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बुधवार, 28 अप्रैल 2021

$वीर भाव/परिच्छेद ~ 25,[( 9 मार्च 1883 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Do not reason too much **बान ^ * कैसे आता है? : भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण का बान देखना* *अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते क्यों खाते हैं* वीर भाव, सन्तान भाव (दिव्य भाव) का हेतु है ! *संसार किसलिए? निष्काम कर्म द्वारा चित्तशुद्धि के लिए*

[ परिच्छेद ~ २५, ( 9 मार्च 1883 )श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

*परिच्छेद~ २५* 

 [अमावस्या के दिन दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ, राखाल के प्रति श्रीठाकुर देव का  गोपाल भाव]  

*अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते क्यों खाते हैं*

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में राखाल, मास्टर आदि दो-चार भक्तों के साथ बैठे हैं । शुक्रवार, ९ मार्च १८८३ ई. । माघी अमावस्या, प्रातःकाल आठ-नौ बजे का समय होगा । अमावस्या का दिन है । श्रीरामकृष्ण को सतत जगन्माता (माँ काली) का उद्दीपन हो रहा है । 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে নিজের ঘরে রাখাল, মাস্টার প্রভৃতি দুই-একটি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। আজ শুক্রবার (২৬শে ফাল্গুন), ৯ই মার্চ, ১৮৮৩ খ্রীষ্টাব্দ, মাঘের অমাবস্যা, সকাল, বেলা ৮টা-৯টা হইবে।অমাবস্যার দিন, ঠাকুরের সর্বদাই জগন্মাতার উদ্দীপন হইতেছে। 

About nine o'clock in the morning the Master was seated in his room with Rakhal, M., and a few other devotees. It was the day of the new moon.^  As usual with him on such days, Sri Ramakrishna entered again and again into communion with the Divine Mother. He said to the devotees:

वे कह रहे हैं “ईश्वर ही वस्तु हैं, बाकी सब अवस्तु । माँ ने अपनी महामाया द्वारा मुग्ध कर रखा है । मनुष्यों में देखो, बद्ध जीव ही अधिक हैं । इतना दुःख-कष्ट पाते हैं, फिर भी उसी ‘कामिनी-कंचन’ में उनकी आसक्ति है। काँटेदार घास खाते ऊँट के मुँह से धर-धर खून बहता है, फिर भी वह उसे छोड़ता नहीं, खाते ही जाता है । प्रसववेदना के समय स्त्रियाँ कहती हैं, ‘ओह, अब और पति के पास नहीं जाऊँगी’, परन्तु फिर भूल जाती हैं । 

{ ঈশ্বরই বস্তু, আর সব অবস্তু। মা তাঁর মহামায়ায় মুগ্ধ করে রেখেছেন। মানুষের ভিতরে দেখ, বদ্ধজীবই বেশি। এত কষ্ট-দুঃখ পায়, তবু সেই ‘কামিনী-কাঞ্চনে’ আসক্তি। কাঁটা ঘাস খেয়ে উটের মুখে দরদর করে রক্ত পড়ে, তবু আবার কাঁটা ঘাস খায়। প্রসববেদনার সময় মেয়েরা বলে, ওগো, আর স্বামীর কাছে যাব না; আবার ভুলে যায়।

 "God alone exists, and all else is unreal. The Divine Mother has kept all deluded by Her maya. Look at men. Most of them are entangled in worldliness. They suffer so much, but still they have the same attachment to 'woman and gold'. The camel eats thorny shrubs, and blood gushes from its mouth; still it will eat thorns. While suffering pain at the time of delivery, a woman says, 'Ah' I shall never go to my husband again.' But afterwards she forgets.

“देखो, उनकी खोज कोई नहीं करता । अनन्नास को छोड़ लोग उसके कटीले पत्ते खाते हैं !”  

{“দেখ, তাঁকে কেউ খোঁজে না। আনারসগাছের ফল ছেড়ে লোকে তার পাতা খায়।”

"The truth is that no one seeks God. There are people who eat the prickly leaves of the pineapple and not the fruit."

*संसार किसलिए? निष्काम कर्म द्वारा चित्तशुद्धि के लिए* 

भक्त- महाराज, संसार में वे क्यों रख देते हैं? ("Sir, why has God put us in the world?")

श्रीरामकृष्ण- संसार कर्मक्षेत्र है । कर्म करते करते ही ज्ञान होता है । गुरु ने कहा, इन कर्मों को करो और इन कर्मों को न करो (5 यम और 5 नियम)  । फिर वे निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं ।* कर्म करते करते मन का मैल धूल जाता है । अच्छे डाक्टर (वैद्य ) की चिकित्सा में रहने पर दवा खाते खाते कैसा ही रोग क्यों न हो, ठीक हो जाता है ।

{ সংসার কর্মক্ষেত্র, কর্ম করতে করতে তবে জ্ঞান হয়। গুরু বলেছেন, এই সব কর্ম করো, আর এই সব কর্ম করো না। আবার তিনি নিষ্কামকর্মের উপদেশ দেন।১ কর্ম করতে করতে মনের ময়লা কেটে যায়। ভাল ডাক্তারের হাতে পড়লে ঔষধ খেতে খেতে যেমন রোগ সেরে যায়।

 "The world is the field of action. Through action one acquires knowledge. The guru instructs the disciple to perform certain works and refrain from others. Again, he advises the pupil to perform action without desiring the result. The impurity of the mind is destroyed through the performance of duty. It is like getting rid of a disease by means of medicine, under the instruction of a competent physician.

“संसार से वे क्यों नहीं छोड़ते? रोग अच्छा होगा तब छोड़ेंगे । कामिनी-कंचन का भोग करने की इच्छा जब न रहेगी, तब छोड़ेंगे । अस्पताल में नाम लिखाकर भाग आने का उपाय नहीं है । रोग की कसर रहते डाक्टर साहब न छोड़ेंगे ।” 

{“কেন তিনি সংসার থেকে ছাড়েন না? রোগ সারবে, তবে ছাড়বেন। কামিনী-কাঞ্চন ভোগ করতে ইচ্ছা যখন চলে যাবে, তখন ছাড়বেন। হাসপাতালে নাম লেখালে পালিয়ে আসবার জো নাই। রোগের কসুর থাকলে ডাক্তার সাহেব ছাড়বে না।”

"Why doesn't God free us from the world? Ah, He will free us when the disease is cured. He will liberate us from the world when we are through with the enjoyment of 'woman and gold'. Once a man registers his name in the hospital, he cannot run away. The doctor will not let him go away unless his illness is completely cured."} 

श्रीरामकृष्ण आजकल यशोदा की तरह सदा वात्सल्य-रस में मग्न रहते हैं, इसलिए उन्होंने राखाल को साथ रखा है । राखाल के प्रति श्रीरामकृष्ण का गोपाल-भाव है । जिस प्रकार माँ की गोद में छोटा लड़का जाकर बैठता है, उसी प्रकार राखाल भी श्रीरामकृष्ण की गोद के सहारे बैठते थे । मानो स्तनपान कर रहे हों ।

* भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण का ज्वार देखना* 

श्रीरामकृष्ण इसी भाव में बैठे हैं, इसी समय एक आदमी ने आकर समाचार दिया कि बान* (tide , बान ^ *) आ रहा है । श्रीरामकृष्ण, राखाल, मास्टर सभी लोग बान देखने के लिए पंचवटी की ओर दौड़ने लगे । पंचवटी के नीचे आकर सभी बान देख रहे हैं । दिन के करीब साढ़े दस बजे का समय होगा । एक नौका की स्थिति को देख श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, “देखो, देखो, उस नाव की न जाने क्या दशा होगी !”

{ “দেখ, দেখ, ওই নৌকাখানার অবস্থা বা কি হয়।” "Look! Look! I hope nothing happens to it."
Sri Ramakrishna exclaimed: "Look! Look! I hope nothing happens to it."] 

अब श्रीरामकृष्ण पंचवटी के पथ पर मास्टर, राखाल आदि के साथ बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)- अच्छा, बान ^ * कैसे आता है? मास्टर भूमि पर रेखाएँ खींचकर पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, माध्याकर्षण, ज्वार-भाटा, पूर्णिमा, अमावस्या, ग्रहण आदि समझाने की चेष्टा कर रहे हैं ।

[মাস্টার মাটিতে আঁক কাটিয়া পৃথিবী, চন্দ্র, সূর্য, মাধ্যাকর্ষণ, জোয়ার, ভাটা; পূর্ণিমা, অমাবস্যা, গ্রহণ ইত্যাদি বুঝাইতে চেষ্টা করিতেছেন।
They all sat in the Panchavati. The Master asked M. to explain the cause of the tide. M. drew on the ground the figures of the sun, moon, and earth and tried to explain gravitation, ebb-tide, flood-tide, new moon, full moon, eclipse, and so forth.] 

[ ^ * बान : - बंगाल के उपसागर में ज्वार (high tide) आने पर समुद्र का बहुत सा जल गंगा नदी में प्रविष्ट  हो जाता है और वह विशाल जलराशि बड़ी ऊँची लहर के रूप में जोरों से गर्जना करती हुई गंगा के पृष्ठभाग पर से उलटी दिशा में वेग के साथ बढ़ने लगती है । इसे ‘बान’ कहते हैं । ज्वार-भाटा चंद्रमा और सूर्य के पृथ्वी पर गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा खिंचाव के कारण उत्पन्न होता है। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी तीनों में एक सीध में होते होते हैं।  इन तिथियों में सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी के संयुक्त प्रभाव के कारण ज्वार की ऊँचाई सामान्य ज्वार से 20% अधिक होती है. इसे वृहद् ज्वार या उच्च ज्वार  (high tide) कहते हैं।  शुक्ल या कृष्ण पक्ष की सप्तमी या अष्टमी को सूर्य और चंद्रमा पृथ्वी के केंद्र पर समकोण बनाते हैं।  इस कारण सूर्य और चंद्रमा दोनों ही पृथ्वी के जल को भिन्न दिशाओं में आकर्षित करते हैं। फलतः इस समय उत्पन्न ज्वार औसत से 20% कम ऊँचे होते हैं. इसे लघु या निम्न ज्वार (NEAP TIDE)  कहते हैं। ]  

श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - यह लो ! समझ नहीं सक रहा हूँ । सिर घूम जाता है । चक्कर आ रहा है। अच्छा, इतनी दूर बातें कैसे जान सके ?

[ওই যা! বুঝতে পারছি না; মাথা ঘুরে আসছে! টনটন করছে! আচ্ছা, এত দূরের কথা কেমন করে জানলে?
 "Stop it! I can't follow you. It makes me dizzy. My head is aching. Well, how can they know of things so far off?]
“देखो, मैं बचपन में चित्र अच्छी तरह खींच सकता था । परन्तु गणित से सिर चकराता था । हिसाब नहीं सीख सका ।
[“দেখ, আমি ছেলেবেলায় চিত্র আঁকতে বেশ পারতুম, কিন্তু শুভঙ্করী আঁক ধাঁধা লাগত! গণনা অঙ্ক পারলাম না।”
"You see, during my childhood I could paint well; but arithmetic would make my head spin. I couldn't learn simple arithmetic."

अब श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में लौट आए हैं । दिवार पर टँगे हुए यशोदा के चित्र को देख कह रहे हैं, “चित्र अच्छा नहीं हुआ । मानो ठीक मालिन मौसी (garland-seller) है !” 
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* पूर्णिमा या अमावस्या के आठवें दिन (अष्टमी ) को बकरे की बलि।*

मध्याह्न के आहार के बाद श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा सा विश्राम किया । धीरे धीरे अधर तथा अन्य भक्तगण आ पहुँचे । अधर सेन पहली बार श्रीरामकृष्ण का दर्शन कर रहे हैं । अधर का मकान कलकत्ता, बेनेटोला में है । वे डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । उम्र उनतीस-तीस वर्ष की होगी ।

अधर (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, मुझे एक बात पूछनी है । क्या देवता के सामने बलि चढ़ाना अच्छा है? इससे तो जीव हिंसा होती है !
[অধর (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — মহাশয়, আমার একটি জিজ্ঞাস্য আছে; বলিদান করা কি ভাল? এতে তো জীবহিংসা করা হয়।
 
श्रीरामकृष्ण- शास्त्र के अनुसार, मन की एक विशेष अवस्था में बलि चढ़ायी जा सकती है । ‘विधिवादीय” बलि में दोष नहीं है । जैसे, अष्टमी ^ * के दिन एक बलि चढ़ाते हैं ।

[ বিশেষ বিশেষ অবস্থায় শাস্ত্রে আছে, বলি দেওয়া যেতে পারে। ‘বিধিবাদীয়’ বলিতে দোষ নাই। যেমন অষ্টমীতে একটি পাঁঠা।
"The sastra prescribes sacrifice on special occasions. Such sacrifice is not harmful. Take, for instance, the sacrifice of a goat on the eighth day of the full or new moon. 
अष्टमी ^ * हिन्दू पंचांग की आठवीं तिथि को अष्टमी कहते हैं। यह तिथि मास में दो बार आती है। पूर्णिमा के बाद और अमावस्या के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली अष्टमी को कृष्ण पक्ष की अष्टमी और अमावस्या के बाद आने वाली अष्टमी को शुक्ल पक्ष की अष्टमी कहते हैं। श्री राधाष्टमी : सनातन धर्म में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि श्री राधाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है।श्री कृष्ण जन्माष्टमी : यह हिंदू चंद्र कैलेंडर के अनुसार, कृष्ण पक्ष (अंधेरे पखवाड़े) के आठवें दिन (अष्टमी) को भाद्रपद में मनाया जाता है । 

 परन्तु यह विधि सभी अवस्था के लिए नहीं है । मेरी अब ऐसी अवस्था है कि मैं सामने रहकर बलि नहीं देख सकता हूँ । माँ को भोग में चढ़ाये गए मांस की प्रसादी भी नहीं खा सकता हूँ। इसलिए अंगुली से  प्रसाद को छूकर सिर से छुआ लेता हूँ , कहीं ऐसा न हो कि माँ नाराज हो जायें। 

( কিন্তু সকল অবস্থাতে হয় না। আমার এখন এমন অবস্থা, দাঁড়িয়ে বলি দেখতে পারি না। মার প্রসাদী মাংস, এ-অবস্থায় খেতে পারি না। তাই আঙুলে করে একটু ছুঁয়ে মাথায় ফোঁটা কাটি; পাছে মা রাগ করেন। 
"I am now in such a state of mind that I cannot watch a sacrifice. Also I cannot eat meat offered to the Divine Mother. Therefore I first touch my finger to it, then to my head, lest She should be angry with me.)

“फिर ऐसी भी अवस्था होती है कि सर्वभूतों में ईश्वर को देखता हूँ । चीटियों में भी वे ही दिखायी देते हैं । ऐसी स्थिति में एकाएक किसी प्राणी के मरने पर मन में यही सान्त्वना होती है कि उसकी देह मात्र का विनाश हुआ । आत्मा की मृत्यु नहीं है ।* न हन्यते हन्यमाने शरीरे । (गीता, २/२०)
[“আবার এমন অবস্থা হয় যে, দেখি সর্বভূতে ঈশ্বর, পিঁপড়েতেও তিনি। এ-অবস্থায় হঠাৎ কোন প্রাণী মরলে এই সান্ত্বনা হয় যে, তার দেহমাত্র বিনাশ হল। আত্মার জন্ম মৃত্যু নাই।”২
"Again, in a certain state of mind I see God in all beings, even in an ant. At that time, if I see a living being die, I find consolation in the thought that it is the death of the body, the soul being beyond life and death.] 

“अधिक विचार करना ठीक नहीं, माँ के चरणकमल में भक्ति रहने से ही हो जाएगा । अधिक विचार करने से गोलमाल हो जाता है । इस देश में तालाब का जल ऊपर ऊपर से पीओ, अच्छा साफ जल पाओगे; अधिक नीचे हाथ डालकर हिलाने से जल मैला हो जाता है । इसलिए उनसे भक्ति की प्रार्थना करो । ध्रुव की भक्ति सकाम थी, उसने राज्य पाने के लिए तपस्या की थी; परन्तु प्रह्लाद की निष्काम अहैतुकी भक्ति थी ।”
[“বেশি বিচার করা ভাল নয়, মার পাদপদ্মে ভক্তি থাকলেই হল। বেশি বিচার করতে গেলে সব গুলিয়ে যায়। এ-দেশে পুকুরের জল উপর উপর খাও, বেশ পরিষ্কার জল পাবে। বেশি নিচে হাত দিয়ে নাড়লে জল ঘুলিয়ে যায়। তাই তাঁর কাছে ভক্তি প্রার্থনা কর। ধ্রুবর ভক্তি সকাম। রাজ্যলাভের জন্য তপস্যা করেছিলেন। প্রহ্লাদের কিন্তু নিষ্কাম অহেতুকী ভক্তি।”
"One should not reason too much; it is enough if one loves the Lotus Feet of the Mother. Too much reasoning throws the mind into confusion. You get clear water if you drink from the surface of a pool. Put your hand deeper and stir the water, and it becomes muddy. Therefore pray to God for devotion.]
भक्त- ईश्वर कैसे प्राप्त होते हैं?
श्रीरामकृष्ण- उसी भक्ति के द्वारा । परन्तु उनसे जबरदस्ती करनी होती है । दर्शन नहीं देगा तो गले में छुरा भोंक लूँगा, - इसका नाम है भक्ति का तम ।
भक्त- क्या ईश्वर को देखा जाता है?
श्रीरामकृष्ण- हाँ, अवश्य देखा जाता है । निराकार-साकार दोनों ही देखे जाते हैं । चिन्मय साकार रूप का दर्शन होता है । फिर साकार मनुष्य रूप में भी वे प्रत्यक्ष हो सकते हैं । अवतार को देखना और ईश्वर को देखना एक ही है । ईश्वर ही युग युग में मनुष्य के रूप में अवतीर्ण होते हैं # 

[ শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, অবশ্য দেখা যায়। নিরাকার, সাকার — দুই দেখা যায়। সাকার চিন্ময়রূপ দর্শন হয়। আবার সাকার মানুষ তাতেও তিনি প্রতক্ষ্য। অবতারকে দেখাও যা ঈশ্বরকে দেখাও তা। ঈশ্বরই যুগে যুগে মানুষরূপে অবতীর্ণ হন!৩
MASTER: "Yes, surely. One can see both aspects of God — God with form and without form. One can see God with form, the Embodiment of Spirit. Again, God can be directly perceived in a man with a tangible form. Seeing an Incarnation of God is the same as seeing God Himself. God is born on earth as man in every age."]
(#धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे (गीता, ४/८) यह तो स्पष्ट है कि बिना किसी इच्छा अथवा प्रयोजन के ईश्वर अपने को व्यक्त नहीं करता। इच्छाओं के आत्यन्तिक अभाव का अर्थ है कर्मों का पूर्ण अभाव।  सब इच्छाओं में सर्वोत्तम दैवी इच्छा है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करने की इच्छा किन्तु वह 'Be and Make ' भी एक इच्छा ही है। कर्तव्य पालन करने वाले साधु पुरुषों के रक्षण का कार्य करते हुये अपनी माया का आश्रय लेकर एक और कार्य अवतारी पुरुष को करना होता है वह है दुष्टों का संहार।  दुष्टों के संहार से तात्पर्य शब्दश दुष्ट व्यक्तियों के शारीरिक संहार से ही समझना आवश्यक नहीं है उसमें दुष्ट प्रवृत्तियों का नाश अभिप्रेत है। ]

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वीर भाव, सन्तान भाव (दिव्य भाव) का हेतु है ! 

      ‘आत्मसाधना‘ में पूर्व की कक्षा को छोड़कर आगे की कक्षा में छलांग नहीं लगाई जाती है। अर्थात् क्रमवार (step wise) आगे बढ़ा जाता है अन्यथा साधक पतनोन्मुखी हो जाता है तथा स्वयं व अन्यों हेतु घातक सिद्ध होता है। 

 ‘आसन‘ लाभ नहीं दे रहे हैं अर्थात् यम नियम की अनदेखी की गई है। ‘ध्यान’ नहीं लगता अर्थात् यम, नियम, आसन, और प्रत्याहार-धारणा  में साधक परिपक्व नहीं हुआ है। अधिकार निर्णय में शैथिल्य के कारण तांत्रिक साधनाओं को कालांतर में आपाततः निन्दित होना पड़ता है। 

  दिव्य भाव (सन्तान भाव ) का साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है। दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव दिव्य भाव  [ठाकुर का सन्तान भाव] का हेतु है, जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है…

अपने को जो व्यक्ति जैसा समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। मन में बार-बार आने वाली बात विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, उसके लक्षण भी वैसे ही प्रकट होते हैं। जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि  होती है। जो भी भावना हमारे मन में आती है, उसको यदि हमारे अंतर्मन की अवचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिए भावना का महत्व बहुत अधिक होता है। 

     भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव व परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छूकर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों के लिए भावना मात्र एहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में होता है। भाव के बिना यंत्र-तंत्र निष्फल हैं।

      वास्तव में तंत्रशास्त्र भावना के अभ्यास का मार्ग है। न्यास, भूतशुद्धि, अंतर्याग, कुंडलिनी योग, मंत्रजप आदि भावना का ही तो अभ्यास है। दान, गुरु पूजा, देव पूजा, नाम संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय, सबका लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है। तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोग-प्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता, अपितु भोग के अंदर से ही मन को स्वाभाविक गति से मुख मोड़ देता है। 

    यंत्रराज की साधना हो या पंचदशी की उपासना अथवा कुंडलिनी साधना, भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिए ‘पद्धति’ में सर्वत्र ‘भावयेत’ शब्द आता है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती है। ‘भगवति भावना गम्या’ ***, ललितासहस्रनाम का यह वचन है।साधना (योगमार्ग) पर चिंतन के समय भावना पर सोच-विचार करना परम आवश्यक है। वास्तव में भावना के बिना साधना संभव ही नहीं है।

       कामाख्या तंत्र, कुब्जिका तंत्र तथा रुद्रयामल इत्यादि तन्त्र -ग्रंथों में तीन प्रकार के भाव बताए गए हैं। प्रथम भाव है सन्तान भाव या दिव्य भाव। इस भाव में स्थित साधक विश्व और अपने इष्ट देवता " [अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव-माँ काली]  में भेद नहीं देखता। सन्तान भाव (दिव्य भाव) में स्थित साधक स्त्री जाति मात्र को महाशक्ति की मूर्ति समझता है। वह अपने को देवतात्मक समझता है। वेद, शास्त्र, गुरु, देवता और मंत्र में उसका दृढ़ ज्ञान है तथा शत्रु व मित्र में वह समान भाव वाला है

        दूसरा भाव है वीर भाव। इस भाव में परिपूर्णता प्राप्त होने पर ही साधक सन्तान भाव या दिव्य भाव में पहुंचते हैं। इसलिए वीर भाव (प्रवृत्ति धर्म) सन्तान भाव (दिव्य भाव या निवृत्ति धर्म) का हेतु है। जो सब प्रकार के हिंसा कार्यों से रहित है, सर्वदा सब जीवों के हित में रत रहता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद पर विजय प्राप्त कर ली है, जो जितेंद्रीय है, वह वीर साधक है। 

    तीसरा भाव पशु भाव (दासीभाव) है। इस भाव के साधक को अहिंसा-परायण तथा निरामिष भोजी होना होगा। ऋतुकाल के अलावा वह स्त्री का स्पर्श नहीं करता। 

 लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्या मूल्य है? कन्या-भोजन आदि से क्या होने वाला है? जितेंद्रीय भाव और कुलाचार कर्म का महत्व ही क्या है? यदि कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है, तो भाव से ही उसे मुक्ति मिलती है

[साभार https://www.divyahimachal.com/2017/08/] 

‘भगवति भावना गम्या’ ***,-----------------------------------------वैराग्य पूर्वक गृहत्याग नहीं करने पर कहीं भी  शांति नहीं मिलती। यदि राग है तो बंधन में पडोगे और यदि राग न हो तो उसके लिए घर ही तपोवन है। 

     राग के निर्मूलन के लिए गृहस्थ को आज्ञा दी - घर बसाओ, उसमें प्रचुर सामग्री रखो। क्यों? राग रहित होने के लिए। फिर भी मन अशांत रहता है। इसमें आप का दोष नहीं है क्योंकि यह माया है। जीवन का संचालन महामाया करती है।

        वह महामाया कल्याणी है, काम पोषणी है और सारे संसार को राग से विमुक्त करने वाली भी वही है। "सैषा प्रसन्नावरदां ऋणां विमुक्तये" ।अतः उस माया के द्वारा भुक्ति और मुक्ति दोनों प्राप्त करो। इसके लिए भगवती की आराधना करो। "आत्मेच्छा व्यवसीयतामं।" आत्मा की ईच्छा करो।

" निराहारौ यथा हारौ तन्मनस्को समाहितो। " आहार क्या है? केवल भोजन ही नहीं वरन् जो अंदर जाता है वह सब आहार है - मुख से, आँख से, कान से, त्वचा से आदि। इन सबको हम कामना से खाते हैं। अतः निराहार का अर्थ है - सर्वथा काम त्याग और सिमित काम का ग्रहण। निजगात्र - अर्थात् शरीर में निजत्व। इसे छोडो। अपने मन से शरीर से शरीर का सम्बंध छोडना बडा कठिन है।

आगमों में कहा - "भावनैकं बलिप्रियाम्", "भवानी भावना गम्या।" भगवती को भावना की बलि प्रिय है, वह भावना से ही प्राप्त होती है। मैं शरीर हूँ, यह एक दृढ भावना है उसकी बलि देनी होगी और मैं चैतन्य मात्र हूँ इस आत्मभावना को स्थिर करना है।

     इस संसार में तुम्हारा क्या है? तुम्हारी तो चेतना है, चेतना। उसे पकडो, घर को छोडो। घर विश्राम वृक्ष जैसा है। जैसे पक्षी का घर - आसमान। वह उसी में उत्पन्न होता है, धूमता है और वायु से ही विलीन हो जाता है। हाँ, टिकने के लिए एक वृक्ष ले लो। "विश्राम वृक्षसदृशः खलु जीवलोकः"। जीव लोक अर्थात यह शरीर विश्राम वृक्ष सदृश है। ऐसा समझ कर कहीं भी टिक जाओ

{साभार पूज्य श्रीश्री ईश्वरानन्द गिरि जी महाराज https://es-la.facebook.com/samvitsamvad/posts/981400442070838/ } 

{ New Moon : the time at which the Moon appears as a narrow waxing crescent अमावस्या , दूज का चाँद , नया चाँद (चन्द्रमा का नया चरण) । इस दिन चन्द्रमा एक छोटे से वर्धमान नवचन्द्र (waxing crescent) के रूप में दीखता है। अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30 वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता।] 

धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी। इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।

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मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

$$$$$$परिच्छेद~24, [(25 फरवरी 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत] *Nityasiddha and Kripasiddha *अनन्त-चतुर्दशी का व्रत *जो गुरु (नेता CINC नवनीदा) हैं वे ही इष्ट-अवतारवरिष्ठ श्रीठाकुर देव हैं * *भीष्म का क्रंदन और भक्तों की सांसारिक अवस्था * गंगा जल पान करके या स्पर्श करके मरना (या सरजू नदी में श्रीराम का जलसमाधि लेना ) हिन्दुओं के लिए महान आध्यात्मिक सामर्थ्य और पवित्र जीवन का परिणाम माना जाता है*संन्यासी तथा कामिनी*सर्वधर्मसमन्वय*रागभक्ति-अहैतुकी भक्ति* सच्चिदानन्द ही गुरु है *गीत का मर्म :-‘मैं मुक्ति देने में कातर नहीं होता, किन्तु शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ ।’ “मूल बात है ईश्वर में रागानुराग भक्ति और विवेक-वैराग्य चाहिए ।”चौधरी- महाराज, गुरु के न होने से क्या नहीं होता?श्रीरामकृष्ण- सच्चिदानन्द ही गुरु है।

 [(25 फरवरी 1883) परिच्छेद~२४,श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

परिच्छेद २४ 

* नित्य सिद्ध और कृपा सिद्ध * 

श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में दोपहर को भोजन करके भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । आज २५ फरवरी १८८३ ई. है।

राखाल, हरीश, लाटू, हाजरा आजकल श्रीरामकृष्ण के पास ही रहते हैं । कलकत्ते से राम, केदार, नित्यगोपाल, मास्टर आदि भक्त आये हैं और चौधरी भी आये हैं ।

अभी अभी चौधरी की पत्नी का स्वर्गवास हो गया है । मन में शान्ति पाने के उद्देश्य से कुछ एक बार वे श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए आ चुके हैं । उन्हें उच्च शिक्षा मिली है, सरकारी पद पर नौकरी करते हैं ।

श्रीरामकृष्ण (राम आदि भक्तों से)-राखाल, नरेन्द्र, भवनाथ, ये सब नित्यसिद्ध हैं, जन्म ही से इन्हें चैतन्य प्राप्त है । ये लोकशिक्षा के लिए ही शरीर धारण करते हैं ।

 {রাখাল, নরেন্দ্র, ভবনাথ এরা নিত্য সিদ্ধ — জন্ম থেকেই চৈতন্য আছে। লোকশিক্ষার জন্যই শরীরধারণ।

"Devotees like Rakhal, Narendra, and Bhavanath may be called nityasiddha. Their spiritual consciousness has been awake since their very birth. They assume human bodies only to impart spiritual illumination to others.

“एक श्रेणी के लोग और होते हैं । वे कृपासिद्ध कहलाते हैं । एकाएक उनकी कृपा हुई कि दर्शन हुए और ज्ञानलाभ हुआ । जैसे हजार वर्षों के अँधेरे कमरे में चिराग ले जाओ तो क्षण भर में उजाला हो जाता है-धीरे धीरे नहीं होता ।

{“আর-একথাক আছে কৃপাসিদ্ধ। হঠাৎ তাঁর কৃপা হল — অমনি দর্শন আর জ্ঞানলাভ। যেমন হাজার বছরের অন্ধকার ঘর — আলো নিয়ে গেলে একক্ষণে আলো হয়ে যায়! — একটু একটু করে হয় না

"There is another class of devotees, known as kripasiddha, that is to say, those on whom the grace of God descends all of a sudden and who at once attain His vision and Knowledge. Such people may be likened to a room that has been dark a thousand years, which, when a lamp is brought into it, becomes light immediately, not little by little.

*निर्जन में साधना* 

“जो लोग संसार में हैं, उन्हें साधना करनी चाहिए । निर्जन में व्याकुल होकर ईश्वर को बुलाना चाहिए ।

(चौधरी से)-“पाण्डित्य से वे नहीं मिलते ।

“और उन्हें विचार करके समझनेवाला है कौन? उनके पादपद्मों में जिस से भक्ति हो, सब को वही करना चाहिए ।

“उनका ऐश्वर्य अनन्त है- समझ में क्या आये? और उनके कार्यों को भी कोई क्या समझे?

{“যাঁরা সংসারে আছে তাদের সাধন করতে হয়। নির্জনে গিয়ে ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকতে হয়।“পাণ্ডিত্য দ্বারা তাঁকে পাওয়া যায় না।“আর তাঁর বিষয় কে বিচার করে বুঝবে? তাঁর পাদপদ্মে ভক্তি যাতে হয়, তাই সকলের করা উচিত।”“তাঁর অনন্ত ঐশ্বর্য — কি বুঝবে? তাঁর কার্যই বা কি বুঝতে পারবে?

"Those who lead a householder's life should practise spiritual discipline; they should pray eagerly to God in solitude. (To Mr. Choudhury) God cannot be realized through scholarship. Who, indeed, can understand the things of the Spirit through reason? No, all should strive for devotion to the Lotus Feet of God."Infinite are the glories of God! How little can you fathom them! Can you ever find out the meaning of God's ways?

*भीष्म का  क्रंदन और भक्तों की सांसारिक अवस्था * 

“भीष्मदेव जो साक्षात् अष्टवसुओं में एक हैं, शरशय्या पर रोने लगे; कहा, ‘क्या आश्चर्य ! पाण्डवों के साथ सदा स्वयं भगवान् रहते हैं, फिर भी उनके दुःख और विपत्तियों का अन्त नहीं ! – भगवान् के कार्यों को कोई क्या समझे !’

“कोई कोई सोचते हैं कि हम भजन-पूजन करते हैं-हम जीत गये । परन्तु हारजीत उनके हाथों में है । यहाँ एक वेश्या मरने के समय ज्ञानपूर्वक गंगा-स्पर्श ^ करके मरी ! 

{^ पूर्ण चेतना को बनाए रखते हुए गंगा जल  पान करके या स्पर्श करके (या सरजू नदी में श्रीराम का जलसमाधि लेना  मरना हिन्दुओं के लिए  महान आध्यात्मिक सामर्थ्य और पवित्र जीवन का परिणाम माना जाता है।} 

ভীষ্মদেব যিনি সাক্ষাৎ অষ্টবসুর একজন বসু — তিনিই শরশয্যায় শুয়ে কাঁদতে লাগলেন। বললেন — কি আশ্চর্য! পাণ্ডবদের সঙ্গে স্বয়ং ভগবান সর্বদাই আছেন, তবু তাদের দুঃখ-বিপদের শেষ নাই! ভগবানের কার্য কে বুঝবে!

“কেউ মনে করে আমি একটু সাধন-ভজন করেছি, আমি জিতেছি। কিন্তু হার-জিত তাঁর হাতে। এখানে একজন মাগী (বেশ্যা) মরবার সময় সজ্ঞানে গঙ্গালাভ করলে।”

"A man thinks, 'I have practised a little prayer and austerity; so I have gained a victory over others.' But victory and defeat lie with God. I have seen a prostitute dying in the Ganges and retaining consciousness ^  to the end." (Dying in the Ganges while retaining full consciousness is considered by the Hindus an act of great spiritual merit and the result of pious living.}

चौधरी- किस तरह उनके दर्शन हों ?

श्रीरामकृष्ण- इन आँखों से वे नहीं दीख पड़ते । वे दिव्यदृष्टि देते हैं, तब उनके दर्शन होते हैं ! अर्जुन को विश्वरूप-दर्शन के समय श्रीभगवान् ने दिव्यदृष्टि दी थी (भगवद गीता के 11 वें अध्याय को देखें)  

{ "Not with these eyes. God gives one divine eyes (एकाग्र मन को ही आत्मा का दिव्य चक्षु कहा गया है) ; and only then can one behold Him. God gave Arjuna divine eves so that he might see His Universal Form. (An allusion to the eleventh chapter of the Bhagavad Gita).

“तुम्हारी फिलासफी (Philosophy) में सिर्फ हिसाब-किताब होता है-सिर्फ विचार करते हैं । इससे वे नहीं मिलते ।  

*रागभक्ति-अहैतुकी भक्ति* 

“यदि रागभक्ति-अनुराग के साथ भक्ति-हो तो वे स्थिर नहीं रह सकते ।” 

“भक्ति उनको उतनी ही प्रिय है जितनी बैल को सानी ।”

“रागभक्ति-शुद्ध भक्ति-अहैतुकी भक्ति । जैसे प्रह्लाद की ।”

“तुम किसी बड़े आदमी से कुछ चाहते नहीं हो, परन्तु रोज आते हो, उन्हें देखना ही चाहते हो । पूछने पर कहते हो- ‘जी, कोई काम नहीं है, बस दर्शन के लिए आ गया ।’ इसे अहैतुकी भक्ति कहते हैं । तुम ईश्वर से कुछ चाहते नहीं, सिर्फ प्यार करते हो ।”

{“যদি রাগভক্তি হয় — অনুরাগের সহিত ভক্তি — তাহলে তিনি স্থির থাকতে পারেন না।“ভক্তি তাঁর কিরূপ প্রিয় — খোল দিয়ে জাব যেমন গরুর প্রিয় — গবগব করে খায়।“রাগভক্তি — শুদ্ধাভক্তি — অহেতুকী ভক্তি। যেমন প্রহ্লাদের।“তুমি বড়লোকের কাছে কিছু চাও না — কিন্তু রোজ আস — তাকে দেখতে ভালবাস। জিজ্ঞাসা করলে বল,  ‘আজ্ঞা, দরকার কিছু নাই — আপনাকে দেখতে এসেছি।’ এর নাম অহেতুকী ভক্তি। তুমি ঈশ্বরের কাছে কিছু চাও না — কেবল ভালবাস।”

"God cannot remain unmoved if you have raga-bhakti, that is, love of God with passionate attachment to Him. Do you know how fond God is of His devotees' love? It is like the cow's fondness for fodder mixed with oil-cake. The cow gobbles it down greedily."Raga-bhakti is pure love of God, a love that seeks God alone and not any worldly end. Prahlada had it. Suppose you go to a wealthy man every day, but you seek no favour of him; you simply love to see him. If he wants to show you favour, you say: 'No, sir. I don't need anything. I came just to see you.' Such is love of God for its own sake. You simply love God and don't want anything from Him in return."

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे : 

आमि मुक्ति दिते कातोर नेई, 

शुद्धा भक्ति दिते कातोर होई।  

आमार भक्ति जेबा पाय , तारे केबा पाय ,

 शे जे सेवा पाय , होये त्रिकालजयी।।  

शुन चन्द्रावली भक्तीर कथा कोई।

भक्तीर कारणे पाताल भवने,

बलिर द्वारे आमि द्वारपाल होये रोही ।।

शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी।

शुद्धा भक्ती एक आछे वृन्दावने,

गोप- गोपी वीने अन्ये नाही जाने।

भक्तीर कारणे नन्देर भवने,

पिता ज्ञाने नन्देर बाधा माथाय बोई।

 আমি মুক্তি দিতে কাতর নই

শুদ্ধাভক্তি দিতে কাতর হই।

আমার ভক্তি যেবা পায়, তারে কেবা পায়,

সে যে সেবা পায়, হয়ে ত্রিলোকজয়ী ৷৷

শুন চন্দ্রাবলী ভক্তির কথা কই।

ভক্তির কারণে পাতাল ভবনে,

বলির দ্বারে আমি দ্বারী হয়ে রই ৷৷

শুদ্ধাভক্তি এক আছে বৃন্দাবনে,

গোপ-গোপী বিনে অন্যে নাহি জানে।

ভক্তির কারণে নন্দের ভবনে,

পিতাজ্ঞানে নন্দের বাধা মাথায় বই ৷৷

गीत का मर्म यह है:-

‘मैं मुक्ति देने में कातर नहीं होता, किन्तु शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ ।’ 

“मूल बात है ईश्वर में रागानुराग भक्ति और विवेक-वैराग्य चाहिए ।”

{“মূলকথা ঈশ্বরে রাগানুগা ভক্তি। আর বিবেক বৈরাগ্য।”

He continued, "The gist of  the whole thing is that one must develop passionate yearning for God and practise (मनःसंयोग) discrimination and renunciation."

*जो गुरु (नेता CINC नवनीदा) हैं वे ही इष्ट-अवतारवरिष्ठ श्रीठाकुर देव हैं * 

चौधरी- महाराज, गुरु (नेता ) के न होने से क्या ईश्वर-दर्शन नहीं होता?

{MR. CHOUDHURY: "Sir, is it not possible to have the vision of God without the help of a guru?"}

श्रीरामकृष्ण- सच्चिदानन्द ही गुरु है । 

शवसाधना (हृदय श्मशान में अहं का शवदाह करते समय करते समय जब इष्टदर्शन का मौका आता है, तब गुरु सामने आकर कहते हैं, ‘यह देख अपना इष्ट ।’ फिर गुरु इष्ट में लीन हो जाते हैं । जो गुरु हैं वे ही इष्ट हैं । गुरु मार्ग पर लगा देते हैं ।

{সচ্চিদানন্দই গুরু।“শবসাধন করে ইষ্টদর্শনের সময় গুরু সামনে এসে পড়েন — আর বলেন, ‘ওই দেখ্‌ তোর ইষ্ট।’ — তারপর গুরু ইষ্টে লীন হয়ে যান। যিনি গুরু তিনিই ইষ্ট। গুরু খেই ধরে দেন।

MASTER: "Satchidananda Himself is the Guru. At the end of the sava-sadhana (अहंकाररूपी शव का दाहसंस्कार करते ही) , just when the vision of the Ishta is about to take place, the guru appears before the aspirant and says to him, 'Behold! There is your Ishta.' Saying this, the guru merges in the Ishta. He who is the guru is also the Ishta (माँ काली) . The guru is the thread that leads to God. 

“अनन्त-चतुर्दशी का तो व्रत है, पर पूजा विष्णु की की जाती है । उसी में ईश्वर का अनन्त रूप विराजमान है ।”


अनन्त चतुर्दशी व्रतकथा 

“অনন্তব্রত করে। কিন্তু পূজা করে — বিষ্ণুকে। তাঁরই মধ্যে ঈশ্বরের অনন্তরূপ!”

[Women perform a ritualistic worship known as the 'Ananta-vrata', the object of worship being the Infinite. But actually the Deity worshipped is Vishnu. In Him are the 'infinite' forms of God.] 

*सर्वधर्मसमन्वय ~बहिः शैव , हृदये काली , मुखे हरिबोल ! *

 [“বহিঃ শৈব, হৃদে কালী, মুখে হরিবোল।*] 

(रामादी भक्तों से) यदि कहो किस मूर्ति का चिन्तन करेंगे, तो जो मूर्ति अच्छी लगे, उसी का ध्यान करना। परन्तु समझना कि सभी एक हैं ।

[(রামাদি ভক্তদের প্রতি) — “যদি বল কোন্‌ মূর্তির চিন্তা করব; যে-মূর্তি ভাল লাগে তারই ধ্যান করবে। কিন্তু জানবে যে, সবই এক।

(To Ram and the other devotees) "If you asked me which form of God you should meditate upon, I should say: Fix your attention on that form which appeals to you most; but know for certain that all forms are the forms of one God alone.

“किसी से द्वेष न करना चाहिए । शिव, काली, हरि-(अल्लाह?) सब एक ही के भिन्न भिन्न रूप हैं । वह धन्य है जिसको उनके एक होने का ज्ञान हो गया है ।”

(“কারু উপর বিদ্বেষ করতে নাই। শিব, কালী, হরি — সবই একেরই ভিন্ন ভিন্ন রূপ। যে এক করেছে সেই ধন্য।

"Never harbour malice toward anyone. Siva, Kali, and Hari are but different forms of that One. He is blessed indeed who has known all as one.)

“बाहर शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम ।”

{“বহিঃ শৈব, হৃদে কালী, মুখে হরিবোল।

Outwardly he appears as Siva's (S.V.) devotee, But in his heart he worships Kali (Ma Sarda), the Blissful Mother, And with his tongue he chants aloud Lord Hari's name (Sri Thakur).

“कुछ कुछ काम-क्रोधादि के न रहने से शरीर नहीं रहता । परन्तु तुम लोग घटाने ही की चेष्टा करना ।”

(“একটু কাম-ক্রোধাদি না থাকলে শরীর থাকে না। তাই তোমরা কেবল কমাবার চেষ্টা করবে।”

"The body does not endure without a trace of lust, anger, and the like. You should try to reduce them to a minimum.")

श्रीरामकृष्ण केदार को देखकर कह रहे हैं- “ये अच्छे हैं । नित्य भी मानते हैं, लीला भी मानते हैं । एक ओर ब्रह्म और दूसरी ओर देवलीला से लेकर मनुष्यलीला तक !”

{“ইনি বেশ। নিত্যও মানেন, লীলাও মানেন। একদিকে ব্রহ্ম, আবার দেবলীলা-মানুষলীলা পর্যন্ত।”

Looking at Kedar, the Master said: "He is very nice. He accepts both the Absolute and the Relative. He believes in Brahman, but he also accepts the gods and Divine Incarnations in human form."

केदार कहते हैं कि श्रीरामकृष्ण के रूप में भगवान् मनुष्यदेह धारण कर अवतीर्ण हुए हैं । 

(কেদার বলেন যে, ঠাকুর মানুষদেহ লইয়া অবতীর্ণ হইয়াছেন।

In Kedar's opinion Sri Ramakrishna was such an Incarnation.)

*संन्यासी जगद्गुरु /जीवनमुक्त लोकशिक्षक /नेता ~  कामिनी से सावधान !

नित्यगोपाल को देखकर श्रीरामकृष्ण बोले-“इसकी अच्छी अवस्था है । (नित्यगोपाल से) तू 'वहाँ' ज्यादा न जाना । कहीं एक-आध बार चले गए । भक्त है तो क्या हुआ-स्त्री है न? इसीलिए सावधान रहना ।”

{“তুই সেখানে বেশি যাসনি। — কখনও একবার গেলি। ভক্ত হলেই বা — মেয়েমানুষ কিনা। তাই সাবধান।

"Don't go there too often. You may go once in a while. She may be a devotee, but she is a woman too. Therefore I warn you.

“संन्यासी के नियम बड़े कठिन हैं । उसके लिए स्त्रियों के चित्र देखने की भी मनाही है । यह संसारियों के लिए नहीं है ।”

“स्त्री यदि भक्त भी हो तो भी उससे ज्यादा न मिलना चाहिए ।”

“जितेन्द्रिय होने पर भी संन्यासी को लोकशिक्षा के लिए यह सब करना पड़ता है ।”

“साधुपुरुष का सोलहों आना त्याग देखने पर दूसरे लोग त्याग की शिक्षा लेंगे, नहीं तो वे भी डूब जायेंगे । संन्यासी जगद्गुरु हैं ।”

[“সন্ন্যাসীর বড় কঠিন নিয়ম। স্ত্রীলোকের চিত্রপট পর্যন্ত দেখবে না। এটি সংসারী লোকেদের পক্ষে নয়। স্ত্রীলোক যদি খুব ভক্তও হয় — তবুও মেশামেশি করা উচিত নয়। জিতেন্দ্রিয় হলেও — লোকশিক্ষার জন্য ত্যাগীর এ-সব করতে হয়।“সাধুর ষোল আনা ত্যাগ দেখলে অন্য লোকে ত্যাগ করতে শিখবে। তা না হলে তারাও পড়ে যাবে। সন্ন্যাসী জগদ্‌গুরু।”

"The sannyasi must observe very strict discipline. He must not look even at the picture of a woman. But this rule doesn't apply to householders. An aspirant should not associate with a woman, even though she is very much devoted to God. A sannyasi, even though he may have subdued his passions, should follow this discipline to set an example to householders.

अब श्रीरामकृष्ण और भक्तगण उठकर घूमने लगे । मास्टर प्रह्लाद के चित्र के सामने खड़े होकर देख रहे हैं-श्रीरामकृष्ण ने कहा है कि प्रह्लाद की भक्ति अहैतुकी भक्ति है।  

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$$$$$$$परिच्छेद~ 23, [(18 फरवरी 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Bow before God* *नेता /गुरु को भक्ति पूर्वक साष्टांग प्रणाम क्यों करना चाहिए* *जागो जागो जननी कुलकुण्डलिनि*, 'tiger God' से आलिंगन नहीं* गृहस्थों (संसारियों) ले लिए ‘दासोऽहं' *अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं~ # यदि मनुष्य 'जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा' समझकर करे ~ 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करे ' तो शनैशनै उसकी कामिनी -कांचन में आसक्ति या भोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है* बेलघड़िया में / “ईश्वर को प्रणाम करो ।” फिर कह रहे हैं, “वे ही सब रूपों में हैं । परन्तु किसी किसी स्थान पर उनका विशेष प्रकाश है- जैसे साधुओं में ।* यदि कहो, दुष्ट लोग भी हैं, बाघ-सिंह भी तो हैं, तो वह ठीक है, परन्तु बाघरुपी नारायण ('tiger God'-अमलानन्द 1987 सेक्रेटरी ) से आलिंगन करने की आवश्यकता नहीं है,* उसे दूर से प्रणाम करके चले जाना चाहिए । “फिर देखो मैदान के तालाब का जल धूप से स्वयं ही सूख जाता है । इसी प्रकार उनके नाम-गुणकीर्तन से पापरूपी तालाब का जल स्वयं ही सूख जाता है ।

 [ परिच्छेद~ २३, (18 फरवरी 1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

[*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

*परिच्छेद~ २३* 

[बेलघड़िया में गोविन्द मुखोपाध्याय के मकान पर ]

 *नेता /गुरु को भक्ति पूर्वक साष्टांग प्रणाम करना चाहिए* 

श्रीरामकृष्ण ने बेलघड़िया (Belgharia*, near Calcutta) के श्री गोविन्द मुखोपाध्याय के मकान पर शुभागमन किया है । रविवार, 18 फरवरी 1883 ई. । नरेन्द्र, राम आदि भक्तगण आये हैं, पड़ोसीगण भी आये हैं । सबेरे सात-आठ बजे के समय श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र आदि के साथ संकीर्तन में नृत्य किया था ।
कीर्तन के बाद सभी बैठ गये । कई लोग श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीच बीच में कह रहे हैं, “ईश्वर को प्रणाम करो ।” फिर कह रहे हैं, “वे ही सब रूपों में हैं । परन्तु किसी किसी स्थान पर उनका विशेष प्रकाश है- जैसे साधुओं में । यदि कहो, दुष्ट लोग भी हैं, बाघ-सिंह भी तो हैं, तो वह ठीक है, परन्तु बाघरुपी नारायण ('tiger God') से आलिंगन करने की आवश्यकता नहीं है, उसे दूर से प्रणाम करके चले जाना चाहिए । फिर देखो जल । कोई जल पिया जाता है, किसी जल से पूजा की जाती है, किसी जल से स्नान किया जाता है और फिर किसी जल से केवल हाथमुँह धोया जाता है ।”
{“তিনিই সব হয়ে রয়েছেন, তবে এক-এক জায়গায় বেশি প্রকাশ, যেমন সাধুতে। যদি বল, দুষ্ট লোক তো আছে, বাঘ সিংহও আছে; তা বাঘনারায়ণকে (अमलानन्द को? )আলিঙ্গন করার দরকার নাই, দূর থেকে প্রণাম করে চলে যেতে হয়। আবার দেখ জল, কোন জল খাওয়া যায়, কোন জলে পূজা করা যায়, কোন জলে নাওয়া যায়। আবার কোন জলে কেবল আচান-শোচান হয়।”
"Bow before God. " It is God alone", he said, "who has become all this. But in certain places — for instance, in a holy man — there is a greater manifestation than in others. You may say, there are wicked men also. That is true, even as there are tigers and lions; but one need not hug the 'tiger God'. One should keep away from him and salute him from a distance. Take water, for instance. Some water may be drunk, some may he used for worship, some for bathing, and some only for washing dishes."
पड़ोसी- वेदान्त का क्या मत है? {"Revered sir, what are the doctrines (महावाक्य) of Vedanta?"

श्रीरामकृष्ण- वेदान्तवादी कहते हैं, ‘सोऽहं’ -'I am He.' । *ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या है* । ‘मैं’ भी मिथ्या है, केवल वह परब्रह्म ही सत्य है ।
“परन्तु ‘मैं’ तो नहीं जाता । इसलिए मैं उनका दास, मैं उनकी सन्तान, मैं उनका भक्त, यह अभिमान बहुत अच्छा है ।
{ বেদান্তবাদীরা বলে ‘সোঽহম্‌’ ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা; আমিও মিথ্যা। কেবল সেই পরব্রহ্মই আছেন।
“কিন্তু আমি তো যায় না; তাই আমি তাঁর দাস, আমি তাঁর সন্তান, আমি তাঁর ভক্ত — এ-অভিমান খুব ভাল।
'The Vedantist says, 'I am He.' Brahman is real and the world illusory. Even the 'I' is illusory. Only the Supreme Brahman exists." But the 'I' cannot be got rid of. Therefore it is good to have the feeling, 'I' am the servant of God, His son, His devotee.' 


परिच्छेद~ 23, [(18 फरवरी 1883)   श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] 

* स्वयं को M/F समझने से विषय-बुद्धि होती ही है*  

[Form, taste, smell, sound, and touch — these are the 5 objects.] 

*“कलियुग में भक्तियोग ही ठीक है । भक्ति द्वारा भी उन्हें प्राप्त किया जाता है । देहबुद्धि (M/F )के रहने से विषयबुद्धि होती ही है । रूप (Form : M/F) , रस, गंध, स्पर्श (touch) -ये सब विषय हैं । विषयबुद्धि दूर होना बहुत कठिन है । विषयबुद्धि के रहते ‘सोऽहं’   ।#*नहीं होता। 
      
“ संन्यासियों में विषयबुद्धि कम है, लेकिन संसारीगण (गृहस्थ जीवन जीने वाले)  सदैव विषय-चिन्ता (lust and greed) लेकर ही रहते हैं, इसलिए गृहस्थों के ले लिए ‘दासोऽहं।’ श्रेष्ठ मार्ग है।  
[Hypnotized अवस्था में अर्थात कामिनी या विपरीत लिंग और कांचन में आसक्ति के रहते ‘सोऽहं’ बोलना ढोंग है !#*अली, पतंग, मृग, मीन, गज - जरै एक ही आँच |तुलसी वे कैसे जियें जिन्हें जरावें  पाँच।।|]  
#अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते । (गीता, १२/५)  बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त भगवान् के सगुण साकार रूप  का ध्यान करना अर्थात मनुष्य-मात्र  को ही भगवान का मूर्त रूप समझकर, उसके समक्ष अपने सिर को झुकाना' अधिक सरल और लाभदायक है। # यदि मनुष्य 'जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा' समझकर करे ~ तो शनैशनै उसकी कामिनी -कांचन में आसक्ति  या भोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है। और मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार, अव्यक्त और अविनाशी परम् तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।}  

{“কলিযুগে ভক্তিযোগই ভাল। ভক্তি দ্বারাও তাঁকে পাওয়া যায়। দেহবুদ্ধি থাকলেই বিষয়বুদ্ধি। রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ — এই সকল বিষয়। বিষয়বুদ্ধি যাওয়া বড় কঠিন। বিষয়বুদ্ধি থাকতে ‘সোঽহম্‌’ হয় না।১ “ত্যাগীদের বিষয়বুদ্ধি কম, সংসারীরা সর্বদাই বিষয়চিন্তা নিয়ে থাকে, তাই সংসারীর পক্ষে ‘দাসোঽহম্‌’।”
"For the Kaliyuga the path of bhakti [माँ काली या (उनके अवतार श्रीठाकुरजीकृष्ण  की भक्ति) is especially good. One can realize God through bhakti too. As long as one is conscious of the body, one is also conscious of objects. Form, taste, smell, sound, and touch — these are the objects. It is extremely difficult to get rid of the consciousness of objects. And one cannot realize 'I am He' as long as one is aware of objects."The sannyasi is very little conscious of worldly objects. But the house-holder is always engrossed in them. Therefore it is good for him to feel, 'I am the servant of God.'] 

पड़ोसी- हम पापी हैं, हमारा क्या होगा?
श्रीरामकृष्ण- उनका नाम-गुणगान करने से देह से सब पाप भाग जाते हैं । देहरूपी वृक्ष पर पाप-पक्षी बैठे हुए हैं; उनका नाम-कीर्तन करना मानो ताली बजाना है । ताली बजाने से जिस प्रकार वृक्ष के ऊपर के सभी पक्षी भाग जाते हैं, उसी प्रकार उनके नाम-गुणकीर्तन से सभी पाप भाग जाते हैं ।
{ তাঁর নামগুণকীর্তন করলে দেহের সব পাপ পালিয়ে যায়। দেহবৃক্ষে পাপপাখি; তাঁর নামকীর্তন যেন হাততালি দেওয়া। হাততালি দিলে যেমন বৃক্ষের উপরের পাখি সব পালায়, তেমনি সব পাপ তাঁর নামগুণকীর্তনে চলে যায়।২
"All the sins of the body fly away if one chants the name of God and sings His glories. The birds of sin dwell in the tree of the body. Singing the name of God is like clapping your hands. As, at a clap of the hands, the birds in the tree fly away, so do our sins disappear at the chanting of God's name and glories. ] 
    “फिर देखो मैदान के तालाब का जल धूप से स्वयं ही सूख जाता है । इसी प्रकार उनके नाम-गुणकीर्तन से पापरूपी तालाब का जल स्वयं ही सूख जाता है ।
[“আবার দেখ, মেঠো পুকুরের জল সূর্যের তাপে আপনা-আপনি শুকিয়ে যায়। তেমনি তাঁর নামগুণকীর্তনে পাপ-পুষ্করিণীর জল আপনা-আপনি শুকিয়ে যায়।
"Again, you find that the water of a reservoir dug in a meadow is evaporated by the heat of the sun. Likewise, the water of the reservoir of sin is dried up by the singing of the name and glories of God.
    “  अभ्यास रोज करना पड़ता है ।(मनःसंयोग, विवेक-प्रयोग आदि 5 अभ्यास रोज करना पड़ता है ।)  सर्कस में देख आया, घोड़ा दौड़ रहा है, उस पर मेम एक पैर पर खड़ी है । कितने अभ्यास से ऐसा हुआ होगा ।
{“রোজ অভ্যাস করতে হয়। সার্কাসে দেখে এলাম ঘোড়া দৌড়ুচ্ছে তার উপর বিবি একপায়ে দাঁড়িয়ে রয়েছে। কত অভ্যাসে ওইটি হয়েছে।"
You must practise it every day. The other day, at the circus, I saw a horse running at top speed, with an Englishwoman standing on one foot on its back. How much she must have practised to acquire that skill!
“और उनके दर्शन के लिए कम से कम एक बार रोओ ।
[“আর তাঁকে দেখবার জন্য অন্ততঃ একবার করে কাঁদ।"Weep at least once to see God.
“यही दो उपाय हैं, - अभ्यास और अनुराग (गीता के वैराग्य को ठाकुर ने अनुराग कहा ) , अर्थात् उन्हें देखने के लिए व्याकुलता ।”
{“এই দুটি উপায় — অভ্যাস আর অনুরাগ, অর্থাৎ তাঁকে দেখবার জন্য ব্যাকুলতা।”
"These, then, are the two means: practice and passionate attachment to God, that is to say, restlessness of the soul to see Him."
दुमँजलें पर बैठकखाने के बरामदे में श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ प्रसाद पा रहे हैं । दिन के एक बजे का समय हुआ । भोजन समाप्त होने के साथ ही साथ नीचे के आँगन में एक भक्त गाने लगे- 

जागो जागो जननी,



मूलाधारे निद्रागत कतोदिन गत होलो कुलकुण्डलिनि।। 

स्वकार्यसाधने चलो माँ शिरोमध्ये, परम शिव जोथा सहस्रदलपद्मे।
 
कोरे षटचक्रभेद (माँ गो) घुचाओ मनेर खेद, चैतन्यरुपिणी।। 

(भावार्थ) – “जागो, जागो जननि ! हे कुलकुण्डलिनि ! मूलाधार में सोते हुए कितने दिन बीत गये !”

জাগ জাগ জননি,
মূলাধারে নিদ্রাগত কতদিন গত হল কুলকুণ্ডলিনী।
স্বকার্যসাধনে চল মা শিরোমধ্যে, পরম শিব যথা সহস্রদলপদ্মে,
করি ষট্‌চক্র ভেদ (মাগো) ঘুচাও মনের খেদ, চৈতন্যরূপিণি।
श्रीरामकृष्ण गाना सुनकर समाधिमग्न हुए । सारा शरीर स्थिर है, हाथ प्रसाद-पात्र पर जैसा था वैसा ही चित्रलिखित-सा रह गया । और भोजन न हुआ । काफी देर के बाद भाव कुछ कम होने पर कह रहे हैं, “मैं नीचे जाऊँगा, मैं नीचे जाऊँगा ।”
एक भक्त उन्हें बड़ी सावधानी के साथ नीचे ले जा रहे हैं ।
आँगन में ही प्रातःकाल नामसंकीर्तन तथा प्रेमानन्द में श्रीरामकृष्ण का नृत्य हुआ था । अभी तक दरी और आसन बिछा हुआ है । श्रीरामकृष्ण अभी तक भावमग्न हैं । गानेवाले के पास आकर बैठे । गायक ने इतनी देर में गाना बन्द कर दिया था । श्रीरामकृष्ण दीन भाव से कह रहे हैं, “भाई, और एक बार ‘माँ’ का नाम सुनूँगा ।” गायक फिर गाना गा रहे हैं ।
(भावार्थ)- “जागो, जागो, जननि ! हे कुलकुण्डलिनी ! मूलाधार में निद्रितावस्था में कितने दिन बीत गये ! अपनी कार्यसिद्धि के लिए मस्तक की ओर चलो, जहाँ सहस्त्रदल पद्म में परमशिव विराजमान हैं । हे माँ, चैतन्यरूपिणी (O Essence of Consciousness) , षट्चक्र को भेदकर मन के खेद को दूर करो ।”
{Awake, Mother! Awake! How long Thou hast been asleep,In the lotus of the Muladhara! Fulfil Thy secret function. Mother: Rise to the thousand-petalled lotus within the head, Where mighty Siva has His dwelling; Swiftly pierce the six lotuses, And take away my grief, O Essence of Consciousness!
गाना सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण फिर भावमग्न हो गये ।
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