No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context.
"If you like something, leave a comment!"
--Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* *साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
परिच्छेद ~ ४५
*अधर के मकान पर*
* काली-नामरूपी कल्पतरु को हृदय में बो दिया है ।*
श्रीरामकृष्ण कलकत्ते के बेनेटोला में अधर के मकान पर पधारे हैं । आषाढ़ शुक्ला दशमी, १४ जुलाई १८८३, शनिवार । अधर श्रीरामकृष्ण को राजनारायण का चण्डी-संगीत सुनाएँगे । राखाल, मास्टर आदि साथ हैं । मन्दिर के बरामदे में गाना हो रहा है ।
राजनारायण , 'माँ काली के निर्भय चरण' (Fearless feet of the Mother Kali) शीर्षक गीत गाने लगे-.
अभय-पदे प्राण सोंपेछि।
आमि आर कि यमेर भय रेखेछि ॥
कालीनाम महामन्त्र आत्मशिर शिखाय बेँधेछि।
आमि देह बेचे भवेर हाटे, दुर्गानाम किने एनेछि॥
कालिनाम कल्पतरु हृदये, रोपण कोरेछि।
एबार शमन होले हृदय खूले, देखाबो ताइ बोशे आछि।।
देहेर मध्ये छः जन कूजन, तादेर घरे दूर कोरेछि।
रामप्रसाद बोले दूर्गा बोले जात्रा कोरे बोशे आछि।।
सारात्सार तारानाम आपन शिखाग्रे बेंधेछि।
'रामप्रसाद बोले दुर्गा बोले यात्रा करे बसे आछि॥
অভয় পদে প্রাণ সঁপেছি ৷
আমি আর কি যমের ভয় রেখেছি ৷৷
কালীনাম মহামন্ত্র আত্মশির শিখায় বেঁধেছি ৷
আমি দেহ বেচে ভবের হাটে, দুর্গানাম কিনে এনেছি ৷৷
কালীনাম-কল্পতরু হৃদয়ে রোপণ করেছি ৷
এবার শমন এলে হৃদয় খুলে দেখাব তাই বসে আছি ৷৷
দেহের মধ্যে ছজন কুজন, তাদের ঘরে দূর করেছি ৷
রামপ্রসাদ বলে দুর্গা বলে যাত্রা করে বসে আছি ৷৷
(भावार्थ)-“अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है, फिर मुझे यम का क्या भय है ? अपने सिर की शिखा में कालीनाम का महामन्त्र बाँध लिया है । मैं इस संसाररूपी बाजार में अपने शरीर को बेचकर श्रीदुर्गानाम खरीद लाया हूँ । काली-नामरूपी कल्पतरु को हृदय में बो दिया है ।अब यम के आने पर हृदय खोलकर दिखाऊंगा, इसलिए बैठा हूँ । देह में छः दुर्जन हैं, उन्हें भगा दिया है। रामप्रसाद कहता है - 'मैं तो जय दुर्गा, श्रीदुर्गा' कहकर रवाना होने के लिए लिए तैयार बैठा हूँ।”I have surrendered my soul at the fearless feet of the Mother; Am I afraid of Death any more? . . .
श्रीरामकृष्ण थोड़ा सुनकर भावाविष्ट हो खड़े हो गए और मण्डली के साथ सम्मिलित होकर गाने लगे ।
श्रीरामकृष्ण पद जोड़ रहे हैं –“ओमा, राख मा।” पद जोड़ते जोड़ते एकदम समाधिस्थ ! बाह्यशून्य, निस्पन्द होकर खड़े हैं ।
(भावार्थ)-“यह किसकी कामिनी रणांगण को आलोकित कर रही है? मानो इसकी देहकान्ति के सामने जलधर बादल हार मानता है और दन्त पंक्ति मानो बिजली की चमक है ! देव-दानव युद्ध में जब वे राक्षसों का संहार करने निडर होकर दौड़ती हैं, तब उनके पीछे बिखरे हुए बाल उड़ने लगते हैं। जब भयानक अट्टहास करते हुए वे भागते हुए असुरों का वध करती हैं , तब उनके चकाचौंध से युद्ध की भयावहता उजागर हो जाती है। उनकी भौंहों पर श्रम-आद्रता की बूंदें कितनी सुंदर लगती हैं! उनके घने काले बाल ऐसा प्रतीत हो रहे हैं , मानों कुमुदबंधु -भौंरे झुण्ड में लहरा रहे हों। सौंदर्य के इस सागर को निहारते हुए, चंद्रमा ने अपना चेहरा ढक लिया है। भगवान शिव भी स्वयं उनके चरणों में एक शव की तरह पड़े हुए हैं। -मुझे बताओ, यह जादूगरनी- आश्चर्यों की आश्चर्य! यह भुवन मोहिनी कौन हो सकती है ? हाथी की चाल से कमलाकांत ने अनुमान लगाया है कि वह कौन है; वह कोई और नहीं बल्कि समस्त लोकों की माता - माँ काली हैं। "
[Who is the Woman yonder who lights the field of battle? Darker Her body gleams even than the darkest storm-cloud, And from Her teeth there flash the lightning's blinding flames! Dishevelled Her hair is flying behind as She rushes about, Undaunted in this war between the gods and the demons. Laughing Her terrible laugh, She slays the fleeing asuras, And with Her dazzling flashes She bares the horror of war. How beautiful on Her brow the drops of moisture appear! About Her dense black hair the bees are buzzing in swarms; The moon has veiled its face, beholding this Sea of Beauty. Tell me, who can She be, this Sorceress? Wonder of wonders! Siva Himself, like a corpse, lies vanquished at Her feet. Kamalakanta has guessed who She is, with the elephant's gait; She is none other than Kali, Mother of all the worlds.]
श्रीरामकृष्ण फिर समाधिस्थ हुए ।
गाना समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण अधर के बैठकघर में जाकर भक्तों के साथ बैठ गए । ईश्वरीय चर्चा हो रही है । इस प्रकार भी वार्तालाप हो रहा है कि कोई कोई भक्त मानो ‘अन्तःसार फल्गु नदी’ है, ऊपर भाव का कोई प्रकाश नहीं !
[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (हिंदी अनुवाद)* *साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]
* परिच्छेद~ ४४*
*सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु,' ये सब देह के हैं, आत्मा के नहीं *
[ 'Birth and death' belong to the body, not the soul.]
[जॉन स्टुअर्ट मिल की आत्मकथा]
[Limitations of man — a conditioned being ]
(J. S. Mill and Sri Ramakrishna)
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे हैं । ज्येष्ठ मास, १८८३, ई. (जून, १८८३) । खूब गर्मी पड़ रही है । थोड़ी देर बाद सन्ध्या होगी । बर्फ आदि लेकर मास्टर आए और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर उनके चरणों के पास शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)- मणि मल्लिक की नातिन का पति आया था । उसने किसी पुस्तक ^ में पढ़ा है, ईश्वर वैसे ज्ञानी, सर्वज्ञ नहीं जान पड़ते । नहीं तो इतना दुःख क्यों? और यह जो जीव की मौत होती है, उन्हें एक बार में मार डालना ही अच्छा होता, धीरे धीरे अनेक कष्ट देकर मारना क्यों ? जिसने पुस्तक लिखी है, उसने कहा है कि यदि वह होता तो इससे बढ़िया सृष्टि कर सकता था !
[^जॉन स्टुअर्ट मिल (1806 - 1873) की आत्मकथा , John Stuart Mill’s Autobiography]
MASTER (to M.): শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — মণি মল্লিকের নাতজামাই এসেছিল। সে কি বই-এ১ পড়েছে, ঈশ্বরকে তেমন জ্ঞানী, সর্বজ্ঞ বলে বোধ হয় না। তাহলে এত দুঃখ কেন? আর এই যে জীবের মৃত্যু হয়, একেবারে মেরে ফেললেই হয়, ক্রমে ক্রমে অনেক কষ্ট দিয়ে মারা কেন? যে বই লিখেছে সে নাকি বলেছে যে, আমি হলে এর চেয়ে ভাল সৃষ্টি করতে পারতাম।
"The husband of Mani Mallick's granddaughter was here. He read in a book * that God could not be said to be quite wise and omniscient; otherwise, why should there be so much misery in the world? As regards death, it would be much better to kill a man all at once, instead of putting him through slow torture. Further, the author writes that if he himself were the Creator, he would have created a better world."}
मास्टर विस्मित होकर श्रीरामकृष्ण की बातें सुन रहे हैं और चुप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं- श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)- " उन्हें क्या समझा जा सकता है जी ? मैं तो कभी उन्हें अच्छा मानता हूँ और कभी बुरा । अपनी महामाया के भीतर हमें रखा है । कभी वह होश में लाते हैं, तो कभी बेहोश कर देते हैं । एक बार अज्ञान दूर हो जाता है, दूसरी बार फिर आकर घेर लेता है । तालाब का जल काई से ढँका हुआ है । पत्थर फेंकने पर कुछ जल दिखायी देता है, फिर थोड़ी देर बाद काई नाचते नाचते आकर उस जल को भी ढँक लेती है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তাঁকে কি বুঝা যায় গা! আমিও কখন তাঁকে ভাবি ভাল, কখন ভাবি মন্দ। তাঁর মহামায়ার ভিতের আমাদের রেখেছেন। কখন তিনি হুঁশ করেন, কখন তিনি অজ্ঞান করেন। একবার অজ্ঞানটা চলে যায়, আবার ঘিরে ফেলে। পুকুর পানা ঢাকা, ঢিল মারলে খানিকটা জল দেখা যায়, আবার খানিকক্ষণ পরে পানা নাচতে নাচতে এসে সে জলটুকুও ঢেকে ফেলে।
"Can a man ever understand God's ways? I too think of God sometimes as good and sometimes as bad. He has kept us deluded by His great illusion. Sometimes He wakes us up and sometimes He keeps us unconscious. One moment the ignorance disappears, and the next moment it covers our mind. If you throw a brick-bat into a pond covered with moss, you get a glimpse of the water. But a few moments later the moss comes dancing back and covers the water.]
*जब 'स्व-स्वरुप ' की अनुभूति होती है, तब सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु स्वप्न सा लगने लगता है*
[When 'the Self' is realized -Birth and Death seem like dreams]
“जब तक देहबुद्धि है, तभी तक सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, रोग-शोक हैं । ये सब देह के हैं, आत्मा के नहीं। देह की मृत्यु के बाद सम्भव है वे अच्छे स्थान पर ले जायें – जिस प्रकार प्रसव-वेदना के बाद सन्तान की प्राप्ति ! आत्मज्ञान होने पर सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु स्वप्न जैसे लगते हैं ।
[“যতক্ষণ দেহবুদ্ধি ততক্ষণই সুখ-দুঃখ, জন্মমৃত্যু, রোগশোক। দেহেরই এই সব, আত্মার নয়। দেহের মৃত্যুর পর তিনি হয়তো ভাল জায়গায় নিয়ে যাচ্ছেন — যেমন প্রসববেদনার পর সন্তানলাভ। আত্মজ্ঞান হলে সুখ-দুঃখ, জন্মমৃত্যু — স্বপ্নবৎ বোধ হয়।
"One is aware of pleasure and pain, birth and death, disease and grief, as long as one is identified with the body. All these belong to the body alone, and not to the Soul. After the death of the body, perhaps God carries one to a better place. It is like the birth of the child after the pain of delivery. Attaining Self-Knowledge, one looks on pleasure and pain, birth and death, as a dream.]
*ज्ञानी इतना ही जानता है कि वह कुछ नहीं जानता*
[एक सेर घोटिते कि दोश सेर दूध धोरे ?]
“हम क्या समझेंगे ? क्या एक सेर के लोटे में दस सेर दूध आ सकता है ? नमक का पुतला समुद्र नापने जाकर फिर खबर नहीं देता । गलकर उसी में मिल जाता है ।”
[“আমরা কি বুঝব! এক সের ঘটিতে কি দশ সের দুধ ধরে? নুনের পুতুল সমুদ্র মাপতে গিয়ে আর খবর দেয় না। গলে মিশে যায়।”
"How little we know! Can a one-seer pot hold ten seers of milk? If ever a salt doll ventures into the ocean to measure its depth, it cannot come back and give us the information. It melts into the water and disappears."
*छिद्यन्ते सर्वसंशयाः तस्मिन् दृष्टे परावरे *
[अवतार , (पैगम्बर वरिष्ठ -गुरु, नेता, C-IN-C) के पास जाने से सारे संशय मिट जाते हैं ]
‘उस परावर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर जड़ -चेतन की एकात्मतारूप हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है- जड़ देह-मन आदि में होने वाले आत्माभिमान का नाश हो जाता है, समस्त संशयों का उच्छेद हो जाता है और सम्पूर्ण कर्म (बीज सहित) नष्ट हो जाते हैं।’ गीता 4/37 में भी है। ]
सन्ध्या हुई, मन्दिरों में आरती हो रही है । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में छोटे तख़्त पर बैठकर जगज्जननी का चिन्तन कर रहे हैं । राखाल, लाटू, रामलाल, किशोरी गुप्त आदि भक्तगण उपस्थित हैं । मास्टर आज रात को ठहरेंगे । कमरे के उत्तर की ओर एक छोटे बरामदे में श्रीरामकृष्ण एक भक्त के साथ एकान्त में बातें कर रहे हैं । कह रहे हैं,
“भोर में तथा उत्तर-रात्रि में ध्यान करना अच्छा है और प्रतिदिन सन्ध्या के बाद ।” किस प्रकार ध्यान करना चाहिए, साकार ध्यान (इष्टदेव -विवेकदर्शन ), अरूप ध्यान ^* , यह सब बात बता रहे हैं ।
[अरूप-ध्यान ^* सच्चिदानन्द सागर में खेलती हुई मछली का ध्यानयोगसूत्र या अष्टांग योग, प्रत्याहार-धारणा।] বলিতেছেন, “প্রত্যূষে ও শেষ রাত্রে ধ্যান করা ভাল ও প্রত্যহ সন্ধ্যার পর।” কিরূপ ধ্যান করিতে হয় — সাকার ধ্যান, অরূপ ধ্যান, সে-সব বলিতেছেন।
"It is good to meditate in the small hours of the morning and at dawn. One should also meditate daily after dusk." He instructed the devotee about meditation on the Personal God and on the Impersonal Reality.]
थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण पश्चिम के गोल बरामदे में बैठ गए । रात के नौ बजे का समय होगा । मास्टर पास बैठे हैं, राखाल आदि बीच बीच में कमरे के भीतर आ-जा रहे हैं ।
*श्रीरामकृष्णवादीयों (Ramakrishnaites) के सारे शंसय मिट जायेंगे *
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)- देखो, यहाँ पर जो लोग आएँगे, उन सभी का सन्देह मिट जाएगा; तुम क्या कहते हो ?
[— দেখ, এখানে যারা যারা আসবে সকলের সংশয় মিটে যাবে, কি বল?"Those who come here will certainly have all their doubts removed. What do you say?"
{मनःसंयोग के प्रशिक्षक या अवतार वरिष्ठ -पैगम्बर वरिष्ठ या - CINC नवनीदा के पास कैम्प में जो लोग जायेंगे उन सभी का संदेह मिट जायेगा , क्यों GN ; तुम क्या कहते हो ? }
मास्टर- जी हाँ ।
उसी समय गंगा में काफी दूरी पर माँझी अपनी नाव खेता हुआ गाना गा रहा था । गीत की वह ध्वनि मधुर अनाहत ध्वनि की तरह आकाश के बीच में से होकर मानो गंगा के विशाल वक्ष को स्पर्श करती हुई श्रीरामकृष्ण के कानो में प्रविष्ट हुई ।श्रीरामकृष्ण उसी समय भावाविष्ट हो गए । सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो उठे । श्रीरामकृष्ण मास्टर का हाथ पकड़कर कह रहे हैं,“देखो, देखो, मुझे रोमांच हो रहा है । मेरे शरीर पर हाथ रखकर देखो ।”
प्रेम से आविष्ट उनके उस रोमांचपूर्ण शरीर को छूकर वे विस्मित हो गये । ‘पुलकपूरित अंग !’^* उपनिषद् में कहा गया है कि वे विश्व में आकाश में ‘ओतप्रोत’ होकर विद्यमान हैं । क्या वे ही शब्द के रूप में श्रीरामकृष्ण को स्पर्श कर रहे हैं ?क्या यही शब्दब्रह्म है ?*
[এমন সময় গঙ্গাবক্ষে অনেক দূরে মাঝি নৌকা লইয়া যাইতেছে ও গান ধরিয়াছে। সেই গীতধ্বনি, মধুর অনাহতধ্বনির ন্যায় অনন্ত আকাশের ভিতর দিয়া গঙ্গার প্রশস্ত বক্ষ যেন স্পর্শ করিয়া ঠাকুরের কর্ণকুহরে প্রবেশ করিল। ঠাকুর অমনি ভাবাবিষ্ট। সমস্ত শরীর কণ্টকিত। মাস্টারের হাত ধরিয়া বলিতেছেন, “দেখ দেখ আমার রোমাঞ্চ হচ্ছে। আমার গায়ে হাত দিয়ে দেখ!” তিনি সেই প্রেমাবিষ্ট কণ্টকিত দেহ স্পর্শ করিয়া অবাক্ হইয়া রহিলেন। “পুলকে পূরিত অঙ্গ”! উপনিষদে কথা আছে যে, তিনি বিশ্বে আকাশে ‘ওতপ্রোত’ হয়ে আছেন। তিনিই কি শব্দরূপে শ্রীরামকৃষ্ণকে স্পর্শ করিতেছেন? এই কি শব্দ ব্রহ্ম?২
A boat was moving in the Ganges, far away from the bank. The boatman began to sing. The sound of his voice floating over the river reached the Master's ears, and he went into a spiritual mood. The hair on his body stood on end. He said to M., "Just feel my body." M. was greatly amazed. He thought: "The Upanishads describe Brahman as permeating the universe and the ether. Has that Brahman, as sound, touched the Master's body?"
थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर वार्तालाप कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण- जो लोग यहाँ पर आते हैं, उनके शुभ संस्कार हैं, क्या कहते हो ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যারা যারা এখানে আসে তাদের সংস্কার আছে; কি বল?
"Those who come here must have been born with good tendencies. Isn't that true?"
मास्टर- जी, हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- अधर के वैसे संस्कार थे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — অধরের সংস্কার ছিল।
"Adhar must have good tendencies."
मास्टर- इसमें क्या कहना है !
[M: তা আর বলতে।"That goes without saying."
श्रीरामकृष्ण- सरल होने पर ईश्वर शीघ्र प्राप्त होते हैं । फिर दो पथ हैं, - सत् और असत्, सत् पथ से जाना चाहिए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — সরল হলে ঈশ্বরকে শীঘ্র পাওয়া যায়। আর দুটো পথ আছে — সৎ, অসৎ। সৎপথ দিয়ে চলে যেতে হয়।
"A guileless man easily realizes God. There are two paths: the path of righteousness and the path of wickedness. One should follow the path of righteousness."
मास्टर- जी हाँ, धागे में यदि रेशा निकला हो तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता ।
श्रीरामकृष्ण- कौर के साथ मुँह में केश चले जाने पर सब का सब थूककर फेंक देना पड़ता है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — খাবারের সঙ্গে চুল জিবে পড়লে, মুখ থেকে সবসুদ্ধ ফেলে দিতে হয়।
"If a man finds a hair in the food he is chewing, he spits out the entire morsel."
मास्टर- परन्तु जैसे आप कहते हैं, जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है, असत्-संग उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता; प्रखर अग्नि में केले का पेड़ तक जल जाता है !
[মাস্টার — তবে আপনি যেমন বলেন, যিনি ভগবানদর্শন করেছেন, তাঁকে অসৎসঙ্গে কিছু করতে পারে না। খুব জ্ঞানাগ্নিতে কলাগাছটা পর্যন্ত জ্বলে যায়।
M: "But you say that the man who has realized God cannot be injured by evil company. A blazing fire burns up even a plantain-tree."
हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार) मैं हूँ, आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषार्थ मैं हूँ।
वह सनातन तत्त्व क्या है जो सर्वत्र व्याप्त होते हुये भी दृष्टिगोचर नहीं होता ? इस प्रश्न का उत्तर यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने दिया है। किसी वस्तु का धर्म या स्वरूप वह है जो सदा एक समान बना रहता है और जिसके बिना उस वस्तु का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। यहाँ दिये दृष्टान्त जल में रस सूर्य चन्द्र में प्रकाश समस्त वेदों में प्रणव आकाश में शब्द पृथ्वी में पवित्र गन्ध पुरुषों में पुरुषत्व एवं तपस्वियों में तप आदि ये सब दर्शाते हैं कि आत्मा (Existence-consciousness-bliss) ही वह तत्त्व है जिसके कारण इन वस्तुओं का अपना विशेष अस्तित्व होता है। संक्षेपत आत्मा समस्त भूतों का जीवन है।
‘पुलकपूरित अंग !’^* राम राज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिवस्तुति : ->
* बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥13 ख॥
भावार्थ:-काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुड़जी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्गद् वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-॥13 (ख)॥
छंद :
* जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
भावार्थ:- हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत) ! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥
[(25 जून, 1883) परिच्छेद ~ 43, श्रीरामकृष्ण वचनामृत:]
[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*/*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*]
*परिच्छेद ~ ४३*
*प्रार्थना करने से स्वरुप (3rd'H') दर्शन -वासना के अनुपात में बाधा *
श्रीरामकृष्ण ने आज कलकत्ते में बलराम के मकान पर शुभागमन किया है । मास्टर पास बैठे हैं, राखाल भी हैं । श्रीरामकृष्ण भावमग्न हुए हैं । आज ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, सोमवार, 25 जून 1883 ई. । समय दिन के पाँच बजे का होगा ।
[Sri Ramakrishna was at Balaram Bose's house in Calcutta. Rakhal and M were seated near him. The Master was in ecstasy. He conversed with the devotees in an abstracted mood.
श्रीरामकृष्ण (भाव के आवेश में) -देखो, अन्तर से पुकारने पर अपने स्व-स्वरूप (आत्मा) को देखा जाता है, परन्तु विषयभोग की वासना जितनी रहती है, उतनी ही बाधा होती है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভাবাবিষ্ট) — দেখ, আন্তরিক ডাকলে স্ব-স্বরূপকে দেখা যায়। কিন্তু যতটুকু বিষয়ভোগের বাসনা থাকে, ততটুকু কম পড়ে যায়।
"Let me assure you that a man can realize his Inner Self through sincere prayer.But to the extent that he has the desire to 'enjoy worldly objects' (कामिनी -कांचन), his vision of the Self becomes obstructed."
मास्टर- जी, आप जैसा कहते हैं, ईश्वर में गोता लगाना पड़ता है ।
[মাস্টার — আজ্ঞা, আপনি যেমন বলেন ঝাঁপ দিতে হয়।
M: "Yes, sir. You always ask us to PLUNGE INTO GOD !
(plunge: सच्चिदानन्द सागर में मछली जैसा गोता लगाना, कूदना, )]
श्रीरामकृष्ण (आनन्दित होकर)- बहुत ठीक ।
सभी चुप है; श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) -देखो सभी को आत्मदर्शन हो सकता है ।
(শ্রীরামকৃষ্ণ (আনন্দিত হইয়া, মাস্টারের প্রতি) — ইয়া! — দেখ, সকলেরই আত্মদর্শন হতে পারে। (joyously): "Yes! That's it. Let me tell you that the realization of Self is possible for all, without any exception."
मास्टर- जी, परन्तु ईश्वर कर्ता हैं; वे अपनी इच्छानुसार भिन्न भिन्न प्रकार से लीला कर रहे हैं । किसी को चैतन्य दे रहे हैं, किसी को अज्ञानी बनाकर रखा है ।
{মাস্টার — আজ্ঞা, তবে ঈশ্বর কর্তা, তিনি যে ঘরে যেমন করাচ্ছেন। কারুকে চৈতন্য করছেন, কারুকে অজ্ঞান করে রেখেছেন।
M: "That is true, sir. But God is the Doer. He works through different beings in different ways, according to their capacity to manifest the Divine. God gives to some full spiritual consciousness, and others He keeps in ignorance."
*आत्मनिरीक्षण , आत्मविश्लेषण या आत्म-साक्षात्कार का तरीका -निश्छल प्रार्थना -नित्यालिला योग*
श्रीरामकृष्ण- नहीं, उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करनी पड़ती है । आन्तरिक या निश्छल होने पर वे प्रार्थना अवश्य सुनेंगे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — না। তাঁকে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা করতে হয়। আন্তরিক হলে তিনি প্রার্থনা শুনবেই শুনবেন।
"No, that is not so. One should pray to God with a longing heart. God certainly listens to prayer if it is sincere. There is no doubt about it."
एक भक्त- जी हाँ, ‘मैं-पन’ है, इसलिए प्रार्थना करनी होगी ।
{একজন ভক্ত — আজ্ঞা হাঁ — ‘আমি’ যে রয়েছে, তাই প্রার্থনা করতে হবে।
"Yes, sir. There is this 'I-consciousness' in us; therefore we must pray."
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति)- " लीला के सहारे नित्य में जाना होता है – जिस प्रकार सीढ़ी पकड़-पकड़कर छत पर चढ़ना होता है ।'नित्यदर्शन के बाद ; नित्य से लीला में आकर रहना होता है, भक्ति-भक्त लेकर ' ~ यही मेरा परिपक्व मत ^ है ।"
শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — লীলা ধরে ধরে নিত্যে যেতে হয়; যেমন সিঁড়ি ধরে ধরে ছাদে উঠা। নিত্যদর্শনের পর নিত্য থেকে লীলায় এসে থাকতে হয়। ভক্তি-ভক্ত নিয়ে। এইটি পাকা মত।]
"A man (Ramakrishnaite) should reach the Nitya, the Absolute, by following the trail of the Lila, the Relative. It is like reaching the roof by the stairs.After realizing the Absolute,he should climb down to the Relative and live on that plane in the company of devotees, charging his mind with the love of God;This is my final and most mature opinion.
[ अर्थात किसीरामकृष्णवादी नेता (Ramakrishnaite) को लीला के सहारे नित्य में जाना चाहिए --जिस प्रकार सीढ़ियों को पकड़ पकड़ कर कोई छत पर पहुँच जाता है ! (अर्थात अर्थात 3-H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति (मनःसंयोग , विवेक-प्रयोग आदि) या चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया के प्रशिक्षण और अभ्यास या "स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर Be and Make ''काली -श्रीरामकृष्ण ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"-में प्रशिक्षित होकर -नित्य वस्तु , इन्द्रियातीत सत्य (ब्रह्म) का साक्षात्कार करना चाहिए।) फिर अविनाशी ,नित्य वस्तु (ब्रह्म) का दर्शन करने के बाद, नित्य से लीला में उतर कर, भक्ति और भक्त को लेकर रहना पड़ता है ! यही मेरा परिपक्व मत है ! ]
“उनके अनेक रूप, अनेक लीलाएँ हैं । ईश्वर-लीला, देव-लीला, नर-लीला, जगत्-लीला ।
वे मानव बनकर, अवतार (गुरु -नेता -पैगम्बर वरिष्ठ) होकर युग युग में आते हैं – प्रेम-भक्ति सिखाने के लिए । देखो न चैतन्यदेव को । अवतार द्वारा ही उनके प्रेम तथा भक्ति का आस्वादन किया जा सकता है ।उनकी अनन्त लीलाएँ हैं – परन्तु मुझे आवश्यकता है प्रेम तथा भक्ति की ।
मुझे तो सिर्फ दूध चाहिए । गाय के स्तनों से ही दूध आता है । अवतार गाय के स्तन हैं ।”
{“তাঁর নানারূপ, নানালীলা — ঈশ্বরলীলা, দেবলীলা, নরলীলা, জগৎলীলা; তিনি মানুষ হয়ে অবতার হয়ে যুগে যুগে আসেন, প্রেমভক্তি শিখাবার জন্য। দেখ না চৈতন্যদেব। অবতারের ভিতরেই তাঁর প্রেম-ভক্তি আস্বাদন করা যায়। তাঁর অনন্ত লীলা — কিন্তু আমার দরকার প্রেম, ভক্তি। আমার ক্ষীরটুকু দরকার। গাভীর বাঁট দিয়েই ক্ষীর আসে। অবতার গাভীর বাঁট।”
"God has different forms, and He sports in different ways. He sports as Isvara, deva, man, and the universe. In every age He descends to earth in human form, as an Incarnation, to teach people love and devotion. There is the instance of Chaitanya. One can taste devotion and love of God only through His Incarnations. Infinite are the ways of God's play, but what I need is love and devotion. I want only the milk. The milk comes through the udder of the cow. The Incarnation is the udder."}
क्या श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि वे अवतीर्ण हुए हैं, उनका दर्शन करने से ही ईश्वर का दर्शन होता है ? चैतन्यदेव का उल्लेख कर क्या श्रीरामकृष्ण अपनी ओर संकेत कर रहे हैं ?
[ঠাকুর কি বলিতেছেন যে, আমি অবতীর্ণ হইয়াছি, আমাকে দর্শন করিলেই ঈশ্বরদর্শন করা হয়? চৈতন্যদেবের কথা বলিয়া ঠাকুর কি নিজের কথা ইঙ্গিত করিতেছেন?
Was Sri Ramakrishna hinting that he was an Incarnation of God? Did he suggest that those who saw him saw God? Did he thus speak about himself when speaking of Chaitanya?
[(18 जून, 1883)परिच्छेद ~ 42, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]
[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* ]
*परिच्छेद~४२*
*पानीहाटी महोत्सव में*
(१)
*कीर्तनानन्द में-क्या ठाकुर श्री गौरांग हैं?*
श्रीरामकृष्ण पानीहाटी के महोत्सव में राजपथ पर बहुत लोगों से घिरे हुए संकीर्तनदल के बीच में नृत्य कर रहे हैं । दिन का एक बजा है । आज सोमवार, ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी तिथि है । तारीख 18 जून 1883 ई. ।
संकीर्तन के बीच में श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए चारों ओर लोग कतार बाँधकर खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण प्रेम में मतवाले हो नाच रहे हैं । कोई कोई सोच रहे हैं कि क्या श्रीगौरांग फिर प्रकट हुए हैं? चारों ओर हरि-ध्वनि सागर की तरंगों के समान उमड़ रही है । चारों ओर से लोग फूल बरसा रहे हैं और बतासे लुटा रहे हैं ।
श्री नवद्वीप गोस्वामी संकीर्तन करते हुए राघव पण्डित के मन्दिर की ओर आ रहे थे कि एकाएक श्रीरामकृष्ण दौड़कर उनसे आ मिले और नाचने लगे ।
यह राघव पण्डित का ‘चिउड़े का महोत्सव’ है । शुक्लपक्ष की त्रयोदशी तिथि पर प्रतिवर्ष महोसव होता है । इस महोत्सव को पहले दास रघुनाथ ने किया था । उसके बाद राघव पण्डित प्रतिवर्ष करते थे ।
दास रघुनाथ से नित्यानन्द ने कहा था, “अरे, तू घर से केवल भाग-भागकर आता है, और हमसे छिपाकर प्रेम का स्वाद लेता रहता है ! हमें पता तक नहीं लगने देता । आज तुझे दण्ड दूँगा; तू चिउड़े का महोत्सव करके भक्तों की सेवा कर ।” श्रीरामकृष्ण प्रायः प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं, आज भी यहाँ राम आदि भक्तों के साथ आनेवाले थे । राम सबेरे मास्टर के साथ कलकत्ते से दक्षिणेश्वर आये । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर वहीँ उत्तरवाले बरामदे में उन्होंने प्रसाद पाया । राम कलकत्ते से जिस गाड़ी पर आये थे, उसी पर श्रीरामकृष्ण पानीहाटी आये । राखाल, मास्टर, राम, भवनाथ तथा और भी दो-एक भक्त उनके साथ थे ।
गाड़ी मैगजीन रोड से होकर चानक के बड़े रास्ते पर आयी । जाते जाते श्रीरामकृष्ण बालक भक्तों से विनोद करने लगे ।
पानीहाटी के महोत्सव-स्थल पर गाड़ी पहुँचते ही राम आदि भक्त यह देखकर विस्मित हुए कि श्रीरामकृष्ण जो अभी गाड़ी में विनोद कर रहे थे, एकाएक अकेले ही उतरकर बड़े वेग से दौड़ रहे हैं । बहुत ढूँढ़ने पर उन्होंने देखा कि वे नवद्वीप गोस्वामी के संकीर्तन के दल में नृत्य कर रहे हैं और बीच बीच में समाधिस्थ भी हो रहे हैं । समाधि की दशा में कहीं वे गिर न पड़ें, इसलिए नवद्वीप गोस्वामी उन्हें बड़े यत्न से सम्हाल रहे हैं । चारों ओर भक्तगण हरि-ध्वनि कर उनके चरणों पर फूल और बतासे चढ़ा रहे हैं और एक बार उनके दर्शन पाने के लिए धक्कम धक्का कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण अर्धबाह्य दशा में नृत्य कर रहे हैं । फिर बाह्य दशा में आकर वे गाने लगे-
जादेर हरि बोलते नयन झरे, तारा,
तारा दूभाई एसेछे रे।
जारा आपनि केंदे जगत् कांदाय
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। १
जारा आपनि नेचे /मेते जगत् नाचाय /माताय,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।
जारा मार खेये प्रेम जाचे,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। २
जारा व्रजेर कानाइ-बलाइ ,
तारा तारा दुभाइ एसेंछे रे।
जारा व्रजेर माखनचोर,
तारा तारा दुभाइ एसेछे 'रे ।। ३
जारा जातिर विचार नाहि करे ,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।
जारा आपामरे कोल देय ,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। ४
जारा हरि होये हरि छोले ,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।
जारा राधार प्रेमे मातोवारा ,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।। ५
जारा जगाइ-माधाइ उद्धारिलो,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।
जारा आपन-पर नाहि बाचे,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।।६
जीब तराते,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।
निताई-गौर,
तारा तारा दुभाइ एसेछे रे ।।७
(भावार्थ)- “देखो, वे दो भाई आए हैं, हरि का नाम लेते ही जिनकी आँखों से आँसूओं की झड़ी लग जाती है, वे दोनों भाई ^ (श्री गौरांग और नित्यानन्द) आये हैं; जो स्वयं नाचकर जगत् को नचाते हैं, वे दोनों भाई आये हैं जो स्वयं रोकर जगत् को रुलाते हैं, और जो मार खाकर भी प्रेम की याचना करते हैं, वे आये हैं।”
" उन्हें देखो, जो हरि-प्रेम के नशे से चूर होकर , पूरी दुनिया को भी ईश्वर -प्रेम में मतवाला बना देते हैं! देखो, ये वही दो भाई आए हैं, जो कभी ब्रज के कनाई (कन्हैया) और बलाई (बलराम) थे,और जो गोपियों के घड़े से माखन चुराते थे। "देखो, वे दोनो आ गए हैं, जिन्होंने जाति-भेद के सभी नियमों को तोड़ दिया है, यहाँ तक कि अछूत बोलकर जाती-वहिष्कृत लोगों को अपना भाई समझकर आलिंगन करते हैं।
" जो हरि का नाम सुनकर खुद को भूल जाते हैं, और उनके नाम से दुनिया को भी मतवाला बना देते हैं; जो कोई और नहीं बल्कि स्वयं हरि हैं, और उनके पवित्र नाम का जप करते हैं ! उन्हें देखो, जिन्होंने दो आतताइयों जगाई और मधाई ^ को पापपूर्ण रास्तों से चलने से बचा लिया। वे वैसे महापुरुष है जो मित्र और शत्रु के बीच अंतर नहीं कर सकते!सम्पूर्ण मानव- जाति को बचाने के लिए , देखो वही दोनों भाई 'गौर और निताई ' फिर से अवतरित हुए हैं।}
{ ^ जगाई- मधाईपश्चिम बंगाल के नदिया जिले के रहने वाले दो आततायी (ruffians)भाई थे। इनका जन्म एक कुलीन ब्राम्हण परिवार में हुआ था लेकिन ये दोनों भाई दुर्व्यसनों से भरे हुए थे। वो मांस और मदिरा का सेवन करते थे। गांव की औरतों का पीछा करते थे। ब्राम्हण होने के बावजूद वो पूरी तरह से पथभ्रष्ट हो चुके थे। एक बार चैतन्य महाप्रभु के शिष्य नित्यानन्द प्रभु उनके पास आए और जगाई-मधाई बंधुओं से कहा कि तुमलोग इन दुर्व्यसनों को छोड़ कर हरि के नाम में डूब जाओ। यह सुनते ही दोनों भाई क्रोधित हो गए और नित्यानन्द प्रभु को पत्थर फेंक कर मारा, उनका सिर फूट गया ।लेकिन बदले नित्यानन्द ने उन्हें इतना प्रेम दिया कि उनका पापपूर्ण जीवन भी आध्यात्मिक जीवन में परिवर्तित हो गया था।}
{Behold, the two brothers ^ have come, who weep while chanting Hari's name, The brothers who dance in ecstasy and make the world dance in His name! Behold them, weeping themselves, and making the whole world weep as well, The brothers who, in return for blows, offer to sinners Hari's love. Behold them, drunk with Hari's love, who make the world drunk as well! Behold, the two brothers have come, who once were Kanai and Balai of Braja, They who would steal the butter out of the pots of the gopi maids. Behold, the two have come, who shatter all the rules of caste, Embracing everyone as brother, even the outcaste shunned by men; Who lose themselves in Hari's name, making the whole world mad; Who are none other than Hari Himself, and chant His hallowed name! Behold them, who saved from their sinful ways the ruffians Jagai and Madhai, ^ They who cannot distinguish between a friend and an enemy! Behold the two brothers, Gaur and Nitai, who come again to save mankind.}
श्रीरामकृष्ण के साथ सब उन्मत्त हो नाच रहे हैं, और अनुभव कर रहे हैं कि गौरांग और निताई हमारे सामने नाच रहे हैं ।
(भावार्थ)- “गौरांग के प्रेम के हिलोरों से नवद्वीप डाँवाडोल हो रहा है ।”
संकीर्तन की तरंग राघव के मन्दिर की ओर बढ़ रही है । वहाँ परिक्रमा और नृत्य आदि करने के बाद श्रीविग्रह को प्रणाम कर वहतरंगायित जनसंघ गंगातट पर अवस्थित श्रीराधाकृष्ण के मन्दिर की ओर बढ़ रहा है ।
संकीर्तनकारों में से कुछ ही लोग श्रीराधाकृष्ण के मन्दिर में घुस पाये हैं । अधिकांश लोग दरवाजे से ही एक दूसरे को ढकेलते हुए झाँक रहे हैं ।
*श्री श्री राधाकृष्ण के प्रांगण में नृत्य *
श्रीरामकृष्ण श्रीराधाकृष्ण के आँगन में फिर नाच रहे हैं । कीर्तनानन्द में बिलकुल मस्त हैं ! बीच बीच में समाधिस्थ हो रहे हैं और चारों ओर से फूल-बतासे चरणों पर पड़ रहे हैं । आँगन के भीतर बारम्बार हरि-ध्वनि हो रही है । वही ध्वनि सड़क पर आते ही हजारों कण्ठों से उच्चारित होने लगी । गंगा पर नावों से आने-जानेवाले लोग चकित होकर इस सागर-गर्जन के समान उठती हुई ध्वनि को सुनने लगे और वे स्वयं भी ‘हरिबोल’; हरिबोल’ कहने लगे ।
पानीहाटी के महोत्सव में एकत्रित हजारों नर-नारी सोच रहे हैं कि इन महापुरुष के भीतर निश्चित ही श्रीगौरांग का आविर्भाव हुआ है । दो-एक आदमी यह विचार कर रहे हैं कि शायद ये ही साक्षात् गौरांग हों ।
छोटे से आँगन में बहुत से लोग एकत्रित हुए हैं । भक्तगण बड़े यत्न से श्रीरामकृष्ण को बाहर लाये ।
[श्रीमणि सेन के बैठक कक्ष में ~ भगवान श्रीरामकृष्ण ]
श्रीरामकृष्ण श्री मणि सेन की बैठक में आकर बैठे । इन्हीं सेन परिवारवालों की और से पानीहाटी में श्रीराधाकृष्ण की सेवा होती है । वे ही प्रतिवर्ष महोत्सव का आयोजन करते हैं और श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देते हैं ।’
श्रीरामकृष्ण के कुछ विश्राम करने के बाद मणि सेन और उनके गुरुदेव नवद्वीप गोस्वामी ने उनको अलग ले जाकर भोजन कराया । कुछ देर बाद राम, राखाल, मास्टर आदि भक्त एक दूसरे कमरे में बिठाये गये । भक्तवत्सल श्रीरामकृष्ण स्वयं खड़े हो आनन्द करते हुए उनको खिला रहे हैं ।
(२)
[जगतगुरु श्रीरामकृष्ण ,श्री नवद्वीप गोस्वामी (मणि सेन के गुरु) को शिक्षा देते हुए ]
*अंतरतम अवस्था, अर्धचेतन अवस्था और चेतन अवस्था।*
(The inmost state, the semi-conscious state, and the conscious state.)
*श्रीगौरांग को भाव , महाभाव और प्रेम तीनों अवस्थाओं का अनुभव *
दोपहर का समय है । राखाल, राम आदि भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण मणि सेन की बैठक में विराजमान हैं । नवद्वीप गोस्वामी भोजन करके श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे हैं ।
मणि सेन ने श्रीरामकृष्ण को गाड़ी का किराया देना चाहा । श्रीरामकृष्ण बैठक में एक कोच पर बैठे हैं,“और कहते हैं गाड़ी का किराया वे लोग (राम आदि) क्यों लेंगे ? वे तो पैसा कमाते हैं ।”
अब श्रीरामकृष्ण नवद्वीप गोस्वामी से ईश्वरी प्रसंग करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण (नवद्वीप से)- 'भक्ति' के परिपक्व होने पर 'भाव' होता है, फिर 'महाभाव', फिर 'प्रेम', फिर 'वस्तु-लाभ' (ईश्वर) का लाभ होता है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (নবদ্বীপের প্রতি) — ভক্তি পাকলে ভাব — তারপর মহাভাব — তারপর প্রেম —তারপর বস্তুলাভ (ঈশ্বরলাভ)।
"Bhakti matured becomes bhava. Next is mahabhava, then prema, and last of all is the attainment of God.]
“गौरांग को महाभाव और प्रेम की अवस्था का अनुभव हुआ था ।”
[“গৌরাঙ্গের — মহাভাব, প্রেম।
Gauranga experienced the states of mahabhava and prema. ]
“इस प्रेम के होने पर मनुष्य जगत् को तो भूल ही जाता है बल्कि अपना शरीर, जो इतना प्रिय है, उसकी भी सुधि नहीं रहती । गौरांग को यह प्रेम हुआ था । समुद्र को देखते ही यमुना समझकर वे उसमें कूद पड़े !
[“এই প্রেম হলে জগৎ তো ভুল হয়ে যাবেই। আবার নিজের দেহ যে এত প্রিয় তাও ভুল হয়ে যায়! গৌরাঙ্গের এই প্রেম হয়েছিল। সমুদ্র দেখে যমুনা ভেবে ঝাঁপ দিয়ে পড়ল।
When prema is awakened, a devotee completely forgets the world; he also forgets his body, which is so dear to a man. Gauranga experienced prema. He jumped into the ocean, thinking it to be the Jamuna. ]
“जीवों को महाभाव या प्रेम नहीं होता, उनको भाव तक ही होता है । लेकिन (अवतार/नेता /गुरु ) श्री गौरांग को - भाव , महाभाव और प्रेम ' इन तीनों अवस्थाओं का अनुभव होता था।”
[“জীবের মহাভাব বা প্রেম হয় না — তাদের ভাব পর্যন্ত। আর গৌরাঙ্গের তিনটি অবস্থা হত। কেমন?”
The ordinary jiva does not experience mahabhava or prema. He goes only as far as bhava. But Gauranga experienced all three states. Isn't that so?"]
नवद्वीप-जी हाँ । अन्तर्दशा(केन्द्र के समीपस्थ अवस्था,The inmost state), अर्धबाह्य दशा (आधा सचेत अवस्था,the semi-conscious state)और बाह्य दशा (जाग्रत या प्रबुद्ध अवस्था,theconscious state !) ।
[নবদ্বীপ — আজ্ঞা হাঁ। অন্তর্দশা, অর্ধবাহ্যদশা আর বাহ্যদশা।
"Yes, sir, that is true. The inmost state, the semi-conscious state, and the conscious state."
श्रीरामकृष्ण- अन्तर्दशा (केन्द्र के समीपस्थ अवस्था) में वे समाधिस्थ रहते थे, अर्धबाह्य दशा (आधा सचेत अवस्था) में केवल नृत्य कर सकते थे, और बाह्य दशा (जाग्रत या प्रबुद्ध अवस्था) में नामसंकीर्तन करते थे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — অন্তর্দশায় তিনি সমাধিস্থ থাকতেন। অর্ধবাহ্যদশায় কেবল নৃত্য করতে পারতেন। বাহ্যদশায় নামসংকীর্তন করতেন।
"In the inmost state he would remain in samadhi , unconscious of the outer world. In the semi-conscious state he could only dance. In the conscious state he chanted the name of God."
नवद्वीप ने अपने लड़के को लाकर श्रीरामकृष्ण से परिचित करा दिया । वे तरुण हैं - शास्त्र का अध्ययन करते हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
नवद्वीप- यह घर में शास्त्र पढ़ता है । इस देश में वेद एक प्रकार से अप्राप्य ही थे । मैक्समूलर ने उन्हें छपवाया, इसी से तो लोग अब उनको पढ़ सकते हैं ।
["He studies the scriptures at home. Previously one hardly saw a copy of the Vedas in this country. Max Müller has translated them; so people can now read these books."
*शास्त्र -अध्यनपाण्डित्य प्रदर्शन के लिए नहीं, केवल शास्त्र का सार जानने के लिए *
श्रीरामकृष्ण- अधिक शास्त्र पढ़ने से और भी हानि होती है ।
“शास्त्र का सार जान लेना चाहिए । फिर ग्रन्थ की क्या आवश्यकता है ?
“शास्त्र का सार जान लेने पर डूबकी लगानी चाहिए (3H विकास के 5 अभ्यास में कूद पड़ना चाहिए) – ईश्वर का लाभ करने के लिए ।
[বেশি শাস্ত্র পড়াতে আরও হানি হয়।“শাস্ত্রের সার জেনে নিতে হয়। তারপর আর গ্রন্থের কি দরকার!“সারটুকু জেনে ডুব মারতে হয় — ঈশ্বরলাভের জন্য।
"Too much study of the scriptures does more harm than good. The important thing is to know the essence of the scriptures. After that, what is the need of books? One should learn the essence and then dive deep in order to realize God.]
“मुझे माँ ने बतला दिया है कि वेदान्त का सार है- ‘ब्रह्म सत्य और जगत् मिथ्या ।’
गीता का सार क्या है ? दस बार ‘गीता’ शब्द कहने से जो हो वही – अर्थात् त्यागी, त्यागी ।
[ “আমায় মা জানিয়ে দিয়েছেন, বেদান্তের সার — ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা। গীতার সার — দশবার গীতা বললে যা হয়, অর্থাৎ ‘ত্যাগী, ত্যাগী’।”
"The Divine Mother has revealed to me the essence of the Vedanta. It is that Brahman alone is real and the world illusory. The essence of the Gita is what you get by repeating the word ten times. The word becomes reversed. It is then 'tagi', which refers to renunciation. The essence of the Gita is: 'O man, renounce everything and practise spiritual discipline for the realization of God.'"
नवद्वीप- ठीक ‘त्यागी’ नहीं बनता, ‘तागी’ होता है । फिर उसका भी अर्थ वही है । ‘तग्’ धातु और ‘घञ्’ प्रत्यय=ताग उस पर ‘इन्’ प्रत्यय लगाने पर ‘तागी’ बनता है । ‘त्यागी’ का अर्थ जो है, ‘तागी’ का भी वही है ।
श्रीरामकृष्ण – गीता का सार यही है कि हे जीव, सब त्यागकर भगवान् का लाभ करने के लिए साधना करो ।
[The essence of the Gita is: 'O man, renounce everything and practise spiritual discipline (5 exercises of 3H development) for the realization of God.'"
*गृही भक्त के लिए 'कामिनी -कांचन त्याग' का अर्थ है -मन से आसक्ति का त्याग*
नवद्वीप- त्याग की ओर तो मन नहीं जाता !
[নবদ্বীপ — ত্যাগ করবার মন কই হচ্ছে?
"But how can we persuade our minds to renounce?"]
श्रीरामकृष्ण- तुम लोग गोस्वामी हो, तुम्हारे यहाँ देवसेवा होती है, - तुम्हारे संसार-त्याग करने पर काम नहीं चलेगा । ऐसा करने से देवसेवा कौन करेगा ? तुम लोग मन से त्याग करना ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমরা গোস্বামী, তোমাদের ঠাকুর সেবা আছে, — তোমাদের সংসার ত্যাগ করলে চলবে না। তাহলে ঠাকুর সেবা কে করবে? তোমরা মনে ত্যাগ করবে।
"You are a goswami (Leader). It is your duty to officiate as priest in the temple (Mahamandal). You cannot renounce the world; otherwise, who would look after the temple and its services-(Be and Make) ? You have to renounce mentally.{Mahamandal Leader's dutyis officiate as [C-IN-C or goswami) in camp, otherwise who would spread the 'Man-making and Charecter Building Education and its ' Be and Make ' Leadership Training Tradititon ? You have to renounce mentally.
“ईश्वर ही ने लोक -शिक्षा के लिए तुम लोगों को संसार में (गृहस्थ-जीवन में) रखा है । तुम हजार संकल्प करो, त्याग नहीं कर सकोगे । उन्होंने तुम्हें ऐसी प्रकृति दी है कि तुम्हें संसार का कामकाज करना ही पड़ेगा ।
{“তিনিই লোকশিক্ষার জন্য তোমাদের সংসারে রেখেছেন — তুমি হাজার মনে কর, ত্যাগ করতে পারবে না — তিনি এমন প্রকৃতি তোমায় দিয়েছেন যে, তোমায় সংসারে কাজই করতে হবে।
"It is God Himself who has kept you in the world to set an example to men. You may resolve in your mind a thousand times to renounce the world, but you will not succeed. God has given you such a nature that you must perform your worldly duties. }
“श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह तुम क्या कह रहे हो ? इच्छा करने ही से तुम युद्ध से निवृत्त न हो सकोगे । तुम्हारी प्रकृति तुमसे युद्ध करायेगी ।” (गीता 18 , 59)
[“কৃষ্ণ অর্জুনকে বলছেন — তুমি যুদ্ধ করবে না, কি বলছ? — তুমি ইচ্ছা করলেই যুদ্ধ থেকে নিবৃত্ত হতে পারবে না, তোমার প্রকৃতিতে তোমায় যুদ্ধ করাবে।”
"Krishna said to Arjuna: 'What do you mean, you will not fight? By your mere will you cannot desist from fighting. Your very nature will make you fight.'
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।
(गीता, 18.59)
यत् अहङ्कारम् आश्रित्य न योत्स्ये इति मन्यसे। मिथ्या एषः व्यवसायः ते प्रकृतिः त्वाम् नियोक्ष्यति।
18.59 If, filled with egoism, thou thinkest: "I will not fight", vain is this, thy resolve; Nature will compel thee.]
तुझे यह भी नहीं समझना चाहिये कि मैं तो कर्म करने में स्वतन्त्र हूँ , दूसरे का (या स्वामी जी का ?) कहना ' Be and Make ' मैं क्यों करूँ ? -- जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है -- ऐसा निश्चय कर रहा है कि , "मैं युद्ध नहीं करूँगा " (मैं ' Be and Make ' आन्दोलन का कर्मी नहीं बनूँगा ! ) तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है। क्योंकि तेरी प्रकृति -- तेरा क्षत्रियस्वभाव तुझे युद्ध में नियुक्त कर देगा।
और (व्यष्टि) अहंकार का आश्रय लेकर तुम जो यह सोच रहे हो कि , "मैं युद्ध नहीं करूंगा", तो तुम्हारा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है, क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति (तुम्हारा क्षत्रिय -स्वभाव) ही तुम्हें (बलात्) युद्ध में लगा देगी; अर्थात Be and Make ' कर्म में प्रवृत्त करेगी।]
श्रीकृष्ण अर्जुन से बातें कर रहे हैं- यह कहते ही श्रीरामकृष्ण फिर समाधिस्थ हो रहे हैं । बात ही बात में सब अंग स्थिर हो गये । आँखें एकटक हो गयीं । साँस चल रही है कि नहीं-जान नहीं पड़ता । नवद्वीप गोस्वामी, उनके लड़के और भक्तगण निर्वाक् हो यह दृश्य देख रहे हैं ।
[ गोस्वामी वंश के लिए योग और भोग दोनों है !]
कुछ प्रकृतिस्थ हो श्रीरामकृष्ण नवद्वीप गोस्वामी से कहते हैं-
“योग और भोग । तुम लोग गोस्वामी वंश के हो, तुम लोगों के लिए दोनों है ।
“अब केवल प्रार्थना, हार्दिक प्रार्थना करो कि हे ईश्वर, तुम्हारी इस भुवनमोहिनी माया के ऐश्वर्य को मैं नहीं चाहता - मैं तुम्हें चाहता हूँ ।
[“যোগ ভোগ। তোমরা গোস্বামীবংশ তোমাদের দুই-ই আছে।“এখন কেবল তাঁকে প্রার্থনা কর, আন্তরিক প্রার্থনা — ‘হে ঈশ্বর, তোমার এই ভুবনমোহিনী মায়ার ঐশ্বর্য — আমি চাই না — আমি তোমায় চাই।’
"Yoga and bhoga. You goswamis have both. Now your only duty is to call on God and pray to Him sincerely:'O God, I don't want the glories or Thy world-bewitching maya.(Bh) I want Thee alone!'
*भक्त और भगवान *
[राम सब में निवास करते हैं, भक्त राम में निवास करते हैं]
(Rama dwells in all, Devotees dwells in Rama )
प्रश्न : “ईश्वर तो सब प्राणियों में हैं -(ओहि राम घोट -घोट में लेटा) । फिर भक्त (राम-भक्त) किसे कहते हैं ?
{“তিনি তো সর্বভূতেই আছেন — তবে ভক্ত (नेता) কাকে বলে? যে তাঁতে থাকে — যার মন-প্রাণ-অন্তরাত্মা সব, তাঁতে গত হয়েছে।”
God dwells in all beings, undoubtedly. That being the case, who may be called His devotee?
जो ईश्वर में रहता है (वह है भक्त, नेता) , जिसका मन, प्राण, अन्तरात्मा – सब कुछ उसमें लीन हो गया है ।”
[He who dwells in God, he who has merged his mind and life and innermost soul in God."
अब श्रीरामकृष्ण सहज दशा में आ गये हैं । नवद्वीप से कहते हैं-“मुझे यह जो अवस्था (समाधि-अवस्था) होती है, इसे कोई कोई रोग कहते हैं । इस पर मेरा कहना यह है कि जिसके चैतन्य से जगत् चैतन्यमय है उसकी चिन्ता कर कोई अचैतन्य कैसे हो सकता है ?”
[“ঠাকুর এইবার সহজাবস্থা প্রাপ্ত হইয়াছেন। নবদ্বীপকে বলিতেছেন:“আমার এই যে অবস্থাটা হয় (সমাধি অবস্থা) কেউ কেউ বলে রোগ। আমি বলি যাঁর চৈতন্যে জগৎ চৈতন্য হয়ে রয়েছে, — তাঁর চিন্তা করে কেউ কি অচৈতন্য হয়?”
The Master returned to the sense plane. Referring to his samadhi, he said to Navadvip: "Some say that this state of mine is a disease. I say to them, "How can one become unconscious by thinking of Himwhose Consciousness has made the whole world conscious?']
मणि सेन अभ्यागत ब्राह्मणों और वैष्णवों को बिदा कर रहे हैं – उनकी मर्यादा के अनुसार किसी को एक रुपया, किसी को दो रुपये बिदाई देते हैं । श्रीरामकृष्ण को पाँच रुपये देने आये । आप बोले, “मुझे रुपये दोगे तो तुम्हें तुम्हारे गुरु की शपथ है ।’ मणि सेन इतने पर भी देने आये । तब श्रीरामकृष्ण ने अधीर होकर मास्टर से कहा, “क्यों जी, लेना चाहिए ?” मास्टर ने बड़ी आपत्ति करते हुए कहा, “जी नहीं ! किसी हालत में न लें !”
मणि सेन के घरवालों ने तब आम और मिठाई खरीदने के नाम पर राखाल के हाथ में रुपये दिए ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैंने गुरु की शपथ दी है – मैं अब मुक्त हूँ । राखाल ने रुपये लिए हैं – अब वह जाने !
[Friends of Mani Sen gave the money to Rakhal, requesting him to buy some mangoes and sweets for the Master. Sri Ramakrishna said to M.: "I have definitely said to Mani that I would not accept the money. I feel free now. But Rakhal has accepted it. His is now the responsibility."
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ गाड़ी पर बैठे – दक्षिणेश्वर लौट जाएँगे ।
*निराकार ध्यान और श्रीरामकृष्ण*
[Rejoicing like these Pawapuri Jain Temple fish
in Chidanand Sagar, the Ocean of Bliss and Consciousness.]
मार्ग में मती शील का मन्दिर है । श्रीरामकृष्ण बहुत दिनों से मास्टर से कहते आए हैं कि एक साथ आकर इस मन्दिर की झील को देखेंगे – यह सिखलाने के लिए कि निराकार ध्यान *कैसे करना चाहिए।
श्रीरामकृष्ण को खूब सर्दी हुई है, तथापि भक्तों के साथ मन्दिर देखने के लिए गाड़ी से उतरे ।
मन्दिर में श्रीगौरांग की पूजा होती है । अभी सन्ध्या होने में कुछ देर है । श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ गौरांग-मूर्ति के सम्मुख भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया ।
अब मन्दिर के पूर्व की ओर जो झील है; उसके घाट पर आकर झील का पानी और मछलियों को देख रहे हैं । कोई इन मछलियों की हिंसा नहीं करता । कुछ मूढ़ी फेंकने पर बड़ी बड़ी मछलियाँ झुण्ड के झुण्ड सामने आकर खाने लगती हैं – फिर निर्भय होकर आनन्द से पानी में घूमती-फिरती हैं ।
श्रीरामकृष्ण मास्टर से कहते हैं, “यह देखो कैसी मछलियाँ (कुम्भ) हैं ! चिदानन्द-सागर (जल) में इन मछलियों (कुम्भ) की तरह आनन्द से विचरण करो ।”
"Look at the fish. Meditating on the formless God is like swimming joyfully like these fish, in the Ocean of Bliss and Consciousness."
[*पानीहाटी के रास्ते में मति शील का मंदिर है जहाँबिहार के पावापुरी जैन-मंदिर के झील की तरह मछलियों की हिंसा नहीं की जाती, ताकि लोग चिदानन्दसागर में इन मछलियों की तरह आनन्द विहार करते देखकर निराकार का ध्यान कैसे किया जाता है ,यह सीख सकें। ]