About Me

My photo
Active worker of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.

Thursday, June 14, 2012

श्रीरामकृष्ण की कुछ अनुभूतियाँ- " माँ-काली से कैसे कहूँ ?"/ कहानियों में वेदान्त/11/

1.माँ-काली से कैसे कहूँ ?
ईश्वर की ओर बढ़ने के जितने भी मुख्य मार्ग हैं, श्रीरामकृष्ण उन समस्त मार्गों से चल कर जगत के चरम सत्य तक पहुँच गये थे। उन्होंने देखा था, कि सभी मार्ग साधक को अन्ततः वेदान्तोक्त आद्वितीय सत्य में पहुंचा देते हैं। अपने स्वयं की अनुभूति के दृढ बुनियाद के उपर खड़े होकर उन्होंने घोषणा की थी, " वे साकार भी हैं, निराकार भी हैं; एवं और भी कितना कुछ हैं ! " 
" जितने मत, उतने पथ ।" 
" एक ही जल को कोई वाटर कहता है, कोई एक्वा कहता है, या कोई पानी कहता है। कोई जल को मशक में रखा है, कोई घड़े में, या किसी ने उसको अन्य किसी पात्र में रखा है। भेद केवल पात्र के नाम और रूप को लेकर ही है। सभी पात्रों में वस्तु केवल ' जल ' ही है। "
" कोई उनको गौड कहता है, कोई अल्ला कहता है, कोई उन्हीं को राम, कृष्ण आदि कहता है, या ब्रह्म कहता है। वस्तु वही एक हैं ।" 
" समुद्र का जल थोड़ा जम जाने से बर्फ बन गया है। बर्फ का आकार है, जल का नहीं है। किन्तु वस्तु ( उपादान या Stuff ) के रूप में बर्फ और जल में कोई अन्तर नहीं है, दोनों एक हैं। उसी प्रकार साकार और निराकार में भी कोई अंतर नहीं है। "
सत्य एक और अद्वितीय है, किन्तु भक्तिभाव से देखने पर कोई उनको साकार ईश्वर (भगवान श्रीरामकृष्ण देव) के रूप में देखता है, फिर अद्वैत तत्व में पहुँचने पर वे ही निराकार ब्रह्म हैं। श्रीरामकृष्ण के जीवन की जिस घटना का वर्णन हम यहाँ करने वाले हैं, वह घटना काशीपुर में घटित हुई थी।
उस समय श्रीरामकृष्ण के गले में कैन्सर हो गया है। बीमारी की चिकित्सा और सेवा में सुविधा को ध्यान में रख कर भक्त लोग उनको काशीपुर के एक उद्द्यान-बंगला (फ़ार्म हॉउस ) में लाकर रखे हैं। बीमारी उत्तरोत्तर बुरी खबर की ओर बढ़ती जा रही थी। नरेन्द्रनाथ समझ चुके थे कि श्रीरामकृष्ण ने इसबार शरीर त्यागने का निश्चय कर लिया है, यह बीमारी अब अच्छी नहीं होने वाली है। किन्तु उनके बिना, वे स्वयं रहेंगे कैसे ? क्या अब कुछ नहीं किया जा सकता है ?
इसी बीच एकदिन एक पण्डित श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आते हैं। वे श्रीरामकृष्ण से अनुरोध
करते हैं, " यदि आप अपने शरीर के उपर थोड़ी देर भी मन को एकाग्र करलें तो आपकी बीमारी अच्छी हो जाएगी। योगी लोग तो इच्छा मात्र से अपने शरीर के रोग को अच्छा कर सकते हैं। "
यह सुन कर श्रीरामकृष्ण कहते हैं, " वह सब तो ठीक है, किन्तु जिस मन को मैंने एकबार भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है, उसको वहाँ से वापस लौटा कर इस हाड़-मांस के पिंजरे के उपर मैं कैसे निवेशित कर सकता हूँ ? इस शरीर को तो मैं सदासे तुच्छ और नगण्य मानता आया हूँ। "
पण्डित जी के अनुरोध का भी उनके उपर कुछ असर नहीं हुआ।
नरेन्द्रनाथ भी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने सबकुछ सुन लिया था। यह सुन कर उनकी बुद्धि में एक उपाय कौंध जाता है। माँ-काली तो श्रीरामकृष्ण की सब बातें सुन लेती हैं। नरेन्द्रनाथ ने स्वयं इसका प्रमाण प्राप्त किया है।  उन्होंने मन ही मन ठान लिया कि माँ से कह कर ही कोई जुगाड़ (प्रबन्ध) करना होगा।
यह विचार मन में उठने के साथ ही साथ, वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में गये। और बोले-" महाशय, माँ-काली से कह कर अपनी बीमारी ठीक करवा लीजिये। आप माँ एक बार भी कह दीजियेगा, तो माँ आपकी बीमारी ठीक कर देंगी। "
श्रीरामकृष्ण बोले- " यह तो तू ठीक ही कह रहा है रे, किन्तु माँ से अपनी बीमारी की बात कहते समय वह बात  मुंह में ही अटक जाती है ! बीमारी ठीक करने का अनुरोध तो मैंने आज तक किया ही नहीं है। इस तुच्छ शरीर की रक्षा करने बात भला मैं माँ से कह भी कैसे सकता हूँ ? "
किन्तु नरेन्द्रनाथ तो छोड़ने वाले नहीं थे, बोले-" मैं वह सब नहीं जानता हूँ, महाशय। आप अपने लिए भले मत कहिये; किन्तु हमलोगों के लिये, आपको कम से कम एकबार तो माँ से यह बात कहनी ही होगी। "
श्रीरामकृष्णदेव नरेन्द्रनाथ से बहुत प्रेम करते थे। इसीलिये उनके इस स्नेहपूर्ण ज़िद को टाल नहीं सके। वे तो जानते थे, कि मेरा शरीर छूट जाने के बाद इन लड़कों को असहनीय दुःख होने वाला है!
 इसीलिए बोले, " अच्छा, कोशिश करके देखूँगा; यदि बोल पाया तो कह दूंगा। " थोड़ी देर बाद नरेन्द्रनाथ पुनः उनके कमरे में वापस आ गये और पूछा, " माँ से पूछे कि नहीं?"
ठाकुरदेव ने कहा, " हाँ कहा तो था। मैंने कहा, ' माँ मैं गले की इस बीमारी के कारण कुछ खा नहीं पा रहा हूँ, जिससे दो-चार कौर खा सकूँ, ऐसा कोई उपाय कर दो। " यह सुनकर माँ ने तुम सबों को दिखलाते हुए
कहा, ' क्यों, इतने सारे मुख से खा तो रहा है !' सुन कर मैं तो लज्जा से मानों मर ही गया। सोचा, मैं आखिर तुम्हारी बातों में आकर माँ से यह बात कहने ही क्यों गया ! "  
इस कथोप-कथन के उपर चिन्तन करने से, यह बात समझ में आ जाती है कि श्रीरामकृष्ण कितने स्पष्ट रूप से सबों के भीतर स्वयं को प्रत्यक्ष देख पाते थे ! सबों के भीतर विद्यमान रहकर वे ही तो सबों के मुख से खा रहे हैं ! और इसी अनुभूति में निरंतर लीन रहते हुए भी, केवल कुछ क्षणों के लिये स्वयं को सबसे अलग मान कर ' खा नहीं पा रहा हूँ ' कहने के लिये, मानो कोई बहुत बड़ी गल्ती कर दिए हों; कितना अधिक लज्जित महसूस किये थे !
दूसरा दृष्टान्त: हरी दूब पर चलने से कष्ट  
दूसरी घटना दक्षिणेश्वर की है। श्रीरामकृष्णदेव अपने कमरे के सामने वाले बरामदे में बैठे हैं। सामने घास से ढंका हुआ मैदान है। छोटे छोटे और हरे दूब की घास का मानो किसी ने एक कारपेट ही बिछा रखा हो। 
अचानक देखते हैं, कोई व्यक्ति उसी घास को रौंदता हुआ चला जा रहा है, देखते ही कष्ट से अधीर हो उठते हैं। उस समय वे उस कोमल दूबों के भीतर जो चैतन्य है, उसके साथ अपने एकत्व का अनुभव कर रहे थे। इस प्रसंग के उपर चर्चा करते समय बाद में उन्होंने कहा था- " उस समय ऐसा प्रतीत हुआ, मानों कोई मेरी ही छाती को रौंदता हुआ चला गया हो।"
तीसरा दृष्टान्त: " माँझी के पीठ का निशान  "
दक्षिणेश्वर की एक एन घटना भी है। एकदिन किनारे बैठकर श्रीरामकृष्णदेव गंगा-दर्शन कररहे हैं। कल कल करती नदी बहती चली जा रही है। नदी के उपर कितनी ही नावें तैर रही हैं। हठात तट के किनारे खड़ी एक नौका में दो माझियों के बीच किसी बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया।
 धीरे धीरे उनका झगड़ा बढ़ने लग गया। उसके बाद एक समय अपने को नहीं संभाल सकने के कारण एक मांझी ने दूसरे के पीठ पर इतने जोर का थप्पड़ जड़ दिया, कि उसकी पांचो उँगलियों का दाग दूसरे मांझी के पीठ पर उखड़ गया।
इधर तट पर बैठे श्रीरामकृष्णदेव पीड़ा से चीख पड़े। उनकी चीख को सुनकर ह्रदय दौड़ कर उनके पास आये। ह्रदय श्रीरामकृष्ण के भगना थे, वे दक्षिणेश्वर में रहकर ही, श्रीरामकृष्ण की सेवा करते थे। नजदीक आकर देखे कि श्रीरामकृष्ण पीड़ा से रो पड़े हैं, और उनकी पीठ पर पांच उँगलियों के काले निशान उभर आये हैं।
हृदय बहुत क्रोध से भरकर, आँखें लाल करके पूछे, ' मामा, आपको किसने मारा है; एकबार जरा उसका नाम तो बताइये ? ' उनका भाव था कि अभी उसका बदला निकाल लेंगे।
किन्तु जब उन्होंने सुना कि उनके शरीर पर किसी ने चोट नहीं पहुंचाई है, बल्कि गंगा के उपर नौका में बैठे मांझी के पीठ पर लगा थप्पड़ उनके मन और शरीर को इतना आहत कर गया है। हृदय यह सुन कर स्तब्ध होकर खड़े रह गए। दूसरे के साथ एकात्मबोध का इतना बड़ा अकाट्य प्रमाण उनहोंने आजतक कभी देखा ही नहीं था !
इस विषय पर श्रीरामकृष्ण द्वारा कथित एक कहानी सुनाने के बाद हमलोग दूसरे प्रसंग पर आयेंगे।
किसने मारा है ? 
एक छोटा सा गाँव था। छोटी छोटी झोपड़ीयों में ग्रामवासी रहते थे। उनकी खेतों में यथेष्ट धान की उपज होती थी, आलू-सब्जी आदि खाने-पीने की लगभग सभी चीजें वहाँ पर्याप्त मात्र में हो जाती थीं। गाँव के तालाब के किनारे एक बड़ा सा आम का बगीचा था, इसके साथ साथ नारियल के पेड़, बैर और अमरुद आदि के पेड़ की भी कमी नहीं थी। ग्रामीण लोग थोड़े में ही सन्तुष्ट रहना सीख गए थे, इसीलिये इन सब की सहायता से ग्रामीणों का पारिवारिक जीवन खुशहाली से बीत रहा था। 
पंछियों के कलरव और सुबह-शाम के शीतल-मंद पवन के साथ आनन्द के लहर पर उनका जीवन स्वछन्द गति से बहती हुई किसी स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई छोटी सी नदी के समान नाचते-हँसते व्यतीत होता था। गाँव में ही एक मठ (गुरुद्वारा) भी था, जिसमें एक महन्त के आधीन साधुओं की मण्डली रहा करती थी। ग्रामवासी लोग बिल्कुल सहज और सरल स्वाभाव के होते हैं, वे लोग भगवान पर अविश्वास करना सीखे ही नहीं हैं।इसीलिए मौका मिलते ही मठ में आकर इन सरल आनंदमय साधुओं के संग का जी भर कर सत्संग का आनन्द उठाते थे। कई प्रकार की कहानियां, विभिन्न विषयों पर चर्चाएँ, कई तरह की विचारों का आदान-प्रदान होता रहता था।
अचानक एकदिन इस आनन्द के हाट में, विषाद पूर्ण वातावरण पसर जाता है। गाँव में एक अनहोनी घटित हो गयी है। यहाँ के मठ के एक साधू निकट के एक ग्राम में भिक्षा माँगने के लिए गए हुए थे। उस समय वहाँ के जमिन्दार साहब एक चोर को पकड़ कर, उसे पेड़ से बांध कर बेरहमी से पीट रहे थे। पिटाई हद से अधिक बढ़ती जा रही थी। चोर को असहनीय यंत्रणा से रोते-बिलबिलाते देखकर साधू जमिन्दार को रोकने गए।
किन्तु उसका फल उल्टा ही हो गया। इसपर जमीन्दार इतने क्रोधित हो गये, कि उन्होंने उस साधू पर ही कई बार प्रहार कर दिया। साधू दर्द न सह सके और वहीँ बेहोश होकर गिर पड़े। तब उनको वहाँ वैसे ही जमीन पर गिरा छोड़ कर जमिन्दार वहां से चल दिये।
जिस ग्राम में मठ था, उस गाँव के एक निवासी किसी अन्य कार्य से उसी रस्ते से होकर गुजर रहे थे। उनहोंने देख कि उनके मठ के एक साधू बेहोशी की हालत में गिरे हुए है। उनको कुछ पता नहीं था कि साधू महाराज के साथ क्या घटना घटी है। साधू महाराज की अवस्था को देखने के बाद भागते हुए मठ में खबर दिए, " आपके आश्रम के एक साधू अमुक गाँव के लालतलाब के निकट बरगद पेड़ के नीचे वाले रास्ते पर गिरे हुए है। उनको भी होश नहीं है। "
क्या हो गया था ? बेहोश कैसे हो गये ? वह व्यक्ति बोला, " सो तो मैं नहीं बता सकता। किन्तु देखकर लगता था, किसी ने उनको बहुत मारा है। उनकी पीठ, हाथ, और पूरे शरीर पर मैंने कई जगह चोट के निशान देखे हैं।"
व्याकुल होकर सभी भागते हुए वहाँ पहुंचे। साधू उठा कर मठ में ले आये। बहुत देर तक सेवा-सुश्रुषा करने के बाद साधू को होश आया। तब एक दूसरे साधू उनको थोड़ा गरम गरम दूध लाकर उनको पिलाने लगे।
दूध पिलाते पिलाते उनहोंने पूछा, " आपको किसने मारा है? " ऐसे एक निरीह स्वाभाव के एक सज्जन व्यक्ति  को किसी ने इतनी बेरहमी से मारा है, यह देख कर वहां के ग्रामवासी बहुत क्रोधित हो गये थे। एक बार जरा उस दुष्ट का नाम तो मालूम हो जाये ? फिर उसको उचित शिक्षा जरुर दी जाएगी। इसीलिए, चाहे जिस व्यक्ति ने भी ने उनको मारा हो, सभी साधू के मुख से उस व्यक्ति का नाम सुनने के लिए, बहुत उत्सुकता के साथ उनके मुख की ओर देखने लगे।
किन्तु साधू अविचलित और निर्विकार रहते हुए हँसते हँसते बोले, " जो मुझको अभी दूध पिला रहा है, उसी व्यक्ति ने मुझको मारा भी है।"
साधू को आत्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) हो गया था। इसीलिए वे अब सबों के भीतर अवस्थित उसी एक आत्मा को देखते थे। उनकी भेद-दृष्टि समाप्त हो चुकी थी।
इस प्रकार के जो आत्मज्ञ महापुरुष होते हैं, वे ही दूसरों की अज्ञानता को मिटा सकते हैं। उनके उपदेशों और संसर्ग से लोगों को चैतन्य हो जाता है।       
     













           

No comments: