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शनिवार, 13 मार्च 2021

$$ महामण्डल का स्वरुप एवं कार्य " (The Idea and the Method of the Mahamandal- মহামন্ডলের চিন্তা ও কাজ ) )

महामण्डल का स्वरुप एवं कार्य

        अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल किस प्रकार का संगठन है ? क्या यह एक धार्मिक संस्था है, एक सांस्कृतिक संस्था है, एक समाजसेवी संगठन है, या एक शैक्षणिक संस्थान है ? 

        इस संगठन के साथ स्वामी विवेकानन्द का नाम जुड़ा हुआ है। चूँकि वे एक संन्यासी थे और उन्होंने धर्म का प्रचार किया था,अतः लोग आसानी से यह धारणा बना लेते हैं, कि शायद यह भी एक प्रकार का धार्मिक संगठन ही होगा। यदि ऐसे आकलन के आधार पर कोई पूछे कि -क्या महामण्डल कोई धार्मिक संगठन है, तो उत्तर होगा -नहीं। किन्तु धर्म का जो सार तत्व है, धर्म का जो वास्तविक अर्थ होता है, उसकी ओर यदि किसी का संकेत हो - तो कहना पड़ेगा, निस्सन्देह महामण्डल एक धार्मिक संस्था है, किन्तु यहाँ 'धर्म' का अर्थ कोई संकीर्ण दायरे वाला मतवाद नहीं हो सकता। महामण्डल की आस्था जिस धर्म में है, वह न तो हिन्दुओं का धर्म है, न मुसलमानो का (हिन्दुओं में भी यह न तो वैष्णव है , न शाक्त है , और न शैव-पन्थ को ही मानने वाला है) और न तो बौद्धों का है, और न ईसाईयों का।  

       क्योंकि श्रीरामकृष्णदेव या स्वामी विवेकानन्द किसी एक धर्म-विशेष से जुड़े हुए व्यक्ति नहीं थे। वे सर्वधर्म समन्वय या सभी धर्मों में परस्पर सद्भाव के संस्थापक रहे हैं। इन दोनों के आने से पहले तक धर्म के क्षेत्र में  सहिष्णुता पूर्णतया अनुपस्थित थी,  और आज भी वह अभिलषित सहिष्णुता है या नहीं यह अभी भी संदेहास्पद है। परस्पर असहिष्णुता की बुराई के विरुद्ध विश्व के लोगों की आँखों को खोलने वाले प्रथम व्यक्ति श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द ही हैं। परमत सहिष्णुता होना बहुत महत्वपूर्ण है। 

       मानव  समाज में विभिन्न स्थानों पर भिन्न -भिन्न समय में देश-काल की विविधता केआधार पर पृथक -पृथक नाम वाले मत या सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव होता रहा है। किन्तु  मनुष्यों के जीवन में एक धर्म, कर्तव्य,  आकांक्षा और अभिलाषा होती है। और इन आकांक्षाओं या अभिलाषाओं को  पूर्ण करने का जो पथ है, उसी को धर्म का मार्ग कहा जाता है। जिन लोगों को इस सच्चे धर्म  की उपलब्धि हो जाती है, उनके लिये हिन्दू, मुस्लिम या ईसाईयों के बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता। 

      स्वामी विवेकानन्द ने इस तथ्य को बहुत गहराई से और विस्तारपूर्वक समझाया है। उनकी दृष्टि में जब कोई व्यक्ति बाह्य-प्रकृति और अन्तःप्रकृति  दोनों के ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है, केवल तभी उसे धर्म की प्राप्ति होती है। इसी के द्वारा मनुष्य को यथार्थ शक्ति प्राप्त होती है, इसीलिये वास्तव में यही सच्चा धर्म है। इसीलिये स्वामी जी धर्म की परिभाषा देते हुए कहते है, धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु-- मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। इस कसौटी से (चश्मे से) देखने पर विभिन्न धर्मों के बीच भेदभाव करने के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता। हर धर्म के अनुयायियों के लिये यह पैमाना एक समान है, और जो कुछ इसके प्रतिकूल होगा उसे धर्म नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक धर्म यह बताता है कि मनुष्य को अपनी पशुता  पर अंकुश लगाना चाहिये और अपने मानवीय गुणों का विकास करना चाहिये। कोई भी मनुष्य जो अपनी पशुता पर विजय प्राप्त कर लेगा, वह  सच्चा धार्मिक मनुष्य बन जायेगा, और ऐसा प्रतीत होगा , मानो वह भी भगवान का ही प्रकट रूप है। उसके भी चारों ओर किसी काल्पनिक भगवान के जैसा प्रभावलय प्रतीत होगा। 

         मनुष्य जब अपनी कल्पना के अनुसार भगवान का चित्र या मूर्ति गढ़ता है  तो वह उनके मुखड़े को पवित्रता, तेज, ओजस्विता आदि उत्कृष्ट चारित्रिक गुणों से विभूषित करते हुए ही गढ़ता है,  क्योंकि दिन-प्रतिदिन की व्यावहारिक दुनिया में ऐसा  मुखमण्डल ढूँढ पाना मुश्किल है। सामान्यतः हम समाज में मनुष्यों का जैसा सौन्दर्य, शारीरक-शौष्ठव और स्वभाव आदि देखते हैं, उससे हमारी कल्पना को तृप्ति नहीं मिलती। इसीलिये जब हम अपने भगवान के बारे में विचार  करते हैं, तो उसमें समस्त मानवीय गुणों को अनन्त गुना विकसित रूप में देखने का प्रयास करते हैं।   इसीलिये हमलोग मनुष्य को  भगवान या किसी अवतार के साँचे में डाल कर गढ़ना चाहते  हैं।  विश्व के प्रत्येक धर्म में यह बात एक समान पायी जाती है। इस दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो महामण्डल भी धर्म  का पालन कर रहा है। किन्तु महामण्डल अपने किसी सदस्य को मन्दिर,मस्जिद,चर्च या गुरुद्वारा जाने, कर्मकाण्डीय अनुष्ठान करने या  पूजा-पाठ  करने का निर्देश नहीं देता, इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल धार्मिक संस्था नहीं है।  

       आजकल  बहुत से लोग संस्कृति का अर्थ नृत्य -संगीत , नाटक , कहानियाँ, उपन्यास, या  कुछ दुर्बोध चित्र या अर्थहीन कवितायें समझते हैं। किन्तु महामण्डल संस्कृति की ऐसी व्याख्या को व्यर्थ और बौद्धिक शक्ति की बर्बादी समझकर इस पर कोई ध्यान नहीं देता। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल कोई सांस्कृतिक संस्था भी नहीं है।  यदि कोई मनुष्य सही अर्थों में सुसंस्कृत बन जाता है, तो  वह बाह्य जगत को उस दृष्टि से नहीं देखता जिस दृष्टि कोई पशु देखता है। मनुष्यत्व का विकास  होने के साथ-साथ उसके भीतर सौन्दर्य की प्रशंसा करने के लिये एक कोमल आंतरिक शक्ति भी पुष्पित हो जाती है। और अब उसे किसी वस्तु  की व्यावहारिक उपयोगिता क्या है, उस दृष्टि से देखने पर सन्तुष्टि प्राप्त नहीं होती। जगत को ज्ञानमयी दृष्टि से देखने का अभ्यास करते करते उसका मन-दर्पण स्वच्छ हो जाता है जिसके फलस्वरूप वह चिंतन में, जगत में , प्रकृति में,  शब्दों में,  समस्त सजीव प्राणियों में सौन्दर्य उपलब्ध करने की क्षमता या सौन्दर्यबोध  अर्जित कर लेता है। यह निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक गुण है। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल अवश्य एक सांस्कृतिक संगठन है , किन्तु उपरोक्त बताये हुए संस्कृति के तथाकथित परिभाषा के अनुरूप  यह कोई सांस्कृतिक संगठन भी नहीं है। 

        इसी प्रकार से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि प्रचलित अर्थों में महामण्डल एक समाजसेवी संगठन भी नहीं है। क्यों ? आमतौर से कोई भी समाज-सेवी संस्था समाज के लिए कुछ न कुछ कल्याणकारी कार्यों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है, वह विभिन्न समाजोपयोगी कार्यों के द्वारा लोगों को सहायता प्रदान करता है। आजकल  ग्रामीण-विकास समाजसेवा का  एक प्रमुख विषय  बन गया है। सामान्यतः इसके अन्तर्गत अन्नहीनों  को अन्न, रोगियों के लिए दवाइयाँ , वस्त्रहीनों को वस्त्र इत्यादि का वितरण करके निःसहायों की सहायता की जाती है। ये सभी अच्छे कार्य हैं। किन्तु,  महामण्डल केवल  इसी प्रकार की समाजसेवी कार्यों के लिए नहीं है।   इस तरह की सेवायें प्रदान करने के लिये तो पहले ही से स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय  स्तर पर  देश-दुनिया में असंख्य संस्थायें कार्यरत हैं।  राष्ट्रीय सरकार  विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठन एवं आम धनाड्य लोगों का भी उन्हें संरक्षण प्राप्त है।  फिर इसी प्रकार के एक और संगठन के आविर्भूत होने का क्या औचित्य  हो सकता है ?

        इसके बावजूद भी महामण्डल  में समाज-सेवा के लिए एक स्थान है। यद्यपि यह एक विशेष प्रकार की समाज-सेवा है और यह कहना गलत नहीं होगा यदि इसे हम 'उत्कृष्ट समाज-सेवा' का नाम दें।  ऐसा इसलिए है क्योंकि  इस प्रकार के समाजसेवा की परिकल्पना स्वयं स्वामी विवेकानन्द  के द्वारा ही की गयी थी।  " मूर्ख देवो भव , दरिद्र देवो भव " बतलाकर अज्ञानियों और दरिद्रों की सेवा करने का उपदेश सर्वप्रथम स्वामीजी ने ही दिया था। निस्सन्देह भूखों को भोजन कराना, वस्त्रहीनों को वस्त्र देना, बीमारों के लिये चिकत्सा की व्यवस्था करना, आदि कार्य भी  स्वामी विवेकानन्द  द्वारा निर्देशित समाजसेवा का ही हिस्सा है। किन्तु  जिस प्रकार की समाज-सेवा पर विवेकानन्द ने विशेष बल दिया था, वह है लोगों को , विशेष रूप से युवाओं को उत्तम विचार प्रदान करना , ऐसे विचार  जो किसी व्यक्ति को उन्नततर मनुष्य बनने में सहायता करें। हमारे अपने ही परिवार और समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो जीवन को उन्नततर बना देने वाले विचारों से वंचित रह गए हैं ! वास्तव में गरीब तो वैसे ही लोग हैं। गरीब केवल केवल वे नहीं हैं जिनके पास कोई पैसा नहीं है और  अपने लिये दो वक्त की  रोटी का भी प्रबंध नहीं कर सकते। उन्नततर  मनुष्य में परिणत कर देने वाले उच्च विचारों की इच्छा या अभाव से ग्रस्त व्यक्ति भी वास्तव में गरीब ही होता है।  स्वामी जी के अनुसार  इस प्रकार के गरीब लोगों की सेवा करना सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा का कार्य है। 

      विशेष रूप से महामण्डल  स्वामी विवेकानन्द द्वारा  निर्देशित  इसी सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा का पक्षधर है , तथा 'उन्नततर मनुष्य ' निर्माणकारी शिक्षा के उच्च भावों  को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के लिये प्रयत्नशील है। महामण्डल का उद्देश्य किसी धर्म-विशेष या जाति-विशेष सम्मेलन के खास व्यक्ति या उनकी सामूहिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं है , जहाँ दानशील होने या उदार बनने के पीछे मुख्य कारण [शिव ज्ञान से जीव सेवा न होकर ] बहुधा अहंकार की तृप्ति ही होती है।  'मेरे पास  धन-सम्पत्ति या जमीन- जायदाद है और मैं दिखावे के लिए  थोड़ा-बहुत  मैं गरीबों को भी  दान करता  हूँ ', यही वह मानसिकता है जो आत्म-सन्तुष्टि  और अहंकार को तृप्ति देती है।  इसीलिये तो इन दिनों सभी प्रकार की समाज-सेवा के कार्यों , यहाँ तक पुराने कपड़े के  चीथड़ों का वितरण भी उनमें शामिल है , का इतना अधिक प्रचार समाचार पत्र , रेडिओ, टेलीविजन आदि में दिखाई देता है।  स्वामी जी ने कभी इस प्रकार की समाज-सेवा करना नहीं सिखाया है। यदि विवेकानन्द ने भी इसी प्रकार की दिखावटी समाज-सेवा करने का उपदेश दिया होता, तो लोगों ने उन्हें अपनी स्मृति में इतना  तरो-ताजा  नहीं रखा होता और आज भी उनको इतनी श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के साथ स्मरण नहीं किया जाता। 

          कई लोग  इस धरती पर पैदा हुए हैं ,  जिन्होंने उपरोक्त विवरण के अनुसार ही समाजसेवीयों  के लिये योजनायें  बनाई हैं , और उन्हें इस कार्य में सफलता भी प्राप्त हुई है ! किन्तु मानव-स्मृति में इतने दीर्घकाल तक बने रहने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हो सका है। इस जगत में अब तक जितने भी अग्रणी मार्गदर्शक नेता, पूजनीय विभूतियाँ जैसे  राम, कृष्ण ,बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, चैतन्य , श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि हुए हैं , उन्हें सम्पूर्ण मानवता आज भी इसीलिये याद करती है कि उनमें से प्रत्येक ने समाज को ऐसे अमूल्य विचार दिये हैं, जो मानवजाति के लिये सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुई हैं, तथा युग-युगान्तर से मनुष्य उसका सच्चा लाभ उठाता आ रहा है। हालाँकि उनमें से कइयों ने स्वयं  अपने नाम के साथ , कोई नया सम्प्रदाय या धर्म खड़ा नहीं किया है। प्रत्येक मनुष्य सकारात्मक जीवनदायी विचारों के माध्यम से अपना पूर्ण उत्थान एवं पूर्णत्व की ओर अग्रसर होना चाहता है , तथा जिन मनुष्यों के पास इन विचारों का अभाव है वे इन  महान विभूतियों के जीवन और सन्देशों से  प्रेरणा प्राप्त  करते हैं। 

[**वह नियत कर्म (Task) क्या है , जिसे पूर्ण करने का बीड़ा महामण्डल ने उठा लिया है ? What is the Task which, Mahamandal has chosen to perform ? ]

         महामण्डल ऐसा कोई दावा नहीं करता कि वह समाज की समस्त आवश्यकताओं पूर्ण कर देगा। किन्तु आज के युवाओं के पास उन विचारों का (गीता , उपनिषद के महावाक्यों में समाहित विचारों का) अभाव है जो उनके जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिए आवश्यक है ! अक्सर देश के युवाओं को वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति से वैसे बहुमूल्य विचार प्राप्त नहीं होते, जो जीवन-गठन के लिये या पशुता को लाँघकर (transcend करके) 'मनुष्य ' बनने के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। बेशक, आज भी कुछ शिक्षक ऐसे हैं, जो पाठ्यपुस्तकों  के घेरे से बाहर जाकर अपने स्वयं के जीवन की उपलब्धियों और अनुभवों से प्राप्त कुछ अनुकरणीय शिक्षाओं को  छात्रों के समक्ष प्रस्तुत  करते हैं। वे ऐसा इसीलिये करते हैं, ताकि छात्र भी  अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने के आग्रही बन सकें। वर्तमान समय में भी ऐसे कुछ शिक्षकों का अस्तित्व है जिनका अपना जीवन त्याग और सेवा के द्वारा गठित है, जिसके कारण आज भी कुछ युवा देश की वास्तविक  संपत्ति के रूप में विकसित हो रहे हैं।  जब ये थोड़े से युवा भी नहीं होंगे  और सभी (युवा तथा उनके शिक्षक दोनों) राजनितिक यूनियन  के भँवर में फंस जायेंगे,  तो यह वास्तव में राष्ट्र के लिए बहुत  दुर्भाग्य का दिन होगा। इन दिनों  जागरूक अभिभावकों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है। वस्तुस्थिति की गंभीरता को देखते हुए महामण्डल ने इस जरूरत को पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है।इसीलिये महामण्डल के नाम के साथ यदि कोई विशेषण जोड़ना ही हो तो इसे धार्मिक, सांस्कृतिक अथवा समाजसेवी संगठन न कहकर एक शैक्षणिक संस्थान कहना चाहिये।

         अब यदि कोई यह प्रश्न पूछे, कि आदर्श शिक्षा के प्रचार- प्रसार के लिये  क्या महामण्डल भी किसी विशेष मॉडल पर आधारित कुछ विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करना चाहता है ?  तो पुनः इस प्रश्न का उत्तर होगा - नहीं !  बहुत से  संगठन ऐसे हैं जो (बड़े बड़े सन्तों के नाम से) स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना करके शिक्षा प्रदान करने की योजनाओं को लागु करने की कोशिश कर रहे हैं किन्तु वे भी  विफल मनोरथ ही सिद्ध हो रहे हैं। भले ही किसी नई शिक्षा नीति में शिक्षा के पाठ्यक्रम  (कन्टेन्ट)  का चयन बहुत सोच-विचार कर किया जाय; यदि वैसा करना कभी सम्भव हुआ तो भी,  इस तरह की आदर्श शिक्षा प्रदान करने के लिए कोई बनाई गयी कोई भी योजना, विफल होने को बाध्य होगी। क्यों ? 

       क्योंकि उस आदर्श शिक्षा को देने के लिए शिक्षक भी  तो नियोजन कार्यालयों (Employment Exchange) से नाम मंगवाकर ही भरे जायेंगे  या  राजनितिक अनुशंसाओं के बल नौकरी हथिया लेने वाले होंगे, और इस प्रकार यह योजना भी अन्य योजनाओं की तरह कागजों पर ही सिमट कर रह जाएगी। इसीलिये,आज  की जो अवस्था है, उसमें सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थओं,  विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाते रहने से कोई लाभ नहीं होगा।  साथ ही इस प्रयोजन में लगा समस्त श्रम और धन बिना कोई वांछित लाभ पहुँचाये व्यर्थ में ही नष्ट हो जायेगा। 

       इसीलिये महामण्डल भी सही ढंग की शिक्षा प्रदान करने का वैसा ही कार्य करना तो चाहता है, किन्तु सरकारी अनुदान या जनता के पैसों से ऐसे शिक्षण संस्थानों की संख्या  बढ़ाकर नहीं; बल्कि स्वामी जी इस नीति के अनुसार शिक्षा दान करना चाहता है कि- 'If the boy does not come to education, education must go to the boy!' --यदि बालक शिक्षा के पास नहीं आ सकता तो शिक्षा को ही बालक के पास ले जाना होगा।'  इसीलिये महामण्डल का कार्य गाँवों में शहरों में, हर जगह अपने केन्द्रों को प्रसारित करते जाना है। यदि कहीं कोई ऐसा लड़का है जो उनमें से किसी केन्द्र तक भी नहीं पहुँच सकता, तो महामण्डल उनके घरों में उन विचारों की आपूर्ति करने के लिये जायेगा; जिसकी उन्हें बड़ी आवश्यकता है,  जिसके बिना वह सही ढंग से विकसित नहीं हो सकता, जिसके अभाव में वह  शारीरिक और  नैतिक दृष्टि से जीर्ण और दुर्बल हो गया है। जब इस प्रकार के मनुष्य-निर्माणकारी विचार उसे उपलब्ध करा दिये जायेंगे, तो वह भी हर दृष्टि से विकसित हो जायेगा,  और ये शक्तिदायी विचार उसको भी स्वस्थ और सबल बनाकर पुनरुज्जीवित कर देंगे। 

      इन्हीं विचारों को अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं जो त्रिविध शक्तियों के संसाधन (resources) हैं  - शरीर (Hand), मन (Head)और ह्रदय (Heart)। जब इन तीनों तत्वों (3'H') का सुसमन्वित विकास होता से कोई भी व्यक्ति यथार्थ मनुष्य बन जाता है।  यही वह कार्य है  जिसे पूरा करने का बीड़ा महामण्डल ने उठाया है।

           शरीर को स्वस्थ और सबल बनाने के लिये शारीरिक व्यायाम, मन पर नियंत्रण प्राप्त कर उसे एकाग्र और सतेज बनाने के लिये मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करना महामंडल युवाओं के दैनिक दिनचर्या में शामिल किए गए हैं।  शरीर को स्वस्थ और सबल बनाने के लिये शारीरिक व्यायाम, मन पर नियंत्रण प्राप्त कर उसे एकाग्र और सतेज बनाने के लिये मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करना महामंडल युवाओं के दैनिक दिनचर्या में शामिल है। किन्तु यदि हम अपने पूर्ण विकसित बाहुबल और बुद्धिबल को ही अपना एकमात्र सम्बल मान लें , तो हमारे लिए यह कभी सम्भव नहीं होगा कि हम मानव समाज के यथार्थ कल्याण की दिशा में  विशेष प्रगति  कर सकें।  शरीर को स्वस्थ और सबल बनाने के लिये शारीरिक व्यायाम, मन पर नियंत्रण प्राप्त कर उसे एकाग्र और सतेज बनाने के लिये मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करना महामंडल युवाओं के दैनिक दिनचर्या में शामिल है।   किन्तु यदि हम अपने बाहुबल और बुद्धिबल को ही एकमात्र सम्बल मान लें , तो हमारे लिए यह सम्भव नहीं होगा कि  मानव- समाज के कल्याण की दिशा में  विशेष प्रगति  कर सकें।  उसके लिये अन्य शक्तियों के साथ हृदय (3rd 'H' )  को भी जोड़ना होगा।  हृदय की जो सहनुभूतिशीलता है उसका विस्तार करना होगा। [ हृदय के सहानुभूतिशीलता की सीमा को परिवार तक ही नहीं ,अनन्त तक विस्तारित करना होगा। ]  पर कैसे ? ह्रदय को विस्तृत करने की पद्धति क्या है ? 

           समाज-सेवा, उसी हृदय की सहानुभूतिशीलता को विस्तृत करने की पद्धति का एक अंग है। किन्तु यदि हृदय को विस्तृत करने का उपाय के रूप में समाज-सेवा करनी हो, तो वह अपनी दानशीलता का प्रदर्शन करने के मनोभाव को रखते हुए नहीं की जानी चाहिये।  अतः हमें श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हुए सेवा करनी चाहिए (भोजन पकाना और परोसना चाहिये)। सेवा करते समय ऐसी भावना करनी होगी, ऐसा सोचने का अभ्यास करना होगा -  मानो प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक मनुष्य का शरीर सच्चे अर्थों में एक मंदिर है-' देहो देवालय प्रोक्तः '।  उस देह-मंदिर में विराजित देवता (ठाकुरदेव) बड़े कष्ट में हैं, दुःख भोग रहे हैं-  उनकी वास्तविक दिव्यता अभिव्यक्त नहीं हो पा रही है। इसीलिए, जिस प्रकार हम एक मन्दिर को  धो-पोंछ कर स्वच्छ और पवित्र बनाते हैं, चन्दन घिसकर लेप चढ़ाते हैं, फूल तोड़ते हैं, एवं अपने इष्टदेव की दिव्य-उपस्थित का अनुभव करते हुए उनके विग्रह और मंदिर को सुगन्धित पुष्प और धुप-चन्दन आदि से सजा कर मनोहारी बना देते हैं। समाज-सेवा भी ठीक उसी तरह पवित्रता और ईमानदारी की भावना ( प्रभु को कहीं कष्ट न हो) के साथ करनी होगी। दुःख कष्ट में पड़े हुए मनुष्यों के भीतर  पहले से ही जो दिव्यता अन्तर्निहित है, उसे अभिव्यक्त करने में सहायता पहुँचाने की चेष्टा भी  ठीक वैसी ही श्रद्धा, ध्यान , पवित्रता और प्रेम के मनोभाव के साथ करनी होगी -- जैसी आमतौर से हमलोग  मन्दिर में देवी-देवताओं के विग्रह के प्रति रखते हैं

           इसीलिये महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में जो सेवा कार्य चलाये जा रहे हैं, उनका मूल्यांकन केवल सेवा कार्य की मात्रा, आर्थिक व्यय की कुल राशि , एवं बाहरी तड़क-भड़क या दिखावा के आधार पर करना उचित नहीं होगा। महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों द्वारा सम्पन्न इस प्रकार के समाज-सेवा का उचित मूल्यांकन तो केवल, उसके कार्य-कर्ताओं के उद्देश्य, उनकी 'देह-देवालय ' के अनुभूति की गहराई  जो उन्हें क्रमशः आध्यात्मिक रूप उन्नत बना देगी, उस कार्य में संलग्न ऐसे कर्मियों की संख्या से ही निर्धारित की जा सकती हैशरीर, मन और हृदय की  सर्वोच्च उत्कृष्टता (Highest Excellence of 3H) के लिये निरन्तर प्रयास के माध्यम से  अर्जित  बहुमुखी विकास और अपने वास्तविक अस्तित्व का अनावरण ही  सच्ची शिक्षा का सार है , और उसी को सच्चा धर्म या आध्यात्मिकता कहते हैं। 

      इस आध्यात्मिकता का सम्बन्ध हमारी दुनिया (इहलोक) से भिन्न कोई दूसरी दुनिया (परलोक), या केवल मृत्यु के बाद की दुनिया से नहीं होता। अपने दैनन्दिन जीवन में वास्तविक धर्म या सच्ची आध्यात्मिकता को अभिव्यक्त करने का प्रयास करके विचारशील और ईमानदार सत्यखोजी मनुष्यों ने प्रत्येक युग में परम् सत्य तक पहुँचने के कुछ स्पष्ट मार्गों को आविष्कृत कर लिया है; और कालान्तर में (आगे चलकर) ये स्पष्ट मार्ग ही परम्परागत प्रशिक्षण-पद्धति बन गये हैं। धर्म के इन्हीं सुस्पष्ट मार्गों को योग भी भी कहा जाता है। हमारे शास्त्रों में जिन चार प्रमुख योगों का उल्लेख किया गया है, वे हैं - ज्ञानयोग , राजयोग , भक्तियोग और कर्मयोग। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "धर्म का अर्थ है-  इन चारों योगों में से कोई एक या एकाधिक अथवा सभी योग मार्गों का अवलम्बन करके अपनी अन्तःप्रकृति और बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेना।" स्वामीजी ने  यह भी कहा है कि जब हमारी आन्तरिक शक्ति पूर्णतया हमारे नियंत्रण में आ जाती हैं, तो बाह्य प्रकृति के ऊपर नियंत्रण पाना सहज हो जाता है।  उनके मतानुसार सबसे प्रभावी और उत्तम मार्ग, इन चारो योगों का सुसंगत सामंजस्य कर उन्हें संघटित कर लेने से प्राप्त होता है। जो व्यक्ति आत्मविकास के इन चारो योगों की सम्मिलित प्रणाली को अपनाता है, उसे चारों योगों के अलग-अलग फल एक साथ प्राप्त हो जाते हैं, और सभी दिशाओं में उसका विकास एक साथ साधित हो जाता है।

        संक्षेप में कहा जाय तो 'ज्ञानयोग' विवेक-प्रयोग करने का मार्ग है। यह पथ मनुष्य को निरंतर विवेक-विचार करते हुए बुराई से अच्छाई को, निरंतर बदलने वाली 'प्रकृति' से अपरिवर्तनीय 'पुरुष' को,अनित्य से नित्य वस्तु को, नश्वर से अविनाशी को , पृथक करते रहने का आदेश देता है। और इस प्रकार विवेक-प्रयोग करते हुए निर्णय लेने से मनुष्य , जो वस्तु शाश्वत और वास्तविक है -उस परम् सत्य (ब्रह्म) की अनुभूति प्राप्त कर सकता है।

         एक 'राजयोगी' मानसिक शक्ति के ऊपर सर्वाधिक जोर देता है। उसके लिये मन ही सब कुछ है, उसका दावा है कि मन की अतिरिक्त चंचलता को शांत कर मन की शक्ति को पूर्णतया आत्म-नियंत्रण में रखने से, सत्य स्वयं को उद्घाटित कर देता है। सत्य का साक्षात्कार करने के लिये यही उसकी साधना का पथ है। 

              एक 'भक्ति-मार्गी' को यही ठीक लगता है कि विचित्र प्रकार के आसन लगाकर शरीर को कष्ट देने, मन-बुद्धि को नियंत्रित करने, नाक दबाकर प्राणायाम आदि का अभ्यास करने, अथवा किसी प्रकार के आत्मसंयम और वैराग्य के पचड़े में पड़ने  की कोई जरूरत नहीं है। यदि कोई अद्भुत -करतब करना ही हो, तो मैं ह्रदय को विस्तृत करने का व्यायाम या करतब करना अधिक पसंद करूँगा।  मैं अपना हृदय खोलकर उसमें अपने प्रियतम, परम् पिता परमात्मा या ईश्वर को धारण करूँगा। उसके मन में यह दृढ़विश्वास होता है कि, उन्हें (अपने इष्टदेव श्री रामकृष्ण या माँ काली को) मैं चाहे जिस नाम से या जिस भाव से क्यों न पुकारूँ, यहाँ- मेरे 'हृदय' में कोई परम सत्य वस्तु अवश्य है, जिसका मूलतत्व प्रेम है- जो स्वयं प्रेमस्वरूप हैं ! 

          यदि मेरे हृदय गुहा में कोई ऐसी सत्ता नहीं होती - जो प्रेम से परिपूर्ण है, जिसका स्वभाव ही प्रेम है और जो स्वयं प्रेमरस-स्वरुप है , तो मेरे भीतर प्रेम का वह सागर कैसे हिलोरे मारने लगता है, जो अपने-पराये के संकीर्ण घेरे में बद्ध होकर किसी भी प्रकार अवरुद्ध होने से इन्कार कर देता है, वह प्रचण्ड शक्ति कहाँ से आती है जो बन्द हृदय-कपाट को तोड़कर, सर्वत्र सबको अपने आलिंगन में बाँध लेना चाहती है ? ये , 'वही' हैं - जिन्हें कोई अल्ला कहता है , तो कोई भगवान, कोई उन्हें ही शिव या काली (श्रीरामकृष्ण) कहता है। कुछ लोग अपनी कल्पना में उन्हीं को भगवान मानकर स्वर्ग में सिंहासन पर आसीन देखते हैं। { श्री रामकृष्ण एक बड़े तालाब का उदाहरण देते हुए कहते थे "जिस प्रकार 'घाट-भेद' के अनुसार एक ही जल को कोई 'वारि' कहता है और कोई 'पानी', कोई 'वाटर' कहता है तो कोई 'एक्वा', उसी प्रकार 'देश-भेद' के अनुसार एक ही (प्रेमवारी सदृश) सच्चिदानन्द को  कोई 'हरि' कहता है तो कोई 'अल्लाह', कोई 'गॉड' कहता है तो कोई 'ब्रह्म'। }  

        जो व्यक्ति (मातृभक्त - या माँ जगदम्बा का भक्त) भक्तियोग का अभ्यास करता है, वह कहता है- " मैं तो , निरंतर विवेक-प्रयोग , मन को नियंत्रण में रखने के प्रयास द्वारा, या आत्मसंयम की तपस्या  के द्वारा सत्य का साक्षात्कार करने के बजाय, प्रेम के माध्यम से सत्य की खोज करूँगा ; और अपने सीमाबद्ध प्रेम (limited love) या व्यष्टि अहं को पूर्णतया उस ईश्वर में लीन कर दूँगा- जो स्वयं प्रेम के मूर्तमान विग्रह (Love- personified) हैं ! और इस प्रकार मैं सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति कर लूँगा। - 'By offering love, I will myself become all.'--सम्पूर्ण जगत के प्रति अपना प्रेम समर्पित करके, मैं स्वयं ही जगत-स्वरूप बन जाऊँगा ! "

      दादा, जो स्वयं प्रेम के मूर्तमान विग्रह (Love- personified) हैं ! सुनाते हुए भावुक हो जाते थे कि मैं भी अपने संकीर्ण प्रेम या व्यष्टि अहं को जगतजननी माँ सारदा देवी के उस मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '- बोध रूपांतरित कर दूँगा " ठंढ के दिन में पाचक महाराज से कुत्ता छू गया , तो वे रात्रि में गंगा स्नान करने जा रहे थे, माँ ने कहा तुम मुझे छूलो , तुम्हें गंगा स्नान नहीं करना पड़ेगा !  

       किन्तु 'कर्म-योगी' को उपरोक्त कोई भी मार्ग पसंद नहीं है। उसके मतानुसार, निरन्तर विवेक-प्रयोग करते रहने या भावुकता के आवेग में  हृदय को खोल कर भगवान के आगमन की प्रतीक्षा में निष्क्रिय होकर बैठे रहना बिल्कुल उचित नहीं है। वास्तव में हमलोगों के भीतर जो कार्य करने शक्ति है,या जो ' the power to move ' है, - अर्थात 'स्थान-परिवर्तन करने' की शक्ति है, उसका अपने-आप में एक विशेष महत्व है। कार्य करने की इस शक्ति का प्रयोग करके, या इस कर्मशक्ति का इस्तेमाल करके  हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं, तथा जीवन की परिपूर्णता भी अर्जित कर सकते हैं। 

           परिपूर्णता की खोज में कर्मयोगी जब अपनी पद्धति के अनुसार कर्म करता है, तब उसे कर्म करते करते यह उपलब्धि हो जाती है कि सच्चा आनन्द तो केवल तभी प्राप्त होता है, जब किसी कार्य को वह अपने व्यक्तिगत सुख या निजी भोग-विलास के लिए नहीं कर रहा होता है।  गीता में कर्म-योग के फल का स्मरण कराते हुए, श्रीकृष्ण कहते हैं- " केवल दूसरों के कल्याण की इच्छा से किया गया कर्म (निःस्वार्थ कर्म), किसी सतर्क कर्मयोगी को ज्ञानयोग का ही फल प्रदान करता है। " कोई पूर्णतः निःस्वार्थ कर्मयोगी जब अपने क्षुद्र स्वार्थों को त्याग कर, दूसरों के कल्याण के लिये अपने प्राणों को भी न्योछावर कर देने के लिये तत्पर हो जाता है, तब जिस सत्य की अनुभूति एक ज्ञानयोगी को निरंतर विवेक-प्रयोग के अभ्यास द्वारा होती है, उसे भी उसी परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य ) की अनुभूति होती है। क्योंकि वह कर्मयोगी भी , ज्ञानयोगी की ही तरह यह उपलब्धि करता है कि 'वह' और 'दूसरे लोग' भिन्न-भिन्न (अलग) नहीं हैं। इस एकात्मता (identity-विशुद्ध अस्मिता ?) के प्रति उसकी जागरूकता (inner awareness-आन्तरिक अनुभव) उस सत्य के साथ पूर्ण सामंजस्य के अनुरूप होती है, जिसकी खोज कोई प्रेमी (भक्त) भगवान के प्रति प्रेम (भक्ति) के माध्यम से करता है , ज्ञानी या विवेक-प्रयोग करने वाला व्यक्ति जिसे अपनी विबेधन-क्षमता (discrimnation-प्रज्ञा) के द्वारा आविष्कृत करता है , और कोई योगी (राजयोगी) जिस सत्य की खोज मनोनिग्रह (अर्थात चित्त- वृत्तियों का निरोध) के द्वारा करता है। {** उसे : सावधानी के साथ निःस्वार्थ कर्म करते करते किसी कर्मयोगी को) उसे अपना अन्तिम और सबसे महान् अन्तर्ज्ञान इस आन्तरिक अनुभव के रूप में प्राप्त होता है कि एक ऐसा तत्त्व है जो उसका वास्तविक एवं मूलभूत स्वरूप है, और जो मन से भी उतना ही श्रेष्ठ (सूक्ष्म) है जितना मन स्थूल शरीर से सूक्ष्म है। A last and greatest intuition is an inner awareness of something which he more essentially is, something as high above mind as mind is above the physical life and body.

           स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार सबसे 'आदर्श मनुष्य' (Ideal Man) वही है जो अपने दैनन्दिन जीवन में " Four Principal-methods of seeking truth and attaining it " परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य या ईश्वर) की खोज और उसकी उपलब्धि करने के चारों प्रमुख मार्गों " - का समान रूप से और उचित ढंग से प्रयोग करने में समर्थ होता है, और हर सम्भव तरिके से 'परम सत्य का आस्वादन' करता है। श्रीरामकृष्ण देव भी यही कहते थे कि-" किसी खाद्य पदार्थ ( जैसे मछली) का स्वाद मुझे हमेशा केवल एक ही तरीके से क्यों लेना चाहिये ? जबकि उसी मछली को तो कितने ही प्रकार से (सूखा या रसदार) तैयार किया जा सकता है। " 

       जब हमलोग महामण्डल के सीमित परिसर  के अनुशासन में, अपनी सीमित क्षमता के साथ ['स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर नेतृत्व (C-IN-C) प्रशिक्षण-परम्परा 'Be and Make' में '3H-विकास के 5 अभ्यास' के साथ के साथ] ज्ञान -यानि सत-असत विभेदन-क्षमता (discrimination), मनोनिग्रह -अर्थात चित्तवृत्ति निरोध , अपने -पराये के बीच अभेदकर-प्रेम indiscriminate love) और निःस्वार्थ कर्म (selfless work) करने पद्धति के बीच समन्वय स्थापित करने के लिए, सदैव प्रयत्न-शील रहेंगे, केवल तभी हमारा बहुमुखी (all-round) और पूर्ण विकास साधित हो सकेगा। 

           सम्भव है कि हमलोगों के हृदय में मानवता (या देशवासियों) के प्रति प्रेम अंकुरित हो कर उमड़ने लग जाय, हो सकता है कि हमलोगों के हृदय में सहानुभूतिशीलता भी जाग्रत हो जाये ; किन्तु हमलोग यदि  शारीरिक दृष्टि से भी सबल और स्वस्थ नहीं हों, तो हम उनके दुःख-कष्ट को दूर करने के लिए 'परिश्रम की पराकाष्ठा ' कैसे कर पायेंगे

        उसी प्रकार उसी प्रकार हमलोगों ने यदि उन्नत किस्म की समाजसेवा करके मन  की एकाग्रता शक्ति (power of concentration ) को अर्जित किये बिना ही,  दूसरों के कष्ट दूर करने के लिए समाज सेवा के (शिक्षा-चिकित्सा, अन्नदान ,वस्त्रदान आदि) विभिन्न कार्यों में नियुक्त हो जाएँ ,और कार्य-निर्वहन/सम्पादन के समय हमारा मन यदि बहक जाये या अशान्त हो जाये, तब हमारी बुद्धि  स्पष्ट रूप यह नहीं सोंच पायेगी कि हमें उपयोग की दृष्टि से नहीं , पूजा की दृष्टि से देखकर जनताजनार्दन की सेवा करनी चाहिए। और जब हम यह भूल जायेंगे प्रत्येक शरीर (M/F नहीं ) एक देवालय है, तो हम पूरे मनोयोग से सेवा भी नहीं कर पायेंगे और अन्ततोगत्वा वह समाज-सेवा फलदायी नहीं होगी। [और बदनामी ही हाँथ लगेगी।] 

किन्तु  वह ज्ञान-चर्चा इतनी विशद भी नहीं होनी चाहिये कि  हमलोग किसी 'सच्चे वेदान्ती ' के जैसा  तर्क द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा करने लगें - 'गंगाजल और नाले के जल' में  कोई अंतर नहीं है; अपने पाठचक्र में इस तरह की दुरूह -चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है। 

         हमलोग अपनी विवेक-प्रयोग की क्षमता (capacity for discrimination) को बिल्कुल सरल तरीके से विकसित करने का प्रयास कर सकते हैं। जैसे विवेक-प्रयोग क्षमता को बढ़ाने के लिये हमलोग  श्रीरामकृष्ण देव, स्वामी विवेकानन्द और माँ सारदा देवी के महान जीवन और शिक्षाओं  का अध्यन  तथा उन पर चिंतन-मनन ( या श्रवण, मनन और निदिध्यासन ) कर सकते हैं । उनके महान जीवन और सन्देश पर निरंतर चर्चा  ( cultivation, बोआई-निराई की कृषिकाज )  करते रहने से विवेक-प्रयोग करने की शक्ति तथा सही और गलत, सत्य और मिथ्या, अच्छा और बुरा के बीच निर्णय करने की क्षमता स्वतः जाग्रत हो जाती है। मानसिक संतुलन और प्रशांति के अभाव में (नारद का मायादर्शन द्वारा प्राप्त दिमागी संतुलन और प्रशान्ति के अभाव में ) हमलोग अक्सर गलत निर्णय कर बैठते हैं । और जनता-जनार्दन के प्रति वह प्रेम जो हमारे हृदय में उमड़ता है कभी कार्यान्वित नहीं हो सकता या धरातल पर नहीं उतर सकता , जब तक हम उसे सर्वमंगल की प्रार्थना तथा  मनःसंयोग के  नियमित अभ्यास द्वारा  सुनिश्चित नहीं कर लेते। यदि मनुष्य के तीनों प्रमुख अवयव - '3H' के सुसामंजस्यपूर्ण विकास में से एक भी पहलु के दुर्बल रह गया तो हमलोग यथार्थ मनुष्य नहीं बन सकते हैं। 

            और अपने हृदय को विकसित करने के लिए , या दूसरों के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में अनुभव करने के लिए हृदय की सहानुभूतिशीलता को 'stir up ' या प्रदीप्त करते रहना आवश्यक है। अथवा यूँ कहें कि अपनी भक्ति-भावना,  जो कि ' love extended universally ' विश्वव्यापी प्रेम के सिवा और कुछ नहीं है , को संवर्धित करने (stimulate) के लिये अपने-पराये के बीच भेदबुद्धि को मिटाने का निरंतर प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। विवेक-प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि करने के लिये  ठाकुर, माँ और स्वामी जी के महान जीवन और शिक्षाओं  पर चिंतन-मनन ( study and cultivation या श्रवण, मनन और निदिध्यासन ) का  पहले जो परामर्श दिया गया था , उससे भी अपने हृदय को अनन्त तक विकसित करने में बहुत अधिक सहायता प्राप्त होती है। 'Holy trinity' (ठाकुर, माँ और स्वामी जी) का अनुसरण करने का अर्थ है, कि जनताजनार्दन रूपी जो "ब्रह्म पंचभूतों के फन्दे में पड़कर रो रहे हैं"  उनके  दुःख के वास्तविक कारण (अविद्या -अस्मिता, पहचान की भूल ) को खोज कर उसे दूर हटाने के लिये उनकी सच्ची सेवा करना। 

        जब कोई व्यक्ति जनता-जनार्दन के यथार्थ कल्याण में अपने जीवन को न्योछावर  कर देने की उत्प्रेरणा  से उद्बुद्ध होकर, तथा चारों योगों के समन्वय  द्वारा स्वयं को सज्जित करके , 'हृदय और बुद्धि' ( heart and intellect-भक्ति और ज्ञान ), मन की शक्ति तथा उसे कार्यान्वित करने की व्यावहारिक दक्षता या कौशल (practical efficiency-योगः कर्मषु कौशलं') के साथ जनता-जनार्दन की सेवा करने के लिए  उठ खड़ा होता है, तो उस विज्ञानी [technocrat या science-specialist)] के द्वारा की गयी समाज-सेवा की गुणवत्ता साधारण समाज-सेवियों द्वारा की गयी समाज-सेवा की गुणवत्ता से थोड़ी अलग या उत्कृष्ट -स्तर की तो होती ही है!  

        महामण्डल विगत 52 वर्षों से अपने विभिन्न केन्द्रों (३१५ से अधिक) के द्वारा इसी प्रकार के सुयोग्य, स्वस्थ, बलवान, अन्तर्विचारशील और सहानुभूतिशीलता सम्पन्न (विज्ञानी-ब्रहविद) मनुष्यों का निर्माण करने के कार्य में लगा हुआ है। [ महामण्डल (C-IN-C) नवनीदा जैसे 'technocrat या science-specialist' मनुष्यों/ जीवनमुक्त शिक्षकों/ नेताओं का निर्माण करने के कार्य में विगत 52 वर्षों से लगा हुआ है।]  भारत के भिन्न -भिन्न गाँवों और शहरों में इस प्रकार निर्मित प्रत्येक युवा व्यक्तिगत रूप से तथा परस्पर मिल-जुल कर (all in unison-युवा प्रशिक्षण शिविर में सभी शिविर अधिकारी एक साथ मिलकर)  स्वामी विवेकानन्द की जीवनप्रद (life -giving अर्थात मुर्दे में भी जान डाल देने वाली)  शिक्षाओं को व्यवहारिक रूप देने के इस कार्य में जी-जान से लगे रहते हैं। 

            महामण्डल की दृष्टि में, चारों योगों के समन्वय द्वारा मनुष्य में निहित पशु-प्रवृत्ति का अतिक्रमण (transcend) करके उन्नत मनुष्य या पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त (full manhood- जीवित अवस्था में ही एकबार मर कर पुनरुज्जीवित या पुनर्जागृत, निर्विकल्प समाधि से वियुत्थान प्राप्त , ब्रह्मविद,  भ्रममुक्त अवस्था प्राप्त,  विज्ञान -विशेषज्ञ, अर्थात science-specialist या technocrat) 'मनुष्य' के निर्माण का यही उपाय है। यही वह मार्ग है, जिस पर " with resolve to build a better society of better men  उन्नततर मनुष्यों  का उन्नततर समाज बनाने का दृढ़ संकल्प " लेकर महामण्डल विगत 53 वर्षों से चलते हुए, - साधारण प्रचलित अर्थों में धार्मिक, सांस्कृतिक, समाज-सेवी या शैक्षणिक संस्थान बने बिना, सच्चा धर्म, सच्ची संस्कृति, सच्चा समाज-कल्याण और सच्ची शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य करता चला आ रहा है। और 'एक नया युवा आन्दोलन' का रूप देकर जिसे सम्पूर्ण भारत में फैला देना अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के भावी  नेताओं का नियत कार्य (task) है!

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 মহামন্ডলের চিন্তা ও কাজ 

          মাহামণ্ডল  কি ধরনের প্রতিষ্ঠান ? ধর্মীয় প্রতিষ্ঠান , সাংস্কৃতিক প্রতিষ্ঠান , সমাজসেবা প্রতিষ্ঠান , নাকি কোন শিক্ষা প্রতিষ্ঠান ? স্বামী বিবেকানন্দ সন্ন্যাসী ছিলেন , ধর্ম প্রচার করেছিলেন কাজেই মহামণ্ডল ধর্মের কিছু ব্যাপার এমন মনে হতে পারে। এই ' ধর্মের কিছু ব্যাপার ' মনে করে যদি কেউ প্রশ্ন করেন , মহামণ্ডল ধর্মীয় প্রতিষ্ঠান কিনা , তবে বলতে হয় -'না'।  তবে ধর্মের যেটা সার কথা , ধর্ম বলতে আসলে যেটা বোঝায় , সেটা যদি উল্লিখিত বা নির্দেশিত হয় তা হলে মাহামণ্ডল অবশ্যই ধর্ম প্রতিষ্ঠান।  এই ধর্মটা কিন্তু কোন সঙ্কীর্ণ ধর্ম নয় - শুধু হিন্দুর ধর্ম - হিন্দুদের মধ্যে বৈষ্ণব , শাক্ত , শৈব কিংবা মুসলমানের ধর্ম , বৌদ্ধদের ধর্ম, খ্রীষ্টানদের ধর্ম - এরকম নয় আদৌ।     

কারন , শ্রীরামকৃষ্ণ -বিবেকানন্দ কোন বিশেষ ধর্মের নন।  তাঁরা সকল ধর্মের মধ্যে সমন্বয় ও সহনশীলতার প্রবর্তক। ধর্মের রাজ্যে এই সহনশীলতা প্রথম, তারপর সমন্বয়।  এ ব্যাপারে তাঁরা পৃথিবীর মানুষের চোখ খুলে দিয়েছেন। সহনশীলতার গুরুত্ব আছে।  কারন, দেশ-কাল হিসাবে মানুষের মধ্যে এক এক জায়গায় এক একটা ধর্মের প্রচলন হয়েছে।  কিন্তু, মানুষের একটা ধর্ম আছে , কর্তব্য আছে , আকাঙ্খা , আকুতি আছে জীবনের।  এই আকাঙ্ক্ষার আকুতির প্রাপ্তির যে পথ , তাই ধর্মপথ।  

         এরকম যেখানেই হয় যাদেরই হয় সেখানে তাদের মধ্যে হিন্দু, মুসলমান, খ্রীষ্টান কোন পার্থক্য নেই। এ বিষয়ে স্বামী বিবেকানন্দ বলেছেন অনেক ভাবে।  তাঁর দৃষ্টিতে অন্তঃপ্রকৃতি ও বহিঃপ্রকৃতি - ভেতরের এবং বাইরের -দুটাকে জয় করতে পারলেই ধর্মলাভ। এটা শক্তিদায়ী -যথার্থ শক্তি দেয় , আসল ধর্ম। তাই যা জীবকে পশুস্তর থেকে মনুষ্যস্তরে এবং তারপর দিব্যস্তরে উন্নীত করে তাই ধর্ম। এখানে আলাদা আলাদা ধর্মের কোন স্থান নেই। সব  ক্ষেত্রেই তাই হবে। কারন এর বিপরীত কোন ধর্ম বলে না। প্রত্যেক ধর্মই বলে মনুষ্যের পশুভাবকে খর্ব করতে , ত্যাগ করতে এবং মনুষ্যোচিত গুনগুলিকে বিকাশ করতে। 

       এই রকম ভাবে যে মানুষ ধার্মিক তাঁকেই মনে হবে দেবতা। দেবতা যদি কাল্পনিকই হয় - কল্পনায় ভালো জিনিসটাকেই আমরা রাখি - এমন যেটা ব্যবহারিক জগতে পাওয়া যায় না।  মানুষের যে রূপ , যে চেহারা , যে প্রকৃতি আমরা সাধারণত দেখে থাকি সমাজে , তাতে আমাদের কল্পনা পরিতৃপ্ত হয় না।  তাই, মনুষ্যোচিত গুনগুলির সর্বোচ্চ বিকাশের রূপ আরোপ করি আমরা দেবতার চিন্তায়। তাই , আমরা মানুষকে চাই সেই রকম করে তুলতে। পৃথিবীর প্রত্যেক ধর্মই তাই বলছে।  সেই দিক থেকে আমরা ধর্ম করছি। মন্দির , আনুষ্ঠিকতা , সাধারণভাবে পূজা-অর্চনা -তা করি না মহামন্ডলে।  সেদিক থেকে ইটা ধর্মীয় প্রতিষ্ঠান নয়।  

         আজকাল অনেকের কাছে সংস্কৃতি বলতে সাধারণত নাচ , গান , নাটক , সাধারণ মুখরোচক গল্প-উপন্যাস বা কিছু দুর্বোধ্য ছবি বা কবিতা বোঝায়। এ নিয়ে মহামণ্ডল মাথা ঘামায় না। এ অর্থে মহামণ্ডল অবশ্য একটি সাংস্কৃতিক প্রতিষ্ঠান  নয়। মানুষ যথার্থ সংস্কৃত হলে তার জীবনবোধ ও দৃষ্টিভঙ্গি দুইই বদলে যায় , পরিস্ফুট হয় , উন্নত হয়। মনুষ্যত্ব বিকাশের সঙ্গে সঙ্গে তার একটি সুকুমার বৃত্তি , একটা সৌন্দর্যবোধ জাগ্রত হয়। বস্তুর কার্যকারিতা বা উপযোগ মাত্র আর তাকে সন্তুষ্ট রাখতে পারে না। সব কিছুর মধ্যেই সে সৌন্দর্য অন্বেষণ করে। এই চেষ্টায় অনুশীলনের অভ্যাসবশে তার মনোমুকুর বিশদিভূত হয়। সব কিছুর মধ্যেই সে সৌন্দর্যের উপলব্ধি করবার ক্ষমতা অর্জন করে। ইটা অবশ্যই একটি আধ্যাত্মিক গুন। এভাবে বুঝলে মহামণ্ডল সংস্কৃতি গড়ে তুলতে চায় , তবে কোনক্ষেত্রেই প্রথমোক্ত অর্থে নয়। স্বামী বিবেকানন্দ বিশেষ করে বলেছেন , শিক্ষার সঙ্গে সাধারণ কে সংস্কৃতি দিতে হবে , কারন সংস্কৃতিই নানা ভাবের অতিঘাতকে প্রতিহত করতে পারে -শুধু সাধারণ শিক্ষায় তা হয় না। বরং অনেক সময় বিপরীতই হতে দেখা যায়। ফলে জীবন যাপন ও পারস্পরিক সম্পর্কের মধ্যে একটা মৌল পরিবর্তন আসে - সৌজন্য , সৌহার্দ , প্রীতি , সহানুভূতি অসংস্কৃতিবানের আচরণকে সুন্দরতর  করে।

       একই ভাবে বিশ্লেষণ করলে দেখা যাবে যে মহামণ্ডল প্রচলিত অর্থে কোন সমাজসেবা প্রতিষ্ঠানও নয়। কেন ? সাধারণভাবে সমাজসেবা প্রতিষ্ঠান সমাজের কোন কল্যানমুলক কাজ নেয় - মানুষকে সাহায্য করে নানান ভাবে। গ্রামোন্নয়ন আজকাল একটা সমাজসেবার বিষয় হয়েছে।  আগে ছিল দুঃস্থ মানুষকে সাহায্যদান -নিরন্নকে অন্নদান, রোগীকে ঔষধ , বস্ত্রহীনকে বস্ত্রদান ইত্যাদি। এগুলি ভালো কাজ।  তবে মহামণ্ডল ঠিক এইরকম কাজের জন্যেই নয়। এর জন্যে আন্তর্জাতিক , জাতীয় এবং স্থানীয় স্তরে অসংখ্য প্রতিষ্ঠান আছে সারা পৃথিবীতে। এদের সাহায্য করে জাতীয় সরকার , আন্তর্জাতিক বিভিন্ন সংস্থা এবং জনসাধারণ, যাদের টাকা আছে। এই রকমের আরো একটি কি সার্থকতা থাকতে পারে ? 

      তবুও মাহামন্ডলে সমাজসেবার স্থান আছে।  সেই সমাজসেবা একটু বিশেষ ধরনের - উন্নত বললে ভুল হবে না। কারন , এই সমাজসেবার পরিকল্পনা দিয়েছিলেন স্বামী বিবেকানন্দ নিজে।  মূর্খ দরিদ্রদের সেবা স্বামীজী শিখিয়েছেন। নিরন্নকে অন্ন , বস্ত্রহীনকে বস্ত্র , রোগীকে ঔষধ দেবার মতো সেবাকাজ স্বামীজীর নির্দেশিত কাজের মধ্যেই পরে।  তবে তিনি বিশেষ জোর দিয়েছিলেন যে কাজের ওপর সেটা হল মানুষকে ভাল ভাব দেওয়া - এমন ভাব যাতে মানুষ নিজেকে উন্নত করতে পারে। সমাজে সংসারে অনেকের সে রকম উন্নত হবার উপযোগী ভাব নেই।  তাঁরা অভাবী সত্যিসত্যিই। শুধু টাকা নেই যার , পেটে খেতে পায় না যে সে-ই অভাবী নয়।  অ-ভাবী অর্থাৎ ভাবের ঘাটতি , অপ্রতুলতা যার সেও অভাবী।  স্বামীজীর চিন্তায় এই অভাবীকে সেবা করাই সব থেকে বড় সমাজসেবা। মাহামণ্ডল স্বামীজী প্রদর্শিত সেই উন্নত ধরনের সমাজসেবার জন্যেই বিশেষভাবে সচেষ্ট।  অন্য ধরনের ব্যক্তিগত সমষ্টিগত কোন আকাঙ্ক্ষা পূরণ -যেখানে অনেক সময় দানশীলতায় আত্মতৃপ্তিটাই বড় হয়ে দেখা দেয় - মহামন্ডলের উদ্দেশ্য নয়।

      আজকাল সে ধরনের সমাজসেবা হচ্ছে।  আত্মতৃপ্তি , অহংকার -পরিতোষ হচ্ছে , অভাবীকে আমি দিচ্ছি , আমার কিছু আছে -এই বোধ থেকে। তাই যত সব সেবা কাজের - কম্বল দান পর্যন্ত - খবরের কাগজ , টেলিভিশন ইত্যাদিতে প্রচারের এত হিড়িক। স্বামীজী কিন্তু এই রকমটি সেখান নি। তা হলে তাঁকে সভ্রম, শ্রদ্ধা , ভালোবাসা দিয়ে আজও মানুষ এইভাবে স্মরণ রাখতো না। ঐরকম সমাজসেবার প্রকল্প নিয়েছেন ও কৃতকার্য হয়েছেন এমন অনেক মানুষ পৃথিবীতে জন্মেছেন। তাঁদের স্মৃতি কিন্তু মানুষের মনে চিরস্থায়ী হয় না।  পৃথিবীতে যাঁরা পথিকৃৎ , জনসাধারণের নেতা , বরেণ্য , তাঁদের মানুষ স্মরণ রাখে এই জন্যে যে সঙ্ঘ সবাই করেছেন তাও নয় - এককভাবেও এমন মূল্যবান ভাব তাঁরা দিয়ে গেছেন -যেমন কৃষ্ণ , বুদ্ধ , খ্রীষ্ট , মহম্মদ , রামকৃষ্ণ - যা যুগে যুগে মানুষের প্রকৃত সেবায় কার্যকরী হয়েছে।  অভাবী মানুষ ভাবের দ্বারা পূর্ণতার দিকে - সমস্ত অভাবের আত্যন্তিক মোচনের দিকে অগ্রসর হবার প্রয়াস পেয়েছে ঐ সকল মানুষের জীবন ও বাণীর প্রেরণায়।  

       মহামণ্ডল সমাজের সকল অভাব মেটাবে এমন দাবী করে না। তবে আমাদের জীবনকে গড়ে তোলবার জন্যে যে ভাবের প্রয়োজন সে সবের অভাব রয়েছে আজকের যুবক ভাইদের মধ্যে।  সাধারণ শিক্ষা-ব্যবস্থা থেকে জীবন গড়ে তোলবার জন্যে প্রয়োজনীয় সেই সকল মহামূল্যবান ভাবসমূহ দেশের যুবকরা প্রায়শঃই পায় না।  অবশ্য কিছু কিছু শিক্ষক মহাশয়রা আছেন যাঁরা পাঠ্যপুস্তকের বাইরে তাঁদের নিজেদের জীবন ও অভিজ্ঞতা থেকে কিছু কিছু শিক্ষা ছাত্রদের কাছে তুলে ধরেন , যাতে ছাত্ররা অনুপ্রাণিত , উদ্বুদ্ধ হয় নিজেদের জীবন যথার্থভাবে গড়বার জন্যে।  এইরকম ত্যাগী , সেবা-মনোভাবাপন্ন শিক্ষক-মহাশয়রা আছেন আজও কিছু কিছু যুবক গড়ে উঠেছে যারা দেশের প্রকৃত সম্পদ।  কিন্তু যখন এই স্বল্পসংখ্যক শিক্ষক মহাশয়দেরও আর পাওয়া যাবে না , সকলেই ট্রেড ইউনিয়নের আবর্তে চলে যাবেন , তখন সত্যিই সেটা বড় দুর্দিন দেশের পক্ষে। এইটা উপলব্ধি করেই এই অভাবটা পূরণ ব্রত নিয়েছে মহামণ্ডল। তাই সাধারণ ধর্মীয় , সাংস্কৃতিক বা সমাজ সেবামূলক প্রতিষ্ঠান না বলে যদি নাম একান্তই দিতে হয় , তবে মাহামন্ডল হল একটি শিক্ষা প্রতিষ্ঠান

         এখন যদি জিজ্ঞাসা হয় যে, মহামন্ডলের কাজ কি স্কুল, কলেজ প্রতিষ্ঠা , যেগুলি থেকে বিশেষ ধরনের আদর্শ শিক্ষা সর্বত্র ছড়িয়ে দেওয়া যায় ? উত্তর হল , না। স্কুল , কলেজ বাড়ী তৈরি করে শিক্ষা দেবার পরিকল্পনা অনেকে নিচ্ছেন , কিন্তু তাঁরাও ব্যর্থ হচ্ছেন।  কারন এমপ্লয়মেন্ট এক্সচেঞ্জ অথবা রাজনৈতিক দলের মনোনীত শিক্ষকদেরই যখন নিযুক্ত করতে হয় তাঁদের প্রতিষ্ঠিত বিদ্যালয়ে , মহাবিদ্যালয়ে , তখন যে আদর্শ শিক্ষার পরিকল্পনা নিয়ে তাঁরা করেন সেটা আর ছাত্রদের কাছে পৌঁছায় না।  কাজেই, সরকারি 'গ্রান্ট ' তুলে , স্কুল-কলেজের মাধ্যমে যে শিক্ষার ব্যবস্থা তা আজকের দিনে বাড়িয়ে লাভ নেই , সমস্ত শ্রম , অর্থ ব্যর্থ হবে , এটা উপলব্ধি করেই। সেজন্যে মাহামণ্ডল দালান না তুলে , সরকারি সাহায্য না নিয়ে শিক্ষার কাজই করতে চাইছে , 'বালক যদি শিক্ষার কাছে না আসে , শিক্ষাকেই বালকের কাছে নিয়ে যেতে হবে ' -এই নীতির উপর নির্ভর করে।

       তাই মাহামন্ডলের কাজ হল দিকে দিকে কেন্দ্র ছড়িয়ে দেওয়া -গ্রামে গ্রামে , শহরে শহরে। যে ছেলে এমনকি সেই কেন্দ্রেও আসবে না , মাহামণ্ডল তার বাড়িতে চলে যাবে (??-state level camp.?), সেই ভাব নিয়ে যার অভাবে সেই ছেলে ভুগছে -বেড়ে ওঠতে পারছে না, ছিনেপড়া হয়ে যাচ্ছে দেহে ও মনে - সবল ও সুস্থ হয়ে সব দিক থেকে বাড়তে পারে এই রকমের ভাব যা পেলে মানুষ যথার্থ গড়ে ওঠে সেই ভাব নিয়ে।  স্বামী বিবেকানন্দ পরিষ্কার করে সেটা বুঝিয়ে দিতে গিয়ে বলেছেন , মানুষের ত্রিবিধ শক্তিমুল - 3'H', দেহ (Hand), মন (Head)ও হৃদয় (Heart)- এর সুষম বিকাশ ঘটাতে পারলেই যথার্থ মানুষ হওয়া সম্ভব হয়।  মহামণ্ডল এই কাজটিই করতে সচেষ্ট হয়েছে। দেহকে উন্নত করবার জন্যে দেহচর্চা , মনকে সংযত , একাগ্র , উন্নত করতে   জন্যে মনঃসংযোগের চেষ্টা ইত্যাদি মহামন্ডলের নির্দিষ্ট কাজের মধ্যে পড়ে। কিন্তু দেহ ও মনের শক্তি যদি আমাদের একমাত্র সম্বল হয় তা হলে সেই তহবিল নিয়ে খুব বেশি অগ্রসর হওয়া যাবে না সমাজের মানবিক কল্যাণের দিকে। সেই জন্যে হৃদয় কে এর সঙ্গে যুক্ত করতে হবে।  যে হৃদয় সহানুভূতিসম্পন্ন তাকে বাড়াতে হবে।  এই হৃদয় কে প্রশস্ত করবার উপায় বা পদ্ধতি কি ? 

       সেই পদ্ধতিই হল সমাজসেবা।  কিন্তু, সাধারণ দানশীলতার ভাবে নয়।  আমরা সমাজসেবা করবো খুব শ্রদ্ধার (আস্তিক্যবুদ্ধি) সঙ্গে - প্রত্যেকটি জীব , প্রত্যেকটি মানুষ সত্যি সত্যি দেবালয় এই জ্ঞান করে।  তাঁরা কষ্টে রয়েছেন , অসুবিধায় রয়েছেন তাঁদের সত্যিকারের দেবতা রূপ ফুটছে না।  সেইজন্যে যেমন আমরা দেবালয় সংস্কার করি , জল দিয়ে ধুই , পরিষ্কার করি ,চন্দন বাটি , ফুল তুলি -দেবালয় কে সাজিয়ে সুন্দর করে তুলি - তেমন পবিত্রতার সঙ্গে , আন্তরিক অনুভবের সঙ্গে দুঃস্থ রুগ্ন মানুষ কে সুন্দর করে তার মধ্যেকার দেবতার আবির্ভাবকে সম্ভব করে তুলবো , এই ধরনের আকুতি নিয়েই হবে আমাদের সমাজসেবা। এই জন্যে শুধু বাইরে সমাজসেবার পরিমান বা বাহ্য আড়ম্বরের হিসাবে মাহামন্ডলের শাখায়ে শাখায়ে যে সেবাপ্রকল্প আছে তার যথার্থ বিচার করা ঠিক হবে না।  শুধু সেবার প্রকৃত মনোভাব উদবুদ্ধ হয়ে কতজন সেই প্রচেষ্টার সঙ্গে যুক্ত আছে তার দ্বারাই কাজের হিসাব হবে। 

           এইভাবে দেহ , মন ও হৃদয়ের উৎকর্ষ বিধানের জন্যে বিভিন্ন পদ্ধতিতে সাধনা করে মানুষের সামগ্রিক উন্নতি , বিকাশ -তাকেই বলে ধর্ম বা আধ্যাত্মিকতা। এই আধ্যাত্মিকতা জন্যে জগতের বা তথাকথিত পরলোকের কোন ব্যাপার নয়। এই যে আসল ধর্ম তাকে জীবনে প্রস্ফুটিত করবার প্রচেষ্টায় যুগে যুগে উন্নতিকামী মানুষ যে ঐতিহ্যমন্ডিত পথের সন্ধান পেয়েছেন তাকেই বলা হয় ধর্ম-মার্গ (গৃহস্থ ও সন্ন্যাস ?)। সেগুলিকে যোগও আখ্যা দেওয়া হয়ে থাকে।  এইরকম একটি যোগ শ্রীরামকৃষ্ণ বলতেন , অভ্যাস যোগ। অভ্যাসের দ্বারা (মহামণ্ডল নির্দেশিত ৫অভ্যাস ) আমরা অনেক দূর এগোতে পারি। 

       সাধারণত শাস্ত্রে বড় বড় চারটি যোগের কথা হয় - জ্ঞানযোগ , রাজযোগ, ভক্তিযোগ ও কর্মযোগ।  স্বামী বিবেকানন্দ অনেক সময় বলেছেন যে , 'কোন একটি , একাধিক বা সবগুলি একত্রে অবলম্বন করে আমরা যদি আমাদের অন্তঃপ্রকৃতি ও বহিঃপ্রকৃতি জয় করিতে পারি , তবেই আমাদের যথার্থ ধর্মলাভ হয়। আমাদের ভেতরের শক্তি আত্ম-নিয়ন্ত্রিত হলে বাইরের প্রকৃতির উপর অধিকার বিস্তার সহজ হয় - এও বলছেন স্বামীজী।  তিনি চারটি যোগের সমন্বয় সাধনকেই বলেছেন সব থেকে কার্যকর ও পূর্ণাঙ্গ পথ। সেইভাবে যে মানুষ ওঠেন তাঁর মধ্যে চারটি মার্গেরই আসল যে ফল  তা পরিপূর্ণভাবে বর্তায় ও সমস্ত দিকের বিকাশ (পরাবিদ্যা ও অপরাবিদ্যা ) একসঙ্গে সাধিত হয়।  

              সংক্ষেপে জ্ঞানযোগ হল বিচারের পথ; জ্ঞান প্রয়োগে (বিবেক-প্রয়োগ) সৎ -অসৎ , চিরস্থায়ী , ক্ষণভঙ্গুর - শাশ্বত , নশ্বর -এইভাবে বিচার করে , সমস্ত যা ক্ষণস্থায়ী তার প্রতি মায়া বিসর্জন দিয়ে যা শাশ্বত , সত্য , সনাতন তাকে লাভ করবার পথ। 

            রাজযোগী মানসিক শক্তির ওপর সব থেকে বেশি জোর দেন। মনই সব , (मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।) মনকে দখল করে পূর্ন অধিকারে এনে মনের চঞ্চলতাকে দূরীভূত করতে পারলেই তাঁর কাছে সত্য আবির্ভূত হবে , এই হল তাঁর বিশ্বাস ও সাধনমার্গ।   

         ভক্তিযোগী বলে থাকেন, কাজ নেই জ্ঞান বিচারে , প্রয়োজন নেই প্রাণায়াম করে নাক টিপে কষ্ট পাওয়ার , দরকার নেই  হঠযোগের চেষ্টায় দেহের কসরত করায়।  কসরত যদি করতে হয় তো করবো হৃদয়ের। হৃদয়কে উন্মুক্ত করে খুলে ধরবো ভগবানের দিকে , ঈশ্বর দিকে। যে নামে বা যে ভাবেই ডাকি না কেন , এক পরম সত্য , প্রেমস্বরূপ কিছু আছেন। না থাকলে , আমার ভেতরে প্রেমের এই ছোট কুঁড়িটি কোথা থেকে এল ? যে প্রেম বাঁধ মানে না , যে প্রেম নিজের মধ্যে সীমিত থাকতে পারে না , যে প্রেম চারদিক ছুটে সকলকে আলিঙ্গন করতে চায় , সেটা আমার মধ্যে কি করে এল প্রেমময় , প্রেমস্বরূপ কেউ না থাকলে ? তাঁকেই কেউ আল্লা , ঈশ্বর বলছেন , কেউ বা শিব বলছেন , কেউ আবার কালী বলছেন। কল্পনায় কেউ তাঁকে ভগবান ভেবে স্বর্গ-সিংহাসনে আসীন দেখছেন। ভক্তিযোগী বলছেন যে , বিচারের দ্বারা , মননিয়মন ও কৃচ্ছ সাধনের দ্বারা সত্যলাভের পথ অপেক্ষা ভালবাসার দ্বারা প্রেময়ের  উদ্যেশ্যে সীমিত প্রেম নিঃশেষ করে দিয়ে বিশ্বজগতের সঙ্গে একাত্মতা উপলব্ধির মধ্যে আমার সত্যকে সন্ধান করবো। ভালবাসা দিয়ে প্রেমে আমি পূর্ন হবো।

       এ সকল পথের কোনটাই কর্মযোগীর পছন্দ নয়। বিচার করা অথবা ভাবালু হয়ে হৃদয় খুলে ভগবানের জন্যে বসে থাকবার দরকার নেই। তাঁর মতে আদৌ বসে থাকাটাই উচিত নয়। আমাদের যে কর্মশক্তি , চলশক্তি আছে তার একটা তাৎপর্য আছে। আমাদের জীবনের পরিপূর্নতা , সার্থকতা পেতে পারি এই কর্মশক্তি প্রয়োগের দ্বারা। কর্ম করতে করতে আনন্দের সন্ধান-চেষ্টা করে কর্মযোগী উপলব্ধি করেন যে , তখনই আনন্দ পাওয়া যায় যখন কর্ম সম্পাদন নিজের সুখের বা ভোগের জন্যে হয় না। শ্রীকৃষ্ণ যেমন কর্মযোগের ফল মনে করিয়ে দিয়েছেন গীতায়। পরার্থ কৃত কর্ম কর্মযোগের সাধক কে জ্ঞানের রাজ্যে উন্নীত করে। নিজের সুখের জন্যে , সমৃদ্ধির জন্যে , স্বার্থ বলি দিয়ে , নিজেকে বলি দিয়ে কর্ম করতে করতে কর্মী জ্ঞানযোগীর দ্বারা উপলব্ধ সত্যে পৌঁছে যান। কারন তিনি অনুভব করেন যে, তিনি এবং অন্যজন ভিন্ন নয়।  তাঁর এই একাত্মতা অনুভব -প্রেমী ভগবানের প্রতি প্রেম দিয়ে , জ্ঞানী বা বিচারী  (বিবেক-প্রয়োগি) বিচার দিয়ে , যোগী মনের সংযমের দ্বারা যে সত্য আবিষ্কার করেন তার সঙ্গে অভিন্ন হয়ে যায়। 

          এই যে চারটি ভাব সত্যকে অন্বেষণ করবার এবং পাবার -তা সমস্ত দিকে সমান ও উপযুক্তভাবে যিনি প্রয়োগ করতে পারেন জীবনে এবং সবরকমভাবে পরম সত্যকে আস্বাদন করতে পারেন , তিনিই , স্বামীজী বলছেন , তাঁর কাছে আদর্শ পুরুষ **। শ্রীরামকৃষ্ণ তো বলেছেন , একটা জিনিষ একভাবে খাবো কেন ? যেমন মাছ খাওয়ার কথা বলেছেন। 

       আমরা মহামন্ডলের ক্ষুদ্র পরিসরে , স্বল্প শক্তির মধ্যে , রামকৃষ্ণ-বিবেকানন্দ ভাবধারা ও নির্দেশ [ 'Be and Make ' Leadership Ttraining Tradition ] অনুসারে চেষ্টা করবো জ্ঞানযোগ , মন-নিয়মন , প্রেম ও কর্মের সমন্বয় আনতে। তবেই আমাদের বিকাশ সার্বিক , সম্পূর্ন হবে। মানুষকে ভালবাসতে পারলাম , সহানুভূতি প্রাণে জাগলো।  কিন্তু কর্মক্ষম না হলে দুঃখ মোচনের জন্যে চেষ্টা করতে পারবো না। আবার দুঃখ মোচনের কাজ করতে গিয়ে মন অশান্ত , স্বচ্ছ চিন্তা করতে পারছে না , এ রকম হলে বা মন নিয়মনে দ্বারা একাগ্রতা অর্জন না করলে সেবা করে দুঃখ মোচনের প্রয়াস সার্থক হবে না। যে কোন চিন্তা , বাক্য ও কর্মসম্পাদনের আগে বিচারকে ব্যবহার করে দেখতে হয় ভাল কি মন্দ ? সেই বিচারশক্তি সবল করবার জন্যে প্রয়োজন জ্ঞান-চর্চার। 

         তবে বেদান্ত -জ্ঞানীর মতো নর্মদার জল আর গঙ্গার জল এক , সেইরকম কোন চরম উপলব্ধিতে উপনীত হবার জন্যে জ্ঞানবিচার আমাদের বিষয় নয়।  সহজ পন্থায় পাঠ , রামকৃষ্ণ বিবেকানন্দ জীবন ও বাণীর অধ্যন ও অনুধ্যান।  ক্রমাগত ঐ সমস্ত ভাবসমূহ চর্চার দ্বারা বিবেক, বিচার জাগ্রত হয়। ন্যায়-অন্যায় , সদ -অসৎ ,ভাল-মন্দ সম্পর্কে সিদ্ধান্ত নেবার ক্ষমতা অর্জন করা যায়।  মনঃসংযোগের দ্বারা মনের সাম্য , প্রশান্তি -মনে যা থাকা ছাড়া আমরা বিচারেও অনেক সময় বিভ্রান্ত হই , হৃদয়ে প্রেম উৎসারিত হলেও তাকে কর্মে পরিণত করবার জন্যে সঙ্কল্প করতে পারি না - প্রতিনিয়ত অভ্যাসের মাধ্যমে অর্জন করতে হয়। এবং আমাদের হৃদয়কে প্রসারিত করবার জন্যে যে ভক্তির , যে প্রেমের , যে সহানুভূতির দ্বারা মানুষের দুঃখ অনুভব করেছি তাকে বর্ধিত করবার জন্যে প্রযত্ন করতে হয়।  

           এইভাবে অর্জিত হৃদয়বত্তা , বুদ্ধিশক্তি , মনঃশক্তি ও কর্মশক্তি সম্বল করে মানুষের যথার্থ কল্যানে আত্মনিয়োগ করবার প্রেরণায় যখন সমাজের ভেতর গিয়ে কেউ দাঁড়ান তাঁর কাজ সাধারণ সমাজসেবী মতো হয় না। মহামন্ডল কেন্দ্রে কেন্দ্রে এইরকম উপযুক্ত সুস্থ , সবল , চিন্তাশীল দরদী মানুষ তৈরির কাজ করে চলেছে যারা ব্যক্তিগতভাবে প্রত্যেকে ও যৌথভাবে সকলে গ্রামে গ্রামে শহরে শহরে মহামন্ডলের জীবনপ্রদ ভাবকে কর্মে মূর্ত করে তুলছেন। 

          এই হচ্ছে মহামন্ডলে সমাজসেবার স্থান। এই হচ্ছে মাহামন্ডলের দৃষ্টিভঙ্গিতে চারটি যোগের সমন্বয়ে দেহ,মন ও হৃদয়ের বিকাশের দ্বারা মানুষের পশুত্বকে লাঘব করে মনুষত্বের দিকে এগিয়ে যাবার পথ। এইভাবেই মাহামন্ডল সাধারণ ধর্মীয় , সাংস্কৃতিক , সমাজসেবামূলক ও শিক্ষা প্রতিষ্ঠান না হয়েও ধর্মের সংস্কৃতির, সেবার ও শিক্ষার কাজ করে চলেছে সুন্দরতর সমাজ গড়ে তোলবার সঙ্কল্প নিয়ে। এটাই মহামন্ডলের কাজ।  

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The Idea and the Method of the Mahamandal

  What type of organization is Akhil Bharat Vivekananda yuva Mahamandal ? Is it a religious organization, a cultural , or a social service organization , or an educational institution ?   

       Swami Vivekananda was a monk he preached religion . So, it may appear that the Mahamandal has something religious about it , taking one's cue from this ' something religious ', one asks whether the Mahamandal is a religious institution? the answer will be , 'No'. But , if mention is made of or attention is pointed to , what is the core of religion , what religion really means , then the Mahamandal is, of course , a religious organization .This religion is, however , no religion of an narrow boundary. This is not at all the religion of the Hindus (among the Hindus , of the Vaishnavites, the Shaktas , or of the Shaivites ) alone , nor of the Muslims, or the Buddhists, nor the Christians . 

       This is so, because Ramakrishna or Vivekananda does not belong to any particular (brandeded) religion. They are the founders of the harmony of all religions. Tolerance was altogether absent from the domain of religion--and whether it is still there, is open to doubt .In this respect, they are the eyeopeners of the people of the world . Tolerance is very important. For, taking into account climate and time, different religions have risen among different groups of men. But man has a 'dharma ', duties, aspirations and yearnings in life. And the way to the fulfillment of these aspirations , yearnings is the way of religion. To people to whom this occurs , there is no difference between Hindus, Muslims, or Christians. 

          Swami Vivekananda has dwelt on this matter deeply and elaborately. According to him, one gets to religion only when one conquers one's inner nature and outer nature . This gives strength - real strength - and that is why this is true religion.   

            So, religion is that which lifts to a creature from the level of the brute to that of man, and then from the level of man to that of the divine. There is no room for different religions here. It is the same in all cases , and anything contrary to it is no religion. Every religion prescribes that man should curb and shed his animality and develop his human qualities . Any man who has thus become religious would appear as a God- be he an imaginary God ! In imagination , we retain only that which is prized- such as cannot be had in the day-to-day world

        Our imagination is not gratified with the beauty , the physical features , and the nature of man we usually come across in society. That is why we attribute to our idea of God the infinitely developed forms of human qualities. And so we want to make a God out of man. This is a common strain in every religion of the world. Judged from this angle, The Mahamandal is also practising religion. But as temples, rituals, and worship have no place in the Mahamandal, it is not a religious institution on that account.   

        Nowadays, too many , 'culture' usually means dance, music, drama, stories, novels, or some unintelligible paintings , or poems. The Mahamandal does not bother such an interpretation of culture . In that sense, the Mahamandal is certainly not a cultural institution . If a man is really cultured , he doesn't look at the world the animals do. With the unfoldment of his manhood , there blooms in him a tender faculty for appreciation of beauty. The practical usefulness of a thing does not itself satisfy him. He looks for inner beauty in things .By such constant striving the mirror of his mind becomes clear. And he acquires the capacity to find beauty in the world, in nature , in things , in thought, and in all living creatures. This is indeed a spiritual quality. If understood in this way, the Mahamandal is surely for culture , but in no way is it so according to the common connotation of culture as above .

        An analysis in the same way will reveal that the Mahamandal is not even a social service organization with the common connotation. Why ? A social service organization generally undertake some welfare activities in the society -it renders assistance to people in various ways. Nowadays, rural development has become an item of social service . Normally , assistance is rendered to the destitute--food to the hungry , medicines to the ailing , clothes to the unclad, and so on and so forth. 

        These are good works. But the Mahamandal is not just for such types of work. For this kind of work, there is a multitude of organizations at local, national , and international levels all over the world. They are patronized by the national governments, various international agencies , and also the general public. What special justification can there be to have one more organization of this type ?

           But there is still a place for social service in the Mahamandal. This social service is, however, of special type; and it would not be wrong if we call it one of higher type . This is so , because Vivekananda himself had developed the idea. Service to the ignorant and the poor was taught by Swamiji . Service through providing food to the unfed, clothes to the unclear, medicine to the ailing, was no doubt suggested by Swamiji. 

        But the work on which he laid special emphasis is providing good ideas to the people; ideas that help man grow to become better individalas . In our families and societies, there are many who go without such ideas as make life better. They are really poor. Poor are not only those who have no money and cannot make both and ends meet. One who suffers from want or inadequacy of good ideas is also poor. According to Swamiji , to serve such poor people is the highest of all kinds of social service . The Mahamandal particularly addresses itself to the higher type of social service as pointed out by Swamiji. 

         The Mahamandal does not have for its object fulfilment of an individual or collective desire , where , not un-often , gratification of the ego becomes the main urge for practising generosity. Nowadays, very often social service springs from such a mentality . I have something and I give something to the poor- this is the mentality which gives self-satisfaction and ego-gratification. That is why there is so much of publicity in newspapers, radio, television, etc. for all types of social service activities; including even distribution of rugs ! That is not , of course , what Swamiji taught . Had it been so, people would not have kept him so fresh in their memory with the veneration, respect , and love that he commands even today. Many have been born on this earth who have drawn up schemes for social service of the above description , and success has also been theirs. But they do not live long in human memory. 

          Pioneers among men . Leaders of races, venerated personalities like krishna, Buddha, Christ, Mohammad, Chaitanya, Ramakrishna are remembered by mankind for the fact that each of them has given to the world such invaluable ideas as have proved to be most effective for the real benefit of man through ages, through all of them did not found new sects themselves**. For progress towards perfection, towards complete elimination of all wants through positive ideas, men who lack them have drawn inspiration from the lives and precepts of theses great souls.  

          The Mahamandal does not claim that it will meet all the needs of society. But the youth of today don't have ideas that are necessary for building up their lives. More often than not, the youths of the country do not get from the existing system of education those invaluable ideas necessary for life-building. Of course, there are some teachers who , beyond the pale of textbooks, hold before their pupils some lessons from their own lives and experiences. This they do, so that the students may feel inspired and impelled to build their lives properly. It is due to the existence of a few such teachers with the spirit of renunciation and service that even today some youths are growing as the real wealth of the country. When these limited few will also not be there , and all will be drwan into the vortex of trade-unionism , then will it really be a day of great misfortune for the nation. The number of mindful guardians is also dwindling fast . It is by realizing this that the Mahamandal has taken up the mission of meeting the want. So, if at all an epithet is to be used to indicate what type of organization this Mahamandal is ? instead of calling it a religious, cultural, or social-service organization , the Mahamandal should be called an educational institution. 

         If now the question is asked, whether the Mahamandal intends to establish schools and colleges for spreading ideal education on some particular model ? the answer is again , "No ". Many are trying to implement plans for imparting education by establishing schools and colleges, but they also meet with failure. Even if proper care is taken about content and method of education -if that could at all be possible -any plan for such ideal education is doomed to failure , on account of fact that teachers will come either from employment exchanges or with political backing and plan will remain on paper only. 

        So, as things stand today, there is no use multiplying schools and colleges with possible government grants , as , understandably labour and money spent for the purpose would go waste without yielding the desired benefit.  

What is the Task which, Mahamandal has chosen to perform ? 

         That is why the Mahamandal wants to do the same job of imparting the right kind of education ,but -- not by multiplying such institutions with public money, but by working on the principle : ' If the boy does not come to education , education must go to the boy.' So, the task of the Mahamandal is to spread its centres everywhere - in villages, and towns. If there is any boy who will not come to any of those centers, the Mahamandal will go to his home with a supply of those ideas which he needs badly, without which he cannot grow properly  and becomes rickety and weak, bodily and morally. Such man-making ideas when made available , will help him grow in all respects and make him strong and healthy . 

     Dwelling on this idea , Swamiji says that man has three elements (3-'H'), which are his source of power --body (Hand),mind (Head) and Heart (Soul) ; when there is harmonious development of all these three elements , one becomes a real man . (Man with capitam 'M') It is this task that the Mahamandal has chosen to perform .  

         Physical exercise for fitness and development of the body , practice of mental concentration to gain control over the mind , to increase its effective power, at the same time  acquiring the capacity to make it one pointed are included in the daily routine for Mahamandal youths training syllabus.  

        But, if strength of body and mind is our sole possession, it would not be possible for us to make much headway in the matter of welfare of human society. For that, heart needs to be added to the other powers. The Heart that is sympathetic should be expanded. But how ? What is the method of expanding the heart ? 

       As one of its method comes social service . Of course, as a method of expanding heart , social service is not to be performed in the spirit of common place charity. We should serve with respect -with the feeling that every creature , every man is a temple in the true sense. People are in distress , in difficulty and their real divinity is not manifested. Therefore, just as we cleanse a temple, make sandalwood paste, pluck flowers, and decorate the temple and the deity to make everything there beautiful , in order to feel the divine presence .

        So also our social service should be leavened with holiness and sincere feeling to make the manifestation of the divinity already in the man in distress possible by offering the same attention , purity, love , reverence , and awe -that we usually have for the deity in the temple. So, it would not be fair to evaluate the worth of the social service schemes now in operation at various units of the Mahamandal merely on the basis of the volume of work, money involved , or outward show.

      Proper evaluation of such work can be made only through assessment of the motive and depth of feeling of the worker and then from the number of such worker and then from the number of such workers engaged in the sort of work , which would give them a spiritual boost.

      All-round development and unfoldment of the being through constant striving for the highest excellence of body , mind and heart are the essence of true education , which in a way is the same thing as is called true religion or spirituality 

        This spirituality does not concern a different world from ours or merely a world beyond death. through striving to manifest in their lives this real religion, serious and sincere men have discovered some clear-cut ways in every age, and they have , in course of time , become traditional . These 'paths of religion' are called ' yogas '. There are four principal yogas in our tradition , viz. ' Janana Yoga ', ' Rjaa yoga ', ' Bhakti yoga ', and ' Karma yoga ' .  

     Swami Vivekananda observed that religion means conquering your inner nature as also the nature outside by resorting to one or more or all of the above yogas. Swamiji has also said that when our inner power is brought under our control, it becomes easy to exercise control over outer nature . According to him , the most effective and perfect path can be had by harmonizing and integrating all these four yogas. One who takes to this integral path of self-development is endowed in full with the fruits of all these four individual paths , and his development in all directions  comes about simultaneously. 

" The Four Principal-methods **  of seeking 'Truth' and attaining it " : [The way of synthesizing the four yogas to transcend animality (100% selfishness) in man and to stride for full manhood (100% Selflessness). मनुष्य में निहित पशुता  (घोर स्वार्थपरता ) को पार करने और पूर्ण मनुष्यत्व (१००% निःस्वार्थपरता ) में उन्नत होने के लिए चार योगों का समन्वय (synthesize) करने का तरीका।]  

      in short , Janana yoga is the path of discrimination [विवेक-प्रयोग का मार्ग ] . The way enjoins discriminating , telling apart by the application of the power of discernment , the good from the evil. the eternal from the  transient . the abiding (शाश्वत )  from the ephemeral (अल्पकालिक-नश्वर ) . And by exercising judgement in this way, one can attain to what is eternal and real, the ultimate truth.  

    A Raja yogi lays the greatest stress on the power of the mind. With him, the mind is everything , and if it could be rid of all its agitations by calming it and bringing it under absolute control , truth reveals itself. This is the path to realize the truth. 

       To a Bhakta it seems that there is no need for queer exercises of the body , the mind, or the intellect, none for breath-control or any kind of mortification , should any feat be called for, be it a feat of the heart. That I would love to perform . I shall open my heart and hold it up to God, my Beloved .By whatever name or in whatever way we may like to invoke Him, there is something which is the ultimate truth and whose essence is love itself. 

     Had there been none who is full of love and whose nature is love, how could in me surge that love which refuses to be dammed up, which disdains to remain confined within oneself , which longs to open the flood-gate to embrace all ? It is He whom some call Allah, some God, some Siva, or some Kali. Some, in imagination thinking him God in Heaven, see him seated on the throne there. The person practising Bhakti yoga says, ' Rather than realizing truth by exercising discrimination , controling the mind or practisiing austrerity , I will seek truth through love , exhausting my limited love on Him who is all love and seeing myself at one with the world at large. By offering love, I will myself become all.'  

     The Karma-yogi dose not like any of these modes. According to him , there is no need to exercise discrimination or to become emotionally  surcharged  and keep the heart open , waiting for God. In his opinion, to remain idle is not at all proper .

       The fact that we have the power to work, the power to " move " --has a significance of its own. By the application of this power to work , we can have perfection and fulfilment of our lives. The Karma Yogi , working with his method in pursuit of perfection comes to realize that real happiness can be had only when the work is done not for self-pleasure or self-enjoyment. Sri Krishna reminds us of the fruits of Karma Yoga in the Gita.

         Selfless work done for the good of others bestows on the careful worker the fruits of knowledge. The Karma Yogi , by renouncing self-interest and sacrificing himself , attains to truth that is realized through Janana Yoga . For , he  also-like janana yogi feels that he and others are not different

       His awareness of this identity (विशुद्ध अस्मिता ? ) is in perfect accord with the truth ! which the lover discovers through the love for God, the man of knowledge or one who discriminates discovers through his his discrimnation , and the Yogi discovers through the control of mind .

 { परमसत्य के साथ एकत्व को ? या ठाकुर देव के प्रति अटूट प्रेम के बल पर उसी स्व-पहचान की भूल से रहित 'विशुद्ध अस्मिता' --माँ जगदम्बा के मातृ हृदय के सर्वव्यापी विराट "मैं " -बोध में रूपांतरण को कोई प्रेमी [राधा] आविष्कृत कर लेता है। अथवा वह "बुद्ध" -पुरुष, वैसा व्यक्ति जो "विवेक-प्रयोगी " है - ' या जो सदैव दृष्टिपूतं , न्यसेत पादम है ' -- लगातार " विवेक-प्रयोग " करके उसी परम् सत्य (शाश्वत चैतन्य के साथ एकत्व की अनुभूति ) की अनुभूति को आविष्कृत करता है ! और उसी परम् सत्य (अपरिवर्तनीय सत्य) को कोई योगी (समत्व में पहुँचा व्यक्ति ) मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा (मन को नियंत्रण में लाने के अभ्यास द्वारा) आविष्कृत करता है !} 

*Swami Vivekananda's Plan of Regeneration Of India (भारत के पुनर्जागरण के लिये  स्वामी विवेकानन्द की योजना) 

         According to Swami Vivekananda, " A person who can apply all these " Four Principal-methods of seeking truth and attaining it " - in his life equally and properly and can taste the ultimate truth in every possible way, is , the ideal Man! "  Sri Ramakrishna , too , has said , 'Why should I just have one taste of an edible ? There may be so many preparations of the same fish."  

       With our limited capacity in the sphere of the Mahamandal , we would strive , to synthesize Jnana-discrimination , control of the mind , indiscriminate love , and selfless work;  according to the ideas and guidance of " Sri Ramakrishna -Vivekananda Vedanta Training Tradition - Be and Make !" Then only will our development become all-round and complete. 

**Essentials for Social Service : (समाज सेवा के लिए आवश्यक बातें):

       It may be that love for men will grow in our hearts, sympathy may be awakened; but if we are not able workers , we cannot strive to remove their suffering.

        Again , engaging oneself in removing others distress through service would not ultimately be fruitful, if the mind , while at the work is in a disturbed state and cannot think clearly , or if power of concentration is not achieved through practice of control of the mind . 

     Again , before thinking , speaking, or doing anything , discrimination is to be exercised to see whether it is good or bad ? (Eternal -Mortal ? शाश्वत -नश्वर ? ) To stimulate that power of judgment , cultivation of the knowledge-path is necessary. But we need not employ discrimination to the extent a true Vedantist does, equating Ganga water and ditch-water. We may strive for developing our capacity for discrimination by a simple process..... We may study and contemplate on the great lives and teachings of Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Teachers -Training Tradition . Through constant cultivation of those thoughts , power of discrimination and judgement is awakened, and this gives one the capacity to discern between right and wrong , real and unreal , good and evil. 

      Poise and tranquility of the mind , (नारद का मायादर्शन द्वारा प्राप्त दिमागी संतुलन?)  without which we are often led to wrong judgement , and love that wells up in our heart cannot be translated into action , can be ensured through regular practice of mental concentration and prayer for the well-being of all. And for expansion of our heart , to stir up your sympathy to feel for others owes , to stimulate our devotion , which is nothing but love extended universally, striving is necessary. The study and cultivation suggested for acquiring the capacity for discrimination will also help in expansion of our heart. They have to be followed by exposure to the environment of suffering and actual service rendered  to achieve the object.  

      When a man , equipping  himself with such faculties of the heart and intellect , with power of the mind and practical efficiency steps into the society , fired with the inspiration to devote his life for the real well-being of men , his work become a little different from that of an ordinary social worker

Internship training : Six Day Gurugriha-Vasa Training Camp: ( C-IN-C / नेता / नवनी दा जैसे जीवनमुक्त शिक्षक के साथ छः दिवसीय गुरुगृह-वास  प्रशिक्षण शिविर *:  इंटर्न एक अंग्रेज़ी शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'कैद'(imprisonment)| प्रशिक्षुता या इन्टर्नशिप शब्द प्रायः डॉक्टरी आदि की पढ़ाई के बाद अपना व्यवसाय या नौकरी आरंभ करने वाले उन के छात्रों या युवकों के लिये प्रयोग किया जाता है, जो इस क्षेत्र में नये उतरे होते हैं और किसी वरिष्ठ डाक्टर से स्वयं प्रशिक्षण लेने के साथ ही, विद्यार्थी इन्टर्नशिप के मार्गदर्शनों (विद्यार्थी इन्टर्नशिप नोटस) को देख-देख कर दूसरों पर भी उसका प्रयोग करते हैं।]      

  Swami Vivekananda says, "I had a deep interest in religion and philosophy from my childhood, and our books (Gita and Upnishads ) teach renunciation as the highest ideal to which man can aspire. It only needed the meeting with a great Teacher — Ramakrishna Paramahamsa (Nabani Da) — to kindle in me the final determination to follow the path he himself had trod, as in him I found my highest ideal realised." 

           " Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. 'Would to God that all men were so constituted that in their minds all these elements of philosophy (ज्ञान) , mysticism (मनःसंयोग), emotion (भक्ति) and of work (कर्मयोग) were equally present in full ! that is Ideal , my ideal of a perfect man. To become harmoniously balanced in all these four directions is my ideal of region.' Look upon every man, woman, and everyone as God. You cannot help anyone , you can only serve . Do it only as a worship . 'Believe that the (each) soul is immortal, infinite and all-powerful.'  {"THE IDEAL OF A UNIVERSAL RELIGION"/(How It Must Embrace Different Types Of Minds And Methods- (Volume 2/ " भगवान जी की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग (मनःसंयोग-mysticism) , भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे , तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यही होगा। जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं , मैं उनको एकपक्षीय कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही लोगों से भरा हुआ हैजो केवल अपना ही रास्ता जानते हैं। इसके सिवाय अन्य जो कुछ है , वह सब उनके निकट विपत्तिकर और भयंकर है। इस तरह चारों मार्ग में ओर समभाव से विकास लाभ करना ही 'मेरे ' कहे हुए धर्म [ सनातन धर्म ] का आदर्श है।"३-१५१ ) " अतएव हर एक स्त्री को , हर एक पुरुष को और सभी को ईश्वर के ही समान देखो। तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते , तुम्हें केवल सेवा करने का ही अधिकार है।  प्रभु के सन्तानों की , और यदि भाग्यवान हो तो , स्वयं प्रभु की ही सेवा करो। तुम धन्य हो , क्योंकि (माँ काली की कृपा से ) सेवा करने का अधिकार तुमको मिला और दूसरों को नहीं मिला।  केवल ईश्वर-पूजा की भाव से सेवा करो ! " ५/१४१ " केवल इतना विश्वास कीजिये कि प्रत्येक आत्मा अमर है, अनन्त है और सर्वशक्तिमान है। " ४/२६२ }

        The Mahamandal is at work at different centers for making such worthy , strong , thoughtful and sympathetic men or GURU .(प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/ विष्णु सहस्रनाम जैसा नेता/ the 'C-IN-C' like " Nabani da!" ), in different villages and towns .Each of such youth ( नेता) individually and all in unison (all Camp Officials in youth training camp)  give practical shape to the life -giving ideas of Swami Vivekananda. 

      In the view of the Mahamandal , this is the way of synthesizing the four yogas to transcend animality in man and to stride for full manhood. This is the way in which the Mahamandal , without being a common religious , cultural, social services , or educational institution, is continuing its work for the last 53 pears for true religion , culture , social welfare , and education with resolve to build a better society of better men. This indeed is the work of the Mahamandal . 

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How To Get Amazing Results By Working With Concentration - Whatever the work is, if you do it with full concentration, the result is amazing. 

If you study with concentration, then it is remembered for a long time and this thing is applicable to every work, which is done with full devotion, there is definitely success in it.

Story - While Swami Vivekananda was in Germany, he stayed at the house of Professor Paul Dyson, a Sanskrit scholar. The two were talking. At that time Prof. Dyson had to go out for some work.

When Swami ji was sitting empty, he saw the book kept there. He picked up the book and started reading. It was a book of poems. While reading, Vivekananda ji was so drowned that he did not know that Prof. Dyson is back.

Pro. Dyson did not like this. He thought that Vivekananda is deliberately ignoring me. After a while when Swami ji raised his head, he looked at the professor and apologized and said, "I was so lost reading this book that I could not pay attention to you."

Dyson was still angry. He said, 'I feel like you have deliberately ignored me. Can anyone get so lost in reading a book that he does not mind anything. '

On hearing this, Vivekananda ji read some of the poems of the book after reading the same as written in the book. The book contained 200 poems, but Dyson was not convinced yet, saying, "Looks like you've read this book before."

Vivekananda ji said, 'I have read this book for the first time. You can ask any poem from wherever you want. '

After a while Prof. Dyson agreed that Swami ji's memory is very sharp. He asked, 'Tell me, how did you remember so many poems?'

Vivekananda said, "Because of concentration, I remembered these poems. Whenever I do any work, especially reading and writing, I do it with full concentration. The deeper the concentration, the faster the memory. That is why I recited the poems of this book read with full concentration. '

Lesson - Prof. Vivekananda Paul Dyson learned that whatever work he does, he must do it completely. We should also do everything with full concentration. When we do some work with a concentrated mind, the result is also amazing. If you read it with full attention, then it is remembered for a long time. 

(साभार https://www.multitudeworld.com/2021/02/how-to-get-amazing-results-by-working.html) 

{88-year-old  'Metro Man' E Sreedharanthe man behind the Konkan Railway and the Delhi Metro, the  BJP’s CM face in Kerala  also said that , " it is the mental age rather than the physical one that decides what responsibilities one should take up."  It is the age of the mind that matters, not only the age of the body. Mentally, I am very alert and young. So far, I don't have any issues with health. I don't think health will be much of an issue. I will not be working as a normal politician. I will continue to work like a technocrat ." 

E Sreedharan, an engineer who has worn many hats including that of a lecturer, was the person behind the country’s first metro service, Kolkata Metro.He has worked on the restoration of the picturesque Pamban Bridge, India’s first sea bridge, that connects Rameswaram to mainland Tamil Nadu. He was involved in the Konkan Railway project and, towards the tail end of his career, he was in charge of the Delhi Metro project and retired as its chief in 2011

        He was awarded the Padma Shri in 2001 and the Padma Vibhushan in 2008. Sreedharan was a classmate of the former chief election commissioner T N Seshan, who is known for initiating groundbreaking electoral reforms. They both studied at the BEM High School and later at Victoria College in Palakkad, Kerala.

        In 2019, Sreedharan grabbed headlines when he wrote a letter to Prime Minister Narendra Modi, asking him not to agree to the Aam Aadmi Party-led Delhi government’s proposal to make metro travel free for women commuters. Since Delhi Metro was constructed with the help of a loan from the Japan International Cooperation Agency (JICA), he was worried about its repayments.“One shareholder cannot take a unilateral decision to give concession to one section of the community and push Delhi Metro into inefficiency and bankruptcy,” he wrote to the prime minister in June.

       In 2018, Sreedharan had also criticised the prime minister’s ambitious bullet train project. In an interview with Hindustan Times, the ‘Metro man of India’ had said that "bullet trains are only for the elite...India needs a safe railway system." He commented that the project was "highly expensive and beyond the reach of the common people."

     The BJP has only one MLA in the 140-member Kerala legislative assembly and has been trying to make in-roads in the southern state as assembly polls are scheduled in April-May. The 88-year-old engineer, a household name in the state, told Hindustan Times on Thursday that “It is not an impulsive decision but well thought out one. I feel the BJP is the only right party which can do justice to the state. Kerala has immense potential but I feel sorry about the state of affairs,” he added.

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১৪, গ্রেকোট গার্ডেন‍্‍স্, ওয়েস্টমিনস্টার, লণ্ডন,১৮৯৬

            প্রিয় আলাসিঙ্গা,..... লণ্ডনের কাজ দিন দিন বেড়ে চলেছে। যতই দিন যাচ্ছে, ততই ক্লাসে বেশী করে লোক সমাগম হচ্ছে। শ্রোতৃ-সংখ্যা যে ঐ হারে ক্রমশঃ বাড়তে থাকবে, তাতে আমার কোন সন্দেহ নেই। আর ইংরেজ জাতি বড়ই দৃঢ়প্রকৃতি ও নিষ্ঠাবান্। অবশ্য আমি চলে গেলে যতটা গাঁথনি হয়েছে, তার অধিকাংশই পড়ে যাবে। কিন্তু তারপর হয়তো কোন অপ্রত্যাশিত ঘটনা ঘটবে, হয়তো কোন দৃঢ়চেতা ব্যক্তি এসে এই কার্যের ভার গ্রহণ করবে—প্রভুই জানেন, কিসে ভাল হবে।

আমেরিকায় বেদান্ত ও যোগ শিক্ষা দেবার জন্য বিশ জন প্রচারকের স্থান হতে পারে; কিন্তু কোথা থেকেই বা প্রচারক পাওয়া যাবে, আর তাদের আনবার জন্য টাকাই বা কোথায়? যদি কয়েকজন দৃঢ়চেতা খাঁটি লোক পাওয়া যায়, তবে দশ বৎসরের মধ্যে যুক্তরাষ্ট্রের অর্ধেক জয় করে ফেলা যেতে পারে। কোথায় এরূপ লোক? আমরা সবাই যে আহম্মকের দল—স্বার্থপর, কাপুরুষ; মুখে স্বদেশপ্রেমের কতকগুলি বাজে বুলি আওরাই, আর ‘আমরা খুব ধার্মিক’ এই অভিমানে ফুলে আছি! মান্দ্রাজীরা অপেক্ষাকৃত চটপটে ও একনিষ্ঠ; কিন্তু হতভাগাগুলো সকলেই বিবাহিত! বিবাহ, বিবাহ, বিবাহ! পাষণ্ডেরা (Heretics = स्वधर्मभ्रष्ट ) যেন ঐ একটি কর্মেন্দ্রিয় নিয়েই জন্মেছে! … এ আমি বড় শক্ত কথা বললাম; কিন্তু বৎস, আমি চাই এমন লোক—যাদের পেশীসমূহ লৌহের ন্যায় দৃঢ় ও স্নায়ু ইস্পাত নির্মিত, আর তার মধ্যে থাকবে এমন একটি মন, যা বজ্রের উপাদানে গঠিত। বীর্য, মনুষ্যত্ব—ক্ষাত্রবীর্য, ব্র্হ্মতেজ! আমাদের সুন্দর সুন্দর ছেলেগুলি—যাদের উপর সব আশা করা যায়, তাদের সব গুণ, সব শক্তি আছে—কেবল যদি এই রকম লাখ লাখ ছেলেকে বিবাহ নামে কথিত পশুত্বের যূপকাষ্ঠে হত্যা না করা হত! হে প্রভো, আমার কাতর ক্রন্দনে কর্ণপাত কর। মান্দ্রাজ তখনই জাগবে, যখন তার হৃদয়ের শোণিতস্বরূপ অন্ততঃ একশত শিক্ষিত যুবক সংসার থেকে একেবারে স্বতন্ত্র হয়ে কোমর বাঁধবে এবং দেশে সত্যের জন্য যুদ্ধ করতে প্রস্তুত হবে। ভারতের বাইরে এক ঘা দিতে পারলে সেই এক ঘা ভারতের ভিতরের লক্ষ আঘাতের তুল্য হয়। যা হোক, যদি প্রভুর ইচ্ছা হয় তবেই হবে।

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" The Ideal of a Universal Religion" (How It Must Embrace Different Types Of Minds And Methods: विश्व धर्म का आदर्श, " अनेकता में एकता भारत की विशेषता " ): 'Unity in variety ' --is the plan of the universe. : 'विविधता में एकता ' सृष्टि का विधान है।हम सब लोग मनुष्य होते हुए भी परस्पर पृथक हैं। मानवता के एक अंश मैं तुमसे एक हूँ , किन्तु 'श्री फलाना बाबू '-- " Mr. So-and-so " के रूप में मैं तुमसे पृथक हूँ। पुरुष होने के नाते तुम स्त्री से भिन्न हो , किन्तु मनुष्य होने के कारण - as a human being, स्त्री और पुरुष (M/F ) एक ही हैं ! स्त्री-पुरुष, जीव-जन्तु, पौधे (man, woman, animal, and plant) सभी समान हैं, एवं सत्ता के नाते तुम्हारा विराट विश्व के साथ एकत्व है ! [ अतः चारो योगों की सहायता से अपने 'व्यष्टि अहं' का अतिक्रमण कर (स्वार्थपरता या पशुता को लाँघकर) माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपान्तरित किया जा सकता है।  ]  ईश्वर (माँ काली, अल्ला , God)  वह सर्वव्यापी विराट सत्ता - इस दृष्टिगोचर वैचित्र्य-पूर्ण जगत प्रपंच का चरम एकत्व (ultimate Unity) हैं ! उस ईश्वर में हम सभी एक हैं, किन्तु व्यक्त प्रपंच में यह भेद अवश्य चिरकाल तक विद्यमान रहेगा ! मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव। " गीता 7.7। --मैं इस जगत में मणियों के भीतर सूत्र की भाँति वर्तमान हूँ।  "I am the thread that runs through all these pearls,"  इस एक मणि को एक विशेष धर्म , मत या सम्प्रदाय कहा जा सकता है। पृथक पृथक मणियाँ एक धर्म हैं और प्रभु ही सूत्र रूप से उन सबमें वर्तमान हैं। तिस पर भी अधिकांश लोग इस सम्बन्ध में सर्वथा अज्ञ (unconscious) हैं। 

         " विश्वधर्म (universal religion ) का यदि यह अर्थ हो कि एक प्रकार के विशेष मत (one set of doctrines ) में संसार के सभी लोग विश्वास करें, तो यह सर्वथा असम्भव है। यह कभी नहीं हो सकता। ऐसा समय कभी नहीं आयेगा जब , हमलोगों का मुँह एक रंग हो जाये ! और यदि हम यह आशा करें कि समस्त संसार एक ही पौराणिक कथा (universal mythology-सतनारायण कथा) में विश्वास करेगा , तो यह भी असंभव है , यह कभी नहीं हो सकता। फिर समस्त संसार में कभी भी एक प्रकार की  अनुष्ठान- पद्धति [one universal ritual- घुटना पर उठना -झुकना]  प्रचलित नहीं हो सकती।  कोई व्यक्ति यदि अपनी पूजा -पद्धति बदल भी ले तो भी अपने पूर्वजों को नहीं बदल सकता।] ऐसा किसी समय हो नहीं सकता , अगर कभी हो जाये तो , तो सृष्टि लुप्त हो जाएगी। ' variety is the first principle of life.'---- कारण ,  बहुरूपता (विविधता) ही जीवन की मूल भित्ति है।  हमे आकारयुक्त किसने बनाया है ? -वैषम्य ने।  सम्पूर्ण साम्यभाव (Perfect balance) होने से ही हमारा विनाश अवश्यम्भावी है। 'What makes motion possible in this universe? ' ---Lost balance. इस संसार की गति  (पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना , और सूर्य के चक्कर काटना ?) किसके लिए सम्भव होती है ? --खोये हुए संतुलन के लिए !  जिस समय इस संसार का ध्वंश  होगा , उसी समय चरम साम्य (equivalency, नारद का माया -दर्शन = नारद का संसार-ध्वंश ? के बाद वाली The unity of sameness, selfsameness)  आ सकेगा , अन्यथा ऐसा होना असम्भव है।  " ३/१४६/ तत्वों की संयोजन शक्ति (combining power) को संयोजकता (Valency) का नाम दिया गया है। संयोजकता का यथार्थ ज्ञान ही समस्त रसायन शास्त्र की नींव है। संयोजकता एक संख्या है जो यह प्रदर्शित करती है कि जब कोई परमाणु कितने इलेक्ट्रॉन प्राप्त करता है, या खोता है या साझा करता है जब वह अपने ही तत्व के परमाणु से या किसी अन्य तत्व के परमाणु से बन्धन बनाता है। रदरफर्ड ने परमाणुओं के नाभिक (nuclear) रूप की विवेचना की। इसके अनुसार प्रत्येक परमाणु के केंद्र या नाभि में बहुत सूक्ष्म पिंड होता है, जिसपर धनावेश होता है और इसी धनावेश की बराबर संख्या के इलैक्ट्रॉन (electron) केंद्र के चारों ओर परिधियों में चक्कर लगाया करते हैं। अंतिम परिधि के इलेक्ट्रॉनों को 'संयोजन इलेक्ट्रॉन' (combinatorial electrons )का नाम दिया गया है, क्योंकि  'electron theory of valence' के अनुसार, यही इलेक्ट्रॉन तत्व की संयोजनशक्ति निर्धारित करते हैं।  ] 

      सार्वभौमिकता (universality) क्या है ? :  " उच्च कोटि का दर्शन (अद्वैत) या निकृष्ट दर्शन ( fetishism-भूतोपासना) ... के अनुसार साधना हो , प्रत्येक सम्प्रदाय , प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक राष्ट्र , प्रत्येक धर्म , जाने-अनजाने मन की निम्नगामी प्रवृत्ति का अतिक्रमण कर , उर्ध्व दिशा में या ईश्वर की ओर अग्रसर हो रही है। मानलो हमलोग अपने अपने जलपात्र (Water vessel) -सुराही , घड़ा , लोटा को लेकर तालाब से जल भरने गए। जल भरने के बाद हम देखते हैं कि ,'water takes the form of the vessel ' प्रत्येक पात्र के जल ने स्वभावतः अपने अपने पात्र का आकार धारण कर लिया है। परन्तु प्रत्येक पात्र में वही एक जल है , जो सबके पास है। 'So it is in the case of religion; our minds are like these vessels, and each one of us is trying to arrive at the realisation of God.' धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है -हमारा मन भी ठीक पूर्वोक्त पात्रों की तरह है। प्रत्येक पात्र में ईश्वर दर्शन उस पात्र के अनुसार ही है। फिर भी वे (जल) सर्वत्र एक - वे घट घट में विराजमान हैं ! [सुराही , घड़ा या लोटा में एक ही जल, चेतना, Consciousness के रूप में विराजमान हैं ! This is the only recognition of universality that we can get.] सार्वभौमिकता (universality, सर्वगतत्व ) का भी यही एक मात्र परिचय हम पा सकते हैं। 

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो,रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव ।एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ ९ ॥ सब प्राणियों में एक प्रभु, सम भावना से व्याप्त है,आधार के अनुरूप रूप में, व्याप्त है नहीं ज्ञात है। ज्यों अग्नि एक तथापि उसके, प्रगट रूप अनेक हैं,त्यों ब्रह्म एक है विविधता, दृष्टव्य जिनमें विवेक है॥ [ ९ ] वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो,रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा, रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च ॥ १० ॥ ज्यों एक वायु तथापि गति संयोग शक्ति अनेक हैं,त्यों विश्व के सब प्राणियों में ब्रह्म तत्व भी एक है। वह एक होकर भी अहो रखते अनेकों वेश हैं, अन्तः प्रवाहित बाह्य भी अनभिज्ञ बहु परिवेश हैं॥ [ १० ] सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुः, न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः । एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा,न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः ॥ ११ ॥ यथा रवि को दर्शकों के दोष गुण नहीं लिप्यते,तथा प्रभुवर प्राणियों के कर्म दोषों में न रते। सबमें विराजित है तथापि पृथक और निर्लिप्त है, उस दिव्य पुंज की दिव्य ज्योति से विश्व सारा प्रदीप्त है॥ [ ११ एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा,एकं रूपं बहुधा यः करोति ।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः,तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ १२ ॥ तुम एक होकर भी प्रभो, रखते अनेकों वेश हो,अन्तः करण स्थित सभी के, आत्म भू अखिलेश हो। इस आत्म स्थित परम प्रभु का, ज्ञान जिस ज्ञानी को हो, उसे सुख सुलभ शाश्वत सनातन, अन्य को दुर्लभ अहो॥ [ १२ ]

नित्योऽनित्यानां चेतनश्चेतनानाम्,एको बहूनां यो विदधाति कामान् ।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः, तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ १३ ॥

प्रभो नित्यों का भी नित्य चेतन, आत्मा की आत्मा,जीवों के कर्मों का विधाता, एक है परमात्मा।

ज्ञानी सतत जो देखते, अन्तः विराजित जगपते, वे ही सनातन शांति शाश्वत, पा सकेंगे सत्पते॥ [ १३ ]

तदेतदिति मन्यन्तेऽनिर्देश्यं परमं सुखम् ।

कथं नु तद्विजानीयां किमु भाति विभाति वा ॥ १४ ॥

आनंद सर्वोपरि अलौकिक, सुख परम परब्रह्म का,

यह वचन वाणी कैसे वर्णित, करे वर्जन ब्रह्म का।

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष है या, मात्र अनुभव गम्य है,

उसे ज्ञात ज्ञानी करे कैसे, गूढ़ अतिशय धन्य है॥ [ १४ ]

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं

नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं

तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १५ ॥

न ही सूर्य चन्द्र न तारा गण, विद्युत प्रकाशित है वहाँ,

यह अग्नि लौकिक कैसे फ़िर होती प्रकाशित है यहाँ।

सबमें विराजित है तथापि पृथक और निर्लिप्त है,

अणु कण सकल ब्रह्माण्ड के तो दिव्य ज्योति प्रदीप्त हैं॥ [ १५ ]

        सैद्धान्तिक दृष्टि से यहाँ तक तो सब ठीक है। परन्तु लाख टके की बात तो यह है कि , क्या धर्म के समन्वय -विधान (harmony in religions, मधुर सम्बन्ध , अविरोध , सामंजस्यको कार्य रूप में परिणत करने का भी क्या कोई उपाय है ? 15 मार्च 2001 को महामण्डल के विशेष पाठचक्र में सपरिवार आमंत्रित हैं , कार्यकारी सचिव ? श०कुमार ?]  : हमारा विचार, संकल्प और  एक-दूसरे के साथ स्वाभाविक समस्वरता और एकता की स्थिति में नहीं हैं, बल्कि जब उन्हें मिलकर कार्य करना होता है तब भी वे अपनी पृथक - पृथक् शक्ति के द्वारा कार्य करते हैं, बहुधा ही परस्पर संघर्ष करते हैं अथवा कुछ अंश में एक-दूसरे का विरोध करते हैं।  सभी धर्मों में harmony = स्वाभाविक समस्वरता और एकता, मतैक्य पूर्ण समझौता जो सामान्य लक्ष्य के अनुकूल और सभी के लिए तुष्टि दायक हो। ]    " But is there any way of practically working out this harmony in religions? I have also my little plan. I do not know whether it will work or not, and I want to present it to you for discussion. What is my plan? 

     हम सुनते हैं - 'सब धर्ममत सत्य हैं ' -- 'all the various views of religion are true ' यह बात पुराने समय से चली आ रही है; परन्तु उन सबको एकत्र करने का उन्होंने कोई ऐसा उपाय नहीं दिखाया , जिससे वे इस समन्वय के भीतर रहते हुए भी अपनी विशिष्टता को सुरक्षित रख सकें।  वही उपाय यथार्थ में कार्यकर हो सकता है, जो किसी धर्मावलम्बी व्यक्ति की विशिष्टता नष्ट न करते हुए , उसको औरों के साथ सम्मिलित होने का पथ बता दे ! That plan alone is practical, which does not destroy the individuality of any man in religion and at the same time shows him a point of union with all others. अभी तक धर्मों के समन्वय के जितने प्रयास हुए हैं , उनमें धर्म सम्बन्धी सभी दृष्टिकोणों को समाहित कर लेने के संकल्प के बावजूद , कार्यरूप में सभी धर्मों को कुछ मतवादों में जकड़ देने की चेष्टा की गयी है। फलस्वरूप परस्पर कलह , गुटबाजी और पद-प्रतियोगिता करने वाले छुटभईये नेताओं - की सृष्टि हुई है। 

       मेरी एक छोटी सी योजना है- Be and Make   मैं नहीं जानता कि वह कार्यकारी होगा या नहीं , परन्तु मैं उसको विचारार्थ तुम्हारे सामने रखता हूँ। मेरी योजना क्या है ?   "Do not destroy". किसी भी पात्र को मत तोड़ो ! अपने को सुधारक कहने वाले मूर्ति-भंजनकारी " Iconoclastic reformers " (जेहादी या आतंकवादी) लोग संसार का उपकार नहीं कर सकते। " Take man where he stands, and from there give him a lift. " --जो  जहाँ पर है , उसको वहीं से ऊपर उठाने चेष्टा करो। हम सब (श०, अ०पा ,अ ० , सु० ,ध० )अपने अपने व्यासार्ध (radius) द्वारा आगे बढ़ें , तब अवश्य ही हम एक ही केंद्र में पहुंचेंगे। क्योंकि "All roads lead to Rome".  सब व्यासार्ध एक ही केन्द्र में सम्मिलित होते हैं !--  'All these radii converge to the same centre.' कहा गया है - " सब रास्ते रोम में पहुँचते हैं। " 

        प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़रहा है और पुष्ट हो रहा है। .... प्रत्येक व्यक्ति उचित समय आने पर चरम सत्य (इन्द्रियातीत सत्य ) की उपलब्धि करेगा। अन्त में देखा जाता है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शिक्षक है।  क्या तुम किसी शिशु को कुछ सिखा सकते हो ? शिशु स्वयं ही शिक्षा लाभ करता है -तुम्हारा कर्तव्य है सुयोग देना और बाधाओं को दूर कर देना।  एक पौधा बढ़ रहा है , क्या तुम उसको वृक्ष बना रहे हो ? तुम्हारा कर्तव्य है , उस नन्हे से पौधे  के चारों ओर घेरा बना देना, जिससे चौपाये उस पौधे को कहीं चर न जायें।  बस, यहीं तुम्हारे कर्तव्य का अन्त हो गया। पौधे के वृक्ष बन जाने के बाद उसमें तुम हाँथी को भी बांध सकते हो ! What can an external teacher do? He can remove the obstructions a little, and there his duty ends. Therefore help, if you can; but do not destroy. Give up all ideas that you can make men spiritual. It is impossible. There is no other teacher to you than your own soul. Recognise this. बाह्य शिक्षा देने वाले [नवनीदा जैसे नेता मार्गदर्शक शिक्षक- ] क्या कर सकते हैं ? वे ज्ञानलाभ की बाधाओं को थोड़ा दूर कर सकते हैं , और वहीँ उनका कर्तव्य समाप्त हो जाता है। ... तुम इस धारणा को त्याग दो कि ' तुम ' किसीको आध्यात्मिक बना सकते हो। यह असम्भव है। तुम्हारी आत्मा को छोड़कर तुम्हारा और कोई शिक्षक नहीं।  तुमको स्वयं ही शिक्षा लेनी होगी -तुम्हारी उन्नति तुम्हारे ही भीतर से होगी। 

     समाज में हम हजारों प्रकार के मन और संस्कारों को लेकर जन्मे हुए मनुष्यों को देखते हैं --उन सबका सम्पूर्ण सामान्यीकरण (thorough generalisation ) असम्भव है , परन्तु हमारे व्यावहारिक प्रयोजन के लिए उनको चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। A thorough generalisation of them is impossible, but for our practical purpose it is sufficient to have them characterised into four classes. प्रथम कर्मयोगी : जो शरीर से स्वस्थ है , उसका उद्देश्य है कर्म करना - अस्पताल , स्कूल , खोलना, रास्ता बनाना । प्रेस , व्यापर , सत्कार्य से धन कमाना। योजना स्थिर करके, परिवार बनाकर संघबद्ध होना ।  दूसरा भक्ति योगी।   तीसरा  - दार्शनिक ज्ञानी जो  विवेक-प्रयोग द्वारा पशुता का अतिक्रमण करता है। चौथा योग या राजयोग। इस राजयोग - इस मनःसंयोग (controlling of the mind ) का अर्थ क्या है ?  In this country you are associating all sorts of hobgoblins with the word Yoga, इंग्लैण्ड में तुम लोगों ने योग शब्द से भूत-प्रेत इत्यादि तरह तरह की अजीब धारणाएं बना राखी हैं। .... योग के साथ इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।

      ज्ञान-लाभ के तीन उपाय- (1) जन्मजात प्रवृत्ति , (2) तर्क-बुद्धि और (3) अन्तः-प्रेरणा: (Three sorts of instruments of knowledge : (1) instinct (2) Reasoning (3) inspiration) :  " प्राणियों में ज्ञान -लाभ के तीन उपाय हम देखते हैं। ज्ञानलाभ का पहला उपाय तो जन्मजात प्रवृत्ति है, जो जीवजन्तुओं में अत्यधिक परिस्फुटित देखि जाती है।  [instinct : सहज-प्रवृत्ति ,  किसी व्यवहार विशेष की तरफ जीवधारियों के स्वाभाविक झुकाव को कहते हैं। सहज वृत्ति वाली गतिविधियों के स्थायी पैटर्न को पशुओं के व्यवहार में देखा जा सकता है,जो ऐसी कई गतिविधियों में संलग्न रहते हैं जो पूर्व अनुभवों पर आधारित नहीं होती हैं, जैसे कि कीड़ों के बीच प्रजनन तथा भोजन संबंधी गतिविधियां। समुद्र तट पर प्रजनित समुद्री कछुए स्वतः ही समुद्र की ओर चलने लगते हैं और मधुमक्खियां नृत्य द्वारा खाद्य स्रोत की दिशा के बारे में बताती हैं; ये किसी औपचारिक शिक्षा के बिना ही होते हैं।  जैसे पशुओं की लड़ाई , जानवरों का प्रेमालाप संबंधी व्यवहार, बचने के आतंरिक तरीके और घोसलों का निर्माण शामिल हैं। किसी जीवधारी को आहार-निद्रा -भय और मैथुन सीखने के लिए स्कूल नहीं जाना पड़ता। ] लेकिन यह ज्ञान-लाभ का सबसे निम्न साधन ... the lowest instrument of knowledge है। 

      ज्ञान-लाभ का दूसरा साधन क्या है ? What is the second instrument of knowledge? Reasoning. तर्क या बुद्धि (Reasoning.) ।  मनुष्यों में ही इसका सर्वाधिक विकास दिखाई पड़ता है। पहला तो जन्मजात-प्रवृत्ति है ,वह एक अपर्याप्त (inadequate) साधन है। जीवजन्तुओं का कार्यक्षेत्र बहुत संकीर्ण होता है , और घोंसला बनाने या मधु -संचयन आदि तक ही वह काम आता है। यही जन्मजात-प्रवृत्ति मनुष्य में विशेष परिस्फुटित (largely developed) होकर तर्क या बुद्धि-शक्ति ( reason) में परिणत हुई है साथ ही मनुष्य का कार्यक्षेत्र भी पशुओं से बहुत अधिक विस्तृत है, अतः मनुष्यों के लिए यह तर्क शक्ति या  बुद्धिशक्ति भी बहुत अपर्याप्त (insufficient) है। यह कुछ दूर (बहुत हुआ तो मंगलग्रह तक ? ) अग्रसर होकर ही रह जाती है। उसके आगे नहीं बढ़ सकती। और यदि बुद्धि को अज्ञात में जबरदस्ती धकेलने की चेष्टा करो तो , बुद्धि में ही भयानक विभ्रान्ति (confusion- अव्यवस्था) उपस्थित हो जाएगी। reason itself becomes unreasonable. तर्क अपने आप वितर्क (unreasonable) में परिणत हो जायेगा। जैसे - Logic becomes argument in a circle. तर्कसंगत बात (Logic) की भी बाल -की -खाल निकाली जाये , तो वह घूमफिरकर पुनः वादविवाद (argument या झगड़े का) विषय ही बना रहेगा -देहात में बहस -" उ सब तो ठीक बा , बाकी खुँटवा एहिजे गड़ाई !"  जैसे हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान के मूलभूत कारण 'पदार्थ (M) और ऊर्जा (E) " की बात लो। पदार्थ क्या है , जिसपर ऊर्जा कार्य करती है , और ऊर्जा क्या है ? जो पदार्थ पर कार्य करती है। [Take, for instance, the very basis of our perception, matter and Energy (force). What is matter? That which is acted upon by force. And force? That which acts upon matter. अर्थात शक्ति या ऊर्जा , माँ काली अचल (शव) को सचल (शिव) बना देती है !तुम लोग अवश्य समझ गए होंगे कि जटिलता (complication) क्या है। उदाहरण के लिए बच्चों के पार्क में seesaw लगा होता है - जैसे ही एक छोर ऊपर जाता है , दूसरा छोर नीचे जाता है। म०ब० कभी चण्डी- पाठ करती है , कभी कलमा पढ़ने लगती है ! इसलिए तुम्हारे तर्कपथ में - निर्णय करने में , (वोट देने में ) एक बड़ी भारी बाधा दिखाई पड़ रही है कि कोट के ऊपर जनेऊ पहन ने वाला रा०...हि० है या ई० ? निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है जिसको लांघकर बुद्धि अग्रसर हो नहीं सकती। तथापि इसके (दृष्टिगोचर अनेकता)  परे जो अनन्त राज्य (एकत्व) विद्यमान है - अद्वैत भाव विद्यमान है - जहाँ हिन्दू-मुसलमान नहीं केवल शुद्ध चेतना (Pure Consciousness) विद्यमान है , वहाँ पहुँचने के लिए बुद्धि सदा उत्सुक (impatient- अधीर , बेसब्र , व्याकुल) रहती है। " You find a mighty barrier before reason, beyond which reasoning cannot go; yet it always feels impatient to get into the region of the Infinite beyond." पंचेन्द्रिय-गम्य और मानसिक -विचार गम्य यह जगत - यह विश्व उस अनन्त सच्चिदानन्द का मानो एक अणु मात्र है, जो शाश्वत चैतन्य भूमि से प्रक्षिप्त हुआ है।  और हमारी तर्क-बुद्धि (reason) चेतनरूप जाल से घिरे (network of consciousness) हुए इस दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड , गैलेक्सी के क्षुद्र घेरे के भीतर ही काम करती है , उसके परे नहीं जा सकती। इस कारण तर्क-बुद्धि से भी परे जाने के लिए किसी अन्य साधन का प्रयोजन है। उस साधन को ही अतीन्द्रियबोध (inspiration-अंतःप्रेरणा , इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार कहा जाता है।  [Therefore, there must be some other instrument to take us beyond, and that instrument is called inspiration. 'गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥ इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो॥ ]  अतएव जन्मजात-प्रवृत्ति , बुद्धि-शक्ति और अतीन्द्रियबोध , ये तीनों ही ज्ञानलाभ के साधन हैं !  So instinct, reason, and inspiration are the three instruments of knowledge. 

        पशुओं में जन्मजात-प्रवृत्ति , मनुष्य बुद्धि-शक्ति , और देव-मानव में अतीन्द्रियबोध दिखाई पड़ता है। .... यह भी स्मरण रखना कर्तव्य है कि एक शक्ति दूसरे की विकसित अवस्था ही है , इसलिए वे परस्पर विरोधी नहीं हैं। बुद्धि-शक्ति ही प्रस्फुटित होकर अतीन्द्रियबोध में परिणत हो जाती है (It is reason that develops into inspiration), इसलिए अतीन्द्रियबोध बुद्ध-शक्ति का खण्डन नहीं करती , बल्कि उसका पूरक है (inspiration does not contradict reason, but fulfils it.) जो जो विषय बुद्धि-शक्ति द्वारा समझ में नहीं आते, उन सबको अन्तीन्द्रियबोध द्वारा समझना होता है और वह बुद्धिशक्ति का विरोधी नहीं है। The old man does not contradict the child, but fulfils the child.--वृद्ध मनुष्य बालक का विरोधी नहीं है , परन्तु उसकी पूर्ण परिणति है। तुमको सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि , यदि निम्नश्रेणी की शक्ति (instinct) को ही उच्च शक्ति  (inspiration) समझने की भूल की गयी तो भयानक विपद में फँसने की सम्भावना है। अनेक बार जन्मजात-प्रवृत्ति को ही अतीन्द्रियबोध कह दिया जाता है , और साथ ही भविष्यवक्ता बनने का झूठा दावा भी (गुरुगिरि) किया जाता है। कोई मूर्ख या अर्ध-उन्मत्त व्यक्ति यह समझता है कि उसके दिमाग में जो पागलपन है , वह अतीन्द्रिय ज्ञान है , और वह चाहता है कि लोग उसका अनुसरण करें।  A fool or a semi-lunatic thinks that the confusion going on in his brain is inspiration, and he wants men to follow him.संसार में जो परस्पर-विरोधी असम्बद्ध प्रलाप (contradictory irrational nonsense ) प्रचारित हुए हैं, वे केवल विकृतमस्तिष्क उन्मत्त लोगों ( confused lunatic brains) के सहज -ज्ञान लब्ध प्रलाप को अतीन्द्रियबोध की भाषा (language of inspiration.) में प्रकट करने  चेष्टा मात्र हैं। 

        सच्ची शिक्षा/यथार्थ धर्मोपदेश का प्रथम लक्षण क्या है ? (The first test of true teaching) : सच्ची शिक्षा/धर्मोपदेश  का प्रथम लक्षण यही होना चाहिए कि वह कभी युक्ति-तर्क की विरोधी न हो। The first test of true teaching must be, that the teaching should not contradict reason. तुमको यह समझ में आ जायेगा कि उपरोक्त चारो योग इसी ठोस आधार पर प्रतिष्ठित हैं। पहले राजयोग की बात लो। मनःसंयोग (the psychological way to union) के अभ्यास द्वारा परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य या ब्रह्म) के साथ एकत्व की अनुभूति प्राप्त करने का राज-मार्ग ! 

       [उपरोक्त ज्ञान-लाभ के तीन साधन कहने के बावजूद ], हमलोगों के पास ज्ञानलाभ का केवल एक उपाय है निम्नतम मनुष्य से लेकर सर्वोच्च योगी तक को उसी उपाय का अवलम्बन करना पड़ता है।  यह उपाय है एकाग्रता (concentration)। कोई chemist जब अपनी प्रयोगशाला (laboratory) में काम करता है , तब वे अपने  मन की सारी शक्ति को एकत्र कर लेते हैं, brings them into one focus, and throws them on the elements " केन्द्रीभूत कर लेते हैं - और उस केन्द्रीभूत शक्ति का प्रयोग मूल तत्व (element) के ऊपर करते हैं , वे पदार्थ विश्लेषित हो जाते हैं और इस प्रकार वे उनका ज्ञान-लाभ करने में समर्थ होते हैं। खगोल विज्ञानी अथवा खगोल शास्त्री (astronomer) जो  आकाशीय पिण्डों, उनकी गतियों और अंतरिक्ष में मौजूद विविध प्रकार की चीजों की खोज और अध्ययन का कार्य करते हैं; वे भी दूरबीन (telescope) के माध्यम से मन की सम्पूर्ण शक्ति को एकत्रित कर ज्ञातव्य वस्तु पर केन्द्रीभूत कर देते हैं , जिससे घूमने वाले तारे और ग्रहमंडल ( stars and systems) उनके निकट अपने रहस्य उद्घाटित कर देते हैं। किसी खास विषय का प्राध्यापक हो या छात्र , या कोई व्यक्ति जिस विषय को जानना चाहता है , यदि उसपर अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्रित कर केन्द्रीभूत करने की पद्धति  सीखकर , उसी विषय पर लगा दे तो उसे किसी भी सम्यक जानकारी प्राप्त जाएगी। तुम सब मेरी बात को सुन रहे हो , यदि मेरी बात तुमको अच्छी लगी तो तुम्हारा मन मेरी बातों के प्रति एकाग्र जायेगा। फिर यदि तुम्हारे कानों के पास कोई घंटा भी बजाए , तो तुमको सुनाई नहीं देगा , कारण तुम्हारा मन उस समय किसी अन्य विषय में एकाग्र हुआ रहेगा। तुम अपने मन को जितना अधिक एकाग्र करने में समर्थ होंगे , उतना ही अधिक तुम मेरी बातों को समझ सकोगे , 'the more I concentrate my love and powers ' मैं अपने हृदय की प्रेमशक्ति को जितना  एकाग्र कर सकूंगा , उतना ही अधिक अच्छी तरह से मैं तुमको अपनी बात समझा सकूँगा। यह एकाग्रता जितनी अधिक होगी , उतना  ही अधिक मनुष्य ज्ञान-लाभ करेंगे , कारण -यही ज्ञानलाभ का एकमात्र उपाय है - नान्यः पंथा विद्यते अयनाये।  

मनःसंयोग : सनातन धर्म में किसी भी कार्य में यथेष्ट सफलता  प्राप्त करने के लिए कुछ साधन बताए गए जिन्हें साधना का नाम दिया गया है।  किसी भी साधना के पूर्ण होने या अवरोधित सम्पन्न होने में सबसे बड़ी भूमिका (चरित्र) मनुष्य के मन का होता है।  क्योंकि शास्त्रों में लिखा गया है :- "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो:" मन ही मनुष्य के मोक्ष एवं बन्धन का कारण होता है। मानव मन की गति अपार है , यह मनुष्य को कभी बैठने नहीं देता। इस संसार में किसी को भी जीतने की अपेक्षा सर्वप्रथम अपने मन पर विजय प्राप्त करने वाला राजा ही दिग्विजयी होता है। 

       मन को लेकर कई मुहावरा हैं —मन का खराब होना =  मन फिरना ।  नाराज होना । अप्रसन्न होना ।  रोगी होना । बीमार होना । मन टूटना = साहस छूटना । हताश होना । अपने मन का होना =  अपनी इच्छा या रुचि आदि के अनुकूल होना । किसी व्यक्ति से मन अटकना या उलझना = प्रीति होना । प्रेम होना ।  मन में आना = समझ पड़ना । जँचना । स्थिर मन - स्थित प्रज्ञता । मन में ठानना । इरादा करना । नीयत बिगड़ना =  'नीयत बद होना' । नीयत भरना = जी भरना । मन तृप्त होना । इच्छा पूरी होना । नीयत में फर्क आना = बुरा संकल्प या विचार होना । अनुचित या बुरी बात की और प्रवृत्ति होना । बेईमानी या बुराई सूझना । नीयत लगी रहना = घ्यान बना रहना । इच्छा बनी रहना । जी ललचाया करना ।  मन प्रबल हैं और मन से ही सर्व कार्य सिद्ध होते हैं । बौद्ध लोग इसे छठी इंद्रिय मानते हैं । यद्यपि, मन स्थिर होना अति दुष्कर हैं । प्राणियों में वह शक्ति या कारण जिससे उनमें वेदना, संकल्प, इच्छा द्वेष, प्रयत्न, बोध और विचार आदि होते हैं, उसे मन,  अंतःकरण या  चित्त भी कहते हैं । संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, और संस्कार इसके गुण बतलाए गए हैं और इसे आणुरूप माना गया है । योगशास्त्र में मन की तुलना एक शान्त सरोवर से करते हुए इसे चित्त कहा है । अंतःकरण की चार वृत्तियों में से एक जिससे संकल्प विकल्प होता है ।

    " एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम् । (मनुस्मृति 2 /67 ) . " एकादशं मनः " --अर्थात ग्यारहवां मन है, जो स्वगुणेन उभयात्मकम् है ;  इसका धर्म संकल्प विकल्प करना बतलाया गया है तथा इसे उभयात्मक लिखा है; अर्थात् उसमें ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनों के धर्म हैं । वह अपने स्तुति आदि गुणों से दोनों प्रकार के इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है जिस मन के जीतने में  ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनों जितौ जीत लिये जाते हैं । 

"अभ्यास" और "वैराग्य" का महत्त्व :---भगवान गीता में कहते हैं, "असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||"अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति।  वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन और उन से विरक्ति। या लालच को कम करते जाना। योगदर्शन में भी सूत्र है ..."अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः||१:१२|| इसके  व्यास भाष्य में कहा गया है ...."चित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च| या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा| संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा| तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिली क्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः||"

'चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च ' ....चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है; अर्थात् उसमें ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनों के धर्म हैं। कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति (कैवल्य की ओर ले जाने वाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए (ज्ञानेन्द्रिय की ओर ) बहती है। 'संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति' ---अविवेक से युक्त और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से संसार की ओर ले जानेवाली वह चित्तनदी पाप के लिए बहती है (अवनति की ओर ले जाती है)। हमारा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है। "विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-शक्ति' जो सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है; वह एक दिन  (१२ जनवरी १८६३ को) स्वयं स्वामी विवेकानन्द की आकृति में आविर्भूत होगी ! और तब उस गुरु विवेकानन्द के मूर्त रूप पर या (स्वामी विवेकानन्द की छवि पर ) पुनः पुनः मन को धारण करने के अभ्यास से  एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध और ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा! अतः हमें किस और बहना है .... उस का अभ्यास, हमलोग वैराग्य के साथ करें।  क्योंकि चित्त की वृत्तियों का निरोध इन्हीं दोनों - अभ्यास और वैराग्य के आधीन है !          

      हमारे चित्त में तमोगुण की प्रबलता होने पर निद्रा, आलस्य, निरुत्साह, प्रमाद आदि मूढ़ अवस्था के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। रजोगुण की प्रबलता होने पर चित्त विक्षिप्त अर्थात् चञ्चल हो जाता है। इन दोनों प्रकार की बाधक वृत्तियों के प्रशमन के लिये अभ्यास तथा वैराग्य सर्वोत्तम साधन हैं। अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति और वैराग्य से रजोगुण की निवृत्ति होती है। वैराग्य से चित्त का बहिर्मुख प्रवाह रोका जाता है, व अभ्यास से आत्मोन्मुख प्रवाह स्थिर किया जा सकता है। 

      मनुष्य के सुख एवं दुख का कारण मनुष्य के मन को ही कहा गया है।  आज का मनुष्य सुख की अपेक्षा दुख का अनुभव अधिक करता है , मनुष्य के दुख का कारण बनती हैं सांसारिक उपभोग की वस्तुओं का अभाव।  सांसारिक वस्तुओं से मनुष्य का मन कभी भरता ही नहीं है। कुछ न कुछ रिक्तता मनुष्य के जीवन में सदैव बनी रहती है उसी रिक्तता को पूर्ण करने के उद्योग में मनुष्य व्यस्त रहता है और उसकी पूर्ति न होने पर दुखी हो जाता है। आम विषयी लोग जिसे ( इन्द्रिय विषय भोगों को ) सुख समझते हैं, उसकी तुलना दाद-खाज से करते हुए आचार्य नरहरि ने कहा है-' कंडूयनेन यत कंडू सुखं तत किं भवेत सुखम । पाश्चादत्र महापीड़ा तथा वैषेयिकं सुखं ।।'अर्थात दाद-खाज खुजलाते समय जिस क्षणिक सुख का अनुभव होता है, क्या उसे सच्चा सुख समझना कोई बुद्धिमानी है ? खुजला देने के बाद वहाँ जिस प्रकार के तीव्र जलन का अनुभव होता है, इन्द्रिय-विषय भोगों से मिलने वाले सुख को भी वैसा ही समझना चाहिए.गीता (१८/३७-३९) में भगवान ने कहा है - " इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होने वाला सुख प्रारम्भ में तो अमृत के समान मालूम पड़ता है, किन्तु (कंडू सुखं की भाँति) उसका परिणाम में  विष के समान होता है. इस प्रकार से प्राप्त होने वाले सुख को राजसिक सुख कहा गया है. अतिभोगी और विलासी लोगों को विवेकहीन होने के कारण (शराबियों आदि को) जिस सुख का अनुभव होता है,वह भोगने के प्रारंभ एवं परिणाम में भी मनुष्य को मोहित (अचेत) कर देता है, उसे तामसिक सुख कहा गया है. एवं जो सुख प्रारम्भ में तो कष्टकर प्रतीत होता है (प्रत्याहार का अभ्यास और वैराग्य ), किन्तु परिणाम में (परिपक्व ज्ञान-वैराग्य) अमृत जैसा प्रीतिकर लगता हो, उसे सात्विक सुख कहा जाता है.श्रेय (Good) अर्थात शाश्वत,और प्रेय (Pleasant)अर्थात नश्वर? जबकि इस संसार में पूर्ण कोई भी नहीं है ! समस्त ब्रह्माण्ड में परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी पूर्ण नहीं है , यह सभी जानते भी हैं परंतु चंचल मन मानता नहीं और विषयोपभोग की कामना से इधर से उधर भटका करता है। मन को संतोष कभी नहीं होता , जिसके मन में संतोष हो गया समझ लो उसने सबकुछ प्राप्त कर लिया। मन को ही साध लेना सबसे बड़ी साधना कहा गया है। 

संसार के सात सुख : " पहला सुख निरोगी काया। दूजा सुख घर में हो माया। तीजा सुख सुलक्षणा नारी। चौथा सुख सुत आज्ञाकारी। पांचवा सुख हो स्वदेश वासा। छठवां सुख हो राज में पासा। सातवां सुख संतोषी जीवन। " ------     शरीर का स्वस्थ रहना पहला सुख माना गया है, क्योंकि यदि स्वास्थ्य‌ अच्छा नहीं है तो बाकी कुछ भी अच्छा नहीं लगता। धन का होना नंबर दो का  सुख है। लोग इसे पहला सुख मान कर इसके पीछे अपनी जान लगा देते हैं, व्यायाम -ध्यान नहीं तो शरीर को रोगी बना लेते हैं । फिर पत्नी मनोरमा देहि -यदि किसी की पत्नी अच्छे  चाल-चलन वाली न हो तो जीवन नरक बन जाता है। पुत्र पिता की आत्मा कहलाता है। यदि वह आज्ञा नहीं मानता है तो  पिता को इससे बढ़ कर  दु:ख क्या हो सकता है? जीवन-यापन करने के  लिए अपना देश, अपनी  जन्मभूमि और अपने  स्वजनों को छोड़ कर अमेरिका में रहने का ग्रीनकार्ड बनवाने के लिए अप्लाई  न करना  पड़े। छठवां सुख हो राज में पासा --अर्थात सत्तापक्ष के M. P. /M. L. A  सरकारी दफ्तरों में पहुंच- पैरवी होना बहुत जरूरी है, अन्यथा कई प्रकार के काम अटक जाते हैं। सातवां सुख संतोषी जीवन - प्रारब्ध के अनुसार जो  परिवार मिला है और  मेहनत करने के बाद जो  भोग-समग्री मिली है,  उसमें संतोष करना ही  सातवां सुख कहलाता है। यदि किसी का जीवन ऐसा है तो धन्य है वह जीवन !

      प्रारब्ध और पुरुषार्थ :- मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है! :  Success is not an accident. Failure is not an accident. The Law of Cause and Effect, the foundation of the scientific method, says that there is a reason for everything that happens. For every effect, there is a cause, whether we know what it is or not. उन भौतिक नियमों को विज्ञान के नियम कहा जाता है जो सार्वत्रिक (universal) समझे जाते हैं तथा जो भौतिक जगत के अपरिवर्तनशील तथ्य हैं। जब कोई  क्रिया  किसी दूसरी प्रक्रिया  को उत्पन्न करती है तो इसे कारणता (causality या causation) कहते हैं। जो प्रक्रिया उत्पन्न होती है उसे 'प्रभाव' (effect) कहते हैं तथा प्रभाव को उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया  को 'कारण' (cause) कहा जाता है। कारणता को 'कार्य-कारण' ( cause and effect) भी कहते हैं। न्यूटन का सिद्धांत है कि हर क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। महान वैज्ञानिक न्यूटन को दुनिया भले ही कार्य-कारण नियम का जनक मानती हो लेकिन भारतीय ऋषियों ने हजारों साल पहले इसकी खोज कर ली थी।  हमारा आध्यात्म कहता है कि जो बोओगे, उसे काटना ही पड़ेगा। मनुष्य लाख जतन कर ले, उसे अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।

प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर । 

तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर।। 

 प्रारब्ध के बनाने वाले हैं भगवान अर्थात् प्रारब्ध का नाम है भगवान का विधान । ज्ञानी लोग उसे प्रारब्ध कहते हैं और भक्त उसे भगवान का विधान या भगवान की इच्छा या उनका आदेश मानते हैं । जो कुछ होता है भगवान के विधान से ही होता है; इसलिए हमारे मन के विपरीत कोई कार्य हो तो उसमें मनुष्य को आनंद मानकर प्रसन्नचित्त रहना चाहिए । भगवान राम जब वन को चले गए तो माता कौसल्या ने न तो कैकेयी को दोष दिया और न ही मंथरा को । उन्होंने कहा कि यह तो मेरे दुर्भाग्य की बात है, मेरी तकदीर की बात है । तकदीर तो भगवान ने ही बनाई है । बच्चा पैदा होने से पहले माँ के स्तन में दूध पैदा होता है , इससे सिद्ध होता है कि  जन्म, आयु और भोग पहलेसे निश्चित होता है, उसके लिए चिंता नहीं करनी है । चिंता करनी हो तो परमात्मप्राप्ति के विषय में करो । मैं कोन हूँ ? मैं कहाँ से आया हूँ ? कहाँ जाना है ?  जड़-चेतन क्या है ? द्वैत-अद्वैत क्या है?  इसको जानने के लिए पुरुषार्थ रूपी पुड़िया है कि सत्संग, स्वाध्याय, भजन (जप-ध्यान) करो । शरीर (देवालय) को सजाना, मकान को सजाना यह मूर्ति पूजा है, भगवान की पूजा नहीं है । 

 पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर पहले भाग्य का निर्माण होता है, उसके बाद शरीर की रचना की जाती है। कर्मों के आधार पर बने भाग्य में बदलाव संभव नहीं है, अत: उसकी चिंता किए बिना भगवान का भजन करते रहिए। प्रभु की  कृपा सर्वोपरि है,  ये अवश्य  प्रारब्ध को काट सकती है।  लेकिन  अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा । यही कर्म का नियम है ।  जो भक्त  हर समय श्रद्धा और विश्वास से प्रभु को  जपते हैं; उनके प्रारब्ध प्रभु  स्वयं साथ रहकर कटवा देते हैं।  और तीव्रता का अहसास नहीं होने देते । 

     जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त ऐसी अनेक घटनाएँ मनुष्य के जीवन में घटती हैं जिनका कारण उसका प्रारब्ध होता है। यह सिलसिला कालक्रम के अनुरूप चलता रहता है। इसमें वर्ष भी लगते हैं और जन्म भी। प्रारब्ध का अर्थ है- परिपक्व कर्म। हमारे पूर्वकृत कर्मों में जो जब जिस समय परिपक्व हो जाते हैं, उन्हें प्रारब्ध की संज्ञा मिल जाती है। प्रारब्ध कर्म के अनुसार ही मनुष्य की जाति, आयु, गुण और उसके भोग का निर्धारण होता है। ज्योतिषी कुंडली में प्रारब्ध को नवम भाव या नवमेश से देखते है। व्यक्ति का वर्तमान जन्म उस परिवार में होता है जिसकी परिस्थिति उसका प्रारब्ध भोगने के लिए अनुकूल हो। जो लोग अपने जीवन को बहुत बारीकी से देखते हैं, वे नशीले और उत्तेजक (तम्बाकू -आदि) पदार्थों से दूर रहते हैं। 

     मनुष्य शरीरका केवल एक ही प्रयोजन है, परमात्मा (परम् सत्य) की प्राप्ति करना ।  अतः मुझे घर-गृहस्थी के सभी कार्य करते हुए केवल वह 'सत्य' (इन्द्रियातीत सत्य , परमात्मा की खोज - ब्रह्मचर्य ) क्या है, जिसको देखकर एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलीश अँधा हो गया था ?  हमारे पास दो उपाय है —(१) पूर्व के कर्मों का फलका; भाग्यका और (२) अभी के कर्म करने का; पुरुषार्थ का । एक ‘करने का’ और एक ‘होने का’; दोनों ही कर्म है । अतः हमारे पास प्राप्ति के उपाय तो दो है , और चीज हमें चार चाहिए । (१) धन (२) सुख-भोग (३) धर्म (४) मुक्ति-कल्याण । इस चार के अंतर्गत सभी चाहना आ जाती है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मान,आदर आदि के भोगों में हमारी स्वतंत्रता नहीं है । इससे सिद्ध हुआ कि जिसमें हम स्वतंत्र है उसमें उद्योग करे। द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी,घनिष्ठ सखा,समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है,अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। जो व्यक्ति अपनी विद्या,धन, शक्ति स्वयं ही समाज सेवा में समाज के उत्थान में लगा देते हैं,उनका सभी ध्यान रखते हैं और वे मान-सम्मान पाते है। वहीं दूसरी ओर जो अपनी विद्या,धन,शक्ति स्वार्थ वश छिपाकर रखते हैं, किसी की सहायता से मुख मोड़े रखते है, वे समूल (जड़ सहित) खोद लिए जाते है,अर्थात् समय रहते ही भुला दिये जाते है। जैसे कठपुतली के नाच में कठपुतली और उसका नाच तो दर्शकों को दिखायी देता है परन्तु कठपुतलियों को नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे रहता है, जिसे दर्शक देख नहीं पाते; उसी प्रकार यह संसार तो दिखता है किन्तु इस संसार का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भगवान दिखायी नहीं देता है; इसीलिए मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानकर अहंकार में रहता है । परन्तु यह विराट् विश्व परमात्मा की लीला का रंगमंच है । विश्व रंगमंच पर हम सब कठपुतली की तरह अपना पात्र अदा कर रहे हैं । भगवान की इस लीला में कुछ (Bh)  भी अनहोनी बात नहीं होती । जो कुछ होता है, वही होता है जो होना है और वह सब भगवान की शक्ति ही करती है । और जो होता है मनुष्य के लिए वही मंगलकारी है ।अर्जुन को निमित्त बना करके भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों की सेना का नाश कर दिया किंतु वास्तव में भगवान के द्वारा वह सेना पहले से ही मारी गई थी, अर्जुन तो केवल निमित्त बन गए । भगवान जो कुछ करते हैं हमारे भले के लिए ही करते हैं । इसमें भगवान को भी दोष नहीं देना चाहिए; क्योंकि वे हमारे ऊपर दया करके हमारे पाप का फल भुगताते हैं और हमें पापमुक्त करते हैं । अतः हमें  कर्तापन का अभिमान छोड़कर माध्यम बन कर ही कर्म करना चाहिए। 

     आज का परिवेश इतना दूषित हो गया है कि प्रत्येक मनुष्य अपने मन की विसंगतियों से स्वयं को बचा ही नहीं पा रहा है। मनःसंयोग की साधना करना तो दूर की बात है आज मनुष्य कुछ क्षण बैठकर , मन को एकाग्र  कर पाने में भी असफल हो रहा है।  ऐसा नहीं है कि आज अष्टांग योग की साधना करने वाले महापुरुष नहीं है ! आज भी साधनायें हो रही हैं और होती रहेंगी , परंतु आज जिस प्रकार समाज में अनाचार , कदाचार , भ्रष्टाचार एवं आत्महत्या जैसे कुकृत्य हो रहे हैं तो उसका मुख्य कारण मन की चंचलता व अवसाद ही है।  छोटी - छोटी बात पर युवाओं का मन उद्विग्न हो जाता है और मनुष्य आत्महत्या जैसी कायरता करने को प्रेरित होकर यह कार्य कर डालता है।  समाज की वर्तमान अवस्था को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि, आज छात्र -युवा समाज में स्वयं के मन को साधने वालों की संख्या अल्प रह गयी है। 

 जीवत्व से शिवत्व के प्राप्ति की चाभी मन की प्रशान्तता ही है। [ जीवत्व या पशुत्व (आहार-निद्रा -भय -मैथुन की प्रवृत्ति)  का अतिक्रमण कर मनुष्य बनने और मनुष्यत्व से देवत्व (शिवत्व) में उन्नत होने की कुँजी मन की चचंलता को वश में करना ही है। ]  

  मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है यदि मनुष्य ने अपने मन को बस में कर लिया तो उसकी साधना पूर्ण हो जाती है , और यदि मन भटक जाता है तो साधना अवरुद्ध हो जाती है।  मन का सहज स्वभाव व कामना होती है :- सुख एवं इन्द्रिय -विषयों की तरफ भागना, या  विषयों-न्मुखता। मन सदैव सांसारिक सुखों की तलाश में रहता है , मन का अस्तित्व ही इसी पर टिका हुआ है।  

      मन की चंचलता सर्वविदित है , सांसारिक सुख की मृग मरीचिका के पीछे भागना भटकते मन का स्वभाव होता है। मन की हालत उस बंदर की तरह होती है जिसका स्वभाव ही चंचल होता है और उस चंचलता पर उसे मदिरा पिला दी जाए और फिर कोई बिच्छू स्कोर डंक मार दे इन सब से वह सम्भल भी नहीं पाता नहीं कि उस पर एक दानव सवार हो जाता है।  ठीक उसी प्रकार यह मन वासना रूपी मदिरा पीकर उन्मत्त हो जाता है और उस पर ईर्ष्या रूपी बिच्छू का डंक उसे और पागल कर देता है इसके बाद उसके ऊपर अहंकार रूपी दानव जब सवार हो जाता है तो यह मन किसी को भी कुछ नहीं समझता है। ऐसी अवस्था में मन का निग्रह दुष्कर हो जाता है , इसलिए प्रत्येक मनुष्य को मन की विपरीत विचारों से सावधान रहने एवं उसको अनुशासित करने की आवश्यकता होती है , क्योंकि मन को अनुशासित किए बिना कोई भी साधना कभी भी सफल नहीं हो सकती।  

      बीजमंत्र ॐ कार : ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के साथ ही ॐ कार  की उत्पत्ति हुयी है। इनकी महिमा का वर्णन श्री शिव ने किया है और इनमे ही सारे नाद छुपे हुए हैं। मन्त्र अपने इष्ट को याद करना और उनके प्रति समर्पण दिखाना है। मंत्र और स्त्रोत में अंतर है की स्त्रोत को गाया जाता है जबकि मन्त्र को एक पूर्व निश्चित लय में जपा जाता है। मंत्र एक विशेष लय में होती है जिसे गुरु के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।   मन की सुषुप्त शक्तियों को जगाने वाली शक्ति को मंत्र कहते हैं।  जो हमारे मन में समाहित हो जाए वो मंत्र है। देवी देवताओं के मूल मंत्र को बीज मन्त्र कहते हैं। ॐ को अन्य मन्त्रों के साथ प्रयोग किया जाता है क्यों की यह अन्य मन्त्रों को उत्प्रेरित कर देता है। मंत्र दो अक्षरों से मिलकर बना है मन और त्र। तो इसका शाब्दिक अर्थ हुआ की मन से बुरे विचारों को निकाल कर शुभ विचारों को मन में भरनाबीज मंत्रों के जाप से विशेष फायदे होते हैं।  वैज्ञानिक स्तर पर भी इसे परखा गया है। मंत्र जाप से छुपी हुयी शक्तियों का संचार होता है। मस्तिष्क के विशेष भाग सक्रीय होते है।जब मन में ईश्वर के सम्बंधित अच्छे विचारों का उदय होता है तो रोग और नकारात्मकता सम्बन्धी विचार दूर होते चले जाते है। मन्त्र के जाप से एक तरंग का निर्माण होता है जो की सम्पूर्ण वायुमंडल में व्याप्त हो जाता है और छिपी हुयी शक्तियों को जाग्रत कर लाभ प्रदान करता है।       

सफलता का मूल मंत्र : .... कोई भी काम यदि एकाग्रता से किया जाए तो अवश्य ही पूरा होता है।" 

         एक बार जर्मनी के कील विश्वविद्यालय (University of Kiel, Germany) के विख्यात संस्कृतज्ञ विद्वान् प्रोफेसर पॉल डॉयसन के निमंत्रण पर विवेकानंद स्विटरज़रलैंड से जर्मनी गए। स्वामीजी के आने का समाचार पाते ही प्रो ० डायसन ने उन्हें प्रातभोजन के लिए निमन्त्रण भेजा। साथ ही वे सेवियर दम्पत्ति (नवनी दा?) को भी निमन्त्रित करना न भूले थे। उपनिषद, वेदांत दर्शन और शंकर भाष्य पर दोनों में विचार विनिमय हुआ।चर्चा के दौरान प्रोफेसर डायसन किसी काम से उठकर चले गए। थोड़ी देर बाद वे लौटे तो देखा कि विवेकानंद कविता की किताब के पन्ने पलट रहे हैं। इस काम में वे इतने तल्लीन थे कि उन्हें प्रोफेसर की आहट भी नहीं सुनाई दी। पुस्तक समाप्त हो गई तो स्वामी जी ने उन्हें अपने पास बैठे देखा। बोले, क्षमा कीजिएगा मैं पढ़ रहा था। लिहाजा आपको देख न सका।

       लेकिन प्रो ० डायसन को संदेह हुआ कि स्वामीजी ने जानबूझकर मुझे उपेक्षित किया। इसलिए विवेकानंद ने उन्हें पुस्तक में पढ़ी हुई कविताएं सुनानी शुरू कर दीं। अंततः प्रोफेसर महोदय विस्मित होकर बोले, आपने यह पुस्तक जरूर पढ़ी होगी नहीं तो यह कैसे संभव है कि चार सौ पृष्ठों और 200 कविताओं की पुस्तक आधे घंटे में याद कर लेना केवल दुःसाध्य क्या असम्भव है। 

    स्वामीजी ने हँसते हुए उत्तर दिया , " संयतमना योगी के लिए यह असम्भव नहीं है। मेरा विश्वास है कि इस शक्ति को प्रत्येक मनुष्य प्राप्त कर सकता है। आप जानते हैं , मैं कामकांचन-त्यागी संन्यासी हूँ।  आजन्म अखण्ड ब्रह्मचर्य के परिणाम में यह शक्ति स्वयं ही मुझमें आ गयी है। पाश्चात्य देशों में बहुत से लोग एकाग्रता की शक्ति पर विश्वास नहीं भी कर सकते हैं, परन्तु भारत में पतंजलि योगसूत्र का प्रशिक्षण के बल पर इस प्रकार की स्मृति-शक्ति के अधिकारी आज कम होने पर भी अदृश्य नहीं हुए हैं।  स्वामी विवेकानन्द ने सफलता का मूल मंत्र देते हुए कहा ,एकाग्र चित्त होकर जैसे ही आप किसी काम में लगते हैं, आधा काम आरंभ में ही हो जाता है। संक्षेप में : कोई भी काम यदि एकाग्रता से किया जाए तो अवश्य ही पूरा होता है। ध्यान रखें एकाग्रता दिखावटी नहीं होनी चाहिए।  प्रोफेसर महोदय स्वामीजी की युक्ति को सुनकर संतुष्ट हुए। 

        श्री शंकर की अद्भुत स्मृति और श्री चैतन्य अद्भुत-शक्ति मनोनिग्रह शक्ति (जीभ पर रखा शक़्कर गीला न हुआ ) की बात हम जानते हैं। अनेक वर्षों के अटूट संयम व कठोर साधना के द्वारा स्वामी विवेकानन्द का ब्रह्मचर्य सुप्रतिष्ठित हुआ था। स्वामीजी मनःसंयम के अनिवार्य अंग यम-नियम पालन को सार्वभौम व्रत मानकर बहुत श्रद्धा के साथ देखते थे। (किसी भी भावी नेता या लोकशिक्षक के मन में)  विवाह या उससे सम्बन्धित किसी प्रकार की घटना की स्मृति तक न आ सके यही स्वामी विवेकानन्द का आदर्श था शिष्य (पाश्चत्य शिक्षा ग्रस्त ) वर्ग को, यहाँ तक कि अपने तक को , उस प्रकार की आशंका से दूर रखने की सदैव ही चेष्टा किया करते थे। ब्रह्मचर्य -रूपी महान व्रत की वर्तमान शोचनीय दुरवस्था देख वे उक्त आदर्श को फिर से प्रतिष्ठित करने के लिए प्राणपण से चेष्टा कर गए हैं। 

       ब्रह्मचर्य का प्रथम भाग ईश्वर उपासना है।  ईश्वर उपासक को विद्या की प्राप्ति और अविद्या का नाश होता है। विद्या प्राप्ति ईश्वर के सानिध्य से ही संभव है। जब मनुष्य विद्या प्राप्त कर लेता है, ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो है सत्य असत्य का निर्णय कर, सत्य मार्ग पर बढ़ जाता है। ईश्वर की उपासना द्वारा  मनुष्य नित्यानंद को प्राप्त करता है।  जो व्यक्ति ईश्वर की उपासना करता है उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। वह असीम आनंद को प्राप्त करता है। अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। बिना ईश्वर की भक्ति के इंद्रियों को पूर्णरूपेण वश में करना संभव नहीं। विषय भोगों की रुचि ब्रह्मचर्य पालन में अत्यंत बाधक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है - विद्यार्थी जीवन में मन,वचन कर्म से पवित्र रहना। "ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत"( अथर्व० ११/५/१९) अर्थात् - ब्रह्मचर्य के तपसे देव मृत्यु को जीत लेते हैं। योगसूत्र (योग २/३८) में कहा गया है --- "ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ :"अर्थात् - मन, वचन और शरीर से ब्रह्मचर्य का पालन करने से बौद्धिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती है।

        ब्रह्मचर्य का दूसरा भाग  स्वाध्याय  है। उत्तम ग्रंथों के अध्ययन से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है। स्वाध्याय  से व्यक्ति संसार के तीनों प्रमुख पदार्थों ईश्वर, जीव, और प्रकृति (माया) का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है। नियमित स्वाध्याय  करने से चारों योगों के समन्वय अर्थात योगाभ्यास के स्वरूप का ज्ञान होता है। स्वाध्याय  से गौण और मुख्य पदार्थों का ज्ञान होता है। स्वाध्याय  से मनुष्य को साध्य, साधक और साधन का ठीक-ठीक परिज्ञान हो जाता है। स्वाध्याय  से मनुष्य इस जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है और जन्म -मरण के बंधनों से मुक्त (de -Hypnotized)  जाता है।"  

        उन्होंने ने समझा था और वे कहते थे कि शरीर व मन की उच्चतम शक्तियों के विकास के लिए ब्रह्मचर्य ज्वलंत अग्नि की तरह नस -नस से प्रवाहित होना चाहिए। उनकी दृष्टि में निर्जनवास - (अर्थात कमसेकम छः दिनों का गुरुगृहवास या 'Internship Training' में गुरु/नेता के साथ सम्पर्क में रहना), संयम और एकाग्रता ( यम-नियम-आसन -प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास ) की साधना - इन तीनों के सम्मिलित शक्ति द्वारा गठित छात्रजीवन ही ब्रह्मचर्य का आदर्श है।   

      स्वामीजी अक्सर तरुणों और युवाओं को ब्रह्मचर्य के पालन में प्रोत्साहित करते हुए भाव के आवेग में दृढ़ता के साथ कहा करते थे , " यदि तुम काम-क्रोध आदि सैंकड़ों प्रलोभनों में अविचल रहकर चौदह वर्षों तक सत्य की सेवा --( देहो देवालय प्रोक्तः -अर्थात प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का एक मंदिर है , यह समझकर शिव ज्ञान से जीव सेवा) कर सको तो ऐसे एक स्वर्गीय तेज (आभामण्डल) द्वारा तुम्हारा हृदय परिपूर्ण हो जायेगा कि तुम जिसे (M/F विभेद को) झूठ समझोगे, उस बात को कोई साधारण व्यक्ति (Bh) तुम्हारे पास प्रकट करने का साहस तक न करेगा। इस प्रकार तुम उन्नत किस्म की समाजसेवा-Be and Make ' -का प्रचार -प्रसार करते हुए स्वदेश और समाज की सेवा करने के साथ साथ अपनी उन्नति भी कर सकोगे ! यहाँ तक कि केवल अविवाहित रहना/ (अथवा 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' की महिमा में श्रद्धा रखना) भी उनकी दृष्टि में एक आध्यात्मिक नीति मानी जाती थी।           

          What I want to propagate is a religion that will be equally acceptable to all minds; it must be equally philosophic, equally emotional, equally mystic, and equally conducive to action.....मैं एक ऐसे धर्म /शिक्षा का प्रचार करना चाहता हूँ , जो सब प्रकार की मानसिक अवस्थावाले लोगों के लिए उपयोगी हो ; इसमें ज्ञान, भक्ति, योग ओर कर्म समभाव से रहेंगे।   भगवान जी की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग (मनःसंयोग-mysticism) , भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे , तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यही होगा। जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं , मैं उनको एकपक्षीय कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है, जो केवल अपना ही रास्ता जानते हैं। इसके सिवाय अन्य जो कुछ है , वह सब उनके निकट विपत्तिकर और भयंकर है। इस तरह चारों योग-मार्ग में ओर समभाव से विकास लाभ करना ही 'मेरे ' कहे हुए धर्म का आदर्श है। " ३/१५१ ]  

       अमेरिका के प्रसिद्द वक्ता रॉबर्ट इंगरसोल दर्शन व साहित्य में प्रवीण होते हुए भी सन्देहवादी, स्केप्टिक  (Skeptic-संशयी) और भोगवादी (sensualist, कामी) थे। धर्म, ईश्वर, उपासना आदि विषयों को वे सदैव ही उपहास के साथ उपेक्षा करते थे -परन्तु वे इतने लोकप्रिय वक्ता थे कि केवल भाषण देकर ही लाखों रूपये कमा लेते थे। उधर दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द कठोर संयमी , निवृत्तिमार्गी संन्यासी , प्रत्येक धर्म के समर्थक वेदान्तदर्शन के प्रचारक थे। लेकिन स्वामी जी का व्यक्तिगत चरित्र का ऐसा असाधारण प्रभाव था कि, इंगरसोल जैसा स्वातंत्र्य-पारायण व्यक्ति भी उनके मित्र बन गए थे। 

         एक दिन किसी दार्शनिक तत्व की चर्चा करते करते इंगरसोल बोल उठे , ' यह जगत एक सन्तरे की तरह है , जितना हो सके इसे निचोड़ कर इसका रस पीना चाहिए। जब इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि परलोक नाम का कुछ है भी , तो इस जीवन को भी एक झूठी आशा के आधार पर सांसारिक सुख से वंचित रखने से क्या लाभ है ? कौन जाने कब मौत होगी --अतः जहाँ तक सम्भव हो, यथाशीघ्र इस जगत का उपभोग करना चाहिए। 

           स्वामीजी ने मृदु हास्य के साथ उसी समय उत्तर दिया , " परन्तु जगतरूपी सन्तरे का रस निकालने का उपाय मैं तुमसे अधिक अच्छी तरह जानता हूँ और इसलिये तुमसे अधिक रस पाता हूँ। मैं जानता हूँ, मेरी मृत्यु नहीं है। [मैं, (चैतन्य आत्मा) नहीं मरूँगा,मृत्यु तो शरीर की होगी] अतः तुम्हारी तरह मुझे कोई जल्दीबाजी नहीं है। मुझे जगत से किसी प्रकार के भय का कोई कारण नहीं है , स्त्री-पुत्र , परिवार , सम्पत्ति आदि कोई बन्धन नहीं है मेरी दृष्टि में जगत के सभी स्त्री-पुरुष (M/F) ईश्वर के रूप हैं ,(--देहो देवालय प्रोक्तः, प्रत्येक शरीर एक देवालय है, इसलिए मेरी दृष्टि से जगत सभी स्त्रीपुरुष (नारायण -नारायणी ) समान रूप से प्रेम के पात्र (दया नहीं सेवा-पूजा के पात्र) हैं ! सोचो तो , प्रत्येक मनुष्य को साक्षात् भगवानरूप देखने से मुझे कितना आनन्द होता है ! मैं निश्चिन्त होकर रस पान कर रहा हूँ। 

       तुम भी मेरी प्रणाली के अनुसार इस जगतरूपी सन्तरे को निचोड़ना प्रारम्भ कर दो  --तब देखोगे हजार गुना अधिक रस मिलेगा। एक बूँद भी बाकी न रहेगा। श्रेय-प्रेय, शाश्वत -नश्वर विवेक-प्रयोग द्वारा  सन्तरे को आम समझकर, गुठली (सारहीन पदार्थ) फेंक कर आम निचोड़ना प्रारम्भ कर दो स्वामीजी के इस प्रकार के स्पष्ट, सरल परन्तु स्नेहपूर्ण उत्तरों ने इंगरसोल के कठोर हृदय को पिघला दिया , और अमेरिका के दो प्रसिद्द वक्ताओं में मित्रता का दृश्य बड़ा मधुर था। स्वजाति या स्वदेश की निन्दा (अपने धर्म या राष्ट्र की निन्दा) वे कभी सहन नहीं कर सकते थे। स्वधर्म या स्वजाति का पक्ष समर्थन (वेदान्त मत, निवृत्तिमार्ग समय की आवश्यकता) राष्ट्र के पक्ष (त्याग और सेवा ) का समर्थन कर सन्तुष्ट सिंह की तरह जब वे ग्रीवा उठाकर खड़े होते थे , तो उन्हें देखकर ऐसा लगता था , मानो वे अभिमानशून्य उदासीन संन्यासी नहीं , बल्कि मध्ययुग के कोई गर्वित जात्याभिमानी/अहंकारी राजपूत वीर हैं। 

        .... एक समालोचक ने प्रश्न किया , भारत के हिन्दुओं ने क्या किया है ? --वे आज तक किसी जाति पर विजय प्राप्त नहीं कर सके। "------" नहीं कर सके- नहीं; ऐसा कहिये कि उन्होंने की नहीं ! और यही हिन्दुजाति का गौरव है कि उसने कभी दूसरी जाति के रक्त से पृथ्वी को रंजीत नहीं किया। वे दूसरे देशों पर अधिकार क्यों करेंगे ? तुच्छ धन की लालसा से ? भगवान ने हमेशा से भारत को दाता (Donor, दानी-नेता दानवीर कर्ण)  के महिमामय आसन पर प्रतिष्ठित किया है।  भारतवासी सदैव जगत के धर्मगुरु रहे हैं। वे दूसरों का धन लूटने वाले रक्तपिपासु दस्यु कभी नहीं थे। और इसलिए अपने पूर्वजों के गौरव से गर्व का अनुभव करता हूँ !" 

          स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में शिक्षा का आदर्श (Swami Vivekananda's ​Idea of education) : प्राचीन  भारतीय संस्कृति की गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा -  Be and Make' के अनुसार , भारत को पुनः  एक शिक्षा -दाता (अपरा और परा विद्या) का विश्वगुरु की भूमिका में प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से स्वामी जी एवं स्वामी सारदानन्द जी  मई 1896 से  लन्दन में  कु० मूलर तथा श्री ई. टी. स्टर्डी के अतिथि के रूप में रहते हुए,  St. George's Lane , उनके ड्रॉइंग रूम  में   अपने 'लन्दन साप्ताहिक युवा पाठचक्र ' में नियमित रूप से चारो योग के समन्वय पद्धति पर  भाषण और  प्रश्नोत्तर -कक्षाओं का संचालन करने  लगे।    

       उन्होंने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के साथ आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की तुलना करते हुए यह प्रदर्शित किया कि शिक्षा का उद्देश्य है मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण ,'मनुष्य गढ़ना !' अनेक प्रकार के तथ्यों से मस्तिष्क को पूर्ण करना नहीं।  उन्होंने युक्तियों के द्वारा यह भी समझा दिया कि मनुष्य का मन ही अनन्त ज्ञान की खान है। भूत -भविष्य-वर्तमान के सभी ज्ञान उसमें अव्यक्त रूप से मौजूद हैं। मानव-मन में पहले से अन्तर्निहित उस ज्ञान को प्रकट करने में सहायता करना ही प्रत्येक प्रकार की शिक्षा-प्रणाली का उद्देश्य होना चाहिये। उन्होंने उदाहरण दिया कि गुरुत्वाकर्षण-शक्ति का सिद्धान्त सम्बन्धी ज्ञान जिस प्रकार असल में पहले से ही मनुष्य के मन में विद्यमान था।  सेव का नीचे गिरना -ऊपर क्यों नहीं गया ? वैज्ञानिक न्यूटन की यह जिज्ञासा ही उस ज्ञान के विकास में सहायक मात्र हुआ। "  

         उसी प्रकार विद्यार्थी-जीवन (ब्रह्मचर्य -आश्रम) में 'मैं कौन हूँ ?' अथवा ईश्वर, परम् सत्य या ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा ही मनुष्य की अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने में सहायक सिद्ध होती है।  जिज्ञासा ने ही हमारे पूर्वज ऋषियों (अध्यात्म विज्ञानीयों ) को  चार महावाक्यों का अनुसन्धान करने पर बाध्य कर दिया, और एक दिन वे गा उठे  - तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेSयनाय।" ( यजु० ३१/१८) अर्थात् - उस ईश्वर को जानकर ही मनुष्य मृत्यु आदि सभी दुखों से छूटता है इसके अतिरिक्त और कोई मुक्ति का मार्ग नहीं है।]  ' Freedom , Freedom  Freedom  is song of the soul - अर्थात परमात्मा को जानकर भ्रममुक्त (de -Hypnotized) हो जाना ही आत्मा का गीत (वादीस्वर) है। 

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं, आदित्यवर्णं तमसो परस्तात् ।

 तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति, नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ 

 (श्वेताश्वतरोपनिषद् श्लोक-८)  

---अर्थात ईश्वर भक्ति का एक ही मार्ग -"एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" है। जो वेदों ने बताया और प्राचीन ऋषि मुनियों ने अपनाया था। उससे छोड़कर कोई भिन्न मार्ग नहीं है। जो लोग यह कहते हैं कि केवल आस्था से ही ईश्वर की भक्ति संभव है, उन्हें यह नहीं मालूम कि बिना ज्ञान के आस्था अन्धविश्वास कहलाती हैं " मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा का कोई अन्य मार्ग नहीं है।" वि० चरित १६४-१७४  /

        वर्तमान समय में मनुष्यों ने अपनी मूर्खता से भिन्न-भिन्न नाम वाले सम्प्रदाय या 'ब्राण्डेड धर्म'  बना लिए हैं एवं इसी आधार पर इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। सभी धर्म हमें स्वयं में शामिल तो कर ले रहे हैं और विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि तो बना दे रहे हैं लेकिन " मनुष्य " बनना इनमें से कोई नहीं सिखाता। 

आहार निद्रा भय मैथुनं च

सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।

धर्मो हि तेषामधिको विशेष:

धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है। 

       यदि आपसे पूछा जाता है कि आप कौन हैं? तो आपका उत्तर होता है- मैं हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आदि हूँ ! लेकिन अगर आपसे पूछा जाए कि इससे भी पूर्व क्या आप मनुष्य हैं ? तो उत्तर देंगे हां। पुनः पूछें- क्या मनुष्य कहलाने वाली सारे गुण आप में है? थोड़ा रुककर बोल तो देंगे हां , लेकिन वास्तविकता यह नहीं होती। मनुष्य बनना पड़ता है। अभी केवल हमारा ढाँचा ही मनुष्य का है।  बाकी सारे प्राणी पूर्ण हैं। उनको कुछ बनना नहीं है।    

आज का मानव पशु ही नहीं दानव बन रहा है, मनुष्य ही मनुष्य का वैरी हो रहा है।  महिषासुर हमारे अंतर में प्रमाद और दीर्घसूत्रता के रूप में अभी भी जीवित है, बाकी अन्य सारे शत्रु (राग-द्वेष रूपी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य) इसके पीछे पीछे चलते हैं।  यह प्रमाद रूपी महिषासुर ही हमारी मृत्यु है| निरंतर प्रभु से प्रेम और उनके प्रेमरूप पर (दिनभर में दो बार) प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास और अनवरत विषयों से वैराग्य (यम -नियम का पालन)  द्वारा ही हम इन शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं। 

 हम बड़े गर्व से समाज को उपदेश देते हैं कि मैं ये (अमुक ब्राण्ड का) धर्म मानता हूँ, तो इसलिए तुम भी वही बनो क्योंकि इस ब्राण्ड वाला धर्म, सबसे अच्छा धर्म है।  इत्यादि लेकिन कोई यह उपदेश नहीं करता कि - मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।।  (ऋ० १०/५३/६) --*(मनुः-भव) मननशील होओ, (दैव्यं जनं जनय) दिव्य गुण वाले संतानों को जन्म दो, तथा चरित्र के 24 दैवी गुणों से भरपूर शिष्यों को तैयार कर ॥(ऋ० १०/५३/६) अर्थात तुम स्वयं दिव्यगुणवाले मनुष्य बनो और दूसरों को भी दिव्यगुणवाला मनुष्य बनने में सहायता करो ! Be and Make ' --बनो और बनाओ यही हमारा मूलमन्त्र रहे !  हम सभी को यही - " मनुः-भव धर्म" या 'मानवधर्म ' या मनुष्य बनने और बनाने वाला धर्म अपनाना चाहिए ! आपकी पूजा पद्धति चाहे कोई भी हो - आप आत्मनिरीक्षण करके देखिए - क्या आप मनुष्य (इंसान) बने हैं - या हिन्दू-मुस्लिम -सिख -ईसाई बने हैं?  नोट:- इस लेख का उद्देश्य किसी सम्प्रदाय की आलोचना करना नहीं है अपितु समस्त मानव जाति को मनुष्य बनने और बनाने का सन्देश देना है। भारतीय संस्कृति में माना जाता है कि अपरा और परा-विद्या का -दान करने से देवता भी वश में हो जाते हैं। ज्ञान-दान ईश्वर को प्रसन्नता प्रदान करता है।

शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर । 

कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह ।। 

अथर्ववेद 3/24/5)  

        ---अतः  हे ज्ञान के पथिकों (संन्यासियों) , हे कर्म मार्गियों (गृहस्थों)  तू सौ हाथों से धन अर्जन कर और हजार हाथों से बाँट । अर्थात् 'हजार हाथो से कमा और हजारों हाथों से उसे बांटो। वेद में विद्या -दान करने के लिए धन कमाना भी मनुष्य के लिए आवश्यक कर्म माना गया है। अतः सत्कर्मों से धन एकत्र करके सुपात्रों को दान दे । सत्पात्रों को दिया हुआ तेरा दान बढ़ती हुई फसल के समान तुझे अनन्त गुणा होकर प्राप्त होगा ।इस तरह अपने किए हुए की और किए जाने वाले की बढ़ती हुई फसल को इस संसार में ठीक प्रकार से प्राप्त कर (जितना बोओगे, उसका कई गुना अधिक पाओगे। जैसा बोओगे वैसा काटोगे ) । गीता में भी कहा है - ' यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।। (गीता १८।५) यज्ञ, दान एवं तप-इन तीन सत्कर्मों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। ये विद्वान लोगों को भी पवित्र करने वाले हैं 

    **केवलाघो भवति केवलादी । (ऋग्वेद 10/117/6) अकेला खाने (भोगने) वाला मनुष्य केवल पाप को ही भोगने वाला होता है ।

प्रह्लाद ने कहा था - " मैं न राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग चाहता हूँ, और न मोक्ष ही चाहता हूँ। मैं दुःखी पीड़ित प्राणियों के दुःख का नाश चाहता हूँ।"

             शेख सादी ने भी कहा है 'जो भाग्यवान है वह दानशीलता को अपनाता है तथा दान देने से ही मनुष्य भाग्यवान बनता है। 

 " खाक से बने इंसान में अगर खाक्सारी (विनम्रता) ना हो तो उसका होना, ना होना बराबर है।" 

" वाणी मधुर हो तो सब कुछ वश में हो जाता है, अन्‍यथा सब शत्रु बन जाते हैं।" 

चरित्र-हीन मूर्खचरित्र-हीन विद्वान् से अच्छा है, क्योंकि मूर्ख तो अन्धा होने के कारण पथभ्रष्ट हुआ, पर विद्वान् दो आँखें रखते हुए भी कुएं में गिरा

जिसने लोगों को धोखा देने के लिए सफेद कपड़े पहिने हैं, उसने अपना भाग्य काला किया है। साँसारिक विषयों से हाथ को रोकना चाहिये। आस्तीन छोटी हो या बड़ी एक ही बात है।   


 Miss Muller *** (1846 –1906) was a a German businessman, and Theosophist. She  was involved in the feminist movement, helping to found women's trade unions and the Women's Printing Society . She  became one of the first female members of  London School Board. During her term, she convinced the board to employ female workers—"cannily pointing out that this would save money since women were paid less than men" ] 

  " कहना न होगा कि सबके साथ समभाव से वार्तालाप करने के बावजूद भगिनी निवेदिता से , स्वामी विवेकानन्द को काफी कुछ अपेक्षा थी। अतएव अपनी इस मानस -कन्या की शिक्षा-दीक्षा के प्रति उनका थोड़ा अधिक ध्यान था। अवसर मिलने पर वे निवेदिता को सिखाते , परिचालित करते , और आवश्यक होने पर कठोरता भी दिखाते। स्वामीजी उनसे कहते - ' तुम्हारी साधना होगी -अपने विचारों को , अपने प्रयोजन बोध को , अपने विश्वासों को अपने अभ्यासों को हिन्दू भाव में रूपायित करने के निमित्त। बाहर और भीतर से तुम्हारी सम्पूर्ण जीवनधारा एक कट्टर ब्राह्मण ब्रह्मचारिणी की भाँति होगी। तुम्हारे मन में उपयुक्त आग्रह उत्पन्न होने पर उसके उपाय अपने आप चले आएंगे। परन्तु तुम्हें अपना अतीत भुला देना होगा और दूसरे लोग भी (Bh) उसे भूल जायें , इसके लिए प्रयास करना होगा। तुम्हें उसकी स्मृति तक निकाल डालना होगा।  " युगनायक विवेकानन्द -३ / पृष्ठ ८६ ]

           धर्म के लिए अथवा अन्य किसी महान आदर्श में अनुप्राणित होकर अविवाहित जीवन बिताने को कई व्यक्ति विज्ञ (learned- चतुर पण्डित या प्रबुद्ध) की तरह प्राकृतिक नियम का व्यभिचार (Adultery -परस्त्रीगमन ) बताते हैं, तथा उनका मत है कि विवाह करना और सन्तान उत्पन्न करना ही भगवान का एकमात्र अभीष्ट कार्य है - और वे इस बात को  ' Common sense' (साधारण बुद्धि) की सहायता से तर्क व् युक्ति के द्वारा प्रमाणित करने के लिए अग्रसर होते हैं।       

       यदि कोई व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में  धर्म, अर्थ, काम का भोग करने के बाद , राजा ययाति जैसा ' निवृत्ति अस्तु महाफला ' की महिमा को जानकर 'प्रवृत्ति मार्ग से होकर निवृत्ति मार्ग में लौटने के लिए दूसरों को अनुप्रेरित करना चाहे, या 35 वर्ष की आयु तक गृहस्थ जीवन जीने के बाद मनःसंयोग की साधना का प्रशिक्षक बनना चाहे तो विवाह-संस्कार के सिवा अतीत जीवन से सम्बन्धित किसी  प्रकार की घटना (Bh) की स्मृति तक उसके मन में नहीं आनी चाहिए। यही स्वामी विवेकानन्द का आदर्श था। [अर्थात भावी जीवनमुक्त शिक्षक /नेता मनःसंयोग की साधना का भावी प्रशिक्षक बनने और बनाने का पैमाना था। ]       

         विवाहित जीवन के उच्च आदर्श (त्याग का अभ्यास) * के प्रति अवश्य ही स्वामीजी की कभी अश्रद्धा नहीं थी। वे गार्हस्थ्य व संन्यास दोनों ही आश्रमों को समान दृष्टि से देखते थे। भगवान श्री रामकृष्ण परमहंसदेव विवाहित जीवन के एक महान आदर्श का प्रदर्शन कर गए हैं , यह सत्य है परन्तु फिर भी वे एक संन्यासी थे। आजन्म संन्यासी होकर भी विवाह करके उन्होंने गार्हस्थ्य और संन्यास के बीच में अपूर्व समन्वय प्रस्थापित किया था।  मानव समाज में आदर्श गृही व् आदर्श संन्यासी दोनों की आवश्यकता है। भगवान श्रीरामकृष्ण के जीवन में ये दोनों ही आदर्श पूर्ण मात्रा में प्रकट हुए थे। स्थूल-दृष्टि मानव के लिए उन्हें एक ही साथ गृही व् संन्यासी के रूप में देखना असम्भव और दुःसाध्य है -इसलिए उनकी सर्वश्रेष्ठ देन है , स्वामी विवेकानन्द व नाग महाशय एक आदर्श संन्यासी तो दूसरा आदर्श गृही। 

               क्या विवाह कर लेने पर धर्म का आचरण या अन्य कोई महान कार्य नहीं किया जा सकता?(जैसे ब्रह्मविद,चरित्रवान, त्यागी या 100 % निःस्वार्थी लोकशिक्षक नेता / जीवनमुक्त शिक्षक बनने और बनाने का कार्य नहीं किया जा सकता ? ) क्यों नहीं - चार पुरुषार्थों में से अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष पर केवल संन्यासियों का एकाधिकार नहीं है।  परन्तु जनक ने गृही या राजा होकर भी ब्रह्मज्ञान राजर्षि (राजा + ऋषि )पद  प्राप्त कर लिया था , यह उदाहरण देकर जो लोग (बिजनेस -व्यापार , घर-गृहस्थी करते हुए) राजर्षि जनक जैसा ऋषि (ब्रह्मविद लोकशिक्षक) बनने की चेष्टा करते हैं , उनमें से अधिकांश कुछ नालायक बच्चों के जनक मात्र हैं। कहते हैं घर में रहकर ही धर्म का आचरण करना , योग और भोग दोनों को ही घर में रखते हुए मोक्ष प्राप्त करना ही विशेष बहादुरी है ! परन्तु साथ ही साथ अनेक व्यक्ति [नेता-लोकशिक्षक] यह भूल जाते हैं कि बहादुरी कर दिखाना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। और यह भी ठीक है कि यदि सभी व्यक्ति बहादुरी दिखाने  में ही व्यस्त रहें तो फिर मानवजीवन के उच्चतम सभी व्रत निःसन्देह लुप्त हो जायेंगे ! " वि० चरित १७८ ] 

मां सरस्वती व देवी लक्ष्मी की अद्भुता  पञ्चदिवसीय दीपपर्व : पञ्चकोशीय देवी साधना व आराधना का पर्व है- दीपावली  पितरों के आह्वान पश्चात शारदीय नवरात्र से आरम्भ हो कर पितरों को विदा देने के आकाशदीपों तक का लम्बा कालखण्ड प्रमाण है कि यह दीपावली महोत्स्व कुछ विशेष है।  अमावस्या को सिनीवाली देवी **माना गया तथा इसे सरस्वती से जोड़ा गया। इसका दूसरा नाम 'दृश्यादृश्या' कहा है, क्योंकि इसमें अत्यन्त क्षीण होने से चंद्रकला कभी दिखाई देती है और कभी नहीं। सिनीवाली शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा की, जब कि नया चंद्रमा प्रत्यक्ष निकला नहीं दिखाई देता, देवी बताई गई है । अथर्ववेद में सिनीवाली को विष्णु की पत्नी कहा है । यह देवी प्रजनन की देवी थी, कामिनी रूपा। सन्‍तुलन हेतु ऋतावरी सरस्वती आईं तथा उससे श्रीयुक्त सम्पदा लक्ष्मी भी। दीपावली प्रजा, अन्न, प्राण व सम्वर्द्धन का पर्व है। दीपावली पर्व समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये,  धन–धान्य, प्रजनन, नवारम्भ व जीवनोद्योग पुरुषार्थ चतुष्टय से  प्रत्यक्ष जुड़ा होने के कारण सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व है । सामान्य मनुष्य का जीवन  'अर्थ' व 'काम'-मय ही होता है। लेकिन चार पुरुषार्थों में से पहला  'धर्म ' - चारो आश्रमों के धारण व सन्‍तुलन हेतु है। इन तीनों के साथ जीता हुआ व्यक्ति 'मोक्ष' की प्राप्ति करता है। मोक्ष अर्थात मुक्ति (भ्रममुक्त अवस्था -dehypnotized अवस्था ) ' निवृत्ति अस्तु महाफला ' की समझ , एक उच्चतर आयाम, जिसे स्वतन्त्र निर्गृहस्थ रूप में पाने हेतु अनेक उपाय संन्यास आदि किये जाते हैं।  किन्तु लक्ष्मी व सरस्वती के साथ जीने वाला  गृहस्थ समस्त आश्रमों में सर्वोपरि ही माना गया क्योंकि वह अन्य समस्त आश्रमों का पोषक है। बृहदारण्यक उपनिषद प्रजा सन्तानों के पोषक संवत्सर रूपी प्रजापति को रात्रियों की पन्द्रह सोम कलाओं के साथ जोड़ता हुआ उस उच्चतर स्तर की बात करता है जो सोलहवीं कला है, ध्रुवा है, नैरन्तर्य को सुनिश्चित करता आत्मा है। धन ही प्रजापति की पन्द्रह कलायें हैं किंतु उनके साथ सोलहवीं कला आत्मा है जो विद्या-समन्‍विता है। दीप निरन्तरता का प्रतीक है। अखण्ड दीप व युगों युगों से अखण्ड दीपावली क्षय के बीच भी विद्या रूपी अमरता के साथ जीने के उदात्त रूप हैं। स्पष्ट है कि  'श्री ' अर्थात लक्ष्मी व सरस्वती में परस्पर निर्वैर है, सहकार है, साहचर्य है, दोनों साथ रहें तब ही अर्थ व काम हैं, धर्म है तथा उनसे ही मोक्ष है। सुख का इससे अच्छा मार्ग क्या हो सकता है?

 " हे देवी सरस्वती! हमें लक्ष्मी दें। हे देवी लक्ष्मी! हमारी विद्या बढ़े।" लक्ष्मी का अर्थ केवल खनखनाती हुई स्वर्णमुद्रायें नहीं है ! लक्ष्मी का जो स्वरूप है , वह अर्चनीय, पूजनीय तथा वरेण्य है, क्योंकि उसमें हर प्रकार के अन्धकार (तिमिर) से लड़ने की अदम्य जिजीविषा, अपराजेय उद्यमिता और अनिन्द्य सौन्दर्य है! 

विद्यां ददाति विनयं, विनयात् याति पात्रताम् ।

      पात्रत्वाद् धनम् आप्नोति,  धनात् धर्मम् ततः सुखम् ।।

विद्या विनय (नम्रता) देती है, विनय से पात्रता  (योग्यता या सज्जनता ) आती है, पात्रता (योग्यता) रहने से धन की प्राप्ति होती है,  धन से धर्म होता है, और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है । धनात्‌ धर्मम्‌ पर ध्यान दें, धन रहने से (खाली पेट धर्म नहीं होता ) ही धर्म पथ ' Be and Make ' के पथ पर चला जा सकता है ! विद्या विनय पर भी तथा पात्रता (योग्यता -चरित्रवान मनुष्य बनने) पर भी निर्भर है। चरित्रवान मनुष्य ही सुख से जी सकता है, जीवन सुख से जीने के लिये है। सुखी जीवन की साधना, मनुष्य बनने और बनाने की साधना करें। उद्योगी हों, विद्वान हों, धनी हों, यशस्वी हों। आप की व राष्ट्र की कीर्ति बढ़े।

" पश्येम शरदः शतम् । जीवेम शरदः शतम् । 

बुध्येम शरदः शतम् । रोहेम शरदः शतम्। 

पूषेम शरदः शतम् । भवेम शरदः शतम् । 

भूयेम शरदः शतम् । भूयसीः शरदः शतात्।" 

(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)– 

अर्थात  हम सौ शरदों तक देखें, यानी सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे । सौ वर्षों तक हम जीवित रहें ; सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे, हम ज्ञानवान् बने रहे ; सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें, हमारी उन्नति होती रहे ; सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें पोषण मिलता रहे ; हम सौ वर्षों तक बने रहें।  सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें, कुत्सित भावनाओं से मुक्त रहें ; सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें। " ---     स्वास्थ्य, जीवन व शिल्प से जुड़े अथर्ववेद की उपर्युक्त प्रार्थनाओं से शरद ऋतु की महत्ता प्रकट होती है कि इस ऋतु से ही जीवन की काल परास को मापा जाता था।  वर्षान्‍त पश्चात धरा पर जीवन का विपुल आरम्भ होता है तथा शारदीय समाहार के साथ अंत व आरम्भ भी। यहां यह ज्ञातव्य है कि शरद् शब्द सामान्यतः छः वार्षिक ऋतुओं में एक के लिए प्रयुक्त होता है । चूंकि प्रति वर्ष एक शरद ऋतु आनी है, अतः उक्त मंत्रों में एक शरद् का अर्थ एक वर्ष लिया गया है । भारतीय प्राचीन पद्धति में पूरे वर्ष को दो-दो मास की ऋतुओं में विभक्त किया गया हैः वसन्त ( चैत एवं वैशाख), ग्रीष्म (जेठ तथा  आषाढ़), प्रावृष् ( सावन एवं भादों की  वर्षा ऋतु ), शरद् (आश्विन तथा कार्तिक), हेमन्त ( अगहन एवं पूस), और शिशिर (माघ तथा  फागुन। ) 

        हमारी सनातन परंपरा में नाम लिखने के पहले  ‘श्री’ का प्रयोग करना एक संश्लिष्ट संकल्पना का नाम है! सामान्य प्रचलन में तो ‘लक्ष्मी’ शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, (चरित्र के 24 गुणों में एक गुण - 'Resourcefulness' उपयोग बुद्धि , उपाय -कुशलता या साधन -सम्पन्नता है ) जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है। मनुष्य के चरम लक्ष्य , चार पुरुषार्थों में से अन्तिम पुरुषार्थ 'मोक्ष ' को प्राप्त करने के उद्देश्य से, छोटी- छोटी वस्तुओं का भरपूर लाभ उठा लेना एक विशिष्ट कला है ! सत्प्रयोजनों के लिए, किसी वस्तु का  मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ  उठा लेना एक विशिष्ट कला है। वह कला (साधन -सम्पन्नता का गुण ) जिसके पास होती है उसे श्रीमान्  या लक्ष्मीवान् कहते हैं,  शेष को धनवान् भर कहा जाता है। जिस पर 'श्री ' का अनुग्रह होता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता ; ऊर्जा से, उत्साह से, उद्यमिता से भर जाता है। 

          आदि शङ्कराचार्य ने ‘कनकधारा-स्तोत्र ‘ की रचना करके हमें एक  विलक्षण और अनुपम उपहार  दिया है। कनकधारा स्तोत्र अपनी दयार्द्र दृष्टि के लिए प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि एक गरीब माँ (अकिञ्चन) अपनी कन्या के विवाह के लिए स्वर्णमुद्राओं की याचना करते हुये आदि शंकराचार्य जी के समक्ष कातरभाव से रोने लगी। उसके रुदन से शंकराचार्य जी का हृदय द्रवित हो उठा। वे बोले मेरे पास तो स्वर्णमुद्रायें नहीं हैं पर मैं माँ लक्ष्मी का स्तवन अवश्य कर सकता हूँ।  हमलोग जानते हैं कि आदि शंकराचार्य  अद्वैत मार्ग के संस्थापक थे ,  किन्तु जब इस अद्वैतवादी के हृदय में करुणा का स्रोत फूट पड़ता है , तब ब्रह्म से एकाकार होना मानवीय करुणा को भी कैसा द्रवित कर देता है ! और यह विश्वास हो जाता है कि पर-दु:खकातरता ही इस कनकधारा स्तोत्र के मूल में है। वे कहते हैं - " अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्तीं भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।"  -  जिस तरह भ्रमरी कमल पर मँडराती है उसी तरह मुरारि के मुख की ओर जाती और लज्जा से लौट आती उस सागर कन्या (लक्ष्मी) की दृष्टि मुझे धन प्रदान करे ! यहाँ 'भृङ्गाङ्गनेव' की उपमा देखते ही बनती है ! दिव्य भावों को हृदयरस में निमज्जित कर देने से जो करूणारसायन बना, कहते हैं उस अकिंचन के यहाँ कनकधारा वृष्टि हुई।      

         14 Greycoat Gardens, Westminster, लन्दन से स्वामी विवेकानन्द  ने अविवाहित जीवन व्यतीत करने की सामयिक आवश्यकता की उपलब्धि कर 1896 में आलासिंगा पेरुमल को से बड़े ही दुःख और अभिमान के साथ  एक पत्र में लिखा था --- " लन्दन का कार्य दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। जितने दिन बीत रहे हैं , क्लास में [लन्दन विवेकानन्द युवा पाठचक्र में] लोगों का (युवाओं का) समागम भी उतना ही अधिक हो रहा है। मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि श्रोताओं की संख्या धीरे धीरे बढ़ती रहेगी, क्योंकि अंग्रेज लोग क्षत्रीय नस्ल के -दृढ़ एवं निष्ठावान हैं। यह सही है कि मेरे छोड़ते ही इसका अधिकांश तानाबाना टूट जायेगा। लेकिन कुछ अप्रत्याशित अवश्य घटित होगा। कोई शक्तिशाली व्यक्ति /नेता इसे वहन करने के लिए उठ खड़ा होगा। प्रभु (माँ काली) ही जानती हैं कि किससे इस मनुष्य-निर्माण आंदोलन का भला होने वाला है ? अमेरिका में वेदान्त और योग (मनःसंयोग) का प्रशिक्षण देने के लिए -[स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर ] 'Be and Make ' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित 20 जीवनमुक्त शिक्षकों/ नेताओं या उपदेशकों की आवश्यकता है , परन्तु इतने प्रशिक्षित प्रचारक मिलेंगे कहाँ से ? महामण्डल में प्रशिक्षित उन प्रचारकों को वहाँ पर भेजने के लिए धन कहाँ से आयेगा ? यदि कुछ दृढ़ चित्तवाले सच्चे मनुष्य मिलें [नारद के माया दर्शन के बाद वाले संतुलन अवस्था को प्राप्त ब्रह्मविद मनुष्य मिलें ] तो दस वर्ष में आधा USA जीता जा सकता है। पर ऐसे गुरु-शिष्य परम्परा में प्रशिक्षित नेता /उपदेशक /प्रचारक कहाँ हैं ? वहाँ के लिये हमलोग तो  मूर्खों (पशुओं) के एक दल जैसे हैं - घोर स्वार्थपर , कापुरुष ! बस सिर्फ जबान से स्वदेश प्रेम का नारा लगाने वाले , और अपने महाधर्मिकपन के अभिमान में हम फूले नहीं समाते। 

      मद्रासी लोग दूसरों की तुलना में अधिक तेज हैं , तथा दृढ़ता के साथ प्रचार-कार्य में डटे भी रह सकते हैं , सभी अभागे विवाहित हैं। ओफ़ , विवाह , विवाह -विवाह ! मानो पाखण्डियों ने पशुओं जैसा केवल उस एक ही कर्मेन्द्रिय को लेकर जन्म ग्रहण किया है - योनिकीट - इधर फिर अपने को धार्मिक और सनातन धर्मावलम्बी भी कहते हैं ! अनासक्त गृहस्थ होना बहुत ही अच्छी बात है , परन्तु इस समय (1896 में) उसकी इतनी आवश्यकता नहीं है। अब चाहिए अविवाहित जीवन। खैर , वैश्यालय में जाने पर लोगों के मन में इन्द्रियों की आसक्ति का जितना बन्धन उपस्थित होता है , आजकल विवाह-प्रथा द्वारा लड़कों का उस विषय में प्रायः उसी प्रकार का बंधन उपस्थित होता है।  मैंने यह बहुत ही कड़ी बात कही है , परन्तु वत्स , मुझे ऐसे कर्मी/नेता / प्रचारक  चाहिए -जिनकी पेशियाँ लोहे की तरह दृढ़ हों और स्नायु मानो इस्पात के बने हों; और उनके शरीर के भीतर एक ऐसा मन रहे जो वज्र के उपादान (100 निःस्वार्थपरता) से गठित हो।  बल, पुरुषार्थ , क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज ! हमारे सुन्दर/स्मार्ट /इंटेलीजेन्ट ,हैण्डसम और होनहार तरुण --जिन पर सबकुछ आशा की सकती है , उनमें सभी गुण सभी शक्तियाँ हैं -केवल यदि इन लाखों लड़कों को विवाह नामक पशुत्व की बलिवेदी पर हत्या न की जाती। हे प्रभो मेरे कातर क्रन्दन को सुन लो ! मद्रास तभी जागेगा जब उसके हृदय के रक्तस्वरूप कम से कम 100 -महामण्डल प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित युवक संसार से सम्पूर्ण रूप से अनासक्त होकर / या सम्पूर्ण रूप से स्वतंत्र होकरकमर कस लेंगे और देश -देश में सत्य के लिए युद्ध करने को तैयार हो जायेंगे। भारत के बाहर किया गया एक आघात , उसके भीतर किये जा रहे हजारों आघातों के समान है। अस्तु, यदि प्रभु (माँ काली) की इच्छा होगी तो सब होगा ! "  ५/३९८ ]    

 মান্দ্রাজীরা অপেক্ষাকৃত চটপটে ও একনিষ্ঠ; কিন্তু হতভাগাগুলো সকলেই বিবাহিত! বিবাহ, বিবাহ, বিবাহ! পাষণ্ডেরা (Heretics = स्वधर्मभ्रष्ट,  skeptic-सन्देहवादी ) যেন ঐ একটি কর্মেন্দ্রিয় নিয়েই জন্মেছে! … এ আমি বড় শক্ত কথা বললাম; কিন্তু বৎস, আমি চাই এমন লোক—যাদের পেশীসমূহ লৌহের ন্যায় দৃঢ় ও স্নায়ু ইস্পাত নির্মিত, আর তার মধ্যে থাকবে এমন একটি মন, যা বজ্রের উপাদানে গঠিত। বীর্য, মনুষ্যত্ব—ক্ষাত্রবীর্য, ব্র্হ্মতেজ!

{My child, what I want is muscles of iron and nerves of steel, inside which dwells a mind of the same material as that of which the thunderbolt is made. Strength, manhood, Kshatra-Virya + Brahma-Teja.  One blow struck outside of India is equal to a hundred thousand struck within. Well, all will come if the Lord wills it.}        

       लन्दन से प्रकाशित होने वाला समाचार-पत्र 'वेस्ट मिनिस्टर गजट ' के एक रिपोर्टर ने स्वामी जी से पूछा - "And what induced you to forsake the ordinary course of the world, Swami?" --अर्थात स्वामीजी आम जनता को सुसंस्कृत बनाने के उपाय के रूप में चार -पुरुषार्थ , धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (त्याग) कहे गए हैं , तो फिर प्रथम तीन को छोड़कर सीधा चौथा या अंतिम-पुरुषार्थ 'त्याग ' का अवलंबन करने के लिए आपको किस वस्तु ने सबसे अधिक प्रेरित किया ? 

उन्होंने उत्तर दिया - बाल्य काल से ही धर्म और दर्शन में मेरी विशेष रूचि थी। हमारे शास्त्रों में (गीता और उपनिषद में ) उपदेश है कि 'त्याग' ही मनुष्य का श्रेष्ठतम आदर्श है। मुझमें उस मार्ग (सम्यक त्याग का मार्ग या संन्यास मार्ग ) का का अनुसरण करने के अंतिम निश्चय की प्रेरणा देने के लिए महान धर्मगुरु रामकृष्ण परमहंस के दर्शन प्राप्त होने भर की देर थी।  वे स्वयं (एक गृहस्थ होकर भी) सचमुच इसी मार्ग पर चल रहे थे, और उनके सानिध्य में रहते हुए मैंने उनके दैनन्दिन जीवन-चरित्र में अपने सर्वोच्च दर्शन - प्रेम जन्य और विवेक-जन्य 'त्याग और सेवा '  की निष्पत्ति के दर्शन किये ! अमृतवाणी -166 के आधार पर स्वामी रामतत्वानन्द (छत्तीसगढ़) द्वारा रचित श्रीरामकृष्ण दोहावली पृष्ठ 10 में कहा गया है --  

" गीता गीता [दस बार] कहत , त्यागी त्यागी होही। 

   त्याग गीता का सार है , कह ठाकुर निरमोही ।। "  

 'गीता 'शब्द का लगातार उच्चारण करने से 'गीतागी  तागी तागी तागी ......'  अर्थात ' त्यागी , त्यागी ' निकलने लगता है। अर्थात गीता यही कहती है कि ' हे जीव , सर्वस्व का त्याग कर ईश्वर के पदपद्मों में चित्त लगा।  " लेकिन शास्त्र की बातों को अपने दैनन्दिन जीवन और में धारण किये बिना उपदेशक की बातों का श्रोता पर कोई असर नहीं होता ! 

      विद्यार्थी संयमित तभी रह सकता है जब उसका मार्ग दर्शक (नेता /गुरु/ C-IN-C) स्वयं संयमित हो, क्योंकि बालक पढ़ने से अधिक देखकर सीखता है। और आज संयम रखना दिवास्वप्न बनता जा रहा है।  आज ‘संस्कार, धर्माचरण’ ये शब्द ही समाज से लुप्त होते जा रहे हैं। जिससे बडी मात्रा में समाज का अध:पतन होते हुए दिखाई देता है। पूर्वकाल में विद्यार्थी- निर्जनवास अर्थात घर से दूर गुरु के आश्रम में जाकर अपने शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करते थे और, वहाँ उनमें संस्कारों का आरोपण होता था। पूर्वकाल में पाठशाला में पढानेवाले शिक्षक को सर और मैडम नहीं, "गुरु देव " कहा जाता था , उनके  सादे रहन सहन तथा विचारों के आदर्श विद्यार्थियों के सामने होते थे, उनके सात्विक आचार विचार विद्यार्थियों द्वारा अनुकरण करने योग्य होते थे। इसी कारण पाठशाला जाने पर अपने बच्चों पर अच्छे संस्कार होंगे, इसकी निश्चिति अभिभावकों को थी।

        " दूसरी बार इंग्लैण्ड में आकर स्वामीजी ने कैप्टन सेवियर (अगले जन्म में नवनीदा) तथा श्रीमती सेवियर को शिष्य के रूप में प्राप्त किया। ये धर्मप्राण सेवियर दम्पति, स्वामीजी के  भारतीय कार्य * के लिए आत्मोसर्ग करने के लिए तैयार हो गए। स्विट्जरलैण्ड के सरोवरों द्वारा सुशोभित मनोरम पार्वत्य अंचलों का भ्रमण करते हुए स्वामीजी के मन में परिव्राजक- जीवन की मधुर स्मृतियाँ जाग उठीं ! हिमालय की गोद में आश्रम बनाकर अवशिष्ट जीवन बिताने का प्रबल आग्रह उनमें बहुत दिनों से था , सेवियर-दम्पति के समीप हिमालय की सुन्दरता का वर्णन करते हुए स्वामीजी बोले - " मैं चाहता हूँ हिमालय में एक मठ स्थापित कर शेष जीवन ध्यान और तपस्या में बिता दूँ। इस मठ में मेरे भारतीय (निवृत्तिमार्गी संन्यासी) और पाश्चात्य शिष्यगण रहेंगे (प्रवृत्ति-मार्ग से होकर 'निवृत्ति अस्तु महाफला' समझने वाले गृहस्थ शिष्यगण रहेंगे।) पहले दल के शिष्यगण पाश्चात्य देशों में वेदान्त प्रचारकार्य में संलग्न होंगे और दूसरा दल भारत की उन्नति के लिए आत्मोसर्ग करेगा। सेवियर-दम्पति उनका संकल्प जानने के बाद उत्साह के साथ बोले , " अवश्य स्वामीजी ! भविष्य -कार्य के लिए हमें - अद्वैत आश्रम , मायावती, अल्मोड़ा में इस प्रकार का मठ अवश्य चाहिए ! " आल्प्स पर्वत के शिखर पर बैठे स्वामीजी ने सेवियर दम्पति के साथ जो संकल्प व्यक्त किया था , वह बाद में ईश्वर की कृपा से (माँ काली की कृपा से) कार्यरूप में परिणत हुई !" वि०चरित-पृष्ठ १७५/ [" अल्मोड़ा का आकर्षण" * --नवनीदा के मन में बहुत दिनों से पूर्वजन्म से ही था। ] 

** उन्नत किस्म की सामाज सेवा (Advanced Social Service) करने के लिए पहले उन्नत मनुष्य का निर्माण करना आवश्यक है। इसीलिए श्रीरामकृष्ण अपने साथ निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द को लेकर अवतरित हुए थे।  निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक गुरु विवेकानन्द यदि जगत गुरु ठाकुर के साथ अवतरित नहीं होते तो फिर मानवजीवन के उच्चतम सभी व्रत -(अष्टांग योग आदि) निःसन्देह लुप्त हो जाते! लेकिन ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती थी, इसलिये ...दूसरी बार इंग्लैण्ड में आकर स्वामी विवेकानन्द ने कैप्टन सेवियर तथा श्रीमती सेवियर को शिष्य के रूप में प्राप्त किया। ये धर्मप्राण (सेवियर दम्पति **) उनके भारतीय कार्य के लिये आत्मोसर्ग करने के लिये तैयार हो गए। श्रीमती सेवियर शिष्या बनकर भी स्वामीजी की मातृस्थानिया थीं। स्वामीजी उन्हें 'माँ ' कहकर पुकारते थे। " (विवेकानन्द चरित -पृष्ठ १७४) 
         लेकिन उत्तर आकाश में दीखने वाले  ऋषि वशिष्ठ और माता अरुन्धती (सेवियर दम्पति **) प्रवृत्ति मार्ग के विख्यात सप्तर्षियों में एक हैं - यानि के उन सात ऋषियों में से एक जिन्हें ईश्वर द्वारा सत्य का ज्ञान एक साथ हुआ था और जिन्होंने मिलकर वेदों का दर्शन किया (वेदों की रचना की, ऐसा कहना अनुचित होगा क्योंकि वेद तो अनादि है)। उनकी पत्नी अरुन्धती है। वह योग-वासिष्ठ में राम के गुरु हैं। वशिष्ठ राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। महर्षि वशिष्ठ ब्रम्हा के मानस पुत्र होने के कारण त्रिलोक - त्रिकाल दर्शी भी थे ! विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को माफ कर दिया। सूर्य वंशी राजा इनकी आज्ञा के बिना कोई धार्मिक कार्य नही करते थे। त्रेता के अंत मे ये ब्रम्हा लोक चले गए थे । आकाश में चमकते सात तारों के समूह में पंक्ति के एक स्थान पर वशिष्ठ को स्थित माना जाता है। वशिष्ठ तारे का नाम वशिष्ठ ऋषि पर पड़ा है और अरुन्धती उनकी पत्नी थीं। इन दोनों तारों को अक्सर अखण्ड विवाह का प्रतीक माना जाता है ; और कुछ हिन्दू विवाह पद्धति में  सिन्दूर दान के रस्म में पंडित अक्सर इन तारों का वर्णन करता है या नवविवाहित दम्पति को इन तारों की तरह साथ रहने की शिक्षा देता है। अंग्रेज़ी में सप्तर्षि तारसमूह को बिग डिपर या ग्रेट बियर (बड़ा भालू) कहते हैं और वशिष्ठ तारे को अंग्रेज़ी में "माइज़र" (Mizar) कहा जाता है। यह अरबी भाषा के "मीज़र"  से आया है, जिसका मतलब है "कमरबंद"। अरुंधती तारे को अंग्रेजी में "ऐल्कॉर" (Alcor) कहा जाता है।  यह अरबी के "अल-ख़व्वार" से आया है, जिसका मतलब है "धुंधला", क्योंकि यह तारा वशिष्ठ के सामने बहुत धुंधला लगता है।

        दादा अक्सर पूछते थे, बताओ धर्म क्या है , श्रद्धा क्या है , विवेक और बुद्धि में क्या अन्तर अन्तर है , और मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? बंगला भाषा में एक विशेष सम्पादकीय उन्होंने तिलैया कैम्प के समय लिखा था, उसमें उन्होंने (केनोपनिषद् 2 .5) को उद्धरित करते हुए लिखा था -  " इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का अस्तित्व सार्थक है, यदि यहीं उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में 'उस' का विवेचन कर, इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं।      

                 1985 में स्वामी विवेकानन्द रूपी मैगनेट को हृदय में धारण करके 1987 में बेलघड़िया में आयोजित महामण्डल के वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर में जब मैं  महामण्डल के (C-IN-C) महान धर्मगुरु (नेता, जीवनमुक्त शिक्षक) नवनी दा, से  प्रथम बार मिला  उस समय मेरी शारीरिक आयु 35 वर्ष थी और दादा मुझसे 20 वर्ष बड़े थे, लेकिन मानसिक आयु की दृष्टि से उस समय भी वे एक तरुण ही प्रतीत होते थे। अपने पूर्व जन्म में कैप्टन सेवियर रहे - महान धर्मगुरु  [नेता वरिष्ठ (C-IN-C ] नवनी दा स्वयं 'मोक्ष ' मार्ग - अंतिम पुरुषार्थ का अनुसरण कर रहे थे। वे स्वयं एक अविवाहित गृहस्थ होकर भी इसी मार्ग पर चल रहे थे। और मुझे उस 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' के मार्ग का अनुसरण करने के अंतिम निश्चय की प्रेरणा देने के लिए केवल बेलघड़िया में आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में छह दिनों तक का प्रशिक्षण [Internship training] प्राप्त होने भर की देर थी। और उनमें (नवनी दा में ) मैंने अपने सर्वोच आदर्श (चारों योगमार्गों *) में निर्मित मनुष्य की निष्पत्ति के दर्शन किये।    

 सन्दर्भ : नवनीदा की आत्मकथा - " जीवननदी के हर मोड़ पर "- 'अध्याय दर्शन बनाम फिलॉसफी ' -पृष्ठ ४१ / 'अल्मोड़ा यात्रा ' -पृष्ठ १८४ हिन्दी में। और बंगला में -    'জীবন নদীর বাঁকে বাঁকে' - ....পৃষ্ঠ ২৯- " যাই হোক, I had small pox ডিসেম্বরের শেষের দিকে। ১লা জানুয়ারি আমি আর ওঠতে পারছি না , অফিসে আসতে পারছি না। কোনো রকমে অফিসে এসে মাইনেটা নিয়ে গেছি। গিয়ে ভীষণ শরীর কেমন করছে , ছাতে একখানা মাদুর পেয়ে রৌদ্রে পড়ে আছি। ১লা জানুয়ারি অজ্ঞান হয়ে গেলুম। তারপরে কিছু জানি না।  হঠাৎ মনে হল যে, আরে আমি কি যেন শুনতে পাচ্ছি , এ যেন আমার চেনা জিনিস , জানা জিনিস। কি ব্যাপার - নেতাজীর জন্মদিন , প্রসেশন যাচ্ছে।  আরে আরে , কি হল কি হল ? --আমি গলা দিয়ে স্বর বার করার চেষ্টা করছি , বার করতে পারছি না। হাত নেড়ে বলছি আমার মনে হচ্ছে , আমি যেন বলছি , 'আমি বেঁচে আছি'।  কিন্তু গলা দিয়ে আওয়াজ বেরোচ্ছে না। আর এই তেইশ দিন এর মধ্যে সব সময় স্বপ্ন দেখার মত হয় যাচ্ছে।  দেখতে দেখতে -এক জায়গায় দেখলুম আমি মারা গেছি।  আমাকে সাজিয়ে গুজিয়ে অনেকে নিয়ে চলেছে।  সবাই বিষন্ন।  আমি সব দেখছি। কত দূর নিয়ে যাচ্ছে ! মাটি, আকাশ, গাছপালার পাতা , রং , ফুল অপূর্ব।  কি বড় বড় গাছে কি সুন্দর অচেনা ফুল। অনেক দূর ... ...। একটু পাহাড় , উঠলো , ধীরে কিছুটা নীচে নেবে রাখল। চিতা সাজাল। শরীর চাপাল , অগ্নি প্রদান হোল, শরীর পুড়ে ছাই উড়ে গেল। বহু বছর পর মায়াবতীতে গিয়ে ঠীক ঐ সময় যা দেখেছিলুম সেই দৃশ্য দেখলাম। মায়াবতীর ওখানে গাছপালা , ফুল-ফল একটু উপরে যে নীচু জায়গাটা যেখানে সেই সেভিয়ারের স্মৃতি ফলক আছে ঠীক সেইখানটা বলে মনে হোল। " 

           ....পৃষ্ঠ ১১৯ : " মহামণ্ডল জীপের দ্বারা আলমোড়া যাত্রা " -.... " সকালবেলা এসে মনে হোল , আচ্ছা , দেখা যাক না গাড়িটার সকালবেলা কি অবস্থা ? সকালবেলা গাড়ি স্টার্ট দিতে গিয়ে স্টার্ট নিলো এবং গাড়ি এগোচ্ছে -পেছোচ্ছে ; ব্যাক করলে পেছন থেকে সামনে আসছে। তখন সবাই হতভস্ব , অবাক ! কি হল ! কি ব্যাপারটা হোল ! অনেক পরে জানা গেলো , ঐ উঁচুতে ক্রমাগত ওঠা হচ্ছে তাইতে তেল কোথা থেকে গড়িয়ে গিয়ার ব্যঙ্ক পেনিয়নটাকে ভিজিয়ে দিয়েছে , তাই সেটা কাজ করছে না।  সেইজন্যে ঐরকম হয়েছে। সারা রাত্রি পড়ে থাকায় সেটা চলেছে। বিপদ কাটল , মায়াবতী চলেছি।  মায়াবতী পর্যন্ত গেলুম। সেখানে গিয়ে তো যাই হোক সেখানে থাকার ব্যবস্থা হোল।ঘুরে-টুরে চারদিক দেখলুম।  স্বামিজিরা যেখানে ধ্যান করতেন , কি নিস্তব্ধতা , যেন জগৎ নেই। বসন্ত রোগের সময় আমার যা দেখা ছিল - মারা গেছি , যাবার পর যেখানে দাহ হয়েছিল শরীর , সেই সেভিয়ারের সমাধির জায়গাটা দেখলাম

      बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है - " अथ त्रयो वाव लोका " (मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा कर्मणा पितृलोको विद्यया देवलोको देवलोको वै लोकाना श्रेष्ठस्तस्माद्विद्यां प्रशंसन्ति॥ बृहदारण्यकोपनिषद/1.5.16 

अर्थ-(अथ त्रयः वाव लोकाः) कहा जाता है कि तीन ही लोक हैं (मनुष्यलोकः पितृलोकः देवलोकः इति) (१) मनुष्यलोक (२) पितृलोक और (३) देवलोक। (सः अयम् मनुष्यलोकः) सो यह मनुष्य लोक (पुत्रेण एव जय्यः) पुत्र ही से जीता जा सकता है (न अन्येन कर्मणा) अन्य किसी कर्म से नहीं। पितृलोक को सत्कर्म से और (देवलोकः विद्यया) देवलोक ज्ञान से जीत सकते हैं (देवलोकः वै लोकानां श्रेष्ठः) सब लोकों में देवलोक श्रेष्ठ है (तस्मात् विद्यां प्रशंसति) इसी से विद्या को सराहते हैं। 

      व्याख्या-लोक शब्द, देखना, भुवन, श्रेणी, जगत् और मनुष्य इत्यादि, अनेकार्थ वाचक है। यहाँ यह शब्द श्रेणी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है अर्थात् एक मनुष्यों की श्रेणी, दूसरी पितरों की और तीसरी देवों की। मनुष्य मध्यम श्रेणी के पुरुषों को कहते हैं। पितर उत्तम श्रेणी के मनुष्य जो अपनी भी रक्षा करते हैं तथा अन्यों की भी और देव सर्वोत्तम क्रियाशील विद्वानों को कहते हैं। इनमें से मनुष्य पुत्र के, पितर कर्म के और देव क्रिया के साथ सर्वोत्तम ज्ञान के, इच्छुक हुआ करते हैं और इन्हीं के प्राप्त कर लेने से इनकी सफलता मानी जाती है।। १६।।

      {भाष्यम्:- अथेति वाक्योपन्यासार्थः । त्रयः — वावेत्यवधारणार्थः — त्रय एव शास्त्रोक्तसाधनार्हा लोकाः, न न्यूना नाधिका वा ; के त इत्युच्यते — मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति । तेषां सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव साधनेन जय्यः जेतव्यः साध्यः — यथा च पुत्रेण जेतव्यस्तथोत्तरत्र वक्ष्यामः — नान्येन कर्मणा, विद्यया वेति वाक्यशेषः । कर्मणा अग्निहोत्रादिलक्षणेन केवलेन पितृलोको जेतव्यः, न पुत्रेण नापि विद्यया । विद्यया देवलोकः, न पुत्रेण नापि कर्मणा । देवलोको वै लोकानां त्रयाणां श्रेष्ठः प्रशस्यतमः ; तस्मात् तत्साधनत्वात् विद्यां प्रशंसन्ति ॥Now, these are, verily, the three worlds: the world of men, the world of the Manes and the world of the gods. The world of men can be gained through a son only and by no other rite; the world of the Manes through rites; and the world of the gods through meditation. The world of the gods is the best of the worlds. Therefore they praise meditation. उष्ट्राणां विवाहेषु , गीतं गायन्ति गर्दभाः । परस्परं प्रशंसन्ति , अहो रूपं अहो ध्वनिः ( ऊँटों के विवाह में गधे गीत गा रहे हैं । एक-दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं , अहा ! क्या रूप है ? अहा ! क्या आवाज है ? (ऊंट कुरूपता का प्रतीक है और गधा कर्कश वाणी  का प्रतीक है। जब भी दो अनमेल व्यक्तियों में सामञ्जस्य होता है तो व्यंग्यात्मक  रूप में इसी प्रकार उसे व्यक्त किया जाता है। हमारे साथ प्रायः समस्या यही होती है कि हम झूठी प्रशंसा के द्वारा बरबाद हो जाना तो पसंद करते हैं, परंतु वास्तविक आलोचना के द्वारा संभल जाना नहीं। – नॉर्मन विंसेंट पील ) 

[त्रयो लोका एत एवः वागेवायं लोको मनोऽन्तरिक्षलोकः प्राणोऽसौ लोकः॥These verily are the three worlds: the organ of speech is this world (the earth), the mind is the intermediary world (the sky) and the vital breath is that world (heaven).(बृहदारण्यकोपनिषद -1.5.4 ) त्रयो वेदा एत एवः वागेवर्ग्वेदो मनो यजुर्वेदः प्राणः सामवेदः॥ These verily are the three Vedas: the organ of speech is the Rig-Veda, the mind is the Yajur-Veda and the vital breath is the Sama-Veda.(बृहदारण्यकोपनिषद -1.5.5 ) देवाः पितरो मनुष्या एत एवः वागेव देवा मनः पितरः प्राणो मनुष्याः॥ These verily are the gods, the Manes and men: the organ of speech is the gods, the mind is the Manes and the vital breath is men.(बृहदारण्यकोपनिषद -1.5.6 ) पिता माता प्रजैत एव मन एव पिता वाङ्माता प्राणः प्रजा॥ These verily are father, mother and child: the mind is the father, the organ of speech is the mother and the vital force is the child.(बृहदारण्यकोपनिषद -1.5.7 )]

      - " अथ "  (यह समझ लेने के बाद कि नवनीदा ही अपने पूर्वजन्म में कैप्टन सेवियर थे !) अर्थात अब यह समझा जा सकता है कि वास्तव में तीन लोक होते हैं - ' मनुष्य-लोक (the world of men), पितृ-लोक (the world of the Manes-प्रेतात्मा या पितर लोक) और देव-लोक (the world of the gods)| अगले जन्म में मनुष्य योनि ही प्राप्त हो , इसके लिए इस जन्म में योग्य सन्तान (चरित्रवान पुत्र या पुत्री ) को उत्पन्न करना ही पर्याप्त है, कोई अन्य साधना करने की आवश्यकता नहीं है । पितृलोक में स्थान प्राप्त करना चाहते हों , तो अपने पूर्वजों का (गया में) विधिपूर्वक श्राद्ध-संस्कार करना होगा। और यदि देवलोक (श्रीरामकृष्णदेव -लोक) में स्थान पाना हो तो -मनःसंयोग का अभ्यास करना होगा। { एकाग्रता का अभ्यास (यम -नियम , आसन -प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करना होगा। } इन तीनों लोकों में देवलोक (श्रीरामकृष्णदेव लोक) ही सर्वश्रेष्ठ है , इसीलिये हमारे पूर्वज ऋषियों ने शास्त्रों में मनःसंयोग (या एकाग्रता) के अभ्यास की प्रशंसा सबसे अधिक की है। 

       महामण्डल की दृष्टि में, चारों योगों के समन्वय द्वारा मनुष्य में निहित पशु-प्रवृत्ति का अतिक्रमण (transcend) करके उन्नत मनुष्य या पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त (full manhood- जीवित अवस्था में ही एकबार मर कर पुनरुज्जीवित या पुनर्जागृत, निर्विकल्प समाधि से वियुत्थान प्राप्त , ब्रह्मविद,  भ्रममुक्त अवस्था प्राप्त,  विज्ञान -विशेषज्ञ, अर्थात science-specialist या) 'technocrat मनुष्य ' (নেতা , জীবনমুক্ত শিক্ষক) के निर्माण का यही उपाय है।  चारो योगों का समन्वय करने की  " गुरुगृह-वास प्रशिक्षण पद्धति"  ( Internship training tradition) के प्रशिक्षण से  पशुता का अतिक्रमण कर (transcend )  कर मनुष्य बन जाना , और मनुष्यत्व को भी लाँघकर देवत्व की अवस्था में उन्नत मनुष्य बन जाना, और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करना ।        

        Technocrat *** अर्थात मनुष्य में निहित पशुता का अतिक्रमण करने (transcend) की चारों योग मार्गों के अनूठे समन्वय प्रणाली, योगवासिष्ठ-प्रणाली  [ स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा] या Technocrat निर्माण प्रणाली - ' Be and Make 'में प्रशिक्षित,  प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति अस्तु महाफला के महत्व को समझने वाले, प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि कैप्टन सेवियर को माँ काली की इच्छा से,  खड़दह में  15 अगस्त 1931 को नवनीदा के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ा।   एवं 1967 में नवनीदा ('C-IN-C'  कमाण्डर/ कैप्टन इन चीफ़ ) के नेतृत्व में , स्थापित अखिल भारत विवेकानन्द युवा  महामण्डल 'मनुष्य बनो और बनाओ' का आदेश नहीं देता , बल्कि गीता-उपनिषद की शिक्षा/प्रशिक्षण के आधार पर अपने जीवन को गढ़कर मनुष्य बनने और बनाने का मार्गदर्शन करता है।  

     मनुष्य गढ़ने समर्थ नेताओं/ धर्मगुरुओं / जीवनमुक्त शिक्षकों  का निर्माण करने के उद्देश्य से प्रवृत्ति मार्ग से होकर निवृत्ति में स्थापित 'technocrat' =  उन्नत -मनुष्य बनने और बनाने की परम्परा-' Be and Make ' परम्परा में, (जीवित अवस्था में ही एक बार मर कर पुनरुज्जीवित (पुनर्जागृत, निर्विकल्प समाधि से वियुत्थान प्राप्त) ब्रह्मविद, भ्रममुक्त अवस्था प्राप्त नेता नवनीदा के नेतृत्व में महामण्डल को पश्चिम बंगाल में आविर्भूत होना ही पड़ा।   

यदि स्वामी विवेकानन्द लंदन से अपने साथ प्रवृत्ति -मार्ग के सप्तऋषियों में से एक कैप्टन सेवियर को  (या सेवियर दम्पति को) अपने साथ नहीं लाते तो  " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा"- Be and Make ' में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे 'Technocrat '** नेता (C-IN-C) भी यदि अवतरित नहीं होते  तो हमारे जैसे सत्यार्थी गृहस्थों के जीवन से भी उच्चतम सभी व्रत --- यम-नियम-आसन -प्रत्याहार -धारणा आदि अभ्यास लुप्त हो जाते ।  

      अतः किसी धर्म-गुरु या जीवनमुक्त शिक्षक का मूल उद्देश्य है  शिक्षा /धर्म के माध्यम से मनुष्य की दृष्टि को पहले सुसंस्कृत बनाना। संशयी दृष्टि या भोगवादी दृष्टि से जगत को नहीं देखें बल्कि , 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' के मर्म को जानकर, त्यागपूर्वक भोग करने की पद्धति का प्रशिक्षण प्राप्त कर जगत को देखें। यदि 3H विकास के 5 अभ्यास के गुरुगृहवास - प्रशिक्षण पद्धति द्वारा पशुता का अतिक्रमण करके अपना सुंदर जीवन गढ़े बिना, भोग से (प्रवृत्ति मार्ग से) होकर 'निवृत्ति अस्तु महाफला मार्ग ' में आने का मार्गदर्शन देने, या अपनी विशेष बहादुरी (गुरुगिरि/बापूगिरि) दिखाने में ही व्यस्त रहें; और अन्तिम दिनों में जेल चले जाएँ, तो फिर मानवजीवन के उच्चतम सभी व्रत (अष्टांग योग) निःसन्देह लुप्त हो जायेंगे !    

**वह नियत कर्म (Task) क्या है , जिसे पूर्ण करने का बीड़ा महामण्डल ने उठा लिया है (What is the Task which, Mahamandal has chosen to perform: It want to spread   "the Four Basic-methods of seeking Truth and attaining it " or the  way of synthesizing four Yogas  to transcend animality (100% selfishness) in man and to stride for full manhood (100% Selflessness) from  village to village at every door of the youth. मनुष्य में निहित पशुता ( 100 % स्वार्थपरता ) को 'transcend' या लाँघ करके परम् सत्य ( इन्द्रियातीत सत्य) और पूर्ण मनुष्यत्व (100 % निःस्वार्थपरता या ईश्वर) के अन्वेषण और उपलब्धि के लिए  चार बुनियादी  योगों के  समन्वय (synthesize) करने की पद्धति को महामण्डल भारत के गाँव -गाँव तक , प्रत्येक युवा के दरवाजे तक पहुँचा देना चाहता है।    

      यही वह मार्ग है, जिस पर " with resolve to build a better society of better men  उन्नततर मनुष्यों  का उन्नततर समाज बनाने का दृढ़ संकल्प " लेकर महामण्डल विगत 53 वर्षों से चलते हुए, - साधारण प्रचलित अर्थों में धार्मिक, सांस्कृतिक, समाज-सेवी या शैक्षणिक संस्थान बने बिना, सच्चा धर्म, सच्ची संस्कृति, सच्चा समाज-कल्याण और सच्ची शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य करता चला आ रहा है। और जिसे 'एक नया युवा आन्दोलन' का रूप देकर सम्पूर्ण भारत में फैला देना अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का कार्य है!    

       ** जगत को देखने का दो दृष्टकोण  " ज्ञानमयी दृष्टि " (Cognitive approach - deHypnotized या विसम्मोहित अवस्था में पँहुचकर) जगत को देखना , और " सम्मोहित दृष्टि " (Animalistic या  Hypnotized) से जगत को देखना। रॉबर्ट इंगरसोल की सम्मोहित  दृष्टि (भेंड़ दृष्टि) और स्वामी विवेकानन्द की ज्ञानमयी दृष्टि (सिंह दृष्टि ) से जगत को देखना। पशु-प्रवृत्ति [Animal propensity-आहार,निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति] का अतिक्रण करने (Transcend) का प्रशिक्षण देने से मनुष्यत्व का पुनर्जागरण सम्भव हो सकता है।  अर्थात भोगों में आसक्त संसारी-पशु  नहीं बल्कि त्यागी ( अर्थात विवाह -संस्कार या प्रवृत्ति मार्ग -एक-पत्नीव्रत ) सद्गृहस्थ बनकर , जब कोई व्यक्ति निर्विकल्प समाधि या इन्द्रियातीत सत्य का दर्शन करके  पुनर्जागृत हो जाता  है, तब उस  मनुष्य के भी सारे बन्धन टूट जाते हैं --वह क्रमशः 100 % निःस्वार्थी वज्र जैसा बन जाता है।  तब देखोगे कि जगत रूपी सन्तरे को निचोड़ने से  हजार गुना अधिक रस मिलेगा। एक बूँद भी बाकी न रहेगा।  दिशा को बदलो, किनारे बदल जायेंगे : " नजरें बदलीं तो नज़ारे बदल गए , कश्ती का मुख मोड़ा तो किनारे बदल गए। " नजर को बदलो तो नजारे बदल जाते है,  सोचको बदलो तो सितारे बदल जाते  है। कश्तियाँ बदलने की जरुरत नहीं, दिशा को बदलो तो किनारे खुद-ब - खुद बदल जाते हैं। क्योंकि केवल विसम्मोहित मस्तिष्क से ही यह समझा जा सकता है कि - निवृत्ति अस्तु महाफला अर्थात  'त्याग (ब्रह्मचर्य ही) मनुष्य का श्रेष्ठतम आदर्श है! 

         अतः प्रत्येक युवा का कर्तव्य है कि पहले वह स्वयं महामण्डल की "मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण परम्परा -" Be and Make " प्रशिक्षत मनुष्य बने और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करे।          

 इसलिए महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर की शिक्षा -पाठ्यक्रम का मूल उद्देश्य है मनुष्य निर्माण! अर्थात 3H  विकास के 5 अभ्यास द्वारा चारों पुरुषार्थ एवं चारो योग का समन्वय कर पशुता का अतिक्रमण करने के लिए  शारीरिक विकास के (Hand ) लिए परेड ग्राउण्ड में अनुशासन तथा खेल का मैदान का प्रशिक्षण प्राप्त करना। वैसे ही ज्ञानमयी दृष्टि से मानव सेवा  का अभ्यास (मनोनिग्रह Head ) करने प्रशिक्षण देने के पहले भोगमयी दृष्टि को सुसंस्कृत बनाने के लिए ऑडिटोरियम (auditorium सभागृह ) में , महामण्डल के ध्येय-वाक्य (Motto) - Be and Make ' को आदेश नहीं समझकर मार्गदर्शन समझने के लिए, नवनीदा जैसे जीवनमुक्त शिक्षक (C-IN-C ) के सानिध्य में रहकर उनका उनके लेक्चर का श्रवण-मनन -निदिध्यासन करना आवश्यक है।  वैसे ही हृदयविकास के लिए (Heart) रसोई और खाद्य वितरण विभाग (Kitchen and Food distribution Department) में सेवा का कर्तव्य या धर्म का अभ्यास करना भी आवश्यक है।  

      महामण्डल युवा प्रशिक्षण कार्यक्रम (मनुष्य-निर्माण या '3H विकास के  5 अभ्यास' का प्रशिक्षण कार्यक्रम : The Continuing Education package offers a host of programmes, viz., the equivalency programme, income-generating programme, quality of life improvement programme and individual interest promotion programme.शिविर पाठ्यक्रम के छः दिवसीय गुरुगृह -वास सतत शिक्षा पैकेज (The Continuing Education package )  के अंतर्गत  अनेक कार्यक्रम शामिल हैं।  जैसे जीवन की गुणवत्ता में सुधार संबंधी कार्यक्रम ( quality of life, चरित्र के 24 गुण : आत्ममूल्यांकन तालिका , ऑटोसजेशजन ) व्यक्तिगत रुचि में बढ़ोत्तरी करने वाले कार्यक्रम (individual interest promotion -म्यूजिक, योगा , फर्स्ट ऐड )  समतुल्यता कार्यक्रम  (equivalency-जाति , धर्म , भाषा , लिंग M/F में अभेद दृष्टि उत्पन्न करने के इवनिंग लेक्चर्स ) कार्यक्रम, और आय पैदा करने वाले कार्यक्रम (income-generating programme-बिजनेस , व्यापार, विविध कुटीर-उद्योग -प्रशिक्षण कार्यक्रम। )।   इसीलिये  ......         

                  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं,- "My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life. Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. 'Would to God that all men were so constituted that in their minds all these elements of philosophy (ज्ञान) , mysticism (मनःसंयोग), emotion (भक्ति) and of work (कर्मयोग) were equally present in full ! that is Ideal , my ideal of a perfect man. To become harmoniously balanced in all these four directions is My ideal of religion. My idea of education is personal contact with the teacher - Gurugriha-Vâsa. Without the personal life of a teacher there would be no education. Take your Universities. What have they done during the fifty years of their existences. They have not produced one original man. They are merely an examining body. The idea of the sacrifice for the common weal is not yet developed in our nation." Look upon every man, woman, and everyone as God. You cannot help anyone , you can only serve . Do it only as a worship . 'Believe that the (each) soul is immortal, infinite and all-powerful.' 

         " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है , और वह है --मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना , तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना।  संसार के धर्म (ब्राण्डेड धर्म) प्राणहीन, उपहास की वस्तु हो गए हैं। जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है , वह है चरित्र। संसार को ऐसे मनुष्य चाहिए , (नवनीदा के जैसे गृहस्थ नेता चाहिए) जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। (*४/४०८) भगवान जी की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग (मनःसंयोग-mysticism) , भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे , तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यही होगा। जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं , मैं उनको एकपक्षीय कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है, जो केवल अपना ही रास्ता जानते हैं। इसके सिवाय अन्य जो कुछ है , वह सब उनके निकट विपत्तिकर और भयंकर है। इस तरह चारों योग-मार्ग में ओर समभाव से विकास लाभ करना (Be and Make!) ही, मेरे  कहे हुए धर्म - 'विश्वधर्म' का आदर्श है ! (३/१५१) My ideal of religion is --universal religion,  Be and Make ! My idea of education is personal contact with the teacher - Gurugriha-Vâsa. " विश्वास करो कि [प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है!] आत्मा अमर है , अनन्त है और सर्वशक्तिमान है ! [नहीं तो नवनीदा इतने शक्तिमान -ज्वलंत प्रेम के उदहारण कैसे बनते ? इसलिए ]  मैं शिक्षा को गुरु के साथ संपर्क, गुरु-गृहवास समझता हूँ। गुरु { नेता (C-IN-C) नवनीदा} के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। अपने विश्वविद्यालयों को लीजिये। अपने 50 वर्ष के अस्तित्व में उन्होंने क्या किया है ? उन्होंने एक भी मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं किया। वे केवल परीक्षा लेने की संस्थायें हैं। सबके कल्याण के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देने की भावना का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ। (४/२६२)  अतएव हर एक स्त्री को , हर एक पुरुष को और सभी को ईश्वर के ही समान देखो। यदि ईश्वर के अनुग्रह से, (माँ काली की कृपा से ) उसकी किसी सन्तान की सेवा कर सकोगे , तो तुम धन्य हो जाओगे ; अपने को ही बहुत बड़ा मत समझो ! (coronavirus taught us that how small we are ?--कोरोनावायरस ने हमें सिखाया कि हम कितने छोटे हैं? ) तुम धन्य हो कि, सेवा करने का अधिकार तुमको मिला और दूसरों को नहीं मिला। (बाकी दीवार के उस तरफ ही कूद गए , तुम महानन्द-मेला को देखकर फिर लौट आये) केवल ईश्वर-पूजा की भाव से सेवा करो ! (५/१४१) "

       "हम मनुष्यजाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं जहाँ न वेद है, न बाइबिल है,न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि सब धर्म उस एकमेवाद्वितीय धर्म के भिन्न भिन्न रूप हैं, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। " 

      प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने वाले- श्रीरामकृष्ण देव के शिष्य गिरीश घोष, स्वामी ब्रह्मानन्द, सरदार बल्ल्भभाई पटेल  या आधुनिक युग के मैट्रो मैन और कर्मयोगी इ. श्रीधरण  को आप क्या आदर्श जीवनमुक्त शिक्षक/या नेता नहीं मानते ?

सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती 31अक्टूबर को मनाई जाती है। सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में हुआ था।  सरदार पटेल ने करमसद में प्राथमिक विद्यालय और पेटलाद स्थित उच्च विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन उन्होंने अधिकांश ज्ञान खुद से पढ़ कर ही अर्जित किया। वल्लभ भाई की उम्र लगभग 17 वर्ष थी, जब उनकी शादी गना गांव की रहने वाली झावेरबा से हुई।  पटेल ने गोधरा में एक वकील के रूप में अपनी कानूनी प्रैक्टिस शुरू की।  उन्होंने एक वकील के रूप में तेजी से सफलता हासिल की और जल्द ही वह आपराधिक मामले लेने वाले बड़े वकील बन गए। खेड़ा सत्याग्रह का नेतृत्व करने के लिए पटेल को अपनी पसंद को दर्शाते हुए कहा गांधी जी ने कहा था, कई लोग मेरे पीछे आने के लिए तैयार थे, लेकिन मैं अपना मन नहीं बना पाया कि मेरा डिप्टी कमांडर कौन होना चाहिए, फिर मैंने वल्लभ भाई के बारे में सोचा।  

       साल 1928 में गुजरात में बारडोली सत्याग्रह हुआ जिसका नेतृत्व वल्लभ भाई पटेल ने किया।  यह प्रमुख किसान आंदोलन था, उस समय प्रांतीय सरकार किसानों से भारी लगान वसूल रही थी; सरकार ने लगान में 30 फीसदी वृद्धि कर दी थी, जिसके चलते किसान बेहद परेशान थे, वल्लभ भाई पटेल ने सरकार की मनमानी का कड़ा विरोध किया; सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने की कोशिश में कई कठोर कदम उठाए, लेकिन अंत में विवश होकर सरकार को पटेल के आगे झुकना पड़ा और किसानों की मांगे पूरी करनी पड़ी।  दो अधिकारियों की जांच के बाद लगान 30 फीसदी से 6 फीसदी कर दिया गया, बारडोली सत्याग्रह की सफलता के बाद वहां की महिलाओं ने वल्लभ भाई पटेल को *सरदार* की उपाधि दी। 1931 में पटेल को कांग्रेस के करांची अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया।   उस समय जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी पर देश गुस्से में था, पटेल ने ऐसा भाषण दिया जो लोगों की भावना को दर्शाता था।  

       उन्होंने  565 रियासतों का विलय कर भारत को एक राष्ट्र बनाया था ,  यही कारण है कि वल्लभ भाई पटेल की जयंती के मौके पर राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया जाता है।  पहली बार राष्ट्रीय एकता दिवस 2014 में मनाया गया था। पटेल ने धीरे धीरे सभी राज्यों को भारत में विलय के लिए तैयार कर लिया था, लेकिन हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान आसिफ ने स्वतंत्र रहने का फैसला किया।  निजाम ने फैसला किया कि वे न तो भारत और न ही पाकिस्तान में शामिल होंगे; सरदार पटेल ने हैदराबाद के निजाम को खदेड़ने के लिए ऑपरेशन पोलो चलाया। साल 1948 में चलाया गया ऑपरेशन पोलो एक गुप्त ऑपरेशन था; इस ऑपरेशन के जरिए हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान आसिफ को सत्ता से अपदस्त कर दिया गया और हैदराबाद को भारत का हिस्सा बना दिया गया। सरदार पटेल ने अपनी दूरदर्शिता, चतुराई और डिप्लोमेसी की बदौलत इन रियासतों का भारत में विलय करवाया था। देश की आजादी के बाद पटेल पहले उप- प्रधानमंत्री और गृह मंत्री बने। सरदार पटेल जी का निधन 15 दिसंबर, 1950 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था; सन् 1991 में सरदार पटेल को मरणोपरान्त *भारत रत्न* से सम्मानित किया गया था।

        सरदार पटेल के निधन पर पंडित नेहरू ने कहा था, सरदार का जीवन एक महान गाथा है जिससे हम सभी परिचित हैं और पूरा देश यह जानता है, इतिहास इसे कई पन्नों में दर्ज करेगा और उन्हें राष्ट्र-निर्माता कहेगा।  इतिहास उन्हें नए भारत का एकीकरण करने वाला कहेगा, और भी बहुत कुछ उनके बारे में कहेगा लेकिन हममें से कई लोगों के लिए वे आज़ादी की लड़ाई में हमारी सेना के एक महान सेनानायक के रूप में याद किए जाएंगे।  एक ऐसे व्यक्ति जिन्होंने कठिन समय में और जीत के क्षणों में, दोनों ही मौकों पर हमें नेक सलाह दी।  प्रतिभा के धनी सरदार पटेल के विचार आज भी लाखों युवाओं को प्रेरणा देते हैं !!              

       इस प्रकार चारों योग मार्ग के समन्वय द्वारा मनुष्य में निहित पशुता का अतिक्रमण (transcend) करने के विज्ञान में प्रशिक्षित एक कर्मयोगी  ' केरल में भाजपा के मुख्यमंत्री प्रत्याशी , 88 वर्षीय मेट्रोमैन ई० श्रीधरण  कहते हैं - शारीरिक उम्र (physical age) से ज्यादा मानसिक उम्र (mental age)  इस बात का फैसला करती है कि एक व्यक्ति को क्या जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिये। उन्होंने कहा, " सिर्फ शारीरिक उम्र नहीं बल्कि मानसिक उम्र मायने रखती है। मानसिक तौर पर मैं बहुत चुस्त और युवा हूँ। मुझे अभी तक स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई परेशानी नहीं है। मुझे नहीं लगता कि स्वास्थ्य कोई मुद्दा होगा। मैं एक सामान्य राजनीतिज्ञ की तरह काम नहीं करूँगा , बल्कि मैं एक technocrat (विज्ञान -विशेषज्ञ)  की तरह अपना काम जारी रखना चाहूँगा।"        

     दिल्ली मेट्रो की स्थापना में अपनी भूमिका के लिए मेट्रो मैन के नाम से मशहूर टेक्नोक्रेट ई श्रीधरन ने शुक्रवार को  "लव जिहाद" के बारे में एक सवाल - लेकिन सर्वधर्म समन्वय के नाम पर लव-जिहाद करना कहाँ तक उचित है ? पर समाचार चैनल एनडीटीवी को जवाब देते हुए कहा, "... लव जिहाद, हाँ, मैं देख रहा हूं कि केरल में क्या हुआ है।  शादी में हिंदुओं को कैसे बरगलाया जा रहा है और वे कैसे पीड़ित हैं ... न केवल हिंदू, मुस्लिम, ईसाई लड़कियों को शादी में धोखा दिया जा रहा है। इस चीज का मैं निश्चित रूप से विरोध करूंगा। उनका ये कमेंट ऐसे समय में आया है जब "लव जिहाद"को लेकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में बहस छिड़ी हुई है। दोनों राज्यों में भाजपा का शासन है। दक्षिणी राज्य में अनुसूचित चुनावों से पहले उनकी इस टिप्पणी के एक दिन बाद उन्होंने घोषणा की कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो रहे हैं।

           [ नवनीदा से उम्र में 1 वर्ष छोटे] , इलातुवलापिल श्रीधरन का जन्म 12 जून 1932 को केरल राज्य के थिरथला निर्वाचन क्षेत्र, पलक्कड़ जिले में कारुकापुथुर में हुआ था।  उनकी प्राथमिक शिक्षा पलक्कड़ जिले के पट्टांबी के पास गवर्नमेंट लोअर प्राइमरी स्कूल चथनूर से हुई थी। उन्होंने बेसल इवेंजेलिकल मिशन हायर सेकेंडरी स्कूल में अपनी शिक्षा पूरी की और फिर पालघाट में विक्टोरिया कॉलेज गए । बाद में उन्होंने गवर्नमेंट इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी की ।

           सन 1964 एक तूफ़ान के कारण रामेश्वरम को तमिल नाडु से जोड़ने वाला ‘पम्बन पुल’ टूट गया। रेलवे ने इस पुल के जीर्णोद्धार और मरम्मत के लिए 6 महीने का समय दिया पर श्रीधरन के बॉस ने सिर्फ तीन महीने में इस कार्य को पूरा करने को कहा और श्रीधरन को यह कार्य सौंपा गया। श्रीधरन ने यह कार्य मात्र 46 दिनों में पूरा कर सबको चकित कर दिया। इस उपलब्धि के लिए उन्हें ‘रेलवे मंत्री पुरस्कार’ दिया गया।

        सन 1970 में इ. श्रीधरन को भारत के पहले मेट्रो रेल ‘कोलकाता मेट्रो’ की योजना, डिजाईन और कार्यान्वन की जिम्मेदारी सौंपी गयी। श्रीधरन ने न सिर्फ इस अग्रगामी परियोजना को पूरा किया बल्कि इसके द्वारा भारत में आधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर इंजीनियरिंग की आधारशिला भी रखी। सन 1981 में उनके नेतृत्व में ही कोचीन शिपयार्ड का पहला जहाज़ ‘एम.वी. रानी पद्मिनी’ बनकर बाहर निकला।

         जुलाई 1987 में उन्हें पदोन्नत कर पश्चिमी रेलवे में जनरल मैंनेजर बना दिया गया और जुलाई 1989 में वे रेलवे बोर्ड का सदस्य बना दिए गए। जून 1990 में उनको सेवानिवृत्त होना था पर सरकार ने उनको बता दिया था कि देश को उनकी सेवाओं की और आवश्यकता है। इस प्रकार सन 1990 में उन्हें कॉन्ट्रैक्ट पर लेकर कोंकण रेलवे का चीफ मैनेजिंग डायरेक्टर बना दिया गया। कोंकण रेलवे परियोजना कई मामलों में अनोखी रही। यह देश की पहली बड़ी परियोजना थी जिसे BOT (ब्युल्ट-ऑपरेट-ट्रान्सफर) पद्धति पर कार्यान्वित किया गया था।लगभग 82 किलोमीटर के एक स्ट्रेच में इसमें 93 टनल खोदे गए थे। परियोजना की कुल लम्बाई 760 किलोमीटर थी जिसमें 150 पुलों का निर्माण किया गया था। कई लोगों के लिए यह आश्चर्य की बात थी कि एक सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजना बिना बिलम्ब और बजट बढ़ाये लगभग अपने नियत समय पर पूरी हो गयी थी।

       इ. श्रीधरन को दिल्ली मेट्रो का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया और सन 1997 के मध्य तक परियोजना के हर पहलू को समय सीमा के अंतर्गत ही पूरा कर लिया गया। उन्हें ‘मेट्रो मैन’ की अनौपचारिक उपाधि भी दे दी गयी। उनकी इस कामयाबी को इतना महत्वपूर्ण माना गया कि फ्रांस की सरकार ने सन 2005 में उन्हें ‘नाइट ऑफ़ द लीजन ऑफ़ हॉनर’ से सम्मानित किया। भारत सरकार ने भी उन्हें सन 2008 में ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। उन्हें 2005 में सेवा निवृत्त होना था पर सरकार ने उनके कार्यकाल को आगे बढाकर मेट्रो के दूसरे फेज की समाप्ति तक कर दिया। 16 साल की सेवा के बाद इ. श्रीधरन 31 दिसम्बर 2011 को दिल्ली मेट्रो से सेवानिवृत्त हो गए।

         दिल्लि मेट्रो से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें कोच्ची मेट्रो रेल प्रोजेक्ट का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया। सन 2013 में उन्होंने कहा कि कोच्ची मेट्रो अपने निर्धारित समय लगभग तीन साल में पूरी हो जाएगी।श्रीधरन को लखनऊ मेट्रो रेल का भी मुख्य सलाहकार नियुक्त किया गया है। उन्होंने जयपुर मेट्रो को भी अपना बहुमूल्य सलाह दिया और देश में बनने वाले दूसरे मेट्रो रेल परियोजनाओं के साथ भी वे जुड़े हुए हैं। इनमें शामिल हैं आंध्र प्रदेश की दो प्रस्तावित मेट्रो परियोजनाएं – विशाखापत्तनम और विजयवाड़ा।

      कर्मयोगी इ. श्रीधरन का व्यक्तिगत जीवन : इ. श्रीधरन का जीवन अनुशासन और ईमानदारी की एक मिसाल है। इ. श्रीधरन का विवाह राधा श्रीधरन से हुआ। श्री इ.धरण  दंपत्ति की चार संतानें हैं – उनके बड़े पुत्र रमेश, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं और पुत्री शांति मेनन बैंगलोर में एक स्कूल चलाती  हैं, उनका एक और पुत्र अच्युत मेनन यूनाइटेड किंगडम में डॉक्टर है और उनका सबसे छोटा पुत्र एम. कृष्णदास COWI में कार्यरत है। इ. श्रीधरन की दो जीवनी भी लिखी जा चुकी है। इनमें से एक है – एम. एस. अशोकन द्वारा लिखित ‘कर्मयोगी: इ. श्रीधरनते जीविथा कथा’ (द स्टोरी ऑफ़ इ. श्रीधरंस लाइफ) और दूसरी जीवनी पी.वी. अल्बी द्वारा लिखित ‘जीविथाविजयाथिन्ते पादपुस्तकम’ (अ टेक्स्टबुक ओं सक्सेस ऑफ़ लाइफ)।

[ साभार : http://kavitakosh.org/मृदुल कीर्ति : कठोपनिषद /द्वितीय अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग २]     

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