बुधवार, 20 जून 2012

' सिंह-शावक का भ्रम टूटा ! ' [13] कहानियों में वेदान्त

' अज्ञान का शास्त्रीय नाम है माया '
ऊँचे ऊँचे पहाड़ो की गोद में समतल भूमि पर गड़रिया लोगों का बसेरा था। दिन के समय में उनकी भेंड़े मैदान में हरीभरी घास चरती रहती थीं। संध्या के समय उनको वापस लौटकर पहाड़ की तलहटी पर बने समीपवर्ती बाड़े में बन्द कर दिया जाता था। मैदान में चराते समय भी उनकी रखवाली करनी पडती थी। क्योंकि वहाँ बाघ-सिंह आदि अक्सर उपद्रव करते रहते थे। 
एकदिन दोपहर के समय भेड़ें मैदान में चर रही थीं। मैदान के दूसरे छोर पर एक पतली सी पहाड़ी नदी बहती थी।और उस नदी के दूसरे किनारे पर वनों से आच्छादित एक पहाड़ था। उसी वन में रहने वाली एक सिंहनी बाहर निकल कर नदी के उस ओर खड़ी हो गयी। उसको देखते ही भेड़ों का झुण्ड जान जाने के डर से भागने लगा। चरवाहे की छाती भी धक-धक करने लगी। 
सिंहनी ने तुरन्त एक छलाँग लगायी, और नदी को पार करके इस तरफ आ गयी। सभी भयभीत हो गये, अब तुरन्त कोई दुर्घटना जरुर होगी ! किन्तु कुछ हुआ नहीं ? वास्तव में वह सिंहनी गर्भवती थी और आसन्न-प्रसवा थी। किन्तु वह बहुत भूखी थी, इसीलिये नदी को फांद तो गयी, किन्तु वहीं उसे बच्चा हो गया, और प्रसव देने के बाद वह मर गयी। इस अवस्था में छलांग लगाने में जो परिश्रम उसे करना पड़ा, उसे वह बर्दास्त न कर सकी।
उस सिंहनी का बच्चा भेड़ों के झुण्ड रह गया। जन्म से ही भेड़ों के झुण्ड में पलने-बढ़ने के कारण 
वह ' सिंह-शिशु ' भेड़ों की तरह ही घास चरना सीख लिया, और भेड़ों की ही तरह भें-भें करके बोलना भी सीख लिया। कुछ दिनों तक इसी प्रकार जीवन बिताने के बाद, फिर एक दिन किसी दूसरे सिंह ने आकर भेड़ों के झुण्ड पर आक्रमण कर दिया। सिंह इतने आकस्मिक और अनपेक्षित ढंग से झपटा था, की सारी भेड़ें भय से भागने लगीं। वह सिंह-शावक भी भेड़ों के साथ भय से काँपते काँपते दौड़ रहा था। किन्तु दौड़ने में सिंह से बच कर भाग कैसे सकता था ? बस एक ही छलांग में सिंह बिलकुल उसके निकट पहुँच गया। किन्तु वह सिंह इस सिंह-शावक का आचरण देखकर तो अवाक् हो गया !
कितने आश्चर्य की बात है ! सिंह का बच्चा होकर भी भेड़ों के जैसा घास खाता है, भें-भें कर बोलता है, और उसको देखकर भय से काँप रहा है ? फिर उस सिंह ने दूसरी भेड़ों का शिकार नहीं किया, और केवल उस सिंह-शिशु को ही पकड़ कर अपने साथ नदी के उस पार ले गया।  क्योंकि सिंह यह समझ चूका था, कि भेड़ों की संगत में रहने के कारण ही बच्चे की ऐसी दुर्दशा हो गयी है। वह यह बिल्कुल भूल चुका है, कि वह एक ' सिंह का शावक ' है। इस बच्चे के भ्रम को तोड़ना आवश्यक है।
सिंह ने पूछा, " अरे,तू मुझको देखकर डर क्यों रहा है ? तू जो है, मैं भी वही हूँ ! फिर तू अपने को भेंड़ क्यों समझ रहा है ? तू तो सिंह है ! अब तू भेड़ के जैसा भें-भें मत कर, मेरे जैसा गर्जन कर। " इतना कहने पर भी उस सिंह-शावक पर कोई असर नहीं हुआ। सिंह ने उसको कई प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किन्तु उसका सारा प्रयास विफल हो गया। क्योंकि उस बच्चे के मन में अपने स्वरुप को लेकर एक भ्रान्त धारणा ने अपना जड़ जमा लिया था। किन्तु उस सिंह ने हार नहीं मानी।
सिंह उस बच्चे को खींचते खींचते नदी के किनारे, जहाँ पानी था वहाँ तक ले गया। नदी के स्वच्छ-निर्मल जल में दोनों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था; सिंह और सिंह-शावक बिलकुल आस-पास खड़े थे। उसी प्रतिबिम्ब को दिखलाकर सिंह ने कहा," लो, अब देख लो; ' तू जो है मैं भी वही हूँ '। देखो, मेरा मुख हांड़ी की तरह है, तेरा मुख भी वैसा ही है न ? तुम्हारा चेहरा भेंड़ जैसा एकदम नहीं है। "
 
इस प्रकार प्रत्यक्ष देखने का परिणाम हुआ। बच्चा समझ गया- " अरे, यह तो बिल्कुल ठीक बात है, हमदोनों का चेहरा तो बिल्कुल एक जैसा है!"  अब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा मांस लाकर उसके मुख में भर दिया, और थोड़ा सा मांस स्वयं भी खाया। सिंह-शिशु को जैसे ही मांस का स्वाद चखा, फिर उसको कौन पकड़ सकता था ?
तब उस सिंह-शावक का भ्रम टूट गया, अब उसने अपने सच्चे सिंह-स्वरुप को बिल्कुल स्पष्ट रूप से पहचान लिया था। अब उसके मन में पूर्ण आत्मविश्वास लौट आया। अब वह सिंह शावक पूरे शान से दहाड़ कर गर्जन करने लगा।
इतने दिनों तक जिन भेड़ों के संग उसने समय बिताया था, उस भेड़ों की झुण्ड की ओर फिर एक बार सिर घुमाकर भी नहीं देखा, और सिंह का अनुकरण करते हुए उसी की तरह छलांग मारते हुए, अपने असली आवास ' निज-निकेतन ' - वन में लौट गया।
हम में से अधिकांश लोग सिंह के उस सम्मोहित [ Hypnotized] बच्चे के समान हैं, और विश्वास करते हैं कि हम दुर्बल और असहाय हैं। हमें स्वयं को विषय में अपनी धारणा को बदलने के लिये [De -Hypnotized होने के लिए ] एक महान ज्ञानी की जरूरत होती है। [अर्थात किसी जीवनमुक्त शिक्षक, या नवनीदा जैसे चपरास प्राप्त नेता (C-IN-C) की जरूरत होती है।] ज्ञानी लोग सामान्य लोगों में साहस तथा ज्ञान का संचार करते हैं। स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make ' में प्रशिक्षित इसी प्रकार के जीवनमुक्त शिक्षकों / मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं/  का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करके व्यक्तियों और पूरे राष्ट्र को जाग्रत किया जाता है।      
जिन लोगों ने अपने सच्चे स्वरुप को जान लिया है, जो लोग समस्त ' गलत समझ की जाल ' अथवा भ्रम-जाल को सिंह-विक्रम से फाड़ कर मुक्त हो चुके हैं, वे ही दूसरों की गलत धारणाओँ का, या भ्रम का भंजन कर सकते हैं। वे लोग दूसरों को भी आत्मज्ञान दे सकते हैं, वे उनको उनका स्वरुप दिखा दे सकते हैं। उनके संस्पर्श में आ जाने से लोगों को चैतन्य होता है।
अज्ञान का जो आवरण हमारे स्वरुप को ढांक देता है, उसका शास्त्रीय नाम है माया। बाद वाले कहानियों में माया का स्वरुप पर चर्चा की गयी है। 
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