Sri Ramakrishna (1836-1886), great mystic saint of India, is regarded by millions the world over as a divine incarnation. His early life was devoted to the practice and testing of a variety of spiritual disciplines, including those of Hinduism, Christianity, and Islam. After realizing God in each of those religions, he declared that all faith paths, if followed with earnestness, lead to the same God-realization. Ramakrishna’s life therefore embodies all spiritual ideals and represents the harmony of the world’s great religious traditions. Five of his disciples spread the message of Vedanta in the United States and Europe.
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*अवतारवरिष्ठ भगवान् श्रीरामकृष्णदेव की संक्षिप्त जीवनी*
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥
-प्रभो, तुम्हारी लीलाकथा अमृतस्वरूप है । तापतप्त जीवों के लिए तो वह जीवनस्वरूप है । ज्ञानी महात्माओं ने उसका गुणगान किया है । वह पापपुंज को हरनेवाली है । उसके श्रवणमात्र से परम कल्याण होता है । वह परम मधुर तथा सुविस्तृत है । जो तुम्हारी इस प्रकार की लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में इस भूतल में वे ही सर्वश्रेष्ठ दाता हैं । (श्रीमद्भागवत, १०\३१\९)
हम यह देखते हैं कि श्रीरामचन्द्र तथा भगवान् बुद्ध को छोड़कर बहुधा अन्य सभी अवतारी महापुरुषों का जन्म संकटग्रस्त परिस्थितियों में ही हुआ है, और यह कहा जा सकता है कि भगवान् श्रीरामकृष्ण भी किसी विशेष प्रकार के सुखद वातावरण में इस संसार में अवतरित नहीं हुए ।
श्रीरामकृष्ण का जन्म 'फाल्गुन- शुक्ल- द्वितीया', दिन 'बुधवार', तदनुसार १७ फरवरी १८३६ ई. को हुगली प्रान्त के कामारपुकुर गाँव में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कामारपुकुर गाँव बर्दवान से लगभग चौबीस-पच्चीस मील दक्षिण तथा जहानाबाद (आरामबाग) से लगभग आठ मील पश्चिम में है ।
श्रीरामकृष्ण के पिता श्री क्षुदिराम चट्टोपाध्याय परम सन्तोषी, सत्यनिष्ठ एवं त्यागी पुरुष थे, और उनकी माता श्री चन्द्रमणि देवी सरलता तथा दयालुता की मूर्ति थी । यह आदर्श दम्पती पहले देरे नामक गाँव में रहते थे, परन्तु वहाँ के अन्यायी जमींदार की कुछ जबरदस्तियों के कारण इन्हें वह गाँव छोड़कर करीब तीन मील की दूरी पर इसी कामारपुकुर गाँव में आ बसना पड़ा ।
बचपन में श्रीरामकृष्ण का नाम गदाधर था । अन्य बालकों की भाँति वे भी पाठशाला भेजे गये, परन्तु एक ईश्वरी अवतार एवं संसार के पथ-प्रदर्शक को उस ‘अ, आ, इ, ई’ की पाठशाला में चैन कहाँ? बस, जी उचटने लगा, और मन लगा घर में स्थापित आनन्दकन्द सच्चिदानन्द भगवान् श्रीरामजी की मूर्ति में-स्वयं वे फूल तोड़ लाते और इच्छानुसार मनमानी उनकी पूजा करते । कहते हैं कि अवतारी पुरुषों में कितने ही गुण छिपे रहते हैं कि उनका अनुमान करना कठिन होता है । श्री गदाधर की स्मरणशक्ति विशेष तीव्र थी । साथ ही उन्हें गाने की भी रुचि थी और विशेषतः भक्तिपूर्ण गानों के प्रति।
साधु-संन्यासियों के जत्थों के दर्शन तो मानो इनकी जीवनी में संजीवनी का कार्य करते थे । अपने घर के पास लाहा की अतिथिशाला में जहाँ बहुधा संन्यासी उतरा करते थे, इनका काफी समय जाता था । मुहल्ले के बालक, वृद्ध, सभी ने न जाने इनमें कौनसा दैवी गुण परखा था कि वे सब इनसे बड़े प्रसन्न रहते थे । रामायण, महाभारत, गीता आदि के श्लोक ये केवल बड़ी भक्ति से सुनते ही नहीं थे, वरन् उनमें से बहुत से उन्हें सहजरूप कंठस्थ भी हो जाया करते थे ।
यह दैवी बालक अपनी करतूतें शुरु से ही दिखाते रहा और कह नहीं सकते कि उसके बचपन से ही कितनों ने उसे ताड़ा होगा । छिपे हुए दैवी गुणों का विकास पहले-पहल उस बार हुआ जब यह बालक अपने गाँव के समीपवर्ती आनुड़ गाँव को जा रहा था । एकाएक इस बालक को एक विचित्र प्रकार की ज्योति का दर्शन हुआ और वह बाह्यज्ञानशून्य हो गया । कहना न होगा कि मायाग्रस्त सांसारिकों ने जाना कि गर्मी के कारण मूर्च्छा थी, परन्तु वास्तव में वह थी भावसमाधि ।
अपने पिता की मृत्यु के बाद श्रीरामकृष्ण अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ, जो एक बड़े विद्वान् पुरुष थे, कलकत्ता आये । उस समय वे लगभग १७-१८ वर्ष के थे । कलकत्ते में उन्होंने एक दो स्थानों पर पूजन का कार्य किया । इसी अवसर पर रानी रासमणि ने कलकत्ते से लगभग पाँच मील पर दक्षिणेश्वर में एक मन्दिर बनवाया और श्रीकालीदेवी की स्थापना की ।
ता. ३१ मई १८५५ को इसी मन्दिर में श्रीरामकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता श्री राजकुमारजी कालीमन्दिर के पुजारीपद पर नियुक्त हुए, परन्तु यह कार्यभार शीघ्र ही श्रीरामकृष्ण पर आ पड़ा । श्रीरामकृष्ण उक्त मन्दिर में पूजा करते थे परन्तु अन्य साधारण पुजारियों की भाँति वे कोरी पूजा नहीं करते थे, परन्तु पूजा करते समय ऐसे मग्न हो जाते थे कि उस प्रकार की अलौकिक मग्नता ‘देखा सुना कबहुँ नहीं कोई’-और यह अक्षरशः सत्य भी क्यों न हो? ईश्वर ही ईश्वर की पूजा कर रहे थे ! उस भाव का वर्णन कौन कर सकता है जिससे रामकृष्ण प्रेरित हो, ध्यानावस्थित हो श्रीकालीदेवी पर फूल चढ़ाते थे !
आँखों में अश्रुधारा बह रही है, तन-मन की सुध नहीं, हाथ काँप रहे हैं, हृदय उल्लास से भरा है, मुख से शब्द नहीं निकलते हैं, पैर भूमि पर स्थिर नहीं रहते है और घण्टी, आरती आदि तो सब किनारे ही पड़ी रही- श्रीकालीजी पर पुष्प चढ़ा रहे हैं और थोड़ी ही देर में उन्हें ही उन्हें देखते हैं-स्वयं में भी उन्हीं को देख रहे हैं और कम्पित कर से अपने ही ऊपर फूल चढ़ाने लगते हैं, कहते हैं-माँ-माँ-तुम-मैं-मैं-तुम और ध्यानमग्न हो समाधिस्थ हो जाते हैं । देखनेवाले समझते हैं कुछ का कुछ, परन्तु ईश्वर मुस्कराते हैं, बड़े ध्यान से देखते हैं और विचारते होंगे कि यह रामकृष्ण हूँ तो मैं ही !
उनके हृदय की व्याकुलता की पराकाष्ठा उस दिन हो गयी जब व्यथित होकर माँ के दर्शन के लिए एक दिन मन्दिर में लटकती हुई तलवार उन्होंने उठा ली और ज्यों ही उससे वे अपना शरीरान्त करना चाहते थे कि उन्हें जगन्माता का अपूर्व अद्भुत दर्शन हुआ और देहभाव भूलकर वे बेसुध हो जमीन पर गिर पड़े । तदुपरान्त बाहर क्या हुआ और वह दिन तथा उसके बाद का दिन कैसे व्यतीत हुआ, यह उन्हें कुछ भी नहीं मालूम पड़ा । अन्तःकरण में केवल एक प्रकार के अननुभूत आनन्द का प्रवाह बहने लगा ।
बेचारा मायाग्रस्त पुरुष यह सब कैसे समझ सकता है? उसके लिए तो दिव्य चक्षु की आवश्यकता होती है । बस रामकृष्ण के घर के लोग समझ गये कि इनके मस्तिष्क में कुछ फेरफार हो गया है और विचार करने लगे उसके उपचार का । किसी ने सलाह दी कि इनका विवाह कर दिया जाय तो शायद मानसिक विकार(?) दूर हो जाय । विवाह का प्रबन्ध होने लगा और कामारपुकुर से दो कोस पर जयरामवाटी ग्राम में रहनेवाले श्री रामचन्द्र मुखोपाध्याय की कन्या श्रीसारदामणि से इनका विवाह करा दिया गया ।
परन्तु इस बालिका के दक्षिणेश्वर में आने पर भी श्रीरामकृष्ण के जीवन में कोई अन्तर नहीं हुआ और श्रीरामकृष्ण ने उस बालिका में प्रत्यक्ष देखा उन्हीं कालीदेवी को । एक सांसारिक बन्धन सम्मुख आया और वह था पति का कर्तव्य । बालिका को बुलाकर शान्ति से पूछा, “क्या तुम मुझे सांसारिक जीवन की ओर खींचना चाहती हो?” परन्तु उस बालिका ने तुरन्त उत्तर दिया, “मेरी यह बिलकुल इच्छा नहीं कि आप सांसारिक जीवन व्यतीत करें, पर हाँ, आपसे मेरी यह प्रार्थना अवश्य है कि आप मुझे अपने ही पास रहने दें, अपनी सेवा करने दें तथा योग्य मार्ग बतलावें ।”
कहा जा सकता है कि बालिका ने एक आदर्श अर्धागिनी का धर्म पूर्ण से निबाहा अपने सर्वस्व पति को ईश्वर मानकर उनके सुख में अपना सुख देखा और उनके आदर्श जीवन की साथिन बनकर उनकी सहायता करने लगी । श्रीरामकृष्ण को तो श्रीसारदादेवी और श्रीकालीदेवी एक ही प्रतीत होने लगीं और इस भाव की चरम सीमा उस दिन हुई जब उन्होंने श्रीसारदादेवी का साक्षात् श्रीजगदम्बाज्ञान से षोड्शोपचार पूजन किया ।
पूजाविधि पूर्ण होते ही श्रीसारदादेवी को समाधि लग गयी । अर्ध-बाह्यदशा में मन्त्रोच्चार करते-करते श्रीरामकृष्ण भी समाधिमग्न हो गये । देवी और उसके पुजारी दोनों ही एकरूप हो गये। कैसा उच्च भाव है- अनेकता में एकता झलकने लगी !
हीरे का परखनेवाला जौहरी निकल ही आता है । रानी रासमणि के जामाता श्री मथुरबाबू ने यह भाव कुछ ताड़ लिया और श्रीरामकृष्ण को परखकर शीघ्र ही उन्होंने उनकी सेवाशुश्रूषा का उचित प्रबन्ध कर दिया । इतना ही नहीं, बल्कि पुजारीपद पर एक दूसरे ब्राह्मण को नियुक्त कर उन्हें अपने भाव में मग्न रहने का पूरा-पूरा अवकाश दे दिया । साथ ही श्रीरामकृष्ण के भानजे श्री हृदयराम को उनकी सेवा आदि का कार्य सौंप दिया ।
फिर श्रीरामकृष्ण ने विशेष पूजा नहीं की । दिनरात ‘माँ काली’ ‘माँ काली’ ही पुकारा करते थे; कभी जड़वत् हो मूर्ति की ओर देखते, कभी हँसते, कभी बालकों की तरह फूट-फूटकर रोते और कभी कभी तो इतने व्याकुल हो जाते कि भूमि पर लोटते-पोटते अपना मुँह तक रगड़ डालते थे ।
इसके बाद श्रीरामकृष्ण ने भिन्न भिन्न साधनाएँ कीं और कई प्रकार के दर्शन प्राप्त कर लिये । कालीमन्दिर में एक बड़े वेदान्ती श्री तोतापुरीजी पधारे थे । वे वहाँ लगभग ग्यारह महीने रहे और उन्होंने श्रीरामकृष्ण से वेदान्त-साधना करायी । श्री तोतापुरीजी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करने के लिये उन्हें चालीस वर्ष तक सतत प्रयत्न करना पड़ा था, उसे श्रीरामकृष्ण ने तीन ही दिन में सिद्ध कर डाला । इसके कुछ समय पूर्व ही वहाँ एक भैरवी ब्राह्मणी पधारी थीं । उन्होंने भी श्रीरामकृष्ण से अनेक प्रकार की तन्त्रोक्त साधनाएँ करायी थीं ।
श्री वैष्णवचरण जो एक वैष्णव पण्डित थे, श्रीरामकृष्ण के पास बहुधा आया करते थे । वैष्णवचरण ने मथुरबाबू से कहा था यह उन्माद साधारण नहीं वरन् दैवी है । एक बार श्रीरामकृष्ण कलुटोला की हरिसभा में गये थे । वहाँ वे समाधिस्थ हो गये और चैतन्यदेव के आसन पर जा विराजे । श्रीचैतन्य की भाँति श्रीरामकृष्ण की कभी ‘अन्तर्दशा’, कभी ‘अर्धबाह्य’ और कभी ‘बाह्य दशा’ हो जाया करती थी । वे कहते थे कि अखण्ड सच्चिदानन्द परब्रह्म और माँ सब एक ही हैं ।
उन्होंने कामिनी-कांचन का पूर्ण रूप से त्याग किया था । अपने भक्तगणों को, जो सैकड़ों की संख्या में उनके पास आते थे, वे कहा करते थे कि ये दोनों चीजें ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में विशेष रूप से बाधक हैं । बुरे आचरणवाली नारी में भी वे जगन्माता का साक्षात् स्वरूप देखते थे और उसी भाव से आदर करते थे ।
उनका कांचनत्याग इतना पूर्ण था कि यदि वे पैसे या रुपये को छू लेते तो उनकी उँगलिया ही टेढ़ीमेढ़ी होने लगती थीं । कभी कभी वे गिन्नियों और मिट्टी को एक साथ अंजुली में लेकर गंगाजी के किनारे बैठ जाते थे और ‘मिट्टी पैसा, पैसा मिट्टी’ कहते हुए दोनों चीजों को मलते मलते श्रीगंगाजी की धार में बहा देते थे ।
माता चन्द्रमणि को श्रीरामकृष्ण जगज्जननी का स्वरूप मानते थे । अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री रामकुमार के स्वर्गलाभ के बाद श्रीरामकृष्ण उन्हें अपने ही पास रखते था और उनकी पूजा करते थे ।
मथुरबाबू तथा उनकी पत्नी जगदम्बा दासी के साथ वे एक बार वाराणसी, प्रयाग तथा वृन्दावन भी गये थे । उस समय हृदयराम भी साथ में थे । वाराणसी में उन्होंने मणिकर्णिका में समाधिस्थ होकर भगवान् शंकर के दर्शन किये और मौनव्रतधारी त्रैलंग स्वामी से भेंट की । मथुरा में तो उन्होंने साक्षात् भगवान् आनन्दकंद, सच्चिदानन्द, अन्तर्यामी श्रीकृष्ण के दर्शन किये । उच्च भावदशा रही होगी ।
‘सेस, महेस, गनेस, दिनेस,
सुरेशहुँ जाहि निरन्तर गावें,
जाहि, अनादि, अनन्त, अखण्ड,
अछेद्, अभेद सुवेद बतावें ।’
(-श्रीरसखानि)
उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण को उन्होंने यमुना पार करते हुए गौओं को गोधूली समय वापस लाते देखा और ध्रुवघाट पर से वसुदेव की गोद में भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन किये । श्रीरामकृष्ण तो कभी कभी समाधिस्थ हो कहते थे, ‘जो राम थे और जी कृष्ण थे वही अब रामकृष्ण होकर आये हैं।’
सन 1879-80 * में श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग भक्त उनके पास आने लगे थे । उस समय उनकी उन्माद-अवस्था प्रायः चली-सी गयी थी और अब शान्त, सदानंद और समाधि की अवस्था थी । बहुधा वे समाधिस्थ रहते थे और समाधि भंग होने पर भावराज्य में विचरण किया करते थे । "
शिष्यों में उनके मुख्य शिष्य नरेंद्र (बाद में स्वामी विवेकानन्द) थे । जब से श्री नरेन्द्र उनके पास आने लगे थे तभी से उन्हें नरेन्द्र के प्रति एक विशेष प्रेम हो गया था और वे कहते थे कि नरेन्द्र साधारण जीव नहीं है । कभी कभी तो नरेन्द्र के न आने से उन्हें व्याकुलता होती थी; क्योंकि वे यह अवश्य जानते रहे होंगे कि उनका कार्य भविष्य में मुख्यतः नरेन्द्र द्वारा ही संचालित होगा ।
अन्य भक्तगण राखाल, भवनाथ, बलराम मास्टर महाशय आदि थे । ये भक्तगण 1882 के लगभग आये और इसके उपरान्त दो-तीन वर्ष तक अनेक अन्य भक्त भी आये । इन सब भक्तों ने श्रीरामकृष्ण तथा उनके कार्य के लिये अपना जीवन अर्पित किये थे ।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर, डाँ. महेन्द्रलाल सरकार, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, अमेरिका के कुक साहब, पं. पद्मलोचन तथा आर्यसमाज के प्रवर्तक श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी उनके दर्शन किये थे । ब्राह्मसमाज के अनेक लोग उनके पास आया जाया करते थे । श्रीरामकृष्ण केशवचन्द्र सेन के ब्राह्ममंदिर में भी गये थे ।
श्रीरामकृष्ण ने अन्य धर्मों की भी साधनाएँ कीं । उन्होंने कुछ दिनों तक इस्लाम धर्म का पालन किया और ‘अल्लाह’ मन्त्र का जप करते करते उन्होंने उस धर्म का अन्तिम ध्येय प्राप्त कर लिया । इसी प्रकार उसके उपरान्त उन्होंने ईसाई धर्म की साधना की और ईसामसीह के दर्शन किये ।
जिन दिनों वे जिस धर्म की साधना में लगे रहते थे, उन दिनों उसी धर्म के अनुसार रहते, खाते, पीते, बैठते-उठते तथा बात-चीत करते थे । इन सब साधनाओं से उन्होंने यह दिखा दिया कि सब धर्म अन्त में एक ही ध्येय में पहुँचते हैं । और उनमें आपस में विरोध-भाव रखना मूर्खता है। ऐसा महान् कार्य करनेवाले ईश्वरी अवतार श्रीरामकृष्ण ही थे ।
इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति के लिये कामिनी-कांचन का सर्वथा त्याग तथा *भिन्न भिन्न धर्मों में एकता की दृष्टि* रखना इन्होंने अपने सभी भक्तों को सिखाया और उनसे उनका अभ्यास कराया । इनके कतिपय शिष्य आगे चलकर भारतवर्ष के अतिरिक्त अमेरिका आदि अन्य देशों में भी गये और वहाँ उन्होंने श्रीरामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार किया ।
१५ अगस्त सन् १८८६ की रात को गले के रोग से पीड़ित हो श्रीरामकृष्ण ने महासमाधि ले ली; परन्तु महासमाधि में गया केवल उनका पांचभौतिक शरीर । उनके उपदेश आज संसार भर में श्रीरामकृष्ण मिशन के द्वारा कोने कोने में गूँज रहे हैं और उनसे असंख्य जनों का कल्याण हो रहा है ।
-विद्याभास्कर शुक्ल
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{1879-80 * ई० के उत्तरार्ध में राम और मनोमोहन एक साथ आकर ठाकुर देव से मिलित हुए , उनके मिलने के बाद केदार और सुरेन्द्र आये। चुन्नी, लाटू, नित्यगोपाल और तारक भी बाद में आए। 1881 के उत्तरार्ध और 1882 के पूर्वार्ध के बीच के कालखण्ड में नरेन्द्र, राखाल, भवनाथ, बाबूराम, निरंजन, M (मास्टर), योगिन आए। 1883 -84 ई ० के बीच किशोरी, अधर, निताई, छोटागोपाल, बेलघाड़िया के तारक, शरत, शशि चले आये ; 1884 के मध्य में सान्याल, गंगाधर, काली, गिरीश, देवेंद्र, सारदा, कालीपद, उपेन्द्र, द्विज और हरि आदि ने ठाकुर की शरण ली; 1885 में सुबोध, छोटा नरेन्द्र, पल्टू, पूर्ण, नारायण, तेजचंद्र और हरिपद आए।
इसी प्रकार हरमोहन, यज्ञेश्वर, हाजरा, क्षीरोद, कृष्णनगर के योगिन, मनिन्द्र , भूपति, अक्षय, नवगोपाल, बेलघड़िया के गोविंद, आशु, गिरीन्द्र, अतुल, दुर्गाचरण, सुरेश, प्राणकृष्ण, नबाई चैतन्य, हरिप्रसन्न, महेन्द्र (मुखो०) प्रियनाथ (मुखर्जी), बिनोद , तुलसी, हरीश मुस्तफी, बसाक, कथकठाकुर, बाली का शशि (ब्रह्मचारी), नित्यगोपाल (गोस्वामी), कोन्नगर के बिपिन, बिहारी, धीरेन, राखाल (हालदार) आदि भी क्रमानुसार श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भाव -आंदोलन में सम्मिलित हुए।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, शशधर पण्डित, डॉ. राजेन्द्र, डॉ. सरकार, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, अमेरिका के कुकसाहेब, भक्त विलियम्स, मिसिर साहेब, माइकल मधुसूदन दत्त , कृष्णदास (पाल), पण्डित दीनबन्धु , पंडित श्यामपद , रामनारायण डॉक्टर , दुर्गाचरण डॉक्टर , राधिका गोस्वामी , शिशिर (घोष) , नवीन (मुंसी), नीलकंठ -इनलोगों ने भी ठाकुरदेव का दर्शन किया था। ठाकुर के साथ त्रैलंग स्वामी का साक्षात्कार काशीधाम में और गंगामाता से वृन्दावन में हुआ था। गंगामाता तो ठाकुरदेव को श्रीमतीराधा समझकर वृन्दावन से विदा करना ही नहीं चाहती थीं।
अन्तरंग भक्तों के आने के पहले कृष्णकिशोर , मथुर , शम्भु मल्लिक , नारायण शास्त्री , इन्देश के गौरी पण्डित , चन्द्र , अचलानन्द हमेशा ठाकुर का दर्शन करने के लिए आते रहते थे। बर्दवान के राजा के सभापण्डित पद्मलोचन, आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने भी ठाकुर देव का दर्शन किया था। ठाकुर की जन्मभूमि कामारपुकूर एवं सिउड़ श्यामबाजार आदि स्थानों के कई भक्तो ने उनको देखा था।
'ब्रह्म समाज' के कई नेतागण ठाकुरदेव के पास हमेशा आते रहते थे। केशव, विजय, काली (बासु), प्रताप, शिवनाथ, अमृत त्रिलोक्य, कृष्णबिहारी, मणिलाल, उमेश, हीरानन्द , भवानी, नन्दलाल और अन्य कई ब्राह्म भक्त हमेशा ठाकुरदेव की तथा अन्य ब्राह्म नेताओं को देखने के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में जाते रहते थे। मथुर के जीवित रहते समय ठाकुर उनके साथ देवेन्द्रनाथ ठाकुर को उनके घर पर देखने गए थे , और ब्रह्मसमाज में वार्षिक उपासना-उत्सव में मिलते रहते थे। बाद में ठाकुर केशव के ब्राह्ममन्दिर में और सधारणसमाज में आयोजित होने वाले उपासना कार्यक्रमों में भी निमंत्रित होकर जाया करते थे। केशव के घर पर तो अक्सर जाते रहते थे , और ब्राह्म भक्तों के साथ आनन्द मनाते थे। केशव भी उनसे मिलने के लिए कभी अकेले , तो कभी अन्य भक्तों के साथ दक्षिणेश्वर आते रहते थे।
कालना में भगवानदास बाबाजी के साथ ठाकुर की जब मुलाकात हुईथी , उस समय ठाकुर की भाव-समाधि अवस्था को देखकर उन्होंने कहा था - 'आप महापुरुष हैं , चैतन्यमहाप्रभु के बाद उनके आसन पर विराजमान होने के उपयुक्त आप ही हैं ! ' सम्पूर्ण विश्व में 'अन्तर -धार्मिक सद्भाव ' स्थापित करने के उद्देश्य से , ठाकुरदेव ने जब वैष्णव, शाक्त , शैव और वेदान्तवादी सभी मतों से जब एक ही माँ काली का दर्शन कर लिया तब दूसरी ओर उन्होंने 'अल्ला के नाम का मंत्रजप ' और ईसामसीह के ध्यान द्वारा सर्वधर्म-समन्वय को भी अपने जीवन में प्रदर्शित कर दिखला दिया था।
दक्षिणेश्वर मन्दिर प्रांगण के जिस कमरे में श्रीरामकृष्ण रहा करते थे , सनातनधर्म के समस्त देवताओं के चित्र तथा बुद्धदेव की मूर्ति भी थी। इसके साथ ही, उनके कमरे में 'जलमग्न पतरस का उद्धार करते हुए प्रभु ईसामसीह' एक चित्र भी था। [ যীশু জলমগ্ন পিতরকে উদ্ধার করিতেছেন, এ-ছবিও ছিল।] श्रीरामकृष्ण के कमरे में जानेपर उस चित्र को आज भी वह चित्र देखा जा सकता है। आज भी उस कमरे में अंग्रेज और अमेरिकी भक्त लोगों ऑंखें मूँदकर ठाकुर का ध्यान -चिंतन करते हुए देखा जाता है।
श्रीरामकृष्ण ने माँ काली से व्याकुल होकर कहा , " माँ, तुम्हारे ईसाई भक्त तुमको किस प्रकार पुकारते हैं , मुझे वह दिखला दो। " कुछ दिनों बाद वे कलकत्ता जाकर एक चर्च दरवाजे पर खड़े हो गए थे और उनकी उपसना को देखा था। वहां से वापस आकर ठाकुर ने अपने भक्तों से कहा था -" मैं चर्च के खजांची के डर से भीतर जाकर बेंच पर नहीं बैठा , मैंने सोचा क्या पता, यदि वे मुझे कालीघर में जाने की अनुमति नहीं दें !
ठाकुर की कई महिला भक्त हैं। 'गोपाल की माँ' को ठाकुर ने माँ कहकर सम्बोधित किया था , और 'गोपाल की माँ' कहकर पुकारते थे। श्रीरामकृष्ण समस्त नारीजाति को ही साक्षात् भगवती के रूप में देखते थे, और माता समझकर उनकी पूजा करते थे। वे अपने भक्तों से कहा करते कि 'जब तक जगत की समस्त स्त्रियाँ अपनी माँ की तरह महसूस नहीं होतीं , जब तक ईश्वर के प्रति शुद्धाभक्ति नहीं हो जाती, तब तक पुरुषों को महिलाओं के प्रति सावधान रहना चाहिए।' यहाँ तक कि कोई स्त्री यदि परम् भक्तिमति भी क्यों न हो , उसके सम्पर्क में जाने से मना करते थे। उन्होंने माँ काली से से स्वयं कह रखा था , " माँ , मेरे अंदर यदि काम आ गया , तो मैं अपने गले में छुरा घोंप दूंगा। "
ठाकुर के शरीर में रहते समय असंख्य भक्तों में कुछ प्रगट रूप से उनकी भक्ति करते हैं , तो कुछ लोग मन ही मन उनकी भक्ति करते हैं , इसलिए सभी के नामों का उल्लेख करना सम्भव नहीं है। 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत ' ग्रन्थ में उनके अनेक भक्तों के नाम प्राप्त होंगे। उनके बाल्य काल के कई मित्रों - रामकृष्ण, पतु , तुलसी, शांति, शशि, बिपिन, हीरालाल, नागेंद्र मित्र, उपेंद्र, सुरेंद्र, सुरेन आदि ने उन्हें देखा था ; और छोटी छोटी कई लड़कियों ने भी ठाकुर को देखा था। लेकिन इस समय वे सभी ठाकुर के सेवक हैं।
ठाकुरदेव की नरलीला समाप्त होने के बाद न जाने उनके कितने भक्त हुए हैं , और बनते जा रहे हैं। श्रीरामकृष्णदेव का कितना भक्त-परिवार मद्रास, लंका द्वीप, उत्तर-पश्चिम प्रान्त , राजपुताना, कुमाऊं, नेपाल, बॉम्बे, पंजाब, से लेकर जापान, अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस, रूस आदि देशों में फैले हुए हैं , और उनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है।
-----श्री 'म ' *
(जन्माष्टमी, बंगाब्द १३१०)
[ श्रीरामकृष्ण वचनामृत ग्रन्थ में श्री 'म ' कहीं मणि , कहीं मोहिनी मोहन और कहीं मास्टर (अर्थात् स्कूल शिक्षक) आदि के कल्पित नामों के रूप में उल्लिखित हुए हैं ! ]
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