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शनिवार, 15 मई 2021

$$परिच्छेद ~ 35, [(2 जून, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Inherited tendencies**बलराम के घर पर श्रीरामकृष्ण के नरलीला का दर्शन और अमर आनन्द का (Immortal Bliss) आस्वादन* मनुष्य बनने के लिये संन्यासी और गृहस्थ दोनों को विषयासक्ति (Inherited tendencies) छोड़ना अनिवार्य है* श्री ठाकुर देव की इष्टदेवी भवतारिणी माँ काली पर प्रेम हो जाने से पाप आदि स्वतः भाग जाते हैं * सच्चिदानन्द (ecstatic love-immortal Bliss) के मूर्त रूप (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) के प्रति प्रेमभक्ति*[The Humanity of वराह-अवतार“ पंच भूतेर फाँदे , ब्रह्म पड़े काँदे ।” ] [प्रेमा-भक्ति और ज्ञानमिश्रित-भक्ति ] *मुक्ति और भक्ति - गोपीप्रेम* * पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म रोते हैं *नरलीला का दर्शन और आस्वादन* *राजा हरिश्चन्द्र की कथा*संन्यासी और गृहस्थ - दोनों को विषयासक्ति छोड़नी होगी

   [(2 जून, 1883) परिच्छेद ~ 35, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) * साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

परिच्छेद~ ३५ 

(१) 

   [(2 जून, 1883) परिच्छेद ~ 35, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] 

*संन्यासी हो या  गृहस्थ, विषयासक्ति (Inherited tendencies of sensuality) छोड़ना अनिवार्य* 

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर से कलकत्ता आ रहे हैं । बलराम के मकान से होकर अधर के मकान पर और उसके बाद राम के मकान पर जाएँगे । अधर के मकान में मनोहर साँई का कीर्तन होगा । राम के घर पर कथा होगी । शनिवार, वैशाख कृष्णा द्वादशी, 2 जून 1883 ई. । 

श्रीरामकृष्ण गाड़ी में आते आते राखाल, मास्टर आदि भक्तों से कह रहे हैं, “देखो, उन पर  प्रेम हो जाने पर पाप आदि सब स्वतः भाग जाते हैं, जैसे धूप से मैदान के जलाशय का जल स्वतः ही सूख जाता है ।   (भवतारिणी माँ काली पर प्रेम हो जाने से पाप आदि स्वतः भाग जाते हैं> 

 विषय की वासना तथा कामिनी - कांचन में आसक्ति (मोह) रखने से कुछ नहीं होता । यदि 'कामिनी -कांचन ' के प्रति  जन्मजात आसक्ति (Inborn or Inherited tendencies/(जन्मजात या विरासत में मिली प्रवृत्ति)) बनी ही रहे  तो संन्यास  लेने पर भी कुछ नहीं होता - जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना।” 

{ঠাকুর গাড়ি করিয়া আসিতে আসিতে রাখাল ও মাস্টার প্রভৃতি ভক্তদের বলিতেছেন, “দেখ, তাঁর উপর ভালবাসা এলে পাপ-টাপ সব পালিয়ে যায়, সূর্যের তাপে যেমন মেঠো পুকুরে জল শুকিয়ে যায়।”

“বিষয়ের উপর, কামিনী-কাঞ্চনের উপর, ভালবাসা থাকলে হয় না। সন্ন্যাস করলেও হয় না যদি বিষয়াসক্তি থাকে। যেমন থুথু ফেলে আবার থুথু খাওয়া!”

As they drove along, Sri Ramakrishna said to the devotees: "You see, sin flies away when love of God  grows in a man's heart,  even as the water of the reservoir dug in a meadow dries up under the heat of the sun. But one cannot love God if one feels attracted to worldly things, to 'woman and gold'.  Merely taking the vow of monastic life will not help a man if he is attached to the world. It is like swallowing your own spittle after spitting it out on the ground."

थोड़ी देर बाद गाड़ी में श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, “ब्राह्मसमाजी लोग साकार को नहीं मानते । (हँसकर- माँ भवतारिणी काली को ) नरेन्द्र कहता है, ‘पुत्तलिका’ ! [- अर्थात  साकार रूप वाला भगवान -'माँ काली' मात्र एक मूर्ति है !-- God with form is a mere idol !)  फिर कहता है, ‘वे (श्री ठाकुर देव) अभी तक कालीमन्दिर में जाते हैं ।’ 

{কিয়ৎক্ষণ পরে গাড়িতে ঠাকুর আবার বলিতেছেন, “ব্রহ্মজ্ঞানীরা সাকার মানে না। (সহাস্যে) নরেন্দ্র বলে ‘পুত্তলিকা’! আবার বলে, ‘উনি এখনও কালীঘরে যান’!”

"The members of the Brahmo Samaj do not accept God with form. Narendra says that God with form is a mere idol. He says further: 'What? He (Referring to the Master.) still goes to the Kali temple!'"

 * श्रीरामकृष्ण के नरलीला का दर्शन और अमर आनन्द का (Immortal Bliss) आस्वादन*

श्रीरामकृष्ण और उनका संगत (party) बलराम के घर पर आए हैं । वे एकाएक भावाविष्ट हो गए हैं । सम्भव हैं, देख रहे हैं, ईश्वर ही जीव तथा जगत् बने हुए हैं, ईश्वर ही मनुष्य बनकर घूम रहे हैं । जगन्माता से कह रहे हैं, “माँ, यह क्या दिखा रही हो ? रुक जाओ; यह सब क्या दिखा रही हो ? राखाल आदि के द्वारा क्या क्या दिखा रही हो, माँ ! रूप आदि सब उड़ गया । अच्छा माँ, मनुष्य का शरीर तो केवल ऊपर का खोल (pillow-case) ही है न? चैतन्य (Consciousness रूपी रुई ) तुम्हारा ही है । 

[ঠাকুর হঠাৎ ভাবাবিষ্ট হইয়াছেন। বুঝি দেখিতেছেন, ঈশ্বরই জীবজগৎ হইয়া রহিয়াছেন, ঈশ্বরই মানুষ হইয়া বেড়াইতেছেন। জগন্মাতাকে বলিতেছেন, “মা, একি দেখাচ্ছ! থাম; আবার কত কি! রাখাল-টাখালকে দিয়ে কি দেখাচ্ছ! রূপ-টুপ সব উড়ে গেল। তা মা, মানুষ তো কেবল খোলটা বই তো নয়। চৈতন্য তোমারই।

"Mother, what is all this? Stop! What are these things Thou art showing to me? What is it that Thou dost reveal to me through Rakhal and others? The form is disappearing. But, Mother, what people call 'man' is only a pillow-case, nothing but a pillow-case. Consciousness is Thine alone.

“माँ, आजकल के ब्रह्मज्ञानी 'मीठा रस' (sweet-Bliss, माँ का अमृत आनन्द-immortal Bliss  ) का स्वाद चखे बिना ही अपने को ब्रह्मज्ञानी समझ लेते हैं। इसलिए उनकी आँखें सूखी-सूखी , चेहरा रुखा- रुखा रहता है ! सच्चिदानन्द (ecstatic love) के मूर्त रूप (अवतार वरिष्ठ ठाकुरदेव) के प्रति प्रेमभक्ति न होने से कुछ न हुआ ! 

{“মা, ইদানীং ব্রহ্মজ্ঞানীরা মিষ্টরস পায় নাই। চোখ শুকনো, মুখ শুকনো! প্রেমভক্তি না হলে কিছুই হল না।

"The modern Brahmajnanis have not tasted Thy sweet bliss (immortal Bliss) . Their eyes look dry and so do their faces. They won't achieve anything without ecstatic love of God.

“माँ, तुमसे कहा था,- ' एक व्यक्ति को साथी बना दो, मेरे जैसे किसी को ! इसीलिए राखाल को दिया है न ?”

{“মা, তোমাকে বলেছিলাম, একজনকে সঙ্গী করে দাও আমার মতো। তাই বুঝি রাখালকে দিয়েছ।”

"Mother, once I asked Thee to give me a companion just like myself. Is that why Thou hast given me Rakhal?"

*जब माँ काली मुक्ति देना चाहेंगी -उस समय साधुसंग और व्याकुलता देंगी * 

श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं । मनोहर साँई के कीर्तन की तैयारी हो रही है । 

श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए अधर के बैठकघर में अनेक भक्त तथा पड़ोसी आए हैं । सभी की इच्छा है कि श्रीरामकृष्ण कुछ कहें ।  

श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) -  सांसारिकता (worldliness-कामिनी-कांचन में आसक्ति ) और मुक्ति (भ्रममुक्ति -liberation, de -Hypnotization)  दोनों ही ईश्वर (माँ काली)  की इच्छा पर निर्भर हैं । उन्होंने ही हमें सांसारिकता में, या अज्ञान की अवस्था (सम्मोहित अवस्था - Hypnotized अवस्था -भेंड़त्व की अवस्था) में बनाकर रखा है । फिर जिस समय वे अपनी इच्छा से पुकारेंगे, उसी समय मुक्ति होगी। लड़का खेलने गया है, खाने के समय माँ बुला लेती है । 

“जिस समय वे मुक्ति देंगे उस समय वे साधुसंग (holy men-मार्गदर्शक नेता या नवनीदा जैसे जीवन- मुक्त शिक्षक का संग) करा देते हैं और फिर अपने को पाने के लिए (परम् सत्य को देखने की)  व्कुलता उत्पन्न कर देते हैं ।”

 [ और तब विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में प्रशिक्षित नवनीदा का संग और इन्द्रियातीत सत्य, तुरीयं सच्चिदानन्द को देखने की प्रणाली मनःसंयोग का प्रशिक्षण प्राप्त होता है।] "

{সংসার আর মুক্তি দুই ঈশ্বরের ইচ্ছা। তিনিই সংসারে অজ্ঞান করে রেখেছেন; আবার তিনিই ইচ্ছা করে যখন ডাকবেন তখন মুক্তি হবে। ছেলে খেলতে গেছে, খাবার সময় মা ডাকে।

“যখন তিনি মুক্তি দেবেন তখন তিনি সাধুসঙ্গ করিয়ে নেন। আবার তাঁকে  পাবার জন্য ব্যাকুলতা করে দেন।”

 "Both worldliness and liberation depend on God's will. It is God alone who has kept man in the world in a state of ignorance; and man will be free when God, of His own sweet will, calls him to Himself. It is like the mother calling the child at meal-time, when he is out playing. When the time comes for setting a man free, God makes him seek the company of holy men (Like C-IN-C Navani Da). Further, it is God who makes him restless for spiritual life."

पड़ोसी- महाराज, किस प्रकार की व्याकुलता होती है ? 

[প্রতিবেশী — মহাশয়, কিরকম ব্যাকুলতা?

প্রতিবেশী — মহাশয়, কিরকম ব্যাকুলতা? "What kind of restlessness, sir?"

श्रीरामकृष्ण- नौकरी छूट जाने पर क्लर्क को जिस प्रकार व्याकुलता होती है । वह जिस प्रकार रोज आफिस में घूमता है और पूछता रहता है, ‘साहब, कोई नौकरी की जगह खाली हुई?’ व्याकुलता होने पर मनुष्य छटपटाता है- कैसे ईश्वर को पाऊँ ! 

“और यदि मूँछों पर हाथ फेरते हुए पैर पर पैर धरकर बैठे बैठे पान चबा रहा है- कोई चिन्ता नहीं, तो ऐसी स्थिति में ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती !” 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্ম গেলে কেরানির যেমন ব্যাকুলতা হয়! সে যেমন রোজ আফিসে আফিসে ঘোরে, আর জিজ্ঞাসা করে, হ্যাঁগা কোনও কর্মখালি হয়েছে? ব্যাকুলতা হলে ছটফট করে — কিসে ঈশ্বরকে পাব!

“গোঁপে চাড়া, পায়ের উপর পা দিয়ে বসে আছেন, পান চিবুচ্ছেন, কোন ভাবনা নেই এরূপ অবস্থা হলে ঈশ্বরলাভ হয় না!”

"Like the restlessness of a clerk who has lost his job. He makes the round of the offices daily and asks whether there is any vacancy. When that restlessness comes, man longs for God. A fop, seated comfortably with one leg over the other, chewing betel-leaf and twirling his moustaches — a carefree dandy —, cannot attain God."

पड़ोसी- साधुसंग होने पर क्या व्याकुलता हो सकती है ? 

[প্রতিবেশী — সাধুসঙ্গ হলে এই ব্যাকুলতা হতে পারে? NEIGHBOUR: "Can one get this longing for God through frequenting the company of holy men [holy men-CINC नवनीदा या महामण्डल का संग]?"

श्रीरामकृष्ण- हाँ, हो सकती है, परन्तु पुराने पाखण्डियों (confirmed scoundrel) को नहीं होती । साधु का कमण्डल चारों धाम होकर आने पर भी कडुए का कडुआ ही रह जाता है ! 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, হতে পারে, তবে পাষণ্ডের হয় না। সাধুর কমণ্ডলু চার-ধাম করে এল, তবু যেমন তেতো তেমনি তেতো!MASTER:

 "Yes, it is possible. But not for a confirmed scoundrel. A sannyasi's kamandalu, made of bitter gourd, travels with him to the four great places of pilgrimage but still does not lose its bitterness."

अब कीर्तन शुरू हुआ है; गोस्वामी श्री कृष्ण चरित (कलह-संवाद) गा रहे हैं- “श्रीमती कह रही हैं, ‘सखि ! प्राण जाता है, कृष्ण को ला दे !’ 

[এইবার কীর্তন আরম্ভ হইয়াছে। গোস্বামী কলহান্তরিতা গাইতেছেন:শ্রীমতী বলছেন, সখি, প্রাণ যায়, কৃষ্ণ এনে দে! The kirtan began. The musician sang of Sri Krishna's life in Vrindavan:RADHA: "Friend, I am about to die. Give me back my Krishna."]

सखी - ‘राधे, कृष्णरूपी मेघ बरसता ही था; परन्तु तूने मान (प्रेमकोप-) रूपी आँधी से उस मेघ को उड़ा दिया । तू कृष्ण के सुख में सुखी नहीं है; नहीं तो मान क्यों करती?’ 

[সখী — রাধে, কৃষ্ণমেঘে বরিষণ হত, কিন্তু তুই মান-ঝঞ্ঝাবাতে মেঘ উড়াইলি। তুই কৃষ্ণসুখে সুখী নস্‌, তাহলে মান করবি কেন?

FRIEND: "But, Radha, the cloud of Krishna was ready to burst into rain. It was yourself who blew it away with the strong wind of your pique (अभिमान) . You are certainly not happy to see Krishna happy; or why were you piqued?"

श्रीमती/ श्रीराधा - ‘सखि, मान तो मेरा नहीं है । जिसका मान है उसी के साथ चला गया है ।’ 

[শ্রীমতী — সখি, মান তো আমার নয়। যার মান তার সঙ্গে গেছে। RADHA: "But this pride was not mine. My pride has gone away with Him who made me proud."

ललिता श्रीमती की ओर से कुछ कह रही है- ‘सबने मिलकर प्रीत की .....सबहुँ मिली कैंयली प्रीत ...कोई देखौली घाटे माठे , विशाखा देखौली चित्रपटे!   

अब कीर्तन में गोस्वामी कह रहे हैं कि सखियाँ राधाकुण्ड के पास श्रीकृष्ण की खोज करने लगीं । उसके बाद यमुनातट पर श्रीकृष्ण का दर्शन, साथ में श्रीदाम, सुदाम,मधुमंगल । वृन्दा के साथ श्रीकृष्ण का वार्तालाप, श्रीकृष्ण का योगी का-सा भेस, जटिला-संवाद, राधा का भिक्षादान, राधा का हाथ देख योगी द्वारा गणना तथा संकट की भविष्यवाणी कात्यायनी की पूजा में जाने की तैयारी । कीर्तन समाप्त हुआ। श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं ।

[The Humanity of Avatars, वराह-अवतार]

“ माँ कात्यायनी की पूजा करनी ही पड़ती है - पंच भूतेर फाँदे , ब्रह्म पड़े काँदे ।”

श्रीरामकृष्ण-गोपियों ने कात्यायनी की पूजा की थी । सभी उस महामाया आद्याशक्ति ( Primal Energy) के अधीन हैं । अवतार आदि तक उस माया का आश्रय लेकर ही लीला करते हैं; इसीलिए वे आद्याशक्ति की पूजा करते हैं । देखो न, राम सीता के लिए कितने रोये हैं । (हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥) पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म रोते हैं *।

 [हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम विष्णु के अवतार थे। इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिये मार्गदर्शन देना था। ] 

 {শ্রীরামকৃষ্ণ — গোপীরা কাত্যায়নীপূজা করেছিলেন। সকলেই সেই মহামায়া আদ্যাশক্তির অধীনে। অবতার আদি পর্যন্ত মায়া আশ্রয় করে তবে লীলা করেন। তাই তাঁরা আদ্যাশক্তির পূজা করেন। দেখ না, রাম সীতার জন্য কত কেঁদেছেন। “পঞ্চভূতের ফাঁদে, ব্রহ্ম পড়ে কাঁদে।”

"The gopis worshipped Katyayani in order to be united with Sri Krishna. Everyone is under the authority of the Divine Mother, Mahamaya, the Primal Energy. Even the Incarnations of God accept the help of maya to fulfil their mission on earth. Therefore they worship the Primal Energy. Don't you see how bitterly Rama wept tor Sita? 'Brahman weeps, ensnared in the meshes of maya.'

“हिरण्याक्ष का वध कर वराह-अवतार कच्चे-बच्चे लेकर रह रहे थे । आत्मविस्मृत होकर उन्हें स्तनपान करा रहे थे । देवताओ ने परामर्श करके शिवजी को भेज दिया । शिवजी ने त्रिशूल के आघात से वराह का शरीर विनष्ट कर दिया; तब वे स्वधाम में पधारे । शिवजी ने पूछा था -  ‘तुम आत्मविस्मृत क्यों हो गये हो?’ इस पर विष्णु ने सूअर के शरीर में रहते हुए भी कहा था, ‘क्यों , मैं तो बहुत मजे में हूँ !” 

{“হিরণ্যাক্ষকে বধ করে বরাহ অবতার ছানা-পোনা নিয়ে ছিলেন। আত্মবিস্মৃত হয়ে তাদের মাই দিচ্ছিলেন! দেবতারা পরামর্শ করে শিবকে পাঠিয়ে দিলেন। শিব শূলের আঘাতে বরাহের দেহ ভেঙে দিলেন; তবে তিনি স্বধামে চলে গেলেন। শিব জিজ্ঞাসা করেছিলেন, তুমি আত্মবিস্মৃত হয়ে আছ কেন? তাতে তিনি বলেছিলেন, আমি বেশ আছি!”

"Vishnu incarnated himself as a sow in order to kill the demon Hiranyaksha. After killing the demon, the sow remained quite happy with her young ones. Forgetting her real nature, she was suckling them very contentedly. The gods in heaven could not persuade Vishnu to relinquish His sow's body and return to the celestial regions. He was absorbed in the happiness of His beast form. After consulting among themselves, the gods sent Siva to the sow. Siva asked the sow, 'Why have you forgotten yourself?' Vishnu replied through the sow's body, 'Why, I am quite happy here.' Thereupon with a stroke of his trident Siva destroyed the sow's body, and Vishnu went back to heaven."

अधर के मकान से होकर अब श्रीरामकृष्ण राम के मकान पर जा रहे हैं । 

(२) 

*रामचन्द्र दत्त के मकान पर* 

श्रीरामकृष्णदेव सिमुलिया मुहल्ले की मधु राय की गली में रामबाबू ^  के मकान में आये है । रामचन्द्र दत्त श्री रामकृष्णदेव के विशिष्ट भक्त हैं । वे डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त कर मेडिकल कालेज में रसायनशास्त्र के सहकारी परीक्षक नियुक्त हुए थे और ‘साइन्स असोसिएशन’ में रसायनशास्त्र के अध्यापक भी थे । उन्होंने स्वोपार्जित धन से यह मकान बनवाया था । इस मकान में श्रीरामकृष्णदेव कुछ एक बार आये थे, इसीलिए यह मकान भक्तों के लिए आज तीर्थ के समान महान् पवित्र है।

{From Adhar's house Sri Ramakrishna went to Ram's house. Ramchandra Dutta, one of the chief householder disciples of the Master, lived in Calcutta. He had been one of the first to announce the Master as an Incarnation of God. The Master had visited his house a number of times and unstintingly praised the devotion and generosity of this beloved disciple. A few of the Master's disciples made Ram's house virtually their own dwelling-place.

रामचन्द्र गुरुदेव की कृपा लाभ कर ज्ञानपूर्वक संसारधर्म पालन करने की चेष्टा करते थे । श्रीरामकृष्णदेव मुक्तकण्ठ से रामबाबू की प्रशंसा करते और कहते थे, - ‘राम अपने मकान में भक्तों को स्थान देता है, कितनी सेवा करता है, उसका मकान भक्तों का एक अड्डा है ।’ नित्यगोपाल, लाटू, तारक आदि एक प्रकार से रामचन्द्र के घर के आदमी हो गये थे । इन्होंने उनके साथ बहुत दिनों तक एकत्र वास किया था । इसके सिवाय उनके मकान में प्रतिदिन नारायण की पूजा और सेवा होती थी ।  

रामचन्द्र श्रीरामकृष्ण को वैशाख की पूर्णिमा को, जिस समय हिण्डोले का श्रृंगार होता है, इस मकान में उनकी पूजा करने के लिए सर्वप्रथम ले आये थे । प्रायः प्रतिवर्ष आज के दिन वे उनको ले जाकर भक्तों से सम्मिलित हो महोत्सव मनाया करते थे । रामचन्द्र के प्यारे शिष्यवृन्द अब भी उस दिन उत्सव मनाते हैं ।  

आज रामचन्द्र के मकान में उत्सव है ! श्रीरामकृष्ण आयेंगे । आपके लिए रामचन्द्र ने श्रीमद्भागवत की कथा का प्रबन्ध किया है । छोटासा आँगन है, परन्तु उसी में कैसा सुन्दर सजाया है ! वेदी तैयार हुई है, उस पर कथक महोदय बैठे हैं । राजा सत्य हरिश्चन्द्र ^* की कथा   हो रही है । [राजा सत्य हरिश्चन्द्र ^*अयोध्या के राजा हरिशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। वे भगवान राम के पूर्वज थे। इनकी पत्नी का नाम तारा था और पुत्र का नाम रोहित।  एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने सपना देखा कि उन्होंने अपना सारा राजपाट विश्वामित्र को दान में दे दिया है। अगले दिन जब विश्वामित्र उनके महल में आए, तो उन्होंने विश्वामित्र को सारा हाल सुनाया। ऋषि विश्वामित्र ने  राजा हरिशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए उनसे दान में उनका सागरपर्यन्त संपूर्ण राज्य मांग लिया। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने सहर्ष अपना राज्य उन्हें सौंप दिया। लेकिन जाते-जाते विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं अतिरिक्त दान में मांगी। विश्वामित्र ने राजा को याद दिलाया कि राजपाट के साथ राज्य का कोष भी वे दान कर चुके हैं और दान की हुई वस्तु को दोबारा दान नहीं किया जाता।]...  

इसी समय बलराम और अधर के मकान से होकर श्रीरामकृष्ण यहाँ आ पहुँचे । रामचन्द्र ने आगे बढ़कर उनकी चरणरज को मस्तक में धारण किया और वेदी के संम्मुख उनके लिए निर्दिष्ट आसन पर उन्हें लाकर बैठाया । चारों ओर भक्त और पास ही मास्टर बैठे हैं ।

* सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की कथा* होने लगी- 

“विश्वामित्र बोले, ‘महाराज ! तुमने मुझे संसार सागर-पृथ्वी दान कर दी है, इसलिए अब इसके भीतर तुम्हारे लिए स्थान नहीं है; किन्तु तुम काशीधाम में रह सकते हो, वह महादेव का स्थान है । चलो, तुम्हें और तुम्हारी सहधर्मिणी शैब्या और तुम्हारे पुत्र को वहाँ पहुँचा दें । वहीँ पर जाकर तुम प्रबन्ध करके मुझे दक्षिणा दे देना ।’ यह कहकर राजा को साथ ले विश्वामित्र काशीधाम की ओर चले । काशी में आकर उन लोगों ने विश्वेश्वर के दर्शन किये ।” 

[রাজা হরিশ্চন্দ্রের কথা চলিতে লাগিল। বিশ্বামিত্র বলিলেন, “মহারাজ! আমাকে সসাগরা পৃথিবী দান করিয়াছ, অতএব ইহার ভিতর তোমার স্থান নাই। তবে ৺কাশীধামে তুমি থাকিতে পার। সে মহাদেবের স্থান। চল, তোমাকে, তোমার সহধর্মিণী শৈব্যা ও তোমার পুত্র সহিত সেখানে পৌঁছাইয়া দিই। সেইখানে গিয়া তুমি দক্ষিণা যোগাড় করিয়া দিবে।” এই বলিয়া রাজাকে লইয়া ভগবান বিশ্বামিত্র ৺কাশীধাম অভিমুখে যাত্রা করিলেন। কাশীতে পৌঁছিয়া সকলে ৺বিশ্বেশ্বর-দর্শন করিলেন।

The great King Harischandra of the Purana was the embodiment of generosity. No one ever went away from him empty-handed. Now, the sage Viswamitra, wanting to test the extent of the king's charity, extracted from him a promise to grant any boon that he might ask, Then the sage asked for the gift of the sea-girt world, of which Harischandra was king. Without the slightest hesitation the king gave away his kingdom. Then Viswamitra demanded the auxiliary fee, which alone makes charity valid and meritorious.

विश्वेश्वर-दर्शन की बात होते ही श्रीरामकृष्ण एकदम भावाविष्ट हो अस्पष्ट रूप से ‘शिव’ ‘शिव’ उच्चारण कर रहे हैं । 

कथक महोदय कथा कहते गए- “राजा हरिश्चन्द्र दक्षिणा नहीं दे पाए, इसलिए उन्होंने रानी शैब्या को बेच दिया। पुत्र रोहिताश्व भी शैब्या के साथ चला गया ।” 

कथक महोदय ने शैब्या के ब्राह्मण मालिक के यहाँ रोहिताश्व के फूल तोड़ने और उसे साँप के द्वारा काटे जाने की कथा कही । -  

“उस अन्धकाराच्छन्न कालरात्रि में सन्तान की मृत्यु हो गयी । उसका अन्तिम संस्कार करने के लिए कोई नहीं था । गृहस्वामी वृद्ध ब्राह्मण शय्या त्यागकर नहीं उठे । पुत्र के शव को गोद में लिए शैब्या अकेली शमशान की ओर चल पड़ी । बीच बीच में बादल गरज रहे थे और बिजली कड़क रही थी । एक एक बार घोर अन्धकार को चीरती हुई बिजली चमक दिखा जाती थी । भयभीत, शोकाकुल शैब्या रोती हुई चली जा रही थी ।” 

“पत्नी और पुत्र को बेचने पर भी दक्षिणा की राशि पूरी न होने पायी; इसलिए हरिश्चन्द्र ने स्वयं को एक चाण्डाल को बेच डाला था । वे शमशान में चाण्डाल बने बैठे हैं - कर वसूल करने पर ही अग्निसंस्कार करने देंगे । कितने ही शव जल रहे हैं, कितने जलकर भस्मीभूत हो गए हैं । घोर अँधेरी रात में शमशान कितना भयावना दिखायी दे रहा है ! शैब्या उस स्थान पर आकर विलाप करने लगी । 

उस करुण क्रन्दन को सुनकर, ऐसा कौन है जो व्याकुल न हो, जिसका हृदय विदीर्ण न हो? सभी श्रोतागण रो पड़े । 

श्रीरामकृष्ण क्या कर रहे हैं? वे स्थिर होकर कथा सुन रहे हैं - बिलकुल स्थिर हैं । केवल एक बार आँख के कोने में एक बूँद आँसू छलक उठा पर आपने उसे पोंछ डाला । आपने अधीर होकर रुदन क्यों नहीं किया ?  

अन्त में रोहिताश्व को जीवनदान, सब लोगों का विश्वेश्वर दर्शन और हरिश्चन्द्र का पुनः राज्यलाभ वर्णन कर कथक महोदय ने कथा समाप्त की । श्रीरामकृष्ण बहुत समय तक वेदी के सम्मुख बैठकर कथा सुनते रहे । कथा समाप्त होने पर बाहर के कमरे में जाकर बैठे । चारों ओर भक्तमण्डली बैठी है, कथक भी पास बैठ गये । श्रीरामकृष्ण कथक से बोले, “कुछ उद्धव संवाद कहो ।” 

*मुक्ति और भक्ति - गोपीप्रेम* 

 [प्रेमा-भक्ति और ज्ञानमिश्रित-भक्ति ]

कथक कहने लगे- “जब उद्धव वृन्दावन आए, गोपियाँ और ग्वालबाल उनके दर्शन के लिए व्याकुल हो दौड़कर उनके पास गए । सभी पूछने लगे, ‘श्रीकृष्ण कैसे हैं? क्या वे हम लोगों को भूल गए? क्या वे कभी हम लोगों का स्मरण करते हैं?’ यह कहकर कोई रोने लगा, कोई उन्हें साथ ले वृन्दावन के अनेक स्थानों को दिखलाने और कहने लगा, ‘इस स्थान में श्रीकृष्ण न गोवर्धन धारण किया था; यहाँ पर धेनुकासुर और वहाँ पर शकटासुर का वध किया था; इस मैदान में गौओं को चराते थे; इसी यमुना के तट पर वे विहार करते थे; यहाँ पर ग्वालबालों सहित क्रीड़ा करते थे; इस कुंज में गोपियों के साथ वार्तालाप करते थे ।’ 

उद्धव बोले, ‘आप लोग कृष्ण के लिए इतने व्याकुल क्यों हो रहे हैं? वे तो सर्वभूतों में व्याप्त हैं । वे साक्षात् नारायण हैं ! उनके सिवाय और कुछ नहीं है ।’ गोपियों ने कहा, ‘हम यह सब नहीं समझ सकतीं । लिखना पढ़ना हमें नहीं मालुम । हम तो केवल अपने वृन्दावनविहारी कृष्ण को जानती हैं, जो यहाँ बहुत-कुछ लीला कर गए हैं ।’ उद्धव फिर बोले, ‘वे साक्षात् नारायण हैं, उनकी चिन्ता करने से पुनः संसार में नहीं आना पड़ता, जीव मुक्त हो जाता है ।’ गोपियों ने कहा, ‘हम मुक्ति आदि-ये सब बातें नहीं समझतीं । हम तो अपने प्राणवल्लभ कृष्ण को देखना चाहती हैं ।’  

श्रीरामकृष्णदेव यह सब ध्यान से सुनते रहे और भाव में मग्न हो बोले, “गोपियों का कहना सत्य है ।” यह कहकर वे अपने मधुर कण्ठ से गाने लगे-

आमि मुक्ती दिते कातोर नेई, शुद्धा भक्ती दिते कातोर होई।  

आमार भक्ती जेबा पाय, ताते केब पाय, शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी। 

शुन चंद्रावली भक्तीर कथा कोई, भक्तीर कारणे पाताल भवने।  

शे जे सेवा पाय, होये त्रिलोकजयी, बलिर द्वारे आमि द्वारे होये रोई।  

शुद्धा भक्ती एक आछे वृन्दावने, गोप गोपी बिने अन्ये नाही जाने।  

भक्तीर कारणे नंदेर भवने, पिता ज्ञाने नंदेर बाधा माथाय बोई।  


 गाने का आशय यह है- 

“मैं (श्री कृष्ण)  मुक्ति देने में कातर नहीं होता, पर शुद्धा भक्ति देने में कातर होता हूँ । जो शुद्धा भक्ति प्राप्त कर लेते हैं वे सब से आगे हैं । वे पूज्य होकर त्रिलोकजयी होते हैं ।

 सुनो चन्द्रावलि, (वृन्दावन की एक गोपी)  भक्ति की बात करता हूँ - 'मुक्ति' तो मिलती है, पर 'भक्ति' कहाँ मिलती है? भक्ति के कारण मैं पाताल में बलिराजा ^*का द्वारपाल होकर रहता हूँ । शुद्धा भक्ति एक वृन्दावन में है जिसे गोप-गोपियों के सिवाय दूसरा कोई नहीं जानता । भक्ति के कारण मैं नन्द के भवन में उन्हें पिता जानकर उनके जूते सिर पर ले चलता हूँ ।” 

[बलिराजा ^*^पुराण में वर्णित राजा बली  की कहानी का प्रसंग । भगवान श्रीहरि वामन का रूप लेकर राजा बलि के पास दान मांगने पहुंचे। राजा से तीन पग धरती मांगी जो बलि ने दे दी। भगवान ने एक पग में आकाश, दूसरे में धरती व तीसरा पग राजा के सिर पर रख दिया। राजा बलि ने कहा कि भगवान यदि आप मुझे पाताल लोक का राजा बना ही रहे हैं तो मुझे वरदान ‍दीजिए कि मेरा साम्राज्य शत्रुओं के प्रपंचों से बचा रहे और आप मेरे साथ रहें। अपने भक्त के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने राजा बलि के निवास में रहने का संकल्प लिया। पातालपुरी में राजा बलि के राज्य में आठों प्रहर भगवान विष्णु सशरीर उपस्थित रह उनकी रक्षा करने लगे और इस तरह बलि निश्चिंत होकर सोता था। ]

[Though I am never loath to grant salvation, I hesitate indeed to grant pure love. Whoever wins pure love surpasses all; He is adored by men; He triumphs over the three worlds. Listen, Chandravali!4 I shall tell you of love: Mukti a man may gain, but rare is bhakti. Solely for pure love's sake did I become King Vali's door-keeper Down in his realm in the nether world. 5Alone in Vrindavan can pure love be found; Its secret none but the gopas and gopis know. For pure love's sake I dwelt in Nanda's house; Taking him as My father, I carried his burdens on My head.

श्रीरामकृष्ण (कथक के प्रति)- गोपियों की भक्ति थी प्रेमाभक्ति – अव्यभिचारिणी भक्ति – निष्ठा-भक्ति। व्यभिचारिणी भक्ति किसे कहते हैं, जानते हो? ज्ञानमिश्रित भक्ति । जैसे कृष्ण ही सब हुए हैं – वे ही परब्रह्म हैं, वे ही राम, वे ही शिव, वे ही शक्ति हैं । पर प्रेमाभक्ति में उस ज्ञान का संयोग नहीं है द्वारका में आकर हनुमान ने कहा, ‘सीताराम के दर्शन करूँगा ।’ भगवान् रुक्मिणी से बोले, ‘तुम सीता बनकर बैठो, अन्यथा हनुमान से रक्षा नहीं है ।’ 

       पाण्डवों ने जब राजसूय यज्ञ किया, उस समय देश देश के नरेश युधिष्ठिर को सिंहासन पर बिठाकर प्रणाम करने लगे । विभीषण बोले, ‘मैं एक नारायण को प्रणाम करूँगा, और दूसरे को नहीं !यह सुनते ही भगवान् स्वयं भूमिष्ठ होकर, युधिष्ठिर को प्रणाम करने लगे । तब विभीषण ने राजमुकुट धारण किए हुए भी युधिष्ठिर को साष्टांग प्रणाम किया । 

{শ্রীরামকৃষ্ণ (কথকের প্রতি) — গোপীদের ভক্তি প্রেমাভক্তি; অব্যভিচারিণী ভক্তি, নিষ্ঠাভক্তি। ব্যভিচারিণী ভক্তি কাকে বলে জানো? জ্ঞানমিশ্রা ভক্তি। যেমন, কৃষ্ণই সব হয়েছেন। তিনিই পরব্রহ্ম, তিনিই রাম, তিনিই শিব, তিনিই শক্তি। কিন্তু ও জ্ঞানটুকু প্রেমাভক্তির সঙ্গে মিশ্রিত নাই। দ্বারকায় হনুমান এসে বললে, “সীতা-রাম দেখব।” ঠাকুর রুক্মিণীকে বললেন, “তুমি সীতা হয়ে বস, তা না হলে হনুমানের কাছে রক্ষা নাই।” পাণ্ডবেরা যখন রাজসূয় যজ্ঞ করেন, তখন যত রাজা সব যুধিষ্ঠিরকে সিংহাসনে বসিয়া প্রণাম করতে লাগল। বিভীষণ বললেন, “আমি এক নারায়ণকে প্রণাম করব, আর কারুকে করব না।” তখন ঠাকুর নিজে যুধিষ্ঠিরকে ভুমিষ্ঠ হয়ে প্রণাম করতে লাগলেন। তবে বিভীষণ রাজমুকুটসুদ্ধ সাষ্টাঙ্গ হয়ে যুধিষ্ঠিরকে প্রণাম করে।

The Master said to the kathak: "The gopis had ecstatic love, unswerving and single-minded devotion to one ideal. Do you know the meaning of devotion that is not loyal to one ideal? It is devotion tinged with intellectual knowledge. It makes one feel: 'Krishna has become all these. He alone is the Supreme Brahman. He is Rama, Siva, and Sakti.' But this element of knowledge is not present in ecstatic love of God. Once Hanuman came to Dwaraka and wanted to see Sita and Rama. Krishna said to Rukmini, His queen, 'You had better assume the form of Sita; otherwise there will be no escape from the hands of Hanuman.'(Because Rama and Sita were Hanuman's Chosen Ideals.) "Once the Pandava brothers performed the Rajasuya sacrifice. All the kings placed Yudhisthira on the royal throne and bowed low before him in homage. But Bibhishana, the King of Ceylon, said, 'I bow down to Narayana and to none else.' At these words the Lord Krishna bowed down to Yudhisthira. Only then did Bibhishana prostrate himself, crown and all, before him.

“किस प्रकार, जानते हो? जैसे घर की बहू अपने देवर, जेठ, ससुर और स्वामी सब की सेवा करती है । पैर धोने के लिए जल देती है, अँगौछा देती है, पीढ़ा रख देती है, परन्तु दूसरी तरह का सम्बन्ध एकमात्र स्वामी के साथ रहता है । 

“इस प्रेमाभक्ति में दो चीजें हैं । ‘अहंता और ‘ममता’ । यशोदा सोचती थीं, ‘गोपाल को मैं न देखूँगी तो और कौन देखेगा? मेरे देखभाल न करने पर उसे रोग-व्याधि हो सकती है ।’ यशोदा नहीं जानती थीं कि कृष्ण स्वयं भगवान् हैं । और ‘ममता’ – ‘मेरा कृष्ण, मेरा गोपाल’ । उद्धव बोले, ‘माँ, तुम्हारे कृष्ण साक्षात् नारायण हैं, वे संसार के चिन्तामणि हैं । वे सामान्य वस्तु नहीं हैं ।’ यशोदा कहने लगीं, ‘अरे तुम्हारे चिन्तामणि कौन ! मैं पूछती हूँ , मेरा गोपाल कैसा है ? चिन्तामणि नहीं, मेरा गोपाल कैसा है?’  

{"There are two elements in this ecstatic love: 'I-ness' and 'my-ness'. Yasoda used to think: 'Who would look after Gopala if I did not? He will fall ill if I do not serve Him.' She did not look on Krishna as God. The other element is 'my-ness'. It means to look on God as one's own —'my Gopala'. Uddhava said to Yasoda: 'Mother, your Krishna is God Himself. He is the Lord of the Universe and not a common human being.' 'Oh!' exclaimed Yasoda. 'I am not asking you about your Lord of the Universe. I want to know how my Gopala fares. Not the Lord of the Universe, but my Gopala.'

“गोपियों की निष्ठा कैसी थी ! मथुरा में द्वारपाल से अनुनयविनय कर वे सभा में आयीं । द्वारपाल उन लोगों को कृष्ण के पास ले गया । कृष्ण को देख गोपियाँ मुख नीचा कर परस्पर कहने लगीं, ‘यह पगड़ी बाँधे राजवेश में कौन है? इसके साथ वार्तालाप कर क्या अन्त में हम द्विचारिणी बनेंगी? हमारे मोहन मोरमुकुट-पीताम्बरधारी प्राणवल्लभ कहाँ हैं? देखते हो इन लोगों की निष्ठा कैसी है ! वृन्दावन का भाव ही दूसरा है । सुना है, द्वारका (गुजरात) की तरफ लोग पार्थसखा श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं - वे राधा को नहीं चाहते !”  

भक्त-कौन श्रेष्ठ है, ज्ञानमिश्रित भक्ति या प्रेमाभक्ति ?

श्रीरामकृष्ण- ईश्वर के प्रति एकान्त अनुराग हुए बिना प्रेमाभक्ति का उदय नहीं होता । और ‘ममत्व’-ज्ञान अर्थात् भगवान् मेरे अपने हैं, यह ज्ञान । तीन मित्र जंगल में जा रहे थे, सहसा एक बाघ सामने आ खड़ा हुआ ! एक आदमी बोला, ‘भाई, हम सब आज मरे ।’ दूसरा आदमी बोला, ‘क्यों, मरेंगे क्यों ? आओ, ईश्वर का स्मरण करें ।’ तीसरा आदमी बोला, ‘नहीं, ईश्वर को कष्ट देकर क्या होगा? आओ, इसी पेड़ पर चढ़कर बैठें ।’ 

“जिस आदमी ने कहा, ‘हम लोग मरे’ वह नहीं जानता था कि ईश्वर रक्षा करने वाले हैं । जिसने कहा, ‘आओ, ईश्वर का स्मरण करें’ वह ज्ञानी था, वह जानता था कि ईश्वर सृष्टि, स्थिति, प्रलय के मूल कारण हैं । और जिसने कहा, ‘भगवान् को कष्ट देकर क्या होगा, आओ, पेड़ पर चढ़ बैठें’, उसके भीतर प्रेम उत्पन्न हुआ था-स्नेह-ममता का भाव आया था । तो प्रेम का स्वभाव ही यह है कि प्रेमी अपने को बड़ा समझता है और प्रेमास्पद को छोटा । वह देखता है, कहीं उसे कोई कष्ट न हो । उसकी यही इच्छा होती है कि जिससे प्रेम करें उसके पैर में एक काँटा भी न चुभे ।” 

श्रीरामकृष्णदेव तथा भक्तों को ऊपर ले जाकर अनेक प्रकार के मिष्टान आदि से रामबाबू ने उनकी सेवा की । भक्तों ने बड़े आनन्द से प्रसाद पाया । 

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शुक्रवार, 14 मई 2021

ॐपरिच्छेद ~ 34, [(27 मई, 1883)श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] *Mother is Destroyer of sufferings *(आमार) मा त्वं हि तारा* ब्रह्माण्ड छीलो ना जखोन (तुई) मुण्डमाला कोथाय पेलि। *भिन्न धर्म मार्गों के प्रति विद्वेषभाव अच्छा नहीं, - शाक्त, वैष्णव, वेदान्ती ये सब झगड़ा करते हैं, यह ठीक नहीं ।**श्रीरामकृष्ण द्वारा माँ काली की पूजा तथा आत्मपूजा - 'माँ विपद्नाशिनी' मंत्र* ठाकुर देव पहलीबार जब कामारपुकुर से कलकत्ता आये तो झामापुकुर में रहे थे और घर घर में जाकर पूजा करते थे, उस समय कभी कभी नकुड़ वैष्णव की दुकान (ब्यूटीस्टोर?) में जाकर बैठते थे और आनन्द मनाते थे । * क्या श्रीरामकृष्ण गौरांग है ?

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) * साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

*परिच्छेद ३४* 

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*विद्वेषभाव अच्छा नहीं, लेकिन अपने इष्टदेव पर एकनिष्ठ भक्ति अनिवार्य है * 

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर के अपने कमरे में खड़े खड़े भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं । रविवार, वैशाख कृष्णा पंचमी, २७ मई १८८३ ई. । दिन के नौ बजे का समय होगा । भक्तगण धीरे धीरे आकर उपस्थित हो रहे हैं ।  

श्रीरामकृष्ण (मास्टर आदि भक्तों के प्रति)- विद्वेषभाव अच्छा नहीं, - शाक्त, वैष्णव, वेदान्ती ये सब झगड़ा करते हैं, यह ठीक नहीं । पद्मलोचन बर्दवान महाराज के सभापण्डित थे । सभा में विचार हो रहा था-‘शिव बड़े हैं या ब्रह्मा ।’ पद्मलोचन ने बहुत सुन्दर बात कही थी, - ‘मैं नहीं जानता, मुझसे न शिव का परिचय है, और न ब्रह्मा का !’ (सभी हँसने लगे ।) 

{"It is not good to harbour malice. The Saktas, the Vaishnavas, and the Vedantists quarrel among themselves. That is not wise. Padmalochan was court pundit of the Maharaja of Burdwan. Once at a meeting the pundits were discussing whether Siva was superior to Brahma, or Brahma to Siva. Padmalochan gave an appropriate reply. 'I don't know anything about it', said he. 'I haven't talked either to Siva or to Brahma.'

“व्याकुलता रहने पर सभी पथों से उन्हें प्राप्त किया जाता है, परन्तु निष्ठा रहनी चाहिए । निष्ठा-भक्ति का दूसरा नाम है अव्यभिचारिणी भक्ति-जिस प्रकार 'एक शाखावाला वृक्ष' सीधा ऊपर की ओर जाता है। व्यभिचारिणी भक्ति-जैसे पांच शाखावाला वृक्ष । 

गोपियों की ऐसी निष्ठा थी कि वृन्दावन के पीताम्बर और मोहनचूड़ावाले गोपालकृष्ण के अतिरिक्त और किसी से प्रेम न करेंगी ।

मथुरा में जब राजवेष में सिर पर पगड़ी पहने कृष्ण को देखा तो उन्होंने घूँघट की आड़ में मुँह छिपा लिया और कहा, ‘वह कौन है? क्या इसके साथ बात करके हम द्विचारिणी बनेंगी ?’ 

{"If people feel sincere longing, they will find that all paths lead to God. But one should have nishtha, single-minded devotion. It is also described as chaste and unswerving devotion to God. It is like a tree with only one trunk shooting straight up. Promiscuous devotion is like a tree with five branches. Such was the single-minded devotion of the gopis to Krishna that they didn't care to look at anyone but the Krishna they had seen at Vrindavan — the Shepherd Krishna, bedecked with a garland of yellow wild-flowers and wearing a peacock feather on His crest. At the sight of Krishna at Mathura with a turban on His head and dressed in royal robes, the gopis pulled down their veils. They would not look at His face. 'Who is this man?' they said. 'Should we violate our chaste love for Krishna by talking to him?'

“स्त्री जो स्वामी की सेवा करती है वह भी निष्ठा-भक्ति है । देवर, जेठ को खिलाती है, पैर धोने को जल देती है, परन्तु स्वामी के साथ दूसरा ही सम्बन्ध रहता है । इसी प्रकार अपने धर्म में भी निष्ठा हो सकती है । इसीलिए दूसरे धर्म से घृणा नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनके साथ मीठा व्यवहार करना चाहिए ।” 

{"The devotion of the wife to her husband is also an instance of unswerving love. She feeds her brothers-in-law as well, and looks after their comforts, but she has a special relationship with her husband. Likewise, one may have that single-minded devotion to one's own religion; but one should not on that account hate other faiths. On the contrary, one should have a friendly attitude toward them."

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*श्रीरामकृष्ण द्वारा माँ काली की पूजा तथा आत्मपूजा - 'माँ विपद्नाशिनी महामन्त्र'*

"O Mother! O Destroyer of suffering! O Remover of grief and agony!"  

श्रीरामकृष्ण गंगास्नान करके काली के दर्शन करने गए हैं । साथ में मास्टर हैं । श्रीरामकृष्ण पूजा के आसन पर बैठकर माँ के चरणकमलों पर फूल चढ़ा रहे हैं; बीच बीच में अपने सिर पर भी चढ़ा रहे हैं और ध्यान कर रहे हैं । 

बहुत समय के बाद श्रीरामकृष्ण आसन से उठे । भाव में विभोर होकर नृत्य कर हे हैं और मुँह से माँ का नाम ले रहे हैं । कह रहे हैं, ‘हे माँ विपद्नाशिनी, माँ विपद्नाशिनी।’ देह धारण करने से ही दुःख, विपदाएँ होती हैं, सम्भव है इसीलिए जीव को इस ‘विपद्नाशिनी’ महामन्त्र का उच्चारण कर कातर होकर पुकारना सिखा रहे हैं 

{অনেকক্ষণ পরে ঠাকুর আসন হইতে উঠিলেন। ভাবে বিভোর, নৃত্য করিতেছেন। আর মুখে মার নাম করিতেছেন। বলিতেছেন, “মা বিপদনাশিনী গো, বিপদনাশিনী!” দেহধারণ করলেই দুঃখ বিপদ, তাই বুঝি জীবকে শিখাইতেছেন তাঁহাকে ‘বিপদনাশিনী’ এই মহামন্ত্র উচ্চারণ করিয়া কাতর হইয়া ডাকিতে।

After a long time he stood up. He was in a spiritual mood and danced before the image, chanting the name of Kali. Now and again he said: "O Mother! O Destroyer of suffering! O Remover of grief and agony!" Was he teaching people thus to pray to the Mother of the Universe with a yearning heart, in order to get rid of the suffering inevitable in physical life?

   [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*श्री रामकृष्ण और झामापुकुर के नकुड़ बाबाजी *

अब श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के पश्चिमवाले बरामदे में आकर बैठे हैं । अभी तक भाव का आवेश है । पास हैं राखाल, मास्टर, नकुड़ वैष्णव आदि । नकुड़ वैष्णव श्रीगौरांग के भक्त हैं ( 'Gauranga Mahaprabhu' -'Gauranga' is another name for Sri Krishna Chaitanya Mahaprabhu)  जिन्हें श्रीरामकृष्ण अट्ठाईस-उनतीस वर्षों से जानते हैं । जिस समय वे पहले-पहल कलकत्ते में आकर झामापुकुर में रहे थे और घर घर में जाकर पूजा करते थे, उस समय कभी कभी नकुड़ वैष्णव की दुकान  में जाकर बैठते थे और आनन्द मनाते थे। [ He was a devotee of Gauranga and had a small shop which Sri Ramakrishna had often visited when he first came to Calcutta from Kamarpukur.

आजकल पानिहाटी में राघव पण्डित के महोत्सव के उपलक्ष्य में नकुड़ बाबाजी आकर प्रायः प्रतिवर्ष श्रीरामकृष्ण का दर्शन करते हैं । नकुड़ वैष्णव भक्त थे । कभी कभी वे भी महोत्सव का भण्डारा देते थे। नकुड़ मास्टर के पड़ोसी थे । श्रीरामकृष्ण जिस समय झामापुकुर में थे, उस समय गोविन्द चटर्जी के मकान में रहते थे । नकुड़ ने मास्टर को वह पुराना मकान दिखाया था ।

[পেনেটীতে রাঘব পণ্ডিতের মহোৎসবে উপলক্ষে নকুড় বাবাজী ইদানীং ঠাকুরকে প্রায় বর্ষে বর্ষে দর্শন করিতেন। নকুড় ভক্ত বৈষ্ণব, মাঝে মাঝে তিনিও মহোৎসব দিতেন। নকুড় মাস্টারের প্রতিবেশী। ঠাকুর ঝামাপুকুরে যখন ছিলেন, গোবিন্দ চাটুজ্যের বাড়িতে থাকিতেন। সেই পুরাতন বাটী নকুড় মাস্টারকে দেখাইয়াছিলেন।

  [(27 मई, 1883)परिच्छेद ~ 34, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

*जगन्माता के नामकीर्तन के आनन्द में श्रीरामकृष्ण* 

श्रीरामकृष्ण भाव के आवेश में माँ जगदम्बा के गीत गा रहे हैं : 

१ )

 सदानन्दमयी काली, महाकालेर मनोमोहिनी। 



तूमि आपन सूखे आपनि नाचो, आपनि दाओ मा करतालि।।

आदिभूता सनातनी, शून्यरुपा शशीभाली। 

ब्रह्माण्ड छीलो ना जखोन (तुई) मुण्डमाला कोथाय पेलि। 

सबे मात्र तुमि जंत्री, आमरा तोमार तंत्रे चलि। 

जेमोन कोराओ तेमनि कोरि माँ, जेमोन बोलाओ तेमनि बोली।।

निर्गुणे कमलाकान्त दिये बोले मा गालागाली। 

सर्बनाशे धोरे आशी, धर्माधर्म दुटो खेलि।।

 সদানন্দময়ী কালী, মহাকালের মনোমোহিনী ৷

তুমি আপন সুখে আপনি নাচ, আপনি দাও মা করতালি ৷৷

আদিভূতা সনাতনী, শূন্যরূপা শশিভালি ৷

ব্রহ্মাণ্ড ছিল না যখন (তুই) মুণ্ডমালা কোথায় পেলি ৷৷

সবে মাত্র তুমি যন্ত্রী, আমরা তোমার তন্ত্রে চলি ৷

যেমন করাও তেমনি করি মা, যেমন বলাও তেমনি বলি ৷৷

নির্গুণে কমলাকান্ত দিয়ে বলে মা গালাগালি ৷

সর্বনাশী ধরে অসি ধর্মাধর্ম দুটো খেলি ৷৷

जिसका भावार्थ यह है - 

(१)“हे महाकाल की मनोमोहिनी सदानन्दमयी काली, माँ, तुम अपने आनन्द में आप ही नाचती हो और आप ही ताली बजाती हो । 

हे आदिभूते सनातनि, शून्यरुपे शशिभालिके, जिस समय ब्रह्माण्ड न था, उस समय तुझे मुण्डमाला कहाँ मिली ? 

एकमात्र तुम यन्त्री हो, हम सब तुम्हारे निर्देश पर चलते हैं । माँ, तुम जैसा कराती हो, वैसा ही करते हैं, जैसा कहलाती हो वैसा ही कहते हैं ।

 हे निर्गुणे, माँ, कमलाकान्त गाली देकर कहता है कि तुझ सर्वनाशिनी ने खड़ग धारण करके धर्म और अधर्म दोनों को नष्ट कर दिया है !” 

{O Kali, my Mother full of Bliss! Enchantress of the almighty Siva! In Thy delirious joy Thou dancest, clapping Thy hands together! Eternal One! Thou great First Cause, clothed in the form of the Void! Thou wearest the moon upon Thy brow. Where didst Thou find Thy garland of heads before the universe was made? Thou art the Mover of all that move, and we are but Thy helpless toys; We move alone as Thou movest us and speak as through us Thou speakest. But worthless Kamalakanta says, fondly berating Thee: Confoundress! With Thy flashing sword Thoughtlessly Thou hast put to death my virtue and my sin alike!

(२)



(आमार) मा त्वं हि तारा, तुमि त्रिगुणधरा परात्परा ।
आमि जानि गो माँ दीन-दयामयी, तुमि दुर्गमेते दुःखहरा ।।

तुमि संध्या, तुमि गायत्री, तुमि जगदधात्री गो मा ।
तुमि अकूलेर त्राणकत्री, सदाशिवेर मनोरमा ।।

तुमि जले, तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो मा ।
आछो  सर्वघटे अक्षपुटे, साकार आकार निराकारा ।।


भावानुवाद  (भैरवी-एकताल )

(आमार) माँ तू ही तारा, तू त्रिगुणधरा परात्परा ।

मैं जानूँ तू दीनदयामयी दुरूह दुःखहरा ।।

जल में तू स्थल में तू सब के मूल में तू ही माँ ।

घट-घट में, आँखों की पुतली में - तू ही विराजे,  साकार आकार निराकारा ।।

तू ही संध्या तू गायत्री तू ही जगदधात्री है माँ ।

भवसागर की पारकर्त्री सदाशिव की मनोहरा ।।

[Lyrics Source:-http://vivek-jivan.blogspot.in/2012/03/8.html]

আমার মা ত্বং হি তারা, 

তুমি ত্রিগুণধরা পরাৎপরা।

আমি জানি মা ও দীন-দয়াময়ী, তুমি দুর্গমেতে দুখহরা ৷

তুমি সন্ধ্যা তুমি গায়ত্রী, তুমি জগধাত্রী, গো মা

তুমি অকুলের ত্রাণকর্ত্রী, সদাশিবের মনোরমা ৷

তুমি জলে, তুমি স্থলে, তুমি আদ্যমূলে গো মা

আছ সর্বঘটে অর্ঘ্যপুটে সাকার আকার নিরাকারা।

हे तारा, तुम ही मेरी माँ हो । तुम त्रिगुणधारा परात्परा हो । मैं जानता हूँ, माँ, कि तुम दीनों पर दया करने वाली और विपत्ति में दुःख को हरण करनेवाली हो । तुम सन्ध्या, तुम गायत्री, तुम जगद्धात्री हो । माँ, तुम असहाय को बचानेवाली तथा सदाशिव के मन को हरनेवाली हो । माँ, तुम जल में, थल में, और आदिमूल में विराजमान हो । तुम साकार रूप में सर्व घट में विद्यमान होते हुए भी निराकार हो ।” 

{Mother, Thou art our sole Redeemer,Thou the Support or the three gunas, Higher than the most high.Thou art compassionate, I know,Who takest away our bitter grief. Sandhya art Thou, and Gayatri;Thou dost sustain this universe.Mother, the Help art Thou , Of those that have no help but Thee,O Eternal Beloved of Siva! Thou art in earth, in water Thou; Thou liest at the root of all.In me, in every creature,Thou hast Thy home; though clothed with form,Yet art Thou formless Reality.

श्रीरामकृष्ण ने ‘माँ’ के और भी कुछ गीत गाये ।

३. गोलमाल में माल मिला हुआ है, गोल को छोड़ दो और माल चुनो।

४. मन चलो चलते हैं, और कोई काम नहीं है, वे भी उसी ......  तालुक के रे ! आदि 

      फिर भक्तों से कह रहे हैं, संसारियों (गृहस्थों)  के सामने केवल दुःख की बात ठीक नहीं । आनन्द चाहिए। जिनको अन्न का अभाव है, वे दो दिन उपवास भी कर सकते हैं, परन्तु खाने में थोड़ा विलम्ब होने पर जिन्हें दुःख होता है उनके पास केवल रोने की बातें, दुःख की बातें करना ठीक नहीं । 

“वैष्णवचरण कहा करता था, ‘केवल, पाप, पाप यह सब क्या है? आनन्द करो ।”

{ "It is not always best to tell householders about the sorrows of life. They want bliss. Those who suffer from chronic poverty can go without food for a day or two. But it is not wise to talk about the sorrows and miseries of life to those who suffer if their food is delayed a few minutes. Vaishnavcharan used to say: 'Why should one constantly dwell on sin? Be merry!'"

श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद विश्राम भी न कर सके थे कि मनोहर साँई गोस्वामी आ पधारे । 

श्रीराधा के भाव में महाभावमय श्रीरामकृष्ण । क्या श्रीरामकृष्ण गौरांग है ? 

गोस्वामी पूर्वराग का कीर्तन गा रहे हैं । थोड़ा सुनकर ही श्रीरामकृष्ण राधा के भाव में भावाविष्ट हो गए । पहले ही गौरचन्द्रिका-कीर्तन । “हथेली पर हाथ-चिन्तित गोरा-आज क्यों चिन्तित हैं? सम्भवतः राधा के भाव में भावित हुए हैं ।”  

गोस्वामी फिर गा रहे हैं- 

(भावार्थ)- “घड़ी में सौ बार, पल पल में घर से बाहर आती और फिर भीतर जाती है । कहीं पर भी मन नहीं लग रहा है, जोर जोर से श्वास चल रहा है, बार बार कदम्ब-कानन की ओर ताकती है । राधे, ऐसा क्यों हुआ ? 

संगीत की इसी पंक्ति को सुन श्रीरामकृष्ण की महाभाव की स्थिति हुई है ! उन्होंने अपनी कमीज को फाड़कर फेंक दिया । 

कीर्तनकार फिर गा रहे हैं- ‘तेरा अंग शीतल है .......’ 

कीर्तनकार का संगीत सुनते सुनते महाभाव में श्रीरामकृष्ण काँप रहे हैं ! केदार को देख वे कीर्तन के स्वर में कह रहे हैं, “प्राणनाथ, हृद्यवल्लभ, तुम लोग मुझे कृष्ण ला दो; यही तो मित्रता का काम है; या तो उन्हें ला दो और नहीं तो मुझे ले चलो; तुम लीगों की मैं चिरकाल के लिए दासी बनी रहूँगी ।” 

गोस्वामी कीर्तनिया श्रीरामकृष्ण के महाभाव की स्थिति को देखकर मुग्ध हुए हैं । वे हाथ जोड़कर कह रहे हैं, “मेरी विषयबुद्धि मिटा दीजिए ।”  

श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए)- तुम उस साधु के सदृश हो जिसने पहले रहने की जगह ठीक कर, फिर शहर देखना शुरू किया । तुम इतने बड़े रसिक हो, तुम्हारे भीतर से इतना मीठा रस निकल रहा है । 

गोस्वामी- प्रभो, मैं चीनी का बोझ ढोनेवाला बैल हूँ, चीनी का आस्वादन कहाँ कर सका ? 

फिर कीर्तन होने लगा । कीर्तनकार श्रीमती राधिका की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं - “कोकिलकुल कुर्वती कलनादम् ।” कोकिल का कलनाद भी श्रीमती को वज्रध्वनि जैसा लग रहा है ।

   इसलिए वे जैमिनी का नाम उच्चारण कर रही हैं और कह रही हैं, ‘सखि, कृष्ण के विरह में यह प्राण नहीं रहेगा; इस देह को तमाल वृक्ष की शाखा पर रख देना ।’ 

गोस्वामी ने राधाश्याम का मिलन गाकर कीर्तन समाप्त किया । 

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$परिच्छेद ~ 33, [(13 मई, 20 मई,1883) श्रीरामकृष्ण वचनामृत ] Rama and His name are identical* 'चन्द्रावली' तो सेवा नहीं जानती ~ पालागान (Turn song)* " हरिभक्ति-प्रदायिनी सभा" (कोडरमा के हरिसभा ?)

[(13 मई, 1883) परिच्छेद ~ 33, श्रीरामकृष्ण वचनामृत ]

[*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) *साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ]

परिच्छेद ३३ 

हरिभक्ति-प्रदायिनी सभा में भक्तो के साथ * 

(१)

श्रीरामकृष्ण ने कलकत्ता कँसारीपाड़ा की हरिभक्ति-प्रदायिनी सभा" (कोडरमा के हरिसभा ?) में शुभागमन किया है । रविवार, वैशाख शुक्ल सप्तमी, संक्रान्ति, 13 मई, 1883 ई. । आज सभा में वार्षिकोत्सव हो रहा है । मनोहर साँई का कीर्तन हो रहा है ।

'श्रीराधाकृष्ण-प्रेम' का पाला -गान (Turn song) हो रहा है । सखियाँ श्रीमती राधिका से कह रही हैं:-

मान केनो कोरली , तोबे तुई बुझी कृष्णेर सुख चास न।  

‘तूने मान (प्रणयकोप) क्यों किया? तो क्या तू कृष्ण का सुख नहीं चाहती ? 

श्रीमती कहती हैं, -“চন্দ্রাবলীর কুঞ্জে, যাবার জন্য নয়। সেখানে যাওয়া কেন? সে যে সেবা জানে না!”

‘ मैंने उनके चन्द्रावली (नामक गोपी)  के कुंज में जाने के लिये  कोप नहीं किया । आखिर वहाँ उन्हें  जाना ही क्यों चाहिए था ? चन्द्रावली तो सेवा नहीं जानती !’

( "I am not angry at His going to Chandravali's grove. But why should He go there? She doesn't know how to take care of Him."

(२)

दूसरे रविवार को (20 मई, 1883) रामचन्द्र के मकान पर फिर कीर्तन हो रहा है । श्रीरामकृष्ण आए हैं । वैशाख शुक्ल चतुर्दशी । श्रीमती राधिका श्रीकृष्ण के विरह में बहुत-कुछ कह रही हैं- “जब मैं बालिका थी उसी समय से श्याम को देखना चाहती थी । सखि, दिन गिनते गिनते नाखून घिस गया । देखो, उन्होंने जो माला दी थी वह सूख गयी है, फिर भी मैंने उसे नहीं फेंका । 

कृष्णचन्द्र का उदय कहाँ हुआ ? वह चन्द्र मान (प्रणयकोप) रूपी राहू ^ के भय से कहीं चला तो नहीं गया ! हाय ! उस कृष्णमेघ का कब दर्शन होगा ? क्या फिर दर्शन होगा ! 

प्रिय, प्राण खोलकर तुम्हें कभी भी न देख सकी ! एक तो कुल दो ही आँखें, उसमें फिर पलक, उसमें फिर आँसूओं की धारा । उनके सिर पर मोर का पंख मानो स्थिर बिजली के समान है । मोरगण उस मेघ को देख पंख खोलकर नृत्य करते थे ।

“सखि ! यह प्राण तो नहीं रहेगा - मेरी देह तमाल वृक्ष की शाखा पर रख देना और मेरे शरीर पर कृष्णनाम लिख देना ।”

{Radha said to her friends: "I have loved to see Krishna from my childhood. My finger-nails are worn off from counting the days on them till I shall see Him. Once He gave me a garland. Look, it has withered, but I have not yet thrown it away. Alas! Where has the Moon of Krishna risen now? Has that Moon gone away from my firmament, afraid of the Rahu2 of my pique? Alas! Shall I ever see Krishna again? O my beloved Krishna, I have never been able to look at You to my heart's complete satisfaction. I have only one pair of eyes; they blink and so hinder my vision. And further, on account of streams of tears I could not see enough of my Beloved. The peacock feather on the crown of His head shines like arrested lightning. The peacocks, seeing Krishna's dark-cloud complexion, would dance in joy, spreading their tails. O friends, I shall not be able to keep my life-breath. After my death, place my body on a branch of the dark tamala tree and inscribe on my body Krishna's sweet name."


श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं : “वे और उनका नाम अभिन्न हैं । इसीलिए श्रीमती राधिका इस प्रकार कह रही हैं । जो राम वही नाम है ।”

{ "God and His name are identical; that is the reason Radha said that. There is no difference between Rama and His holy name."

श्रीरामकृष्ण भावमग्न होकर यह कीर्तन का गाना सुन रहे हैं । गोस्वामी कीर्तनिया इन गानों को गा रहा हैं। अगले रविवार को फिर दक्षिणेश्वर मन्दिर में वही गाना होगा । उसके बाद के शनिवार को फिर अधर के मकान पर वही कीर्तन होगा ।  

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गुरुवार, 13 मई 2021

[(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत] *Ignited Minds *ब्रह्मोपासना तथा श्रीरामकृष्ण*राधा जी का प्रेमोन्माद विषय चिन्ता से नहीं ईश्वर-चिन्तन से उत्पन्न होती है ! *अहेतुक कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण* * ठाकुरदेव, रवीन्द्रनाथ टैगोर,आदि-ब्राह्मसमाज की उपासना सभा में **उपाय- ईश्वर पर प्रेम तथा षड्रिपुओ की गति बदलना*वास्तविक और भ्रामक। *श्रीमन्दिर-दर्शन और उद्दीपन । श्रीराधा का प्रेमोन्माद*पापकर्मों का उत्तरदायित्व*त्वया हृषिकेश हृदि स्थितेन,-- ईश्वर ही कर्ता हैं और मैं उनका यंत्र हूँ, वह पाप नहीं कर सकता*

  [(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

[*साभार ~ #श्रीरामकृष्ण०वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ]

 *परिच्छेद ३२* 

*नन्दनबागान के ब्राह्मसमाज में रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि भक्तों के साथ* 

(१) 

  [(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

[प्रज्ज्वलित मन -Ignited Minds ]

*श्रीमन्दिर-दर्शन से ईश्वर -चैतन्य द्वारा  'मन' सुलग (ignite) उठता है * 

[The 'mind' is ignited by God-Consciousness by  Srimandir-darshan.] 

श्रीरामकृष्ण नन्दनबागान के ब्राह्मसमाज-मन्दिर में भक्तों के साथ बैठे हैं । ब्राह्मभक्तों से बातचीत कर रहे हैं । साथ में राखाल, मास्टर आदि हैं । शाम के पाँच बजे होंगे । 

काशीश्वर मित्र का मकान नन्दनबागान में है । वे पहले सबजज थे । वे आदि-ब्राह्मसमाज वाले ब्राह्म थे । अपने ही घर पर ईश्वर की उपासना किया करते थे, और बीच बीच में भक्तों को निमन्त्रण देकर उत्सव मनाते थे । उनके देहान्त के बाद श्रीनाथ, यज्ञनाथ, आदि उनके पुत्रों ने कुछ दिन तक उसी तरह उत्सव मनाए थे । वे ही श्रीरामकृष्ण को बड़े आदर से आमन्त्रित कर लाए थे । 

श्रीरामकृष्ण आकर पहले नीचे के कमरे में बैठे, जहाँ धीरे धीरे बहुत से ब्राह्मभक्त सम्मिलित हुए थे । रवीन्द्रबाबू [Rabindranath Tagore~  (1861 – 1941)  and a few other members of the Tagore family were present on this occasion. तब उनकी आयु 22 साल होगी।] आदि टैगोर -परिवार के भक्त भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए थे  

[About five o'clock in the afternoon Sri Ramakrishna arrived at the temple of the Brahmo Samaj in Nandanbagan, accompanied by M., Rakhal, and a few other devotees. At first the Master sat in the drawing-room on the ground floor, where the Brahmo devotees gradually assembled. Rabindranath Tagore and a few other members of the Tagore family were present on this occasion.

 बुलाए जाने पर श्रीरामकृष्ण ऊपरी मँजले के उपासना-मन्दिर में जा विराजे । कमरे के पूर्व की ओर वेदी (dais) रची गयी है । नैऋत्य कोने में एक पियानो है कमरे के उत्तरी हिस्से में कुछ कुर्सियाँ रखी हुई हैं । उसी के पूर्व की ओर अन्तःपुर में जाने का दरवाजा है । 

[Sri Ramakrishna was asked to go to the worship hall on the second floor. A dais had been built on the eastern side of the room. There were a few chairs and a piano in the hall. The Brahmo worship was to begin at dusk.

शाम को उत्सव के निमित्त उपासना होगी । आदि ब्राह्मसमाज के श्री भैरव बन्धयोपाध्याय और एक-दो भक्त मिलकर वेदी पर उपासना का अनुष्ठान करेंगे । 

गर्मी का मौसम है । आज बुधवार चैत्र की कृष्णा दशमी है । 2 मई, 1883 । अनेक ब्राह्मभक्त नीचे के बड़े आँगन या बरामदे में इधर-उधर घूम रहे हैं । श्री जानकी घोषाल आदि दो-चार सज्जन उपासनागृह में आकर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । - वे उनके श्रीमुख से ईश्वरी प्रसंग सुनेंगे । 

कमरे में प्रवेश करते ही श्रीरामकृष्ण ने वेदी के सम्मुख प्रणाम किया । फिर बैठकर राखाल मास्टर आदि से कहने लगे- “नरेन्द्र ने मुझसे कहा था, ‘समाज-मन्दिर को प्रणाम करने से क्या होता है ?’ मन्दिर देखने से ईश्वर की याद आती है-उद्दीपना होती है । जहाँ उनकी चर्चा होती है, वहाँ उनका आविर्भाव होता है, और सारे तीर्थ वहाँ आ जाते हैं । ऐसे स्थानों के देखने से भगवान् की ही याद होती है। 

“एक भक्त बबूल का पेड़ देखकर भावाविष्ट हुआ था । यही सोचकर कि इसी लकड़ी से श्रीराधाकान्त के बगीचे के लिए कुल्हाड़ी का बेट बनता है ।

“किसी और भक्त की ऐसी गुरुभक्ति थी कि गुरुजी के मुहल्ले के एक आदमी को ही देखकर भावों से तर हो गया !  

“मेघ देखकर, नील वस्त्र देखकर  अथवा एक चित्र देखकर श्रीराधा को श्रीकृष्ण की उद्दीपना हो जाती थी! (Krishna had a dark-blue complexion.) ये सब चीजें देखकर वे ‘कृष्ण कहाँ हैं ?’ कहकर बावली-सी हो जाती !” 

[चंदन-चर्चित-नील-कलेवर-पीतवसन-वनमालिन्। (कृष्ण का रंग गहरा नीला था। बादल या नीले वस्त्र को देखकर श्रीराधा के मन में श्रीकृष्ण की याद जाग उठती थी] 

(Krishna had a dark-blue complexion.)Seeing a cloud or a blue cloth, the memory of Shri Krishna was awakened in Sriradha's mind] 

{নরেন্দ্র আমায় বলেছিল, ‘সমাজমন্দির প্রণাম করে কি হয়?’

“মন্দির দেখলে তাঁকেই মনে পড়ে — উদ্দীপন হয়। যেখানে তাঁর কথা হয় সেইখানে তাঁর আবির্ভাব হয়, — আর সকল তীর্থ উপস্থিত হয়। এ-সব জায়গা দেখলে ভগবানকেই মনে পড়ে।“একজন ভক্ত বাবলাগাছ দেখে ভাবাবিষ্ট হয়েছিল! — এই মনে করে যে, এই কাঠে ঠাকুর রাধাকান্তের বাগানের জন্য কুড়ুলের বাঁট হয়।“একজন ভক্তের এরূপ গুরুভক্তি যে, গুরুর পাড়ার লোককে দেখে ভাবে বিভোর হয়ে গেল!“মেঘ দেখে — নীলবসন দেখে — চিত্রপট দেখে — শ্রীমতীর কৃষ্ণের উদ্দীপন হত। তিনি এই সব দেখে উন্মত্তের ন্যায় ‘কোথায় কৃষ্ণ!’ বলে ব্যাকুল হতেন।”

"Narendra once asked me, 'What good is there in bowing before the Brahmo Samaj temple?' The sight of the temple recalls to my mind God alone; then God-Consciousness is kindled in my mind. God is present where people talk about Him. One feels there the presence of all the holy places. Places of worship recall God alone to my mind.

"Once a devotee was overwhelmed with ecstasy at the sight of a babla-tree. The idea flashed in his mind that the handle of the axe used in the garden of the temple of Radhakanta was made from the wood of the babla. Another devotee had such devotion for his guru that he would be overwhelmed with divine feeling at the sight of his guru's neighbours. Krishna-consciousness would be kindled in Radha's mind at the sight of a cloud, a blue dress, (Krishna had a dark-blue complexion.) or a painting of Krishna. She would become restless and cry like a mad person, 'Krishna, where art Thou?'] 

  [(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

*प्रेमोन्माद, ज्ञानोन्माद ; विषय-चिन्ता जन्य उन्माद से बिल्कुल भिन्न है 

घोषाल- उन्माद (madness) तो अच्छा नहीं है । 

[ঘোষাল — উন্মাদ তো ভাল নয়। "But madness is not desirable."

श्रीरामकृष्ण- यह तुम क्या कह रहे हो ? यह उन्माद विषयचिन्ता का फल थोड़े ही है कि उससे बेहोशी आ जाएगी ! यह अवस्था तो ईश्वर-चिन्तन से उत्पन्न होती है ! क्या तुमने प्रेमोन्माद, ज्ञानोन्माद की बात नहीं सुनी? 

{শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি গো? একি বিষয়চিন্তা করে উন্মাদ, যে অচৈতন্য হবে? এ অবস্থা যে ভগবানচিন্তা করে হয়! প্রেমোন্মাদ, জ্ঞানোন্মাদ — কি শুন নাই?

 "What do you mean? Was Radha's madness the madness that comes from brooding over worldly objects and makes one unconscious? One attains that madness by meditating on God. Haven't you heard of love-madness and knowledge madness?"

  [(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

*उपाय- षड्रिपुओ की रुझान को ईश्वर को ओर मोड़ देना ; ताकि ईश्वर पर प्रेम हो 

एक ब्राह्मभक्त- किस उपाय से ईश्वर मिल सकते हैं?

একজন ব্রাহ্মভক্ত — কি উপায়ে তাঁকে পাওয়া যায়?  "How can one realize God?"

श्रीरामकृष्ण- उन पर (इष्टदेव पर ) प्रेम हो, और सदा यह विवेक जाग्रत रहे कि ईश्वर ही सत्य है, और जगत् अनित्य।

“पीपल का पेड़ (अश्वत्थ वृक्ष) ही सत्य है- फल तो दो ही दिन के लिए हैं ।’

{শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর উপর ভালবাসা। — আর এই সদাসর্বদা বিচার — ঈশ্বরই সত্য, জগৎ অনিত্য। “অশ্বত্থই সত্য — ফল দুদিনের জন্য।”

"By directing your love to Him and constantly reasoning that God alone is real and the world illusory. The aswattha tree alone is permanent; its fruit is transitory."

ब्राह्मभक्त- काम, क्रोध आदि छः रिपु हैं- उनका क्या किया जाय ?

{ব্রাহ্মভক্ত — কাম, ক্রোধ, রিপু রয়েছে, কি করা যায়? "We have passions like anger and lust. What shall we do with these?"

"We have passions like anger and lust. What shall we do with these?"

श्रीरामकृष्ण- छः रिपुओं को ईश्वर की ओर मोड़ दो । आत्मा के साथ रमण करने की कामना हो । जो ईश्वर की राह पर बाधा पहुँचाते हैं उन पर क्रोध हो । उसे ही पाने के लिए लोभ । यदि ममता है तो उसी के लिए हो । जैसे ‘मेरे राम’ ‘मेरे कृष्ण’ । यदि अहंकार करना है तो विभीषण की तरह- ‘मैंने श्रीरामचन्द्रजी को प्रणाम किया, फिर यह सिर किसी दूसरे के सामने नहीं नवाऊँगा !’

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ছয় রিপুকে ঈশ্বরের দিকে মোড় ফিরিয়ে দাও।“আত্মার সহিত রমণ করা, এই কামনা। “যারা ঈশ্বরের পথে বাধা দেয় তাদের উপর ক্রোধ। তাঁকে পাবার লোভ। ‘আমার আমার’ যদি করতে হয়, তবে তাঁক লয়ে। যেমন — আমার কৃষ্ণ, আমার রাম। যদি অহংকার করতে হয় তো বিভীষণের মতো! — আমি রামকে প্রণাম করেছি — এ-মাথা আর কারু কাছে অবনত করব না।

"Direct the six passions to God. The impulse of lust should be turned into the desire to have intercourse with Atman. Feel angry at those who stand in your way to God. Feel greedy for Him. If you must have the feeling of I and mine, then associate it with God. Say, for instance, 'My Rama, my Krishna.' If you must have pride, then feel like Bibhishana, who said, 'I have touched the feet of Rama with my head; I will not bow this head before anyone else.'"

  [(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

*पापकर्मों का उत्तरदायित्व* 

ब्राह्मभक्त- यदि ईश्वर ही सब कुछ करा रहा है तो मैं पापों के लिए उत्तरदायी नहीं हूँ?

[ব্রাহ্মভক্ত — তিনিই যদি সব করাচ্ছেন, তাহলে আমি পাপের জন্য দায়ী নই?

 "If it is God that makes me do everything, then I am not responsible for my sins."

श्रीरामकृष्ण (हँसकर)- दुर्योधन ने वही बात कही थी- ‘त्वया हृषिकेश हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।’* ‘हे हृषिकेश, तुम हृदय में बैठकर जैसा करा रहे हो, वैसा ही मैं करता हूँ ।’   

(जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति:, जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्ति:।

त्वया हृषिकेश हृदि स्थितेन, यथा नियुक्त: अस्मि तथा करोमि॥

-प्रपन्नगीता

'मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। ‘हे हृषिकेश, तुम हृदय में बैठकर जैसा करा रहे हो, वैसा ही मैं करता हूँ ।’    दुर्योधन द्वारा कहा गया यह-- 'देव' श्रीकृष्ण नहीं , वस्तुतः कामिनी -कांचन में आसक्ति ही है, जिससे मनुष्य विवेक-विचारपूर्वक जानता हुआ भी धर्म का पालन और अधर्म का त्याग नहीं कर पाता। ] 

“जिसको ठीक विश्वास है कि ईश्वर ही कर्ता हैं और मैं उनका यंत्र हूँ, वह पाप नहीं कर सकता । जिसने नाचना सीख लिया है उसके पैर ताल के विरुद्ध नहीं पड़ते ।

“मन शुद्ध न होने से यह विश्वास ही नहीं होता कि ईश्वर है !”

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — দুর্যোধন ওই কথা বলেছিল,“ত্বয়া হৃষিকেশ হৃদিস্থিতেন, যথা নিযুক্তোঽস্মি তথা করোমি।“যার ঠিক বিশ্বাস — ‘ঈশ্বরই কর্তা আর আমি অকর্তা’ — তার পাপ কার্য হয় না। যে নাচতে ঠিক শিখেছে তার বেতালে পা পড়ে না।“অন্তর শুদ্ধ না হলে ঈশ্বর আছেন বলে বিশ্বাসই হয় না!”

"Yes, Duryodhana also said that. 'O Krishna, I do what Thou, seated in my heart, makest me do.' If a man has the firm conviction that God alone is the Doer and he is His instrument, then he cannot do anything sinful. He who has learnt to dance correctly never makes a false step. One cannot even believe in the existence of God until one's heart becomes pure."

श्रीरामकृष्ण उपासना-मन्दिर में एकत्रित भक्तों को देख रहे हैं और कहते हैं, “बीच बीच में इस तरह एक साथ मिलकर ईश्वर-चिन्तन करना और उनके नामगुण गाना बहुत अच्छा है ।

“परन्तु संसारी लोगों का ईश्वरानुराग क्षणिक है-वह उतनी ही देर तक ठहरता है जितना तपाये हुए लोहे पर पानी का छिड़काव ।”

{ঠাকুর উপাসনাগৃহে সমবেত লোকগুলিকে দেখিতেছেন ও বলিতেছেন — “মাঝে মাঝে এরূপ একসঙ্গে ঈশ্বরচিন্তা ও তাঁর নামগুণকীর্তন করা খুব ভাল।“তবে সংসারী লোকদের ঈশ্বরে অনুরাগ ক্ষণিক — যেমন তপ্ত লৌহে জলের ছিটে দিলে, জল তাতে যতক্ষণ থাকে!”

"It is very good to gather in this way, now and then, and think of God and sing His name and glories. But the worldly man's yearning for God is momentary. It lasts as long as a drop of water on a red-hot frying-pan."

  [(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

*ब्राह्म पुरोहित आचार्यों की ब्रह्मोपासना तथा पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण* 

अब सन्ध्या की उपासना होगी । वह बड़ा कमरा भक्तों से भर गया । कुछ ब्राह्म महिलाएँ हाथों में संगीत-पुस्तक (music books) लिए कुर्सियों पर आ बैठीं

पियानो और हार्मोनियम के सहारे ब्राह्म-संगीत होने लगा । गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण के आनन्द की सीमा न रही। क्रमशः उद्बोधन (मंगलाचरण), प्रार्थना और उपासना हुई । आचार्य वेदी पर बैठ वेदों से मन्त्रपाठ करने लगे ।

[এইবার উপাসনা আরম্ভ হবে। উপাসনার বৃহৎ প্রকোষ্ঠ ব্রাহ্মভক্তে পরিপূর্ণ হইল। কয়েকটি ব্রাহ্মিকা ঘরের উত্তরদিকে চেয়ারে আসিয়া বসিলেন — হাতে সঙ্গীতপুস্তক।পিয়ানো ও হারমোনিয়াম সংযোগে ব্রহ্মসঙ্গীত গীত হইতে জাগিল। সঙ্গীত শুনিয়া ঠাকুরের আনন্দের সীমা রহিল না। ক্রমে উদ্বোধন — প্রার্থনা — উপাসনা। বেদীতে উপবিষ্ট আচার্যগণ বেদ হইতে মন্ত্রপাঠ করিতে লাগিলেন:

The worship was about to begin, and the big hall was filled with Brahmo devotees. Some of the Brahmo ladies sat on chairs, with music books in their hands. The songs of the Brahmo Samaj were sung to the accompaniment of harmonium and piano. Sri Ramakrishna's joy was unbounded. The invocation was followed by a prayer, and then the worship began. The acharyas, seated on the platform, recited from the Vedas:

“ॐ पिता नोऽसि, पिता नि बोधि । नमस्तेऽस्तु मा मा हिंसीः ।

-तुम हमारे पिता हो, हमें सद्बुद्धि दो । तुम्हें नमस्कार है । हमें नष्ट न करो ।” 

Om. Thou art our Father. Give us right knowledge; do not destroy us! We bow to Thee.

 (शुक्ल यजुः वेद संहिता, XXXVII, 20)

ब्राह्मभक्त उनसे स्वर मिलाकर कहते हैं-

“ॐ सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।  (तैत्तिरीय उ०,ब्रह्मानन्दवल्ली 2/1) अर्थात् ब्रह्म सत्य और अनन्त ज्ञानस्वरूप है।Om. Brahman is Truth, Knowledge, Infinity.'आनन्दरूपममृतं यद्विभाति।'  (मु. 2/2/7)  It shines as Bliss and Immortality. ---सुख भौतिक है तो आनंद आध्यात्मिक;  वह ब्रह्म आनंद और अमृत्व के रूप में चमकता है।  ज्ञानी लोग विज्ञान से अर्थात्  पंच -कोषों और आत्मा के विवेक से अपने अंतर में स्थित उस आनंदरूपी ब्रह्म का दर्शन कर लेते हैं एवं ब्रह्मविद हो जाते हैं ।   " प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः (माण्डूक्य०-७)  Brahman is Peace, Blessedness, and the One without a Second;   'प्रपंच' - अर्थात जाग्रतादि अवस्थायें (जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति आदि)  जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा--- तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है। यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।  "शुद्धम पापविद्धम् ।”(ईशा/8) It is pure and unstained by sin. -यह शुद्ध आत्मा त्रिगुणों से निर्लिप्त और पाप से रहित है।

फिर आचार्यों ने स्तवपाठ किया । -


“ॐ नमस्ते सते ते जगत्कारणाय । नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रय याय ॥” (ब्रह्म – स्तोत्रम्) 

इत्यादि ।

ब्रह्म-स्त्रोत्र का पाठ करने के बाद सभी पुरोहित आचार्यों ने मिलकर प्रार्थना की-

[ স্তোত্রপাঠের পর আচার্যেরা প্রার্থনা করিতেছেন:Then the acharyas chanted their prayer together:

असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

मृत्योर्माऽमृतं गमय । आविराविर्म एधि ।

रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ।*

(* “मुझे अनित्य से नित्य को, अन्धकार से ज्योति को मृत्यु से अमरत्व को पहुँचाओ । मेरे पास आविर्भूत होओ। हे रुद्र, अपने कारुण्यपूर्ण मुख से सदा मेरी रक्षा करो ।

From the unreal lead us to the Real; from darkness lead us to Light; from death lead us to Immortality. Reach us through and through, O Rudra, and protect us evermore with Thy Compassionate Face.

स्तोत्रादि का पाठ सुनकर पैगम्बर वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो रहे हैं । अब आचार्य निबन्ध पढ़ते हैं ।

[স্ত্রোত্রাদি পাঠ শুনিয়া ঠাকুর ভাবাবিষ্ট হইতেছেন। এইবার আচার্য প্রবন্ধ পাঠ করিতেছেন।

As Sri Ramakrishna heard these hymns, he went into a spiritual mood. After this an acharya read a paper.

  [(2 मई, 1883) परिच्छेद ~ 32, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]  

* अहेतुक कृपासिन्धु -अक्रोध परमानन्द स्वरूप -पैगम्बर वरिष्ठ श्री रामकृष्ण

उपासना समाप्त हो गयी । भक्तों को खिलाने का प्रबन्ध हो रहा है । अधिकांश ब्राह्मभक्त नीचे आँगन और बरामदे में टहल रहे हैं--हवा का आनंद ले रहे हैं !  

रात के नौ बज गए । श्रीरामकृष्ण को दक्षिणेश्वर लौट जाना है । घर के मालिक निमन्त्रित गृही भक्तों की संवर्धना में इतने व्यस्त हैं कि श्रीरामकृष्ण की कोई खबर ही नहीं ले सकते । 

[উপাসনা হইয়া গেল। ভক্তদের লুচি, মিষ্টান্ন আদি খাওয়াইবার উদ্যোগ হইতেছে। ব্রাহ্মভক্তেরা অধিকাংশই নিচের প্রাঙ্গণে ও বারান্দায় বায়ুসেবন করিতেছেন।রাত নয়টা হইল। ঠাকুরের দক্ষিণেশ্বর-মন্দিরে ফিরিয়া যাইতে হইবে। গৃহস্বামীরা আহূত সংসারীভক্তদের লইয়া খাতির করিতে করিতে এত ব্যতিব্যস্ত হইয়াছেন যে, ঠাকুরের আর কোন সংবাদ লইতে পারিতেছেন না।

The worship was over. Most of the devotees went downstairs or to the courtyard for fresh air while the refreshments were being made ready. It was about nine o'clock in the evening. The hosts were so engrossed with the other invited guests that they forgot to pay any attention to Sri Ramakrishna.

श्रीरामकृष्ण (राखाल आदि से)- अरे, कोई बुलाता भी तो नहीं । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (রাখাল প্রভৃতির প্রতি) — কিরে কেউ ডাকে না যে রে!

 "What's the matter? Nobody is paying any attention to us!"

राखाल-(क्रोध में)- महाराज, आइए, हम दक्षिणेश्वर चलें ।

[রাখাল (সক্রোধে) — মহাশয়, চলে আসুন — দক্ষিণেশ্বরে যাই।

RAKHAL (angrily): "Sir, let us leave here and go to Dakshineswar."

श्रीरामकृष्ण (हँसकर)- अरे ठहर । गाड़ी का किराया-तीन रूपये-दो आने-कौन देगा ? चिढ़ने से ही काम न चलेगा ! पैसे का नाम नहीं, और थोथी झाँझ ! फिर इतनी रात को खाऊँ कहाँ ?  

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — আরে রোস্‌ — গাড়িভাড়া তিন টাকা দুআনা কে দেবে! — রোখ করলেই হয় না। পয়সা নাই আবার ফাঁকা রোখ! আর এত রাত্রে খাই কোথা! 

"Keep quiet! The carriage hire is three rupees and two annas. Who will pay that? Stubbornness won't get us anywhere. You haven't a penny, and you are making these empty threats! Besides, where shall we find food at this late hour of the night?"]

बड़ी देर में सुना गया कि पत्तलें बिछी हैं । सब भक्त एक साथ बुलाए गए । उन भीड़ में श्रीरामकृष्ण भी राखाल आदि के साथ दूसरे मँजले में भोजन करने चले । बैठने का स्थान साफ़ किया हुआ नहीं  था । एक रसोइया ठकुराइन ने भाजी परोसी । श्रीरामकृष्ण को उसे खाने की रुचि नहीं हुई । उन्होंने नमक के सहारे एक आध पूड़ी और थोडीसी मिठाई खायी । 

[অনেকক্ষণ পরে শোনা গেল, পাতা হইয়াছে। সব ভক্তদের এককালে আহ্বান করা হইল। সেই ভিড়ে ঠাকুর রাখাল প্রভৃতির সঙ্গে দ্বিতলায় জলযোগ করিতে চলিলেন। ভিড়েতে বসিবার জায়গা পাওয়া যাইতেছে না। অনেক কষ্টে ঠাকুরকে একধারে বসানো হইল। স্থানটি অপরিষ্কার। একজন রন্ধনী-ব্রাহ্মণী তরকারি পরিবেশন করিল — ঠাকুরের তরকারি খাইতে প্রবৃত্তি হইল না। তিনি নুন টাক্‌না দিয়া লুচি খাইলেন ও কিঞ্চিৎ মিষ্টান্ন গ্রহণ করিলেন।

आप दयासागर हैं । गृहस्वामी लड़के हैं । वे आपकी पूजा करना नहीं जानते तो क्या आप उनसे नाराज होंगे? अगर आप बिना खाए चले जायें तो उनका अमंगल होगा । फिर उन्होंने तो ईश्वर के ही उद्देश्य से इतना आयोजन किया ।  

{ঠাকুর দয়াসিন্ধু। গৃহস্বামীদের ছোকরা বয়স। তাহারা তাঁহার পূজা করিতে জানে না বলিয়া তিনি কেন বিরক্ত হইবেন? তিনি না খাইয়া চলিয়া গেলে যে, তাহাদের অমঙ্গল হইবে। আর তাহারা ঈশ্বরকে উদ্দেশ করিয়াই এই সমস্ত আয়োজন করিয়াছে।

There was no limit to the Master's kindness. The hosts were mere youngsters; how could he be displeased with them, even though they did not show him proper respect? Further, it would have been inauspicious for the household if a holy man had left the place without taking food. Finally, the feast had been prepared in the name of God.

भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठे । गाड़ी का किराया कौन दे ? उस भीड़ में गृहस्वामियों का पता ही नहीं चलता था । इस किराये के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण ने बाद में विनोद करते हुए भक्तों से कहा था- “गाड़ी का किराया माँगने गया ! पहले तो उसे भगा ही दिया । फिर बड़ी कोशिश से तीन रूपये मिले, पर दो आने नहीं दिए । कहा कि उसी से हो जायगा !” 

[আহারান্তে ঠাকুর গাড়িতে উঠিলেন। গাড়িভাড়া কে দিবে? গৃহস্বামীদের দেখতেই পাওয়া যাচ্ছে না। ঠাকুর গাড়িভাড়া সম্বন্ধে ভক্তদের কাছে আনন্দ করিতে করিতে গল্প করিয়াছিলেন —“গাড়িভাড়া চাইতে গেল। তা প্রথমে হাঁকিয়া দিলে! — তারপর অনেক কষ্টে তিন টাকা পাওয়া গেল, দুআনা আর দিলে না! বলে, ওইতেই হবে।

”Sri Ramakrishna got into a carriage: but who was to pay the hire? The hosts could not be found. Referring to this incident afterwards, the Master said to the devotees, jokingly: "The boys went to our hosts for the carriage hire. First they were put out, but at last they managed to get together three rupees. Our hosts refused to pay the extra two annas and said, 'No, that will do.'

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