स्वामी विवेकानन्द --अद्वैत वेदांत के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक।
(Swami Vivekananda--The Greatest Teacher of Advaita Vedanta.)
- वक्ता स्वामी शुद्धिदानंद
स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा 13 अप्रैल 2021 को रामकृष्ण मिशन इंस्टीट्यूट ऑफ कल्चर, गोलपार्क, कोलकाता में दिया गया भाषण।
Swami Vivekananda--The Greatest Teacher of Advaita Vedanta, by Swami Shuddhidananda .
ॐ नमः श्रीयतिराजाय विवेकानन्द सूरये ।
सच्चित्सुखस्वरूपाय स्वामिने तापहारिणे ॥
('तपस्वियों के राजा, स्वामी विवेकानन्द को नमस्कार, जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं और कष्टों का हरण करने वाले हैं'।)
परमपूज्य स्वामी सुपर्णानन्द जी महाराज जी को मेरा विनम्र प्रणाम, उपस्थित सभी प्रिय भक्तों को सप्रेम अभिवादन। आज मुझे 'स्वामी विवेकानन्द--अद्वैत वेदांत के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक।' विषय पर बोलने के लिए कहा गया है , इस विषय पर आने से पहले मैं 'अद्वैत वेदान्त क्या है ?' इसके ऊपर कुछ कहना चाहूँगा। उसके बाद आज के विषय - "वर्तमान युग के महान अद्वैताचार्य स्वामी विवेकानन्द " के विषय पर लौटूँगा।
आप सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने 1899 में अद्वैत आश्रम की शुरुआत की थी। उस अवसर पर उन्होंने अद्वैत आश्रम का prospectus लिखा था। उस prospectus (परिचय पत्रिका) में उन्होंने बड़े सुन्दर शब्दों में अद्वैत दर्शन से हमारा परिचय कराते हुए लिखा था -"Dependence is misery and Independence is happiness. And the Advaita is the only system which gives unto every man complete possession of himself or herself, and takes off all dependence and makes him brave to suffer, brave to act, and in the long run to attain Absolute Freedom."
-अर्थात परवशता (Apparent I, नाम-रूप, मिथ्या अहं पर निर्भरता) ही समस्त दुःखों का कारण है, तथा आत्मनिर्भरता (आत्मवशता) ही समस्त सुखों का मूल है। और अद्वैत ही एकमात्र उपाय (system) है जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक व्यक्ति को उसके सत्य-स्वरूप (Real I) का बोध प्रदान कर उसकी परवशता को दूर हटा देता है; तथा उसे कष्ट सहने और कर्म करने के लिए साहसी बना देता है। और अन्ततोगत्वा वह व्यक्ति सभी प्रकार के मिथ्या समबन्धों (तादात्म्य) से मुक्त हो कर मोक्ष (ईश्वर-समबन्ध,परम मुक्ति लाभ) में प्रतिष्ठित हो जाता है। " (वी०सा०/खंड- ९/पृष्ठ- ३१८)
और इस प्रकार सभी प्रकार के बन्धनों (नाम-रूप से मिथ्या तादात्म्य या अपना-पराया सम्बन्ध) से मुक्त हो जाना- 'मुक्ति', 'मुक्ति', 'मुक्ति'-'मोक्ष' ही आत्मा का गीत है, वेदान्त का गीत है और यही वैदिक सनातन धर्म का एकमात्र विषय है! (4:04) (This attainment of absolute freedom, is the very song of (Vedanta)- Atman -Mukti, Mukti, Mukti, Moksha - This is the only one theme of the Vedic Sanatan Dharma !)
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि अद्वैत आश्रम, मायावती के prospectus में स्वामी विवेकानन्द 'अद्वैत वेदान्त या हिन्दू वैदिक सनातन धर्म' (तथाकथित आरण्यक) के एक ग्रन्थ मनु-स्मृति में संस्कृत में लिखित सार्वभौमिक उपदेशों में से एक उपदेश-
सर्वम् परवशं दुःखं सर्वम् आत्मवशम् सुखम्।
-अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना ही समस्त दुःखों का कारण है तथा आत्मा के वश में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का रहस्य है' - का अनुवाद अंग्रेजी में करते हुए कह रहे हैं -
"Dependence is misery and Independence is happiness."
और इस प्रकार 'अद्वैत वेदान्त की सार्वभौमिक उपयोगिता ' को सम्पूर्ण मानवजाति के समक्ष रख रहे हैं। और कह रहे हैं कि अद्वैत ही एकमात्र उपाय (system) है जो हमलोग को हर प्रकार के मिथ्या बन्धनों से (स्वकल्पित तादात्म्य से) पूर्णतया मुक्त कर देता है।
तो यह अद्वैत वेदान्त क्या है ? यदि हमलोग वैदिक सनातन धर्म के शास्त्रों , उपनिषदों आदि को देखें और उनकी शिक्षाओं का सार निकालें , इसमें सभी तरह की शिक्षा है, आपको स्थूल-मूर्त विषयों से लेकर आध्यात्मिक अमूर्तता ( spiritual abstraction) की सर्वोच्च उड़ान, विभिन्न प्रकार की अनुभूतियों में आधारित ऐसे महावाक्य आपको मिल जायेंगे , जिनमें सम्पूर्ण वैदिक सनातन धर्म की शिक्षाओं को शिक्षाओं को आप देख सकते हैं।
समस्त वैदिक वांग्मय की अखण्ड ज्ञान राशि को मात्र आधे श्लोक में उदघोषित करने वाले, तत्त्ववेता, अद्वेत सूत्र के प्रणयता आदि गुरु शंकराचार्य जी वैदिक सनातन धर्म के समस्त शास्त्रों का निचोड़ देते हुए कहते हैं -
श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः ।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ॥
अर्थात् जो अनेक ग्रंथों में लिखा है, उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं।
ब्रह्म सत्यं: यह बताता है कि केवल ब्रह्म ही परम और अपरिवर्तनशील सत्य है। जगन्मिथ्या-कहने का मतलब है कि यह पूरा जगत-ब्रह्माण्ड जिसको हम अपनी इंद्रियों से अनुभव करते हैं और इसे आपने आप में जैसा समझते हैं वह सब मिथ्या है। अर्थात वह सब निरंतर परिवर्तनशील होने के कारण एक भ्रम है या माया है। यह रस्सी को सांप समझने जैसी भ्रांति के समान है, मृगमरीचिका के समान है, जहाँ सत्य से परे कुछ और दिखाई देता है। और सच्चाई क्या है ? हमारी वास्तविक पहचान क्या है ? यह दर्शाता है कि जीव यानि आप और मैं हम सभी लोग जीवो ब्रह्मैव नापरः- -जीव और यह 'जगत भी ईश्वर, आत्मा या ब्रह्म से अलग नहीं है, बल्कि ब्रह्म का ही स्वरूप है। जीव और ब्रह्म के बीच कोई भिन्नता नहीं है। अज्ञान की अवस्था में हम कहते हैं कि यह जगत है किन्तु जब आत्मज्ञान या आत्मानुभूति होती है -When the knowledge dawns ' तब यह दिखाई पड़ता है कि जो कुछ दिख रहा है - सब ब्रह्म ही है ! जब किसी व्यक्ति को ऐसा आत्म-साक्षात्कार होता है, तब उसे यह ईश्वर-आत्मा -ब्रह्म भगवान में एकत्वबोध की अनुभूति होती है।(7:14 मिनट ) अतएव महान कथन से हमें दो बातें समझनी हैं , इस दृश्यमान जगत में सत्यम क्या है, और मिथ्या क्या है ? सत्यम की परिभाषा क्या है ? हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि 'सत्य' वह है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। सत्य वस्तु वह है जिसे तीनों काल में -भूत , वर्तमान या भविष्य में किसी को 'sublet' या उधार नहीं दिया जा सकता, या जिसे कोई अस्वीकार भी (deny) नहीं कर सकता। त्रिकालाबाधित सत्य (Trikalabadhit) का अर्थ है वह वस्तु जो भूतकाल (past), वर्तमान (present) और भविष्य (future), तीनों कालों में अपरिवर्तनीय, शाश्वत और अविचल रहती है। [यह परब्रह्म (आत्मा , ईश्वर, भगवान), सत्य का सार, और गणितीय-भौतिक नियम (जैसे गुरुत्वाकर्षण) जैसी चीजों के लिए प्रयोग होता है जो समय के साथ कभी नहीं बदलते।
अब यदि आप केवल यह प्रश्न करें कि अपने दैनंदिन जीवन में क्या हमने कभी ऐसी वस्तु को देखा है , जो इस अपरिवर्तनीय , शाश्वत या अविचल श्रेणी (category) में रखी जा सकती हो ? हम में से क्या किसी ने भी कभी ऐसी वस्तु की अनुभूति की है , जो कभी परिवर्तित नहीं होती हो ? जिसे नकारा नहीं जा सकता हो ? which does not get denied , cancelled ? अभीतक हमने कभी ऐसी वस्तु की अनुभूति नहीं की है। हम लोगों को जिस दृश्यमान जगत की अनुभूति हो रही है , वह -'प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव' है। यहाँ हम जिस किसी वस्तु या व्यक्ति को देख रहे हैं - वह हर क्षण परिवर्तनशील और नश्वर है। हमें यहाँ किसी भी अपरिवर्तनीय वस्तु का अनुभव नहीं हो रहा है। हमारे अनुभव में तो यही आ रहा है कि , हर चीज समय के प्रवाह में बहती हुई नदी जैसी बहती चली जा रही है, stream of flux कहा जाता है -'किसी एक ही नदी में आप दुबारा डुबकी नहीं लगा सकते। अस्तित्व के अपरिवर्तनीय पहलू को सत्य कहते हैं , जिसे किसी भी काल में नकारा नहीं जा सकता , जिसे किसी को उधार नहीं दिया जा सकता। ऐसी अवस्था में हमें जिस जगत की प्रतीति हो रही है , उसे मिथ्या कहा जाता है। मिथ्या शब्द से हम क्या समझते हैं ? क्या इसका अर्थ असत्य (Unreal) होता है ? नहीं मिथ्या का तात्पर्य " असत " नहीं है। हम इस जगत को असत्य नहीं कह सकते - क्योंकि हमें इसका अनुभव हो रहा है। लेकिन यदि यह जगत असत्य नहीं है , कहने से यह सत्य हो जाता है ? यह सत्य भी नहीं है। लेकिन यह असत्य भी नहीं है। यह जगत सत्य और असत्य का मिश्रण है - this world is Mixture of truth and false- (सत्यानृतं) है। (10:32 मिनट) यह ऐसे चीज का अनुभव है -जो वस्तुतः नहीं है किन्तु इसका सापेक्षिक अस्तित्व है (Relative existence) ! यद्यपि जगत को हम अस्वीकार भी नहीं कर सकते , तथापि यह सत्य भी नहीं है। यह सत्य असत्य के बीच की प्रतीति है। प्रकाश और अंधकार का खेल है। यह है भी और नहीं भी है। जगत की वस्तुस्थिति यही है। जितने भी अनुभव हमें हो रहे हैं -'जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति ' इसको हमलोग मिथ्या कहते हैं। [यह ऐसे ही है । जैसे जागने पर " स्वप्नकाल के द्रष्टा " और " दृश्य " का को लोप हो जाता है । इसीलिए इसको मिथ्या कहा जाता है। ] आपको पुनः याद दिला दूँ -स्वामीजी कहते हैं - The Advaita is the only system which gives complete possession of ones own Self. अद्वैत ही एकमात्र प्रणाली (system) है जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक मनुष्य को उसके आत्मस्वरूप (Real I) बोध प्रदान कर उसकी परवशता को दूर हटा देता है; और उसे जीवन की अनुकूलता -प्रतिकूलता में सम रहने का साहस भर देता है। हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि हम यहाँ मानव व्यक्तित्व के अपरिवर्तनीय पहलू (Unchanging dimensions of Human personality) को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। हमें ब्रह्म और जगत के बीच के इस समीकरण (equation) को समझने की चेष्टा करनी चाहिए। सत्य और मिथ्या के बीच परस्पर सम्बन्ध (तादात्म्य) को समझने की चेष्टा करनी चाहिए। इसको समझाने के लिए स्वामी विवेकानन्द एक बहुत सुंदर उदाहरण देते हैं। वे एक बार राजपूताना के रेगिस्तानों में पैदल भ्रमण कर रहे थे। हमलोग जानते हैं कि 1886 में श्रीरामकृष्ण का शरीर त्याग हो जाने के बाद स्वामीजी ने काश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत की यात्रा की थी। भारत-भ्रमण करते हुए वे राजपूताना पहुँच गए जिसे अभी राजस्थान कहा जाता है। राजपूताना के रेगिस्तानों में तेज धूप में भी वे भ्रमण कर रहे थे , कहीं पीने को पानी नहीं था। और उन्हें जोरों की प्यास लगी हुई थी। इस घटना का उल्लेख उन्होंने अमेरिका में ज्ञानयोग पर दिए अपने एक भाषण में किया था। जब वे रेगिस्तान में पैदल भ्रमण कर रहे थे , और बहुत तीव्र प्यास लगी हुई थी। अचानक उनको थोड़ी दूरी पर एक झील दिखाई दी। झील को देखकर उनकी प्रतिक्रिया हुई कि वहाँ चल कर प्यास बुझा ली जाये। जिस झील को स्वामी जी देख रहे थे , सच अनुभव कर रहे थे -वह नहीं होगा ऐसा बिन्दु भर संदेह उन्हें नहीं हो रहा था। जैसे ही उन्होंने उस झील की तरफ बढ़ना शुरू किया - उन्हें लगा कि जितना ही वे झील की ओर आगे बढ़ते जाते थे , झील उतना ही दूर होता जा रहा है। अचानक उनके मन ये विचार कौंधा - स्वामी विवेकानन्द के मन में यह ज्ञान जगा कि यह झील नहीं है , यह तो मृगमरीचिका है। जैसे ही उनको ज्ञान हुआ स्वामी ने उस और चलना बंद कर दिया। वे समझ गए कि वहाँ कोई झील नहीं है। लेकिन जब उनको झील उनको सचमुच दिख रहा था - क्या उस समय वहाँ जल का एक बून्द भी था ? वहाँ रेगिस्तान के बालू के सिवा और कुछ नहीं था। मिथ्या शब्द से यहां प्रतीति होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है । जबकि वह प्रतीति सत्य नहीं है-पर फिरभी दिखाई देती है। यही मिथ्यात्व है । पुनः कहता हूँ मिथ्या शब्द से यहां प्रतीति में होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है, किन्तु वह वास्तव में वहाँ नहीं होती। इसी को अस्तित्व का मिथ्या पहलू कहते हैं। उस भाषण में स्वामीजी हमलोगों के अनुभव के बारे में कहते हैं - जो वस्तु हमे जीव और जगत -ब्रह्माण्ड की घटनायें सत्य जैसी प्रतीत हो रही है , उस समय भी जब उसे अपनी आँखों के सामने घटित होते देख रहे होते हैं , उस समय भी स्वामीजी कहते हैं - वह जीव और जगत कुछ नहीं ब्रह्म ही हैं ! किन्तु हम अभी उसे समझ नहीं पा रहे हैं। जीवो ब्रह्मैव नापरः ' जगत और जीव ब्रह्म से अलग नहीं है। वहाँ केवल एकमेवाद्वितीय सत्ता है - दो नहीं हैं। वैदिक सनातन धर्म का मूल सिद्धांत (Crux) यही है। एक ही अनेक के रूप में भास रहा है। विविधता के भीतर एकत्व है। लेकिन हमें विविधता नजर आ रही है। यही निष्कर्ष है जिसे समझाने के शंकराचार्य जी रज्जु-सर्प का उदाहरण देते हैं। बहुत से लोग इस रज्जु-सर्प उदाहरण का मजाक उड़ाते हैं। किन्तु सच्चाई यही है -जिसका अनुभव हमलोग अभी प्रति दिन कर रहे हैं। अँधेरे में रस्सी साँप जैसा प्रतीत होता है। हम उसको सच्चा साँप ही समझ रहे होते हैं, तब हम भय से ग्रस्त हो जाते हैं। और प्रकार नकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं। किन्तु जैसे ही उस पर टॉर्च का प्रकाश पड़ता है , आप देखते हैं कि यह साँप नहीं रस्सी है। इसलिए जिस समय हम सचमुच में साँप का अनुभव कर रहे थे , उस समय भी वास्तव में वह रस्सी ही था। एक समय में हम केवल एक रस्सी का ही अनुभव कर रहे होते हैं। लेकिन अपनी नासमझी में हम उसे साँप समझ लेते हैं।
उसी प्रकार हमारे अपने जीवन में ये तीन अवस्थाएं -जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्था में प्रत्येक मनुष्य जो कुछ भी अनुभव कर रहा है , वह जीव-जगत का मिथ्या पहलू है , किन्तु सत्य क्या है ? सत्य यही है कि ब्रह्म और केवल ब्रह्म ही है। ब्रह्म के सिवा अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। श्री शंकराचार्य जी गीता 4/24 के भाष्य में कहते हैं -(तस्मात् ब्रह्मैव इदं सर्वम इति अभिजानतः विदुषः कर्माभावः।) ब्रह्मैव इदं सर्वं - सब कुछ पूर्ण है ब्रह्म है। वेदांत हमें वहाँ ले जाता है , जहाँ प्रत्येक आत्मा पूर्ण (ब्रह्म) है। जब यह अद्वैतिक दृष्टि हमारे अंदर जाग्रत हो जाती है , तो हमारे ऊपर ईश्वर का पहला अनुग्रह यह होता है कि अन्ततोगत्वा हमारे भीतर पूर्णत्व का भाव जाग्रत हो जाता है , और ह्रदय आनन्द से भर जाता है , सारी अशांति दूर हो जाती है। परिणाम यह होता है कि हमारे हर प्रकार के भय का नाश हो जाता है। स्वामी जी कहते हैं अद्वैतिक दृष्टि प्राप्त होने का पहला परिणाम यह होता है कि यह हमें सभी प्रकार के भय से मुक्त कर देती है, असुरक्षा की भावना समाप्त हो जाती है। इसलिए स्वामीजी कहते हैं - The Advaita ('Kali' is the truth - the 'world' is an illusion) is the only system which gives unto man complete possession of himself or herself, and takes him or her towards attainment of Absolute Freedom. Freedom from fear, freedom from bondage, freedom from slavery. Now and here , not in some future point of time. This is the greatest achievement , that only human beings can have ! It is the main purpose of Human Life ! [" अद्वैत (अर्थात काली सत्यम -जगत मिथ्या) ही एकमात्र प्रणाली (system दर्शन) है जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक मनुष्य को उसके सत्य-स्वरूप (Real I) का बोध प्रदान कर उसकी परवशता को दूर हटा देता है; तथा उसे कष्ट सहने और कार्य करने के लिए साहसी बना देता है। और अन्ततोगत्वा वह व्यक्ति सभी प्रकार के मिथ्या बन्धनों (M/F तादात्म्य) से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। और यही मनुष्य जीवन परम पुरुषार्थ है !
श्री रामकृष्ण ने भी बहुत सुंदर ढंग से इसी बात-'ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या' को कहा है। श्रीरामकृष्ण वचनामृत के प्रत्येक तीसरे पृष्ठ पर आप पायेंगे -'भगवान ही एक मात्र वस्तु,और सब अवस्तु। 'ब्रह्म ही वस्तु है , और सब अवस्तु है।' जिस समय हमलोग किसी 'अवस्तु' की अनुभूति कर रहे हैं, उस समय भी वे 'भगवान' ही हैं, हम उन्हें गलत समझ रहे हैं। (क्योंकि कर्म करने में ही हमारा अधिकार है -फल प्राप्ति में नहीं।) इसलिए जो कुछ अस्तित्व में है , वह एकमेवाद्वितीय परम् सत्य ही है , उन्हें हम ब्रह्म कहें (माँ कहें ?) या अन्य किसी भी नाम से पुकारें उससे फर्क नहीं पड़ेगा। (20:56)
अब आज के विषय 'स्वामी विवेकानन्द' पर लौटते हैं, जो हमारे समय के , आधुनिक युग के श्रेष्ठतम अद्वैताचार्य हैं। बहुत आनंदायक बात है कि एक समय में स्वमी विवेकानन्द स्वयं अद्वैत विचारधारा के घोर विरोधी थे। स्वामी विवेकानन्द बनने से पहले - नरेन्द्रनाथ के जीवन में द्वैत -विशिष्टाद्वैत से होकर अद्वैत में पहुँचने का बहुत आकर्षक उदाहरण है। आज जिनको हम महानतम अद्वैताचार्य के रूप में जानते हैं , उसके पहले उन्हें अपने महान अद्वैती परमहंस गुरु श्रीरामकृष्ण के निर्देशन/मार्गदर्शन में बहुत कठोर प्रशिक्षण (intense training) से होकर गुजरना पड़ा था।
एक घटना देखिये -जब कभी भी नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास आते थे , श्री रामकृष्ण नरेन्द्र को अद्वैत सिद्धान्तों का उपदेश देते थे। लेकिन नरेन्द्र उन बातों को सुनना भी नहीं चाहते थे। वे इस सिद्धान्त के ही बिल्कुल विरोधी थे कि - हर वस्तु ब्रह्म (भगवान, आत्मा ईश्वर) ही है। वे इसे मानने को ही तैयार नहीं थे। फिरभी श्री रामकृष्ण इस विचारधारा को नरेंद्र के कानों तक पहुंचाते रहते थे। श्री रामकृष्ण ने उनको अद्वैत विचारधारा के ग्रंथों को तथा अष्टावक्र गीता पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उस ग्रंथ में परम 'सत्य' का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है, जो शुद्ध अद्वैतवादी दर्शन है । जब उन्होंने नरेंद्र को अष्टावक्र गीता पढ़ने के लिए दिया , तो वे उसको पढ़ने से ही इंकार कर दिए। उन्होंने कहा मैं इन बातों में विश्वास नहीं करता। श्रीरामकृष्ण ने कहा ठीक है तुम उस पर विश्वास मत करना , इसको मेरे लिए पहले पढ़कर तो देखो। नरेंद्र जितना भी इंकार करते थे , श्रीरामकृष्ण उनको पढ़ने के लिए अनुप्रेरित करते रहते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्री रामकृष्ण नरेंद्र को अष्टावक्र गीता पढ़ने की प्रेरणा देते थे , लेकिन नरेंद्र उस अद्वैत उपदेशों को पढ़ना ही नहीं चाहते थे। इसके बाद एक घटना होती है -जिसमें नरेंद्र और हाजरा महाशय , जो नरेन्द्र के मित्र थे, वे लोग दक्षिणेश्वर में एक साथ खड़े होकर पस्पर बातचीत कर रहे थे -और श्रीरामकृष्ण पीछे से सब सुन रहे थे। उस समय नरेंद्र अद्वैत के इस सिद्धांत को कि - प्रत्येक वस्तु ब्रह्म (भगवान) ही है, का मजाक उड़ाते हुए हाजरा से बोले, देखते हो , इस सिद्धान्त को मान लिया जाय तब तो - लोटा भी ब्रह्म और थाली भी ब्रह्म है ! इस तरह की पुस्तकें लिखने वाले व्यक्ति अवश्य अध-कपारी (lunatics) होते होंगे। अद्वैत जो कहता है , क्या ऐसा होना कभी संभव है? वे दोनों इसका मजाक उड़ा रहे थे- किसी बात पर जोर से हँसने लगे, और श्रीरामकृष्ण सुन रहे थे। और समाधिमग्न अवस्था (ecstatic state-हर्षोन्मत्त अवस्था) में श्रीरामकृष्ण नरेंद्र के पास धीरे से पहुँचे और उसको छू दिए। श्रीरामकृष्ण के छूते ही -बाह्यजगत (नाम-रूप ) के प्रति नरेन्द्र की जागरूकता (awareness) या चेतना लुप्त हो गयी और उनका मन अद्वैत के राज्य में पहुँच कर उसका अनुभव करने लगी। श्रीरामकृष्ण के छूते ही हर चीज बदल गयी। नरेंद्र ने बाद में बताया कि वह अनुभूति कई दिनों तक बनी रही। और तब उनको क्या अनुभव हुआ ? उपनिषदों में जो कुछ भी लिखा है , अद्वैत वेदांत के महान आचार्यों ने जो कुछ भी कहा है ,नरेन्द्रनाथ उसका साक्षात् अनुभव कर रहे थे-हर जगह उनको मात्र चैतन्य का ही अनुभव हो रहा था। (25:41) उन्होंने उस समय के अनुभव के विषय में लिखा है कि सड़क पर सामने से गाड़ी को आते हुए देखकर भी मैं किनारे नहीं हटता था। क्योंकि उस समय मुझे अपने में और उस गाड़ी में कोई कोई भेद का अनुभव ही नहीं होरहा था। हेदुआ तालाब के किनारे लगे रेलिंग से अपना सिर टकरा कर देखते थे कि यह सचमुच सत्य (वास्तविक) है ? काल्पनिक या मिथ्या तो नहीं है ? मिथ्या की परिभाषा क्या है ? जो वस्तु वहाँ नहीं है - लेकिन वास्तविक जैसी लग रही है, जैसे रज्जु-सर्प या मृगमरीचिका का पानी। नरेंद्र रेलिंग से सिर टकरा कर देखते हैं -कि यह सत्य है मिथ्या ? उनकी माताजी ने टेबल पर भोजन दिया तो , वे उसे खाने में सक्षम नहीं हो सके,क्यों कि भोजन खाने वाला , भोजन और भोजन देने वाला , में उनकी भेदबुद्धि ही चली गयी थी। अद्वैत वेदान्त को समझने में सबसे बड़ी पहचान यही है कि भेद-बुद्धि चली जाती है, और अभेद दृष्टि चली आती है। अभेद-तत्व (सच्चिदानन्द ब्रह्म) है कोई भेद नहीं है। इसी अवस्था का अनुभव नरेंद्र को कई दिनों तक होता रहा। यह पहला अवसर था जब नरेन्द्रनाथ को अपने महान अद्वैतिक गुरु श्रीरामकृष्ण देव के अनुग्रह से उस परम् सत्य की अनुभूति हुई। 1885 के मध्य भाग में काशीपुर में घटित प्रसिद्द घटना के गले में दर्द के रोग की पहचान कैंसर के रूप में हुई। उन्हें पहले श्यामपुकुर ले जाया गया, फिर वहाँ से काशीपुर लाया गया। काशीपुर में नरेन्द्रनाथ निर्विकल्प समाधि के अनुभव करवाने के लिए तंग (pester) कर रहे थे। बार बार उनको निर्विकल्पसमाधि का अनुभव करवा देने के लिए परेशान कर रहे थे। श्री रामकृष्ण उनको धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने का उपदेश दे रहे थी उचित समय पर होगा , थोड़ा धैर्य रखो। एक दिन ऐसा हुआ कि जब नरेन्द्र ध्यान कर रहे थे अचानक उनका मन नाम और रूप की दुनिया से परे की दुनिया में उड़ान भरने लगा -His mind soar into the realm beyond the realm of names and form! और अंततोगत्वा निर्विकल्प अवस्था में प्रतिष्ठित हो गया। और उनको उस ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति हुई , जिसके विषय में हमलोग अभी बातचीत कर रहे हैं। और नरेन्द्र की वह अवस्था काफी देर तक बनी रही।
उस अवस्था में आमतौर से मनुष्य का शरीर बिल्कुल मृत शरीर के जैसा निस्पन्द हो जाता है। उनके अन्य सभी शिष्य और निकटस्थ मित्र नरेंद्र के उस अवस्था में पाकर बहुत चिंतित हो गए। उनके शरीर में जीवन का कोई चिन्ह भी नहीं था। -Absolutely no sign of life !वे सभी दौड़कर श्रीरामकृष्ण को नरेन्द्र की अवस्था को सूचना देने गए। देखिये ठाकुर नरेन्द्र को कुछ हो गया है। श्री रामकृष्ण समझ गए कि क्या हुआ होगा ? उन्होंने कहा नरेंद्र को थोड़ी देर उसी अवस्था में रहने दो। वह मुझे निर्विकल्प समाधि की अनुभूति करवा देने के लिए बहुत दिनों से परेशान कर रहा था। अब उस प्राप्त हुआ है , तो उसे कुछ समय उस अवस्था में रहने दो। जब नरेंद्र उस अवस्था से वापस शरीर -बोध में जब वापस लौटे , तब नरेंद्र ने जिस चीज के लिए ठाकुर से अनुरोध किया, उसे जानना बड़ा दिलचस्प है, और उससे बहुत सुंदर शिक्षा भी ग्रहण की जा सकती है। (30:01) नरेंद्र समाधि की अवस्था से वापस लौटने पर श्रीरामकृष्ण नरेंद्र से पूछते हैं , नरेन अब तू क्या चाहता है ?
नरेंद्र उत्तर देते हैं - ठाकुर मैं सदैव उसी निर्विकल्प समाधि की अवस्था में ही रहना चाहता हूँ , जहाँ एकमेवाद्वितीय वस्तु के सिवा इस भेदभाव या नाम-रूपात्मक (differentiation-पृथकता) का कोई अनुभव नहीं होता है। (where this differentiation is not at all experienced !) और उस अवस्था से नीचे उतरना मैं तभी चाहुँगा जब मुझे भूख या प्यास लगेगी तो थोड़ा कुछ खा-पीकर मैं फिर उसी निर्विकल्प समाधि की अवस्था में लौट जाऊँगा । श्रीरामकृष्ण देव की जगह कोई भी दूसरा गुरु होते तो , वे अपने शिष्य की इस अनुभूति से बहुत खुश हो गए होते। किन्तु यहाँ श्रीरामकृष्ण के भीतर एक ऐसे अद्वितीय शिक्षक (unique teacher-अनुपम शिक्षक) थे जिन्होंने नरेंद्र को धिक्कारते (reprimand) हुए कहा - " छी , छी नरेन् , तू यह क्या कह रहा है ? मैंने तो सोंचा था कि तूँ एक विशाल बरगद के वृक्ष की तरह बनेगा , जिसकी छाया के नीचे लाखो लोग (millions of people) आकर विश्राम लेंगे और मन की शान्ति प्राप्त करेंगे। लेकिन, तूँ भी स्वार्थी मनुष्यों जैसा केवल इस छोटी चीज के लिए , केवल अपने को ही आनन्द में रखने के लिए, ऑंखें मूँदकर स्वयं को सदैव निर्विकल्प समाधि में लीन रखना चाहते हो? तो वह क्या है , जिसे तुम इस समय खुली आँखों से अनुभव कर रहे हो? क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि खुली आँखों से जो कुछ (जीव और जगत) तुम देख रहे हो, वह आत्मा (ईश्वर , भगवान या ब्रह्म) से कोई भिन्न वस्तु है ? तुम अपनी आँखों को मूँदकर जिस ब्रह्म (आत्मा , ईश्वर या भगवान) का अनुभव करते हो, आँखों को खोलकर अपने सामने जो कुछ (जीव और जगत) देख रहे हो, वह भी ब्रह्म (आत्मा, ईश्वर या भगवान) के अलावा और कुछ नहीं है! क्या जीव-जगत और ईश्वर (आत्मा, भगवान या ब्रह्म) में कोई अन्तर है ? इसी अनुभूति को अद्वैत कहते हैं, जहाँ 'जीव,जगत और ईश्वर' (आत्मा , भगवान या ब्रह्म) ' में कोई पृथकता नहीं रह जाती है। नरेन्द्रनाथ को उनके गुरु द्वारा सिखाई गयी बहुत बड़ी शिक्षा थी , जो भविष्य में इस अभेद-दृष्टि या अद्वैत दर्शन के महानतम आचार्यों में से एक बनने वाले थे ! जहां भेद-दृष्टि पूरी तरह खत्म हो जाती है, चाहे आंखें बंद हों या खुली हों, जो कुछ भी दिख रहा हो -वह सब बस एक ही ब्रह्म (आत्मा ,ईश्वर या भगवान) है! इस प्रकार हम यह देख सकते हैं , कि एक एक बहुत बड़ी सीख थी जो श्री रामकृष्ण ने उस दिन नरेंद्र को दी थी। तथा उस शिक्षा का प्रचार-प्रसार नरेन्दनाथ को आने वाले वर्षों में पूरी दुनिया में करना होगा (ताकि वैश्विक शांति स्थापित हो सके?) ।
[you are asking for this petty thing to remain immersed in Nirvikalpa Samadhi with the closed eyes ? Then What is that which you are experiencing with your open eyes ? Do you think that this jiva and Jagat is anything different ? Do you think that what you see with your open eyes (the living beings and the world) is something different from the soul (God, the Supreme Being, or Brahman)? you close your eyes it is Brahman , you open your eyes it is nothing but Brahman ! Is there any differentiation ! This is the Advaita , where Advaita means non differentiation ! This was a great lesson taught to Narendranath who in the future was to become one of the great spokesperson of this philosophy of this Abheda Drishti ! Where the Bheda-drishti completely vanishes, weather it is with eyes closed , or with the eyes opened it is all just One Brahman ! So that was a great lesson which SriRamakrishna taught to Naren on that day. And which Swami Vivekananda would preach all over the world in the years to come.] (32:02)
श्रीरामकृष्ण के जीवन की एक दूसरी प्रसिद्द घटना भी उल्लेखनीय है। एक दिन श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में कुछ भक्तों के साथ बातचीत कर रहे थे। और ईश्वर तथा अपने अन्य आध्यात्मिक अनुभूतियों की चर्चा कर रहे थे , और वे जब अपनी सरल बंगाली भाषा में 'The basic tenets of Vaishnavism ' वैष्णव धर्म के तीन मूल सिद्धान्त - ' नामे रूचि, जीवे दया और वैष्णव सेवा' पर बोलते -बोलते अपनी उस समाधि शक्ति में लीन हो गये थे। पहले सिद्धान्त नामे रूचि - सरल अर्थ होता है - भगवान (आत्मा, ईश्वर या अवतार-वरिष्ठ) का नाम जपने के प्रति वह रूचि, वह अतिशय प्रेम, वह अतिशय आनन्द जिसका अनुभव वह ईश्वर का नाम जपते समय करता है। वैष्णव मत का दूसरा सिद्धान्त है - जीवे दया। अर्थात प्रत्येक जीव (मनुष्य) के प्रति दया दिखाने का भाव ! और तीसरा सिद्धान्त है - वैष्णव सेवा। अर्थात सभी भक्तों की सेवा। तो जब इन शब्दों को श्रीरामकृष्ण उच्चारित कर रहे थे , उसी समय बोलते -बोलते अपनी उस समाधि शक्ति में लीन हो गये थे। जब उनकी चेतना लौटी तब उन्होंने कहा - जीवे दया ? जीवे दया ? To show compassion , To show compassion ? दूसरों पर दया दिखाने का साहस करने वाले - भला हम क्षुद्र जीव कौन होते हैं ? जो खुद कीड़े-मकोड़े जैसे हैं ? हम भला दूसरों पर दया दिखाने की बात सोंच भी कैसे सकते हैं ? नहीं , नहीं। यह 'जीवे दया' नहीं-नहीं ; 'शिव ज्ञाने जीव सेवा' कहना चाहिए। क्यों ? हर जगह शिव ही हैं ! जब हर जगह ब्रह्म ही हैं; तो हम भला दूसरों पर दया दिखाने वाले कौन हैं ? इस तरह की को बात को मुख से निकालना भी मिथ्या अहंकार का द्योतक है। हमें शिव ज्ञान से जीवों की सेवा करनी चाहिए।(It is Shiva everywhere , It is brahman everywhere ; and we are to show compassion to others ?How arrogant to speak like this ? ) हम केवल इतना कर सकते हैं कि - इतने नाम-रूपों में दृष्टिगोचर ब्रह्म की शिव ज्ञान से सेवा करनी चाहिए। श्रीरामकृष्ण के मुख से निकली यह बहुत बड़ी शिक्षा थी। (34:50) और नरेन्द्र भी वहाँ उपस्थित थे और इस उपदेश को सुन रहे थे। बाद में उन्होंने अपने साथियों से कहा था - आज मैंने सर्वश्रेष्ठ उपदेश greatest Teaching को ग्रहण किया है ! और जब उचित समय आयेगा, जब समय इसके अनुकूल होगा मैं सम्पूर्ण विश्व के समक्ष इस महान उपदेश का उद्घोष करूँगा ! (When the time is propitious I will declare his great teaching to the entire world !) यह- 'दया नहीं , शिवज्ञान से जीव सेवा' ही वह सर्वश्रेष्ठ अद्वैतिक मंत्र है जिसे भगवान श्रीरामकृष्ण ने हमलोगों को दिया है, यह महान उपदेश अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त पर आधारित है। जो कहता है प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, प्रत्येक आत्मा एकमेवाद्वितीय अव्यक्त दिव्यता ही है) -There is only Divinity ही है , इस अव्यक्त ब्रह्मत्व की पूजा करने हम कहाँ जायेंगे ? क्या हम इस अव्यक्त ब्रह्मत्व की पूजा करने मन्दिरों में जायेंगे ? यह मानवशरीर ही सबसे बड़ा मन्दिर है। यह जीव जगत भी ब्रह्म ही है , इसको खुली आँखों से देखो , भगवान (सत्य, आत्मा या ईश्वर) की खोज मत करो -खुली आँखों से इसका दर्शन करो ! (Do Not seek it , See it ! Change your Drishti ! Bring that Brahma Drishti , Shastra Drishti ) अपनी दृष्टि को बदलो - फिर इस जीव और जगत को देखो। उस ब्रह्मदृष्टि , शास्त्र दृष्टी , ज्ञानमयी दृष्टि को अर्जित करो और जगत को ब्रह्ममय देखो ! अद्वैत दृष्टि अर्जित करो और खुली आँखों से भगवान को (सत्य,शिव, आत्मा, ईश्वर को) देखते हुए उसकी पूजा करो ! बुरा (Wicked-पाखण्डी) नारायण, भला (good) नारायण, धनी नारायण, दरिद्र नारायण , इतने सारे नाम-रूपों में एक भगवान ही हैं, ब्रह्म ही इतने सारे रूपों में घूम रहे हैं - इस खुली आँखों की अद्वैतदृष्टि से जगत को देखो और, और भगवान समझकर इसकी यथायोग्य पूजा करो। यह अद्वैतिक दृष्टि आध्यात्मिक अनुभव की पराकाष्ठा (acme) है! या यही वह सर्वोच अभिलाषा है जिसे प्राप्त करने की इच्छा हर मनुष्य कर सकता है। [God the Wicked , God the good , God the rich , God the Poor , God in so many name and forms ! Brahman in so many forms! This is the acme of Spiritual Experience ! Or this is what every human being can aspire for?] आध्यात्मिक क्रांति और आध्यात्मिक यात्रा का मार्ग भी यही है! तो यही उस दिन की महान शिक्षा (शीक्षा) थी , जिसे नरेन्द्रनाथ ने ग्रहण कर लिया था। और भविष्य में भगवान श्रीरामकृष्ण के अनुग्रह से जिस जुड़वाँ संस्थान -की संस्थापना हुई थी , हमलोग ऐसा नहीं मानते कि 'रामकृष्ण मठ तथा रामकृष्ण मिशन' की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने की थी। वास्तव में ये श्रीरामकृष्ण ही थे जिन्होंने 'रामकृष्ण मठ तथा रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की थी। और स्वामी विवेकानन्द तो उस कार्य को पूरा करने वाले - एक निमित्त मात्र थे। और स्वामी विवेकानन्द ने इस जुड़वाँ संस्थानों को जो महान विचारधारा (Ideology या सिद्धान्त) दी थी वह है - "आत्मनो मोक्षार्थम् जगत् हिताय च !" [ यह विवेकानन्द द्वारा स्थापित इस जुड़वाँ संगठन का आदर्श वाक्य है, जो इस दर्शन को अपनाता है कि "जीव ही शिव है" और मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की पूजा है। संक्षेप में, यह आदर्श वाक्य मानव जीवन के जुड़वाँ लक्ष्यों- ईश्वरलाभ (आत्मानुभूति) और विश्व-कल्याण - के महत्व पर एक साथ बल देता है।]
जैसा आज के भाषण में प्रारम्भ में ही कहा गया था "For the sake of One's own liberation " जो सिद्धान्त मनुष्य को पूरी तरह से मुक्त कर सकता है ,या मोक्ष दे सकता है , वह एकमात्र प्रणाली (system) अद्वैत ही है जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक मनुष्य को उसके सत्य-स्वरूप (Real I) का बोध प्रदान कर उसकी परवशता को दूर हटा देता है; तथा उसे जीवन में आने वाले उतार और चढाव का सामना करने के लिए साहसी और कार्य करने के लिए उद्यमी बना देता है। और अन्ततोगत्वा वह व्यक्ति सभी प्रकार के मिथ्या बन्धनों (तादात्म्य) से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। " इसलिए स्वामी विवेकानन्द ने जो इन जुड़वाँ संगठनों को जो आदर्श दिया था-वह है अपनी मुक्ति "आत्मनो मोक्षार्थम् 'और जिसके साथ जुड़ा होगा जगत का कल्याण- जगत् हिताय च !! क्यों ? क्योंकि यह जगत भी ब्रह्म ही है , एक आत्मा (ईश्वर या भगवान) के सिवा दूसरा कुछ है ही नहीं। खुली आँखों से जीव और जगत को जब देखते हो तब इसे आत्मा (ईश्वर, भगवान या ब्रह्म) के रूप में देखो, आँखों को जब मूंद लेते हो तब भी ब्रह्म के रूप में ही देखो। ये दृष्टि अद्वैत के महान सिद्धान्त पर ही आधारित है। इस अद्वैत दृष्टकोण को सामने रखते हुए यदि आप विवेकानन्द साहित्य के 10 खण्डों को पढ़ेंगे , तो आप पाएंगे कि उन्होंने पाश्चात्य जगत में शिकागो धर्म महासभा में 11 सितंबर 1893 वाले महान युगांतरकारी भाषण सहित जितने भी उपदेश दिए हैं ,शिक्षायें दी हैं , जितने सर्वश्रेष्ठ भाषण दिए हैं -उनके समस्त व्याख्यान सिर्फ और सिर्फ अद्वैत सिद्धान्तों में ही आधारित हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि स्वामी विवेकानन्द आधुनिक युग में अद्वैत वेदांत के महानतम आचार्य हैं। और आज यदि विश्व को विनाश से बचाया जा सकता है , या सम्पूर्ण मानवता को नष्ट होने से बचाया जा सकता है , पूरी मानवजाति को यदि विनाश की ओर बढ़ने से रोका जा सकता है , तो वह सिर्फ और सिर्फ अद्वैत के सिद्धान्तों से ही सम्भव है। 1896 या 1985 में स्वामी विवेकानन्द जब इंग्लैण्ड गए थे तब उन्होंने एक महान उद्घोषणा करते हुए कहा था - अमेरिका में मैंने अपने कार्य को अभी केवल प्रारम्भ ही किया है , I have just raised one or two waves -मैंने अभी केवल एक या दो लहरें (ज्वार) उठाई हैं। लेकिन बाद में -We have to raise a tidal wave - हमें एक सुनामी लानी होगी, समाज को पूरी तरह से बदलना होगा।The society has to be turned upside down , समाज की गति को उल्टा घुमा देना होगा, और दुनिया को एक नई सभ्यता देनी होगी। and the world has to be given a new civilization ! सोंच कर देखिये 1895 में (32 वर्ष की आयु में ?) स्वामी विवेकानन्द इस पूरी मानवजाति को एक नई सभ्यता देने की बात कर रहे है ! केवल स्वामी विवेकानन्द ही ऐसा बोल सकते हैं। एक अकिंचन दरिद्र संन्यासी (A penniless sanyasi) सम्पूर्ण मानवजाति को नई सभ्यता देने की बात कर रहा है ! यह विवेकानन्द 'अवतार' (Advent) हुआ ही इसी लिए हुआ था ! तथा अवतार-वरिष्ठ श्री रामकृष्ण का आगमन भी उसी के लिए- मानवजाति को एक नई सभ्यता देने के लिए हुआ था! स्वामी जी ने सम्पूर्ण मानवजाति को जिस नई सभ्यता देने की कल्पना की थी या स्वप्न देखा था वह सिर्फ अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों में ही आधारित है। The philosophy of absolute Independence and spiritual freedom ! पूर्ण आत्मवशता और आध्यात्मिक मुक्ति का दर्शन! हर प्रकार के भय से मुक्ति, संकीर्णता से मुक्ति , हर तरह की दासता और बंधन से मुक्ति। 2H की गुलामी शरीर की गुलामी , मन की गुलामी, इस संसार के कामिनी -कांचन -कीर्ति में आसक्ति की गुलामी से मुक्ति। तभी हो सकती है जब प्रत्येक पुरुष, प्रत्येक स्त्री अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा - यह जानकर कि हमलोगों के द्वारा जो कुछ भी अनुभव किया जा रहा है , उन सब अनुभवों का आधार उस एक आत्मा या एक ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है! स्वामीजी चाहते थे कि यही वह अंतिम लक्ष्य है, जिस दिशा में हर पुरुष और हर महिला आगे बढ़े। [Freedom from fear, Freedom from narrowness, Freedom from all kinds of slavery and bondage . slavery to the body , slavery to the mind , slavery to all these things of this world . Every man every woman standing on one's own self , knowing that the self is the basis of everything that we are expiriencing and evrrything thai being expirineced is nothing but that one self -Brahman.This is the ultimate direction in which swamiji expected everyman and woman to move .] (40:54) become free !become free !become free !
मुक्ति -मुक्ति -मुक्ति, मुक्त हो जाओ ! यही आत्मा की पुकार है , और यही वेदान्त का संगीत है, This is the Central rhythm of the Vedic scriptures ! और वैदिक ग्रंथों की यही केंद्रीय धुन है। पाश्चात्य देशों की यात्रा समाप्त करके भारत वापस लौटने से पहले , स्वामी विवेकानन्द अपने अंग्रेज शिष्यों के साथ यूरोप की यात्रा पर गए थे। यूरोप में जब वे स्विट्ज़रलैंड की यात्रा में आल्प्स पर्वत की हिमाच्छादित पर्वतों को निहार रहे थे , स्वामीजी ने अपने शिष्यों से कहा , मेरी यह अभिलाषा है ! एक महान ऋषि अपनी अभिलाषा व्यक्त कर रहे हैं ? तब उस अभिलाषा को पूर्ण होना ही था। उनकी अभिलाषा क्या थी ? उन्होंने बताया मैं यह चाहता हूँ कि हमलोगों का एक आश्रम हिमालय पर्वत श्रेणी की तलहटी में भी होना चाहिए ! खुली आँखों वाला यह स्वप्न उन्होंने स्विट्ज़रलैंड के आल्प्स पर्वत को देखते हुए देखा था। तथा उनकी इच्छा थी की एक आश्रम हिमालय पर भी होना चाहिए। और वह आश्रम सिर्फ और सिर्फ अद्वैत के लिए ही समर्पित होना चाहिए। वहाँ द्वैतवादी विचारों का लेशमात्र भी प्रवेश और पालन नहीं होगा। यह स्वामी विवेकानन्द की बहुत बड़ी दूरदर्शिता थी , और उनके अंग्रेज शिष्य कैप्टन श्री सेवियर और श्रीमती सेवियर जो स्वामीजी के साथ भारत चले आये थे, उन लोगों ने चार वर्ष के भीतर मार्च 1899 ई. में मायावती में बहुत सफलता पूर्वक अद्वैत आश्रम प्रारम्भ कर दिया। और 1901 में स्वामीजी वहाँ आये थे, और 15 दिनों तक यहाँ रहे थे। आज यह स्थान एक महान तीर्थ क्षेत्र बन गया है। मुझे इस तीर्थ क्षेत्र न कहकर और कुछ नाम देना चाहिए , क्योंकि आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ अद्वैताचार्य इस आश्रम में 15 दिनों तक ठहरे थे। उस समय वहाँ एक रोचक घटना घटित हुई थी, आप सभी उस बात से परिचित होंगे। फिर भी उसपर चर्चा करना हम सबके लिए बड़ा आनंद दायक होगा। क्योंकि ऐसा करके हमलोगों को यह समझ में आ जायेगा कि श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द इस धरती पर अवतरित क्यों हुए थे ? श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द की वास्तविक विचारधारा (ideology) क्या थी ? हम लोग हर जगह उनके मंदिर, आरती , पूजा आदि होते देखते हैं - यह सब ठीक है , होना भी चाहिए। अपने अपने दृष्टिकोण से यह सब सत्य है। किन्तु रामकृष्ण मिशन और रामकृष्ण मठ में जिन पूजा-अनुष्ठान इत्यादि को होते हुए हुए देखते हैं , या हिन्दू सनातन धर्म में जितने मंदिर, अनुष्ठान , पूजा , यज्ञ, प्रार्थना , तीर्थ यात्रा, आदि होते हुए देखते हैं -उन सबका मूल बिन्दु (Crux), उनकी शिक्षाओं का सार (The core) क्या है ? यह सिर्फ और सिर्फ अद्वैत है। बाकि सब मंदिर ,पूजा पाठ इत्यादि उस महान लक्ष्य तक पहुँचने सोपान (stepping stones-प्रारंभिक प्रयास हैं , धर्म के किंडरगार्टन-बालविहार हैं !) इसलिए स्वामी जी की यह बहुत तीव्र अभिलाषा थी कि एक केंद्र ऐसा होना चाहिए जहाँ सिर्फ अद्वैत और अद्वैत का ही अभ्यास किया जायेगा। और स्वामीजी जब 15 दिनों तक यहाँ ठहरे थे -एक दिन ऐसा हुआ कि स्वामीजी ने मायावती आश्रम परिसर में एक संन्यासी को देखा जिसने अपने कमरे में श्रीरामकृष्ण की एक छवि रख कर एक छोटा सा मंदिर (shrine) बना रखा था। और श्रीरामकृष्ण की छवि पर फूल , धुप , अगरबत्ती आदि से अनुष्ठानिक विधि में जैसा होता है - वैसा पूजा कर रहा था। यह देख कर स्वामी विवेकानन्द अत्याधिक अप्रसन्न हुए। उन्होंने खुले तौर से अपनी अप्रसन्नता को व्यक्त करते हुए कहा , यह अद्वैत आश्रम है। यहाँ अनुष्ठानिक पूजा नहीं की जा सकती है। स्वामी विवेकानन्द अद्वैत आश्रम के Prospectus में इन सभी बातों को का उल्लेख किया था , कि यह आश्रम सिर्फ और सिर्फ अद्वैत के लिए समर्पित है, इसके आलावा अन्य कोई साधना यहां वर्जित है। उन संन्यासी ने वहाँ से अपने छोटे से मंदिर को तो नहीं हटाया , और सोचा की मुझे इसके बारे में श्रीश्री माँ सारदा देवी से पूछना चाहिए। उसने सोंचा की कि माँ श्री सारदा देवी उनको निश्चित रूप से समर्थन देंगी। वे भला श्रीरामकृष्ण की पूजा करने से किसी को कैसे मना करेंगी ? ऐसी आशा रखते हुए उस साधु ने माँ श्री सारदादेवी को एक पत्र लिख दिया। कि नरेंद्र इस छोटे से मंदिर को भी हटा देने का आदेश दे रहे हैं। और माँ ने उस पत्र के उत्तर में क्या लिखा ? जिस माँ श्रीश्रीसारदा देवी के ह्रदय की विशालता का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता, उसी माँ सारदादेवी ने उत्तर में लिखा - 'नरेन्द्र जो कह रहा है , वही ठीक है ! और दूसरी बात श्रीरामकृष्ण स्वयं अद्वैत हैं ! तथा हम सभी श्रीरामकृष्ण देव के शिष्य हैं, इसलिए हम सभी, और तुम सभी लोग भी अद्वैतवादी हो ! " श्रीश्रीमाँ के द्वारा ऐसा आदेश मिलने के बाद यह विवाद फिर सदा-सदा लिए समाप्त हो गया, कि श्रीरामकृष्णदेव की मुख्य विचारधारा (Core Ideology) क्या थी ? (46:26)
रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की मूल विचारधारा अद्वैत है! और उस विचारधारा में, स्वामी विवेकानंद आधुनिक समय के अद्वितीय शिक्षक थे, जिन्होंने विशेष रूप से अद्वैत वेदांत के अभ्यास के लिए समर्पित एक आश्रम शुरू किया। (The basic Ideology of Ramakrishna math and Ramakrishna is Advaita ! and in that ideology, Swami Vivekananda was the unique teacher of the modern times, who started an Ashram exclusively dedicated to the practice of Advaita Vedanta. ) आनन्द की बात यह है कि जब और जहाँ कहीं भी अद्वैत वेदांत के विषय पर चर्चा होती है, तो वहाँ भगवान भाष्यकार श्री शंकराचार्य जी हिमालय की तरह खड़े नजर आते हैं। किन्तु उन श्री शंकराचार्य जी जैसे महान अद्वैतवादी आचार्य ने भी अलग से, सिर्फ और सिर्फ अद्वैत वेदान्त को समर्पित किसी मठ या (monastery- वानप्रस्थाश्रम) की स्थापना नहीं की। श्री शंकराचार्य ने जितने भी मठ और आश्रम स्थापित किए हैं, उन सभी मठों में हमें 'माँ शारदा' शारदाम्बा (दिव्य माँ) की पूजा देखने को मिलती है। (All the monasteries and Mutts which Sri Shankaracharya has established in all those mutts we find the worship of 'Maa Sharda ' Sharadamba, Divine Mother!)
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द हमारी उसी महान अद्वैतवादी गुरु-शिष्य शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा की श्रेणी (league) से सम्बन्धित हैं, जिसमें समस्त गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के उद्गम-स्थान उपनिषदों से शुरू करके, पुनः भगवद गीता तक वापस आते हुए , राजा परीक्षित के गुरु शुकदेव , महान गुरु गौड़पादाचार्य, महान गुरु गोविन्दपादाचार्य,श्री शंकराचार्य और हमारे आधुनिक युग के जगतगुरु श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ! (Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda- they belong to that league of great Advaitins, which we have in our great tradition. Going back to the source of Upanishads, coming down to Bhagavad Gita , coming down to you may say the Sukadeva, the great Gaudapadacharya , the great Govinda Padacharya, Sri Shankaracharya and in our mordern times Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda .)
आप देखेंगे हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति , हमारी हिन्दू वैदिक सनातन अद्वैत परम्परा जो आज तक इसीलिए जारी है, क्योंकि जैसा कि मैंने पहले कहा, यह अद्वैत और सिर्फ़ अद्वैत ही वह विचारधारा है जो मानवजाति को उन सभी बीमारियों से मुक्ति दिलाने में वास्तव में सहायता कर सकती है जिनसे आज वह पीड़ित है। (48:21) पूरी मानवता , सम्पूर्ण मानवजाति आज भी कट्टरता (fanaticism) की बीमारी , हठधर्मिता (dogmatism) का रोग, बैरभाव (hatred) और क्रूर हिंसा(violence) जैसी पुरानी बिमारियों से पीड़ित है। ऐसा क्यों है? क्योंकि हम उस एकमेवाद्वितीय एकत्व (Oneness) को भूल गए हैं, जो हम सभी का सत्य स्वरुप है, जिसमें कोई भेद नहीं है! यह अद्वैत का सिद्धान्त ही एकमात्र ऐसा सिद्धान्त है , जो समस्त मानवजाति को एक परिवार (One Human Family) बना देती है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। ]
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(महोपनिषद्,अध्याय 4, श्लोक 71)
अर्थ - यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
इसलिए एक बार फिर मैंने जहाँ से भाषण शुरू किया था , वहाँ जाना चाहूँगा। स्वामी विवेकानन्द ने अद्वैत आश्रम, मायावती के prospectus में लिखा था - "All dependence is misery and Independence is happiness. "- सर्वम् परवशं दुःखं सर्वम् आत्मवशम् सुखम्। -
अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना ही समस्त दुःखों का कारण है तथा आत्मा के वश में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का मूल है। जब हम 'आत्मवशम्' यानि आत्मवश या Independent -आत्मनिर्भर (देहाध्यास या नाम-रूप से मुक्त) हो जाते हैं, केवल तभी हम यह समझ सकते हैं कि सुखम्- आनन्द (Happiness-परमानन्द -सच्चिदानन्द) वास्तव में क्या 'वस्तु' है !! और अद्वैत ही एकमात्र ऐसी प्रणाली (system) है जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक मनुष्य को उसके सत्य-स्वरूप (Real I, आत्मा , ईश्वर या ब्रह्म) में प्रतिष्ठित रखते हुए , उसे दुःख सहने करने , काम करने और जीवन में आने वाले उतार -चढ़ाव का सामना करने में साहसी (brave-निडर, अभिः) बना देता है, और अन्ततोगत्वा उसे सभी प्रकार के मिथ्या बन्धनों (तादात्म्य) से मुक्ति, आत्मानुभूति या मोक्ष की दिशा में ले जाता है! अद्वैत ही एकमात्र ऐसी प्रणाली है मोक्ष या एकत्व (absolute freedom) की अनुभूति प्रदान कर सकती है।
And the Advaita is the only system which gives unto every man complete possession of himself or herself, and makes him or her, brave to suffer, brave to act, brave to face the ups and downs of life, and ultimately walk towards the great experience of absolute freedom ! This Advaita and Advaita alone can do this Absolute freedom ! (49:53)] तथा स्वामी विवेकानन्द आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ अद्वैताचार्य थे हैं तथा उन्हें अद्वैताचार्य बनने के लिए उनके महान गुरु परमहंस श्रीरामकृष्ण (जगतगुरु-अवतारवरिष्ठ) द्वारा प्रशिक्षित किया गया था। -धन्यवाद !
=======
[चरित्र के गुण 15 : आत्मनिर्भरता (Self-reliance) :
मनुष्य का जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण हो जाने पर वह स्वनिर्भर हो जाता है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे - " यथार्थ शिक्षा (शीक्षा-वल्ली) प्राप्त करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जाता है। " यहाँ पैरों पर खड़ा होने का क्या अर्थ है ? क्या केवल इतना ही कि पैरों के ऊपर अपने शरीर का पूरा भार डालकर खड़े हो जाना ? नहीं, इसका अर्थ है, नित्य-अनित्य विवेक की सहायता से जीवन लक्ष्य (ईश्वरलाभ या आत्मज्ञान) निर्धारित कर (मिथ्या से मुँह मोड़कर)उसी दिशा (सत्यम दिशा) में अग्रसर रहने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना, जीवन को सार्थक बनाने की क्षमता प्राप्त कर लेना।
मनुष्य जैसे-जैसे आत्मनिर्भर होता चला है, उसके दुःख-भोग की संभावना भी उतनी ही कम होती जाती है। हम जितना अधिक दूसरों पर निर्भर रहेंगे, अपेक्षाएँ पूरी न होने पर दुःख पाने की संभावना भी उतनी ही बनी रहेगी। मनु महाराज ने बड़े ही सुंदर ढंग से सुख और दुःख का लक्षण बताया है -
सर्वम् परवशं दुःखं सर्वम् आत्मवशम् सुखम् |
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ||
-अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना ही समस्त दुःखों का कारण है तथा आत्मा के वश में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का मूल है। संक्षेप में, सुख और दुःख के लक्षण भी यही हैं। जिस व्यक्ति में स्पष्ट धारणा (मनुष्य जीवन का उद्देश्य और तदप्राप्ति उपाय की स्पष्ट धारणा), सामान्य बुद्धि, अविचलता , धैर्य , आत्मसंयम, सहनशीलता , उद्यम , अध्यवसाय , दृढ़ संकल्प आदि सद्गुण हों उसको कभी भी परवश नहीं रहना पड़ता। इसलिए उसके दुःखी होने के बजाय सुखी होने की आशा अधिक रहती है। क्योंकि यही सब गुण उसको आत्मनिर्भरता के गुण से भी अलंकृत कर देते हैं। ]
" This Advaita was never allowed to come to the people. At first some monks got hold of it and took it to the forests, and so it came to be called the "Forest Philosophy". By the mercy of the Lord, the Buddha came and preached it to the masses, and the whole nation became Buddhists. Long after that, when atheists and agnostics had destroyed the nation again, it was found out that Advaita was the only way to save India from materialism. Thus has Advaita twice saved India from materialism ! " -Swami Vivekananda : (The Absolute and Manifestation/ Volume-2/Jnana-Yoga/page -138)
"अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों में कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग ही अरण्य (जंगलों) में उसकी साधना करते थे , इसी कारण वेदान्त का एक नाम 'आरण्यक' ("Forest Philosophy") भी हो गया। अन्त में भगवान की कृपा से बुद्धदेव ने आकर जब सर्वसाधारण के बीच इसका प्रचार किया , तब सारा देश बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। फिर बहुत समय बाद नास्तिकों (atheists-ईश्वर को न मानने वाले) और अज्ञेयवादियों (agnostics) ने जब सारे देश को ध्वंश करने की चेष्टा की, तब उस भौतिकवाद से भारत की रक्षा करने में पुनः एक बार अद्वैतवाद ही एकमात्र उपाय सिद्ध हुआ। इस प्रकार अद्वैत ने दो बार भौतिवाद से भारत की रक्षाकी है।" - स्वामी विवेकानन्द ('ब्रह्म एवं जगत' : वि ० सा० /खंड-२./पृष्ठ- ९३)
=============
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(महोपनिषद्,अध्याय 4, श्लोक 71)
अर्थ - यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
श्लोक में समझाया गया है कि जो व्यक्ति यह मेरा अपना है , वह पराया है ऐसा विचार रखता है। यह तेरा है , यह उसका है , ऐसी सोच रखने वाले व्यक्ति की सोच उसे बहुत छोटा बना देती है। जो लोग सबके बारे में सोचते है , सबके हित के बारे में सोचते है , उनकी भलाई के बारे में सोचते है। उनका चरित्र परोपकारी होता है , पूरा संसार ही उसका परिवार होता है।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ऐसे श्लोकों विचारों को जिस सनातन संस्कृति के अनुयायियों ने अपने जीवन का मूल आदर्श मानते हुए महान देश भारत में सदियों से आनंद प्रेम शांति का जीवन जीते हुए इस विराट महान संस्कार विचार जीवन शैली अपनाने को निरंतर प्रयत्न कर रहा, क्या ऐसे देश ऐसी संस्कृति को पूरे विश्व के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ को अपना आदर्श बनाकर मानवता के प्रसार विस्तार संरक्षण संवर्धन को दिशा और गति नहीं देनी चाहिए??
सभी देशवासियों को इस प्राचीन गौरवशाली देश भारत की सभ्यता और संस्कृति का गौरव बोध जबतक न हो तब तक हम अपने श्रेष्ठ मानवीय विचारों संस्कारों के अग्रदूत नहीं बन सकते......
स्वयं एवं स्वयं के गौरव को अपनाएं, प्राचीन मौलिक विचारों से नव भारत बनाएं
विश्व बंधुत्व मानवता का संदेश फैलाएं....
[मित्रता और शत्रुता -दोनों ही मन के ऐसे बंधन/गुलामी है, जो व्यक्ति को उसके सत्य-स्वरुप से , मूल स्वरूप से दूर ले जाते हैं। मित्रता में मनुष्य स्वयं को किसी दूसरे में खो देता है और शत्रुता में वह दूसरे को अपने भीतर ठूँसकर रख लेता है ! सच्चा आध्यात्मिक व्यक्ति किसी के साथ राग या द्वेष नहीं पालता। उसके मन का एक मात्र संकल्प होता है कि वह किसी भी हृदय में पीड़ा का कारण न बने। यथार्थ करुणा का प्रादुर्भाव तभी होता है , जब मनुष्य किसी से कुछ अपेक्षा रखता है, न किसी से विरोध रखता है। (हाथी नारायण -महावत नारायण दोनों का विवेक रखता है !) जब व्यक्ति सबका कल्याण चाहता है , तब वह वास्तव में अपने भीतर की उस निर्मल धारा को पोषित करता है जो समस्त प्राणियों को एक ही चेतना की अभिव्यक्ति मानती है। सबके कल्याण में ही उसका स्वयं का कल्याण भी छुपा होता है। जब मनुष्य किसी से अत्यधिक स्नेह नहीं जोड़ता , तो अपेक्षाओं का विष भी नहीं जन्म लेता , और जब वह किसी से बैर नहीं पालता , तो मन की शांत झील में क्रोध की लहरें नहीं उठतीं। निर्लिप्तता मानवीय संबंधों को शुद्ध करती है। (ट्विंकल तोमर सिंह)]
"देहो देवालयः प्रोक्तः जीवो देवस्सनातनः।
त्यजेद्ज्ञाननिर्माल्यं सोऽहं भावेन पूजयेत् ॥"
( मैत्रेयी उपनिषद)
शरीर एक मंदिर है, और इसमें निवास करने वाला- जीव (आत्मा) ही सनातन (शाश्वत) देवता है, जिसे ज्ञान के प्रकाश से समझना चाहिए और- त्यजेद्ज्ञाननिर्माल्यं , अज्ञानता रूपी निर्माल्य (पूजा के बाद बची हुई वस्तु-अहंकार) का त्याग करके प्रत्येक जीव में (साँप नारायण , हाथी नारायण, महावत नारायण में भी--चोर-पाखण्डी की भी) 'सोऽहं' (मैं ही वह हूँ-आत्म-साक्षात्कार) भाव से प्रत्येक जीव की (यथायोग्य) पूजा करनी चाहिए।
===========
(श्रीमद्भगवद्गीता शाङ्करभाष्यम् ॥)
॥ उपोद्घातः ॥
नारायणः परोऽव्यक्तात् अण्डमव्यक्तसम्भवम् ।
अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥
अव्यक्त से अर्थात माया से श्री नारायण या आदिपुरुष सर्वथा अतीत है , (इन्द्रियतीत सत्य-अस्पष्ट) है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अव्यक्त प्रकृति से उत्पन्न हुआ है। ये भूः , भुवः , स्वः आदि सभी लोक और सात द्वीपों वाली पृथ्वी ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही है।
सः भगवान् सृष्ट्वा-इदं जगत्, तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः,
मरीचि-आदीन्-अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन्, प्रवृत्ति-लक्षणं धर्मं
ग्राहयामास वेद-उक्तम् ।
इस जगत को रचकर इसका पालन करने की इच्छा वाले उस भगवान ने पहले मरीचि आदि प्रजापतियों को रचकर उसको वेदोक्त प्रवृत्ति रूप धर्म (कर्मयोग) ग्रहण करवाया।
ततः अन्याण् च सनक-सनन्दन-आदीन् उत्पाद्य,
निवृत्ति-लक्षणं धर्मं ज्ञान-वैराग्य-लक्षणं ग्राहयामास ।
फिर उनसे अलग सनक , सनन्दन , सनातन आदि ऋषियों को उत्पन्न करके उनको ज्ञान और वैराग्य जिसके लक्षण हैं , ऐसे निवृत्ति रूप धर्म (ज्ञानयोग) ग्रहण करवाए।
द्विविधः हि वेदोक्तः धर्मः, प्रवृत्ति-लक्षणः निवृत्ति-लक्षणः च ।
वेदोक्त धर्म दो प्रकार का है - एक प्रवृत्ति रूप है, दूसरा निवृत्ति रूप है।
जगतः स्थिति-कारणं , प्राणिनां साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस-हेतुः
यः सः धर्मः ब्राह्मणाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोर्थिभिः
अनुष्ठीयमानः ।
जो जगत की स्थिति का कारण , तथा प्राणियों की उन्नति का और मोक्ष का साक्षात् हेतु है। एवं कल्याणकामी ब्राह्मण आदि वर्णाश्रम अवलम्बियों द्वारा जिसका अनुष्ठान किया जाता है उसका नाम धर्म है।
[द्विविधः हि वेदोक्तः धर्मः, प्रवृत्ति-लक्षणः निवृत्ति-लक्षणः च । जगतः स्थिति-कारणं , प्राणिनां साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस-हेतुः यः सः धर्मः ब्राह्मणाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोर्थिभिः अनुष्ठीयमानः। ॥
https://sanskritdocuments.org/doc_giitaa/gItAshAMkarabhAShya.html)]
====
दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है । तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर गूढ़ संबंध है । इस दृश्यमान जगत में सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? इन सृष्टि में अनुस्यूत है - ब्रह्म । संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है । जो था । जो है । और जो सदैव रहेगा । वही तो - ब्रह्म है । " सत्य नाम " से ऋषियों मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है । यहां मिथ्या शब्द " असत " से भिन्न है ! मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है । जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं । यही मिथ्यात्व है । इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है । संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही " जीव " का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । यह ऐसे ही है । जैसे जागने पर " स्वप्नकाल के द्रष्टा " और " दृश्य " का को लोप हो जाता है । वस्तुत: यह एकत्व और अद्वैत ही परमार्थ है । सत्य का अर्थ है - जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता । अर्थात जो था । जो है । और जो रहेगा । इस दृष्टि से जगत ब्रह्म-सापेक्ष है । ब्रह्म को जगत के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता । जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है । उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था । दूसरे शब्दों में ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है ।
सुख और दुःख - के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में परवशता और आत्मवशता पर निर्भर करता है।
मनुष्य के कल्याण एवं ईश्वरलाभ , आत्मज्ञान या भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं । अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है । लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती ।
प्रतिकूल परिस्थितियां आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए । क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है । जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है । प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है । क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं । यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे । तो उसका मनोबल टूटने लगेगा । परन्तु यदि आत्मा, ईश्वर प्रभु श्रीरामकृष्णदेव के एकत्व पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए । तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा । आत्मा, ईश्वर, भगवान, ब्रह्म में एकत्वबोध के चिंतन में वृद्धि होगी ।
[Kali is none other than Brahman. That which is called Brahman is really Kali. she is the primal energy .Whem that energy remains inactive , I call it brahman , and when it creates, preserves or destroys , I call it shakti or Kali . What you call Brahman I call Kali ." Sri Ramkrishna ~ जम्मू RKM 7.12.2025/
ठाकुर देव का अद्वैत सिद्धान्त - "काली (ब्रह्म) सत्यं जगत मिथ्या !"
[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-9 ]
श्रीरामकृष्ण - जो ब्रह्म है, वही काली भी हैं । जब निष्क्रिय हैं, तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं । जब सृष्टि, स्थिति, प्रलय, यह सब काम करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते हैं। स्थिर (निश्चल-Still) जल से ब्रह्म की उपमा हो सकती है । वही पानी जब हिलता-डुलता है (The same water, moving in waves),तब वह शक्ति की - काली की उपमा है।
MASTER: "That which is Brahman is also Kali, the Mother, the Primal Energy. When inactive It is called Brahman. Again, when creating, preserving, and destroying, It is called Sakti. Still water is an illustration of Brahman. The same water, moving in waves, may be compared to Sakti, Kali.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যিনি ব্রহ্ম, তিনি কালী (মা আদ্যাশক্তি)। যখন নিষ্ক্রিয়, তাঁকে ব্রহ্ম বলে কই। যখন সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় — এই সব কাজ করেন, তাঁকে শক্তি বলে কই। স্থির জল ব্রহ্মের উপমা। জল হেলচে দুলচে, শক্তি বা কালীর উপমা।
=================
P.M. Modi Wonderful Interview with Rajat Sharma - Sunday 7-12-2025 / Work of Swami Vivekananda and Maharshi Arvind till 2047
"मैं दीया हूँ,मेरी दुश्मनी अंधेरे से है।
हवा तो बेवजह ही मेरे ख़िलाफ़ है !
हवा से कह दो- कि खुद को आज़मा के दिखाए;
बहुत चिराग बुझाती है, एक जला के दिखाए ! "
আমার চেতনা চৈতন্য করে দে মা চৈতন্যময়ী /Amar Chetana Chaitanya Kore | Devotional Songs | Pannalal Bhattacharya | Audio
=====================================
No comments:
Post a Comment