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मंगलवार, 23 मार्च 2021

🔆🙏 परिच्छेद ~2, [ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ] 🔆🙏*द्वितीय दर्शन* गुरु -शिष्य संवाद 🔆🙏'परम् सत्य /परम् आनन्द/ भूमा की या अपने सच्चे स्वरुप की खोज'🔆🙏 माता महाकाली ने ही श्रीकृष्ण के रूप में लिया था अवतार🔆🙏श्री केशवचन्द्र सेन के लिए श्रीरामकृष्ण का जगन्माता के पास रोना 🔆🙏गृहस्थ तथा पिता का कर्तव्य 🔆🙏मास्टर का तिरस्कार तथा उनका अहंकार चूर्ण करना"मूर्ति-पूजा 🔆🙏निराकार (Formless) भी सत्य है और साकार (corporeal) भी सत्य है🔆🙏 लेक्चर तथा श्रीरामकृष्ण 🔆🙏भक्ति का उपाय ~ मनःसंयोग अर्थात विवेक-दर्शन का अभ्यास 🔆🙏 गृहस्थ जीवन में कामिनी-कांचन से अनासक्त होने के उपाय- निर्जन में साधना 🔆🙏ठाकुर-माँ -स्वामीजी की भक्ति पाने के लिए निर्जनवास (कैम्प) अनिवार्य है🔆🙏🔆🙏 विवेक-प्रयोग करें संसार जल है और मन मानो दूध की तरह है🔆🙏 ईश्वर-दर्शन के उपाय🔆🙏 कामिनी-कांचन (woman and gold)" में अनासक्त बनो !

*द्वितीय दर्शन* 

(1)

 अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 

(जिनकी कृपा से सम्पूर्ण चराचर जगत् में व्याप्त परमात्मा का बोध हुआ है उन गुरुदेव को मेरा प्रणाम है।)

 [ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏*द्वितीय दर्शन*  गुरु -शिष्य संवाद🔆🙏 

सुबह का समय था, आठ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण उस समय दाढ़ी बनवाने की तैयारी में थे । तब भी थोड़ी ठण्डी थी । इसलिये वे शरीर पर गरम किनारीदार शाल ओढ़े हुए थे । मास्टर को देखकर उन्होंने कहा, “तुम आए हो? अच्छा, यहाँ बैठो ।” 

[দ্বিতীয় দর্শন সকাল বেলা, আটটার সময়। ঠাকুর তখন কামাতে যাচ্ছেন। এখনও একটু শীত আছে। তাই তাঁহার গায়ে মোলেস্কিনের র‌্যাপার। র‌্যাপারের কিনারা শালু দিয়ে মোড়া। মাস্টারকে দেখিয়া বলিলেন, তুমি এসেছ? আচ্ছা, এখানে বস।

   यह वार्तालाप श्रीरामकृष्ण के कमरे के दक्षिण-पूर्व बरामदे में हो रहा था । नाई आया हुआ था । श्रीरामकृष्ण उसी बरामदे में बैठकर दाढ़ी बनवाने लगे । बीच बीच में वे मास्टर के साथ बातचीत कर रहे थे । शरीर पर शाल थी, पैर में जूतियाँ । सहास्यवदन थे । बात करते समय कुछ तुतलाते थे । 

[এ-কথা দক্ষিণ-পূর্ব বারান্দায় হইতেছিল। নাপিত উপস্থিত। সেই বারান্দায় ঠাকুর কামাইতে বসিলেন ও মাঝে মাঝে মাস্টারের সহিত কথা কহিতে লাগিলেন। গায়ে ওইরূপ র‌্যাপার, পায়ে চটি জুতা, সহাস্যবদন। কথা কহিবার সময় কেবল একটু তোতলা।

M.'s second visit to Sri Ramakrishna took place on the southeast verandah at eight o'clock in the morning. The Master was about to be shaved, the barber having just arrived. As the cold season still lingered he had put on a moleskin shawl bordered with red. Seeing M., the Master said: "So you have come. That's good. Sit down here." He was smiling. He stammered a little when he spoke.

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से)- क्यों जी, तुम्हारा घर कहाँ है?

[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — হ্যাঁগা, তোমার বাড়ি কোথায়?

SRI RAMAKRISHNA (to M.): "Where do you live?"

मास्टर- जी कलकत्ते में । 

[মাস্টার — আজ্ঞা, কলিকাতায়।

M: "In Calcutta, sir."

श्रीरामकृष्ण- यहाँ कहाँ आए हो? 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — এখানে কোথায় এসেছ?

SRI RAMAKRISHNA: "Where are you staying here?"

मास्टर- यहाँ वराहनगर में बड़ी दीदी के घर आया हूँ, -ईशान कविराज के यहाँ । 

[মাস্টার — এখানে বরাহনগরে বড়দিদির বাড়ি আসিয়াছি। ঈশান কবিরাজের বাটী।

M: "I am at Baranagore at my older sister's — Ishan Kaviraj's house."

श्रीरामकृष्ण- ओहो, ईशान के यहाँ । - क्यों जी, केशव अब कैसा है-बहुत बीमार था । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওহ্‌ ঈশানের বাড়ি! হ্যাঁগা, কেশব কেমন আছে? বড় অসুখ হয়েছিল।

SRI RAMAKRISHNA: "Oh, at Ishan's? Well, how is Keshab now? He was very ill."

मास्टर- जी हाँ, मैंने भी सुना था कि बीमार हैं, पर अब शायद अच्छे हैं । 

[মাস্টার — আমিও শুনেছিলাম বটে, এখন বোধ হয় ভাল আছেন।

M: "Indeed, I have heard so too, but I believe he is well now."

 [ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏श्री केशवचन्द्र सेन के लिए श्रीरामकृष्ण का जगन्माता के पास रोना🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण- मैंने तो केशव के लिए माँ के निकट नारियल और चीनी की पूजा मानी थी । रात को जब नींद उचट जाती थी, तब माँ के पास रोता और कहता था, - ‘माँ, केशव की बिमारी अच्छी कर दे । केशव अगर न रहा तो मैं कलकत्ते जाकर बातचीत किससे करूँगा?’ इसी से तो नारियल-चीनी मानी थी।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি আবার কেশবের জন্য মার কাছে ডাব-চিনি মেনেছিলুম। শেষরাত্রে ঘুম ভেঙে যেত, আর মার কাছে কাঁদতুম, বলতুম, মা, কেশবের অসুখ ভাল করে দাও; কেশব না থাকলে আমি কলকাতায় গেলে কার সঙ্গে কথা কব? তাই ডাব-চিনি মেনেছিলুম।

SRI RAMAKRISHNA: "I made a vow to worship the Mother with green coconut and sugar on Keshab's recovery. Sometimes, in the early hours of the morning, I would wake up and cry before Her: 'Mother, please make Keshab well again. If Keshab doesn't live, whom shall I talk with when I go to Calcutta?' And so it was that I resolved to offer Her the green coconut and sugar.

“क्यों जी, क्या कोई कुक साहब आया है? सुना वह लेक्चर (व्याख्यान) देता है । मुझे केशव जहाज पर चढ़ाकर ले गया था । कुक साहब भी साथ था ।” 

[“হ্যাঁগা, কুক্‌ সাহেব নাকি একজন এসেছে? সে নাকি লেকচার দিচ্ছে? আমাকে কেশব জাহাজে তুলে নিয়ে গিছিল। কুক্‌ সাহেবও ছিল।”

"Tell me, do you know of a certain Mr. Cook who has come to Calcutta? Is it true that he is giving lectures? Once Keshab took me on a steamer, and this Mr. Cook, too, was in the party."

मास्टर- जी हाँ, ऐसा ही कुछ मैंने भी सुना था । परन्तु मैंने उनका लेक्चर नहीं सुना । उनके विषय में ज्यादा कुछ मैं नहीं जानता ।

[মাস্টার — আজ্ঞা, এইরকম শুনেছিলুম বটে, কিন্তু আমি তাঁর লেকচার শুনি নাই। আমি তাঁর বিষয় বিশেষ জানি না।

M: "Yes, sir, I have heard something like that; but I have never been to his lectures. I don't know much about him."

 [ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏गृहस्थ तथा पिता का कर्तव्य🔆🙏

श्रीरामकृष्ण- प्रताप का भाई आया था । कुछ दिन यहाँ रहा । काम-काज कुछ है नहीं । कहता है, मैं यहाँ रहूँगा । सुनते हैं, जोरू जाता सब को ससुराल भेज दिया है । कच्चे-बच्चे कई हैं । मैंने खूब डाँटा भला देखो तो, लड़के-बच्चे हुए हैं, उनकी देख-रेख, उनका पालपोष तुम न करोगे तो क्या कोई गाँववाला करेगा? शर्म नहीं आती, बीवी-बच्चों को ससुर के यहाँ रख दिया है, उन्हें कोई और पाल रहा है । बहुत डाँटा और काम-काज खोज लेने को कहा, तब यहाँ से गया ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — প্রতাপের ভাই এসেছিল। এখানে কয়দিন ছিল। কাজকর্ম নাই। বলে, আমি এখানে থাকব। শুনলাম, মাগছেলে সব শ্বশুরবাড়িতে রেখেছে। অনেকগুলি ছেলেপিলে। আমি বকলুম, দেখ দেখি ছেলেপিলে হয়েছে; তাদের কি আবার ও-পাড়ার লোক এসে খাওয়াবে-দাওয়াবে, মানুষ করবে? লজ্জা করে না যে, মাগছেলেদের আর একজন খাওয়াচ্ছে, আর তাদের শ্বশুরবাড়ি ফেলে রেখেছে। অনেক বকলুম, আর কর্মকাজ খুঁজে নিতে বললুম। তবে এখান থেকে যেতে চায়

 "Pratap's brother came here. He stayed a few days. He had nothing to do and said he wanted to live here. I came to know that he had left his wife and children with his father-in-law. He has a whole brood of them! So I took him to task. Just fancy! He is the father of so many children! Will people from the neighbourhood feed them and bring them up? He isn't even ashamed that someone else is feeding his wife and children, and that they have been left at his father-in-law's house. I scolded him very hard and asked him to look for a job. Then he was willing to leave here.] 

(2) 

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवेः नमः ॥

अर्थात् अज्ञानरूपी (अविद्या) अन्धकार से अन्धे हुए जीव की आँखें जिसने " ज्ञानरूपी काजल " ~ (विवेक-प्रयोग रूपी अंजन)  की श्लाका से खोली हैं, ऐसे श्री सदगुरू को नमन है, प्रणाम है।

[ अज्ञानरूपी (अविद्या-माया ) अन्धकार से अन्धे हुए जीव (स्वयं 'भेंड़-शिशु'  समझने वाले 'सिंह -शावक') की आँखें जिसने " ज्ञानरूपी काजल " ~ (विवेक- अंजन पत्रिका के प्रकाशन की अनुमति) की श्लाका से खोली हैं, ऐसे श्री सदगुरू, जीवनमुक्त शिक्षक , नेता (C-IN-C श्रीनवनीदा)  को नमन है, प्रणाम है।] 

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏मास्टर का तिरस्कार तथा उनका अहंकार चूर्ण करना🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण(मास्टर से)- क्या तुम्हारा विवाह हो गया है? 
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তোমার কি বিবাহ হয়েছে?
"Are you married?"

मास्टर- जी हाँ । 
[মাস্টার — আজ্ঞে হাঁ।

M: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण (चौंककर) - अरे रामलाल *, अरे अपना विवाह तो इसने कर डाला । मास्टर घोर अपराधी जैसे सिर नीचा किए चुपचाप बैठे रहे । सोचने लगे, विवाह करना क्या इतना बड़ा अपराध है ?
[रामलाल * श्रीरामकृष्ण के भतीजे और कालीजी के पुजारी हैं ।] 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (শিহরিয়া) — ওরে রামলাল১ যাঃ, বিয়ে করে ফেলেছে! মাস্টার ঘোরতর অপরাধীর ন্যায় অবাক্‌ হইয়া অবনতমস্তকে চুপ করিয়া বসিয়া রহিলেন। ভাবিতে লাগিলেন, বিয়ে করা কি এত দোষ!
SRI RAMAKRISHNA (with a shudder): "Oh, Ramlal!' (A nephew of Sri Ramakrishna, and a priest in the Kali temple.) Alas, he is married!"Like one guilty of a terrible offence, M. sat motionless; his eyes fixed on the ground. He thought, "Is it such a wicked thing to get married?"

श्रीरामकृष्ण ने फिर पूछा- “क्या तुम्हारे लड़के-बच्चे भी हैं?” 

[ঠাকুর আবার জিজ্ঞাসা করিলেন, তোমার কি ছেলে হয়েছে?

The Master continued, "Have you any children?"

मास्टर का कलेजा काँप उठा । डरते हुए बोले- “जी हाँ, लड़के-बच्चे हुए हैं ।” 

[মাস্টারের বুক ঢিপঢিপ করিতেছে। ভয়ে ভয়ে বলিলেন, আজ্ঞে, ছেলে হয়েছে।
M. this time could hear the beating of his own-heart. He whispered in a trembling voice, "Yes, sir, I have children."

श्रीरामकृष्ण ने फिर दुःख के साथ कहा- “अरे लड़के भी हो गए !”

[ঠাকুর আবার আক্ষেপ করিয়া বলিতেছেন, যাঃ, ছেলে হয়ে গেছে! তিরস্কৃত হইয়া তিনি স্তব্ধ হইয়া রহিলেন।
Very sadly Sri Ramakrishna said, "Ah me! He even has children!"

इस तरह तिरस्कृत होकर मास्टर चुपचाप बैठे रहे । उनका अहंकार चूर्ण होने लगा । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण सस्नेह कहने लगे, “देखो, तुम्हारे लक्षण अच्छे हैं, यह सब मैं किसी के कपाल, आँखें आदि को देखते ही जान लेता हूँ । 

[তাঁহার অহঙ্কার চূর্ণ হইতে লাগিল। কিয়ৎক্ষণ পরে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আবার কৃপাদৃষ্টি করিয়া সস্নেহে বলিতে লাগিলেন, “দেখ, তোমার লক্ষণ ভাল ছিল, আমি কপাল, চোখ — এ-সব দেখলে বুঝতে পারি। 
Thus rebuked M. sat speechless. His pride had received a blow. After a few minutes Sri Ramakrishna looked at him kindly and said affectionately; "You see, you have certain good signs. I know them by looking at a person's forehead, his eyes, and so on.

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏ईश्वर को जान लेना ज्ञान है और न जानना अज्ञान 🔆🙏 
 
अच्छा, तुम्हारी स्त्री कैसी है? विद्या-शक्ति है या अविद्या-शक्ति?” 

[আচ্ছা, তোমার পরিবার কেমন? বিদ্যাশক্তি না অবিদ্যাশক্তি?”
Tell me, now, what kind of person is your wife? Has she spiritual attributes, or is she under the power of avidya?"

मास्टर- जी अच्छी है, पर अज्ञान है ।

[মাস্টার — আজ্ঞা ভাল, কিন্তু অজ্ঞান।
M: "She is all right. But I am afraid she is ignorant."

श्रीरामकृष्ण (अप्रसन्न होकर)- और तुम ज्ञानी हो? 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — আর তুমি জ্ঞানী?
MASTER (with evident displeasure): "And you are a man of knowledge!"

मास्टर नहीं जानते ज्ञान किसे कहते हैं और अज्ञान किसे । अभी तो उनकी धारणा यही है कि कोई लिख-पढ़ ले तो मानो ज्ञानी हो गया । उनका यह भ्रम दूर तब हुआ जब उन्होंने सुना कि ईश्वर को जान लेना ज्ञान है और न जानना अज्ञान । श्रीरामकृष्ण की इस बात से कि ‘तुम ज्ञानी हो?’ मास्टर के अहंकार पर फिर धक्का लगा । 

[তিনি জ্ঞান কাহাকে বলে, অজ্ঞান কাহাকে বলে, এখনও জানেন না। এখনও পর্যন্ত জানিতেন যে, লেখাপড়া শিখিলে ও বই পড়িতে পারিলে জ্ঞান হয়। এই ভ্রম পরে দূর হইয়াছিল। তখন শুনিলেন যে, ঈশ্বরকে জানার নাম জ্ঞান, ঈশ্বরকে না জানার নামই অজ্ঞান। ঠাকুর বলিলেন, “তুমি কি জ্ঞানী!” মাস্টারের অহঙ্কারে আবার বিশেষ আঘাত লাগিল।
M. had yet to learn the distinction between knowledge and ignorance. Up to this time his conception had been that one got knowledge from books and schools. Later on he gave up this false conception. He was taught that to know God is knowledge, and not to know Him, ignorance. When Sri Ramakrishna exclaimed, "And you are a man of knowledge!", M.'s ego was again badly shocked.]

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

मूर्ति-पूजा

🔆🙏निराकार (Formless) भी सत्य है और साकार (corporeal) भी सत्य है🔆🙏

[जो माँ दुर्गा निर्गुण -निराकार है, वही मूर्ति-पूजा में सगुण-साकार होती हैं, माँ दुर्गा ही मानव रूप में श्रीकृष्ण की आल्हादिनी शक्ति श्री राधा हैं !]   

श्रीरामकृष्ण- अच्छा, तुम्हारा विश्वास ‘साकार’ पर है या ‘निराकार’ पर?’ 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, তোমার ‘সাকারে’ বিশ্বাস, না ‘নিরাকারে’?
Well, do you believe in God with form or without form?"

मास्टर मन ही मन सोचने लगे, ‘यदि साकार पर विश्वास हो तो क्या निराकार पर भी विश्वास हो सकता है? ईश्वर निराकार है-यदि ऐसा विश्वास हो तो ईश्वर साकार है ऐसा भी विश्वास कभी हो सकता है? ये दोनों विरोधी भाव किस प्रकार सत्य हो सकते हैं? सफेद दूध क्या कभी काला हो सकता है?’ 
[মাস্টার (অবাক্‌ হইয়া স্বগত) — সাকারে বিশ্বাস থাকলে কি নিরাকারে বিশ্বাস হয়? ঈশ্বর নিরাকার, এ-বিশ্বাস থাকিলে ঈশ্বর সাকার এ-বিশ্বাস কি হইতে পারে? বিরুদ্ধ অবস্থা দুটাই কি সত্য হইতে পারে? সাদা জিনিস — দুধ, কি আবার কালো হতে পারে?
M., rather surprised, said to himself: "How can one believe in God without form when one believes in God with form? And if one believes in God without form, how can one believe that God has a form? Can these two contradictory ideas be true at the same time? Can a white liquid like milk be black?"

मास्टर- निराकार मुझे अधिक पसन्द है । 

[মাস্টার — আজ্ঞা, নিরাকার — আমার এইটি ভাল লাগে।
M: "Sir, I like to think of God as formless."

श्रीरामकृष्ण- अच्छी बात है । किसी एक पर विश्वास रखने से काम हो जायगा । निराकार पर विश्वास करते हो, अच्छा है । पर यह न कहना कि यही सत्य है, और सब झूठ । यह समझना कि निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है । जिस पर तुम्हारा विश्वास हो उसी को पकड़े रहो

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বেশ। একটাতে বিশ্বাস থাকলেই হল। নিরাকারে বিশ্বাস, তাতো ভালই। তবে এ-বুদ্ধি করো না যে, এইটি কেবল সত্য আর সব মিথ্যা। এইটি জেনো যে, নিরাকারও সত্য আবার সাকারও সত্য। তোমার যেটি বিশ্বাস, সেইটিই ধরে থাকবে।
MASTER: "Very good. It is enough to have faith in either aspect. You believe in God without form; that is quite all right. But never for a moment think that this alone is true and all else false. Remember that God with form is just as true as God without form. But hold fast to your own conviction."

दोनों सत्य हैं, यह सुनकर मास्टर चकित हो गए । यह बात उनके किताबी ज्ञान में तो थी नहीं ! तीसरी बार धक्का खाकर उनका अहंकार चूर्ण हुआ, पर अभी कुछ रह गया था; इसलिये फिर वे तर्क करने को आगे बढ़े । 

[মাস্টার দুইই সত্য এই কথা বারবার শুনিয়া অবাক্‌ হইয়া রহিলেন। এ-কথা তো তাঁহার পুঁথিগত বিদ্যার মধ্যে নাই। তাঁহার অহঙ্কার তৃতীয়বার চূর্ণ হইতে লাগিল। কিন্তু এখনও সম্পূর্ণ হয় নাই। তাই আবার একটু তর্ক করিতে অগ্রসর হইলেন।
The assertion that both are equally true amazed M.; he had never learnt this from his books. Thus his ego received a third blow; but since it was not yet completely crushed, he came forward to argue with the Master a little more.

 मास्टर- अच्छा, वे साकार हैं, यह विश्वास मानो हुआ । पर मिट्टी की या पत्थर की मूर्ति तो वे हैं नहीं । 

[মাস্টার — আজ্ঞা, তিনি সাকার, এ-বিশ্বাস যেন হল! কিন্তু মাটির প্রতিমা তিনি তো নন 
—M: "Sir, suppose one believes in God with form. Certainly He is not the clay image!"

श्रीरामकृष्ण- मिट्टी की मूर्ति वे क्यों होने लगे? पत्थर या मिट्टी नहीं, चिन्मयी मूर्ति

[শ্রীরামকৃষ্ণ — মাটি কেন গো! চিন্ময়ী প্রতিমা।
 MASTER (interrupting): "But why clay? It is an image of Spirit."

चिन्मयी मूर्ति, यह बात मास्टर न समझ सके । उन्होंने कहा- “अच्छा, जो मिट्टी की मूर्ति पूजते हैं, उन्हें समझाना भी तो चाहिये कि मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है और मूर्ति के सामने ईश्वर की ही पूजा करना ठीक है, किन्तु मूर्ति की नहीं !” 

[মাস্টার ‘চিন্ময়ী প্রতিমা’ বুঝিতে পারিলেন না। বলিলেন, আচ্ছা, যারা মাটির প্রতিমা পূজা করে, তাদের তো বুঝিয়ে দেওয়া উচিত যে, মাটির প্রতিমা ঈশ্বর নয়, আর প্রতিমার সম্মুখে ঈশ্বরকে উদ্দেশ করে পূজা করা উচিত।
M. could not quite understand the significance of this "image of Spirit". "But, sir," he said to the Master, "one should explain to those who worship the clay image that it is not God, and that, while worshipping it, they should have God in view and not the clay image. One should not worship clay."

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏 लेक्चर तथा श्रीरामकृष्ण 🔆🙏

[महामण्डल द्वारा आयोजित कैम्प में लेक्चर कौन देगा इसकी व्यवस्था जगद्गुरु अवतरवरिष्ठ श्री रामकृष्ण करते हैं।]  

श्रीरामकृष्ण (अप्रसन्न होकर) - तुम्हारे कलकत्ते के आदमियों में यही एक धुन सवार है, -सिर्फ लेक्चर देना और दूसरों को समझाना ! अपने को कौन समझाए, इसका ठिकाना नहीं । अजी समझनेवाले तुम हो कौन? 

[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — তোমাদের কলকাতার লোকের ওই এক! কেবল লেকচার দেওয়া, আর বুঝিয়ে দেওয়া! আপনাকে কে বোঝায় তার ঠিক নাই।! তুমি বুঝাবার কে?

MASTER (sharply): "That's the one hobby of you Calcutta people — giving lectures and bringing others to the light! Nobody ever stops to consider how to get the light himself. Who are you to teach others?

जिनका संसार है वे समझाएँगे । जिन्होंने सृष्टि रची है, सूर्य-चन्द्र, मनुष्य, जीव-जन्तु बनाए हैं, जीव-जन्तुओं के भोजन के उपाय सोचे हैं, उनका पालन करने के लिए माता-पिता बनाए हैं, माता-पिता में स्नेह का संचार किया है-वे समझाएँगे । इतने उपाय तो उन्होंने किए और यह उपाय वे न करेंगे? 

[যাঁর জগৎ, তিনি বুঝাবেন। যিনি এই জগৎ করেছেন, চন্দ্র, সূর্য, মানুষ, জীবজন্তু করেছেন; জীবজন্তুদের খাবার উপায়, পালন করবার জন্য মা-বাপ করেছেন, মা-বাপের স্নেহ করেছেন তিনিই বুঝাবেন।
"He who is the Lord of the Universe will teach everyone. He alone teaches us, who has created this universe; who has made the sun and moon", men and beasts, and all other beings; who has provided means for their sustenance; who has given children parents and endowed them with love to bring them up. The Lord has done so many things — will He not show people the way to worship Him? If they need teaching, then He will be the Teacher. He is our Inner Guide.

अगर समझाने की जरूरत होगी तो वे समझाएँगे, क्योंकि वे अन्तर्यामी हैं । यदि मिट्टी की मूर्ति पूजने में कोई भूल होगी तो क्या वे नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है? वे उसी पूजा से संतुष्ट होते हैं । इसके लिए तुम्हारा सिर क्यों धमक रहा है? तुम यह चेष्टा करो जिससे तुम्हें ज्ञान हो-भक्ति हो । 
[ তিনি এত উপায় করেছেন, আর এ-উপায় করবেন না? যদি বুঝাবার দরকার হয় তিনিই বুঝাবেন। তিনি তো অন্তর্যামী। যদি ওই মাটির প্রতিমাপূজা করাতে কিছু ভুল হয়ে থাকে, তিনি কি জানেন না — তাঁকেই ডাকা হচ্ছে? তিনি ওই পূজাতেই সন্তুষ্ট হন। তোমার ওর জন্য মাথা ব্যথা কেন? তুমি নিজের যাতে জ্ঞান হয়, ভক্তি হয়, তার চেষ্টা কর।

"Suppose there is an error in worshipping the clay image; doesn't God know that through it He alone is being invoked? He will be pleased with that very worship. Why should you get a headache over it? You had better try for knowledge and devotion yourself."] 

अब शायद मास्टर का अहंकार बिलकुल चूर्ण हो गया । वे सोचने लगे, ‘ये जो कह रहे हैं वह ठीक ही तो है । मुझे दूसरों को समझाने की क्या जरूरत? क्या मैंने ईश्वर को जान लिया है, या मुझमें उनके प्रति विशुद्ध भक्ति उत्पन्न हुई है? स्वयं के सोने के लिए जगह नहीं है, और लोगों को न्यौता दे रहे हैं स्वयं को कुछ ज्ञान नहीं, अनुभव नहीं, और दूसरों को समझाने चले हैं ! वास्तव में कितनी लज्जा की बात है, कितनी हीन बुद्धि का काम है । क्या यह गणित, इतिहास या साहित्य है कि दूसरों को समझा दे? यह ईश्वरीय ज्ञान है । ये जो बातें कह रहे हैं, वे कैसे हृदय को स्पर्श कर रही है ! 

[এইবার তাঁহার অহঙ্কার বোধ হয় একেবারে চূর্ণ হইল। তিনি ভাবিতে লাগিলেন, ইনি যা বলেছেন তাতো ঠিক! আমার বুঝাতে যাবার কি দরকার! আমি কি ঈশ্বরকে জেনেছি — না আমার তাঁর উপর ভক্তি হয়েছে! “আপনি শুতে স্থান পায় না, শঙ্করাকে ডাকে!” জানি না, শুনি না, পরকে বুঝাতে যাওয়া বড়ই লজ্জার কথা ও হীনবুদ্ধির কাজ! একি অঙ্কশাস্ত্র, না ইতিহাস, না সাহিত্য যে পরকে বুঝাব! এ-যে ঈশ্বরতত্ত্ব। ইনি যা বলছেন, মনে বেশ লাগছে।
This time M. felt that his ego was completely crushed. He now said to himself: "Yes, he has spoken the truth. What need is there for me to teach others? Have I known God? Do I really love Him? 'I haven't room enough for myself in my bed, and I am inviting my friend to share it with me!' I know nothing about God, yet I am trying to teach others. What a shame! How foolish I am! This is not mathematics or history or literature, that one can teach it to others. No, this is the deep mystery of God; What he says appeals to me.
 
श्रीरामकृष्ण के साथ मास्टर का यही प्रथम और यही अन्तिम तर्कवाद था ।

[ঠাকুরের সহিত তাঁহার এই প্রথম ও শেষ তর্ক।
This was M.'s first argument with the Master, and happily his last.

(3)


संसारार्णवघोरे यः कर्णधारस्वरुपकः ।
नमोऽस्ते रामकृष्णाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 

[संसार नित्य परिवर्तनशील है, संसार रूपी समुद्र में बड़ी बड़ी लहरें निरंतर उठती और गिरती ही रहती हैं। ऐसे घोर तूफान में भी हमारी जीवन नौका के जो खेवैया हैं,  या जहाज के जो कप्तान (C-IN-C) हैं, उन भगवान श्रीरामकृष्ण को मैं अपना गुरु मानकर नमस्कार करता हूँ ! " --जगद्गुरु श्री रामकृष्ण स्तोत्रम्-12"- ]  

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏भक्ति का उपाय ~ मनःसंयोग अर्थात विवेक-दर्शन का अभ्यास 🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण- तुम मिट्टी की मूर्ति की पूजा की बात कहते थे । यदि मिट्टी ही की हो तो भी उस पूजा की जरूरत है । देखो, सब प्रकार की पूजाओं की योजना ईश्वर ने ही की है । जिनका यह संसार है, उन्होंने ही यह सब किया है । जो जैसा अधिकारी है उसके लिए वैसा ही अनुष्ठान ईश्वर ने किया है । लड़के को जो भोजन रुचता है और जो उसे सह्य है, वही भोजन उसके लिए माँ पकाती है; समझते हो भाई ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি মাটির প্রতিমাপূজা বলছিলে। যদি মাটিরই হয়, সে-পূজাতে প্রয়োজন আছে। নানারকম পূজা ঈশ্বরই আয়োজন করেছেন। যার জগৎ তিনিই এ-সব করেছেন — অধিকারী ভেদে। যার যা পেটে সয়, বা সেইরূপ খাবার বন্দোবস্ত করেন। “এক মার পাঁচ ছেলে। বাড়িতে মাছ এসেছে। মা মাছের নানারকম ব্যঞ্জন করেছেন — যার যা পেটে সয়! কারও জন্য মাছের পোলোয়া, কারও জন্যে মাছের অম্বল, মাছের চড়চড়ি, মাছ ভাজা — এই সব করেছেন। যেটি যার ভাল লাগে। যেটি যার পেটে সয় — বুঝলে?”
MASTER: "You were talking of worshipping the clay image. Even if the image is made of clay, there is need for that sort of worship. God Himself has provided different forms of worship. He who is the Lord of the Universe has arranged all these forms to suit different men in different stages of knowledge.
"The mother cooks different dishes to suit the stomachs of her different children. Suppose she has five children. If there is a fish to cook, she prepares various dishes from it — pilau, pickled fish, fried fish, and so on — to suit their different tastes and powers of digestion. "Do you understand me?" 

मास्टर (विनीत भाव से)जी हाँ । लेकिन ईश्वर में मन को लगाया कैसे जाता है ?

[মাস্টার (বিনীতভাবে) — আজ্ঞে হাঁ।  — ঈশ্বরে কি করে মন হয়?

[Yes, sir. How, sir, may we fix our minds on God?" 

श्रीरामकृष्ण- सर्वदा ईश्वर का (अवतार-वरिष्ठ का) नाम-गुणगान करना चाहिए, सत्संग करना चाहिए-बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये । संसार में दिनरात विषय के भीतर पड़े रहने से मन ईश्वर में नहीं लगता । कभी कभी निर्जन स्थान में जाकर ईश्वर की चिन्ता करना बहुत जरुरी है । प्रथम अवस्था में बीच बीच में एकांतवास किए बिना ईश्वर में मन लगाना बड़ा कठिन है
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরের নামগুণগান সর্বদা করতে হয়। আর সৎসঙ্গ — ঈশ্বরের ভক্ত বা সাধু, এঁদের কাছে মাঝে মাঝে যেতে হয়। সংসারের ভিতর ও বিষয়কাজের ভিতর রাতদিন থাকলে ঈশ্বরে মন হয় না। মাঝেমাঝে নির্জনে গিয়ে তাঁর চিন্তা করা বড় দরকার। প্রথম অবস্থায় মাঝে মাঝে নির্জন না হলে ঈশ্বরে মন রাখা বড়ই কঠিন।
MASTER: "Repeat God's name and sing His glories, and keep holy company; and now and then visit God's devotees and holy men. The mind cannot dwell on God if it is immersed day and night in worldliness, in worldly duties and responsibilities; it is most necessary to go into solitude now and then and think of God. To fix the mind on God is very difficult, in the beginning, unless one practises meditation in solitude.

पौधे को चारों ओर से रूँधना पड़ता है, नहीं तो बकरी चर लेगी । ध्यान करना चाहिए मन में, कोने में और वन में । और सर्वदा सत्-असत् विचार (सत्य-असत्य -मिथ्या का विचार)  करना चाहिये । ईश्वर ही सत् अथवा नित्य वस्तु है, और सब असत्, अनित्य । बारंबार इस प्रकार विचार करते हुए मन से अनित्य वस्तुओं का त्याग (मिथ्या अहं का) करना चाहिए ।

[“যখন চারাগাছ থাকে, তখন তার চারিদিকে বেড়া দিতে হয়। বেড়া না দিলে ছাগল-গরুতে খেয়ে ফেলে। ধ্যান করবে মনে, কোণে ও বনে। আর সর্বদা সদসৎ বিচার করবে। ঈশ্বরই সৎ — কিনা নিত্যবস্তু, আর সব অসৎ — কিনা অনিত্য। এই বিচার করতে করতে অনিত্য বস্তু  মন থেকে ত্যাগ করবে।”
When a tree is young it should be fenced all around; otherwise it may be destroyed by cattle.  And you should always discriminate between the Real and the unreal. God alone is real, the Eternal Substance; all else is unreal, that is, impermanent. By discriminating thus, one should shake off impermanent objects from the mind."

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏गृहस्थ जीवन में कामिनी-कांचन से अनासक्त होने के उपाय- निर्जन में साधना🔆🙏

मास्टर (विनीत भाव से)- किसी गृहस्थ को पारिवारिक जीवन में किस तरह रहना चाहिए? 

[মাস্টার (বিনীতভাবে) — সংসারে কিরকম করে থাকতে হবে?
M. (humbly): "How ought we to live in the world?"

श्रीरामकृष्ण- सब काम करना चाहिए परन्तु मन ईश्वर में रखना चाहिए । माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि सब के साथ रहते हुए सब की सेवा करनी चाहिए परन्तु मन में इस ज्ञान को दृढ़ रखना चाहिए कि ये हमारे कोई नहीं हैं

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সব কাজ করবে কিন্তু মন ঈশ্বরেতে রাখবে। স্ত্রী, পুত্র, বাপ, মা — সকলকে নিয়ে থাকবে ও সেবা করবে। যেন কত আপনার লোক। কিন্তু মনে জানবে যে, তারা তোমার কেউ নয়।
MASTER: "Do all your duties, but keep your mind on God. Live with all — with wife and children, father and mother — and serve them. Treat them as if they were very dear to you, but know in your heart of hearts that they do not belong to you.

“किसी धनी के घर की दासी उसके घर का कुल काम करती है, किन्तु उसका मन अपने गाँव के घर पर लगा रहता है । मालिक के लड़कों का वह अपने लड़कों की तरह लालन-पालन करती है, उन्हें ‘मेरा मुन्ना’, ‘मेरा राजा’ कहती है, पर मन ही मन खूब जानती है कि ये मेरे कोई नहीं हैं ।”

[“বড় মানুষের বাড়ির দাসী সব কাজ কচ্ছে, কিন্তু দেশে নিজের বাড়ির দিকে মন পড়ে আছে। আবার সে মনিবের ছেলেদের আপনার ছেলের মতো মানুষ করে। বলে ‘আমার রাম’ ‘আমার হরি’, কিন্তু মনে বেশ জানে — এরা আমার কেউ নয়।
A maidservant in the house of a rich man performs all the household duties, but her thoughts are fixed on her own home in her native village. She brings up her master's children as if they were her own. She even speaks of them as 'my Rama' or 'my Hari'. But in her own mind she knows very well that they do not belong to her at all.
        
 “कछुआ रहता तो पानी में है, पर उसका मन रहता है किनारे पर जहाँ उसके अण्डे रखे हैं । संसार का काम करो, पर मन रखो ईश्वर में । बिना भगवद्-भक्ति पाए यदि संसार में रहोगे तो दिनोंदिन उलझनों में फँसते जाओगे और यहाँ तक फँस जाओगे कि फिर पिण्ड छुड़ाना कठिन होगा । रोग, शोक, तापादि से अधीर हो जाओगे । विषय-चिन्तन जितना ही करोगे, आसक्ति भी उतनी ही अधिक बढ़ेगी ।
[“কচ্ছপ জলে চরে বেড়ায়, কিন্তু তার মন কোথায় পড়ে আছে জানো? — আড়ায় পড়ে আছে। যেখানে তার ডিমগুলি আছে। সংসারের সব কর্ম করবে, কিন্তু ঈশ্বরে মন ফেলে রাখবে। “ঈশ্বরে ভক্তিলাভ না করে যদি সংসার করতে যাও তাহলে আরও জড়িয়ে পড়বে। বিপদ, শোক, তাপ — এ-সবে অধৈর্য হয়ে যাবে। আর যত বিষয়-চিন্তা করবে ততই আসক্তি বাড়বে।
The tortoise moves about in the water. But can you guess where her thoughts are? There on the bank, where her eggs are lying. Do all your duties in the world, but keep your mind on God.If you enter the world without first cultivating love for God, you will be entangled more and more. You will be overwhelmed with its danger, its grief its sorrows. And the more you think of worldly things, the more you will be attached to them.
 “हाथों में तेल लगाकर कटहल काटना चाहिए । नहीं तो, हाथों में उसका दूध चिपक जाता है । भगवद्-भक्तिरूपी तेल हाथों में लगाकर संसाररूपी कटहल के लिए हाथ बढ़ाओ ।

[“তেল হাতে মেখে তবে কাঁঠাল ভাঙতে হয়! তা না হলে হাতে আঠা জড়িয়ে যায়। ঈশ্বরে ভক্তিরূপ তেল লাভ করে তবে সংসারের কাজে হাত দিতে হয়।
"First rub your hands with oil and then break open the jack-fruit; otherwise they will be smeared with its sticky milk. First secure the oil of divine love, and then set your hands to the duties of the world.

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏ठाकुर-माँ -स्वामीजी की भक्ति पाने के लिए निर्जनवास (कैम्प) अनिवार्य है🔆🙏   

“परन्तु यदि भक्ति पाने की इच्छा हो तो निर्जन में रहना (वर्ष में कुछ दिनों तक गुरुगृह वास करना) होगा । मक्खन खाने की इच्छा हो, तो दही निर्जन में ही जमाया जाता है । हिलाने-डुलाने से दही नहीं जमता । इसके बाद निर्जन में ही सब काम छोड़कर दही मथा जाता है, तभी मक्खन निकलता है ।” 

[“কিন্তু এই ভক্তিলাভ করতে হলে নির্জন হওয়া চাই। মাখন তুলতে গেলে নির্জনে দই পাততে হয়। দইকে নাড়ানাড়ি করলে দই বসে না। তারপর নির্জনে বসে, সব কাজ ফেলে দই মন্থন করতে হয়। তবে মাখন তোলা যায়।
"But one must go into solitude to attain this divine love. To get butter from milk you must let it set into curd in a secluded spot: if it is too much disturbed, milk won't turn into curd. Next, you must put aside all other duties, sit in a quiet spot, and churn the curd. Only then do you get butter.
         
 “देखो, निर्जन में ही ईश्वर का चिन्तन करने से यह मन भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का अधिकारी होता है । इस मन को यदि संसार में डाल रखोगे तो यह नीच हो जायगा । संसार में कामिनी-कांचन ^ के चिन्तन के सिवा और है ही क्या ?”

[“আবার দেখ, এই মনে নির্জনে ঈশ্বরচিন্তা করলে জ্ঞান বৈরাগ্য ভক্তি লাভ হয়। কিন্তু সংসারে ফেলে রাখলে ওই মন নীচ হয়ে যায়। সংসারে কেবল কামিনী-কাঞ্চন চিন্তা।
"Further, by meditating on God in solitude the mind acquires knowledge, dispassion, and devotion. But the very same mind goes downward if it dwells in the world. In the world there is only one thought: 'woman and gold'.1

[*जगद्गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस " कामिनी-कांचन" (woman and gold) में आसक्ति को ही आध्यात्मिक उन्नति  के मार्ग ~'Be and Make '  के प्रचार-प्रसार ["3H " -विकास की साधना या`मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' के प्रचार-प्रसार] की सबसे बड़ी बाधा समझते थे। 

इसलिये उनके उपदेशों में  `मनुष्य बनने और बनाने की साधन-मार्ग' की सबसे बड़ी बाधा (impediment,अड़चन) को चिन्हित (designate) करने के लिए बारम्बार इस 
यमज अर्थात जुड़वाँ शब्द (twin words)-" कामिनी-कांचन"  का उपयोग किया गया है ! 

परन्तु जगद्गुरु श्रीरामकृष्ण के इस प्रिय जुड़वाँ वचन ~ 'कामिनी-कंचन' को लोग अक्सर गलत (स्त्री-विरोधी) समझ लेते हैं। जबकि जुड़वां शब्द का बार बार प्रयोग करने से उनका तात्पर्य केवल ' काम-प्रवृत्ति और लालच ' (lust and greed) के हानिकारक प्रभाव ( baneful influence)  को लक्षित करना था, जो अक्सर मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के मार्ग में ) बाधा डालते हैं । 

इसलिये उन्होंने अपने पुरुष भक्तों (man devotees) को पाशविक प्रवृत्ति (आहार-निद्रा-भय -मैथुन) से अनासक्त होने के लिए इस कठोर शब्द (concrete term) "कामिनी" या "महिला" का प्रयोग किया है। उसी प्रकार  उन्होंने अपने स्त्री-भक्तों  को "पुरुष" में आसक्त रहने से मना किया है, तथा महिलाओं को पति के आलावा अन्य किसी भी `पुरुष ' से दूर रहने की सलाह दी है। दूसरा शब्द है " कांचन" या सोना- "gold", जो कि लालच (greed) का प्रतीक है, और  आध्यात्मिक जीवन में दूसरी सबसे बड़ी बाधा है।

श्री रामकृष्ण ने अपने पुरुष शिष्यों को किसी भी महिला, या सामान्य रूप से नारी जाति (womankind) से घृणा करना कभी नहीं सिखाया है।  इस बात को 'स्त्रियों के प्रति श्रीरामकृष्ण के मनोभाव ' शीर्षक उनके समस्त उपदेशों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता हैं ! जगद्गुरु  श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण नारी जाति को केवल दिव्य जगतजननी (Divine Mother of the Universe -माँ भवतारिणी, मोक्षप्रदायनी श्रीराधा) की अलग -अलग प्रतिमूर्तियों के रूप में देखते थे। उन्होंने तन्त्र- विद्या की अत्यन्त गंभीर आध्यात्मिक साधनाओं का अभ्यास (rehearsal) करते समय एक महिला साधिका 'भैरवी ब्राह्मणी ' को अपने प्रथम मार्गदर्शक नेता या गुरु के रूप में स्वीकार करके समस्त नारी जाति को सबसे ऊँचा सम्मान ( highest homage ) दिया है। 

उनकी धर्मपत्नी जिन्हें श्रीश्री माँ सारदा देवी ( Holy Mother) के रूप जाना जाता है , और परम् पूजनीय माँ सारदा के नाम से सम्बोधित किया जाता है , वे उनकी नित्य सहचरी थीं (आद्यशक्ति - सीता, राधा, सरस्वती थीं ) और प्रथम शिष्या थीं ! एवं अपनी साधना के अंत में [फलहारिणी कालीपूजा के दिन]  उन्होंने सचमुच अपनी व्याहता पत्नी को ही देवी काली की अवतार (embodiment) के रूप में पूजा की थी । 

नमस्ते सारदे देवी दुर्गे देवी नमोस्तु ते। 

वाणि लक्षिम महामाये मायापाश विनाशिनी।। 
  
नमस्ते सारदे देवी राधे सीते सरस्वति। 
 
         सर्वविद्या प्रदायिणय्ये  संसारार्णवतारिणी।। 

             सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्ति प्रदायिनी।  

सारदेति जगन्माता कृपागंगा प्रवाहिनी।।

-नवनीदा विवेकानन्द दर्शनं     

उनके निधन के बाद परम् पूजनीय श्रीश्री माँ सारदा देवी ( Holy Mother) एक बड़ी संख्या में न केवल  गृहस्थों की, बल्कि " Ramakrishna Order " (श्री रामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा) में प्रशिक्षित संन्यासीयों (जीवनमुक्त  शिक्षकों) की भी आध्यात्मिक मार्गदर्शक बन गईं थीं ।

[^The term "woman and gold", which has been used throughout in a collective sense, occurs again and again in the teachings of Sri Ramakrishna to designate the chief impediments to spiritual progress. 

This favourite expression of the Master, "kaminikanchan", has often been misconstrued. By it he meant only "lust and greed", the baneful influence of which retards the aspirant's spiritual growth.

 He used the word "kamini", or "woman", as a concrete term for the sex instinct when addressing his man devotees. He advised women, on the other hand, to shun "man"

"Kanchan", or "gold", symbolizes greed, which is the other obstacle to spiritual life. Sri Ramakrishna never taught his disciples to hate any woman, or womankind in general. This can be seen clearly by going through all his teachings under this head and judging them collectively.

The Master looked on all women as so many images of the Divine Mother of the Universe श्री राधा . He paid the highest homage to womankind by accepting a woman as his guide while practising the very profound spiritual disciplines of Tantra.  

His wife, known and revered as the Holy Mother, was his constant companion [सीता, राधा, सरस्वति ] and first disciple. At the end of his spiritual practice he literally worshipped his wife as the embodiment of the Goddess Kali, the Divine Mother. After his passing away the Holy Mother became the spiritual guide not only of a large number of householders, but also of many monastic members of the Ramakrishna Order.}     

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏 विवेक-प्रयोग करें संसार जल है और मन मानो दूध की तरह है🔆🙏

“संसार जल है और मन मानो दूध । यदि पानी में डाल दोगे तो दूध पानी में मिल जाएगा, पर उसी दूध का निर्जन में मक्खन बनाकर यदि पानी में छोड़ेगे तो मक्खन पानी में उतराता रहेगा । इस प्रकार निर्जन में साधना द्वारा ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके यदि संसार में रहोगे भी तो संसार से निर्लिप्त रहोगे ।”

[“সংসার জল, আর মনটি যেন দুধ। যদি জলে ফেলে রাখ, তাহলে দুধে-জলে মিশে এক হয়ে যায়, খাঁটি দুধ খুঁজে পাওয়া যায় না। দুধকে দই পেতে মাখন তুলে যদি জলে রাখা যায়, তাহলে ভাসে। তাই নির্জনে সাধনা দ্বারা আগে জ্ঞানভক্তিরূপ মাখন লাভ করবে। সেই মাখন সংসার-জলে ফেলে রাখলেও মিশবে না, ভেসে থাকবে।

"The world is water and the mind milk. If you pour milk into water they become one; you cannot find the pure milk any more. But turn the milk into curd and churn it into butter. Then, when that butter is placed in water, it will float. So, practise spiritual discipline in solitude and obtain the butter of knowledge and love. Even if you keep that butter in the water of the world the two will not mix. The butter will float.

“साथ ही साथ विचार [विवेक-प्रयोग ] भी खूब करना चाहिए । कामिनी और कांचन अनित्य (नश्वर) हैं, एकमात्र ईश्वर ही नित्य (अविनाशी) हैं । रुपये से क्या मिलता है? रोटी, दाल, कपड़े, रहने की जगह- बस यहीं तक । रुपये से ईश्वर नहीं मिलते । तो रुपये जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता । इसी को विचार कहते हैं- समझे?”

[“সঙ্গে সঙ্গে বিচার করা খুব দরকার। কামিনী-কাঞ্চন অনিত্য। ঈশ্বরই একমাত্র বস্তু। টাকায় কি হয়? ভাত হয়, ডাল হয়, থাকবার জায়গা হয় — এই পর্যন্ত। ভগবানলাভ হয় না। তাই টাকা জীবনের উদ্দেশ্য হতে পারে না — এর নাম বিচার, বুঝেছ?

"Together with this, you must practise discrimination. 'Woman and gold' is impermanent. God is the only Eternal Substance. What does a man get with money? Food, clothes, and a dwelling-place — nothing more. You cannot realize God with its help. Therefore money can never be the goal of life. That is the process of discrimination. Do you understand?"

मास्टर- जी हाँ, अभी अभी मैंने प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक पढ़ा है । उसमें ‘वस्तु-विचार’ है ।

[মাস্টার — আজ্ঞে হাঁ; প্রবোধচন্দ্রোদয় নাটক আমি সম্প্রতি পড়েছি, তাতে আছে ‘বস্তুবিচার’ ।
M: "Yes, sir. I recently read a Sanskrit play called Prabodha Chandrodaya. It deals with discrimination."

श्रीरामकृष्ण- हाँ, वस्तु-विचार ! देखो, रुपये में ही क्या है और सुन्दरी की देह में भी क्या है । विचार करो, सुन्दरी की देह में केवल हाड़, मांस, चरबी, मल, मूत्र-यही सब है । ईश्वर को छोड़ इन्हीं वस्तुओं में मनुष्य मन क्यों लगाता है? क्यों वह ईश्वर को भूल जाता है?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, বস্তুবিচার! এই দেখ, টাকাতেই বা কি আছে, আর সুন্দর দেহেই বা কি আছে! বিচার কর, সুন্দরীর দেহেতেও কেবল হাড়, মাংস, চর্বি, মল, মূত্র — এই সব আছে। এই সব বস্তুতে মানুষ ঈশ্বরকে ছেড়ে কেন মন দেয়? কেন ঈশ্বরকে ভুলে যায়?
MASTER: "Yes, discrimination about objects. Consider — what is there in money or in a beautiful body? Discriminate and you will find that even the body of a beautiful woman consists of bones, flesh, fat, and other disagreeable things. Why should a man give up God and direct his attention to such things? Why should a man forget God for their sake?"

[ (मार्च, 1882), श्रीरामकृष्ण वचनामृत -2 ]

🔆🙏ईश्वर-दर्शन के उपाय🔆🙏

मास्टर - क्या ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं?

[মাস্টার — ঈশ্বরকে কি দর্শন করা যায়?
M: "Is it possible to see God?"

श्रीरामकृष्ण- हाँ, अवश्य हो सकते हैं । बीच बीच में एकान्तवास, उनका नाम-गुणगान और वस्तु-विचार करने से ईश्वर के दर्शन होते हैं ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, অবশ্য করা যায়। মাঝে মাঝে নির্জনে বাস; তাঁর নামগুণগান, বস্তুবিচার — এই সব উপায় অবলম্বন করতে হয়।
MASTER: "Yes, certainly. Living in solitude now and then, repeating God's name and singing His glories, and discriminating between the Real and the unreal — these are the means to employ to see Him."

मास्टर- कैसी अवस्था हो तो ईश्वर के दर्शन हों? 

[মাস্টার — কী অবস্থাতে তাঁকে দর্শন হয়?
M: "Under what conditions does one see God?"

श्रीरामकृष्ण- खूब व्याकुल होकर रोने से उनके दर्शन होते हैं । स्त्री या लड़के के लिए लोग आंसूओं की धारा बहाते हैं, रुपये के लिए रोते हुए आँखें लाल कर लेते हैं, पर ईश्वर के लिए कोई कब रोता है? ईश्वर को व्याकुल होकर पुकारना चाहिए । 

[শ্রীরামকৃষ্ণ — খুব ব্যাকুল হয়ে কাঁদলে তাঁকে দেখা যায়। মাগছেলের জন্য লোকে একঘটি কাঁদে, টাকার জন্য লোকে কেঁদে ভাসিয়ে দেয়, কিন্তু ঈশ্বরের জন্য কে কাঁদছে? ডাকার মতো ডাকতে হয়।
MASTER: "Cry to the Lord with an intensely yearning heart and you will certainly see Him. People shed a whole jug of tears for wife and children. They swim in tears for money. But who weeps for God? Cry to Him with a real cry."
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे-/এই বলিয়া ঠাকুর গান ধরিলেন:/ The Master sang:





डाक देखि मन डाकार मतो, केमोन श्यामा थाकते पारे। 
केमोन श्यामा थाकते पारे, केमोन काली थाकते पारे l

मन जोदि एकांत होओ, जोबा बिल्वदल लोओ। 
भक्ती चंदन मिशाइये, (माँर) पदे पुष्पांजली दाव ll

      (भावार्थ)-“मन, तू सच्ची व्याकुलता के साथ पुकारकर तो देख । भला देखें, वह श्यामा बिना सुने कैसे रह सकती हैं । तुझे यदि माँ काली के दर्शन की अत्यन्त तीव्र इच्छा हो तो जवापुष्प और बिल्वपत्र लेकर उन्हें भक्तिचन्दन से लिप्त कर माँ के चरणों में पुष्पांजलि दे ।

[Cry to your Mother Syama with a real cry, O mind!And how can She hold Herself from you?How can Syama stay away?How can your Mother Kali hold Herself away?O mind, if you are in earnest, bring Her an offering Of bel-leaves and hibiscus flowers; Lay at Her feet your offering And with it mingle the fragrant sandal-paste of Love.

“व्याकुलता हुई कि मानो आसमान पर सुबह की ललाई छा गयी । शीघ्र ही सूर्य भगवान् निकलते हैं, व्याकुलता के बाद ही भगवद्दर्शन होते हैं ।”

[“ব্যাকুলতা হলেই অরুণ উদয় হল। তারপর সূর্য দেখা দিবেন। ব্যাকুলতার পরই ঈশ্বরদর্শন।
Continuing, he said: "Longing is like the rosy dawn. After the dawn out comes the sun. Longing is followed by the vision of God.

“विषय पर विषयी की, पुत्र पर माता की और पति पर सती की- यह तीन प्रकार की चाह एकत्रित होकर जब ईश्वर की ओर मुड़ती है तभी ईश्वर मिलते हैं ।”

[“তিন টান একত্র হলে তবে তিনি দেখা দেন — বিষয়ীর বিষয়ের উপর, মায়ের সন্তানের উপর, আর সতীর পতির উপর টান। এই তিন টান যদি কারও একসঙ্গে হয়, সেই টানের জোরে ঈশ্বরকে লাভ করতে পারে।
"God reveals Himself to a devotee who feels drawn to Him by the combined force of these three attractions: the attraction of worldly possessions for the worldly man, the child's attraction for its mother, and the husband's attraction for the chaste wife. If one feels drawn to Him by the combined force of these three attractions, then through it one can attain Him.
   
   “बात यह है कि ईश्वर को प्यार करना चाहिए । विषय पर विषयी की, पुत्र पर माता की और पति पर सती को जो प्रीति है, उसे एकत्रित करने से जितनी प्रीति होती है, उतनी ही प्रीति से ईश्वर को बुलाने से उस प्रेम का महा आकर्षण ईश्वर को खींच लाता है ।”

[“কথাটা এই, ঈশ্বরকে ভালবাসতে হবে। মা যেমন ছেলেকে ভালবাসে, সতী যেমন পতিকে ভালবাসে, বিষয়ী যেমন বিষয় ভালবাসে। এই তিনজনের ভালবাসা, এই তিন টান একত্র করলে যতখানি হয়, ততখানি ঈশ্বরকে দিতে পারলে তাঁর দর্শন লাভ হয়।
"The point is, to love God even as the mother loves her child, the chaste wife her husband, and the worldly man his wealth. Add together these three forces of love, these three powers of attraction, and give it all to God. Then you will certainly see Him.

“व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । बिल्ली का बच्चा ‘मिऊँ-मिऊँ’ करके माँ को पुकारता भर है । उसकी माँ जहाँ उसे रखती, वहीँ वह रहता है- कभी राख की ढेरी पर कभी जमीन पर, तो कभी बिछौने पर । यदि उसे कष्ट होता है तो बस वह ‘मिऊँ-मिऊँ’ करता है और कुछ नहीं जानता । माँ चाहे जहाँ रहे ‘मिऊँ-मिऊँ’ सुनकर आ जाती है ।”

[“ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকা চাই। বিড়ালের ছানা কেবল ‘মিউ মিউ’ করে মাকে ডাকতে জানে। মা তাকে যেখানে রাখে, সেইখানেই থাকে — কখনো হেঁশেলে, কখন মাটির উপর, কখন বা বিছানার উপর রেখে দেয়। তার কষ্ট হলে সে কেবল মিউ মিউ করে ডাকে, আর কিছু জানে না। মা যেখানেই থাকুক, এই মিউ মিউ শব্দ শুনে এসে পড়ে।”

"It is necessary to pray to Him with a longing heart. The kitten knows only how to call its mother, crying, 'Mew, mew!' It remains satisfied wherever its mother puts it. And the mother cat puts the kitten sometimes in the kitchen, sometimes on the floor, and sometimes on the bed. When it suffers it cries only, 'Mew, mew!' That's all it knows. But as soon as the mother hears this cry, wherever she may be, she comes to the kitten."


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🔆🙏माता महाकाली ने ही श्रीकृष्ण के रूप में लिया था अवतार🔆🙏

 भगवती दुर्गा के 108 नामों में एक नाम `पुरुषाकृतिः'  है।  अर्थात् शक्ति पुरुष एवं स्त्री दोनों रूपों में है, अगर शिव अर्धनारीश्वर हो सकते हैं तो शक्ति पुरुषाकृतिः क्यों नहीं हो सकती ? यह सारा जगत महाशक्ति का ही विलास है । निश्‍चित है कि अवतार या देवता बिना शक्ति के कार्य नहीं कर सकते है, एवं काली क्रियाशक्ति हैं।

हिन्दू धर्म शास्त्रों उल्लेख आता है कि धरती का उद्धार करने एवं मनुष्यों को सहीं रास्ता दिखाने के लिए परम पिता परमात्मा मानव का रूप धारण कर धरती आते रहे हैं।  और भविष्य में भी किसी न किसी रूप में आते ही रहेंगे। अवतारों में एक अवतार भगवान श्रीकृष्ण का भी हैं जिन्हें श्री नारायण विष्णु जी का अवतार माना जाता है, जिन्होंने द्वापरयुग में जन्म लेकर धरती और मनुष्य जाति का उद्धार किया था। 

लेकिन देवी पुराण में स्पष्ट रूप से वर्णन आता है कि देवताओं के निवेदन पर माता महाकाली ने ही श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था। देवी पुराण में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि भगवान शिवशंकर जी ने वृषभानु की पुत्री श्री राधा जी के रूप में जन्म लिया था। अर्थात योगेश्वर श्रीकृष्ण माता महाकाली के अवतार थे और देवी राधा जी स्वंय भगवान शिवशंकर का अवतार थी।  देवी पुराण में बताया गया है कि भगवान श्रीकृष्ण, विष्णु भगवान के अवतार नहीं थे और ना ही देवी राधा जी माता लक्ष्मी की अवतार थी।  देवी पुराण के अनुसार धरती से अधर्म और असुरों के नाश के लिए देवताओं और ऋषियों के निवेदन पर द्वापरयुग में महाकाली माता ने श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से जन्म लिया था। देवीपुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध भी मां काली के रूप में ही किया था। देवी पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने बलराम तथा अर्जुन के रूप में अवतार लिया था।  इसी के साथ पांडव जब वनवास के दौरान कामाख्या शक्तिपीठ पहुंचे तो वहां उन्होंने तप किया. इससे प्रसन्न होकर माता प्रकट हुईं और उन्होंने पांडवों से कहा कि मैं श्रीकृष्ण के रूप में तुम्हारी सहायता करूंगी तथा कौरवों का विनाश करूंगी।  वहीं श्रीकृष्ण की लीलास्थली वृंदावन में एक ऐसा मंदिर विद्यमान है, जहां कृष्ण की काली रूप में पूजा होती है। 

ब्रम्हवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने और श्रीराधा के अभेद का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि श्रीराधा के कृपा कटाक्ष के बिना किसी को मेरे प्रेम की उपलब्धि ही नहीं हो सकती। वास्तव में श्रीराधा-कृष्ण एक ही देह हैं। श्रीकृष्ण की प्राप्ति और मोक्ष दोनों श्रीराधाजी की कृपा दृष्टि पर ही निर्भर हैं। स्कंद पुराण के अनुसार राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। इसी कारण भक्तजन सीधी-साधी भाषा में उन्हें ‘राधारमण’ कहकर पुकारते हैं। 

पद्म पुराण में ‘परमानंद’ रस को ही राधा-कृष्ण का युगल-स्वरूप माना गया है। इनकी आराधना के बिना जीव परमानंद का अनुभव नहीं कर सकता। यदि श्रीकृष्ण के साथ से राधा को हटा दिया जाए तो श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व माधुर्यहीन हो जाता। राधा के ही कारण श्रीकृष्ण रासेश्वर हैं। भगवान श्री कृष्ण के नाम से पहले हमेशा भगवती राधा का नाम लिया जाता है। कहते हैं कि जो व्यक्ति राधा का नाम नहीं लेता है सिर्फ कृष्ण-कृष्ण रटता रहता है वह उसी प्रकार अपना समय नष्ट करता है जैसे कोई रेत पर बैठकर मछली पकड़ने का प्रयास करता है। ]

देखें साभार https://www.pustak.org/index.php/books/bookdetails/5887 स्वामी ब्रह्मेशानन्द द्वारा लिखित पुस्तक ]

🔆🙏'परम् सत्य /परम् आनन्द/ भूमा की या अपने सच्चे स्वरुप की खोज'🔆🙏  

   प्रत्येक मानव — मानव ही नहीं प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, ऐसा सुख जिसका कभी अन्त न हो और जो दुःखों के साथ मिश्रित न हो। शास्त्र कहते हैं, 'अल्प' (क्षणिक) में ऐसा सुख नहीं है। जो ‘भूमा’ अर्थात् अनन्त है उसमें ही ऐसा सुख है। ईश्वर ही वह ‘भूमा’ है। प्रत्येक जीव का असली स्वरूप ही वह ‘भूमा’ है। अतः ईश्वर को एवं आत्मस्वरूप को प्राप्त करना ही निरविच्छिन्न सुख प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है।

श्रीरामकृष्णदेव के एक प्रमुख शिष्य स्वामी ब्रह्मानन्दजी ने कहा है,  ‘साधन-भजन के सम्बन्ध में एक ही नियम सभी के लिए लागू नहीं होता। किसी की प्रवृत्ति (tendency) किस ओर है अच्छी तरह से देख लेना चाहिए। किसी को उसके भाव से विपरीत उपदेश देने से उसका कोई उपकार तो नहीं होता उल्टे अपकार ही होता है।...साधन-भजन के सम्बन्ध में सामान्यरूप से दो-एक बातें छोड़ सबके सामने व्यक्ति विशेष से कुछ कहना ठीक नहीं।’ 

(ध्यान, धर्म और साधना, पन्ना 52-53) 

श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लिपिक मास्टर महाशय ने अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण से कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रश्न किये थे। उनमें एक प्रश्न था : ‘संसार में किस तरह रहना चाहिये ?’

     यह एक ऐसा प्रश्न है जिसमें धनी-निर्धन, युवा –वृद्ध, बुद्धिमान –मूर्ख सभी की रुचि हो सकती है। सभी संसार में सुख-पूर्वक जीना चाहते हैं तथा अपनी रुचि तथा मानसिक गठन के अनुरूप इस प्रश्न का कोई न कोई उत्तर खोज निकालते हैं।  लेकिन यह निश्चित है कि चार पुरुषार्थों में से 'अर्थ और काम' चाहने वाले संसारी व्यक्ति के साथ 'मोक्षार्थी ' अथवा सन्त के इस प्रश्न के उत्तर एक से नहीं हो सकते।

       आमतौर से सामान्य मनुष्य इस तरह का प्रश्न लेकर किसी सन्त- महात्मा के पास नहीं जाता। जब इस प्रश्न के सामान्य उत्तर एवं संसार में रहने की लौकिक प्रणालियाँ गलत एवं असफल सिद्ध होती हैं, तभी किसी सन्त के पास जाने की सोचता है। आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ भी इसी प्रकार की धार्मिक जिज्ञासाओं से होता है। मास्टर महाशय जब श्रीरामकृष्ण के पास आये थे, तब वे इसी प्रकार की असफलता का सामना कर चुके थे। और तब वे जीवन की पहेली का आध्यात्मिक हल खोजने की ओर मुड़े थे। 

        इस बात का संकेत उनके द्वारा श्रीरामकृष्ण को पूछे गये प्रथम प्रश्न में और भी स्पष्ट रूप से प्रकट होता है- ‘ईश्वर में मन कैसे लगे ? इसी तरह से विशुद्ध अध्यात्म-विषयक प्रश्न सन्त-महात्माओं से किये जाते हैं। आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ भी इसी प्रकार की धार्मिक जिज्ञासाओं से होता है। और जब इस प्रश्न को संसार में जीवन-यापन विषयक प्रश्न के साथ संयुक्त कर दिया जाता है, तब यह जिज्ञासा अपने आप में एक समग्र जीवनदर्शन का रूप ले लेती है; जिसमें जीवन के दोनों पक्षों - 'लौकिक और पारमार्थिक', अथवा 'आध्यात्मिक और व्यवहारिक' का समावेश होता है।

  इन दो प्रश्नों का जो उत्तर श्रीरामकृष्ण देते हैं, उसे हम समग्र 'आध्यात्मिक साधना का सार ' एवं सफल जीवन की कुंजी कह सकते हैं।  विभिन्न अवसरों पर दिये उनके उत्तरों को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं :-

(1) भगवान् के चिन्तन में रुचि पैदा करने के उपाय।

(2) ध्यान विषयक निर्देश। {विवेकदर्शन का अभ्यास से विवेक-श्रोत का उद्घाटन !} 

(3) संसार में रहने की कला।

          श्रीरामकृष्ण ईश्वर के लिए ' व्याकुलता ' को अत्यधिक महत्त्व देते थे। यह व्याकुलता तभी तक संभव है जब ईश्वर से आन्तरिक तथा तीव्र रूप से हार्दिक प्रेम करें। लेकिन ऐसा तीव्र प्रेम तब तक संभव नहीं है, जब तक हम संसार के (अल्प) भोग -विषयों, वस्तुओं एवं व्यक्तियों के प्रति आसक्ति रखते हों। 

 {ब्रह्मानन्दमयी माँ जगदम्बा की कृपा से प्राप्त भूमानन्द , और मन-इन्द्रियों से प्राप्त अल्प या क्षणिक सुख का विवेक, अथवा निरपेक्ष सत्य (अपरिवर्तनीय परम् सत्य) और सापेक्षिक सत्य (परिवर्तनशील सत्य या मिथ्या) का विवेकज-ज्ञान प्राप्त करने की स्पृहा या लालसा को अत्यधिक महत्त्व देते थे।}

    अतः श्रीरामकृष्ण अपने भक्तों को सर्व- प्रथम तीन कार्य करने का उपदेश देते हैं : 

(1) भगवान् के नाम का गुण-गान = वर्तमान युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द तथा उनके गुरु युगावतार श्री रामकृष्ण के नाम-रूप लीला-धाम का गुणगान। 

 (2) साधु-संग = विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में प्रशिक्षित " C-IN-C" -नवनीदा के संग वार्षिक शिविर में निर्जनवास !    

(3) नित्यानित्यविचार। संसार रूपी जल में मन रूपी दूध को मथकर मक्खन या विवेकज ज्ञान प्राप्त विवेक-प्रयोग और मनःसंयोग का प्रशिक्षण।  

 इन तीनों का उद्देश्य एक ही है : मन में संसार (प्रवृत्ति या अल्प)  के प्रति आसक्ति का त्याग कर भगवान् (निवृत्ति या भूमा) के प्रति रुचि पैदा करना। ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रीरामकृष्ण प्रारम्भ में ही ध्यान करने की कोई विस्तृत विधि [अष्टांग योग] नहीं बताते हैं। 

हाँ वे निर्जन में साधन,  वन और कोने में ध्यान , तथा अभ्यास योग की बात अवश्य करते हैं [अर्थात महामण्डल का 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make ' छः दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर के नवनीदा जैसे आचार्य (चपरास प्राप्त 'C-IN-C' ) के सानिध्य में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण की अनिवार्यता की बात अवश्य कहते हैं।]लेकिन उनका आग्रह मन के रूचि परिवर्तन में अधिक है। इसका एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कारण है।  

भारतीय दर्शन के अनुसार हमारा जीवन पूर्वजन्मों के संस्कारों द्वारा परिचालित होता है। ये संस्कार वासनाओं को जन्म देते हैं एवं इन वासनाओं के द्वारा परिचालित होकर ही हम शुभाशुभ कर्मों (पुरुषार्थों का चयन करने ) में प्रवृत्त होते हैं। सामान्यतः सांसारिक भोग-वासनाएँ ही प्रबल होती हैं, जो हमें स्थूल भोग-विषयों (अर्थ और काम) की ओर ले जाती हैं। 

      इन वासनाओं को नष्ट किये बिना चित्त में उठ रही भोग-विषयक वृत्तियों को नियंत्रित करना असंभव है, और वासनाएँ संस्कारों के नाश के बिना समाप्त नहीं हो सकतीं। अतः ध्यान द्वारा (मनःसंयोग के अभ्यास  द्वारा) चित्तवृत्तियों के निरोध के बदले अपने संस्कार समूहों को नष्ट करना या उन्हें शुभ संस्कारों में परिवर्तित करना [चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया को सीखकर चरित्र के 24 गुण को अर्जित करना, 12 दोष निकालना]  कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। 

       अगर हम भगवच्चिन्तन विषयक शुभ संस्कारों का निर्माण कर सकें तो हमारा मन बड़ी आसानी से ईश्वर चिन्तन में लगने लग जायेगा। श्रीरामकृष्ण द्वारा समझाये गये उपायों का [महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास का] मुख्य उद्देश्य शुभ चारित्रिक संस्कारों का निर्माण करना है।

       हमारे माइंड के तीन अलग अलग प्रकार होते है- चेतन मन (Conscious Mind), अवचेतन मन  (Sub-Conscious Mind), और अचेतन मन, बेहोश या बेसुध मन (Un-Conscious Mind)  इन तीनों में सबसे ज्यादा पावरफुल अवचेतन मन या सबकॉन्सियस माइंड ही होता है। सबकॉन्सियस माइंड का पूर्ण इस्तेमाल आजतक कोई नहीं कर पाया है। जितने भी कामयाब लोग गुजरे है या अभी जीवित है वो सभी लोग आम लोगों से ज्यादा अपने सबकॉन्सियस माइंड का इस्तेमाल करते है। इसीलिए वो कामयाबी की बुलंदियों तक पहुँचते है। 

 मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि । 

किंवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥ ११ ॥   

दुनिया में दिखाई देने वाली हर चीज़, हर वस्तु के तीन आयाम होते हैं। यह तीन आयाम हैं - लंबाई, चौड़ाई और गहराई। हमारा मन भी त्रिआयामी है। हमारे मन के तीन आयाम चेतन, अचेतन और अवचेतन हैं। मन की संरचना भी किसी भौतिक पदार्थ की भांति ही है बस अन्तर  इतना है कि मन सूक्ष्म होता है इसलिए दिखाई नहीं देता है जबकि भौतिक पदार्थ स्थूल होते हैं इसलिए दिखाई पड़ते हैं।

     हम अपने माइंड के इन तीन अलग अलग प्रकार को आइस-बर्ग के एक उदहारण से समझ सकते है - समुन्द्र में पानी पर तैरती बड़ी बर्फ की चट्टान को आइस-बर्ग कहते है।  मन की संरचना काफी हद तक समुद्र में डूबी हुई विशालकाय बर्फ की चट्टान के जैसी होती है, जिसका कुछ हिस्सा सतह के ऊपर होता है जिसे हम देख पाते हैं। इसे हम चेतन मन कह सकते हैं। जागरण व चिंतन की घटनाएं चेतन मन में सम्पन्न होती रहती हैं। 

      आइस-बर्ग को पानी पर तैरता देख हमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे बर्फ पानी पर तैर रहा है और उसका साइज भी लगभग उतना ही है जितना हम देख पा रहे है। लेकिन सच्चाई ये है के जो आइस-बर्ग का हिस्सा हम देख पा रहे है वो मात्र उस आइस-बर्ग का 10% ही है बाकी 90% तो पानी के भीतर है बर्फीली चट्टान (आइस-बर्ग ) का शेष भाग पानी में डूबा रहता है। इसे हम तब तक नहीं देख पाते हैं जब तक हम स्वयं गहराई में न जाएं। बर्फीले चट्टान के इस हिस्से की तुलना अचेतन मन से की जा सकती है। कठिन होता है अचेतन मन तक पहुंच पाना

1. चेतन मन (Conscious Mind, कॉन्सियस माइंड) हमारा सामान्य जीवन क्रम मन की चेतन अवस्था से संबंधित होता है। हमारी दिनचर्या से जुड़े सभी कार्य चेतन मन से संचालित होते हैं। अपनी दिनचर्या में हम जो भी सोचते है, महसूस करते है वो सभी कॉन्सियस माइंड द्वारा होता है। ये हमारे कुल माइंड का मात्र 10 % ही होता है ठीक आइस-बर्ग के ऊपरी हिस्से की तरह। एक्टिव माइंड ही कॉन्सियस माइंड होता है। जो हजारों संकल्प -विकल्पात्मक विचार दिनभर में हमारे माइंड आते है, चाहे वो पॉजिटिव हो या नेगेटिव, लॉजिक, डिसीज़न लेना, सोचने के बाद कोई भी एक्शन लेना आदि सभी कॉन्सियस माइंड के द्वारा किये जाते है। कॉन्सियस माइंड तभी तक एक्टिव रहता है जब तक हम जागते है। हमारे सोने के बाद कॉन्सियस माइंड भी शांत हो जाता है।

2. अचेतन मन (Un-conscious Mind) बेहोश या बेसुध मन - बेहोशी (senselessness, बेखुदी या रक्‍त में आक्‍सीजन के अभाव के कारण मूर्च्‍छा) के समय अन्कॉन्सियस माइंड की अवस्था (स्टेट) होती है। हमारी नींद व सपनों का संबंध अचेतन मन से है जब हम सो जाते हैं तब हमारा अचेतन मन जाग्रत रहता है। जब आप सो रहे होते हो बिलकुल गहरी नींद में जब कोई सपना भी नहीं आ रहा हो जैसे के आप जब बहुत मेहनत करके गहरी नींद लेते हो तब शरीर उसी का उपयोग कर रहा होता है। जब हम गहरी नींद में होते हैं, और चेतन मन शांत होता हो जाता है तब अचेतन मन क्रियाशील होता है। अचेतन मन- यह मन का लगभग 90% हिस्सा है जिसके कार्य के बारे में व्यक्ति को जानकारी नहीं रहती। यह मन की स्वस्थ एवं अस्वस्थ क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। 

3. अवचेतन मन (Sub-Conscious Mind,सब-कॉन्सियस माइंड ) : अवचेतन - जब आपकी नींद थोड़ी कच्ची हो जाती है और आप सपने देखते हो तब अवचेतन का उपयोग कर रहे होते हो। या जब हम कोई कार्य को बिना डर या झिझक के कर लेते हैं या करते हैं जिसमें किसी प्रकार का कोई दबाव या झिझक नहीं होता है यही अवचेतन मन होता है। उदाहरण के तौर पर जब आप गाड़ी चलाना सीख जाते है तो बिना डर, भय के कोई भी रास्ते में चला लेते हैं उस समय कोई झिझक नहीं होती हैं यही अवचेतन मन हैं

    मन का अवचेतन स्तर अत्यधिक सूक्ष्म है जिसका संबंध ध्यान, आंनद और निस्वार्थ भावना से होता है। अपने जीवन में हम जो भी संकल्प -विकल्प करते हैं  वो सब अवचेतन मन के कारण  ही करते है। जिंदगी में व्यक्ति जो भी बड़ा काम करता है वो सिर्फ और सिर्फ अपने अवचेतन मन के कारण करता है। जो मनुष्य अपने अवचेतन मन को वश में ले आता है , अवचेतन मन पर काबू कर लेता है , उसके लिए कोई भी बड़ा काम मुश्किल नहीं होता।

     कोई भी बड़ा काम करने का संकल्प  - (जैसे मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा' ऐसा  संकल्प) तो हम कर लेते हैं ;  उसकी  प्लानिंग भी बना लेते है, लेकिन जब उस काम की शुरुआत करते है तो बड़ी मुश्किलें आती है। लेकिन उस स्तिथि में अगर हमने कोशिश करनी छोड़ दी,  तो हम अपने अवचेतन मन को कभी वश में नहीं कर सकते । लेकिन उस मुश्किल परिस्तिथि में भी अगर हम पूरे आत्मविश्वास  के साथ  यम-नियम का पालन और नियमित रूप से दो बार आसन , प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास ,  लगे रहते हैं , तो धीरे धीरे वही चीज़ (मनःसंयोग का अभ्यास)  हमें आसान लगने लगता है, और एक दिन हम अपने अवचेन मन पर विजय  प्राप्त कर ही लेते है।

   इन दो हिस्सों के अतिरिक्त बर्फीली चट्टान का एक हिस्सा वाष्प बन जाता है और आकाश में छोटे-छोटे बादल बनकर मंडराने लगता है। यही अवचेतन मन है। उस बादल तक पहुंच पाना करीब - करीब असंभव है ;जब अवचेतन मन भी शून्य हो जाता है तब अतिचेतन में प्रवेश मिलता है।  हालांकि यह अवस्था बिरलों को ही प्राप्त हो पाती है। यही कारण है कि हमलोग केवल प्रत्याहार और धारणा का ही अभ्यास कर सकते है,  ध्यान कठिन है यह अपने आप होता है , और समाधि (तुरीय अवस्था, चतुर्थ अवस्था में पहुँच पाना  ) दुःसाध्य है, यह अवस्था केवल माँ जगदम्बा की कृपा से ही प्राप्त हो सकती  है । विज्ञान इन इन तीनों अवस्थाओं को अलग अलग मन की तरह देखता है; लेकिन ये सब अलग अलग अवस्थाये है न की दिमाग  के अलग अलग पुर्जे |

      श्रीरामकृष्ण ने जिस तीसरे प्रश्न का उत्तर अपने जीवन एवं उपदेशों के माध्यम से प्रदान किया है, वह है : ‘जीवन का उद्देश्य क्या है ?’ उद्देश्य या लक्ष्य के साथ उपाय, साधन, पथ और पाथेय, बाधाओं और कठिनाईयों के प्रश्न भी जुड़े हुए होते हैं। श्रीरामकृष्ण के अनुसार " ईश्वर दर्शन " ही जीवन का चरम लक्ष्य है तथा उसे प्राप्त करने के अनेक उपाय [ चार योग मार्ग]   हो सकते हैं। और ईश्वर दर्शन (=विवेक-दर्शन का अभ्यास) ही चिर आनन्द प्राप्ति का एकमात्र उपाय हो सकते हैं। और ईश्वर दर्शन ही चिर आनन्द प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। ‘जितने मत उतने पथ’। प्रत्येक साधक को अपना निजि पथ स्वयं खोज निकालना पड़ता है।

       इसे दूसरे प्रकार से भी समझा जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मानव मन का दसवाँ हिस्सा ही संकल्प-विकल्पात्मक चेतन मन का निर्माण करता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि जाग्रत अवस्था में हमारे द्वारा की जाने वाली शारीरक और मानसिक क्रियाएं चेतन मन के द्वारा नहीं बल्कि अवचेतन मन के द्वारा परिचालित होती रहती हैं। ध्यान द्वारा चित्तवृत्ति-निरोध के प्रयास में हम केवल मन के दसवें हिस्से के नियंत्रण का ही प्रयास करते हैं। इस कार्य में बारम्बार प्रयास के बाद भी असफल इसीलिए होते हैं कि मन का नौ बटा दसवाँ अंश अर्थात अचेतन मन विपरीत दिशा में कार्य करता रहता है। तात्पर्य यह है कि जब तक अचेतन मन का परिवर्तन न किया जाये, तबतक मन का निरोध या इच्छित दिशा में परिचालन असम्भव है। इसलिए श्रीरामकृष्ण पूर्वोक्त तीन उपायों - (निर्जन में साधन,  वन और कोने में ध्यान , तथा अभ्यास योग) को अत्यधिक महत्व देते हैं।   

         यह नियम है कि मन जिस बात को चाहता है, उस पर आसानी से एकाग्र हो जाता है। इसके विपरीत यह भी सत्य है कि जिस विषय पर [ गुरुदेव प्रदत्त इष्टदेव के नाम पर ] मन को एकाग्र किया जाय, उसे वह धीरे-धीरे चाहने, प्रेम करने लगता है। प्रेम, आनन्द और एकाग्रता परस्पर सम्बन्धित हैं। भगवान् के नाम एवं गुणों का गान करने से भगवान् में अनायास ही रुचि पैदा हो जाती है। उनकी लीलाओं से रूप, गुण एवं स्वरूप के चिन्तन से [ ठाकुर देव के नाम-रूप -लीला -धाम के चिन्तन से , या विवेकदर्शन के अभ्यास से हमारा विवेक-श्रोत उद्घाटित हो जाता है , और ] हमारे मन में भगवान् के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है। 

        ऐसे सन्तों के सत्संग से, जिन्होंने अपने जीवन में भगवच्चिन्नतन की सार्थकता को प्रत्यक्ष किया है, हमारा मन ईश्वर चिन्तन एवं आध्यात्मिक जीवन की उपयोगिता तथा आवश्यकता के प्रति आश्वस्त हो जाता है। नित्यानित्य विचार अर्थात् ईश्वर ही सत्य हैं, तथा जगत असत्य एवं अनित्य है, यह सोचना। बार-बार इस तरह का विचार करने से यह बात 'अचेतन मन ' में गहरी बैठ जाती है। तब फिर 'चेतन मन' संसार की ओर आकृष्ट नहीं होता

          अचेतन मन को रंगने का यह कार्य कोलाहलमय, विक्षेपोत्पादक सांसारिक वातावरण में संभव नहीं। अतः श्रीरामकृष्ण प्रारंभ में निर्जन में साधना का उपदेश देते हैं। [पूज्य नवनीदा जैसे (C-IN-C) के साथ निर्जन में छः दिनों तक वास करने का उपदेश देते हैं।] उनके अनुसार निर्जन में ईश्वर चिन्तन करने से ज्ञान, वैराग्य, भक्ति का लाभ होता है। उनके बाद व्यक्ति संसार का नहीं होता, घर की चार-दिवारी के बीच रहता हुआ भी बद्ध नही होता। तात्पर्य यह है कि बिना साधना के सफल संसारी जीवन भी संभव नहीं है। 

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https://vivek-jivan.blogspot.com/2015/08/blog-post_12.html/https://vivek-jivan.blogspot.com/2015/08/blog-post_12.html/ देखें पंचम वेद~ [1-6 ] श्रीरामकृष्ण वचनामृत की शिक्षा है ~  " Be and Make " या मनुष्य बनो और बनाओ ' 
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सोमवार, 22 मार्च 2021

🔆🙏ॐपरिच्छेद~1 , [(26 . 2 . 1882)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-1] 🔆🙏श्री 'म' का अपने गुरु नेता श्रीरामकृष्ण के साथ प्रथम दर्शन 🔆🙏सन्ध्या आदि आनुष्ठानिक कर्मों का त्याग कब होता है ?🔆🙏रानी रासमणि जगतजननी श्री राधा के अष्टसखियों में एक थीं 🔆🙏

 तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥

( श्रीमद्भागवत, १०-३१-९) 

"श्रीगंगाजी  गोप्य ऊचुः (गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं) :   हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप - ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।। 

गोपी गीत के नवम श्लोक में गोपियों ने - प्रभु कैसे मिल सकते हैं और कहाँ निवास करते हैं के सिद्धान्त को  प्रतिपादित करते हुए कहा कि, " हे गोबिन्द ! आप सदैव सत्संग  (साप्ताहिक पाठचक्र, कैम्पऔर हरि कथा (ठाकुर-माँ स्वामीजी की जयन्ती) में मिलते हो, इसलिए जो जन आपकी कथाओं का गुणगान करते है, और जो कथा श्रवण करते हैं आप उनके लिए सुलभ हो जाते हो। और वे महात्मा लोग भी धन्य है जो आपके गुणों का गान करते है। इसीलिए जो सन्तजन  (नेताC-IN-C नवनीदा ) तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में  वे ही  भू-लोक में सबसे बड़े दाता हैं।

' गोपी गीत' श्रीमदभागवत महापुराण के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का ३१ वां अध्याय है। इसमें १९ श्लोक हैं । रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है । भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं । उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं। वे आर्त्त स्वर में श्रीकृष्ण को पुकारती हैं, यही विरहगान गोपी गीत है । इसमें प्रेम के अश्रु,मिलन की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है । भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल,सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है।  } 

 [(26 . 2 . 1882)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-1]

🔆🙏श्री 'म' का अपने गुरु नेता श्रीरामकृष्ण के साथ प्रथम दर्शन 🔆🙏

"श्रीगंगाजी के पूर्वतट पर कलकत्ते से कोई छः मील दूर दक्षिणेश्वर में श्रीकालीजी का मन्दिर है । यहाँ भगवान् श्रीरामकृष्णदेव रहते हैं । वसन्त ऋतु है । 1882 ईसवी का फरवरी माह । श्रीरामकृष्ण के जन्मोत्सव के बाद कुछ दिन बीत चुके हैं । श्री केशवचन्द्र सेन और जोसेफ कुक के साथ 23 फरवरी, बृहस्पतिवार के दिन श्रीरामकृष्ण जहाज में बैठकर घूमने गए थे । इसके कुछ ही दिन बाद (26 फरवरी) की घटना है... संध्या का समय था । मास्टर ने श्रीरामकृष्ण के कमरे में प्रवेश किया । इसी समय उन्होंने  श्रीरामकृष्णदेव के प्रथम बार दर्शन किए । उन्होंने देखा, कमरा लोगों से भरा हुआ है; सब लोग चुपचाप बैठे उनके वचनामृत का पान कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण तखत पर पूर्व की ओर मुँह किये बैठे हुए प्रसन्नवदन हो ईश्वरीय चर्चा कर रहे हैं । भक्तगण फर्श पर बैठे हुए हैं ।

গঙ্গাতীরে দক্ষিণেশ্বরে কালীবাড়ি। মা-কালীর মন্দির। বসন্তকাল, ইংরেজী ১৮৮২ খ্রীষ্টাব্দের মার্চ মাস। ঠাকুরের জন্মোৎসবের কয়েক দিন পরে। শ্রীযুক্ত কেশব সেন ও শ্রীযুক্ত জোসেফ্‌ কুক সঙ্গে ২৩শে ফেব্রুয়ারি বৃহস্পতিবার (১২ই ফাল্গুন, ১২৮৮, শুক্লা ষষ্ঠী) ঠাকুর স্টীমারে বেড়াইয়াছিলেন — তাহারই কয়েকদিন পরে। সন্ধ্যা হয় হয়। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে মাস্টার আসিয়া উপস্থিত। এই প্রথম দর্শন। দেখিলেন১ একঘর লোক নিস্তব্ধ হইয়া তাঁহার কথামৃত পান করিতেছেন। ঠাকুর তক্তপোশে বসিয়া পূর্বাস্য হইয়া সহাস্যবদনে হরি কথা কহিতেছেন। ভক্তেরা মেঝেয় বসিয়া আছেন।

First visit

IT WAS ON A SUNDAY in spring, a few days after Sri Ramakrishna's birthday, that M. met him the first time. Sri Ramakrishna lived at the Kalibari, the temple garden of Mother Kali, on the bank or the Ganges at Dakshineswar.

M., being at leisure on Sundays, had gone with his friend Sidhu to visit several gardens at Baranagore. As they were walking in Prasanna Bannerji's garden, Sidhu said: "There is a charming place on the bank of the Ganges where a paramahamsa lives. Should you like to go there?" M. assented and they started immediately for the Dakshineswar temple garden. They arrived at the main gate at dusk and went straight to Sri Ramakrishna's room. And there they found him seated on a wooden couch, facing the east. With a smile on his face he was talking of God. The room was full of people, all seated on the floor, drinking in his words in deep silence.

[(26 . 2 . 1882) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-1] 

🔆🙏सन्ध्या आदि आनुष्ठानिक कर्मों का त्याग कब होता है ?🔆🙏

"मास्टर खड़े खड़े आश्चर्यमुग्ध होकर देखने लगे । उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, मानो साक्षात् शुकदेव भगवत्-प्रसंग कर रहे हैं तथा उस स्थान पर सभी तीर्थों का समागम हुआ है अथवा मानो श्रीचैतन्यदेव पुरीधाम में रामानन्द, स्वरूप आदि भक्तों के साथ बैठकर भगवान् का नामगुणगान कर रहे हैं ।

[মাস্টার দাঁড়াইয়া অবাক্‌ হইয়া দেখিতেছেন। তাঁহার বোধ হইল যেন সাক্ষাৎ শুকদেব ভগবৎ-কথা কহিতেছেন, আর সর্বতীর্থের সমাগম হইয়াছে। অথবা যেন শ্রীচৈতন্য পুরীক্ষেত্রে রামানন্দ স্বরূপাদি ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন ও ভগবানের নামগুণকীর্তন করিতেছেন। 
M. stood there speechless and looked on. It was as if he were standing where all the holy places met and as if Sukadeva himself were speaking the word of God, or as it Sri Chaitanya were singing the name and glories of the Lord in Puri with Ramananda, Swarup, and the other devotees.

श्रीरामकृष्ण कह रहे थे- “जब एक बार हरिनाम या रामनाम लेते ही रोमांच होता है, आँसूओं की धारा बहने लगती है, तब निश्चित समझो कि संध्यादि कर्मों की आवश्यकता नहीं रह जाती । तब कर्मत्याग का अधिकार पैदा हो जाता है, कर्म आप ही आप छूट जाते हैं । उस अवस्था में केवल रामनाम, हरिनाम, या केवल ओंकार का जप करना ही पर्याप्त है ।” आपने फिर कहा- “सन्ध्यावन्दन का लय गायत्री में होता है और गायत्री का ओंकार में ।”

[संध्योपासन का अभिन्न अंग है वेदों की ऋचाओं तथा श्लोकों का आह्वान करके  "यथाशक्ति गायत्री मंत्र जपमहं करिष्ये।" ~ यथाशक्ति गायत्री मंत्र का जाप करना।  

[ঠাকুর বলিতেছেন, “যখন একবার হরি বা একবার রামনাম করলে রোমাঞ্চ হয়, অশ্রুপাত হয়, তখন নিশ্চয় জেনো যে সন্ধ্যাদি কর্ম — আর করতে হবে না। তখন কর্মত্যাগের অধিকার হয়েছে — কর্ম আপনা আপনি ত্যাগ হয়ে যাচ্ছে। তখন কেবল রামনাম, কি হরিনাম, কি শুদ্ধ ওঁকার জপলেই হল।” আবার বলিলেন, “সন্ধ্যা গায়ত্রীতে লয় হয়। গায়ত্রী আবার ওঁকারে লয় হয়।”
[Sri Ramakrishna said: "When, hearing the name of Hari or Rama once, you shed tears and your hair stands on end, then you may know for certain that you do not have to perform such devotions as the sandhya any more. Then only will you have a right to renounce rituals; or rather, rituals will drop away of themselves. Then it will be enough it you repeat only the name of Rama or Hari, or even simply Om." Continuing, he said, "The sandhya merges in the Gayatri, and the Gayatri merges in Om."] 

       "मास्टर सिधू * के साथ वराहनगर से निकलकर एक बाग़ से दूसरे बाग़ में घूमते हुए यहाँ आ पहुँचे थे। रविवार का दिन था-छुट्टी थी, इसलिये घूमने निकले थे । थोड़ी देर पहले श्री प्रसन्न बनर्जी के बाग में घूम रहे थे । उस समय सिधू ने कहा- “गंगाजी के किनारे एक सुन्दर बगीचा है, देखने चलिएगा? वहाँ एक परमहंस रहा करते हैं ।”
(सिधू *=श्री सिद्धेश्वर मजुमदार-ये उत्तर वराहनगर में रहते थे) 
[মাস্টার সিধুর২ সঙ্গে বরাহনগরের এ-বাগানে ও-বাগানে বেড়াইতে বেড়াইতে এখানে আসিয়া পড়িয়াছেন। আজ রবিবার, অবসর আছে, তাই বেড়াইতে আসিয়াছেন; শ্রীযুক্ত প্রসন্ন বাঁড়ুজ্যের বাগানে কিয়ৎক্ষণ পুর্বে বেড়াইতেছিলেন। তখন সিধু বলিয়াছিলেন, “গঙ্গার ধারে একটি চমৎকার বাগান আছে, সে-বাগানটি কি দেখতে যাবেন? সেখানে একজন পরমহংস আছেন।”

         "मास्टर सिधू *  बगीचे के सामने वाले फाटक से प्रवेश कर मास्टर और सिधू सीधे श्रीरामकृष्णदेव के कमरे में आए । मास्टर विस्मित होकर देखते हुए सोचने लगे-‘वाह, कैसा सुन्दर स्थान है ! कितने अच्छे महात्मा हैं । कैसी सुन्दर वाणी है ! यहाँ से हिलने तक की इच्छा नहीं होती ।’ थोड़ी देर बाद उन्होंने मन में विचार किया, “एक बार देख आऊँ, कहाँ आया हूँ । फिर यहाँ आकर बैठूँगा ।”
[বাগানে সদর ফটক দিয়া ঢুকিয়াই মাস্টার ও সিধু বরাবর ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরে আসিলেন। মাস্টার অবাক্‌ হইয়া দেখিতে দেখিতে ভাবিতেছেন, “আহা কি সুন্দর স্থান! কি সুন্দর মানুষ! কি সুন্দর কথা! এখান থেকে নড়তে ইচ্ছা করছে না।” কিয়ৎক্ষণ পরে মনে মনে বলিতে লাগিলেন, “একবার দেখি কোথায় এসেছি। তারপর এখানে এসে বসব।”

[M. looked around him with wonder and said to himself: "What a beautiful place! What a charming man! How beautiful his words are! I have no wish to move from this spot," After a few minutes he thought, "Let me see the place first; then I'll come back here and sit down."

          मास्टर सिधू के साथ कमरे के बाहर निकले । ठीक उसी समय आरती की मधुर ध्वनि आरम्भ हुई । एक साथ घण्टे, घड़ियाल, झाँझ, मृदंग आदि बज उठे । उद्यान की दक्षिण सीमा से नौबत की मधुर ध्वनि गूँज उठी । वह ध्वनि मानो भागीरथी के वक्ष पर से संचार करती हुई कहीं दूर जाकर विलिन होने लगी । वसन्तसमीर पुष्पों की सुगंध लिए मन्द-मन्द बह रहा था । चारों ओर ज्योत्स्ना छा गयी । प्रकृति में सर्वत्र मानो देवताओं की आरती का आयोजन हो रहा था । बारह शिवमन्दिर, श्रीराधाकान्त-मन्दिर और श्रीभवतारिणी के मन्दिर में आरती देखकर मास्टर को अत्यन्त प्रसन्नता हुई
[সিধুর সঙ্গে ঘরের বাহিরে আসিতে না আসিতে আরতির মধুর শব্দ হইতে লাগিল। এককালে কাঁসর, ঘন্টা, খোল, করতালি বাজিয়া উঠিল। বাগানের দক্ষিণসীমান্ত হইতে নহবতের মধুর শব্দ আসিতে লাগিল। সেই শব্দ ভাগীরথীবক্ষে যেন ভ্রমণ করিতে করিতে অতিদূরে গিয়া কোথায় মিশিয়া যাইতে লাগিল। মন্দ মন্দ কুসুমগন্ধবাহী বসন্তানিল! সবে জোৎস্না উঠিতেছে। ঠাকুরদের আরতির যেন চতুর্দিকে আয়োজন হইতেছে! মাস্টার দ্বাদশ শিবমন্দিরে, শ্রীশ্রীরাধাকান্তের মন্দিরে ও শ্রীশ্রীভবতারিণীর মন্দিরে আরতি দর্শন করিয়া পরম প্রীতিলাভ করিলেন।
As he left the room with Sidhu, he heard the sweet music of the evening service arising in the temple from gong, bell, drum, and cymbal. He could hear music from the nahabat, too, at the south end of the garden. The sounds travelled over the Ganges, floating away and losing themselves in the distance. A soft spring wind was blowing, laden with the fragrance of flowers; the moon had just appeared. It was as if nature and man together were preparing for the evening worship. M. and Sidhu visited the twelve Siva temples, the Radhakanta temple, and the temple of Bhavatarini. And as M. watched the services before the images his heart was filled with joy.

  [(26 . 2 . 1882)श्रीरामकृष्ण वचनामृत-1]

🔆🙏रानी रासमणि जगतजननी श्री राधा के अष्टसखियों में एक थीं 🔆🙏 

 सिधू ने बताया-“यह रानी रासमणि ^ का देवस्थान है । यहाँ देवताओं की नित्य सेवापूजा होती है। रोज कई लोग आते हैं, कई साधु-सन्त, ब्राह्मण, भिखारी यहाँ प्रसाद पाते हैं ।” 

[সিধু বলিলেন, “এটি রাসমণির দেবালয়। এখানে নিত্যসেবা। অনেক অতিথি, কাঙাল আসে।”
On the way back to Sri Ramakrishna's room the two friends talked.  Sidhu told M. that the temple garden had been founded by Rani Rasmani. He said that God was worshipped there daily as Kali, Krishna, and Siva, and that within the gates many sadhus and beggars were fed.

{रानी रासमणि [Rani Rasmani (1793-1861)] रानी रासमणि दक्षिणेश्वर काली मंदिर की संस्थापिका थीं । अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव के मतानुसार रानी रासमणि जगतजननी श्रीराधा रानी की अष्ट सखियों में से एक थीं । रानी रासमणि वेदों की ऋचाओं के समान पवित्र , परोपकारी, जन -हितैषी, दानशीला और तेजस्विनी महिला थीं। इनका जन्म 24 परगना जिले के हालीशहर के निकट "कोना" ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम हरेकृष्ण दास तथा माता का नाम रामप्रिया देवी था । इनकी माताजी द्वारा दिया हुआ उपनाम रानी था, इसीलिए बाद में उन्हें रानी रासमणि कहा जाने लगा। 11 साल की उम्र में ही इनका विवाह कोलकाता के जानबाजार के जमींदार राजचन्द्र दास के साथ हो गया था। किन्तु इसी उम्र से उनमें ईश्वरभक्ति, दृढ़ व्यक्तित्व , तेजस्विता तथा हृदयवत्ता जैसे गुण उनके चरित्र में झलकने लगे थे। उस समय अंग्रेजों ने गंगा नदी में मछली पकड़ने पर जो जल-कर लगा दिया था, उस जलकर को समाप्त करवा देना उनकी महान उपलब्धियों में से एक था। यद्यपि उनके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी दक्षिणेश्वर में लगभग 9 लाख रुपये की लागत से माँ भवतारिणी मन्दिर का निर्माण करवाना। 1855 ई. में स्नान-यात्रा के दिन श्री रामकृष्ण के बड़े भाई श्री रामकुमार चट्टोपाध्याय के द्वारा माँ भवतारिणी की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य अत्यंत समारोह पूर्वक सम्पादित किया गया था। नौ लक्खा मन्दिर के स्थापित हो जाने के बाद अन्य कोई ब्राह्मण दक्षिणेशर मंदिर में कालीपूजा करने को तैयार नहीं थे , इसलिये रामकुमार जी ही मंदिर में देवीपूजा करते रहे। इसके कुछ समय बाद, ह्रदय के तैयार होने पर ठाकुर ने स्वयं इस पूजा की जिम्मेवारी संभाल ली । श्री रामकृष्ण ने उस समय से लेकर 30 वर्षों तक का लम्बा समय दक्षिणेश्वर में बिताया था। रानी रासमणि आजीवन श्रीरामकृष्ण के श्रद्धा और स्नेह की पात्र थीं। और रानी की सहमति के कारण ही रामकृष्णदेव के लिए दक्षिणेश्वर में रहकर सभी प्रकार के साधन-भजन बिना किसी बाधा के सम्पन्न हो सका था।   
 
"भवतारिणी के मन्दिर से निकलकर दोनों बातचीत करते करते पक्के विस्तीर्ण आँगन पर से चलते हुए पुनः श्रीरामकृष्ण के कमरे के सामने आ पहुँचे । उन्होंने देखा, कमरे का दरवाजा अब भिड़ा लिया गया है ।
[কথা কহিতে কহিতে ভবতারিণীর মন্দির হইতে বৃহৎ পাকা উঠানের মধ্য দিয়া পাদচারণ করিতে করিতে দুইজনে আবার ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ঘরের সম্মুখে আসিয়া পড়িলেন। এবার দেখিলেন, ঘরের দ্বার দেওয়া।
 कमरे के भीतर अभी धूप दिखाया गया है । मास्टर अंग्रेजी पढ़े-लिखे आदमी हैं । सहसा घर में घुस न सकते थे । द्वार पर वृन्दा (कहारिन) खड़ी थी । मास्टर ने पूछा, “साधु महाराज क्या इस समय कमरे के भीतर हैं ?” उसने कहा, “हाँ, वे भीतर हैं ।”
[এইমাত্র ধুনা দেওয়া হইয়াছে। মাস্টার ইংরেজী পড়িয়াছেন, ঘরে হঠাৎ প্রবেশ করিতে পারিলেন না। দ্বারদেশে বৃন্দে (ঝি) দাঁড়াইয়াছিল। জিজ্ঞাসা করিলেন, “হ্যাঁ গা, সাধুটি কি এখন এর ভিতর আছেন?”
বৃন্দে — হ্যাঁ, এই ঘরের ভিতর আছেন।
 When they reached Sri Ramakrishna's door again, they found it shut, and Brinde, the maid, standing outside. 
M., who had been trained in English manners and would not enter a room without permission, asked her, "Is the holy man in?" Brinde replied, "Yes, he's in the room."

मास्टर- ये यहाँ कब से हैं ? 
[মাস্টার — ইনি এখানে কতদিন আছেন?
M: "How long has he lived here?"

वृन्दा- ये ? बहुत दिनों से हैं ।
[বৃন্দে — তা অনেকদিন আছেন —
BRINDE: "Oh, he has been here a long time."

मास्टर- अच्छा, तो पुस्तकें खूब पढ़ते होंगे ?
[মাস্টার — আচ্ছা, ইনি কি খুব বই-টই পড়েন?
M: "Does he read many books?"

वृन्दा- पुस्तकें ? उनके मुँह में सब कुछ है ।
[বৃন্দে — আর বাবা বই-টই! সব ওঁর মুখে!
BRINDE: "Books? Oh, dear no! They're all on his tongue."

मास्टर हाल ही में पढ़ाई-लिखाई पूरी कर आए थे । श्रीरामकृष्ण पुस्तकें नहीं पढ़ते, यह सुनकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ ।
[মাস্টার সবে পড়াশুনা করে এসেছেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বই পড়েন না শুনে আরও অবাক্‌ হলেন।
M. had just finished his studies in college. It amazed him to hear that Sri Ramakrishna read no books.

मास्टर- अब तो ये शायद सन्ध्या करेंगे ? क्या हम भीतर जा सकते हैं ? एक बार खबर दे दो न ।
[মাস্টার — আচ্ছা, ইনি বুঝি এখন সন্ধ্যা করবেন? — আমরা কি এ-ঘরের ভিতর যেতে পারি? — তুমি একবার খবর দিবে?
M: "Perhaps it is time for his evening worship. May we go into the room? Will you tell him we are anxious to see him?"

वृन्दा- तुम लोग जाते क्यों नहीं ? जाओ, भीतर बैठो ।
[বৃন্দে — তোমরা যাও না বাবা। গিয়ে ঘরে বস।
BRINDE: "Go right in, children. Go in and sit down."

तब दोनों ने कमरे में प्रवेश किया । देखा, कमरे में और कोई नहीं है । श्रीरामकृष्ण अकेले तखत पर बैठे हैं । कमरे में धूप की सुगन्ध भर रही है । सभी दरवाजे बन्द हैं । मास्टर ने अन्दर आते ही हाथ जोड़कर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण द्वारा बैठने की आज्ञा पाकर वे और सिधू फर्श पर बैठ गए । श्रीरामकृष्ण ने पूछा, कहाँ रहते हो, क्या करते हो, वराहनगर क्यों आए इत्यादि । मास्टर ने कुल परिचय दिया ।   
[তখন তাঁহারা ঘরে প্রবেশ করিয়া দেখেন, ঘরে আর অন্য কেহ নাই। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরে একাকী তক্তপোশের উপর বসিয়া আছেন। ঘরে ধুনা দেওয়া হইয়াছে ও সমস্ত দরজা বন্ধ। মাস্টার প্রবেশ করিয়াই বদ্ধাঞ্জলি হইয়া প্রণাম করিলেন। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বসিতে অনুজ্ঞা করিলে তিনি ও সিধু মেঝেতে বসিলেন। ঠাকুর জিজ্ঞাসা করিলেন, “কোথায় থাক, কি কর, বরাহনগরে কি করতে এসেছ” ইত্যাদি। মাস্টার সমস্ত পরিচয় দিলেন। 
Entering the room, they found Sri Ramakrishna alone, seated on the wooden couch. Incense had just been burnt and all the doors were shut. As he entered, M. with folded hands saluted the Master. Then, at the Master's bidding, he and Sidhu sat on the floor. Sri Ramakrishna asked them: "Where do you live? What is your occupation? Why have you come to Baranagore?"

"वे देखने लगे कि श्रीरामकृष्ण का मन बीच बीच में मानो दूसरी ओर खींच रहा है । उन्हें बाद में मालुम हुआ कि इसी को ‘भाव’ कहते हैं । मानो कोई बंसी डालकर मछली पकड़ने बैठा है जब मछली आकर काँटे में लगे चारे को खाने लगती है और बंसी का शोला हिलने लगता है, उस समय वह आदमी किस प्रकार व्यस्त होकर बंसी को पकड़े हुए एकाग्र चित्त से शोले की ओर टक लगाकर देखने लगता है, -किसी से बातचीत नहीं करता यह भी ठीक उसी प्रकार का भाव
था । बाद में मास्टर ने सुना और देखा कि सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण को इस प्रकार का भावान्तर प्रायः प्रतिदिन हुआ करता है, कभी कभी तो वे पूरी तरह बाह्यज्ञान-शून्य हो जाते हैं ।
[কিন্তু দেখিতে লাগিলেন যে, ঠাকুর মাঝে মাঝে যেন অন্যমনস্ক হইতেছেন। পরে শুনিলেন, এরই নাম ভাব। যেমন কেহ ছিপ হাতে করিয়া মাছ ধরিতে বসিয়াছে। মাছ আসিয়া টোপ খাইতে থাকিলে ফাতনা যখন নড়ে, সে ব্যক্তি যেমন শশব্যস্ত হইয়া ছিপ হাতে করিয়া ফাতনার দিকে একদৃষ্টে একমনে চাহিয়া থাকে, কাহারও সহিত কথা কয় না; এ-ঠিক সেইরূপ ভাব। পরে শুনিলেন ও দেখিলেন, ঠাকুরের সন্ধ্যার পর এইরূপ ভাবান্তর হয়, কখন কখন তিনি একেবারে বাহ্যশূন্য হন!
 M. answered the questions, but he noticed that now and then the Master seemed to become absent-minded. Later he learnt that this mood is called bhava, ecstasy. It is like the state of the angler who has been sitting with his rod: the fish comes and swallows the bait, and the float begins to tremble; the angler is on the alert; he grips the rod and watches the float steadily and eagerly; he will not speak to anyone. Such was the state of Sri Ramakrishna's mind. Later M. heard, and himself noticed, that Sri Ramakrishna would often go into this mood after dusk, sometimes becoming totally unconscious of the outer world.
   
मास्टर- आप तो अब सन्ध्या करेंगे, हम अब चलें ।
[মাস্টার — আপনি এখন সন্ধ্যা করবেন, তবে এখন আমরা আসি।
M: "Perhaps you want to perform your evening worship. In that case may we take our leave?"

श्रीरामकृष्ण (भावस्थ)- नहीं, -सन्ध्या-ऐसा कुछ नहीं । 
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভাবস্থ) — না — সন্ধ্যা — তা এমন কিছু নয়।
SRI RAMAKRISHNA (still in ecstasy): "No — evening worship? No, it is not exactly that."

और कुछ देर बातचीत होने के बाद मास्टर ने प्रणाम किया और चलना चाहा । श्रीरामकृष्ण ने कहा, “फिर आना ।” 
[আর কিছু কথাবার্তার পর মাস্টার প্রণাম করিয়া বিদায় গ্রহণ করিলেন। ঠাকুর বলিলেন, “আবার এস”।
After a little conversation M. saluted the Master and took his leave. "Come again", Sri Ramakrishna said.

मास्टर लौटते समय सोचने लगे- “ये सौम्यदर्शन पुरुष कौन हैं? इनके पास फिर लौट जाने की इच्छा हो रही है ! क्या बिना पुस्तकों के पढ़े भी मनुष्य महान् बन सकता है? कितना आश्चर्य है, मुझे यहाँ फिर आने की इच्छा हो रही है इन्होंने भी कहा, ‘फिर आना’ कल या परसों सबेरे फिर आऊँगा ।”
[মাস্টার ফিরিবার সময় ভাবিতে লাগিলেন, “এ সৌম্য কে? — যাঁহার কাছে ফিরিয়া যাইতে ইচ্ছা করিতেছে — বই না পড়িলে কি মানুষ মহৎ হয়? — কি আশ্চর্য, আবার আসিতে ইচ্ছা হইতেছে। ইনিও বলিয়াছেন, ‘আবার এস’! কাল কি পরশু সকালে আসিব।”
[On his way home M. began to wonder: "Who is this serene-looking man who is drawing me back to him? Is it possible for a man to be great without being a scholar? How wonderful it is! I should like to see him again. He himself said, 'Come again.' I shall go tomorrow or the day after."]
[*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत {श्री महेन्द्रनाथ गुप्त (बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ ] 
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[जगतजननी श्री राधारानी भगवान कृष्ण की प्राणप्रिया है। ब्रज मंडल की अधिष्ठात्री देवी है।  उनकी कृपा के बिना कोई ब्रज में प्रवेश नहीं कर सकता है।  जिस पर राधा रानी की कृपा कर दें वो ना चाहते हुए भी ब्रज में पहुँच जाता है।   वृंदावन में श्री बिहारी जी मंदिर के बहुत ही पास, अष्ट सखी मंदिर या श्री राधा रास बिहारी नाम का मन्दिर है। यह मंदिर सदियों पुराना है एवं  यह मंदिर दिव्य युगल और उनकी अष्ट सखी को समर्पित है। यह मंदिर श्री राधा रानी रास बिहारी अष्ट सखी मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण और श्री राधारानी के दिव्य रास लीला का घर है। यह बाँके बिहारी मंदिर के बहुत पास में स्थित है। मंदिर का हाल ही में पुन निर्माण और आधुनिकरण किया गया है। अष्ट सखियों में से ललिता और विशाखा को मुख्य सखी माना जाता है। सभी साखियों का एक ही उदेश्य है कि वे श्री राधा श्री कृष्ण की सेवा करें;  और राधा जी की अष्ट सखियों के नाम हैं-- 1.ललिता जी, 2.विशाखा जी, 3.चित्रा जी, 4.चंपकलता, 5.सुदेवी, 6.तुंगविद्या, 7.इंदुलेखा, 8.रंगदेवी। ]

जगत जननी श्रीराधा   
 
जगत जननी राधा को भगवान श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति माना गया है। यानी राधा के कारण श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं। पद्म पुराण में कहा गया है कि राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। महर्षि वेदव्यास ने लिखा है कि श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा राधा हैं।

जगत जननी श्रीराधा बहुत से लोगो के लिए एक विलक्षण पहेली बनी हुई है। और श्री राधा जी के अनिर्वचनीय तत्व रहस्य को जब तक कोई जान नहीं लेगा तब तक उसके लिए वे एक पहेली ही बनी रहेगी। जब गोपी रहस्य ही परम गुह है फिर राधा जी की तो बात ही क्या है ?

लोगो की समझ में ही नहीं आ सकता कि मोक्ष तक की आकांक्षा न रखकर भगवान से अपने लिए कभी कुछ भी इच्छा न रखकर भगवान से प्रेम करने का क्या अभिप्राय हो सकता है?  जिस भगवान की भक्ति करे या जिससे प्रेम करे उससे अपने लिए कभी कुछ भी न चाहे ये कैसी भक्ति?

श्रीशुकदेव जी - जो ब्रह्मानंद स्वरुप में परिनिष्ठित महान रस-रहस्य के मर्मज्ञ है। वे क्यों उस राजा  परीक्षित को, जो मरणासन्न है, उन्हें रासलीला सुनाते हुए हर्षोल्लास और मुग्ध पवित्रतम गुह रहस्य खोलने लगते है ? यदि ये राधा-कृष्ण लीला , लौकिक जगत की क्रीडा मात्र होती तो क्यों एक मरते हुए इंसान को शुकदेव जी जैसे परमज्ञानी, रासलीला और श्रृंगार पक्ष का वर्णन करते ?

श्रीचैतन्य महाप्रभु - महाप्रभु स्त्री का नाम तक नही सुनते और न अपने मुख से लेते है। वे प्रभु श्री गोपीजन और श्रीराधा के भावो का स्मरण,श्रवण, और गान करके बाहज्ञान शून्य होंकर, आनंद-राज्य में पहुँच जाते है। गीत गोविंद के श्रृंगार रस के पद सुनते हैं । 

राधाष्टमी का पर्व भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। 15 दिन पहले यानी भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान श्री कृष्ण का जन्म उत्सव यानी जन्माष्टमी मनाई जाती है।  श्री राधा रानी भगवान श्री कृष्ण की शक्ति मानी जाती है कहते हैं।  राधा रानी संपूर्ण जगत को परम आनंद प्रदान करती है।  राधा को मोक्ष देने वाली स्वामी और संपूर्ण जगत जननी माना जाता है। 

ब्रज में राधा की श्रीकृष्ण से अधिक मान्यता है। रस साम्राज्ञी राधा रानी ने नंदगांव में नंद बाबा के पुत्र के रूप में रह रहे भगवान श्रीकृष्ण के साथ समूचे ब्रज में आलौकिक लीलाएं कीं, जिन्हें पुराणों में माया के आवरण से रहित जीव का ब्रह्म के साथ विलास बताया गया है। राधा रानी की श्रीकृष्ण में अनन्य आस्था थी। वह उनके लिए हर क्षण अपने प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार रहती थीं।
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शनिवार, 20 मार्च 2021

🙏 श्रीरामकृष्णदेव की संक्षिप्त जीवनी & श्रीरामकृष्ण-वचनामृत ग्रन्थ की प्रस्तावना* ~

*श्रीरामकृष्ण-वचनामृत ग्रन्थ की प्रस्तावना*   

[*साभार ~ https://aneela-daduji.blogspot.com/ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत {श्री महेन्द्रनाथ गुप्त (बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ/]

भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का जीवन नितान्त आध्यात्मिक था । ईश्वरीय भाव उनके लिए ऐसा ही स्वाभाविक था जैसा किसी प्राणी के लिए श्वास लेना उनके जीवन का प्रत्येक क्षण मनुष्य-मात्र के लिए आदेशप्रद कहा जा सकता है तथा उनके उपदेश विशेष रूप से आध्यात्म-गर्भित हैं और सार्वलौकिक होते हुए मानव-जीवन पर अपना प्रभाव डालने में अद्वितीय हैं ।

        श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का संभाषण तथा उनके उपदेशों का सर्वप्रथम संकलन तथा संपादन उनके एक अनन्य गृहस्थ भक्त श्री ‘म’(श्री महेन्द्रनाथ गुप्त) ने ५ जिल्दों में ‘श्रीरामकृष्ण कथामृत’ के नाम से किया था । कुछ समय बाद इन ग्रन्थों का अनुवाद किया गया तथा यह अनुवाद क्रमपूर्वक मासिक हिन्दी पत्रिका ‘समन्वय’ में प्रकाशित हुआ । 

      अनुवाद में संभाषणों तथा उपदेशों का क्रम तारीखवार रखा गया । ‘समन्वय’ पत्रिका, मायावती अद्वैत आश्रम, हिमालय से प्रकाशित होती थी और इसके कुशल संपादक थे श्री स्वामी माधवानन्दजी, जो आजकल श्रीरामकृष्ण मठ तथा मिशन के मंत्री हैं ।    

      इन ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद का श्रेय हिन्दी संसार के लब्धप्रतिष्ठ लेखक तथा सुविख्यात छायावादी कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ को है । इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए हम श्री ‘निराला’जी के विशेष आभारी हैं । बंगला भाषा का पूर्ण ज्ञान रखने के कारण श्री निरालाजी ने अनुवाद में केन्द्रीय भावों तथा शैली आदि को ज्यों का त्यों रखा है और साथ ही साथ साहित्यिक दृष्टि से भी उर्स बहुत ऊँचा बनाया है । 
      साहित्य-शास्त्री प्रोफेसर श्री पं. विद्याभास्करजी शुक्ल, एम्. एस्. सी., पी. ई. एस. कॉलेज ऑफ साइन्स, (नागपुर यूनिवर्सिटी) नागपुर, के प्रति भी हम अपनी कृतज्ञता प्रकट किए बिना नहीं रह सकते हैं । प्रो. शुक्लजी ने निर्मल भक्ति-भाव से इस पुस्तक में दी हुई श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की सुन्दर, संक्षेप जीवनी लिखी है ।  
       यह जीवनी परमहंस महाराज के उपदेशों के लिए प्रस्तावना के रूप में विशेष लाभदायक होगी । श्री शुक्ल जी ने इस पुस्तक को आद्योपान्त ध्यान से देखा है तथा कई उपयुक्त सूचनाएँ भी दी हैं और इसके लिए हम उन्हें धन्यवाद देते हैं ।
      मौलिक बंगाली कथामृत का अनुवाद अन्य कई भाषाओं में हो चुका है और इसका पूर्ण रूप से तथा क्रमानुसार हिन्दी में अनुवाद होना बहुत समय से वांछनीय था । हमें आशा है हमारे इस प्रकाशन से हिन्दी जनता की एक बड़ी जरूरत की पूर्ति हो जाएगी । साथ ही यह पुस्तक श्रीरामकृष्ण आश्रम, धन्तोली, नागपुर, सी. पी. से प्रकाशित श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की विस्तृत जीवनी (श्रीरामकृष्ण लीलामृत भाग १ और २) ले लिए परिपूरक के सदृश है ।
       हमारे इस प्रकाशन से यदि पाठकों को कुछ लाभ हुआ तो हमें बड़ी प्रसन्नता होगी और हम अपने यत्नों को सफल मानेंगे । हमारी यह आन्तरिक एवं हार्दिक प्रार्थना है कि यह पुस्तक उन सज्जनों के लिए पथ -प्रदर्शक हो जो 'सत्य की खोज' में दृढ़ मन से लगे हैं
-प्रकाशक-
वैशाख, अक्षय तृतीया 
ता. २४-४-१९४१ 
नागपुर, सी.पी. 
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*श्रीमाताजी का आशीर्वाद* भगवान् श्रीरामकृष्णदेव की लीलासहधर्मिणी परमआराध्या श्री माँ सारदादेवी ने ‘श्री रामकृष्णकथामृत’ के सम्बन्ध में उसके रचयिता श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(श्री ‘म’) को निम्नलिखित पत्र लिखा था:-
“बेटा,
उनके(श्री रामकृष्णदेव के) निकट तुमने जो बातें सुनी थीं वही बातें सत्य हैं । इस विषय में तुम्हें कोई भय नहीं । किसी समय उन्होंने ही तुम्हारे निकट इन बातों को रख छोड़ा था । अब आवश्यकतानुसार वे ही इन्हें प्रकट करा रहे हैं । जान रखो कि इन बातों को व्यक्त किये बिना लोगों का चैतन्य जागृत नहीं होगा । तुम्हारे पास उनकी जो बातें संचित हैं वे सभी सत्य हैं । एक दिन तुम्हारे मुँह से उन्हें सुनकर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो वे स्वयं ही ये सब बातें कह रहे हैं ।”

Painting of Sri Ramakrishna








Sri Ramakrishna (1836-1886), great mystic saint of India, is regarded by millions the world over as a divine incarnation. His early life was devoted to the practice and testing of a variety of spiritual disciplines, including those of Hinduism, Christianity, and Islam. After realizing God in each of those religions, he declared that all faith paths, if followed with earnestness, lead to the same God-realization. Ramakrishna’s life therefore embodies all spiritual ideals and represents the harmony of the world’s great religious traditions. Five of his disciples spread the message of Vedanta in the United States and Europe.

with gratitude:https://vedantastl.org/about/ramakrishna-and-his-disciples]

*अवतारवरिष्ठ भगवान् श्रीरामकृष्णदेव की संक्षिप्त जीवनी* 

तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥

-प्रभो, तुम्हारी लीलाकथा अमृतस्वरूप है । तापतप्त जीवों के लिए तो वह जीवनस्वरूप है । ज्ञानी महात्माओं ने उसका गुणगान किया है । वह पापपुंज को हरनेवाली है । उसके श्रवणमात्र से परम कल्याण होता है । वह परम मधुर तथा सुविस्तृत है । जो तुम्हारी इस प्रकार की लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में इस भूतल में वे ही सर्वश्रेष्ठ दाता हैं । (श्रीमद्भागवत, १०\३१\९)       

        हम यह देखते हैं कि श्रीरामचन्द्र तथा भगवान् बुद्ध को छोड़कर बहुधा अन्य सभी अवतारी महापुरुषों का जन्म संकटग्रस्त परिस्थितियों में ही हुआ है, और यह कहा जा सकता है कि भगवान् श्रीरामकृष्ण भी किसी विशेष प्रकार के सुखद वातावरण में इस संसार में अवतरित नहीं हुए ।
          श्रीरामकृष्ण का जन्म 'फाल्गुन- शुक्ल- द्वितीया', दिन 'बुधवार', तदनुसार १७ फरवरी १८३६ ई. को हुगली प्रान्त के कामारपुकुर गाँव में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कामारपुकुर गाँव बर्दवान से लगभग चौबीस-पच्चीस मील दक्षिण तथा जहानाबाद (आरामबाग) से लगभग आठ मील पश्चिम में है ।
       श्रीरामकृष्ण के पिता श्री क्षुदिराम चट्टोपाध्याय परम सन्तोषी, सत्यनिष्ठ एवं त्यागी पुरुष थे, और उनकी माता श्री चन्द्रमणि देवी सरलता तथा दयालुता की मूर्ति थी । यह आदर्श दम्पती पहले देरे नामक गाँव में रहते थे, परन्तु वहाँ के अन्यायी जमींदार की कुछ जबरदस्तियों के कारण इन्हें वह गाँव छोड़कर करीब तीन मील की दूरी पर इसी कामारपुकुर गाँव में आ बसना पड़ा ।
       बचपन में श्रीरामकृष्ण का नाम गदाधर था । अन्य बालकों की भाँति वे भी पाठशाला भेजे गये, परन्तु एक ईश्वरी अवतार एवं संसार के पथ-प्रदर्शक को उस ‘अ, आ, इ, ई’ की पाठशाला में चैन कहाँ? बस, जी उचटने लगा, और मन लगा घर में स्थापित आनन्दकन्द सच्चिदानन्द भगवान् श्रीरामजी की मूर्ति में-स्वयं वे फूल तोड़ लाते और इच्छानुसार मनमानी उनकी पूजा करते । कहते हैं कि अवतारी पुरुषों में कितने ही गुण छिपे रहते हैं कि उनका अनुमान करना कठिन होता है । श्री गदाधर की स्मरणशक्ति विशेष तीव्र थी । साथ ही उन्हें गाने की भी रुचि थी और विशेषतः भक्तिपूर्ण गानों के प्रति।
         साधु-संन्यासियों के जत्थों के दर्शन तो मानो इनकी जीवनी में संजीवनी का कार्य करते थे । अपने घर के पास लाहा की अतिथिशाला में जहाँ बहुधा संन्यासी उतरा करते थे, इनका काफी समय जाता था । मुहल्ले के बालक, वृद्ध, सभी ने न जाने इनमें कौनसा दैवी गुण परखा था कि वे सब इनसे बड़े प्रसन्न रहते थे । रामायण, महाभारत, गीता आदि के श्लोक ये केवल बड़ी भक्ति से सुनते ही नहीं थे, वरन् उनमें से बहुत से उन्हें सहजरूप कंठस्थ भी हो जाया करते थे ।
     यह दैवी बालक अपनी करतूतें शुरु से ही दिखाते रहा और कह नहीं सकते कि उसके बचपन से ही कितनों ने उसे ताड़ा होगा । छिपे हुए दैवी गुणों का विकास पहले-पहल उस बार हुआ जब यह बालक अपने गाँव के समीपवर्ती आनुड़ गाँव को जा रहा था । एकाएक इस बालक को एक विचित्र प्रकार की ज्योति का दर्शन हुआ और वह बाह्यज्ञानशून्य हो गया । कहना न होगा कि मायाग्रस्त सांसारिकों ने जाना कि गर्मी के कारण मूर्च्छा थी, परन्तु वास्तव में वह थी भावसमाधि । 
      अपने पिता की मृत्यु के बाद श्रीरामकृष्ण अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ, जो एक बड़े विद्वान् पुरुष थे, कलकत्ता आये । उस समय वे लगभग १७-१८ वर्ष के थे । कलकत्ते में उन्होंने एक दो स्थानों पर पूजन का कार्य किया । इसी अवसर पर रानी रासमणि ने कलकत्ते से लगभग पाँच मील पर दक्षिणेश्वर में एक मन्दिर बनवाया और श्रीकालीदेवी की स्थापना की । 
       ता. ३१ मई १८५५ को इसी मन्दिर में श्रीरामकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता श्री राजकुमारजी कालीमन्दिर के पुजारीपद पर नियुक्त हुए, परन्तु यह कार्यभार शीघ्र ही श्रीरामकृष्ण पर आ पड़ा । श्रीरामकृष्ण उक्त मन्दिर में पूजा करते थे परन्तु अन्य साधारण पुजारियों की भाँति वे कोरी पूजा नहीं करते थे, परन्तु पूजा करते समय ऐसे मग्न हो जाते थे कि उस प्रकार की अलौकिक मग्नता ‘देखा सुना कबहुँ नहीं कोई’-और यह अक्षरशः सत्य भी क्यों न हो? ईश्वर ही ईश्वर की पूजा कर रहे थे ! उस भाव का वर्णन कौन कर सकता है जिससे रामकृष्ण प्रेरित हो, ध्यानावस्थित हो श्रीकालीदेवी पर फूल चढ़ाते थे ! 
        आँखों में अश्रुधारा बह रही है, तन-मन की सुध नहीं, हाथ काँप रहे हैं, हृदय उल्लास से भरा है, मुख से शब्द नहीं निकलते हैं, पैर भूमि पर स्थिर नहीं रहते है और घण्टी, आरती आदि तो सब किनारे ही पड़ी रही- श्रीकालीजी पर पुष्प चढ़ा रहे हैं और थोड़ी ही देर में उन्हें ही उन्हें देखते हैं-स्वयं में भी उन्हीं को देख रहे हैं और कम्पित कर से अपने ही ऊपर फूल चढ़ाने लगते हैं, कहते हैं-माँ-माँ-तुम-मैं-मैं-तुम और ध्यानमग्न हो समाधिस्थ हो जाते हैं । देखनेवाले समझते हैं कुछ का कुछ, परन्तु ईश्वर मुस्कराते हैं, बड़े ध्यान से देखते हैं और विचारते होंगे कि यह रामकृष्ण हूँ तो मैं ही ! 
       उनके हृदय की व्याकुलता की पराकाष्ठा उस दिन हो गयी जब व्यथित होकर माँ के दर्शन के लिए एक दिन मन्दिर में लटकती हुई तलवार उन्होंने उठा ली और ज्यों ही उससे वे अपना शरीरान्त करना चाहते थे कि उन्हें जगन्माता का अपूर्व अद्भुत दर्शन हुआ और देहभाव भूलकर वे बेसुध हो जमीन पर गिर पड़े । तदुपरान्त बाहर क्या हुआ और वह दिन तथा उसके बाद का दिन कैसे व्यतीत हुआ, यह उन्हें कुछ भी नहीं मालूम पड़ा । अन्तःकरण में केवल एक प्रकार के अननुभूत आनन्द का प्रवाह बहने लगा । 
        बेचारा मायाग्रस्त पुरुष यह सब कैसे समझ सकता है? उसके लिए तो दिव्य चक्षु की आवश्यकता होती है । बस रामकृष्ण के घर के लोग समझ गये कि इनके मस्तिष्क में कुछ फेरफार हो गया है और विचार करने लगे उसके उपचार का । किसी ने सलाह दी कि इनका विवाह कर दिया जाय तो शायद मानसिक विकार(?) दूर हो जाय । विवाह का प्रबन्ध होने लगा और कामारपुकुर से दो कोस पर जयरामवाटी ग्राम में रहनेवाले श्री रामचन्द्र मुखोपाध्याय की कन्या श्रीसारदामणि से इनका विवाह करा दिया गया
          परन्तु इस बालिका के दक्षिणेश्वर में आने पर भी श्रीरामकृष्ण के जीवन में कोई अन्तर नहीं हुआ और श्रीरामकृष्ण ने उस बालिका में प्रत्यक्ष देखा उन्हीं कालीदेवी को । एक सांसारिक बन्धन सम्मुख आया और वह था पति का कर्तव्य । बालिका को बुलाकर शान्ति से पूछा, “क्या तुम मुझे सांसारिक जीवन की ओर खींचना चाहती हो?” परन्तु उस बालिका ने तुरन्त उत्तर दिया, “मेरी यह बिलकुल इच्छा नहीं कि आप सांसारिक जीवन व्यतीत करें, पर हाँ, आपसे मेरी यह प्रार्थना अवश्य है कि आप मुझे अपने ही पास रहने दें, अपनी सेवा करने दें तथा योग्य मार्ग बतलावें ।” 
      कहा जा सकता है कि बालिका ने एक आदर्श अर्धागिनी का धर्म पूर्ण से निबाहा अपने सर्वस्व पति को ईश्वर मानकर उनके सुख में अपना सुख देखा और उनके आदर्श जीवन की साथिन बनकर उनकी सहायता करने लगी । श्रीरामकृष्ण को तो श्रीसारदादेवी और श्रीकालीदेवी एक ही प्रतीत होने लगीं और इस भाव की चरम सीमा उस दिन हुई जब उन्होंने श्रीसारदादेवी का साक्षात् श्रीजगदम्बाज्ञान से षोड्शोपचार पूजन किया । 
       पूजाविधि पूर्ण होते ही श्रीसारदादेवी को समाधि लग गयी । अर्ध-बाह्यदशा में मन्त्रोच्चार करते-करते श्रीरामकृष्ण भी समाधिमग्न हो गये । देवी और उसके पुजारी दोनों ही एकरूप हो गये। कैसा उच्च भाव है- अनेकता में एकता झलकने लगी !
       हीरे का परखनेवाला जौहरी निकल ही आता है । रानी रासमणि के जामाता श्री मथुरबाबू ने यह भाव कुछ ताड़ लिया और श्रीरामकृष्ण को परखकर शीघ्र ही उन्होंने उनकी सेवाशुश्रूषा का उचित प्रबन्ध कर दिया । इतना ही नहीं, बल्कि पुजारीपद पर एक दूसरे ब्राह्मण को नियुक्त कर उन्हें अपने भाव में मग्न रहने का पूरा-पूरा अवकाश दे दिया । साथ ही श्रीरामकृष्ण के भानजे श्री हृदयराम को उनकी सेवा आदि का कार्य सौंप दिया ।
       फिर श्रीरामकृष्ण ने विशेष पूजा नहीं की । दिनरात ‘माँ काली’ ‘माँ काली’ ही पुकारा करते थे; कभी जड़वत् हो मूर्ति की ओर देखते, कभी हँसते, कभी बालकों की तरह फूट-फूटकर रोते और कभी कभी तो इतने व्याकुल हो जाते कि भूमि पर लोटते-पोटते अपना मुँह तक रगड़ डालते थे ।
           इसके बाद श्रीरामकृष्ण ने भिन्न भिन्न साधनाएँ कीं और कई प्रकार के दर्शन प्राप्त कर लिये । कालीमन्दिर में एक बड़े वेदान्ती श्री तोतापुरीजी पधारे थे । वे वहाँ लगभग ग्यारह महीने रहे और उन्होंने श्रीरामकृष्ण से वेदान्त-साधना करायी । श्री तोतापुरीजी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करने के लिये उन्हें चालीस वर्ष तक सतत प्रयत्न करना पड़ा था, उसे श्रीरामकृष्ण ने तीन ही दिन में सिद्ध कर डाला । इसके कुछ समय पूर्व ही वहाँ एक भैरवी ब्राह्मणी पधारी थीं । उन्होंने भी श्रीरामकृष्ण से अनेक प्रकार की तन्त्रोक्त साधनाएँ करायी थीं
      श्री वैष्णवचरण जो एक वैष्णव पण्डित थे, श्रीरामकृष्ण के पास बहुधा आया करते थे । वैष्णवचरण ने मथुरबाबू से कहा था यह उन्माद साधारण नहीं वरन् दैवी है । एक बार श्रीरामकृष्ण कलुटोला की हरिसभा में गये थे । वहाँ वे समाधिस्थ हो गये और चैतन्यदेव के आसन पर जा विराजे । श्रीचैतन्य की भाँति श्रीरामकृष्ण की कभी ‘अन्तर्दशा’, कभी ‘अर्धबाह्य’ और कभी ‘बाह्य दशा’ हो जाया करती थी । वे कहते थे कि अखण्ड सच्चिदानन्द परब्रह्म और माँ सब एक ही हैं
       उन्होंने कामिनी-कांचन का पूर्ण रूप से त्याग किया था । अपने भक्तगणों को, जो सैकड़ों की संख्या में उनके पास आते थे, वे कहा करते थे कि ये दोनों चीजें ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में विशेष रूप से बाधक हैं । बुरे आचरणवाली नारी में भी वे जगन्माता का साक्षात् स्वरूप देखते थे और उसी भाव से आदर करते थे । 
     उनका कांचनत्याग इतना पूर्ण था कि यदि वे पैसे या रुपये को छू लेते तो उनकी उँगलिया ही टेढ़ीमेढ़ी होने लगती थीं । कभी कभी वे गिन्नियों और मिट्टी को एक साथ अंजुली में लेकर गंगाजी के किनारे बैठ जाते थे और ‘मिट्टी पैसा, पैसा मिट्टी’ कहते हुए दोनों चीजों को मलते मलते श्रीगंगाजी की धार में बहा देते थे
     माता चन्द्रमणि को श्रीरामकृष्ण जगज्जननी का स्वरूप मानते थे । अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री रामकुमार के स्वर्गलाभ के बाद श्रीरामकृष्ण उन्हें अपने ही पास रखते था और उनकी पूजा करते थे ।
     मथुरबाबू तथा उनकी पत्नी जगदम्बा दासी के साथ वे एक बार वाराणसी, प्रयाग तथा वृन्दावन भी गये थे । उस समय हृदयराम भी साथ में थे । वाराणसी में उन्होंने मणिकर्णिका में समाधिस्थ होकर भगवान् शंकर के दर्शन किये और मौनव्रतधारी त्रैलंग स्वामी से भेंट की । मथुरा में तो उन्होंने साक्षात् भगवान् आनन्दकंद, सच्चिदानन्द, अन्तर्यामी श्रीकृष्ण के दर्शन किये । उच्च भावदशा रही होगी ।
सेस, महेस, गनेस, दिनेस,
सुरेशहुँ जाहि निरन्तर गावें,
जाहि, अनादि, अनन्त, अखण्ड,
अछेद्, अभेद सुवेद बतावें ।’
(-श्रीरसखानि)
        उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण को उन्होंने यमुना पार करते हुए गौओं को गोधूली समय वापस लाते देखा और ध्रुवघाट पर से वसुदेव की गोद में भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन किये । श्रीरामकृष्ण तो कभी कभी समाधिस्थ हो कहते थे, ‘जो राम थे और जी कृष्ण थे वही अब रामकृष्ण होकर आये हैं।’
         सन 1879-80 * में श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त उनके पास आने लगे थे । उस समय उनकी उन्माद-अवस्था प्रायः चली-सी गयी थी और अब शान्त, सदानंद और समाधि की अवस्था थी । बहुधा वे समाधिस्थ रहते थे और समाधि भंग होने पर भावराज्य में विचरण किया करते थे । "    
        शिष्यों में उनके मुख्य शिष्य नरेंद्र (बाद में स्वामी विवेकानन्द) थे । जब से श्री नरेन्द्र उनके पास आने लगे थे तभी से उन्हें नरेन्द्र के प्रति एक विशेष प्रेम हो गया था और वे कहते थे कि नरेन्द्र साधारण जीव नहीं है । कभी कभी तो नरेन्द्र के न आने से उन्हें व्याकुलता होती थी; क्योंकि वे यह अवश्य जानते रहे होंगे कि उनका कार्य भविष्य में मुख्यतः नरेन्द्र द्वारा ही संचालित होगा
      अन्य भक्तगण राखाल, भवनाथ, बलराम मास्टर महाशय आदि थे । ये भक्तगण 1882 के लगभग आये और इसके उपरान्त दो-तीन वर्ष तक अनेक अन्य भक्त भी आये । इन सब भक्तों ने श्रीरामकृष्ण तथा उनके कार्य के लिये अपना जीवन अर्पित किये थे ।
      ईश्वरचंद्र विद्यासागर, डाँ. महेन्द्रलाल सरकार, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, अमेरिका के कुक साहब, पं. पद्मलोचन तथा आर्यसमाज के प्रवर्तक श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी उनके दर्शन किये थे । ब्राह्मसमाज के अनेक लोग उनके पास आया जाया करते थे । श्रीरामकृष्ण केशवचन्द्र सेन के ब्राह्ममंदिर में भी गये थे ।
    श्रीरामकृष्ण ने अन्य धर्मों की भी साधनाएँ कीं । उन्होंने कुछ दिनों तक इस्लाम धर्म का पालन किया और ‘अल्लाह’ मन्त्र का जप करते करते उन्होंने उस धर्म का अन्तिम ध्येय प्राप्त कर लिया । इसी प्रकार उसके उपरान्त उन्होंने ईसाई धर्म की साधना की और ईसामसीह के दर्शन किये
      जिन दिनों वे जिस धर्म की साधना में लगे रहते थे, उन दिनों उसी धर्म के अनुसार रहते, खाते, पीते, बैठते-उठते तथा बात-चीत करते थे । इन सब साधनाओं से उन्होंने यह दिखा दिया कि सब धर्म अन्त में एक ही ध्येय में पहुँचते हैं । और उनमें आपस में विरोध-भाव रखना मूर्खता है। ऐसा महान् कार्य करनेवाले ईश्वरी अवतार श्रीरामकृष्ण ही थे ।
      इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति के लिये कामिनी-कांचन का सर्वथा त्याग तथा *भिन्न भिन्न धर्मों में एकता की दृष्टि* रखना इन्होंने अपने सभी भक्तों को सिखाया और उनसे उनका अभ्यास कराया इनके कतिपय शिष्य आगे चलकर भारतवर्ष के अतिरिक्त अमेरिका आदि अन्य देशों में भी गये और वहाँ उन्होंने श्रीरामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार किया ।
      १५ अगस्त सन् १८८६ की रात को गले के रोग से पीड़ित हो श्रीरामकृष्ण ने महासमाधि ले ली; परन्तु महासमाधि में गया केवल उनका पांचभौतिक शरीर । उनके उपदेश आज संसार भर में श्रीरामकृष्ण मिशन के द्वारा कोने कोने में गूँज रहे हैं और उनसे असंख्य जनों का कल्याण हो रहा है ।
-विद्याभास्कर शुक्ल
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{1879-80 * ई० के उत्तरार्ध में राम और मनोमोहन एक साथ आकर ठाकुर देव से मिलित हुए , उनके मिलने के बाद केदार और सुरेन्द्र आये। चुन्नी, लाटू, नित्यगोपाल और तारक भी बाद में आए।  1881 के उत्तरार्ध और 1882 के पूर्वार्ध के बीच के कालखण्ड में नरेन्द्र, राखाल, भवनाथ, बाबूराम, निरंजन, M (मास्टर), योगिन आए। 1883 -84 ई ० के बीच किशोरी, अधर, निताई, छोटागोपाल, बेलघाड़िया के तारक, शरत, शशि चले आये ; 1884 के मध्य में सान्याल, गंगाधर, काली, गिरीश, देवेंद्र, सारदा, कालीपद, उपेन्द्र, द्विज और हरि आदि ने ठाकुर की शरण ली; 1885 में सुबोध, छोटा नरेन्द्र, पल्टू, पूर्ण, नारायण, तेजचंद्र और हरिपद आए।
इसी प्रकार हरमोहन, यज्ञेश्वर, हाजरा, क्षीरोद, कृष्णनगर के योगिन, मनिन्द्र , भूपति, अक्षय, नवगोपाल, बेलघड़िया के गोविंद, आशु, गिरीन्द्र, अतुल, दुर्गाचरण, सुरेश, प्राणकृष्ण, नबाई चैतन्य, हरिप्रसन्न, महेन्द्र  (मुखो०) प्रियनाथ (मुखर्जी), बिनोद , तुलसी, हरीश मुस्तफी, बसाक, कथकठाकुर, बाली का शशि (ब्रह्मचारी), नित्यगोपाल (गोस्वामी), कोन्नगर के बिपिन, बिहारी, धीरेन, राखाल (हालदार)  आदि भी क्रमानुसार श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भाव -आंदोलन में सम्मिलित हुए
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, शशधर पण्डित, डॉ. राजेन्द्र, डॉ. सरकार, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, अमेरिका के कुकसाहेब, भक्त विलियम्स, मिसिर साहेब, माइकल मधुसूदन दत्त , कृष्णदास (पाल), पण्डित दीनबन्धु , पंडित श्यामपद , रामनारायण डॉक्टर , दुर्गाचरण डॉक्टर , राधिका गोस्वामी , शिशिर (घोष) , नवीन (मुंसी), नीलकंठ -इनलोगों ने भी ठाकुरदेव का दर्शन किया था। ठाकुर के साथ त्रैलंग स्वामी का साक्षात्कार काशीधाम में और गंगामाता से वृन्दावन में हुआ था। गंगामाता तो ठाकुरदेव को श्रीमतीराधा समझकर वृन्दावन से विदा करना ही नहीं चाहती थीं।   
अन्तरंग भक्तों के आने के पहले कृष्णकिशोर , मथुर , शम्भु मल्लिक , नारायण शास्त्री , इन्देश के गौरी पण्डित , चन्द्र , अचलानन्द हमेशा ठाकुर का दर्शन करने के लिए आते रहते थे। बर्दवान के राजा के सभापण्डित पद्मलोचन, आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने भी ठाकुर देव का दर्शन किया था। ठाकुर की जन्मभूमि कामारपुकूर एवं सिउड़ श्यामबाजार आदि स्थानों के कई भक्तो ने उनको देखा था। 
 'ब्रह्म समाज' के कई नेतागण ठाकुरदेव के पास हमेशा आते रहते थे। केशव, विजय, काली (बासु), प्रताप, शिवनाथ, अमृत त्रिलोक्य, कृष्णबिहारी, मणिलाल, उमेश, हीरानन्द , भवानी, नन्दलाल और अन्य कई  ब्राह्म भक्त हमेशा ठाकुरदेव की  तथा अन्य ब्राह्म नेताओं को देखने के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में जाते रहते थे। मथुर के जीवित रहते समय ठाकुर उनके साथ देवेन्द्रनाथ ठाकुर को उनके घर पर देखने गए थे , और ब्रह्मसमाज में वार्षिक उपासना-उत्सव में मिलते रहते थे।  बाद में ठाकुर केशव के ब्राह्ममन्दिर में और सधारणसमाज में आयोजित होने वाले उपासना कार्यक्रमों में भी निमंत्रित होकर जाया करते थे। केशव के घर पर तो अक्सर जाते रहते थे , और ब्राह्म भक्तों के साथ आनन्द मनाते थे। केशव भी उनसे मिलने के लिए कभी अकेले , तो कभी अन्य भक्तों के साथ दक्षिणेश्वर आते रहते थे।  
कालना में भगवानदास बाबाजी के साथ ठाकुर की जब मुलाकात हुईथी , उस समय  ठाकुर की भाव-समाधि अवस्था को देखकर उन्होंने कहा था - 'आप महापुरुष हैं , चैतन्यमहाप्रभु के बाद उनके आसन पर विराजमान होने के उपयुक्त आप ही हैं ! '  सम्पूर्ण विश्व में 'अन्तर -धार्मिक सद्भाव ' स्थापित करने के उद्देश्य से , ठाकुरदेव ने जब  वैष्णव, शाक्त , शैव और वेदान्तवादी सभी मतों से जब एक ही माँ काली का दर्शन कर लिया तब  दूसरी ओर उन्होंने 'अल्ला के नाम का मंत्रजप ' और ईसामसीह के ध्यान द्वारा सर्वधर्म-समन्वय को भी अपने जीवन में प्रदर्शित कर दिखला दिया था। 
दक्षिणेश्वर मन्दिर प्रांगण के जिस कमरे में श्रीरामकृष्ण रहा करते थे , सनातनधर्म के समस्त देवताओं के चित्र तथा बुद्धदेव की मूर्ति भी थी। इसके साथ ही, उनके कमरे में 'जलमग्न पतरस का उद्धार करते हुए प्रभु ईसामसीह' एक चित्र भी था। [ যীশু জলমগ্ন পিতরকে উদ্ধার করিতেছেন, এ-ছবিও ছিল।] श्रीरामकृष्ण के कमरे में जानेपर उस चित्र को आज भी वह चित्र देखा जा सकता है। आज भी उस कमरे में अंग्रेज और अमेरिकी भक्त लोगों ऑंखें मूँदकर ठाकुर का ध्यान -चिंतन करते हुए देखा जाता है।  
श्रीरामकृष्ण ने माँ काली से व्याकुल होकर कहा , " माँ, तुम्हारे ईसाई भक्त तुमको किस प्रकार पुकारते हैं , मुझे वह दिखला दो। " कुछ दिनों बाद वे कलकत्ता जाकर एक चर्च दरवाजे पर खड़े हो गए थे और उनकी उपसना को देखा था। वहां से वापस आकर ठाकुर ने अपने भक्तों से कहा था -" मैं चर्च के खजांची के डर से भीतर जाकर बेंच पर नहीं बैठा , मैंने सोचा क्या पता, यदि वे मुझे कालीघर में जाने की अनुमति नहीं दें !
ठाकुर की कई महिला भक्त हैं।  'गोपाल की माँ'  को ठाकुर ने  माँ कहकर सम्बोधित किया था , और  'गोपाल की माँ' कहकर पुकारते थे। श्रीरामकृष्ण समस्त नारीजाति को ही साक्षात् भगवती के रूप में देखते थे, और माता समझकर उनकी पूजा करते थे। वे अपने भक्तों से कहा करते कि 'जब तक जगत की समस्त स्त्रियाँ अपनी माँ की तरह महसूस नहीं होतीं , जब तक ईश्वर के प्रति शुद्धाभक्ति नहीं हो जाती, तब तक पुरुषों को  महिलाओं के प्रति सावधान रहना चाहिए।' यहाँ तक कि कोई स्त्री यदि परम् भक्तिमति भी क्यों न हो , उसके सम्पर्क में जाने से मना करते थे। उन्होंने माँ काली से से स्वयं कह रखा था , " माँ , मेरे अंदर यदि काम आ गया , तो मैं अपने गले में छुरा घोंप दूंगा। "
ठाकुर के शरीर में रहते समय असंख्य भक्तों में कुछ प्रगट रूप से उनकी भक्ति करते हैं , तो कुछ लोग मन ही मन उनकी भक्ति करते हैं , इसलिए सभी के नामों का उल्लेख करना सम्भव नहीं है। 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' ग्रन्थ में उनके अनेक भक्तों के नाम प्राप्त होंगे। उनके बाल्य काल के कई मित्रों - रामकृष्ण, पतु , तुलसी, शांति, शशि, बिपिन, हीरालाल, नागेंद्र मित्र, उपेंद्र, सुरेंद्र, सुरेन आदि ने उन्हें देखा था ; और छोटी छोटी कई लड़कियों ने भी ठाकुर को देखा था। लेकिन इस समय वे सभी ठाकुर के सेवक हैं।  
ठाकुरदेव की नरलीला समाप्त होने के बाद न जाने उनके कितने भक्त हुए हैं , और बनते जा रहे हैं। श्रीरामकृष्णदेव का कितना भक्त-परिवार मद्रास, लंका द्वीप, उत्तर-पश्चिम प्रान्त , राजपुताना, कुमाऊं, नेपाल, बॉम्बे, पंजाब, से लेकर जापान,  अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस, रूस आदि देशों में फैले हुए हैं ,  और उनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। 
-----श्री 'म ' *
(जन्माष्टमी, बंगाब्द  १३१०)
[ श्रीरामकृष्ण वचनामृत ग्रन्थ में श्री 'म ' कहीं मणि , कहीं मोहिनी मोहन और कहीं मास्टर (अर्थात् स्कूल शिक्षक) आदि के कल्पित नामों के रूप में उल्लिखित हुए हैं ! ] 
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