदिनीपुर रामकृष्ण मिशन केन्द्र के सन्यासी श्रीमत स्वामी सुनिष्ठानन्द एवं महामण्डल कर्मियों ने स्वामीजी के जीवन और सन्देश पर चर्चा किये। यहीं के सूतछाड़ा विवेकानन्द युवा पाठ -चक्र द्वारा 12 फरवरी को एक दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन हुआ, जिसमे 161 छत्रों ने हिस्सा लिया।