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शनिवार, 5 जून 2021

*Three Types of Love ~ समर्था , सामञ्जसा और साधारणी * श्री रामकृष्ण दोहावली (49) *तीन गुणों के तारतम्य अनुसार तीन प्रकार की भक्ति भक्ति के विविध सोपान और पहलू /रागा भक्ति जानिए , चखत कोई बड़ भाग।।

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(49)

*भक्ति के विविध सोपान और पहलू* 

[Three types of devotion according to the harmony of the three gunas]

413 सात्विक भगत भजन करें , गुप्त रूप एकान्त। 

768 करे न खुसामद और का , सादा जीवन शांत।।

414 भक्त राजसिक तिलक धरे , धरे  भाल चंदन। 

768 दिखा दिखा पूजन करे , ठाठ बाठ ठन ठन।। 

415 भगत तामसिक भजन करे डाकू सम विश्वास। 

768 नाम लिया फिर पाप कहाँ , मैं जो उनका दास।।

जिस प्रकार संसारियों के बीच सत्व, रज , तम ये तीन गुण पाए जाते हैं उसी प्रकार भक्ति में भी सत्व , रज , तम तीनो गुण हैं। 

जिसमें सात्विक भक्ति होती है वह ध्यान-भजन एकांत में अत्यंत गुप्त रूप से करता है। देह के प्रति इतना ख्याल रखता है कि किसी तरह पेट भर जाये - साग , सत्तू जो मिल गया बहुत है ! उसमें किसी बात का आडम्बर नहीं है -न खाने-पिने का , न पोशाक का। घर में साज -सजावट का जमघट नहीं। ऐसा भक्त धन के लिए कभी खुशामद नहीं करता। 

जिसमें राजसिक भक्ति होती है वह खूब चंदन -तिलक लगाएगा , रुद्राक्ष की माला पहनेगा। माला के बीच -बीच सोने के मनके भी लगे होंगे। जब पूजा करेगा तब सिल्क की धोती पहनेगा , बड़े ठाठ से पूजा करेगा। 

जिसमें तामसिक भक्ति है उसका विश्वास ज्वलंत होता है। जिस प्रकार डकैत जबरदस्ती धन छीन लेता है , उसी प्रकार वह भगवान पर भी जोर-जबरदस्ती करता है। 

कहता है - " मैंने  जब भगवान का नाम  ले लिया , तब क्या मुझमें फिर भी पाप है !  मैं माँ तारा  का बेटा हूँ ! उनके ऐश्वर्य का अधिकारी हूँ ! ' उसमें इस प्रकार का तेज होता है।   

417 जप तप तीरथ व्रत नियम , पूजा अरु बलिदान। 

772 जो विधि पूर्वक होय तो , वैधिय भगति जान।।

418 वैधी भगति करत करत , जब बाढ़हि अनुराग। 

772 रागाभगति होहि जब , होहि उदित तब भाग।। 

एक किस्म की भक्ति है , जिसका नाम है वैधी भक्ति इतना जप करना होगा , इतने उपवास रखने होंगे , इतनी तीर्थयात्रा करनी होगी , इतने उपचारों से पूजा करनी होगी , इतने बलिदान देने होंगे -यह सब वैधी भक्ति है। यह सब करते करते धीरे धीरे रागा भक्ति आती है। 

जब तक यह रागाभक्ति नहीं आती , तब तक ईश्वरलाभ नहीं होता। ईश्वर पर प्रेम होना चाहिए।  जब संसारबुद्धि पूरी तरह निकल जाएगी , ईश्वर पर सोलहों आने मन आ जायेगा , तभी उनको पा सकोगे। 

416 जस भगति प्रह्लाद की , प्रबल प्रेम अनुराग। 

771 रागा भक्ति जानिए , चखत कोई बड़ भाग।।

'शास्त्र में ये सब कर्म करने का आदेश है , इसीलिए मैं ये सब कर रहा हूँ' --इस प्रकार की भक्ति को वैधी भक्ति कहा जाता है। और एक किस्म की भक्ति होती है -रागाभक्ति। यह ईश्वर के प्रति प्रबल अनुराग और प्रेम से उत्पन्न होती है , जैसी की प्रह्लाद की थी।  वह भक्ति यदि आ जाए तो फिर वैधी कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती।  

410 जिनकी केवल चाह इक , प्रेमास्पद का सुख। 

767 उत्तम प्रेमी जानिए , जद्यपि पावत दुःख।।

411 प्रेमास्पद का सुख चहै, चहै स्वयं आराम। 

767 मध्यम प्रेमी जानिए , सुख दुःख  सुबह शाम।।

412 प्रेमास्पद का ख्याल नहीं , चाहत बस निज सुख। 

767 अधम प्रेमी तेहि जानिए , तजो तुरत बिन दुःख।

प्रेम-प्रीति के तीन प्रकार हैं  (three types of love) - समर्था , सामञ्जसा और साधारणी। समर्था प्रीति सबसे उच्च कोटि की है। इसमें प्रेमिका केवल प्रेमास्पद का ही सुख चाहती है। इसके लिए चाहे उसे स्वयं को कष्ट ही क्यों न भोगना पड़े। सामञ्जसा प्रीति मध्यम कोटि की है। इसमें प्रेमिका प्रेमास्पद के सुख के साथ स्वयं का भी सुख चाहती है। साधारणी प्रीति सबसे निम्न कोटि की है। इसमें वह केवल अपना ही सुख चाहती है , प्रेमास्पद के सुख -दुःख की कोई परवाह नहीं करती।   

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$$$*result of devotion to Mother Kali~ चरित्र के २४ गुण * श्री रामकृष्ण दोहावली (48) "दया सत्संग नाम गुण , सत्य विवेक वैराग् ~अनुरागरूपी बाघ ' "

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(48)

*माँ काली की भक्ति का परिणाम हैं ~चरित्र के २४ गुण  * 

[24 qualities of character are the result of devotion to Mother Kali ] 

409 दया सत्संग नाम गुण , सत्य विवेक वैराग्। 
 764 होत उदय तिन्हके हिय , जिन्हके हिय अनुराग।।

ईश्वर के प्रति अनुराग जग जाने के बाद -विवेक , वैराग्य , जीवों के प्रति दया , साधुसेवा , सत्संग , ईश्वर की महिमा का गुणगान , सत्यवादिता इत्यादि सद्गुणों का उदय होता है !

405 जस जस  कालीपद  प्रेम बढ़े , घटे जगत सुख भोग। 

757 तज विषयरस इन्द्रियाँ , होहिं हरि संग योग।।

एक भक्त - क्या पहले विवेक-प्रयोग करके इन्द्रियों को वशीभूत करने की आवश्यकता नहीं है ? 

श्रीरामकृष्ण - हाँ , वह भी एक मार्ग है - विचार-मार्ग। लेकिन भक्तिमार्ग में इन्द्रियसंयम अपनेआप , बड़ी सरलता से हो जाता है। ईश्वर के प्रति प्रेम जितना अधिक बढ़ता है , इन्द्रिय-सुख उतने ही नीरस लगने लगते हैं। जैसे जिस दिन पुत्र मर जाता है , उस दिन माता-पिता भोग-सुख की बात तक नहीं सोच सकते। 

406 ईश्वर प्रति अनुराग हिय , जो जागहिं इक बार। 
759 कामक्रोध सब सहज नशे , जद्यपि बल अपार।।

किसी गीत में कवि ने ईश्वरानुराग की तुलना को बाघ से  करते हुए कहा था - " अनुराग रूपी बाघ।"  जिस बाघ अन्य पशुओं को झटपट खा जाता है , उसी प्रकार 'अनुरागरूपी बाघ ' भी कामक्रोध आदि खा जाता है। एक बार यदि ईश्वर के प्रति जग जाये तो कामक्रोध आदि रिपु बिलकुल नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण के प्रति अनुराग के बल पर गोपियों को यह उच्च अवस्था प्राप्त हुई थी।  

407 जस पतंग दीप को चहे , जस चींटी गुर कौर। 
761 तस भक्तन भगवान को , नहि चाहत कछु और।।

प्रश्न -भगवान के लिए भक्त सब कुछ क्यों छोड़ देता है ?
 
उत्तर - एक बार दीपक को देख लेने के बाद पतंगा फिर अँधेरे में नहीं जाता , चींटी गुड़ में लिपटकर प्राण खो देती है , पर उसे नहीं छोड़ती। इसी तरह भक्त भी ईश्वर के लिए प्राणों की बाजी लगा देता है , परन्तु दूसरा कुछ नहीं चाहता। 
...डाक्टर (सहास्य )- पतंगा भले ही जल जाए पर , पर उजाले की ज्योति को नहीं छोड़ेगा ?

श्रीरामकृष्ण - पर भक्त (सत्यार्थी !) ऐसे पतंगे की तरह जल कर नहीं मरते। भक्त जिस उजाले के पीछे दौड़ते हैं वह तो मणि का उजाला है ! वह बहुत  उज्ज्वल , स्निग्ध और शीतल ज्योति है ! उस उजाले से  शरीर नहीं जलता , यह तो हृदय को शांति और आनंद से भर देता है !
  
408 जो चाहत हरि दरस को , जानत नहीं पर राह। 
763 इच्छा बल अनुरागबल , पावत इक दिन थाह।।

जो यथार्थमार्ग नहीं जानता (जो ब्रह्मजिज्ञासु, इन्द्रियातीत सत्य का जिज्ञासु 'सत्य प्राप्ति' का यथार्थ मार्ग नहीं जानता, जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था ?)  परन्तु जिसकी ईश्वर ( माँ काली) पर भक्ति है। और " उन्हें " (माँ काली को) जानने की तीव्र इच्छा है वह जिद्दी खोजी केवल भक्ति के बल पर ही ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। 
एक आदमी बड़ा भक्तिमान था। एक बार वह जगन्नाथजी के दर्शन के लिए निकला। पर वह पुरीधाम का रास्ता नहीं जानता था। इससे वह पुरी की ओर न जाकर भटकते हुए पश्चिम की ओर चला गया; और व्याकुल होकर लोगों से राह पूछने लगा। लोगों ने उससे कहा - " यह रास्ता नहीं , उस रास्ते से जाओ। अंत में वह भक्त पुरी जा पहुंचा। और उसने जगन्नाथजी के दर्शन भी किये।

देखो , अगर इच्छा हो तो राह न जानने पर भी कोई न कोई (ब्रह्मविद-अवतार -मार्गदर्शकनेता ) बतला ही देता है। पहले भूल हो सकती है , पर अंत में सही रास्ता मिल ही जाता है !   
  
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*भक्तिमार्ग * श्री रामकृष्ण दोहावली (47) ~जगातिक प्रेम का ईश्वर ~ भक्ति (शिव ज्ञान से जीव सेवा) में रूपान्तरण

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(47)

 *जगातिक प्रेम का ईश्वर ~ भक्ति में रूपान्तरण* 

403 निज नतनी को प्रेम करो , जस राधा दुलारी। 

755 फल मिलहि ब्रजवास का , घर बैठे तुम्हारी।।

ज ० की माता जब बूढ़ी हो गई उसने सोचा कि अब घर-गृहस्थी से छुट्टी लेकर वृन्दावन जाकर जीवनसन्ध्या वहीं शांति से बिताई जाये। उसने श्री रामकृष्ण के सामने अपनी यह इच्छा व्यक्त की। परन्तु श्रीरामकृष्ण उसके मन की स्थिति को भलीभाँति जानते थे। उन्होंने उसके प्रस्ताव को सम्मति न देते हुए कहा - 

" तुम्हें अपनी नातिन से बहुत प्यार है। तुम जहाँ भी जाओगी, नातिन की याद तुम्हें बेचैन किया करेगी। तुम चाहो तो वृन्दावन जाकर रह सकती हो , पर तुम्हारा मन सदा घर ही के ऊपर पड़ा रहेगा। इसके बजाय अगर तुम अपनी नातिन को ही श्रीराधिका जी की दृष्टि से देखते प्रेम करने लगो , तो वृन्दावन-वास  का सारा पुण्य तुम्हें घर बैठे अपनेआप प्राप्त होगा। उसका चाहे जितना लाड़ -दुलार करो , जी भरकर खिलाओ -पीलाओ , पर मन में सदा यही भाव रखो कि तुम वृन्दावनधीश्वरी राधिका की पूजा -सेवा कर रही हो। "   

404 प्रेमी जन को जान प्रभु, जो सेवहि सब भाँति।

756 बढ़े हरिपद प्रीत सहज , पल पल दिन अरु राति।।

किसी भक्त को एक आत्मीय पर अत्यधिक आसक्ति के कारण मन स्थिर करने में असमर्थ देख श्रीरामकृष्ण ने उसे अपने प्रेमपात्र को ईश्वर का ही रूप मानते हुए भगवद्भाव से उसकी सेवा करने का उपदेश दिया। इस विषय को समझाते हुए कभीकभी श्रीरामकृष्ण पण्डित वैष्णवचरण के ऐसे ही दृष्टिकोण का उल्लेख करते हुए कहते , " वैष्ण्वचरण कहता था , ' यदि अपने प्रेमास्पद को इष्टदेवता के रूप में देखा जाए , तो मन बड़ी सरलता से भगवान की ओर चला जाता है। "   

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*closer to ocean, higher the tide*भक्ति योग * श्री रामकृष्ण दोहावली (46) उन्हें- (माँ काली को) खूब अपना मानो तभी तो उन्हें पा सकोगे।

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 


(46)

* माँ काली की भक्ति तथा उसकी प्राप्ति के उपाय * 

398 बिन टोपा घोडा  न चले , शासन बिना न मन। 

751 मनवा मन को कर वश में , कर लो राम भजन।।

399 जहाँ नाम आनन्दप्रद , जहाँ हरिपद प्रीत। 

751 तहँ न षड्रिपु वैर करे , करे सहाय जनु मीत।।

'घोड़े की आँखों में दोनों ओर से आड़ लगाए बिना घोड़ा क्या कभी आगे बढ़ता है ? रिपुओं को वश में लाये बिना कभी ईश्वर प्राप्त हो सकते हैं ? इसे विचार मार्ग --ज्ञानयोग -कहते हैं। इस रास्ते से भी ईश्वर प्राप्ति होती है। ज्ञानमार्गी कहते हैं , " पहले चित्त शुद्ध होना चाहिए ; पहले साधना चाहिए , तभी ज्ञानलाभ होता है। ' 

और एक मार्ग है -भक्तिमार्ग। इस मार्ग से भी ईश्वर मिलते हैं। एक बार यदि ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति हो जाय , उनका नाम लेने में आनंद आने लगे , तो फिर प्रयत्नपूर्वक इन्द्रिय-संयम करने की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है ? तब तो रिपु अपने आप  वश में आ जाते हैं। 

अगर किसी को पुत्रशोक हुआ हो तो क्या वह उस दिन किसी से झगड़ सकता है ? --या निमंत्रण में भोजन करने जा सकता है ? क्या उस दिन वह लोगों के सामने गर्व कर सकता है ? -या इन्द्रियसुख भोग सकता है ? जो व्यक्ति भगवत्प्रेम में मग्न हो गया है वह विषयसुख का चिंतन नहीं कर सकता ' 

401 बालक जैसे पितु पहँ , करहि हठ पुर जोर। 

753 हरिदरसन को भगत तस , विनय करत कर जोर।।

एक बार श्रीरामकृष्णदेव ने उपासना के प्रसंग में केशव तथा उनके ब्राह्म अनुयायियों से कहा था -  "तुम लोग ईश्वर के ऐश्वर्य के सम्बन्ध में इतना अधिक चर्चा क्यों करते हो ? क्या पुत्र अपने पिता  के सम्मुख बैठकर यही  सोचा करता है कि मेरे बाबूजी के कितने मकान हैं , कितने घोड़े , कितनी गौएँ हैं , कितने बाग -बगीचे हैं ?

या , पिताजी उसके कितने अपने हैं , वे उसे कितना प्यार करते हैं , यह सोचकर मुग्ध होता है ? बाप अपने बेटे को खाने -पहनने को दे , सुख-चैन में रखे , तो इसमें क्या खास बात है ? हम सभी लोग उनकी संतान हैं , अतएव वे हमारे प्रति इस प्रकार का सहृदय बर्ताव करेंगे ही , इसमें आश्चर्य क्या है ?

इसलिए जो यथार्थ भक्त होता है वह इन सब बातों को न सोचकर उन्हें अपना मान कर उनसे हठ करता है , मान करता है , जोर के साथ उनसे कहता है , 'तुम्हें मेरी प्रार्थना पूरी करनी ही पड़ेगी , मुझे दर्शन देने ही होंगे। ' उनके ऐश्वर्य का इतना अधिक विचार करने से उन्हेंअपने निकट आत्मीय के रूप में नहीं सोचा जा सकता , उन पर जोर नहीं चलाया जा सकता। तब, वे कितने महान हैं , हमसे कितने दूर हैं --इस तरह का भाव आ जाता है।  उन्हें खूब अपना मानो तभी तो उन्हें पा सकोगे।  "

402 सब तजहि जो दरस हित , प्रभु को अपना जान। 

754 हठ धर के ते कह सकहि अस , दरसन दो भगवान।।

किसी एक भाव को पक्का पकड़ कर उसके सहारे ईश्वर को अपना बना लेना होगा। तभी न उनके ऊपर जोर चल सकेगा ? देखो न , पहले-पहल जब नई पहचान होती है तब लोग 'आप आप ' कहा करते हैं ; पर ज्योंही पहचान बढ़ी कि 'तुम तुम ' शुरू हो जाता है। फिर और आप मुँह से नहीं निकलता; और सम्बन्ध जब अधिक घनिष्ठ हो जाता है तो 'तुम ' से भी काम नहीं चलता , तबतो 'तू तू ' आ जाता है। 

ईश्वर को अपने से भी अपना बना लेना होगा , तभी तो होगा। जैसे , बदचलन औरत जब पहले -पहल पराये पुरुष से प्रेम करने लगती है तब कितना लुकाती -छिपाती है , कितना डरती - सहमति और लजाती है ; पर जब प्रीत बढ़ उठती है तब यह  सब कुछ नहीं रह जाता। तब सीधे उसका हाथ पकड़कर सब के सामने कुल छोड़कर बाहर आ खड़ी होती है। 

फिर यदि वह आदमी उसकी भलीभाँति देखभाल न करे , या उसे छोड़ देना चाहे , तो वह उसका गला पकड़कर खोंचते हुए कहती है -- ' तेरे लिए मैंने अपना घरबार छोड़ा और सड़क पर आ गयी , अब तू मुझे खाने को रोटी देगा या नहीं बोल ? 

' इसी प्रकार , जिसने भगवान के लिए सबकुछ छोड़ दिया है , उनको अपना बना लिया है , वह उनपर जोर लगाकर कह सकता है , 'तेरे लिए मैंने सब कुछ छोड़ा , अब मुझे दर्शन देगा कि नहीं बोल ! ' 

397 विषय भोग जस जस घटे , घटे जगत अनुराग। 

749 तस तस हरिपद प्रीति बढ़े , बढ़े भक्ति वैराग।।

विषयासक्ति जितनी कम होगी , ईश्वर (माँ काली ) के प्रति भक्ति उतनी ही बढ़ेगी। 

400 जस जस साधक बढ़ चलहि , हरि पास हरि ओर। 

752 तस तस भाव भगति बढ़े , मन में लेत हिलोर।।

श्रीमती (राधा) जैसे जैसे श्रीकृष्ण के निकट अग्रसर होतीं, वैसे वैसे उन्हें श्रीकृष्ण की देह के सुगन्ध का अनुभव होता। साधक ईश्वर  के जितने समीप जाता है , उसमें उतनी ही भाव-भक्ति का उदय होता है। नदी सागर के जितने निकट जाती है , उसमें ज्वार -भाटा उतना ही अधिक दिखाई देने लगता है।     

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*Male-female distinction*ज्ञानयोग*श्री रामकृष्ण दोहावली (45) ~* ज्ञान मार्ग क्या है ~ व्यक्ति-व्यक्ति के ज्ञान में तारतम्य होता है * ज्ञानयोग की प्रणाली *ज्ञानयोग की कठिनाइयाँ*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(45)

* ज्ञान मार्ग क्या है ?* 

392 सकल वेद विचार का , एक ही लक्ष्य महान। 

742 मिथ्या जग संसार है , सत्य ब्रह्म भगवान।।

393 ब्रह्मतत्व का श्रवण करो , करो मनन विचार। 

742 ध्यान करो इस सत्य का , तज झूठ संसार। 

394 मुख से जग को झूठ कहे , मन मन करहिं भोग। 

742 पाखण्डी चाण्डाल वे , मिथ्याचारी लोग।।

श्रीरामकृष्ण के एक युवा भक्त एक बार वेदान्त -शास्त्रों के अध्यन में अत्यधिक निमग्न हो गए थे। एक दिन उनसे भेंट होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा , " क्यों जी, सुना है कि तुम आजकल खूब वेदान्त -विचार करने में लगे हुए हो ? बहुत अच्छा है। परन्तु सब विचार का उद्देश्य तो केवल यही है न कि " ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या ' इस सिद्धान्त पर पहुँचना ? या कुछ और ही है ? 

    युवक भक्त ने श्रीरामकृष्ण के इस कथन का समर्थन  किया। उनके इन शब्दों ने मानो वेदान्त पर एक अभिनव प्रकाश डाला। सुनकर भक्त का मन विस्मय से भर गया। उन्होंने विचार किया - 'सचमुच, ह्रदय में केवल इतनी ही धारणा हो गयी तो सम्पूर्ण वेदान्त का ही ज्ञान हो गया ! '

श्रीरामकृष्ण कहने लगे - "  श्रवण , मनन , निदिध्यासन। 'ब्रह्म सत्य , जगत मिथ्या ' --इस सत्य को पहले सुना , फिर मनन या विचार करते हुए सब संदेहों का निराकरण करने के बाद , उसे मन में दृढ़ भाव से ग्रहण किया। इसके बाद निदिध्यासन अर्थात मिथ्या वस्तु - जगत (नाम-रूप ) का त्याग कर सत्य वस्तु ब्रह्म (अस्ति -भाति -प्रिय) के ध्यान में मन को निमग्न  किया ! यही वेदान्त साधना का क्रम है।  " 

परन्तु इसके विपरीत अगर इस सत्य को सुना , समझा भी , पर मिथ्या वस्तु (नाम-रूप में आसक्ति ) को त्यागने का प्रयत्न नहीं किया , तो इस ज्ञान से क्या फायदा ? 

इस प्रकार का ज्ञान तो संसारासक्त लोगों के ज्ञान की तरह है , ऐसे ज्ञान से वस्तुलाभ नहीं होता। पक्की धारणा चाहिए  , त्याग चाहिए --- तभी होगा ! नहीं तो,  मुँह से तो कह रहे हो ' काँटा नहीं है ' पर हाथ लगाते ही काँटा चुभता  है और 'उफ़ ' कर उठते हो।

     मुँह से तो कह रहे हो ,' जगत है ही नहीं , असत है ! --एकमात्र ब्रह्म ही है ' आदि , परन्तु जैसे ही जगत के रूप-रस आदि भोग्य  विषय [ मिल्कटॉफी ] सामने आते हैं कि उन्हें सत्य मानकर बंधन में पड़ जाते हो !! 

पंचवटी में एक साधु आया था। वह लोगों के सामने खूब वेदान्त -चर्चा करता। एक दिन सुना कि किसी औरत के साथ उसका अनैतिक सम्बन्ध हो गया। फिर शौच के लिए उस ओर जाते समय देखा कि वह बैठा हुआ है। मैंने कहा, ' क्यों जी , तुम इतनी वेदान्त की बातें करते हो , पर यह सब क्या हो रहा है ?

वह बोला , ' उसमें क्या है ? मैं आपको समझा देता हूँ कि कैसे इसमें कोई दोष नहीं है। संसार जब तीन काल में झूठ ही है , तब क्या केवल यही बात सच होगी ? -यह भी झूठ ही है ! '

सुनकर मैं चिढ़कर बोला ' तेरे ऐसे वेदान्तज्ञान पर मैं थूकता हूँ ! यह सब संसारी , विषयासक्त लोगों का ज्ञान है , इसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। " 

390 हिय माँझ शिव वास करे , खोजत भटके जीव। 

739 जस अंगार ढूंढे कोई , पकड़ हाथ में दीव।।

एक आदमी आधी रात को उठा और तमाखू पीने की इच्छा से टिकिया सुलगाने के लिए पडोसी के घर जाकर दरवाजा खटखटाने लगा। घर में सभी लोग सोये हुए थे। काफी देर बाद एक व्यक्ति ने दरवाजा खोला और पूछा , " क्योंजी , क्या बात है ? " 

इस आदमी ने कहा , " तमाखू पीना है ; टिकिया सुलगाने के लिए थोड़ी अंगार चाहिए थी। " तब पड़ोसी ने कहा , " तुम भी बड़े अजीब आदमी हो ! अंगार के लिए तुम आधी रात को इतनी तकलीफ उठाकर तुम यहाँ आये , इतना दरवाजा खटखटाया , पर तुम्हारे ही हाथ में तो लालटेन जल रही है ! " मनुष्य जो पाना चाहता है वह उसके पास ही है , फिर भी वह उसके लिए नाना जगह भटकता फिरता है। 

388 ज्ञान जीव का दीप सम , भक्त चाँद समान। 

735 अवतारी का सूरज सम , तुरत नशत अज्ञान।।

सब का ज्ञान एक जैसा नहीं होता , व्यक्ति-व्यक्ति के ज्ञान में तारतम्य होता है। संसारी जीवों का ज्ञान इतना तेज नहीं होता। वह मानो दीपक का प्रकाश है , उसके द्वारा सिर्फ कमरे में ही उजाला होता है। भक्त का ज्ञान मानो चाँदनी है , उससे भीतर और बाहर दोनों दिखाई पड़ता है। 

परन्तु अवतार /चपरास प्राप्त नेता -नवनीदा / गुरुदेव आदि का ज्ञान मानो सूर्य का प्रकाश है।  वे मानो ज्ञानसूर्य हैं , उनके प्रकाश से युगों का संचित अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है। 

* ज्ञानयोग की प्रणाली * 

389 जब तक भगवान वहां वहां , तब तक है अज्ञान। 

737 हिय अन्तर जब यहाँ यहाँ , ज्ञान उदित तब जान।।

जब तक भगवान (माँ काली) 'वहाँ वहाँ ' ( गाँव के श्मशान में है ,अर्थात दूर या बाहर ) है तब तक अज्ञान है ; जब वे 'यहाँ यहाँ ' (अर्थात हृदय रूपी श्मशान में अहंकार का शवदाह हो जाये ) हैं तभी ज्ञान है ! 

391 ज्ञान फले  एकत्व को , नाना रूप अज्ञान। 

741 एक सत्य भगवान है , नाना रूप जग जान।।

ज्ञान एकत्व की और ले जाता है , अज्ञान नानत्व की ओर। 

*ज्ञानयोग की कठिनाइयाँ* 

395 ज्ञान योग कलियुग कठिन , देह बोध नहीं जाय। 

743 तिन्ह मह जीवन अलप अति , भोग सकल को भाय।।

इस कलियुग में ज्ञानयोग बहुत कठिन है। एक तो जीव अन्नगत -प्राण है (-उसका जीवन पूरी तरह से अन्न पर ही निर्भर है ) , दूसरे , आयु भी बहुत कम है। फिर देहात्म-बुद्धि भी किसी हालत में (बाल पक जाने के बाद भी ) नहीं जाना चाहती। 

ज्ञानी का बोध तो यह होना चाहिए कि " मैं वही ब्रह्म हूँ --नित्य , निर्विशेष। मैं देह नहीं हूँ , मैं क्षुधा -तृष्णा , रोग -शोक , सुख-दुःख आदि सभी देह के धर्मों से परे हूँ ! " 

अगर रोग-शोक , सुख-दुःख , आदि सभी देह के धर्मों में आसक्ति बनी ही हुई है , तब फिर वह ज्ञानी कैसा ? इधर तो कांटा लगकर हाथ कट गया है , धर -धर खून बाह रहा है , तकलीफ हो रही है , और उधर मुँह से कह रहा है , ' मेरा हाथ कहाँ कटा है ? मुझे तो कुछ भी नहीं हुआ ! 'सिर्फ इस तरह बकवास करने से क्या होनेवाला है ! पहले देहात्मबोध [Male-female distinction] का कांटा ज्ञानाग्नि में जलकर खाक हो जाना चाहिए।  

396 देह बोध मन में रहे , मुख में सोअहं भाव। 

745 खुद डूबे डूबाए अरु , अन्य लोग कर नाँव।।  

ज्ञानयोगी कहता है -सोsहं। परन्तु जबतक देहात्मबुद्धि बनी हुई है , तब तक यह 'सोहं '-भाव बहुत हानिकारक है। इससे प्रगति नहीं होती , पतन ही होता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तथा औरों को धोखा देता है। 

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$$$ श्री रामकृष्ण दोहावली (44)~ *अनन्त हरि अवतार बन , लीला करे अपार* धर्मपथ के सहायक गुरु (अवतार, नेता) क्या हैं * महामण्डल के प्राणपुरुष "C-IN-C श्री नवनी दा" क्या हैं ? *गुरु (नेता) ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है *अवतारों (सच्चे मार्गदर्शक नेता) को पहचानना कठिन है**चपरास (C-IN-C) प्राप्त नेता का सामर्थ्य *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(44)

*धर्मपथ के सहायक गुरु (अवतार, नेता) क्या हैं  * 

376 सच्चिदानन्द वृक्ष में , गुच्छे गुच्छे राम। 
706 समय समय आवत धरा , लोक शिक्षण के काम।।

सच्चिदानन्द -वृक्ष पर गुच्छे के  गुच्छे राम , कृष्ण आदि फल फले हुए हैं। समय-समय पर इनमें से एक-दो इस संसार में आकर कितनी बड़ी क्रांति कर जाते हैं। 

"मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा- "Be and Make Leadership Training Tradition " का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ, 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त - शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित, धर्मपथ के सहायक, भवतारिणी माँ काली से जीवन-मुक्त लोकशिक्षक होने का  चपरास प्राप्त गुरु /नेता; महामण्डल के प्राणपुरुष  "C-IN-C श्री नवनी दा" क्या हैं ? 
वे निम्नोक्त कहानी में वर्णित वह 'चौथा आदमी' हैं , जो "चारदीवारी पर चढ़ा~ देश-काल की सीमा से परे कूद कर फिर नीचे वापस उतर आया। और जो भी दिखाई देता उसी को पकड़ पकड़ कर उस जगह के विषय में बतलाने लगा......
 
" चारदीवारी से घिरी हुई एक जगह थी। उसके भीतर क्या है ? इसका बाहर के लोगों को कुछ भी पता नहीं था। एकदिन चार जनों मिलकर सलाह की कि सीढ़ी लगाकर चारदीवारी पर चढ़ा जाय , और देखाजाय कि उसके भीतर है क्या ? 
पहला आदमी सीढ़ी के सहारे दीवार पर जैसे ही चढ़ा वैसे ही 'हा -हा ' कर हँसते हुए चारदीवारी के भीतर कूद पड़ा। क्या हो गया ? समझ न पाकर दूसरा आदमी भी दीवार पर चढ़ा और उसी प्रकार 'हा -हा ' कर हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। तीसरे आदमी का भी वही हाल हुआ। 
     अन्त में चौथा आदमी चारदीवारी पर चढ़ा। उसने देखा कि भीतर दिव्य उपभोग की वस्तुओं से भरा अपूर्व शोभामय एक उपवन है।  
       उसके मन में उन सुंदर वस्तुओं का उपभोग करने की तीव्र कामना उठी , पर उसने उस अदम्य इच्छा का भी 'दमन' कर दिया ; और दूसरों को भी अपने साथ लेकर उसका आनन्द चखाने की इच्छा से वह नीचे वापस उतर आया। और जो भी दिखाई देता उसी को पकड़ पकड़ कर उस जगह के विषय में बतलाने लगा।
ब्रह्मवस्तु भी इसी उपवन की तरह है। जो उसे एक बार देख लेता है , वही आनन्दमग्न होकर उसमें विलीन हो जाता है ! 
परन्तु जो विशेष शक्तिमान पुरुष [नेता, 'C-IN-C' ] होते हैं वे ब्रह्मदर्शन के पश्चात् वापस शरीर में लौटकर लोगों को उसकी खबर बताते हैं और दूसरों को साथ लेकर उस ब्रह्मानन्द में निमग्न होते हैं।

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*चपरास (C-IN-C) प्राप्त नेता  का सामर्थ्य * 

384 कर कर साधन कठोर अति , सिद्ध टारे दू -चार। 
721 तरत सकल जग नाव चढ़ , आवत जब अवतार।।

प्रश्न : श्री विष्णु सहस्रनामम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' क्यों पड़ा ? Lighthouse  (प्रकाश स्तम्भ-  जिसमें जहाज वालों कों रास्ता दिखलाने के लिये ऊंचे पर रोशनी होती है) जैसे मार्गदर्शक नेता की उत्पत्ति क्यों होती है ? 
 लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है तब उसपर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं , उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार , जिस समय अवतार -महापुरुष आते हैं उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं , परन्तु सिद्धपुरुष काफी श्रम करने के बाद किसी तरह स्वयं तर पाता है। 

385 जस इंजन डिब्बा खींचे , भरे लोग हजार। 
723 बद्ध जीव तस सहज तरे , आवत जब अवतार।।

रेल का इंजन खुद भी गंतव्य को जाता है , और अपने साथ माल से लदे कितने ही डिब्बों को खींच ले जाता है। उसी प्रकार अवतार पाप के बोझ से लदे संसारास्कत जीवों को ईश्वर के निकट खींच ले जाते हैं। 

386 गगन रवि सम अवतारी , तेहि कठिन कछु नहिं। 
728 युग युग संचित पाप समुह , क्षण मँह जात नशाहिं।।

अवतार के लिए कुछ भी कठिन नहीं होता। जीवन की जटिल और गूढ़ समस्याओं को इतनी सरलता से हल कर देते हैं कि एक बच्चा भी उसे समझ ले। वे ज्ञानसूर्य हैं। उनके प्रकाश से युगों का संचित अज्ञान-अंधकार दूर हो जाता है।   
379 ईश्वर जो अनंत है , आवहिं धर नर देह। 
715 पान करावन जगत को , भाव भगति अरु नेह।।

        ईश्वर अनन्त-असीम हैं , परन्तु उनकी इच्छा हो तो वे सान्त -ससीम मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हो सकते हैं।  अवतार के भीतर से ही हम ईश्वर की प्रेम-भक्ति का आस्वादन कर सकते हैं। वे अवतार ग्रहण करते हैं , इसका हमें स्वयं अनुभव होना चाहिए।  यह बात उपमा के द्वारा नहीं समझायी जा सकती।
गाय के सींग , पैर या पूँछ को छूने पर गाय को छूना ही हुआ। परन्तु हमारे लिए तो गाय का दूध ही गाय की सार वस्तु है। और यह दूध हमें केवल गाय के थन से ही प्राप्त होता है।
 इसी तरह,  अवतार मानो गाय का थन हैं - ईश्वरीय-प्रेम- भक्ति ,निःस्वार्थ भक्ति का दर्शन हमें केवल अवतार के भीतर होता है।   

*गुरु (नेता) ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है *

380 परसत गंग परसन भयो, जद्यपि आदि न अन्त। 
716 तस दरसत अवतार को , दरसन भयो अनन्त।।

ईश्वर की सम्पूर्ण धारणा कौन कर सकता है ? और इसकी आवश्यकता भी नहीं है। उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर सकें तो वही काफी है। उनके अवतार (नवनीदा) को देखने से उन्हीं को देखना हुआ। यदि कोई गंगाजी में जाकर उसके जल का स्पर्श कर आये  तो वह गदगद होकर यही कहता है कि -मैं गंगाजी के दर्शन -स्पर्शन कर आया !  इसके लिए उसे हरिद्वार से गंगासागर तक फैली समूची गंगा का स्पर्श नहीं करना पड़ता। 

381 जदपि जग मँह वास करे , कण कण में भगवान। 
717 तदपि मानुष हृदय हरि , बहुतहि प्रकाशवान।।

382 जिन्हके हिय भगति उमड़े , पावत प्रेम प्रकाश। 
717 तिन्हके हिय नर जानहु , करत नित्य प्रभु वास।।

यदि ईश्वर-तत्व को  [निःस्वार्थ -प्रेमभक्ति, परम् सत्य को ] खोजना ही हो , तो मनुष्य में खोजो ! मनुष्य के भीतर ही वे सबसे अधिक प्रकाशित होते हैं। जिस मनुष्य के भीतर देखो कि प्रेम-भक्ति उमड़ रही है - जो ईश्वर के प्रेम में मतवाला हो गया है , उनके लिए पागल हो गया है , उस मनुष्य में --- 'नवनीदा में' निश्चित ही ईश्वर अवतीर्ण हुए हैं ! 
  
383 नर लीला जग में करे , नर रूप धर भगवान। 
718 राह दिखावन जगत को , करन प्रेम का दान।।
387 पावन हिय भगतन जब , करत प्रभु गुणगान। 
730 तिन्ह के हित नर देह धरे , कृपा सिंधु भगवान।।

ईश्वर नित्य हैं ; फिर वे लीला भी करते हैं --ईश्वरलीला , देवलीला , जगत-लीला , नरलीला ! नरलीला में वे अवतार बनकर आते हैं।  नरलीला कैसी होती है जानते हो ? 
जैसे परनाले के भीतर से होकर बड़ी छत का पानी धड़-धड़ करते हुए नीचे गिरता है। उसी सच्चिदानन्द की शक्ति मानो परनाले के भीतर से आ रही है।
अवतार को सबलोग नहीं पहचान सकते।  रामचंद्र को भरद्वाज आदि केवल सात ही ऋषियों ने अवतार के रूप में पहचाना था। 
ईश्वर मनुष्य को ज्ञान-भक्ति सिखाने के लिए नररूप (नवनीदा रूप) धारण कर अवतीर्ण होते हैं। 

अवतारों (सच्चे मार्गदर्शक नेता)  को पहचानना कठिन है 

377 अनन्त हरि अवतार बन , लीला करे अपार। 
709 सहज नहीं पहचानना , जन कोउ पाहि पार।।

अवतार को पहचान सकना बहुत कठिन है। यह मानो अनन्त का सान्त बनकर लीला करने जैसा है।
 
378 दीप तले अँधियार पर , करत दूर अंजोर। 
713 संत भाव तस पास नहीं , फैलहि दूर चहु ओर।।

 है।   दीपक के नीचे अँधेरा ही रहता है , उसका प्रकाश दूर में पड़ता है। साधु-महात्माओं को उनके पास के लोग नहीं समझ पाते ; दूर के लोग उनके भाव से मुग्ध होते हैं। 

 [हिन्दी कहावत -घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध। घर का नेता  चाहे कितना ही योग्य क्यों न हो, उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती क्योंकि मानवीय स्वभाव है, आसानी से उपलब्ध अपने गाँव के ज्ञानी-ध्यानी का आदर न करके दूसरे गांव नामी ज्ञानियों को श्रद्धास्पद समझना।  
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महामण्डल के प्राणपुरुष श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के जन्मदिन पर,

उनके श्रीचरणों में प्रार्थना ------

        ' पुनर्जन्म में' 

(In reincarnation) 
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 रात्रि - समाप्त हो जाने के बाद भी, मैं सो रहा था,
तभी तो उषा का प्रकाश होने के बाद भी, 
मेरे मूँदे नेत्र खुल न सके ; 

परमपुरुष के सानिध्य को पाकर भी,
उनके पवित्र अंगों को छू कर भी,  
मेरे हृदय में उनका आह्वान , उनके कितने गीत,
कभी बज न सके ! 


 मायावी --संसार के सुख में,
डूबा रहा मैं --खेदपूर्ण चेहरे से ,
उनके उपदेश सारे खो गए ,
तरह- तरह की शब्दों की भीड़ में।   

विकट व्यस्तता, असफल जीवन ---
सरल समीकरण ! 
(लेकिन) समझते समझते ही , रात ढल गई,
महा- सिन्धु के तट पर!

हे परमपुरुष, यह तुच्छ प्राणी आपसे,  
चाहता है -- केवल इतनी कृपा !  
आपके उदेश रूपी -वारि की 
केवल एक बून्द ही , मेरे हृदय में समा जाये !  
 
प्रभु , तुम्हारी महिमा का मुझे पता है,
मैं जानता हूँ, तुम देश-काल से परे--- मुक्त ! 
पैदा होओगे ,अपने ही महासमुद्र में, 
शायद इसी जन्म में , नहीं तो पुनर्जन्म में ! 


(रचयिता -अरूप माइती )

 
মহাপ্রাণের শুভ জন্মদিনে,
তাঁর কাছে প্রার্থনা -----

          জন্মান্তরে
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ঘুমিয়ে ছিলাম রাতের শেষেও,
ভোরের আলো তাইতো এসেও,
পড়ল না এ চোখে;
মহাপ্রানের সঙ্গ পেয়েও,
পবিত্র তাঁর অঙ্গ ছুঁয়েও,
তাঁর আহ্বান, তাঁর যত গান,
বজল না এ বুকে!
সংসারের-ই অলীক সুখে,
ডুবে আছি কাতর মুখে,
তাঁর কথা সব হারিয়ে গেল,
নানান কথার ভীড়ে।
ব্যস্ত ভীষণ, ব্যর্থ জীবন,
সরল সমীকরণ,
বুঝতে বুঝতে রাত পোহালো,
মহা-সিন্ধুর তীরে!
হে মহাপ্রাণ, তোমার কাছে,
ক্ষুদ্র এ প্রাণ, শুধু কৃপা যাচে!
এক বিন্দু বারি যেন,
আসে এ অন্তরে!
জানি, প্রভু জানি,
তোমার মহিমাখানি,
মুক্ত জন্মিবে ঠিক মহাসমুদ্রে তোমার,
সময়ের পরপারে,
হয়তো এ জন্মে নয়, জন্মান্তরে!
    
         ----- অরূপ মাইতি

[ स्वप्न में नवनीदा का नरसिंहदेह धारण और  'सिम्हाचलम' मन्दिर, विशाखापत्तनम का दर्शन।]
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$$$श्री रामकृष्ण दोहावली (43) *गुरु-शिष्य सम्बन्ध*

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(43)

*गुरु-शिष्य सम्बन्ध*  

372 पावत मंत्र मुमक्षु नर , जल स्वाति की नाई। 

697 साधहि पुनि पुनि सीप सम , डूब प्रेम गहराई।।

समुद्र में एक प्रकार की सीपी होती है , जो स्वाति नक्षत्र की वर्षा की एक बून्द के लिए सदा मुँह खोले पानी पर तैरती रहती है , और स्वाति की वर्षा का एक बिन्दु जल मुँह में पड़ते ही वह मुँह बन्द कर सीधे समुद्र की गहरी सतह में डूब जाती है ; तथा वहां उस जलबिन्दु से मोती तैयार करती है। 

इसी तरह, यथार्थ मुमुक्षु साधकभी सद्गुरु की खोज में व्याकुल होकर इधर-उधर भटकता रहता  है परन्तु एक बार सद्गुरु के निकट मंत्र ('तत्वमसि' का महावाक्य) पा जाने के बाद  वह साधना के अगाध जल में डूब जाता है तथा अन्य किसी ओर ध्यान न देते हुए सिद्धिलाभ होने तक साधना में लगा रहता है।    

373 गुण दोष नहि देखिये , ठाड़ गुरु के द्वार। 

699 साधु साधो मंत्र महत , उतरन सागर पार।।

कोई व्यक्ति अपने गुरु के बारे में तर्क-वितर्क कर रहा था। श्रीरामकृष्ण ने उससे कहा , " तुम फिजूल समय क्यों बर्बाद कर रहे हो ? तुम्हें इन सब बातों से क्या मतलब ? तुम्हें मोती चाहिए तो मोती लेकर सीपी को फेंक क्यों नहीं देते ? गुरु ने जो मंत्र दिया है उसे लेकर डूब जाओ , गुरु के दोष-गुण की ओर मत देखो। " 

374 गुरु निन्दा नहि कीजिये , निन्दा न सुनिए कान। 

700 कर विरोध जस मति बल ,या फिर तज स्थान।। 

कोई तुम्हारे गुरु की निन्दा करता हो तो कभी मत सुनो। गुरु मातापिता से भी बड़े हैं। यदि कोई तुम्हारे सामने तुम्हारे मातापिता की निन्दा करे तो क्या तुम उसे सहन करोगे ? यदि जरूरत पड़े तो लड़कर भी अपने गुरु की मर्यादा को बनाये रखो। 

375 गुरुपद भक्ति जिनके हिय , अटूट अटल अपार। 

702 परिजन पुरजन गुरुवर के देखत , उमड़हि प्यार।।

सच्ची भक्ति हो तो सामान्य वस्तुओं से भी ईश्वर का उद्दीपन होकर साधक भाव में विभोर हो जाता है। चैतन्य महाप्रभु की कथा सुनी नहीं ? एक बार किसी गांव से गुजरते समय, चैतन्यदेव ने सुना कि हरिसंकीर्तन में बजने वाला मृदंग इसी गाँव की मिट्टी से बनता है। सुनते ही वे बोल उठे 'इस मिट्टी से मृदंग बनता है !' और एकदम बाह्यज्ञान खोकर भावसमाधि में मग्न हो गए। इस मिट्टी से मृदंग बनता है , उस मृदंग को बजाते हुए हरिनाम गाया जाता है - वे हरि सब के प्राणों के प्राण हैं , सुन्दर के भी सुन्दर हैं ! -इस तरह की विचार -परम्परा एकदम क्षणमात्र में ही उनके चित्त में खेल गयी , और उनका चित्त हरि में स्थिर हो गया।   

इसीप्रकार , जिसमें गुरु के प्रति सच्ची भक्ति होती है उसे गुरु के सगे -सम्बन्धियों को देखकर गुरु का ही उद्दीपन होता है। इतना ही नहीं , गुरु के गाँव के लोगों को देखने पर भी उसे उस प्रकार की उद्दीपना होती है और वह उन्हें प्रणाम कर उनकी चरणधूलि ग्रहण करता है , उन्हें खिलातापिलाता है , उनकी सेवा-सुश्रुषा करता है। 

ऐसी अवस्था होने पर फिर गुरु के दोष नहीं दिखाई देते। इसी अवस्था में यह कहा जा सकता है कि 'यद्यपि मेरा गुरु कलवार घर जाय , तथापि मेरा गुरु नित्यानन्द राय। ' अन्यथा , मनुष्य में कुछ न  कुछ दोष तो रहेंगे ही -केवल गुणही गुण नहीं रह सकते। परन्तु अपनी भक्ति के कारण वह शिष्य गुरु को मनुष्य की दृष्टि से नहीं देखता , वह उन्हें भगवान के ही रूप में देखता है। 

    जिस प्रकार पीलिया हो जाने पर सब कुछ पीला ही पीला दिखाई पड़ता है , उसी प्रकार इस शिष्य को भी सब कुछ ईश्वरमय ही दिखाई देता है। उसकी भक्ति ही उसे दिखा देती है कि ईश्वर ही सबकुछ हैं - वे ही गुरु , पिता , माता , मनुष्य , पशु , जड़ , चेतन - सब कुछ बने हैं।   

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*मनुष्य बनने के लिए 'संन्यासी और गृहस्थ' दोनों को विषयासक्ति (Inherited tendencies) छोड़ना अनिवार्य है* 

*स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षण प्राप्त करने से जब  भवतारिणी माँ काली पर प्रेम हो जाता तब पाप आदि स्वतः भाग जाते हैं

[(2 जून, 1883)परिच्छेद ~ 35, श्रीरामकृष्ण वचनामृत  ]

श्रीरामकृष्ण गाड़ी में आते आते राखाल, मास्टर आदि भक्तों से कह रहे हैं, “देखो, उन पर प्रेम हो जाने पर  (श्री ठाकुर देव की इष्टदेवी भवतारिणी माँ काली पर प्रेम हो जाने से ) पाप आदि सब स्वतः भाग जाते हैं, जैसे धूप से मैदान के जलाशय का जल स्वतः ही सूख जाता है ।  

“ विषय की वासना तथा कामिनी - कांचन में आसक्ति (मोह) रखने से कुछ नहीं होता । यदि 'कामिनी -कांचन ' के प्रति  जन्मजात आसक्ति ((Inherited tendencies) बनी ही रहे  तो संन्यास  लेने पर भी कुछ नहीं होता - जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना।” 

{"You see, sin flies away when love of God  grows in a man's heart, (श्री ठाकुर देव की इष्टदेवी भवतारिणी माँ काली पर प्रेम हो जाने से )  even as the water of the reservoir dug in a meadow dries up under the heat of the sun. But one cannot love God if one feels attracted to worldly things, to 'woman and gold'.  Merely taking the vow of monastic life will not help a man if he is attached to the world.(Inherited tendencies) It is like swallowing your own spittle after spitting it out on the ground."

थोड़ी देर बाद गाड़ी में श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, “ब्राह्मसमाजी लोग साकार को नहीं मानते । (हँसकर- माँ भवतारिणी काली को ) नरेन्द्र कहता है, ‘पुत्तलिका’ ! (God with form is a mere idol)  फिर कहता है, ‘वे (श्री ठाकुर देव) अभी तक कालीमन्दिर में जाते हैं ।’ 

{"The members of the Brahmo Samaj do not accept God with form. Narendra says that God with form is a mere idol. He says further: 'What? He (Referring to the Master.) still goes to the Kali temple!'"

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[Swami Vivekananda - Captain Sevier'Be and Make' Vedanta Leadership-Training Tradition] { यदि माँ काली या इन्द्रियातीत सत्य (Existence-Consciousness-Bliss- Absolute) के निकट जाना हो तो पहले अपनी जन्मजात प्रवृत्ति (Inherent Tendencies) को बदलकर चरित्रवान मनुष्य बनना होगा। और इसके लिए -विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम नेता के मूर्तरूप पूज्य नवनीदा जैसे  " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित) और 'C-IN-C' का बिल्ला ( चपरास) प्राप्त, अनुभवी गुरु (जीवनमुक्त मार्गदर्शक नेता ) की  शरण में जाकर, उनके निर्देशन में  3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य है ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य के लिए एक गुरु (नवनीदा जैसे मार्गदर्शक नेता) का होना, केवल प्रयोजनीय ही नहीं अनिवार्य भी है !   एथेंस का सत्यार्थी (मुमुक्षु या ब्रह्मजिज्ञासु -माँ काली के निकट जाने के लिए हृदय से अहंकार को मिटाकर श्मशान बनाने की पद्धति सीखने के लिए) 14 अप्रैल 1986 के हरिद्वार कुम्भ में देवराहा बाबा से भेंट करता है, या कनखल, हरिद्वार , रामकृष्ण मिशन आश्रम में खोज करता है, फिर सद्गुरु के निकट 27 मई 1987 को, मंत्र पा जाने के बाद, अनुभवी गुरु (बिल्ला -प्राप्त नेता) नवनीदा के साथ निर्जन में (वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में) -जन्मजात प्रवृत्ति (Inherent Tendencies) को बदलकर चरित्रवान मनुष्य बनने के संकल्प-पत्र , "अब लौ नसानी अब न नसैहौं " प्रतिज्ञा पत्र (Auto Suggestion form) पर हस्ताक्षर करके , उसी अनुभवी नेता के निर्देशन में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करता है। और तथा अन्य किसी ओर ध्यान न देते हुए सिद्धिलाभ होने तक साधना में लगा रहता है। फिर  14 अप्रैल 1992 , रोहनिया ,ऊँच , बनारस के अद्भुत घटनाक्रम में चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहं तो अभी देखता हूँ मरता कौन है ?......  और भ्रममुक्त /जीवन्मुक्त हो जाता है !]  

$$$$श्री रामकृष्ण दोहावली (42)~ *मनुष्य बनने के लिए गुरु-गृहवास की अनिवार्यता* (मार्गदर्शक नेता की अनिवार्यता) *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(42)  

मनुष्य बनने के लिए गुरु-गृहवास की अनिवार्यता*

368 जो चाहत भगवान तो , ले लो गुरु से ज्ञान। 

693 सरल सत्य पथ कहहिं तोहि , जस पथिक अनजान।।

जिन जिन के निकट कोई शिक्षा प्राप्त होती हो उन सभी को गुरु न कहकर एक निर्दिष्ट व्यक्ति को ही गुरु कहने की क्या आवश्यकता है ? 

किसी अनजान जगह जाना हो तो जो रास्ता जानता है ऐसे किसी व्यक्ति के निर्देशानुसार ही जाना चाहिए। अनेक लोगों से रास्ता पूछते रहने पर गड़बड़ हो जाती है। वैसे ही ईश्वर ^  के निकट जाना हो तो एक अनुभवी गुरु के निर्देशानुसार चलना चाहिए। इसीलिए एक गुरु का प्रयोजन (अनिवार्य) है। 

369 होत सहाय अदालत में , जस वकील का ज्ञान। 

694 तस सत पथ पथिक को , साधु संत सुजान।।

जो खुद शतरंज खेलते हैं वे बहुत समय नहीं समझ पाते कि कौन सी चाल ठीक होगी , परन्तु जो तटस्थ रहकर खेल देखते रहते हैं , वे खेलने वालों की चाल से अच्छी चाल बता सकते हैं। गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले लोग सोचते हैं , कि हम बड़े बुद्धिमान हैं , परन्तु वे धन-मान , विषयसुख आदि में आसक्त रहते हैं। वे स्वयं खेल में डूबे रहते हैं , इसलिए सही चाल का निर्णय सही समय पर नहीं ले पाते हैं। 

परन्तु संसार-त्यागी साधु-महात्मा विषयों में अनासक्त होते हैं। वे संसारियों से अधिक बुद्धिमान होते हैं। वे खुद नहीं  खेलते , इसलिए अच्छी चाल बता सकते हैं। इसीलिए , धर्मजीवन यापन करना हो तो जो साधु महात्मा ईश्वर का ध्यान-चिंतन करते हैं , जिन्होंने उन्हें प्राप्त कर लिया है , उन्हीं की बातों पर विश्वास रखकर चलना चाहिए। यदि तुम्हें मामले-मुकदमें की सलाह चाहिए तो तुम वकील की ही सलाह लोगे न की किसी किसी ऐरे -गैरे की।   

370 जिनके हिय अनुराग है , पावन को भगवान। 

695 बिन प्रयास सद्गुरु मिले , उपदेशहिं सत ज्ञान।।

यदि तुम्हारे भीतर ईश्वर के प्रति ठीक-ठीक अनुराग हो, उन्हें जाने की स्पृहा उत्पन्न हो तो अवश्य ही वे तुम्हें सद्गुरु से मिला देंगे। साधक को गुरु के लिए चिंता नहीं करनी पड़ती। 

371 जिनके हिय व्याकुल अति , जिन्हके हिय पुकार। 

696 गुरु बिन पावत परम् प्रभु , पावत भव उद्धार।। 

ठीक-ठीक आन्तरिकता के साथ व्याकुल प्राणों से यदि कोई उन्हें पुकार सके तो उसके लिए गुरु की आवश्यकता नहीं होती ; परन्तु साधारणतया ऐसी व्याकुलता नहीं दिखाई देती , इसलिए गुरु की आवश्यकता है। गुरु एक ही होता है , परन्तु उपगुरु अनेक हो सकते हैं। जिस किसी के पास से कुछ शिक्षा प्राप्त हो वही उपगुरु है। अवधूत के पास चौबीस उपगुरु थे। 

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{ ^ यदि माँ काली या इन्द्रियातीत सत्य (Existence-Consciousness-Bliss- Absolute) के निकट जाना हो तो पहले अपनी जन्मजात प्रवृत्ति (Inherent Tendencies) को बदलकर चरित्रवान मनुष्य बनना होगा। और इसके लिए -विष्णुसहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम नेता के मूर्तरूप पूज्य नवनीदा जैसे  " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित) और 'C-IN-C' का बिल्ला ( चपरास) प्राप्त, अनुभवी गुरु (जीवनमुक्त मार्गदर्शक नेता ) की  शरण में जाकर, उनके निर्देशन में  3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य है ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य के लिए एक गुरु (नवनीदा जैसे मार्गदर्शक नेता) का होना, केवल प्रयोजनीय ही नहीं अनिवार्य भी है ! }    


श्री रामकृष्ण दोहावली (41)~* सच्चे नेता का स्वरुप * Character of True Leader *गुरुगृह-वास* धर्मपथ के सहायक गुरु ~ मार्गदर्शक नेता का स्वरुप *

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर

(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

(41)

*  सच्चे नेता का स्वरुप * 

[Character of True Leader] 

364 मंत्र पढ़े मानव गुरु , कानहि मुख लगाई। 

689 जगद्गुरु पढ़ प्राण मँह , देवहि मंत्र जगाई।।

मनुष्य-गुरु कान में मंत्र फूंकते हैं , परन्तु जगतगुरु प्राणों में मंत्र जगा देते हैं। 

“साधुसंग  की सदा आवश्यकता है । साधु ईश्वर से मिला देते हैं ।”

 गुरुगृह-वास "The constant company of holy men [like C-IN-C, नवनीदा]  is necessary. The holy man introduces one to God." 

365 अधम गुरु बस देत है, चेला को उपदेश। 

692 पालत तजत न खबर कछु , लेत न सुधि सन्देश।।

366 माध्यम गुरु उपदेश करे , देवे बहु विध ज्ञान। 

692 प्रेम सहित समझावहिं , धरन प्रभु कै ध्यान।।

367 उत्तम गुरु तेहि जानिए , जो देवहि उपदेश। 

692 बल दिखाई पथ चलावहि , जद्यपि चलत क्लेश।। 

वैद्य की तरह आचार्य भी तीन प्रकार के होते हैं -उत्तम , मध्यम और अधम। जो वैद्य आकर , सिर्फ रोगी की नाड़ी देखकर दवा बता कर 'यह दवा लेना जी ' कहकर चला जाता है , रोगी ने दवा ली या नहीं इसकी कोई खबर नहीं लेता , वह अधम वैद्य है। इसी तरह कुछ आचार्य केवल उपदेश दे जाते हैं , शिष्य उनका पालन कर रहा है या नहीं --इसकी वे खबर नहीं रखते। 

दूसरी श्रेणी के वैद्य रोगी को केवल दवा लेने के लिए कहकर ही चले नहीं जाते , परन्तु यदि रोगी दवा नहीं लेना चाहता हो , तो उसे दवा लेने के लिए तरह-तरह से समझाते -बुझाते हैं। ये मध्यम श्रेणी के वैद्य हुए। इसी तरह जो आचार्य शिष्यों के हित के लिए उन्हें बार- बार प्रेम से समझाते हैं , जिससे वे उपदेशों को धारण कर सकें और तदनुसार चल सकें , वे मध्यम श्रेणी के आचार्य हैं।  

अंतिम श्रेणी के और उत्तम वैद्य वे हैं जो , अगर रोगी मीठी बातों से न माने तो बल का प्रयोग करते हैं , जरूरत पड़ने पर रोगी की छाती पर घुटना रखकर जबरदस्ती दवा पीला देते हैं। उसी प्रकार , उत्तम श्रेणी के आचार्य शिष्य को ईश्वर के पथ पर लाने के लिए , आवश्यक हो तो , बल तक प्रयोग करते हैं। 

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{मनुष्य-गुरु शिष्य के कान में मंत्र फूंकते हैं, परन्तु " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा "  में प्रशिक्षित C-IN-C का चपरास प्राप्त नवनीदा जैसा नेता (या महामण्डल का युवा प्रशिक्षण शिविर) युवाओं  के हृदय में अपने जैसा मनुष्य * जिनको को देखने से मानो सूर्य के निकलने से जैसे हृदयकमल खिल उठता है !* वैसा 'मनुष्य' बनने और बनाने का मंत्र जगा देते हैं।

{Be and Make a 'Man' by looking whom ~  "the lotus of the heart burst into blossom !"}