श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर
(स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली )
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*भक्ति के विविध सोपान और पहलू*
[Three types of devotion according to the harmony of the three gunas]
413 सात्विक भगत भजन करें , गुप्त रूप एकान्त।
768 करे न खुसामद और का , सादा जीवन शांत।।
414 भक्त राजसिक तिलक धरे , धरे भाल चंदन।
768 दिखा दिखा पूजन करे , ठाठ बाठ ठन ठन।।
415 भगत तामसिक भजन करे डाकू सम विश्वास।
768 नाम लिया फिर पाप कहाँ , मैं जो उनका दास।।
जिस प्रकार संसारियों के बीच सत्व, रज , तम ये तीन गुण पाए जाते हैं उसी प्रकार भक्ति में भी सत्व , रज , तम तीनो गुण हैं।
जिसमें सात्विक भक्ति होती है वह ध्यान-भजन एकांत में अत्यंत गुप्त रूप से करता है। देह के प्रति इतना ख्याल रखता है कि किसी तरह पेट भर जाये - साग , सत्तू जो मिल गया बहुत है ! उसमें किसी बात का आडम्बर नहीं है -न खाने-पिने का , न पोशाक का। घर में साज -सजावट का जमघट नहीं। ऐसा भक्त धन के लिए कभी खुशामद नहीं करता।
जिसमें राजसिक भक्ति होती है वह खूब चंदन -तिलक लगाएगा , रुद्राक्ष की माला पहनेगा। माला के बीच -बीच सोने के मनके भी लगे होंगे। जब पूजा करेगा तब सिल्क की धोती पहनेगा , बड़े ठाठ से पूजा करेगा।
जिसमें तामसिक भक्ति है उसका विश्वास ज्वलंत होता है। जिस प्रकार डकैत जबरदस्ती धन छीन लेता है , उसी प्रकार वह भगवान पर भी जोर-जबरदस्ती करता है।
कहता है - " मैंने जब भगवान का नाम ले लिया , तब क्या मुझमें फिर भी पाप है ! मैं माँ तारा का बेटा हूँ ! उनके ऐश्वर्य का अधिकारी हूँ ! ' उसमें इस प्रकार का तेज होता है।
417 जप तप तीरथ व्रत नियम , पूजा अरु बलिदान।
772 जो विधि पूर्वक होय तो , वैधिय भगति जान।।
418 वैधी भगति करत करत , जब बाढ़हि अनुराग।
772 रागाभगति होहि जब , होहि उदित तब भाग।।
एक किस्म की भक्ति है , जिसका नाम है वैधी भक्ति। इतना जप करना होगा , इतने उपवास रखने होंगे , इतनी तीर्थयात्रा करनी होगी , इतने उपचारों से पूजा करनी होगी , इतने बलिदान देने होंगे -यह सब वैधी भक्ति है। यह सब करते करते धीरे धीरे रागा भक्ति आती है।
जब तक यह रागाभक्ति नहीं आती , तब तक ईश्वरलाभ नहीं होता। ईश्वर पर प्रेम होना चाहिए। जब संसारबुद्धि पूरी तरह निकल जाएगी , ईश्वर पर सोलहों आने मन आ जायेगा , तभी उनको पा सकोगे।
416 जस भगति प्रह्लाद की , प्रबल प्रेम अनुराग।
771 रागा भक्ति जानिए , चखत कोई बड़ भाग।।
'शास्त्र में ये सब कर्म करने का आदेश है , इसीलिए मैं ये सब कर रहा हूँ' --इस प्रकार की भक्ति को वैधी भक्ति कहा जाता है। और एक किस्म की भक्ति होती है -रागाभक्ति। यह ईश्वर के प्रति प्रबल अनुराग और प्रेम से उत्पन्न होती है , जैसी की प्रह्लाद की थी। वह भक्ति यदि आ जाए तो फिर वैधी कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती।
410 जिनकी केवल चाह इक , प्रेमास्पद का सुख।
767 उत्तम प्रेमी जानिए , जद्यपि पावत दुःख।।
411 प्रेमास्पद का सुख चहै, चहै स्वयं आराम।
767 मध्यम प्रेमी जानिए , सुख दुःख सुबह शाम।।
412 प्रेमास्पद का ख्याल नहीं , चाहत बस निज सुख।
767 अधम प्रेमी तेहि जानिए , तजो तुरत बिन दुःख।
प्रेम-प्रीति के तीन प्रकार हैं (three types of love) - समर्था , सामञ्जसा और साधारणी। समर्था प्रीति सबसे उच्च कोटि की है। इसमें प्रेमिका केवल प्रेमास्पद का ही सुख चाहती है। इसके लिए चाहे उसे स्वयं को कष्ट ही क्यों न भोगना पड़े। सामञ्जसा प्रीति मध्यम कोटि की है। इसमें प्रेमिका प्रेमास्पद के सुख के साथ स्वयं का भी सुख चाहती है। साधारणी प्रीति सबसे निम्न कोटि की है। इसमें वह केवल अपना ही सुख चाहती है , प्रेमास्पद के सुख -दुःख की कोई परवाह नहीं करती।
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