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शनिवार, 7 जुलाई 2012

' सच्चा व्यक्तित्व:नर रूप में नारायण '

द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है !
(स्वामी विवेकानन्द )
 " हमें अपने इस सृष्टि की व्याख्या स्मरण रखनी चाहिये। हमारा यह जगत क्या है ? यह हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त अनन्त सत्ता मात्र है। अनन्त का केवल कुछ अंश हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त हुआ है, जिसे हमलोग अपना जगत कहते हैं।  
अनन्त का जो भाग हम अपने इस ज्ञान के भीतर से अनुभव करते हैं, जो मानो देश-काल-निमित्त रूप चक्र के भीतर पड़ा है, वह अनायास हमें बोधगम्य हो जाता है।
किन्तु धर्म का वह अंश जो अनन्त को जानने की चेष्टा करता है, वह हमारे लिए सर्वथा नवीन है; इसीलिए उसके चिन्तन से मस्तिष्क में नयी लीक तैयार होती रहती है, जिससे सारा शरीर-मन ही मानो उलट-पलट जाता है।
इन विघ्न-बाधाओं को यथासम्भव कम करने के लिए ही ऋषि पतंजली ने ' अष्टांग सूत्र ' का आविष्कार किया है, ताकि हम उनमें से ऐसी किसी एक साधन-प्रणाली को चुनकर अपना लें, जो हमारे लिये सर्वथा उपयोगी हो।" [1/141]
" देश का अर्थ है -प्राण को शरीर के किसी अंश-विशेष में आबद्ध रखना। समय का अर्थ है-प्राण को किस स्थान में कितने समय तक रखना होगा, इस बात का ज्ञान; और संख्या का अर्थ है-यह जान लेना कि कितनी बार ऐसा करना होगा। " [विवेकानन्द साहित्य खण्ड1/पृष्ठ संख्या 183]
" यह कहना कि - ' आत्मा नामक शक्ति शरीर के भौतिक परमाणुओं के विभिन्न संघातों से उत्पन्न होता है, उतना ही हास्यास्पद है, जितना कोई बैल के आगे गाड़ी जोतने का प्रयास करे तो होगा। " ये संघात कैसे उत्पन्न हुए ? (किस शक्ति ने ' हिग्स बोसोन ' को उत्पन्न कर दिया ?) यह सिद्ध किया जा सकता है कि ठोसपन, कठोरता आदि जो सब जड़ वस्तु ' क्षिति ' के गुण हैं, वे गति के परिणाम हैं। तरल या वाष्पीय अवस्था (वायुपुन्ज ) में यदि अत्यधिक गति उत्पन्न कर दी जाये जैसे तूफान में, तो वह ठोस सा हो जाता है और अपने आघात से ठोस पदार्थों को तोड़ या काट सकता है।
From Snowflakes to CERN The Hunt for the Higgs Boson by Nicholas Mee (Author, Higgs Force)
[Ice is so familiar to us that we just accept the sudden and dramatic metamorphosis of water as it cools below its freezing point. A liquid that we can dive into is spontaneously transformed into a hard rock-like material that we would crack our skull on. 
 John Locke used the following anecdote to express just how surprising this transformation really is: “A Dutch ambassador, who entertaining the king of Siam with the particularities of Holland, which he was inquisitive after, amongst other things told him that the water in his country would sometimes, in cold weather, be so hard that men walked upon it,and that it would bear an elephant, if he were there. To which the king replied,Hitherto I have believed the strange things you have told me, because I look upon you as a sober fair man, but now I am sure you lie.”
in the 1930s the Russian theoretical physicist Lev Landau recognised that they share common features. He realised that in each case, the transformation of the material is accompanied by a loss of symmetry, and this insight was the first step towards building a mathematical model of phase transitions. Landau’s theory represents one of the most important insights in the whole of 20th-century physics.]
 जिस किसी वस्तु की आकृति है, वह परमाणुओं की एक संहति मात्र है, अतेव उसको चलाने के लिये इससे भिन्न कोई अन्य वस्तु चाहिए। यह ' अन्य कोई वस्तु ' ही संस्कृत भाषा में आत्मा के नाम से संबोधित हुई है।
यह आत्मा ही कारण शरीर में से मानो स्थूल शरीर पर काम कर रही है। जो हमारे मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर आदि को चला रही है, इसी शक्ति की अभिव्यक्ति को शारीरिक आकृति वाला एक ऐसा ज्योतिर्मय पदार्थ (कारण शरीर =हिग्स बोसोन?) माना गया है, जो इस शरीर के नष्ट हो जाने पर भी बचा रहता है।
 काल का आरम्भ मन से होता है-देश भी मन के अंतर्गत है। काल के बिना कार्य-कारण वाद नहीं रह सकता। क्रम विकास की भावना के बिना कार्य-कारणवाद नहीं रह सकता। अतेव देश-काल-निमित्त (कार्य-कारणवाद) मन के अंतर्गत हैं, और यह आत्मा मन से अतीत और निराकार होने के कारण, देश-काल-निमित्त के परे है। और जब वह देश-काल-निमित्त के अतीत है, तो अवश्य अनन्त होगी। और अनन्त कभी दो नहीं हो सकता। अतेव यह जो अनेक आत्माओं की धारणा है- तुम्हारी एक आत्मा, मेरी दूसरी आत्मा -यह सत्य नहीं है। अतेव मनुष्य का सच्चा स्वरूप एक ही है, वह अनन्त और सर्वव्यापी है, और यह प्रतिभासिक जीव मनुष्य के इस वास्तविक स्वरुप का एक सीमाबद्ध भाव मात्र है।
मेरा यथार्थ स्वरूप - आत्मा, कार्य-कारण कार्य-कारण या देश-काल से अतीत होने के कारण अवश्य मुक्तस्वभाव है। यह प्रतिभासिक जीव यह (बिकेसिंह नामक) प्रतिबिम्ब देश-काल-निमित्त के द्वारा सीमाबद्ध होने के कारण प्रतीत होता है,मानो वह बद्ध हो गया है, पर वास्तव में वह भी बद्ध नहीं है। " [2/8-11]

" वास्तव में ' मैं ' अथवा 'तुम ' कुछ नहीं है-सब एक ही है। चाहे कहो-' सभी मैं हूँ ', या कहो ' सभी तुम हो '।यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और सारा जगत इसी द्वैत ज्ञान का परिणाम है। जब विवेक के उदय होने पर मनुष्य देखता है, कि दो वस्तुएँ नहीं हैं, एक ही वस्तु है, तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं यह अनन्त ब्रह्माण्ड स्वरुप है। इस माया, या अज्ञान या नाम-रूप, या यूरोपीय भाषा में इस देश-काल-निमित्त के कारण यह एक अनन्त सत्ता इस वैचित्र्यमय जगत के रूप में दिख पड़ती है।" [2/30-31]
" वाह्य जगत के बारे में कितना भी ज्ञान क्यों न हो जाये, पर उससे सृष्टि रहस्य का भेद नहीं खुल सकता। क्योंकि मन देश-काल और निमित्त की चहारदीवारी के बाहर नहीं जा सकता। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार देश और काल के नियम ने जो सीमा खड़ी कर दी है, उसका अतिक्रमण करने की क्षमता किसी में नहीं है। ..क्योंकि इसकी चेष्टा करते ही, हमें अज्ञान या नाम-रूप या देश-काल-निमित्त की सत्ता स्वीकार करनी होगी।[2/45]
" बुढ़ापा आता है, सुनहले स्वप्न हवा में उड़ जाते हैं; और मनुष्य निराशावादी हो जाता है। प्रकृति के थपेड़े खाकर हम भी इसी तरह दिशाहीन व्यक्ति की भाँति जीवन भर एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ते रहते है। इस सम्बन्ध में मुझे बुद्ध की जीवनी ' ललितविस्तर ' का एक प्रसिद्द गीत याद आता है। वर्णन इस प्रकार है--बुद्ध ने मनुष्य-जाति का परित्राता होकर जन्म लिया, किन्तु जब राजप्रसाद की विलासिता में वे अपने को भूल गये, तब उनको जगाने के लिये देवदूतों ने एक गीत गया, जिसका मर्मार्थ इस प्रकार है-' हम एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हैं, हम निरंतर परिवर्तित हो रहे हैं, कहीं निवृत्ति नहीं है, कहीं विराम नहीं है।' [2/45-47]
" जो ब्रह्म अनन्त है, जो असीम है, वह सीमित कैसे हुआ ? A ही C से होकर गुजरने के कारण B के रूप में प्रतीत हो रही है।
[A]The Absolute या [क] ब्रह्म  
। 
 [C] या                 [ग]
Time                      देश 
Space                      काल 
            Causation                निमित्त         
--------------------------------------------
[B] The Universe    [ख] जगत 
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उपरोक्त चित्र में [क] ब्रह्म है और [ख] है जगत। ब्रह्म ही जगत हो गया है। यह ब्रह्म [क] देश--काल -निमित्त [ग] में से होकर आने से जगत [ख] बन गया है। हमलोग इस देश-काल -निमित्त रूपी काँच में से ब्रह्म को देख रहे हैं, और इस प्रकार नीचे की ओर से देखने पर ब्रह्म हमें जगत के रूप में दीखता है। जहाँ ब्रह्म है,वहाँ देश--काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार। अतः [C] या [ग] के उपर किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह सकती।
  1. { प्रातिभासिक (सर्प) - जो हमारे साधारण भ्रम की स्थिति में आभासित होता है और रस्सी के ज्ञान के बाधित होता है।
  2. व्यावहारिक (जगत) - जो मिथ्या तो है परन्तु, जब तक ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक सत्य प्रतीत होता है, और ज्ञान हो जाने पर बाधित हो जाता है।
  3. ब्रह्म - जिसे पारमार्थिक कहा जाता है। इसका कभी भी ज्ञान नहीं होता है। यह नित्य है। ब्रह्मज्ञान होने से जगत का बोध हो जाता है और मुक्ति प्राप्त हो जाती है। 
जीव वास्तव में ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं, शरीर धारण के कारण वह भिन्न प्रतीत होता है। शरीर तीन प्रकार का होता है- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। अनादि प्रवाह के अधीन होकर कर्मफल को भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ता है। कर्म अविद्या के कारण होते हैं। अत: शरीर धारण अविद्या के ही कारण है। इसे ही बंधन कहते हैं। अविद्या के कारण कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान पैदा होता है, जो आत्मा में स्वभावत: नहीं होता। जब कर्तृत्वाभिमान और भोक्तृत्वाभिमान से युक्त होता है, तब आत्मा जीव कहलाता है। मुक्त होने पर जीव ब्रह्म से एककारता प्राप्त करता है या उसका अनुभव करता है। 
जाग्रत अवस्था में स्थूल शरीर, स्वप्न में सूक्ष्म शरीर और सुषुप्ति में कारण शरीर रहता है। सुषुप्ति में चेतना भी रहती है, परन्तु विषयों का ज्ञान न होने के कारण जान पड़ता है कि सुषुप्ति में चेतना नहीं रहती। यदि सुषुप्ति में चेतना न होती तो जागने पर कैसे हम कहते कि सुखपूर्वक सोया? वहाँ चेतना साक्षीरूप या शुद्ध चैतन्य रूप है। परन्तु सुषुप्ति में अज्ञान रहता है। इसी से शुद्ध चेतना के रहते हुए भी सुषुप्ति मुक्ति से भिन्न है- मुक्ति की अवस्था में अज्ञान का नाश हो जाता है। शुद्ध चैतन्य रूप होने के कारण ही कहा गया है कि आत्मा एक है और ब्रह्मस्वरूप है। चेतना का विभाजन नहीं हो सकता है।}
निमित्त क्या है ?
हमने प्रश्न किया सेव टूट कर निचे क्यों गिरा ? यह प्रश्न केवल तभी किया जा सकता है, जब यह मान लिया जाय कि बिना कारण के कुछ भी घटित नहीं होता।...जब हम प्रश्न करते हैं, कि यह घटना क्यों हुई, तब हम यह मान लेते हैं कि सभी वस्तुओं का सभी घटनाओं का एक ' क्यों ' रहता ही है। इस पूर्ववर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम को ही निमित्त अथवा ' कार्य-कारणवाद ' कहते हैं। This is called the law of causation .इस प्रश्न में यह विश्वास भी निहित है कि जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहीं है, प्रत्येक पदार्थ पर उससे उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है।Interdependence is law of the whole universe. अन्योन्याश्रयता या परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। 
किन्तु जब हम पूछते हैं, " ब्रह्म पर किसने कार्य किया ?" तो हम कितनी बड़ी भूल करते हैं। यह प्रश्न करने का अर्थ है कि ब्रह्म भी अन्य किसी के अधीन है-वह निरपेक्ष ब्रह्मसत्ता भी अन्य किसी के द्वारा बद्ध है। ब्रह्म अथवा ' निरपेक्ष सत्ता ' या The Absolute शब्द [ॐ ]में देश-काल-निमित्त है ही नहीं, क्योकि वह एकमेवाद्वितीय है। अपनी सत्ता का जो स्वयं ही आधार है, उसका कोई कारण हो ही नहीं सकता। वह स्वयंभू है ! " [2/85-87]     
" यहाँ कहा जा रहा है, वह अनन्त ब्रह्म [A] देश-काल-निमित्त की समष्टि अर्थात माया [C] के आवरण में से नाना रूपों में प्रकाशित हो रहा है। किन्तु माया (नाम-रूप) की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। किन्तु यह बिल्कुल असत (अस्तित्व शून्य) भी नहीं है। दूसरे, कुछ समय बाद ये बिल्कुल अन्तर्धान भी हो जाते हैं। इसलिये [B] या जगत सत्य नहीं है, असत भी नहीं है-मिथ्या है। [2/90-91]
" नियम के सर्वव्यापी होने का क्या अर्थ है ? हमारा जगत अनन्त सत्ता का वह अंश है जो
 ' स्पेस-टाइम-काजैलिटी ' द्वारा सीमाबद्ध है। इससे यह निश्चित है कि नियम केवल इस सीमाबद्ध जगत में ही संभव है, इसके परे कोई नियम संभव नहीं। "[3/69]
" इस मनः कल्पित जगत में चिरकाल तक रहने की आशा करना और स्वर्ग जाने की अभिलाषा करना कैसी नासमझी है ! स्वर्ग हमारे इस परिचित जगत की पुनरावृत्ति ही तो है। हमारा इतना पतन हो चूका है कि हम अपनी वर्तमान अवस्था से अधिक उच्च और कुछ कल्पना ही नहीं कर सकते; हमलोग अपने अनन्त स्वरुप को भूल चुके है, और हमारी सारी भावनायें क्षुद्र सुख, दुःख और ईर्ष्या द्वेष आदि ही में निबद्ध हैं। क्योंकि हमलोग इस सान्त जगत को ही अनन्त मान लेते हैं; और केवल इतना ही नहीं, इस मुर्खता को किसी भी प्रकार छोड़ना नहीं चाहते हैं।हम इस जीवन की प्यास (अभिनिवेश) या तृष्णा से, जिसे बौद्ध तन्हा या तिस्सा कहते हैं, इतने आसक्त हैं कि उसीमें चिपके रहना चाहते हैं। जब तक हम जीवन के प्रति इस तृष्णा को नहीं छोड़ते, इन क्षण भंगुर सान्त विषयों के प्रति अपनी प्रबल आसक्ति का त्याग नहीं करते, तब तक इस जगत के अतीत उस असीम मुक्ति की एक झलक भी पाने की आशा करना व्यर्थ है। उस पूर्ण साम्यावस्था का लाभ, ईसाई जिसे ' बुद्धि से अतीत शान्ति ' कहते हैं, इस छोटे से जगत से अपनी आसक्ति हटा लेने पर ही हो सकती है। " [3/70-71]
क्योंकि  " जिस रूप में हम इस जगत को जानते या सोचते हैं, उसकी सत्ता ही नहीं है; अपरिवर्तनीय परिवर्तित नहीं हुआ है। यह सारा विश्व आभास मात्र है, सत्य नहीं है। ईश्वर में किंचित भी परिवर्तन नहीं हुआ है। तथा वह लेशमात्र विश्व नहीं बना है। देश-काल -निमित्त के माध्यम से देखने के लिए विवश होने के कारण हम ईश्वर को विश्ववत देखते हैं।..यदि मैं परिवर्तित होता हूँ, तो वाह्य जगत परिवर्तित हो जाता है।" [9//96]
" जब तुम अपने सच्चे स्वरुप को भूल गये और प्रकृति या देश-काल तथा निमित्त के बंधन में पड़ गये। जब से तुमने विचार करना आरम्भ किया, तभी से काल का उद्भव हुआ। जब तुमको शरीर मिला, तब देश (आकाश) का प्रादुर्भाव हुआ, जब तुम सीमाबद्ध हुए, तब निमित्त आरम्भ हुआ। हमारी ससीमता (' मैं '-बोध को सच समझना) और अपने को स्त्री या पुरुष शरीर मान कर शादी विवाह करना या सन्यासी बनना - सब खेल है। केवल विनोदार्थ। कोई वस्तु तुमको बाँधती नहीं, कोई तुमको बाध्य नहीं करता। तुम कभी बन्धे ही नहीं थे, हमलोग स्वयं अपने ही द्वारा रचित नाटक में अपना अपना अभिनय कर रहे हैं। " [9/140]
" कुछ लोग अपने व्यक्तित्व के लोप के भय से त्रस्त रहते हैं। यदि शूकर को अपना शूकरत्व खोकर ब्रह्मत्व प्राप्त हो जाय, तो क्या यह श्रेयस्कर नहीं ? हाँ, है। परन्तु बेचारा शूकर उस अवस्था में यह सोच नहीं पाता।
कौन सा व्यक्तित्व मेरा अपना है ? 
जब मैं शिशु था और पैर के अंगूठे को निगल जाने की चेष्टा करता था ? क्या अपने उस व्यक्तित्व को खोकर मुझे शोक करना चाहिये ? पचास वर्ष बाद मैं अपनी इस वर्तमान अवस्था पर दृष्टि पात कर इस पर ठीक उसी प्रकार हँसुगा, जिस प्रकार आज शैशव अवस्था पर हँसता हूँ। इनमें से किस व्यक्तित्व को मैं रखूँगा ?
हमें इस व्यक्तित्व का अर्थ समझना होगा। 
 हमलोग एक ओर जहाँ अपने व्यक्तित्व की रक्षा करने का प्रयत्न करते हैं, वहीँ दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को उत्सर्ग करने की उत्कट इच्छा भी रखते हैं। माँ निकृष्ट भोजन भी कर लेगी, लेकिन बच्चों को अच्छा से अच्छा भोजन देगी। इस प्रकार जिन्हें हम प्यार करते हैं, उनके लिए मर मिटने को तैयार रहते हैं। ..मानव का व्यक्तित्व क्या है ? टाम ब्राउन नहीं, वरन नर रूप में नारायण ।
वही सच्चा व्यक्तित्व है। मनुष्य जितना उसके समीप पहुँचता है, उतना ही वह अपने मिथ्या व्यक्तित्व को त्याग देता है। जितना ही वह अपने लिये संग्रह और लाभ के लिए प्रयत्न करता है, उतना ही उसका अहं से कड़ा व्यक्तित्व होता है। जितनी ही कम वह अपनी चिंता करता है, उतना ही अधिक वह जीवन--काल में अपने व्यक्तित्व का उत्सर्ग कर देता है। ....उतना ही अधिक वह व्यक्तित्व-धारी हो जाता है ! यह एक ऐसा रहस्य है, जिसे दुनिया नहीं समझती। 
व्यक्तित्व का अर्थ है--ध्येय तक पहुंचना। इस समय तुम पुरुष या स्त्री हो।क्या तुम रुक सकते हो ? तुम सदैव परिवर्तित(M/F/M/F/.........M) होते रहोगे। जब तक तुम पवित्र तथा पूर्ण (शुद्ध चेतना) नहीं हो जाओगे, तब तक तुम रुक नहीं सकते।जिस मनुष्य का सुख (उसके) बाहर है, वह बाह्य वस्तु के चले जाने के बाद दुखी होता है। यदि मेरे सारे सुख मेरी आत्मा में हैं, तो वे सुख मुझे निरंतर मिलते रहेंगे, क्योंकि आत्मा से वियोग कभी हो नहीं सकता। ....माता, पिता, बच्चे, पत्नी, शरीर, धन, --आत्मा के अतिरिक्त हर वस्तु मुझे बिछुड़ सकती है। पर आत्मा नित्य आनन्द स्वरुप है ! आत्मा में ही सारी इच्छायें विद्यमान हैं। यह वह व्यक्तित्व है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता और पूर्ण है।" [9/140-142]
 " अनन्त तो अविभाज्य है, उसका अंश कैसे हो सकता है ? पूर्ण वस्तु कदापि विभक्त नहीं हो सकती। प्रत्येक आत्मा यथार्थ में ब्रह्म का अंश नहीं है, वास्तव में वह अनन्त ब्रह्मस्वरुप है। तब इतनी आत्मायें किस प्रकार आयीं ? लाख लाख जलकणों पर सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ कर लाख लाख सूर्य के समान दिखायी पड़ रहा है।" [8/68]
" विज्ञातारमरे केन विजानीयात '- बृहदार0 - ज्ञाता को किस प्रकार जाना जायेगा ? ज्ञाता अपने को कभी नहीं जान सकता। मैं सबकुछ देखता हूँ, किन्तु अपने को नहीं देख पाता। वह आत्मा जो ज्ञाता है, और सबका प्रभु है, समस्त सृष्टि का कारण है, किन्तु अपने प्रतिबिम्ब के अतिरिक्त अपने को देख अथवा जान सकना उसके लिए असम्भव है। तुम दर्पण के अतिरिक्त अपना मुँह देख नहीं पाते। इसी प्रकार आत्मा भी प्रतिबिम्बित हुए बिना अपना स्वरुप नहीं देख पाती।
इसलिए यह समग्र ब्रह्माण्ड ही आत्मा का स्वयं को जानने और देखने का यत्नस्वरूप है। जीविसार (Protoplasm ) में उसका प्रथम प्रतिबिम्ब प्रकाशित होता है, उसके पश्चात् उदभिद, पशु आदि उत्तरोत्तर उत्कृष्ट प्रतिबिम्बक प्राप्त होते होते अन्त में सर्वोत्कृष्ट प्रतिबिम्ब प्रदान करने वाला माध्यम -मनुष्य प्राप्त होता है।" [8/68-69]
" मैं ही अपनी स्तुति कर रहा हूँ, मैं ही अपनी निंदा कर रहा हूँ। मैं अपने ही कारण कष्ट पा रहा हूँ और अपनी ही इच्छा से सुखी हूँ। मैं स्वाधीन हूँ। ज्ञानी महा साहसी और निर्भीक होता है। समग्र ब्रह्माण्ड नष्ट क्यों न हो जाय, वह हँसकर कहता है, उसका कभी अस्तित्व ही नहीं था, वह केवल माया और भ्रम मात्र है।
 इसी प्रकार वह
' क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत। '
अपनी आँखों के सामने जगत ब्रह्माण्ड को वास्तव में अन्तर्हित होते देखता है, और आश्चर्यचकित होकर प्रश्न करता है- ' यह जगत ('मैं''-बोध ) कहाँ था ? और कहाँ विलीन हो गया ?
 (विवेकचूड़ा मणि /485 ) [8/73]
" जल और तरंग में कोई भेद नहीं है। कार्य कारण का ही दूसरा एक रूप मात्र है। कार्य जब भ्रम है, तब उसका कारण भी अवश्य भ्रम होगा। यह भ्रम किसने उत्पन्न किया ? अवश्य एक भ्रम ने। भ्रम का अनादित्व स्वीकार करने से क्या तुम्हारा अद्वैतवाद खण्डित नहीं होता ? ...भ्रम को कभी सत्ता नहीं कहा जा सकता। तुम जीवन में हजारो  स्वप्न देखते हो; किन्तु वे सब तुम्हारे जीवन के अंशरूप नहीं है। स्वप्न आता है और चला जाता है। उसका कोई अस्तित्व नहीं है। भ्रम को सत्ता कहना केवल एक वितंडा है। अतेव जगत में नित्यमुक्त और नित्यानन्द स्वरुप एकमात्र सत्ता है, और वही तुम हो। अद्वैतवादियों का यही चरम निर्णय है। " [875]
" माया के भीतर जहाँ तक यह देश--काल -निमित्त का यह नियम विद्यमान है, वहाँ तक स्वाधीनता अथवा मुक्ति नहीं है और उपासना की विविध पद्धतियाँ इस माया के अंतर्गत हैं। ईश्वर से लेकर क्षुद्रतम जीव तक, घास की पत्ती से लेकर ब्रह्मा तक, उसी एक माया का राजत्व है।
 जिस व्यक्ति को ईश्वर-धारणा भ्रमात्मक लगती है,उसको अपनी देह और मन की धारणा भी भ्रमात्मक लगना उचित है। जब ईश्वर उड़ जाता है, तब देह और मन भी उड़ जाता है और जब दोनों का ही लोप होता है, तब वही जो यथार्थ सत्ता है, वह चिरकाल के लिए रह जाती है। ' वहाँ आँखें नहीं जा सकतीं, वाणी नहीं जा सकती, मन भी नहीं। हम उसे देख नहीं पाते और जान भी नहीं पाते।' " [8/76]
 " सभी प्रकार का भौतिक जीवन, चाहे वह व्यक्त ' शरीर ' हो अथवा अव्यक्त ' मन '-  नियम से आबद्ध है।कुछ पूर्व घटित कार्यों के अनुसार ही कुछ परवर्ती कार्य होते हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपना अनुवर्ती होता है। एक प्रकार की मानसिक अवस्था दूसरी पुर्वावस्था के परिणाम स्वरूप उसके बाद ही आती है, यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन भी कारणता के नियम में आबद्ध है, और इसलिये इच्छा स्वतंत्र नहीं है।
 हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं; जो कुछ है, उन सबका अस्तित्व देश और काल में है। जहाँ का सबकुछ कारणता के नियम से आबद्ध है।
 इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु हैं। अन्तर केवल स्पन्दन की मात्र में है। अत्यल्प गति से स्पन्दनशील मन को जड़ पदार्थ कहा जाता है, जब स्पंदन की मात्र का क्रम अधिक होता है तो उसे मन के रूप में जाना जाता है।
मन भी जो उच्च स्पंदनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है। मन जड़ पदार्थ बन जाता है, और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है। [E= Mc2]यह केवल स्पंदन की बात है।
इस्पात का एक छड़ लो और उस पर ( LHC- लार्ज हेड्रोन कोलाइडर में डाल कर ) इतनी पर्याप्त शक्ति से आघात करो, जिससे उसमें कम्पन आरम्भ हो जाय। तब क्या घटित होगा ? 
 यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाय ( जैसे जेनेवा स्थित सर्न प्रयोगशाला में पृथ्वी के निचे 27 की0मी लम्बी सुरंग में पाइप डाल कर किया गया है ) तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनी, भन-भन्नाहट की ध्वनी। शक्ति की मात्र को और बढ़ा दो, (126 गीगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट) तो इस्पात का छड़ प्रकाशमान हो उठेगा तथा उसे और भी अधिक बढ़ाओ, तो इस्पात बिलकुल लुप्त हो जायेगा -(पहले हिग्स बोसोन बन जायेगा) फिर वह मन बन जायेगा।
एक अन्य दृष्टान्त लो- यदि मैं 10 दिनों तक निराहार रहूँ, तो मेरे विचार करने की शक्ति क्षीण होती चली जायेगी, ..और शायद अपना नाम भी न जान .सकूँगा। तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ, तो कुछ ही क्षणों में सोचने लगूंगा। मेरी मन की शक्ति लौट आएगी। रोटी मन बन गयी। इसी प्रकार मन अपने स्पंदन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को अभिव्यक्त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है। 
तुम किसी ऐसे अंडे की कल्पना नहीं कर सकते जिसे किसी मुर्गी ने न दिया हो, और न किसी मुर्गी की कल्पना कर सकते हो, जो अंडे से न पैदा हुई हो। ..मनुष्य में स्वतंत्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो नियम में आबद्ध है। वहाँ स्वतंत्रता नहीं है।
 मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है। आत्मा नित्य मुक्त है, किन्तु मन अपनी ही क्षणिक तरंगों से तद्रूपता स्थापित कर आत्मा को अपने से ओझल कर देता है। और देश-काल तथा निमित्त की भूलभुलैया - माया में खो जाता है। " [9/162-164]
" वेदान्त का मत कभी भी यह मत नहीं रहा कि इन्द्रियग्राह्य तथा अतीन्द्रिय - ये दो जगत हैं। उसका कहना है कि जगत केवल एक है। इन्द्रियों के द्वारा देखे जाने से वही प्रपंचमय और अनित्य भासता है। किन्तु वास्तव में वह सर्वदा अपरिवर्तनशील और नित्य ही है। "
...जैसे मान लो, किसी को रस्सी से सर्प का भ्रम हो गया। जब तक उसे सर्प का बोध है, तब तक उसे रस्सी दिखेगी ही नहीं- वह तो उसे सर्प ही समझता रहेगा। फिर यदि कोई उसको टॉर्च जला कर दिखा दे कि वह सर्प नहीं रस्सी है, तो फिर वह रस्सी में सर्प कभी नहीं देख सकेगा। -उसे केवल रस्सी ही दिखेगी। वह या तो रस्सी है, या सर्प ही; किन्तु दोनों का बोध एक साथ कभी नहीं होगा। "
[9/170]
" बौद्ध लोग इन्द्रियग्राह्य प्रपंचमय जगत के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। इस प्रपंचमय जगत में ही कामना है। कामना ही इन सबकी सृष्टि कर रही है। किन्तु ' इच्छा ' एक परिणाम है, एक यौगीक पदार्थ है-'मौलिक ' नहीं। अतः यह सिद्धान्त कि जगत की उत्पत्ति इच्छा से हुई है, असम्भव है। क्या तुमने किसी बही उत्तेजना के बिना कभी इच्छा का अनुभव किया है ? ...स्नायविक उत्तेजना के बिना -कभी इच्छा या कामना का उदय नहीं होता। 
' इच्छा ' मस्तिष्क की एक प्रकार की प्रक्रिया है, जिसे सांख्य के दार्शनिक ' बुद्धि ' कहते हैं। इस प्रतिक्रिया के पहले किसी क्रिया का होना जरुरी है। यदि बही जगत न हो, तो इच्छा भी नहीं हो सकती। इच्छा को कौन उत्पन्न करता है ? इच्छा तो जगत की सह्वर्तिनी है। जिस शक्ति ने जगत की सृष्टि की, उसी ने इच्छा का भी सर्जन किया है।इच्छा स्वयं प्रपंचमय है-- सापेक्ष है, वह निरपेक्ष नहीं हो सकती। कोई ऐसी वस्तु है जो इच्छा नहीं है, परन्तु उसके रूप में अभिव्यक्त हो रही है। इच्छा देश, काल और निमित्त के अंतर्गत है। तब वह निरपेक्ष कैसे हो सकती है ? यदि कोई इच्छा प्रकट करे तो उसकी यह क्रिया समय के अंदर ही संभव है--समय के बाहर नहीं।
यदि हम अपने समस्त विचारों का उपशमन कर सकें--अपनी समस्त चित्तवृत्ति शान्त कर सकें, तो हम जान जायेंगे कि हम विचार से परे हैं। हम ' नेति-नेति ' के द्वारा इस अनुभव पर पहुँचते हैं। 
जब ' नेति--नेति ' कहकर समस्त प्रपंच का त्याग कर दिया जाता है, तब जो कुछ बच रहता है वही ' वह ' है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, उसे प्रकट नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रकटीकरण पुनः इच्छा हो जाएगी।" [9/172-174] 
" जब प्रलय होता है, तब जगत की क्या अवस्था होती है? वह उस समय भी विद्यमान रहता है। तथापि सूक्ष्मरूप में; अथवा, जैसा सांख्य दर्शन कहता है, कारणावस्था में रहता है। देश-काल-निमित्त से वह मुक्त नहीं होता, किन्तु वे अत्यन्त सूक्ष्म और लघु रूप में रहते हैं। [4/194]
{ नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल कर 129 वां सूक्त है. इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। माना जाता है की यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफी सटीक तथ्य बताता है. इसी कारण दुनिया में काफी प्रसिद्ध हुआ है.यह सूक्त मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि ब्रह्मांड की रचना कैसे हुई होगी.
सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत् ।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था. सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था, और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा
 धुँध क्या था ?
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में -' जब सत भी नहीं था,असत भी नहीं था, तम के द्वारा तम घिरा था, तब क्या था ?


न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
अनीदवातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
और इसका उत्तर दिया गयाहै, ' तब वह निस्पन्द अवस्था में था।' अनीत अवातम का अर्थ है, ' बिना स्पन्दन के अस्तित्ववान था।' अर्थात इस प्राण की सत्ता तब भी थी, किन्तु उसमें कोई गति नहीं थी; स्पन्दन का विराम हो चूका था।
तब एक विशाल विराम के उपरान्त जब कल्प का आरम्भ होता है, तब वह आनीदवातं (निस्पन्द परमाणु) स्पन्दन आरम्भ कर देता है। प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनीभूत होते हैं, और उनके संघटन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं।
प्राण के बार बार आघात के द्वारा आकाश से वायु अथवा स्पन्दन उत्पन्न होता है,यह वायु स्पन्दित होती है। और जब ये स्पन्दन अधिकाधिक तीव्र हो जाते हैं, तो पहले घर्षण एवं बाद में ताप या तेज की उत्पत्ति होती है। तब यह ताप तरल भाव धारण करता है, उसे अप कहते हैं। अंत में यह तरल पदार्थ आकर (क्षिति)प्राप्त करता है। 
पहले हमें आकाश और गति (वायु) प्राप्त हुई, उसके पश्चात् ताप उत्पन्न होता है, फिर वह तरल हो जाता है, तब घनीभूत होकर कठोर स्थूल जड़ पदार्थ -क्षिति का आकार धारण करता है; इसके बाद ठीक विलोम क्रम में यह प्रत्यावर्तन करता है। [ब्रह्माण्ड विज्ञान 4/194]
अन्वय-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किञ्चन न आस न परः।
'अर्थ उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता , देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव ।
अर्थ - कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।


इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।}
  " तब, व्यवहारिक धर्म क्या है ?
इस लोक और परलोक की, सब वस्तुओं को एक लक्ष्य -'मुक्ति की प्राप्ति ' के लिए प्रयोग करो। प्रत्येक सुख--भोग, आमोद की एक एक रत्ती का मूल्य अनन्त हृदय और मस्तिष्क के सम्मिलित व्यय द्वारा चुकाया जाता है। इस संसार में शुभ और अशुभ की समष्टि को देखो। क्या वह बदला ? शुभ अशुभ को सन्तुलित करता है। किन्तु अलग खड़ा होनेवाला व्यक्ति इस दिव्य लीला को देखता रहता है।
कुछ रोते हैं और दूसरे हँसते हैं। अपनी बारी आने पर ये रोयेंगे और दूसरे हँसेंगे। हम क्या करसकते हैं? "[3/174]
 " जब भावावस्था को प्राप्त होकर कोई ब्रह्मानन्द में डूब जाता है, या समाधिस्थ हो जाता है, तब उसका द्वैत-भाव नष्ट हो जाता है, तब भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। फिर समाधि से उठने के बाद,वह अद्वैतमार्गी भक्त कैसे ध्यान करता है ? - ' परमेश्वर और मैं एक हूँ '- इस अद्वैतभाव का ध्यान करता है। जब तक हम मायापाश से मुक्त नहीं होते, तब तक द्वैत का भाव अवश्य बना रहेगा। देश-काल-निमित्त या नाम-रूप ही माया है। जब कोई इस माया से मुक्त हो जाता है, तो उसे जीव-ब्रह्म की एकता का अनुभव हो जाता है-तब न द्वैत होता है न अद्वैत-उसके लिए सब एक हो जाता है।
ज्ञानी और भक्त में केवल साधना की प्राथमिक अवस्था में ही अंतर होता है--एक परमेश्वर को अपने से बाहर देखता है और दूसरा अपने हृदय में।  
श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे कि भक्ति की एक और अवस्था है, जिसे परा-भक्ति कहते हैं--वह मुक्त होने पर, अद्वैत--भाव की प्राप्ति हो जाने पर परमेश्वर के प्रेम में विभोर हो जाना। ...मुक्ति प्राप्त होने के बाद भक्ति की क्या आवश्यकता है ?  
इसका केवल यही उत्तर है कि जो मुक्त है, जो स्वतंत्र है, वह सब नियमों से परे है। उसके विषय में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि उसने ऐसा ही क्यों किया और वैसा क्यों नहीं किया। मुक्त हो जाने पर भी भक्ति के माधुर्य का रसास्वादन करने के लिए कुछ लोग उसको अपनाये रहते हैं। " [8/ 272-73]
" जगत में केवल एक आत्मा है, एक सत्ता है; जब उसका कुछ अंश मानो इस देश-काल-निमित्त के जाल में पड़ता है, तब यह विभिन्न रूप ग्रहण करती है। उस जाल को सिंह विक्रम से काट कर निकल जाओ-और देखो, सभी एक है। समग्र विश्व आत्मा में एक है और यह आत्मा ही ब्रह्म है। " [4/218]

गुरुवार, 28 जून 2012

' देवासुर संग्राम ' [25] कहानियों में वेदान्त

' देवासुर संग्राम '
(' केनोपनिषद ' सामवेद के अन्तर्गत )
' जो बोले सो अभय, स्वामी विवेकानन्द की जय ! '
जिस वस्तु को हमलोग अपनी ' चेतना ' (Own Consciousness या अपने अस्तित्व का ज्ञान कहते हैं), वह ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। श्रीरामकृष्णदेव ने स्वयं अपनी आँखों से देखने के बाद कहा है, कि इस ब्रह्म को ही हमलोग ईश्वर कहते हैं, कृष्ण, काली, शिव, गौड, अल्ला आदि के नाम से बुलाते हैं। 
इस चैतन्य के सम्पर्क में आने से ही हमलोगों का पृथक ' मैं '-बोध जाग उठता है, मन चिन्तन करने लगता है, शरीर कार्य करने लगता है।  
इस चैतन्य से सम्बन्ध कट जाने के साथ ही साथ, सबकुछ ठंढा हो जाता है। शरीर के किसी भी अंग या मन बुद्धि आदि में कुछ भी कार्य करने की शक्ति नहीं रह जाती है, ठीक उसी प्रकार जैसे मूल-विद्युत् आधार के साथ सम्बंध (Connection) काट देने के बाद, किसी विशाल शहर में, किसी भी जगह विद्युत् के तार को छूने या पकड़ने से झटका ( Electric Shock) नहीं लगता, सुईच दबाने से भी बत्ती नहीं जलती, पंखा नहीं घूमता, या ट्राम-गाड़ी में चलने की शक्ति नहीं रहती।
किन्तु माया के प्रभाव से हमलोग भ्रम में पड़ जाते हैं, और ऐसा सोचने लगते हैं, कि हमलोग ही सबकुछ कर रहे हैं, हमारी ही इच्छा और हमारी ही शक्ति से सब कुछ हो रहा है। श्रीरामकृष्ण कहते थे, आग की गर्मी से जब पानी गर्म होकर उबलने लगता है, तो कड़ाही में पड़ा आलू-परवल उपर-नीचे होने लगता है; तो छोटे बच्चे सोचते हैं, आलू-परवल उछल रहे हैं। किन्तु क्या सचमुच उनमें उछलने-कूदने की शक्ति है ? जो लोग व्यस्क हो चुके हैं, वे जानते हैं कि नीचे जो आग जल रहा है उसी की शक्ति से ये सब उछल-कूद करते हैं।नीचे से 
यदि आग खीँच लिया जाय, तो सब ठण्ढे हो जायेंगे, सारा उछलना-कूदना थम जायेगा। यदि आलू-परवल ऐसा सोचने लगे, कि हमलोग अपनी इच्छा से या अपनी शक्ति से उछलते-कूदते हैं, तो उनका वैसा सोचना जितना गलत होगा;  हमलोगों का ऐसा सोचना भी उतना ही गलत है, कि  " मेरी इच्छा से, मेरी शक्ति से सब कार्य होता है।"
मनुष्य जिस समय ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उस समय उसका यह भ्रम टूट जाता है। उस समय वह देखता है, कि मेरे जीवन में या जगत में जो कुछ भी घटित हुआ है या हो रहा है, वह सब ईश्वर की इच्छा से, उनकी शक्ति से ही हुआ है। यह बोध ( स्मरण ) नहीं रहने के कारण ही अहँकार आ जाता है। इसी अहंकार के कारण, इसी दम्भ के कारण जगत में कितने अनर्थ घटित होते रहते हैं, इसकी कोई गिनती नहीं है।
इसीलिये जो लोग सामान्य लोगों की अपेक्षा अत्याधिक बड़े हो जाते हैं, उनके भीतर यदि अहंकार बहुत बढ़ जाय, तो वह बहुत खतरनाक हो जाता है। क्योंकि सामान्य लोग आँखें मूंद कर उन्हीं लोगों का अनुकरण करते हैं।
देवलोक में एक दिन ऐसा ही संकट उपस्थित हो गया था। देवता लोग सदैव जगत के कल्याण के लिये सचेष्ट रहते हैं। इसीलिये सज्जन लोग उन्हीं के आचरण को अपना आदर्श समझते हैं। इसी लिये जो व्यक्ति सदैव दूसरों के कल्याण की कामना करता है, हर किसी के प्रति मन में सद्भावना रखता है, उसके संबन्ध में हमलोग कहा करते हैं, कि " अमुक व्यक्ति का स्वभाव तो बिल्कुल देवता के जैसा है ! " किन्तु एक दिन वे देवता लोग ही अहंकार में फूल कर कुप्पा होने लगे !
ब्रह्म की इच्छा के अनुसार जगत के मंगल के लिये आसुरी शक्तियों का दमन होना प्रथम अनिवार्यता है; इसीलिये ब्रह्म की इच्छा और शक्ति के कारण देवताओं की हाथों असुर लोग पराजित हो गये थे। किन्तु इस विजय को पाकर देवता लोग अहंकार के नशे में उन्मत्त हो उठे। शेखी बघारने लगे, " हमलोगों की शक्ति भी कितनी असीम है, हमने इतने दुर्दान्त असुरों को प्रवृत्ति के युद्ध में भी पराजित कर दिया' है !"
स्वर्ग में देवराज इन्द्र की सभा में बैठकर, सभी देवता इसी जीत के घमण्ड में चूर होकर बढ़-चढ़ कर डींगें हांक  रहे थे। ब्रह्म यह सब जान गये थे, इसीलिये सबों के कल्याण के लिये उनलोगों की इस भ्रांत धारणा और अहँकार तोड़ना बहुत जरुरी समझे।
ब्रह्म के स्वरुप को किसी भी इन्द्रिय की सहायता से नहीं जाना जा सकता है। किसी अन्य इन्द्रियग्राह्य पदार्थों का ज्ञान होने से, हमलोग जैसा समझते हैं; ब्रह्मज्ञान के बारे में वैसा अपने मुख से कभी नहीं कहा जा सकता कि मैं ब्रह्म को जनता हूँ, या मुझे ब्रह्मज्ञान हो चूका है ! क्योंकि किसी भी वस्तु को जानने के लिये, जिसको जान रहा हूँ, उससे अपना एक पृथक अस्तित्व रखना आवश्यक होता है; जिसके द्वारा यह बोध जाग्रत होता है कि " मैं इस वस्तु को जान रहा हूँ। "
किन्तु ब्रह्मज्ञान में ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई दूसरी वस्तु रहती ही नहीं है, ब्रह्मज्ञान होने का अर्थ होता है- ब्रह्म के साथ मिल कर एक और अभिन्न बन जाना। वहाँ कोई जानने वाला या ज्ञाता, रहता ही नहीं है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान सबकुछ मिलकर एक हो जाते हैं !
इसीलिये देवगणों को दिखाई देने के लिये ब्रह्म ने एक ज्योतिर्मय रूप धारण कर लिया, और उनके चर्म-चक्षुओं के सामने आविर्भूत हो गये ! देवगण इन्द्र-सभा में जहाँ बैठे हुए थे; वहाँ से थोड़ी दूर पर उस ज्योति के आविर्भूत होते ही सभी देवताओं की दृष्टि उस ओर घूम गयी। किन्तु वे कौन हैं, कोई भी देवता यह समझ नहीं सके। 
तब देवराज इन्द्र ने अग्नि की ओर मुखातिब होकर कहा, " अग्नि, जरा तुम पता लगाकर आओ तो,
 ये कौन हैं ? देखने से तो लगता है, ये हमलोगों के कोई पूज्य-पाद (आदरणीय ) ही होंगे। " 
 अग्निदेव
अग्नि जब वहाँ पहुँचे तो ज्योति-रूपी ब्रह्म ने पूछा, " तुम कौन हो ? "
अग्निदेव बोले, " आप मुझे नहीं जानते ?  मैं अग्नि हूँ ! "
ब्रह्म ने प्रश्न किया, " तुममें क्या शक्ति है ? "
बड़े दम्भ के साथ अग्नि ने उत्तर दिया, " विश्व में जो कुछ भी है, मैं वह सबकुछ जला कर राख कर
सकता हूँ ! "
उन्होंने ने कहा, " ऐसी बात है ! तो ठीक है, बेटे जरा तुम सुखी हुई घास के इस तिनके को जलाकर दिखाओ तो, हम भी जाने। " यह कहकर एक सूखे हुए तिनके को उसके सामने फेंक दिए।
अग्नि अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दिए, फिर भी उस छोटे से तिनके को जला नहीं सके। उनको अपनी शक्ति का जो घमण्ड था वह चूर हो गया। सोचने लगे, " कितने आश्चर्य की बात है ! अपनी इच्छा से, अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी मैं इस छोटे से तिनके तक को जला नहीं सका ? इनके सामने मुझे अपना सिर नीचे करना पड़ गया ! " लज्जा से अपना चेहरा नीचे करके देवताओं के पास वापस लौटकर अग्नि ने कहा, " वे कौन हैं, यह मैं जान नहीं सका। "
उसके बाद वायुदेव उठे, ब्रह्म के प्रश्न करने पर गर्व छाती फूला करके बोले, " मैं पवनदेव हूँ ! इस संसार में जो कुछ भी है, इच्छा करने से मैं सबकुछ को उड़ा कर अपने साथ ले जा सकता हूँ ! " 
 
ज्योति-रूपी ब्रह्म पहले की ही तरह उनके सामने घास एक तिनका फेंक कर, उस तिनके को उड़ा कर दिखाने के लिये बोले। पवनदेव पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को उड़ाने नहीं सके। और वापस लौटकर नतमस्तक होते हुए देव-सभा में बोले, " मैं भी नहीं जान सका, कि वे कौन हैं । "
देवता लोग समझ गये कि जब अग्नि और वायु भी पता नहीं लगा सके कि वे कौन हैं, तो फिर अब इन्द्र के सिवा और किसी में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उनको जान पाए। इसीलिये सभी देवताओं ने मिलकर, उनके पास जाने के लिये इन्द्र से अनुरोध किया।
 
इन्द्र गये, किन्तु उनके जाते ही वह ज्योति अन्तर्धान हो गयी। किन्तु इन्द्र अग्नि और वायु के समान, वे कौन थे इसका पता लगाये बिना वापस नहीं लौटे। वे भक्तिभाव के साथ उस ज्योति के पुनः आविर्भूत होने की  प्रतीक्षा में वहीँ आसन जमाकर बैठ गये।
तब ब्रह्विद्या, हिमालय की कन्या उमा का रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हो गयीं ! इन्द्र ने उनसे पूछा, " माँ, अभी जो यहाँ आये थे, वे कौन थे ? "
 
 उमा ने कहा, " बेटे, वे ही ब्रह्म थे ! उन्हीं की इच्छा से और उन्हीं की शक्ति से शक्तिमान होकर तुम लोगों ने असुरों को पराजित कर दिया था; किन्तु इसके लिए तुम अपनी ही पीठ थपथपा रहे थे, अपने को बड़ा सूरवीर समझ रहे थे। "
[ " जो अपना नाम-यश चाहते हैं वे भ्रम में है। वे यह भूल जाते है कि एकमात्र ईश्वर की ही इच्छा से सब कुछ हो रहा है, वही सब का नियामक है। ज्ञानवान व्यक्ति कहता है,' प्रभो, तुम तुम '; मूढ़ अज्ञानी ही ' मैं,मैं ' करता है।" " ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं, वे यन्त्री हैं, मैं यन्त्र हूँ- यह विश्वास यदि किसी में आ जाये तब तो वह जीवन्मुक्त ही हो गया। ' हे प्रभो, तुम्हारा कर्म तुम्हीं करते हो, पर लोग कहते हैं मैं करता हूँ।' ॐ तत सत]
उमा के उपदेश को सुनकर इन्द्र अपनी गलती पकड़ सके, और उनका अहँकार नष्ट हो गया।
देवताओं के बीच इन्द्र, वायू और अग्नि ब्रह्म के ज्योतिर्मय रूप को देख सके थे, उनके साथ बातचीत किये थे, इसीलिये देवगणों में उनको प्रधान माना जाता है। और चूँकि ब्रह्विद्या-रूपिणी उमा हैमवती की कृपा से सबसे पहले ब्रह्म के रूप में पहचान सके थे, इसीलिये उनको देवताओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

मंगलवार, 26 जून 2012

याज्ञवल्क्य और गार्गी [24] कहानियों में वेदान्त

ब्रह्माण्ड किसके अधीन है ?
(वृहदारण्यक उपनिषद : यजुर्वेद )
" जो बोले सो रहे अभय, भगवान श्रीरामकृष्णदेव की जय ! "  
प्राचीन युग में जनक नामक एक राजा भारतवर्ष में हुए थे। वे राजऋषि थे, इसीलिये किसी युग में उनकी राजसभा ज्ञान और कर्म की असाधारण समन्वय-भूमि के रूप में विख्यात थी। उनकी राजसभा को कितने ही ऋषि, कितने ही वेदज्ञ ब्राह्मण अपनी प्रतिभा से सदैव दैदीप्यमान बनाये रखते थे।
उन दिनों भारत में सर्वत्र स्त्रीशिक्षा का प्रचलन था। बहुत सी भारतीय-नारी पूर्णज्ञान की अधिकारी थीं। इसीलिये भारतीय सभ्यता को समृद्ध बनाने में स्त्रियों का योगदान भी कम नहीं रहा है। वेदों में बहुत सी नारी-ऋषि के नाम पाये जाते है। उनमें गार्गी, मैत्रेयी, वाक्, घोषा, अपाला, आदि नाम प्रसिद्द है। 
एकदिन राजऋषि जनक की राजधानी में बहुत से ज्ञानी-गुनी सज्जन व्यक्ति, स्त्री एवं पुरुष ऋषि, बहुत से वेदज्ञ ब्राह्मण आदि एकत्रित हुए हैं। राजा जनक ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया था, उसी अवसर पर वे सभी वहाँ एकत्रित हुए थे। इस यज्ञ में जनक प्रचूर दान करने वाले थे।
उन दिनों ब्राह्मण और ऋषि लोग ज्ञान और धर्म की चर्चा करने में अपना जीवन व्यतीत करते थे; और इसी प्रकार वे समाज में ज्ञान एवं उच्च भावों का वितरण निःशुल्क किया करते थे। वे रोजी-रोजगार करके धन नहीं कमाते थे। इसीलिये समाज भी विविध प्रकार के दान देकर, उनके थोड़े में ही सन्तुष्ट हो जाने वाले जीवन की समस्त आवश्यकताओं को परिपूर्ण कर देता था।
दान देने का कार्यक्रम लगभग समाप्त होने को था, उसी जनक के मन में एक विचार कौंध गया। एक साथ, एक ही स्थान पर इतने बड़े-बड़े, नामी-गिरामी ऋषियों एवं वेदज्ञ ब्राह्मणों का एकत्र होना भी कोई साधारण बात नहीं है। इसके अतिरिक्त ज्ञान के मार्ग का विभिन्न स्तर भी होता है। यहाँ उपस्थित वेदज्ञ ब्राह्मणों एवं ऋषियों में कौन सा व्यक्ति ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित है, आज इस बात की परीक्षा हो सकती है।
उनहोंने एक हजार सर्व-सूलक्षणा दुग्धवती, सुदर्शना गौओं के सींघों में सोने की एक एक अशर्फियाँ बंधवा दीं। फिर उन गौओं को सभा के सामने खड़ी करवाकर, राजा जनक ने सभा को संबोधित करके कहा: "हे महाज्ञानीयों, यह मेरा सौभाग्य है कि आप सब आज यहाँ पधारे हैं। मैंने यहाँ पर १००० गायों को रखा है जिन पर सोने की मुहरें जडित है। आप में से जो श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी हो वह इन सब गायों को ले जा सकता है।" 
यह घोषणा सुनते ही सम्पूर्ण सभा में सन्नाटा सा छ गया। निर्णय लेना अति दुविधाजनक था, क्योंकि ब्रह्मज्ञानियों की इस विशाल सभा में, अगर कोई अपने को सबसे बड़ा ज्ञानी कहने की हिम्मत करे, तो उसे ज्ञानी कैसे कहा जायेगा?
कुछ देर बाद लोगों ने देखा कि ऋषि याज्ञवल्क्य ऋषि अपने स्थान से उठकर अपने शिष्य सोमश्रवा से 
कह रहे हैं- "हे शिष्य! इन गायों को हमारे आश्रम की और हाँक ले चलो।" 
यह सुनते ही सभा में शोर होने होने लगा। ब्राह्मण-पण्डित लोग आवेश में आ गये। उन्होंने सोचा," हमलोगों के यहाँ उपस्थित रहते, याज्ञवल्क्य को इतना कहने का साहस कैसे हुआ, कि वे ही सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी हैं ! उनमें इतना घमण्ड है ! "
 किन्तु जिन ऋषियों को याज्ञवल्क्य की उपलब्धियों की गहराई का थोडा-बहुत पता था, उनको इस बात से ईर्ष्या या क्रोध तो नहीं हुआ, किन्तु उनमें से कई लोगों के मन में भी इस बात की परीक्षा करके देखने की हुई, कि सचमुच याज्ञवल्क्य जी ही ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं भी या नहीं ? किन्तु जब जनक के राजपुरोहित अश्वल से और अधिक बर्दास्त नहीं हुआ, तो वे उठकर खड़े हुए और याज्ञवल्क्य से  प्रश्न किये-" हमलोगों के बीच, क्या आप ही श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी हैं ? "
 याज्ञवल्क्य ने प्रशान्त मुखमंडल से विनम्र होकर उत्तर दिया-" सभी ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में, मेरा प्रणाम निवेदित है ! मुझे इन गौओं की आवश्यकता थी, इसीलिये लिया हूँ।"
उनकी इस विनम्रता और धीरस्थिर भाव-भंगिमा को देखकर, जिन लोगों के जीवन में सत्य की अनुभूति का थोड़ा भी अंश समाहित हुआ था, वे यह समझ गये कि सचमुच ऋषि याज्ञवल्क्य ही श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी हैं। और यह देखकर कि योग्य पात्र को ही गो-धन प्राप्त हुआ है, राजा जनक भी बहुत प्रसन्न हुए।
क्योंकि चाहे कोई कितना भी बड़ा विद्वान क्यों न हो, आत्मसाक्षात्कार हुए बिना, या अपने सच्चे स्वरूप की अनुभूति किये बिना, केवल शास्त्रज्ञान को बुद्धिगत कर लेने से ही हमलोगों का क्रोध,अहंकार, शेखी बघारने की आदत आदि दूर नही होते हैं।
 इसीलिये राजपुरोहित अश्वलजी रुके नहीं, एक प्रश्न के बाद दूसरा प्रश्न पूछते रहे। किन्तु याज्ञवल्क्य ने उनके सभी प्रश्नों का सही सही उत्तर दे दिया तो अन्त में उनको रुकना ही पड़ा।
उनके बाद एक एक करके कई लोग उठे, और याज्ञवल्क्य के उपर धारदार प्रश्नों के अनेक वाणों का प्रहार करने लगे। कोई तो यथार्थ जिज्ञासु के रूप से पूछ रहे थे, और कोई केवल याज्ञवल्क्य को परास्त कर गौओं को जब्त कराने की इच्छा से पूछ रहे थे।
उनके सभी प्रश्नों का बिल्कुल सही सही उत्तर याज्ञवल्क्य जी ने दिया था। उन्होंने जो उत्तर दिया था, उसी से वृहदारण्यक उपनिषद का एक विशाल अध्याय तैयार हो गया है। उन्हीं प्रश्नों में से कुछ का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है।
ऋषि कहोल उस जमाने के एक सच्चे तत्व-अन्वेषी जिज्ञासु थे। उन्होंने पूछा, " जो सबों के भीतर अन्तरात्मा रूप से विद्यमान हैं, उनके सम्बन्ध में बताइये।"
ऋषि याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया," आत्मा ही सबों के अन्तर्यामी हैं। भूख-प्यास, जरा-मृत्यु, शोक-दुःख कोई भी उनको स्पर्श नहीं कर सकता, वे इन सब चीजों से अतीत हैं ! उनको प्राप्त कर लेने से पुत्र-परिजन,धन-दौलत, यहाँ तक कि स्वर्ग भी तूच्छ प्रतीत होता है। उनको प्राप्त करने की इच्छा से ही लोग दर-दर के भिखारी का वेश धारण कर लेते हैं।"
उनके बाद एक नारी ऋषि प्रश्न करने के लिये उठ खड़ी हुईं, उनका नाम था वाचकन्वी गार्गी। उन्होंने दो बार उठकर प्रश्न किया था। जगत का मूल उपादान क्या है, मूल कारण क्या है, इसी के सम्बन्ध में गार्गी प्रश्न पूछने लगीं। वे हमलोगों द्वारा इन्द्रिय-ग्राह्य स्थूल जड़ पदार्थों से आरम्भ करके क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर विषयों में प्रवेश करने लगीं।
गार्गी ने पूछा था, " हे ऋषिवर! जगत के सभी पदार्थ ' क्षिति ' ( मिट्टी या स्थूल कड़ा पदार्थ ) ' अप ' या  जल में  घुलमिल जाता है तो यह जल किसमें जाकर मिल जाता है? याज्ञवक्ल्य ने उत्तर दिया कि जल अन्तत: ' वायु ' (वाष्पीय पदार्थ) में ओतप्रोत हो जाता है। फिर गार्गी ने पूछ लिया कि वायु किसमें जाकर मिल जाती है और याज्ञवल्क्य का उत्तर था कि अंतरिक्ष लोक में।
 इसी प्रकार गार्गी एक प्रश्न का उत्तर पाने के बाद दूसरा प्रश्न पूछते हुए मूल कारण की ओर जाते जाते, वस्तु की सूक्ष्म अवस्था से सूक्ष्मतर अवस्था की ओर बढ़ते हुए, याज्ञवल्क्य का उत्तर अन्त में जगत के चरम सत्य ब्रह्म तक आ पहुँचता है। 
 इसके बाद भी गार्गी ने फिर वही सवाल पूछ लिया कि यह ब्रह्मलोक किसमें जाकर मिल जाता है? इस पर याज्ञवक्ल्य ने कहा-’गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’ यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा भेजा ही फट जाए।
इसके बाद गार्गी को बहुत प्रेम से समझाते हुए, याज्ञवल्क्यजी ने कहा- " देखो गार्गी, प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व ' ब्रह्म ' या शुद्ध चेतना (शाश्वत चैतन्य स्पंदन ) के उपर ही टिका हुआ है। सभी कार्य अपने कारण में जाकर घुलमिल जाते हैं, ब्रह्म ही चरम सत्य हैं, वे ही समस्त कारणों के कारण हैं। उनका कोई कारण नहीं है, वे स्वयंभू हैं ! " इस प्रकार वे इस दृष्टिगोचर जगत की विभिन्नता को ब्रह्म के एकत्व में प्रतिष्ठित करा देते हैं। 

प्राचीन ऋषियों ने जगत के पदार्थों को पाँच मूल तत्वों- ' क्षिति,अप,तेज,मरुत ओर व्योम ' में विभक्त किया था। इन सबके भी स्थूल और सूक्ष्म अवस्थायें होती हैं। आधुनिक विज्ञान की भाषा में स्थूल पदार्थों के अन्तर्गत ' क्षिति ' को पदार्थ या मैटर की कठोर अवस्था या ' सॉलिड ' कहा जा सकता है। ' अप ' को तरल अवस्था या ' लिक्विड ' कहते हैं। ' मरुत ' को गैसीय अवस्था तथा ' तेज ' को शक्ति या ' एनर्जी ' कहा जा सकता है।
एवं ' व्योम ' या आकाश को ' एनर्जी ' से भी सूक्ष्म पदार्थों (हिग्स बोसोन या God particle ) से परिपूर्ण
 ' स्पेस ' कहा जा सकता है, जिसकी छाती पर पैर रख कर शक्ति के अर्धनारीश्वर रूप में ' नटराज ' के चपल नृत्य के एक एक ताल पर कई विविधतायें ( ब्रह्म की इच्छाएँ ?) इस स्थूल जगत-प्रपंच के रूप में दृष्टिगोचर होने लगती हैं।
[श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं, " सच्चिदानन्द (ब्रह्म) कैसे हैं, कोई नहीं बता सकता। इसीलिये वे पहले अर्धनारीश्वर बने। जानते हो, उन्होंने ऐसा क्यों किया ? -यह दिखाने के लिये कि वे स्वयं ही प्रकृति, पुरुष दोनों हैं। फिर एक सीढ़ी नीचे उतर आकर वे अलग-अलग पुरुष और प्रकृति (M /F) बने।
 " मेरी ब्रह्ममयी माँ ही सबकुछ बनी हैं। वह आदिशक्ति ही जिव-जगत बनी है। वही अनन्त-शक्ति-स्वरूपिणी माँ जगत में दैहिक,बौद्धिक, नैतिक, अध्यात्मिक आदि विविध शक्तियों के रूप में प्रकाशित हैं। मेरी माँ ही वेदान्त का ब्रह्म है। वह " माँ काली " - ब्रह्म का व्यक्त रूप है ! " ]
आधुनिक विज्ञान ( 4 जुलाई 2012 तक सर्न प्रयोग शाला में हिग्स बोसोन खोजने बाद भी ) जगत के मूल कारण को जानने की दिशा में इससे आगे नहीं बढ़ पाया है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार ' एनर्जी ' से ही - ईंट, पत्थल, सोना, चाँदी, वायु, ताप, विद्युत् आदि सबकुछ बना है। तथा यह सब कुछ यदि नष्ट भी हो जाये तो ये सभी पदार्थ बिल्कुल शून्य नहीं हो जायेंगे, बल्कि सभी पुनः ' एनर्जी ' में परिणत हो जायेंगे। इस बात को केवल कहकर ही नहीं, बल्कि जापान पर परमाणु बम का विस्फोट करके विज्ञान ने जगत को भली-भाँति समझा भी दिया है।
आधुनिक विज्ञान की भाषा में सृष्टि का अर्थ है- ' जैसे किसी अनन्त शक्ति के सागर में प्राकृतिक नियम के अनुसार तरंग, बुलबुला और फेन (झाग) उठती हैं, कुछ क्षणों तक अस्तित्व में रहकर फिर से सागर के जल में मिल जाती हैं। झाग, तरंग आदि नाम और रूप में अलग अलग होने पर भी सत्ता की दृष्टि से, ये सभी वस्तुयें  सागर के जल के अतिरिक्त, ' एनर्जी ' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। '
किन्तु हमारे ऋषि-गण जगत के मूल कारण की ओर ( अवश्य बहिर्मुखी मार्ग से नहीं अन्तर्मुखी होकर ) आगे तक पहुँच गये थे। इस अचेतन पदार्थ (जड़ वस्तु) ' एनर्जी ' का भी जो उपादान कारण है, तथा हमलोगों का मन, बुद्धि, आदि चेतन से प्रतीत होने वाले सूक्ष्मतर पदार्थों का भी जो मूल उपादान है उसका आविष्कार करके, उसका साक्षात्कार करने के बाद हमारे ऋषियों ने यह घोषणा किया है कि सभी पदार्थों का मूल उपादान केवल एक ही सत्ता है। विश्व-ब्रह्माण्ड में चेतन-अचेतन सब कुछ की मूल सत्ता की खोज करते हुए, वे ऋषि केवल शुद्ध चेतना (शाश्वत चैतन्य स्पन्दन- सच्चिदानन्द ) के अतिरिक्त अन्य किसी सत्ता को खोज ही नहीं सके। वेदान्त में उसी सत्ता को ब्रह्म कहा गया है।
वेदान्त के अनुसार सृष्टि का अर्थ है एक असीम, अविनाशी, आनन्द-घन चेतना के सागर, सच्चिदानन्द समुद्र में मानो अलग अलग नामों अलग अलग रूपों के तरंग, झाग, बुलबले इत्यादि उठ रहे हैं; इनमें से किसी का नाम शक्ति या ' एनर्जी ', किसी का नाम आकाश (या हिग्स बोसोन से परिपूर्ण स्पेस ), किसी का नाम वायू, किसी का नाम जल, किसी का मिट्टी है। फिर उसी चेतना सागर एक लहर का नाम मन, किसी तरंग का नाम बुद्धि, तो किसी को हमलोग अपना ससीम पृथक ' मैं '-बोध कहते हैं। देश-काल एवं प्राकृतिक नियम भी इसी चेतना-सागर से उठ रहे हैं। 
गार्गी ने बाण की तरह पैने अपने दूसरे प्रश्न में पूछा कि यह  सारा विश्व-ब्रह्माण्ड किसके अधीन है?   "ऋषिवर सुनो। जिस प्रकार काशी या विदेह का राजा अपने धनुष पर डोरी चढ़ाकर, एक साथ दो अचूक बाणों को धनुष पर चढ़ाकर अपने दुश्मन पर सन्धान करता है, वैसे ही मैं आपसे दूसरा प्रश्न पूछती हूँ।"
याज्ञवल्क्य ने कहा- ‘पृच्छ गार्गी’ हे गार्गी, पूछो।
 गार्गी ने कहा, " स्वर्गलोक से ऊपर जो कुछ भी है और पृथ्वी से नीचे जो कुछ भी है और इन दोनों के मध्य ( जो खाली स्थान देश या Space ) जो कुछ भी है; और जो हो चुका है और जो अभी होना है (काल समय या Time ), ये दोनों किसमें ओतप्रोत हैं? यह दृष्टिगोचर जगत ' स्पेस और टाइम ' के भीतर ही वास्तविक प्रतीत होता है, तो इसके परे भी कुछ है क्या; जो इस ' स्पेस और टाइम ' को भी नियन्त्रित कर रहा है ? "
 याज्ञवल्क्य बोले, ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी।’ यानी कोई अक्षर, अविनाशी तत्व है जिसके प्रशासन में, अनुशासन में सभी कुछ ओतप्रोत है। गार्गी ने पूछा कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है ? तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था- अक्षरतत्व के! इसी प्रसंग में उन्होंने कहा था, " गार्गी इस अक्षर तत्व को जाने बिना यज्ञ और तप सब बेकार है। इस अक्षर पुरुष को जो व्यक्ति जान लेते हैं, वे ही ब्राह्मण हैं।"
थोड़ी गहराई से चिन्तन करने पर यह बात समझ में आ जाती है कि आधुनिक विज्ञान का बड़ा से बड़ा आविष्कार भी वेदान्त के सत्य के विरुद्ध तो जाते ही नहीं हैं, उल्टे उस सत्य का समर्थन ही करते हैं।
अर्थात ' हिग्स बोसोन ' जैसे आविष्कार भी हमारी बुद्धि को उस सत्य के सम्बन्ध में स्पष्ट धारणा बनाने में सहायता ही करते हैं।
नारी ऋषि गार्गी वाचकन्वी के साथ शास्त्रार्थ करने के बाद ऋषि उद्दालक ने भी याज्ञवल्क्य से प्रश्न किया था। उन्होंने यह जानना चाहा था कि - वर्तमान में जो कुछ घटित हो रहा है, और भविष्य में जो भी घटनाएँ घटने वाली हैं, वे समस्त घटनाएँ किसके द्वारा नियन्त्रित हो रही हैं? उन्होंने पूछा -" किस अन्तर्यामी या सूत्र में ये सभी बन्धे हैं, या किस नियम के अनुसार ये सब घटित होती हैं ? "
याज्ञवल्क्य ने उत्तर में कहा था, " पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, सूर्य, चन्द्र, स्थूल और सूक्ष्म लोक, देश-काल सभी कुछ के साथ तुम्हारी अपनी आत्मा ही जुड़ी हुई है। सबकुछ के नियन्ता वे ही हैं। आत्मा से अलग कोई श्रोता नहीं है, कोई मनन करने वाला भी नहीं है, तथा कोई अनुभव करने वाला भी नहीं है। "
[ एक भक्त ने श्रीरामकृष्णदेव से पूछा था - ' कालीमाता ' को योगमाया क्यों कहते हैं ? 
 
श्रीरामकृष्ण- " योगमाया अर्थात पुरुष और प्रकृति का योग। तुम जो कुछ देख रहे हो वह सभी कुछ पुरुष-प्रकृति का योग है। देखा नहीं, शिव-काली की मूर्ति में शिव के उपर काली खड़ी हुई है। शिव शव के जैसे पड़े हैं; काली शिव की ओर देख रही है। यह सभी पुरुष-प्रकृति का योग है। पुरुष निष्क्रिय है, इसीलिये शिव शव जैसे पड़े हैं। पुरुष के साथ युक्त होकर प्रकृति सृष्टि-स्थिति-प्रलय आदि सभी कार्य कर रही है। राधा-कृष्ण की युगल-मूर्ति का भी यही अर्थ है। " ]  
आत्मा या शुद्ध चेतना के संसर्ग में रहने से ही मन बुद्धि आदि जड़ होकर भी चैतन्यमय जैसे प्रतीत होते हैं। इस विश्व-ब्रह्माण्ड में आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी की अपनी चेतना नहीं है।  
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CERN scientists find the God of all particles

4 July 2012
Press trust of India  
GENEVA, 4 JULY: The five-decade-long hunt for the elusive Higgs boson or the “God particle” has reached a milestone, with scientists at the European Center for Nuclear Research (CERN) claiming today that they have discovered a new subatomic particle that looks like the one believed to be crucial for formation of the universe. 
 higgs boson
Mr Joe Incandela, leader of one of the two independent teams at the world's biggest atom smasher, told a packed audience of scientists at CERN that the data had reached the level of certainty needed for a discovery. But he has not yet confirmed that the new particle is indeed the tiny and elusive, Higgs boson which is believed to give all matter in the universe size and shape. Meanwhile, the second team of physicists also claimed they have observed a new particle, probably the elusive Higgs boson.
The announcements were made to huge applause by scientists including Mr Peter Higgs who first suggested the existence of the particle in 1964. In a statement, CERN said the particle they found at LHC is “consistent with (the) long-sought Higgs boson,” but more data was needed to identify the find.
“We have reached a milestone in our understanding of nature,” said CERN director-general Mr Rolf Heuer.
“The discovery of a particle consistent with the Higgs boson opens the way to more detailed studies, requiring larger statistics, which will pin down the new particle's properties, and is likely to shed light on other mysteries of our Universe,” Mr Heuer said. Finding the Higgs would validate the Standard Model, a theory which identifies the building blocks for matter and the particles that convey fundamental forces.
Higgs boson is believed to exist in an invisible field created by the Big Bang some 13.7 billion years ago. When some particles encounter the Higgs, they slow down and acquire mass, according to theory. Others, such as particles of light, encounter no obstacle.
स्विट्जरलैंड स्थित यूरोपियन सेंटर फ़ॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) के वैज्ञानिकों ने बुधवार, 4 जुलाई 2012 को दावा किया कि उन्हें हिग्स बोसोन कण या ' गॉड पार्टिकल ' मिल गया है। लेकिन यह इस खोज का महज एक पड़ाव है और मुख्य काम अभी बाकि है। नोबेल पुरस्कार विजेता साइंटिस्ट स्टीवन वियेनबर्ग कहते हैं, कि इस सूक्ष्म कण के मिलने से यह साबित होता है कि ब्रह्माण्ड में दिखने वाले खाली क्षेत्र में भी उर्जा क्षेत्र मौजूद है। यह कण उप अणुओं को भार देने में अहम भूमिका निभाता है, जो पदार्थ के मूल हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के लिये जिम्मेवार महाविस्फोट के तुरन्त बाद ही हिग्स फील्ड बन गया था।
अब यह पता लगाना है कि ब्रह्माण्ड के कुल भार का एक चौथाई हिस्सा डार्क मैटर क्या है ? तथा ब्रह्माण्ड के विस्तार के लिए जिम्मेदार डार्क एनर्जी क्या है ? हमारा निर्माण मैटर या पदार्थ (पंच भूतों) से हुआ है, तो एंटी मैटर से क्यों नहीं ? गॉड पार्टिकल के गुणों और संरचना के विश्लेष्ण करने का काम अभी बाकी है। 

सुलझा जीवन का रहस्य

वाशिंगटन, 14 दिसंबर. इंसान ब्रह्मांड की मौजूदगी के रहस्य के काफी करीब पहुंच चुका है. साइंटिस्टों ने दावा किया कि उन्होंने  गॉड पार्टिकल  की पहली झलक देखी है. गॉड पार्टिकल या हिग्स बोसोन वे कण है , जिसकी ब्रह्मांड के बनने में अहम भूमिका मानी जाती है. फिजिक्स के नियमों के मुताबिक धरती पर हर चीज को मास देने वाले यही कण हैं. लोगों को 1960 के दशक में इनके बारे में पहली बार पता चला. तब से ये फिजिक्स की अबूझ पहेली बने हुए हैं.
यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च (सर्न) के जिनीवा के पास स्थित फिजिक्स रिसर्च सेंटर के साइंटिस्टों का कहना है कि गॉड पार्टिकलों को उन्होंने खोज तो लिया है , लेकिन वे इनकी मौजूदगी का कोई ठोस सुबूत अभी पेश नहीं कर सकते. गॉड पार्टिकल का पता तब चला, जब एटलस और सीएमएस प्रयोगों से जुड़े साइंटिस्टों ने लार्ज हैड्रोन कॉलाइडर को तेज स्पीड में चलाकर कई कणों को आपस में टकराया. इस दौरान बोसोन के चमकते हुए अंश सामने आए, लेकिन उन्हें पकडऩा मुमकिन नहीं था. सीएमएस से जुड़े साइंटिस्ट ओलिवर बकमुलेर ने बताया, ये दोनों ही प्रयोग एक ही मास लेवल पर गॉड पार्टिकलों के वजूद का संकेत दे रहे थे. एटलस से जुड़ी रहीं साइंटिस्ट फैबिओला गियानोती के मुताबिक , 126 गीगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट के पास पाए गए हिग्स बोसोन की मात्रा काफी ज्यादा हो सकती है , लेकिन इस बारे में कुछ भी दावे से कहने के लिए यादा स्टडी और आंकड़ों की जरूरत है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि अगर हिग्स बोसोन के वजूद की पुष्टि आगे की रिसर्च में भी होती है , तो यह ब्रह्मांड के सभी मूलभूत तत्वों के रहस्यों को सामने लाने की शुरुआत होगी और यह पिछले 100 सालों में सबसे अहम खोज कही जाएगी. हालांकि , माना जा रहा है कि इस बारे में की जा रही रिसर्च का ठोस नतीजा अगले साल के अंत तक ही आ पाएगा.


 

सोमवार, 25 जून 2012

' याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी ' [23] कहानियों में वेदान्त

भारत की सभ्यता आज भी जीवित कैसे है ?
[वृहदारण्यक उपनिषद-(यजुर्वेद)]
" जो बोले सो अभय, माँ सारदा देवी की जय ! " 
प्राचीन भारत में मनुष्य-जीवन के सम्पूर्ण काल-खण्ड को साधारण तौर पर चार भागों में विभक्त माना जाता था। हमलोगों को सर्वदा यह याद रहे, कि हमें यह मनुष्य शरीर धर्म-लाभ के लिए मिला है, जीवन के प्रत्येक भाग को आश्रम कहा जाता था। जीवन के जिस उम्र में पढाई-लिखाई में समय बिताने जहाँ जाना पड़ता था, उसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता था।
ब्रह्मचर्य पालन करने के फलस्वरूप हमारे स्नायू और मस्तिष्क बहुत सशक्त हो जाते हैं, और मन की शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है और हमारा मन सूक्ष्म विषयों को समझने की योग्यता अर्जित कर लेता है।  इसीलिये प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति में बचपन से ही इस विषय में छात्रों को जागरूक बना दिया जाता था। शिक्षा प्राप्त करने के बाद, दो-चार लोग आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए चरम-ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते थे, और सन्यासी बन जाते थे। और बाकी सभी अपने घर लौट जाते थे, और विवाह आदि करके घर-संसार बसाते थे। वे सदुपाय से अर्थोपार्जन करके जीवनयात्रा पूर्ण करते थे। इसका नाम था गृहस्त-आश्रम
 किन्तु भारतीय सभ्यता के मार्गदर्शक नेताओं या ऋषियों(गुरु ) ने गृहस्त आश्रम में भी भोगसर्वस्व (केवल इन्द्रिय विषय भोग में व्यस्त) होकर जीवन-यात्रा का निर्वाह करने को कभी अनुमोदित नहीं किया है। विवाहित जीवन में भी सभी विषयों में यथा संभव संयम का अभ्यास करने की चेष्टा करने, एवं उच्च आदर्श प्रति सर्वदा जागरूक दृष्टि रखने का परामर्श ही उन्होंने दिया है। उन दिनों जीवन का सुर इतने उच्च पैमाने से बंधा हुआ था, इसीलिये इतना घात-प्रतिघात सहने के बाद भी आज तक हमलोगों की सभ्यता अपना पृथक वैशिष्ट रखते हुए जीवित है। 
युगों युगों से जनक, याज्ञवलक्य, राम, कृष्ण, बुद्ध, शंकर, रामानुज, रामकृष्ण, विवेकानन्द आदि जैसे देवतुल्य असंख्य महापुरुष, तथा गार्गी, मैत्रेयी, सीता, सावित्री, सारदादेवी, आदि देवतुल्य महीयसी नारियों ने योग्य मातापिता की गोद को प्रकाशित करते हुए अवतरित हुई हैं, और इस देश के जीवन को गौरवशाली बनया है।  इसीलिये श्रीरामकृष्णदेव अपने गृहस्त भक्तों को परामर्श देते थे, कि दो-तीन बच्चे हो जाने के बाद पति-पत्नी को भाई-बहन के जैसा रहने की चेष्टा करनी चाहिए।
उसके बाद है वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम। पचास वर्ष की उम्र हो जाने के बाद बेटों के हाथ में घर-परिवार चलाने का भार सौंप कर, वहां से मन को खींच कर आत्म-चिन्तन में नियोजित रखना अच्छा है। इसी व्यवस्था के अनुसार ये दो आश्रम बनाये गये थे। जीवन-यापन की पद्धति इतनी सूनियन्त्रित और सूव्यवस्थित थी, इसीलिये गृहस्त आश्रम में रहते हुए भी, अनेकों लोग ब्रह्मज्ञान तक प्राप्त कर लेते थे।
ऋषि याज्ञवल्क्य ऐसे ही लोगों में से एक थे।
उनकी पत्नियाँ थीं, कात्यायनी और मैत्रेयी। कात्यायनी में बहुत से सद्गुण थे, किन्तु धर्म को लेकर वे बहुत दिमाग नहीं लगाती थीं। जिस प्रकार साधारण स्त्रियाँ करती हैं, वे भी घर-संसार का प्रबन्धन करना अधिक पसन्द करती थीं। किन्तु मैत्रेयी का मन भी याज्ञवल्क्य के जैसा ही आत्म-चिन्तन करने में निवेशित रहता था। वे घरेलू मुद्दों को लेकर ज्यादा माथापच्ची नहीं करती थीं।
तात्कालीन नियमों के अनुसार उम्र के अंतिम भाग में, याज्ञवल्क्य ने वानप्रस्थ आश्रम में जाने का निश्चय किया, और मैत्रेयी से बोले, " मैंने यह फैसला कर लिया है, कि घर-परिवार छोड़ कर चला जाऊंगा। मेरे पास जो भी धन-सम्पत्ति है, उसे मैं तुम दोनों में बराबर-बराबर बटवारा करके चला जाना चाहता हूँ; ताकि मेरे चले जाने के बाद इसको लेकर, तुम दोनों के बीच कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाय।
मैत्रेयी पतिव्रता स्त्री थीं, इसीलिये उनके मुख से ऐसी बात सुनकर मर्माहत हो गयीं। उन्होंने सोचा, मेरे ब्रह्मज्ञ पति निश्चिन्त होकर आत्म-चिन्तन में सर्वदा लीन रहने की इच्छा से घर छोड़ कर जाना चाह रहे हैं, फिर उनके बिना धन-सम्पत्ति लेकर मैं करुँगी क्या ? उन्होंने अपने पति से पूछा, " क्या धन-सम्पत्ति से मुझे अमृतत्व प्राप्त हो सकता है ? "
याज्ञवल्क्य ने कहा, " नहीं, क्या वैसा कभी हुआ है ? समस्त जगत का ऐश्वर्य भी प्राप्त करके भी मनुष्य कभी अमर नहीं हो सकता। जैसे साधारण लोग धन रहने से सुख भोगते हुए जीवन बिताते हैं, उसी प्रकार तुम भी सुख-सुविधा में जीवन बिता सकोगी। फिर उन्हीं के समान तुम्हें कई प्रकार के कष्टों को भी सहना पड़ेगा। "
यह सुन कर मैत्रेयी ने कहा, " तो फिर मुझे धन नहीं चाहिये। जिसको पा कर मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करुँगी ? जिससे मैं अमर हो सकूँ ऐसा कुछ मुझे दीजिये। "
याज्ञवल्क्य बोले, " मैत्रेयि, यूँ  तो मैं पहले से भी तुम्हारे उपर प्रसन्न था, किन्तु अभी तुम्हारी श्रेय को पाने की मनोकामना को देखकर तुम्हारे उपर और अधिक प्रसन्न हो गया हूँ। "  उसके बाद याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को बहुत सी ज्ञान के उपदेश दिए। उन्होंने समझाया था, " पति के लिये ही पति प्रिय नहीं होता, उसमें आत्मा हैं इसीलिये पति प्रिय होता है। उसी प्रकार पिता, पुत्र, धन, आदि जो कुछ भी प्रिय प्रतीत होते हैं, सबकुछ आत्मा के कारण ही प्रिय लगते हैं। "
यह आत्मा ही जगत की सार वस्तु है। यह सत्य (आत्मा) ही उसकी बुनियाद है। जो कुछ भी है, वह सब आत्मा से ही निकला है। फिर जिस प्रकार विभिन्न नाम-रूप वाली नदियाँ, समुद्र में मिलकर अपना नाम-रूप खो कर एकाकार  हो जाती हैं; सारी नदियाँ अन्त में समुद्र बन जाती हैं, उसी प्रकार विघटन के समय भी जगत का सबकुछ आत्मा में मिलकर एक हो जाता है।
याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट रूप से समझा दिया कि, " आत्मा के साथ मिलकर, एकाकार हो जाने के बाद हमलोगों की पृथक चेतना जैसी कोई चीज बची नहीं रहती। "
मैत्रेयी को भय हो गया था, कि यदि वहाँ पहुँचकर हमलोगों का ' मैं '-बोध भी व्यक्तिगत पार्थक्य खो देता है, तो क्या हमलोग कहीं शून्य तो नहीं हो जाते हैं ? ब्रह्मज्ञान होने का अर्थ क्या कहीं शून्य हो जाना तो नहीं है ? "
 
याज्ञवल्क्य ने हँसते हुए उत्तर दिया था, " नहीं, वैसी कोई बात नहीं है, वहाँ पहुँच कर सबकुछ पूर्ण हो जाता है, ( मन को पूर्ण संतुष्टि प्राप्त हो जाती है, इतना तृप्त हो जाता है, कि अपनी पृथक सत्ता की याद भी खो देता
 है.) उस समय हमलोग शुद्ध शाश्वत चैतन्य के साथ एक होकर, हमलोग सर्वत्र फ़ैल जाते हैं ( तब हमलोग अपने को किसी भी मनुष्य से पृथक नहीं समझते, पराय भी अपने बन जाते हैं।)।"
" हमलोग जिस समय अपने सच्चे स्वरुप को भूलकर, अहंकार, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि के साथ (जन्म से प्राप्त किसी नाम-रूप के साथ) अपने को एक समझने लगते हैं, तभी हमलोग अपने से भिन्न किसी दूसरे को देखने, सुनने, जानने, की चेष्टा में फँस जाते हैं।
यह भ्रम जिस क्षण टूट जाता है, जिस समय दूसरों के साथ रंचमात्र भी भेदबुद्धि नहीं रहती, उस समय कौन किसको देखेगा, कौन किसको सुनेगा, या किस माध्यम से सुनेगा ? "पुत्र, वित्त, सभी सांसारिक वस्तुओं से प्रिय होता है, हमलोगों का यह ' स्वरुप-बोध '! इस बोध के प्राप्त हो जाने के बाद, मनुष्य असीम आनन्द का उपभोग करता है।  

रविवार, 24 जून 2012

सत्यकाम जाबाल / [22] कहानियों में वेदान्त

मार्गदर्शक नेताओं (शिक्षकों ) का निर्माण कैसे करें ?
[ छान्दोग्य उपनिषद (सामवेद) ] 
" जो बोले सो अभय, सियापति रामचन्द्र की जय ! "
गीता में ऐसा वर्णन मिलता है कि अर्जुन ने श्रीकृष्ण को कहा था-" मित्र, तुम मुझे मन को नियंत्रण में रखने का परामर्श दे रहे हो; किन्तु मन को वश में करना तो बहुत कठिन है। जिस प्रकार हवा को वश में करना असम्भव है, मन को वश में लाना भी लगभग उतना ही कठिन प्रतीत होता है। "
उसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा था, " यह बात ठीक है। किन्तु अभ्यास के द्वारा मनुष्य धीरे धीरे सबकुछ कर सकता है। वैराग्य  ( अर्थात लालच को कम करते जाने ) और अभ्यास की सहायता से मन को वश में लाया जा सकता है।"
जीवन-गठन करने का भी एकमात्र पथ यही है। कुछ सोचने, बोलने या करने के पहले, जरा रुक कर क्या अच्छा है, क्या बुरा है, इस बात पर विचार करके अच्छी तरह से समझ लेना पड़ता है। उसके बाद जो सत्य लगता हो, उसको अभ्यास के द्वारा अपने जीवन में प्रतिबिम्बित करने का प्रयास करना पड़ता है। इस प्रकार मनुष्य धीरे धीरे आगे बढ़ता जाता है।
प्राचीन काल में भारतवर्ष में बचपन से ही इसप्रकार से जीवन-गठन करने वाली शिक्षा-व्यवस्था प्रचलित थी। घर-परिवार में रहने के लिए अर्थोपार्जन करना जरुरी है; इसके लिये वाणिज्यिक विद्या सीखने की विशेष आवश्यकता होती है। फिर समाजोपयोगी, ईमानदार, यथार्थ मनुष्य बनने बनने के लिए - स्वार्थपरता, दूसरों की धन-सम्पदा को देखकर जलना, आलस्य, दुर्बलता आदि दोषों को दूर हटाकर, मन में लोकमंगल की इच्छा, संयम, त्याग इत्यादि सद्गुणों को धारण करना पड़ता है।तथा एक साहसी, परिश्रमी, एकाग्रचित्त, कर्मठ व्यक्ति बनना पड़ता है। त्याग और संयम के अभ्यास से चरित्र में ये समस्त गुण आसानी से चले आते हैं। ब्रह्मचर्य-पालन करने से ( अर्थात यथासंभव मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने का अभ्यास करते रहने से ) मनुष्य के भीतर असीम शक्ति जाग उठती है, वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर विषयों को समझने की योग्यता अर्जित कर लेता है। उस शक्ति के जाग जाने पर मनुष्य सबकुछ कर सकता है।छात्रों को ' ब्रहचर्य-पालन (मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने) के लिये उत्प्रेरित करने वाली शिक्षा ' प्रदान करने वाले (मार्गदर्शक नेताओं )शिक्षकों का निर्माण कैसे होता है ? 
यदि शिक्षक का अपना व्यक्तिगत जीवन उपयुक्त आदर्श के साँचे में नहीं ढला हो, तो छात्रों को केवल प्रवचन सुना कर, उन्हें अपना चरित्र-गठन करने के लिए अनुप्रेरित नहीं कर सकता। इसीलिये प्राचीन भारत में शिक्षा प्रदान करने का दायित्व - केवल त्यागी, वेदान्त ज्ञान के अधिकारी ऋषियों के उपर ही सौंपा जाता था।
इन गुरुगृह रूपी ब्रह्मचर्य-आश्रमों में सादगी भरा जीवन, सत्य, संयम, ध्यान के अभ्यास द्वारा उत्पन्न प्रशान्ति के माध्यम से प्राणप्रद, शक्ति-प्रद, आनन्द-प्रद जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है, वह सबकुछ
 छात्र-जीवन में ही दिए जाने का पूरा प्रबन्ध रहता था। जहाँ परा और अपरा दोनों प्रकार की विद्याओं में अनुभवी देवोपम गृहस्थ ऋषियों ( परमपूज्य नवनीदा, रनेनदा, वीरेनदा आदि ) के सानिध्य में वास करके, युवा गुरु-गृह में रह कर शिक्षा प्राप्त करते थे, और शिक्षा-समाप्ति के उपरान्त ' वाणिज्यिक संसारी विद्या ' और 
' अध्यात्म-विद्या ' ; इन दोनों विद्याओं में प्रवीण बनकर, अपने अपने घरों को लौट जाते थे।
 अपने ऋषि तुल्य गृहस्थ आचार्यों के आदर्श जीवन से अनुप्रेरित एवं उनके उपदेशों को सुनकर वे अपना और समाज दोनों का यथार्थ कल्याण करने वाले यंत्र-स्वरुप बन जाते थे। इस प्रकार के एक शान्त ( एक ही आदर्श और उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये 1600 लड़के और 200 आचार्य से बने निर्जन परिवेश का निर्माण करके) परिवेश में,एवं इस प्रकार के जीवन का सानिध्य प्राप्त करने के फलस्वरूप-' मनुष्य बनने और बनाने ' की शिक्षा प्राप्त करके वे युवा भी अपने अन्तर्निहित आध्यात्मिक आनन्द को आविष्कृत कर लेते थे, और अभ्यास की सहायता से उस आनन्द का थोड़ा स्वाद भी प्राप्त कर लेते थे।
इस ' मनुष्य ' बन जाने वाली शिक्षा को प्राप्त कर लेने के कारण, अपने परवर्ती जीवन में सभी प्रकार के प्रलोभन एवं विपरीत परिवेश के भीतर रहने पर भी अपने आदर्श को पकड़े रहकर, वे प्रसन्न चित्त से अपनी जीवन यात्रा को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर लेते थे।
इसीलिये प्राचीन भारत में ऋषियों के तपोवन ही ब्रह्मविद्या-प्राप्ति एवं समाज के सभी क्षेत्रों में जागरूकता फ़ैलाने के प्रधान केन्द्र माने जाते थे। ऋषियों के इन आश्रमों को जनता के आवास क्षेत्र से दूर-अरण्य भूमि में ज्ञान-केन्द्र के रूप में स्थापित किया जाता था; इसीलिये वेदों के ज्ञान-काण्ड को उपनिषद के जैसा कहीं कहीं आरण्यक भी कहा जाता है। गुरुगृह से ' ज्ञान-प्राप्त ' कर लेने के बाद, दो-एक छात्र सन्यासी हो जाते थे, किन्तु अधिकांश छात्र समाज में वापस लौट जाते थे; और अपने परिवार तथा समाज में ऊँचे विचारों का प्रचार-प्रसार करते थे। 
( वर्तमान समय में भी ऋषि तूल्य गृहस्थ आचार्यों  के द्वारा अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में ' Leadership Training ' के माध्यम से इस तरह के ऋषि तूल्य गृहस्थ मार्गदर्शक नेताओं ( उप-शिक्षकों) का निर्माण किया जा रहा है।)
इसी प्रकार का एक आश्रम गौतम ऋषि का भी था। उनके पास विद्या-अध्यन करने (या ज्ञान-प्राप्त करने) के लिये दूर-दूर से विद्यार्थी गण आया करते थे।बालक सत्यकाम ने भी ब्रह्मचर्य-आश्रम की महिमा सुन रखी थी। अब उसकी उम्र गुरुगृह में जाकर विद्यार्जन करने की हो चुकी थी। उसके घर में उसकी माँ के सिवा और कोई न था। एकदिन उसने अपनी माँ से अपने मन की बात बताई, कि वह गौतम ऋषि के आश्रम में रहना चाहता है।
लड़का पढना-लिखना सीखने जाना चाहता है, यह तो बड़े आनन्द की बात है। माँ ने तहे दिल से उसको ऋषि के आश्रम में रहने की अनुमति प्रदान की। किन्तु आश्रम में जाने पर गुरु उससे पूछेंगे, कि तुम्हारा गोत्र क्या है? यह तो उसे ज्ञात नहीं था, इसीलिये उसने माँ से पूछा, " माँ, मेरा जन्म किस गोत्र में हुआ है ? " 
माँ परेशानी में पड़ गयीं, पिता का गोत्र ही पुत्र का गोत्र होता है; किन्तु सत्यकाम के पिता कौन थे, यह उन्हें पता नहीं था। उनका विवाह नहीं हुआ था। उनका बेटा अवैध-पुत्र माना जायगा, समाज उसको स्वीकार नहीं करेगा, और उसको वेद पढ़ने का अधिकार भी नहीं देगा।
अब वे अपने पुत्र से कहें तो क्या ? कितनी शर्म की बात थी ! यह बात जान लेने के बाद उसका पुत्र क्या सोचेगा; या यह बात जान लेने के बाद समाज के लोग क्या क्या नहीं कहेंगे! कुछ देर तक तो वे मूक रह गयीं। उन्होंने
सोचा, क्या झूठ बोल कर इस लज्जा को ढँक देना ठीक होगा ? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकती। लड़के को जो सोचना हो सोचे, ऋषि जो चाहें कहें, लोग के मन में में जो आये कहें, किन्तु मैं तो सच्ची बात ही कहूँगी। हो सकता है कि इस सच्चाई को जान लेने के बाद, ऋषि उनके लड़के को आश्रम में लेना ही नहीं चाहें; तब तो लड़का पढ़-लिख कर मनुष्य भी नहीं बन पायेगा। चाहे जो होना है, हो ! मैं सबकुछ सहन कर लूँगी, किन्तु अपने मुख से एक भी झूठी बात नहीं निकलने दूंगी।
उन्होंने सत्यकाम से कहा, " बेटे, तुम्हारा गोत्र क्या है, यह मैं नहीं जानती। मैं दासी थी, अनेकों स्थानों में दासी की नौकरी मैंने की है, तुमने एक अविवाहिता माँ की कोख से जन्म लिया है। मेरा नाम जबाला है। इसलिये तुम मेरे नाम से ही अपना परिचय देते हुए कहना, तुम सत्यकाम जबाल हो !"
सत्यकाम गौतम ऋषि के आश्रम में पहुंचा। ऋषि को प्रणाम निवेदित करने के बाद, उसने बताया कि वह वहाँ विद्या का अभिलाषी होकर उपस्थित हुआ है। गौतम ऋषि ने उसका परिचय जानना चाहा, उसके गोत्र का नाम पूछा। तब उसकी माँ ने जो जो कहा था, वह पूरी बात गौतम को बताने के बाद सत्यकाम ने कहा, " गोत्र का नाम तो मैं नहीं जानता; मेरी माँ का नाम जबाला है, और मेरा नाम है- सत्यकाम ! "
उस समय आश्रम में अनेकों विद्यार्थी उपस्थित थे। सत्यकाम को निर्लज्ज के समान ऐसी बातें कहते सुने, वे सब आश्चर्यचकित हो गये। उनलोगों ने सोचा कि अब तो गुरूजी इसको निश्चय ही यहाँ से भगा देंगे, ऐसे लड़के को भला आश्रम में कौन रखेगा ? प्रदान करने वाले शिक्षकों का निर्माण 
किन्तु सत्यकाम के उत्तर को सुनने के बाद, ऋषि अपने आसन से उठकर सत्यकाम के पास आये और उसको अपने सीने से लगा लिया। बोले, " बेटे, इतनी निर्भीकता के साथ जो सच्ची बात कह सकता है, सत्य के लिये जिसमें इतना तीव्र आकर्षण हो, वह निश्चय श्रेष्ठ गोत्रीय है, वह ब्राह्मण है। मैं तुमको दीक्षा दूंगा, तुम समिधा की लकड़ी लेकर आओ। " ' जो धीर मनुष्य सत्य-पथ से कभी नहीं हटता, वही ब्रह्म-विद्या प्राप्त करने का अधिकारी होता है। '
गौतम के आश्रम में ज्ञान-प्राप्त करने के बाद सत्यकाम भी ब्रह्मज्ञ ऋषि बन गये थे।

शनिवार, 23 जून 2012

" इन्द्र और विरोचन "[21] कहानियों में वेदान्त

ब्रह्मचर्य (मन-वचन-कर्म से पवित्र रहना) आत्मविद्या की बुनियाद है !
( छान्दोग्य उपनिषद सामवेद के अंतर्गत )
प्रजापति ने एकबार कहा था, " आत्मा अजर-अमर है, भूख-प्यास से परे है। जो व्यक्ति शास्त्र और गुरु के मुख से उनके बारे में जानकर आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे समस्त लोकों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, कामनाओं की समस्त वस्तुएँ उसे प्राप्त हो जाती हैं।"
देवताओं और असुरों, दोनों ने प्रजापति के इस उपदेश को लोक परम्परा में चलने वाली कथाओं के माध्यम से सुन लिया। देव-गण स्वाभाविक रूप से बहुत सारे सद्गुणों के अधिकारी होते हैं। वे जगत कल्याण की कामना से भरे होते हैं। किन्तु वे अपने लिये भोग की वस्तुएँ भी चाहते हैं।
 उन लोगों ने जब यह सुना, कि आत्मा को जान लेने से समस्त लोकों पर विजय प्राप्त किया जा सकता है, कामनाओं की समस्त वस्तुएँ अनायास हाथो में चले आते हैं, तब तो सबकुछ प्राप्त करने का यही सबसे सरल उपाय है। यह विचार करके देवराज इन्द्र विद्यार्थी का वेश धारण कर आत्मविद्या प्राप्त करने के लिए, प्रजापति के पास पहुंचे।
उधर असुर लोगों ने जब से यह बात सुना था, उसी समय से नृत्य करने लगे थे। उनलोगों का तो जीवन ही भोग-सर्वस्व होता है, इसीलिए वे अत्यन्त भोग-लोलुप होते हैं। वे इतने भोग-पारायण होते हैं, कि भोग के सिवा उनको और कुछ सूझता ही नहीं है। असुर जाती को प्रचूर मात्र में भोग की वस्तुएँ उपलब्ध कराने के प्रयास में, वे जगत के अन्य समस्त प्राणियों को मिटा देने के लिए भी प्रस्तुत रहते हैं। असुर जाती के आलावा अन्य किसी भी जीव के कल्याण की बात उनके मन में कभी उठती ही नहीं है।
उनलोगों ने देखा, कि जब इतनी आसानी से सम्पूर्ण जगत को ही जीता जा सकता है, और भोग की समस्त वस्तुयें इच्छा मात्र से सुलभ हो जाती हैं, तो फिर उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था ! इसीलिये उनलोगों के तरफ से भी विद्यार्थी के वेश में विरोचन को प्रजापति के पास आत्मविद्या सीखने के लिये भेजा गया।
इन्द्र और विरोचन परस्पर शत्रू होने पर भी, प्रजापति के सानिध्य में रहने के प्रभाव से, दोनों आपस में मिल-जुल कर रहने लगे। दोनों विद्यार्थी थे, दोनों का उद्देश्य भी एक ही था। जीवन में ब्रह्मचर्य धारण किये बिना, (अथवा अष्टांग योग में वर्णित ' यम-नियम ' का पालन प्रति मुहूर्त किये बिना ) आत्मविद्या को धारण करने की पात्रता प्राप्त नहीं होती है। इसीलिये दोनों वहाँ ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए, रहने लगे। गुरु की सेवा में उन दोनों के दिन व्यतीत होने लगे।
बत्तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के बाद, प्रजापिता ब्रह्माजी ने पूछा, " बेटे, तुमलोग यहाँ क्यों
आये हो ? " दोनों ने उत्तर दिया, " आपने आत्मा के बारे में जो उपदेश दिया था, लोगों के मुख से उसकी महिमा को सुनकर; हमलोग आपके पास आत्म-विद्या प्राप्त करने के लिए आये हैं। "
 प्रजापिता ने कहा, " नेत्रों में जो पुरुष हैं, वे ही आत्मा हैं।  
 

वे अविनाशी हैं, उनकी मृत्यु नहीं है, भय नहीं है, वे ही ब्रह्म हैं। " दोनों ने बहुत ध्यानपूर्वक उनकी बातों को सुना। प्रजापिता पुनः बोले, " एक कठौते में जल भरकर, उसमें  अपना प्रतिबिम्ब देखो। इसपर भी यदि जो मैंने कहा था, उसको नहीं समझ सके, तो बाद में पूछ लेना। " इन्द्र और विरोचन दोनों ने वैसा ही किया। प्रजापिता ने पूछा - " क्या देख रहे हो ? "
 वे बोले, " हम अपने सम्पूर्ण शरीर का प्रतिबिम्ब ही तो  देख रहे हैं। हमलोगों के दाढ़ी-बाल इत्यादि लम्बे हो गये हैं, प्रतिबिम्ब में वह भी दिखाई दे रहा है। "
प्रजापति ने कहा, " अपने दाढ़ी-बाल इत्यादि को काट-छाट कर छोटा करो, नये अच्छे वस्त्र पहन लो, और पुनः एकबार देखो। " उन लोगों ने वैसा ही किया। और प्रतिबिम्ब देखकर बोले, " हमलोगों के ही जैसा, इसबार हमलोगों का प्रतिबिम्ब भी बड़ा भद्र और सुन्दर दिख रहा है। "
सुनकर प्रजापति ने कहा, " ये ही अभय (भरोसा, या निर्भरता) हैं, अमर आत्मा हैं। " यह विचार करके, कि हमलोगों ने सबकुछ समझ लिया है, दोनों बड़े खुश हुए और वहाँ से चल दिए। " आँख आदि इन्द्रियों के पीछे, चित्त रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित आत्मा का चैतन्य रहने के कारण ही; हमारी इन्द्रियाँ चेतन प्रतीत होती हैं। " ' नेत्रों में जो पुरुष हैं '- कहने से प्रजापिता का यही तात्पर्य था।
 किन्तु उनके उपदेश का मर्म वे पकड़ नहीं सके एवं दूसरा ही अर्थ समझकर जब इन्द्र और विरोचन जाने लगे, तो प्रजपिता को हँसी आ गयी। उन्होंने जान लिया, कि वे जो कहना चाहते थे; ये लोग समझ नहीं सके हैं। इसीलिये  उनलोगों के जाने के बाद, उनको याद करके सोचने लगे, " इन लोगों ने अभी जो समझा है, उसी को यदि आत्मज्ञान मानकर इन दोनों में से कोई यदि उसी के अनुरूप अपना जीवन गठन करे, तबतो वह भारी मुर्खता होगी। "
बत्तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य पालन करने के बाद भी, उनलोगों की धारणा-शक्ति आत्मतत्व को समझ पाने योग्य नहीं बन सकी थी। वापस लौटते समय रास्ते पर चलते-चलते विरोचन प्रजापिता के उपदेश पर मनन करते हुए यह समझे- " नेत्रों की पुतली में मनुष्य के शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ता है, जल में भी चेहरे का ही प्रतिबिम्ब दीखता है। इसीलिये यह शरीर ही आत्मा है, शरीर की सेवा करने से मनुष्य सम्पूर्ण जगत को जीत  सकता है, और सभी प्रकार के भोग की वस्तुओं को प्राप्त कर सकता है। " यही समझकर वे अपने राज्य में वापस चले गये।
विरोचन अपने राज्य में लौटकर सभी असुरों को समझाने लगे, भाईयों यह शरीर ही आत्मा है। यह सुनकर असुर जाती शरीर की सेवा में जुट गयी। उनका जीवन-दर्शन ही यह बन गया कि - " जो कुछ भी है, यह शरीर ही है ! " इसीलिये हमलोग, दान नहीं देने वाले, श्रद्धाहीन, धर्म-कर्म हीन लोगों को, आज भी ' असुर-स्वभाव ' का व्यक्ति कहते हैं। ये लोग शरीर के बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते, इसीलिये असुर- जाति आज भी मरने के बाद मृतक के शरीर को गहनों-कपड़ो आदि से सजाते हैं। वे समझते हैं- ' शायद यह शरीर ही वास्तविक मनुष्य है। '
किन्तु देवराज इन्द्र आश्वस्त नहीं थे। रास्ते से लौटते समय विचार करने लगे, " प्रजापिता ने उपदेश दिया था, कि आत्मा अमर है, तो फिर भला नश्वर शरीर को आत्मा कैसे कहा जा सकता है ? इसका अर्थ यह निकला कि प्रजापिता ने निश्चय ही शरीर को लक्ष्य करके, आत्मा नहीं कहा होगा। क्योंकि शरीर की अवस्था में परिवर्तन होने के साथ-साथ हमलोगों ने इसके प्रतिबिम्ब में भी परिवर्तन होते देखा था। यदि शरीर का कोई अंग-भंग हो जायेगा, तो प्रतिबिम्ब के साथ भी वही होगा; और शरीर के नष्ट हो जाने पर नेत्रों की पुतली पर बनने वाला मनुष्य का प्रतिबिम्ब भी नहीं रहेगा। तो फिर यह शरीर अजर,अमर अपरिवर्तनशील आत्मा कैसे हो
सकता है ? नहीं, मैं उनके उपदेश के मर्म को बिल्कुल ही नहीं समझ सका हूँ। मुझे उनके पास फिर से जाना चाहिए। "
इन्द्र को अकेले वापस लौटते देखकर प्रजापिता ने कहा, " क्यों इन्द्र, तुम तो विरोचन के साथ खुश होकर चले गये थे, फिर वापस क्यों लौट आये ? " इन्द्र बोले, " मनुष्य का प्रतिबिम्ब तो, शरीर में परिवर्तन होने के साथ-साथ परिवर्तित होता है, और विनष्ट भी हो जाता है। इसीलिये मुझे ऐसा नहीं लगता कि मुझे अजर,अमर आत्मा का ज्ञान हुआ है।"
प्रजापिता बोले, " हाँ बेटे, तू ठीक ही कह रहा है। तुमको मैं सबकुछ समझाकर बताऊंगा। किन्तु और बत्तीस वर्षों तक यदि ब्रह्मचर्य पालन नहीं किये, तो मेरी बात को ठीक ठीक पकड़ नहीं पाओगे। इसीलिये अभी फिर से विद्यार्थी के वेश में 32 वर्षों तक रहो। "
इन्द्र रहने लगे। बत्तीस वर्ष बीत जाने के बाद, प्रजापति ने उनको उपदेश दिया, " स्वप्न में जो विचरण करते हैं, वे ही अजर,अमर आत्मा हैं। "
इन्द्र  लौटते समय रस्ते में पुनः इस उपदेश के उपर मनन करने लगे, " स्वप्न देखते समय, सूक्ष्म शरीर के द्वारा हमलोग सुख-दुःख का भोग करते हैं; उस समय स्थूल शरीर का कोई भी दोष हमारे सूक्ष्म शरीर का स्पर्श नहीं कर पाता, स्थूल शरीर के अंगहीन होने से भी, स्वप्न का सूक्ष्म शरीर अंगहीन नहीं होता, स्थूल शरीर में चलने की शक्ति नहीं रहने पर भी, स्वप्न के शरीर को लेकर हमलोग कहाँ कहाँ नहीं घूम आते हैं ! फिर भी उस समय, जैसे सुख-बोध होता है, वैसे ही दुःख-बोध भी होता है; स्वप्न देखते समय हमलोग मृत्यु के डर से भी भयभीत होते हैं। फिर तो, स्वप्न देखने वाला सूक्ष्म शरीर भी मृत्युहीन भयहीन, आत्मा नहीं
 हो सकता ! "
वे फिर से प्रजापिता के पास लौट चले। प्रजापिता की आज्ञानुसार पुनः बत्तीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन किये। उसके बाद, प्रजापिता ने उपदेश दिया, " जिस समय हमलोग गहरी निद्रा में, या सुषुप्ति अवस्था में लीन हो जाते हैं, उस समय हम स्वप्न नहीं देखते। उस समय स्थूल शरीर, या स्वप्न देखने वाले सूक्ष्म शरीर का बोध भी नहीं रहता। और हमें सुषुप्ति में बहुत आनन्द प्राप्त होता है, मन-प्राण सब शीतल हो जाता है। जो स्वप्न देखने वाले सूक्ष्म-शरीर के भी परे हैं, वे ही आत्मा हैं। "
यह उपदेश सुनकर लौटते समय रास्ते में इन्द्र फिर से विचार करने लगते हैं- " नहीं, अभी भी ठीक से समझ में नहीं आया। " प्रजापिता के पास लौट गये, और बोले, " इस बार भी ठीक से नहीं समझा, यह सत्य है कि सुषुप्ति के समय स्थूल या सूक्ष्म शरीर का कोई दोष हमलोगों का स्पर्श नहीं करता, किन्तु उस समय तो अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में भी हमलोगों को कोई होश (चेतना) नहीं रहता; बाहर की अन्य किसी दूसरी वस्तु का तो बिल्कुल ही पता नहीं होता। इस समय ऐसा प्रतीत होता है, मानों हमारा ' मैं '-बोध (अहं) ही मर गया हो। फिर मर जाने की बात को चैतन्यमय अमर आत्मा सोच भी कैसे सकता है ? "

प्रजापिता बोले, " इसके भी परे जाना होगा ! " इसबार प्रजापिता ने इन्द्र को, केवल और पाँच वर्षों के लिए ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए कहा। इतने दिनों तक ब्रह्मचर्य-पालन करने के फलस्वरूप इन्द्र में पहले ही, अत्यन्त सूक्ष्म विषयों को भी अनुभव कर लेने की शक्ति आ चुकी थी। अब और केवल पाँच वर्ष तक ब्रह्मचर्य-पालन करने से ही, समस्त सूक्ष्म तत्वों को अनुभव करने की योग्यता इन्द्र को प्राप्त हो जाने वाली थी।
पाँच वर्षों के बाद प्रजापिता ने इन्द्र को ' ब्रह्म-विद्या ' का दान दिया। उन्होंने उपदेश दिया, " आत्मा - जाग्रत अवस्था में स्थूल-शरीर, स्वप्न की अवस्था में सूक्ष्म-शरीर, सुषुप्ति में कारण शरीर, इन सबसे अलग होते हैं। इन सब शरीरों के भीतर रहते हुए, इन सब शरीरों का आश्रय लेकर वे ही विषयभोग करते हैं। "
हमलोग यदि अपनी आँखों से भिन्न नहीं होते, तो " मैंने अपनी आँखों से देखा " ऐसा अनुभव भी हमलोगों को नहीं हो सकता था। यदि हमलोग मन से भी भिन्न नहीं होते, तो " मेरे मन में यह विचार उठा " ऐसा हमलोग महसूस नहीं कर सकते थे।
शास्त्र और आचार्य की सहायता से स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि आदि से निरन्तर पृथक अनुभव कर पाने में कोई व्यक्ति समर्थ हो जाय, तब कहा जा सकता है, कि उसको आत्मज्ञान हुआ है। अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान हो जाने पर स्थूल, सूक्ष्म, कारण सभी प्रकार की ' देहात्म-बुद्धि ' ही चली जाती है। उस समय हमलोग स्वयं को इनसब शरीरों से बिल्कुल स्पष्ट रूप से अलग देखते हैं।
इस प्रकार एक सौ एक (101) वर्षों तक ब्रह्मचारी रहते हुए तपस्या करने के बाद आत्मज्ञान प्राप्त करके इन्द्र देवताओं के पास लौट गये।




" व्यासदेव और गोपियाँ "/ कहानियों में वेदान्त [20]

' ब्रह्मज्ञानी स्वयं को सदैव अकर्ता और साक्षी रूप में देखते हैं '
जिनको ब्रह्मज्ञान हो गया हो, वे निरन्तर माया-मुक्त अवस्था में रहते हैं। वे स्वयं को हर समय अकर्ता, निश्चल निर्विकार शुद्ध-चैतन्य के रूप में अनुभव करते हैं। क्रिया-कर्म जो कुछ भी होता है, वह सब प्राकृतिक नियमों के द्वारा संचालित होकर शरीर मन आदि करते हैं। वे स्वयं को शरीर-मन आदि से हर समय अलग देखते हैं। यह बात गीता में विस्तार से समझाई गयी है। 
वृन्दावन में यमुना के तट पर व्यासदेव बैठे हुए थे। थोड़ी देर में वहाँ, दूध,दही, मक्खन, खीर आदि लेकर कुछ गोपियाँ आती हैं, वे उन चीजों को बेचने के लिये यमुना के उस पार जाना चाह रही थीं। किन्तु देखती हैं, कि तट पर न तो कोई नौका है न पतवार लिये कोई खेवैया है। वह नाव लेकर कहाँ चला गया है, कोई बताने वाला भी तो नहीं है। बहुत देर उसकी प्रतीक्षा में खड़े खड़े वे थकहार गयीं थीं, किन्तु उपाय क्या था ? यमुना के जल पर चलते हुए तो नदी को पार नहीं किया जा सकता था। 
तट पर बैठे व्यासदेव को देख कर उनके पास जाकर भक्ति-भाव से प्रणाम करने के बाद एक गोपी 
कहती है, " ब्राह्मण देवता, आप कोई उपाय कर दीजिये जिससे हमलोग यमुना के पार चले जाएँ !" व्यासमुनि ने कहा, " ठीक है, व्यवस्था कर दूंगा। मुझको भी तो उधर ही जाना है। किन्तु पहले मुझे कुछ खिलाओ तो सही, देखता हूँ खाने की बहुत अच्छी अच्छी चीजें ले जा रही हो ! मैंने अभी तक कुछ खाया नहीं है, बड़े जोरों की भूख लगी है।"
गोपियों ने सोचा, यह कौन सी बड़ी बात है ? उन सबों ने बड़े आनन्द से व्यासदेव को खीर, मक्खन, राबड़ी, दही-छाँछ इत्यादि खिलाने लगीं। भरपेट खा लेने के बाद व्यासदेव तृप्त हुए। और जितना खाये थे, उसका परिमाण भी कुछ कम नहीं था।
 योग मुद्रा में आसीन ऋषि वेदव्यास
गोपियों ने कहा, " महाराज, भोजन तो कर लिये अब जरा पार जाने की व्यवस्था भी कर दीजिये।" व्यासदेव बोले, "जरुर ! अभी करता हूँ।" उनहोंने ने यमुना से हाथ जोड़ कर विनती की, " माँ यमुना ! यदि मैंने कुछ भी नहीं खाया हो, तो तुम्हारा जल दो भागों में विभक्त हो जाये। हमलोग उसके बीच से चलते हुए उस पार चले जायेंगे।"
उनके ऐसा कहते ही, यमुना का जल सचमुच दो भागों में बँट गया। और उसके बीच से व्यासदेव गोपियों के साथ पार हो गये।
उस पार जाने के बाद, जब गोपियाँ व्यासदेव से थोड़ा दूर हो गयीं तो, हँसी के मारे लोट-पोट होने लगीं- " भाई अपने ये व्यासदेव भी खूब हैं ! इतना सबकुछ भरपेट खा लेने के बाद भी कहते हैं, " यदि मैंने कुछ भी नहीं खाया हो !"
व्यासदेव ब्रह्मज्ञानी थे। इसीलिये वे सदैव अपने को साक्षी,अकर्ता और निष्क्रिय के रूप में देख सकते थे, इसीलिये " मैंने खाया " यह बोध उनको कभी हुआ ही नहीं था !मन,बुद्धि आदि इन्द्रियों की सहायता से चालित होकर, शरीर ने खाया है। और वे तो निरन्तर अपने को इन सब चीजों से अलग चेतन आत्मा के रूप में देख सकते थे।

' असाधारण स्वप्न ' [19] कहानियों में वेदान्त

परीवर्तनशील जगत में, एकमात्र नित्य वस्तु आत्मा ही हैं !    
किसी गाँव में एक किसान रहता था। वह बहुत ज्ञानी था। जमीन-जायदाद की कमी नहीं थी। खेती से ही परिवार बड़े आराम से चल जाता था। विवाह हुए कई वर्ष हो गये थे, किन्तु कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ था। बहुत मन्नत और साधना के बाद, उम्र के अन्तिम पड़ाव पर एक पुत्र उत्पन्न हुआ।वह लड़का सभी की आँखों का तारा बन गया। माँ-बाप तो जान से बढ़ कर मानते ही थे, मुहल्ले के लोग भी उसको बहुत प्यार करते थे। उस लड़के का नामकरण हुआ, हाराधन। प्यार से लोग उसको हारू कह कर बुलाते थे।
 हँसते-खेलते हारू बड़ा होने लगा। अपनी दिनचर्या के अनुसार, एक दिन वह किसान सुबह में खेत पर खेती करने गया हुआ था। न जाने क्यों आज उसका मन बहुत अच्छा नहीं लग रहा था। फिर भी खेती करने लगा, उसी समय गाँव की ओर से उसका एक पड़ोसी दौड़ता हुआ, आकर समाचार दिया, " जल्दी घर चलो, तुम्हारे हारू को हैजा (Cholera) हो गया है।"
घर लौट कर किसान ने देखा कि सचमुच लड़के की हालत बहुत खराब थी। वह जल्दी से जाकर एक डाक्टर को ले आया। उसके ईलाज के लिए जो भी अच्छी से अच्छी व्यवस्था हो सकती वह सब उसने किया। पति-पत्नी दोनों मिलकर उसकी सेवा करने लगे।
किन्तु ईलाज का कोई नतीजा न निकला, लड़का बीमारी से मर गया
ऐसा सोना जैसा चाँद का टुकड़ा था, कितना सुन्दर और सूशील लड़का था ! कितनी मन्नतों और साधना से उसको पाया था, इसीलिये माँ के दुःख की तो सीमा नहीं थी, वह दहाड़ मार कर रोने लगी। पड़ोसी लोग भी अपने को रोक न सके, सबों की आँखों से अश्रु झरने लगे।
 किन्तु उस किसान के चेहरे पर इतने भारी दुःख के कोई लक्ष्ण दिखाई नहीं पड़ रहे थे। वह दूसरे लोगों को सांत्वना देने लगा, इतना रोने-पीटने से क्या होगा ? उसको बचाने के लिये हमलोग जितनी कोशिशें कर सकते थे, वह सब तो हमने किया था। उसमें कोई कमी तो हमने होने नहीं होने दी। अन्तिम संस्कार समाप्त हो जाने के बाद, अपनी स्त्री और पड़ोसिओं को समझा-बुझा कर शाम को वह फिर खेत में काम करने चला गया। जैसे सुबह में कुछ हुआ ही न हो ?
पड़ोसी लोग तो यह देखकर दंग रह गये थे। इसका इकलौता बेटा था, जो अभी अभी मर गया, और उसके पिता की आँखों में अश्रू नहीं हैं ? दुःख का कोई लक्षण ही नहीं है ! क्या इसकी छाती पत्थर से बनी हुई है ?
किसान जब संध्या में घर लौटा तो उसने देखा, कि उसकी पत्नी उस समय भी रो रही है ! उसको देख कर और जोर जोर से रोने लगी थी। किसान को देखने से उसका दुःख और अधिक बढ़ गया था।
वह रोते हुए कहने लगी, " तुम कितने निष्ठुर हो ! अपने इकलौते बेटे के मर जाने पर तुम एक बार रोये भी नहीं ? "
किसान अविचलित रहते हुए शांत भाव से बोला, " इसका कारण जानना चाहोगी, कि मैं क्यों नहीं रोया ?
 मैंने कल एक असाधारण  स्वप्न देखा था। स्वप्न में मैंने देखा, कि मैं बहुत बड़े देश का राजा बन गया हूँ, और आठ लड़कों का पिता हूँ। बड़े सुख-विलास में जीवन व्यतीत हो रहा है। उसके बाद मेरी नीन्द टूट गयी। उस स्वप्न के बाद से, मैं घोर चिन्ता में फँस गया हूँ, अपने उन आठ लड़कों के खो जाने पर शोक मनाऊँ, या एक बेटे के चले जाने का शोक मनाऊँ ? "
किसान को ज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान) हो चूका था। इसीलिये वह जानता था, कि जिस प्रकार वह स्वप्न अवस्था मिथ्या थी, उसी प्रकार यह जाग्रत अवस्था भी मिथ्या है। इस नित्य परीवर्तनशील जगत में, एकमात्र नित्य वस्तु आत्मा ही हैं !    

शुक्रवार, 22 जून 2012

हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं। [18]कहानियों में वेदान्त

" जैसा मन-वैसा जगत "
गोधुली वेला थी ; धुँधला-प्रकाश चारों ओर भरता जा रहा था। एक विस्तृत मैदान था, उसके तीन तरफ से रास्ता गुजरता था। एक तरफ आम का बागीचा था। यह बच्चों के खेलने का मैदान था। 
गर्मी के दिन चल रहे थे। संध्या के समय मैदान में घूमने के लिए बहुत से लोग आते रहते हैं। कोई अकेले आते हैं, तो कोई दोस्तों का दल बनाकर इधर-उधर फ़ैल कर बैठ जाते हैं। उस दिन भी बहुत से लोग आये थे, कुछ लोग रास्ते पर भी टहल रहे थे। 
मैदान के एक छोर पर दो लड़के खेल रहे थे, वे अपने पिता के साथ घूमने आये थे। खेलते खेलते अचानक एक लड़का ठिठक कर खड़ा हो गया; बगीचे की तरफ ऊँगली दिखाकर बोला, " वह क्या है ? " उसका साथी भी उसी ओर देखने लगा। दोनों ने पूरा ध्यान लगा कर देखा। हाँ, भूत के सिवा और क्या होगा ? आम के पेड़ के नीचे, जहाँ गहरा अंधकार था, वहीँ चुपचाप खड़े होकर दो गोल गोल आँखों को फाड़ कर उन्हीं लोगों की तरफ देख रहा था। और बीच बीच में अपने दाहीने हाथ को हिला-हिला कर बुला भी रहा था।अगर कहीं पकड़ लिया, तो कच्चे चबा जायेगा। अभी कल ही तो अपनी दादी-माँ से उन दोनों ने भूतों की कहानी सुनी थीं। 
दोनों चिल्लाकर लगे रोने, और जी-जान से दौड़कर अपने पिता के पास भाग आये। उनलोगों को भय ने कस कर जकड़ लिया था।
रास्ते से गुजरते हुए एक राही की दृष्टि भी आम के बगीचे की ओर आकृष्ट हुई। वह भी चलना भूल कर खड़ा हो गया। आम के बगीचे के भीतर वह कौन खड़ा है ? हाँ,उसी की तरफ तो एक टक से देखे जा रहा है, थोड़ा थोड़ा हाथ की लाठी भी हिलाता है ! हाँ, वह बिल्कुल सही देख रहा है। यह तो भाग्य ठीक था, कि थोड़ी दूर से ही नजर पड़ गयी; नहीं तो बस आज मामला साफ ही था। जो पुलिस वाला उसका पीछा कर रहा था, वही तो उसको पकड़ने के लिये वहाँ छुप कर खड़ा है ! यदि और थोड़ा भी आगे वह चला जाता, तो बस पकड़ा ही गया था। साथ ही साथ पीछे घूम गया, और कस कर दौड़ने लगा। वह एक चोर था !
आम के बगीचे में एक माली रहता है। जब तक पेड़ के सारे फल तोड़ नहीं लिए जाते, उतने दिनों तक वह हर समय चौकस दृष्टि रखता है। उसने देखा कि एक व्यक्ति धीरे धीरे बगीचे की तरफ चला आ रहा है। वह माली उसके पास जाकर पूछा किधर जाते हो, तो उस व्यक्ति ने एक ओर ऊँगली दिखा कर बोला, " भाई, मैं किसी व्यक्ति से बहुत प्यार करता हूँ, रस्ते से जाते समय देखा कि वह, वहाँ उस आम के पेड़ निचे खड़ा है, और हाथ के इशारे से मुझको बुला रहा है। मैं उसी से मिलने जा रहा हूँ, मैं आम चुराने नहीं आया हूँ। " उसकी बातों को सुनकर माली लौट गया, और वह व्यक्ति जिस तरफ जा रहा था, उसी ओर जाने लगा।
उधर एक पुलिस की दृष्टि भी उसी जगह आकृष्ट हो गयी। अंधकार में जंगल के भीतर इस समय और कौन छुप सकता है ? निश्चय ही वह वही चोर है, जिसको पकड़ने के लिये वह घूमता फिर रहा है। यह विचार कर पुलिस भी उसी ओर चल पड़ा।
आम के बगीचे के भीतर से जो व्यक्ति आ रहा था, वह और पुलिस लगभग एक ही साथ उस स्थान पर पहुंचे। पहुंचकर देखते हैं, कि एक सूखे हुए पेड़ का कुन्दा है, जो धुँधले प्रकाश में ठीक एक मनुष्य के जैसा प्रतीत हो रहा था। और उसके एक किनारे से एक सुखी हुई डाली लटक रही थी। हवा चलने से वही बीच बीच में झूल रही थी। जिसको दूर से देखने पर लगता था, जैसे आदमी हाथ हिला रहा है।
 
उसी कुन्दे को लड़कों ने भूत समझ लिया था, चोर ने पुलिस समझा, पुलिस ने चोर समझा, और एक अन्य व्यक्ति ने उसको ही अपने प्रेम का पात्र समझ लिया !
उसी प्रकार हमलोग भी सत्य-वस्तु को, ' सत्य-वस्तु ' (सच्चिदानन्द या शुद्ध चैतन्य) के रूप में न देख कर, भ्रम (देश-काल-निमीत्त) के कारण अन्य दृष्टि (नाम-रूप की दृष्टि) से देखते हैं। एक ही सत्य-वस्तु को हमलोगों में से अलग अलग व्यक्ति अलग अलग रूपों में देखते हैं।
 
 ( एक ही ' स्त्री ' को कोई माँ, कोई बहन, कोई भाभी, कोई दादी, कोई पत्नी कहता है ) जिसका जैसा भाव रहता है, जिसके मन की अवस्था जैसी होती है, वह जगत को उसी रूप में देखता है। लाल रंग का चश्मा लगाने से सबकुछ लाल दीखता है, हरे चश्मे से सब हरा हरा दीखता है।
किन्तु जिनका चित्त शुद्ध हो चूका होता है,फिर वे गलत देख ही नहीं पाते हैं। वे माया-मुक्त हैं ! केवल वैसे व्यक्ति ही देख पाते हैं, कि एक ही सत्य-वस्तु जगत में सभी कुछ के भीतर-बाहर ओत-प्रोत हैं; और  ' वस्तु ' का अर्थ शुद्ध शाश्वत चैतन्य के सिवा और कुछ नहीं है ।
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " एक सिंहनी जिसका प्रसव-काल निकट था, एक बार अपने शिकार खोज में बाहर निकली। उसने दूर एक भेडों के झुण्ड को चरते देख, उनपर आक्रमण करने के लिये ज्यों ही छलाँग मारी, त्यों ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये और एक मातृहीन सिंह-शावक ने जन्म लिया। भेड़ें उस सिंह-शावक की देख-भाल करने लगीं और वह भेड़ों के बच्चों के साथ साथ बड़ा होने लगा, भेड़ों की भाँति घास-पात खाकर रहने लगा और भेड़ों की ही भाँति, ' में-में ' करने लगा। और यद्दपि वह कुछ समय बाद एक शक्तिशाली, पूर्ण विकसित सिंह हो गया, फिर भी वह अपने को भेड़ ही समझता था।
इसी प्रकार दिन बीतते गये कि एक दिन एक बड़ा भारी सिंह शिकार के लिये उधर आ निकला। पर उसे यह देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि भेडों के बीच एक सिंह भी है और वह भेड़ों की ही भाँति डरकर भगा जा रहा है। तब सिंह उसकी ओर यह समझाने के लिये बढ़ा की तू सिंह है, भेड़ नहीं। और ज्यों ही वह आगे बढ़ा, त्यों ही भेड़ों का झुण्ड और भी भागा और उसके साथ वह ' भेड़-सिंह ' भी।
जो हो, उसने उस भेड़-सिंह को उसके अपने यथार्थ स्वरुप को समझा देने का संकल्प नहीं छोड़ा। वह देखने लगा कि वह भेद-सिंह कहाँ रहता है, क्या करता है। एक दिन उसने देखा कि वह एक जगह पड़ा सो रहा है। देखते ही वह छलाँग मारकर उसके पास जा पहुँचा और बोला, " अरे, तू भेड़ों के साथ रहकर अपना स्वाभाव कैसे भूल गया ? तू भेड़ नहीं है, तू तो सिंह है। "
भेड़-सिंह बोल उठा, " क्या कह रहे हो ? मैं तो भेड़ हूँ, सिंह कैसे हो सकता हूँ ? उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भाँति मिमियाने लगा। तब सिंह उसे उठाकर एक शान्त-सरोवर (चित्त-नदी) के किनारे ले गया और बोला, " यह देख, अपना प्रतिबिम्ब, और यह देख, मेरा प्रतिबिम्ब। " और तब वह उन दोनों परछाइयों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा।  तब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा माँस भी लाकर खिला दिया, घास-पात की जगह मांस के स्वाद को चखते ही उसे बोध हो गया।
तब क्षण भर में ही वह जान गया कि ' सचमुच, मैं तो सिंह ही हूँ ! ' तब वह सिंह गर्जना करने लगा और उसका भेड़ों का सा मिमियाना न जाने कहाँ चला गया ! 
इसी प्रकार तुम सब सिंह हो- तुम आत्मा हो, अनन्त और पूर्ण हो। विश्व की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है। 
 ' हे सखे, तुम क्यों रोते हो ? जन्म-मरण तुम्हारा भी नहीं है और मेरा भी नहीं। क्यों रोते हो? तुम्हें रोग-शोक कुछ भी नहीं है, तुम तो अनन्त आकाश के समान हो; उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहाँ अन्तर्हित हो जाते हैं; पर वह आकाश जैसे पहले नीला था, वैसा ही नीला रह जाता है।' इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा। 
हमलोग संसार में पाप-ताप क्यों देखते हैं ? किसी मार्ग में एक ठूँठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा कि वह कोई पहरेदार है। अपने प्रेमिका की बाट जोहने वाले प्रेमी ने समझा कि वह उसकी प्रेमिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा, तो भूत समझकर डर के मारे चिल्लाने लगा।
इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियों ने यद्दपि उसे भिन्न भिन्न  में देखा, तथापि वह एक ठूँठ के अतिरिक्त और कुछ भी न था। हम स्वयं जैसे होते हैं, जगत को भी वैसा ही देखते हैं। " (2/18-19)