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सोमवार, 20 जून 2011

" महामण्डल-संगठन का ज्ञापन-पत्र एवं इससे सम्बद्ध इकाइयों के लिए नियम-अधिनियम "

Memorandum of Association and 
Regulations of the Affiliated Units of  
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 
(Registered under W.B. Act XXVI of 1961)
Registered Office:
BHUBAN-BHAVAN
P.O. Balaram Dharma Sopan
Khardah, 24-Pargnas.
    WEST BENGAL
CHAPTER-1
NAME, OBJECT, AND CHARACTER 
नाम, उद्देश्य, एवं स्वरुप 
१. इकाई का नाम : ----------------------------(स्थान) विवेकानन्द युवा महामण्डल .
२. कार्यालय : -----------------------------------(पता)
                   -----------------------------------(ग्राम, पोस्ट, अंचल )
                   -----------------------------------(थाना, अनुमंडल)
                   ------------------------------------(जिला, राज्य)
                   --------------------(पिन कोड )
३. क्षेत्र : जिस स्थान में केंद्र स्थित है, वही इस केंद्र का कार्य-क्षेत्र होगा, आवश्यकता पड़ने पर सीमा के बाहर भी कार्य कर सकता है.
४. सम्बद्धता : जिन इकाइयों को अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल से सम्बद्धता प्राप्त हो जाएगी वे इसके आगे ' महामण्डल ' के नाम से जाने जायेंगे, तथा पंजीकृत -कार्यालय भुवन-भवन, पोस्ट- बलराम धर्म सोपान, खरदह, उत्तर,२४-परगना, प० बंगाल, का अंग माने जायेंगे. अब वे केंद्र महामण्डल-ध्वज, प्रतीक-चिन्ह, एवं महामण्डल का ' संघ-गान ' का उपयोग कर सकते हैं.
५. उद्देश्य  :
(i) स्वामी विवेकानन्द के चरित्र-निर्माणकारी एवं मनुष्य-निर्माणकारी आदर्शों में समाहित स्थाई भारतीय-संस्कृति के मूल्यों का प्रचार-प्रसार विशेष रूप से युवाओं के बीच करना.
(ii) युवाओं की उर्जा को निःस्वार्थ-सेवा के माध्यम से अनुशासित एवं संयमित करके, राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में उसका  सदुपयोग करना तथा उनको अपना चरित्र-निर्माण करने के उद्देश्य से संगठित करना.
(iii) साप्ताहिक ' पाठ-चक्र ' (भ्रम-भंजक गोष्ठियों ) को आयोजित करना, शास्त्रार्थ, वाद-विवाद, सभा-सम्मलेन, वाचनालय-पुस्तकालय, शारीरिक व्यायाम, खेल-कूद, कोचिंग-क्लास, प्रार्थना-संगीत, 
विभिन्न प्रशिक्षणों के लिए शिशु-विभाग स्थापित करना, प्रौढ़-शिक्षा केंद्र, दातव्य-औषधालय तथा अन्य स्वास्थ्य योजनायें, सुरक्षा-सेवा दल,  पोषक-आहार दूध-फल आदि वितरण, 
शैक्षणिक कार्यकर्म विद्यालय एवं विद्यार्थी निवास, प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण एवं प्राथमिक-चिकित्सा केंद्र, संगीत-प्रशिक्षण, सेवा-केंद्र, रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त साहित्य विक्रय केंद्र.
(iv) सर्वसाधारण के लिए विशेष तौर पर युवाओं के लिए, ' कुटीर-उद्द्योग के उत्पादन का प्रशिक्षण ', ' संस्कृति का प्रोत्साहन ', ' संस्कृत-शिक्षण ' को प्रोत्सहित करने का केंद्र, 
(v) पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन, दीवाल -पत्रिका आदि लेखन .
(vi) स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों के अनुरूप जीवन-गठन करने के लिए, विविध प्रकार से युवाओं का मार्गदर्शन करना.
(vii)  सभी प्रकार की संकीर्ण-दलबन्दी एवं राजनीती से दूर रहते हुए, राष्ट्रीय-एकता को अक्षुण रखने के लिए कार्य करना.
CHAPTER -II
REGULATIONS (नियम-अधिनियम)
१. सदस्यता :
(क) सभी सदस्य निर्धारित प्रवेश-शुल्क अदा करने के बाद सदस्यता ग्रहण करेंगे, तथा वार्षिक या मासिक चन्दा भी देंगे.
(ख) केंद्र के अभियान में मदत करने के लिए कोई सदस्य यदि अतिरिक्त चन्दा या दान देना चाहें तो उसे कृतज्ञता पूर्वक स्वीकार किया जायेगा.
(ग) जिस किसी व्यक्ति में महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य के प्रति निष्ठा है, उनको कार्यकारिणी समिति से स्वीकृति लेने के बाद ' मानद-सदस्यता ' दी जा सकती है.वैसे सदस्य को कोई भी शुल्क या चन्दा देने से छूट प्राप्त होगी.
(घ) जो व्यक्ति संस्था के उद्देश्य को प्रोत्साहित करने के लिए, विशेष-धन अथवा जमीन दान में देंगे, उनको कार्यकारिणी समिति केंद्र का ' संरक्षक ' बना सकती है.
२. सदस्य बनने की योग्यता :            
जो भी व्यक्ति महामण्डल केंद्र का सदस्य बनना चाहता हो, उसे स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं एवं महामण्डल के प्रति, सच्ची-निष्ठा अवश्य रहनी चाहिए.
उसमे कोई पद-लोलुपता, नाम-यश पाने का अथवा कोई विशेष- अधिकार प्राप्त करने, या किसी अन्य प्रकार का लाभ उठाने की ललक नहीं रहनी चाहिए.
  उसे भारत की सांस्कृतिक-विरासत को सम्मान देना होगा तथा केंद्र के नियमों को स्वीकार करना होगा. उसे धर्म, जाती या संप्रदाय के नाम पर किसी भी प्रकार के भेद-भाव में संलिप्त नहीं रहना होगा,
महामण्डल का सदस्य किसी भी राजनितिक- दल के साथ संयुक्त नहीं होगा.
३. सदस्य बनने की अयोग्यता  :
जो भी व्यक्ति कंडिका २ में दिए शर्तों का अनुपालन नहीं करेगा, उसे महामण्डल का सदस्य अथवा पदाधिकारी बनने के अयोग्य समझा जायेगा. या कोई व्यक्ति यदि विगत ५ वर्षों में घोषित तौर पर दिवालिया, पागल, या सजा-याफ्ता मुजरिम होगा या किसी प्रकार के नैतिक-भ्रष्टता में संलिप्त रहा है, तो उसे भी सदस्य बनने के अयोग्य माना जायेगा.
४. सदस्यता प्रदान करने की प्रक्रिया :
जो व्यक्ति सदस्यता ग्रहण करना चाहेगा उसे एक सादे कागज पर या केंद्र के निर्धारित प्रपत्र में केंद्र के सचिव को अपना आवेदन देगा. यदि उसने केंद्र के आदर्श और उद्देश्य में तथा उसके कार्यक्रमों में रूचि दिखाई है, उस व्यक्ति में सदस्य बनने की योग्यता है, और वह व्यक्ति निश्चित रूप से किसी राजनितिक दल का सदस्य नहीं है, यदि कार्यकारिणी समिति इन विषयों में   संतुष्ट हो जाती हो, तब समिति उस व्यक्ति को महामण्डल की सदस्यता प्रदान कर देगी.
५. सदस्यों का उत्तरदायित्व :
सभी सदस्यों का यह पुनीत-कर्त्तव्य होगा कि वह, केंद्र को उसका उद्देश्य-पूर्ण करने में, इसके समस्त कार्यक्रमों को सफलता पूर्वक संचालित करने में, समस्त योजनाओं को क्रियान्वित करने में हर प्रकार (तन-मन-धन) से सहायता करेगा, तथा महामण्डल के उद्देश्य को आगे बढ़ाने में सदैव तत्पर रहे.
६. सदस्यों के अधिकार एवं विशेषाधिकार :
सभी सदस्यों को यह अधिकार होगा कि वह केंद्र के समस्त कार्यक्रमों में भाग ले, तथा केंद्र के कार्यकारिणी समिति का चुनाव करने में अपना मतदान का प्रयोग कर सके. किसी भी संरक्षक-सदस्य तथा मानद-सदस्य को  पदाधिकारियों के निर्वाचन में मतदान करने का अधिकार नहीं होगा, और न उन्हें किसी पद के लिए निर्वाचित किया जायेगा. 
७. सदस्यता को रद्द करने की प्रक्रिया :
यदि कोई सदस्य एक वर्ष से ज्यादा समय से सदस्यता -शुल्क का भुगतान नहीं कर रहा हो, बिना उचित कारण के लगातार तीन बैठकों में अनुपस्थित रहे, इकाई  अथवा महामण्डल के उद्देश्य को हानी पहुँचाने वाले गतिविधियों में संलिप्त रहता हो, या इन तीन कारणों में से कोई भी एक अयोग्यता हो, तो कार्यकारिणी-समिति उस व्यक्ति की सदस्यता को समाप्त कर सकती है.कार्यकारिणी समिति द्वारा लिए गए इस प्रकार के किसी निर्णय के विरुद्ध अपील केवल ' साधारण-सभा ' में की जा सकती है.
८. अविश्वास-प्रस्ताव :
कार्यकारिणी-समिति या किसी पदाधिकारी के विरुद्ध जब केंद्र के कम से कम एक तिहाई वैसे सदस्य जिन्हें मतदान करने का अधिकार प्राप्त है, कोई भी अविश्वास-प्रस्ताव लाना चाहें तो सचिव के लिए यह बाध्यता रहेगी कि वह अपने इकाई के विशेष-रूप से बुलाई गयी ' साधारण-सभा ' के समक्ष उस प्रस्ताव को विचारार्थ रखे, तथा साधारण सभा में उपस्थित दो-तिहाई सदस्य यदि इस प्रकार के किसी प्रस्ताव को अनुमोदित कर दें तो उसे पारित करे.
९. सदस्यता से त्यागपत्र :
(क) त्यागपत्र के आवेदनों पर निर्णय कार्यकारिणी की बैठक में ही लिया जा सकेगा.
(ख) यदि इकाई के किसी सदस्य के निष्कासन या त्यागपत्र के ऊपर कोई विवाद हो तो उस विषय में महामण्डल के निर्णय को अंतिम माना जायेगा. 
(ग) जब किसी इकाई की नयी-कार्यकारिणी का निर्वाचन सम्पन्न हो जाये,अथवा नियमानुसार जैसे ही कोई नयी  समिति गठित या पुनर्गठित हो जाए, तत्काल-प्रभाव से पूर्ववर्ती समिति को भंग मान लिया जायेगा, भले ही उस समिति के सदस्य या पदाधिकारी लिखित में त्यागपत्र दिए हों या नहीं. 
CHAPTER-III
MANAGEMENT (प्रबन्धक-तंत्र )
१. कार्यकारिणी समिति :
(क) वार्षिक आम सभा में सबसे पहले, अधिक से अधिक ११ सदस्यों को कार्यकारिणी समिति के लिए निर्वाचित किया जायेगा, तथा इस केंद्र के समस्त कार्यक्रमों को संचालित करने की सारी जिम्मेवारी, उन्हीं कार्यकारिणी समिति के सदस्यों के ऊपर होगी.कार्यकारिणी समिति के सदस्य निम्नलिखित पदाधिकारियों का चयन करेंगे.अध्यक्ष-१, उपाध्यक्ष - १ या २, सचिव-१,सहायक सचिव-१,कोषनायक-१ 
(ख) कार्यकारिणी समिति का गठन प्रत्येक वर्ष ' वार्षिक आम सभा ' में किया जायेगा. यदि सर्व सम्मति से समिति का गठन सम्भव न हो सके, केवल उसी परिस्थिति में सदस्य लोग अपने मताधिकार का प्रयोग करके कार्यकारिणी समिति को निर्वाचित करेंगे.
(ग) चुनाव होने के उपरान्त समिति के सदस्य एवं पदाधिकारियों की सूचि उसके अनुमोदन के लिए अध्यक्ष तथा सचिव के संयुक्त-हस्ताक्षर के साथ महामण्डल को भेज दी जाएगी. 
२. कार्यकारिणी समिति का कार्यकाल: 
(क) निर्वाचन तिथि से एक वर्ष तक समिति अपना कार्य-निर्वहन करेगी. विशेष परिस्थिति में महामण्डल की अनुमति से यह अगले छः महीने तक यह समिति क्रियाशील रह सकती है.
(ख) कार्यकारिणी समिति अपने कार्यकाल के दौरान किसी रिक्त पद पर दुसरे किसी सदस्य को मनोनीत कर सकती है, एवं उस परिवर्तन को अनुमोदन के लिए महामण्डल में भेजना होगा.
३. कार्यकारिणी समिति का कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व :
(i ) कार्यकारिणी समिति अपने इकाई के कार्यक्रमों को संचालित करेगी, तथा साधारण सभा के प्रति नैतिक रूप से उत्तरदायी रहेगी.
(ii) कोष संग्रह करेगी तथा आय-व्यय को नियन्त्रित करेगी. 
(iii) इसे अपने क्रियाकलापों को संचालित करने के लिए किसी कर्मचारी को नियुक्त करने या हटाने का अधिकार होगा, उस कर्चारी के कर्तव्य एवं वेतन तय करने का भी अधिकार होगा.
(iv) अपनी आवश्यकता के अनुसार उप-नियम और कायदा-कानून बना सकती है, एवं उसके अनुमोदन के लिए महामण्डल के पास भेज सकती है. ये नियम-उपनियम महामण्डल द्वारा अनुमोदित होने के बाद ही लागु होंगे.
(v) यह समिति प्रत्येक वर्ष के लिए आय-व्यय का लक्ष्य (बजट) निर्धारित करेगी.
(vi) यह समिति केंद्र के प्रत्येक विभागों का निरिक्षण करेगी.
 (vii ) आवश्यकता पड़ने पर विशेष योजना के लिए 'उप-समिति ' का गठन करगी.
(viii) इसको किसी सदस्य को फटकार लगाने या दण्ड देने का अधिकार होगा तथा किसी नए आवेदन कर्ता को सदस्यता प्रदान करने का भी अधिकार होगा.
(ix) सचिव के द्वारा विचारार्थ प्रस्तुत समस्त चालू-खाता या बचत-खाता की जाँच-पड़ताल कर सकती है.
(x) यह समिति सदस्यता-पंजी बनाएगी, जिस में सदस्य का नाम, पता, व्यवसाय, फोन नम्बर, सदस्यता स्वीकार की तिथि, सदस्यता समाप्ति की तिथि आदि का उल्लेख रहेगा. किसी भी सदस्य द्वारा मांगने पर सचिव उस पंजी को देखने की अनुमति देगा.
४. अध्यक्ष के अधिकार एवं उत्तरदायित्व :
(i) अध्यक्ष इकाई के समस्त शासकीय बैठकों की अध्यक्षता करेगा.
(ii) बैठक के दौरान अनुशासन बनाये रखेगा.
(iii) नियम-काएदा के अनुसार आवश्यक कागजों पर हस्ताक्षर करेगा.
(iv) अध्यक्ष को मतदान करने का अधिकार होगा, किन्तु अध्यक्ष वैसे किसी बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सकता जिसमे उसीके विरुद्ध कोई प्रस्ताव लाया गया हो. 
(v) किसी अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्या पर अध्यक्ष द्वारा लिया गया निर्णय अन्तिम माना जायेगा.
५. उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी :
(i) प्रत्येक मामले में उपाध्यक्ष अध्यक्ष की सहायता करेगा.
(ii) अध्यक्ष की अनुपस्थिति में बैठकों का संचालन करेगा.
६. सचिव की जिम्मेवारी :
(i) सचिव केंद्र के समस्त गतिविधियों का प्रबन्ध तथा देखभाल करेगा .
(ii) महामण्डल, सभी उप-समितियों,  तथा इकाई के सभी सदस्यों के साथ सम्पर्क बनाये रखेगा, तथा केंद्र की गतिविधियों के ऊपर नियमानुसार रिपोर्ट भेजता रहेगा.
(iii) केंद्र के कार्यालय का संचालन एवं निर्वहन करेगा तथा इकाई की समस्त चल-अचल संपत्तियों की देखरेख का जिम्मेवार होगा.
(iv) समस्त बैठकों को आयोजित करेगा, तथा इकाई के समस्त कार्यक्रमों एवं समारोहों आदि के लिए उत्तरदायी होगा.
(v) सचिव ही होने वाली बैठकों, सम्मेलनों आदि के विचार की विषय-वस्तु (एजेंडा) की कार्यसूची तैयार करेगा, तथा करवाई-पुस्तिका में केंद्र की गतिविधियों, आम राय से पारित प्रस्ताव आदि के लखित-विवरण(मिनट्स ) को रजिस्टर में यथार्ततः दर्ज करेगा. 
(vi) केंद्र के सभी विभागों के आय-व्यय के हिसाब को कोषनायक (ट्रेजरर) की सहायता से देखरेख करेगा. सचिव सभी तरह की प्राप्त राशी के लिए के लिए अपने हस्ताक्षर से यथायोग्य रसीद जारी करेगा.
(vii) अपने केंद्र के अध्यक्ष एवं कार्यकारिणी के निर्देशों तथा नियम-कानून का पालन करेगा.
(viii) सचिव को १०००/= तक की राशी को स्व-विवेक से खर्च करने का अधिकार होगा, इससे अधिक राशी का भुगतान करना हो तो उसे कार्यकारिणी समिति से पूर्वानुमति लेनी होगी.
(ix) वह १०००/= से अधिक राशी सामान्य नियमित खर्च के लिए नकदी के रूप में अपने पास नहीं रखेगा.
(x) सभी प्रकार के डाक-खातों या बैंक-खातों में संचित राशी को कार्यकारिणी समिति द्वारा मनोनीत किसी दूसरे सदस्य के साथ संयुक्त रूप में हस्ताक्षर करके ही निकालने का अधिकारी होगा.
(xi) जब और जहाँ न्यालय में जाने की आवश्यकता पड़ेगी तो सचिव ही अपनी इकाई का प्रतिनिधित्व करेगा.
(xii) महामण्डल के ध्वज, प्रतिक-चिन्ह, तथा इकाई के समस्त मुहर एवं रबड़ की मुहर आदि को अपने संरक्षण में रखेगा तथा आवश्यकतानुसार उनको प्रयोग में लायेगा.
(xiii) इकाई के वार्षिक साधारण बैठक में समस्त गतिविधियों के ऊपर सचिव का प्रतिवेदन एवं आय-व्यय का खाता को जाँच के लिए कार्यकारिणी के समक्ष प्रस्तुत करेगा.
(xiv) केंद्र के समस्त विभागों की गतिविधिओं के लिए कार्यकारिणी समिति के समक्ष जवाबदेह होगा, तथा किसी भी सदस्य के अनुशासनहीनता के विरुद्ध अनुकूल कार्यवाही का विशेषाधिकार सचिव का होगा.
(xv) विशेष परिस्थिति में सचिव किसी भी बाहरी व्यक्ति को किसी भी बैठक में उपस्थित रहने के लिए आमंत्रित कर सकता है.
(xvi) कुल सदस्यों के एकतिहाई संख्या से अनुरोध मिलने पर, सचिव को किसी भी प्रस्ताव पर विचार-विमर्श करने के लिए विशेष-बैठक बुलाना होगा.
(xvii) किसी भी सदस्य के द्वारा या किसी बाहरी व्यक्ति के द्वारा गबन या समरसता-भंग करने पर, केंद्र के हित को ध्यान में रख कर उसकी तरफ से न्यालय में मुकदमा कायम करने का अधिकार सचिव को होगा.
७. सहायक सचिव की जवाबदेही :
सहायक सचिव केंद्र के सचिव को सभी कार्यों में सहायता  करेगा, तथा सचिव की अनुपस्थिति में उसके निर्देशों के अनुसार सचिव के समस्त कर्तव्यों का अनुपालन करेगा.
८. कोषनायक की जवाबदेही :
(i) सचिव की तरफ से कोषनायक सभी प्रकार के चन्दों, दान, अनुदान, को स्वीकार करेगा बैंक में संचित राशी आदि का सही ढंग से हिसाब-किताब रखेगा.
(ii) सचिव के प्रतिनिधि के रूप में रोकड़-बही, लेखा-बही आदि समस्त खातों का हिसाब-किताब रखेगा तथा समेकित (कोन्सोलीडेटेड) वार्षिक आय-व्यय का व्यवरा एवं तुलन-पत्र (बैलेंसशीट) तैयार करके उसे किसी  लेखा-परीक्षक (ऑडिटर) के द्वारा हिसाब की जाँच करवा लेगा.
(iii) किसी भी समय में १०००/= से अधिक राशी नकदी के रूप में अपने पास नहीं रखेगा.
CHAPTER-IV
MEETINGS (बैठक-अधिवेशन)
१. सचिव समस्त बैठकों को आयोजित करेगा. सचिव की अनुपस्थिति में सहायक-सचिव इस प्रकार की बैठकों को आयोजित करेगा. उप-समितियों के संयोजक भी सचिव की सहमती से उप-समिति की बैठकों को आयोजित कर सकता है.
२. किसी भी बैठक के लिए एकतिहाई सदस्यों की उपस्थिति निर्दिष्ट संख्या
( कोरम ) मानी जायगी.
३. प्रति वर्ष कम से कम कार्यकारिणी समिति की ६-बैठकें एवं साधारण-सभा की एक बैठक को आयोजित करना अनिवार्य होगा.
४. सभी तरह के प्रस्तावों पर इन बैठकों में विस्तार से चर्चा होगी एवं यदि आवश्यक हुआ तो मंजूर की हुई राय (संकल्प) को बहुमत से पारित किया जायेगा. किन्तु जहाँ तक सम्भव हो सभी निर्णयों को सर्वसम्मति से पारित करने की चेष्टा की जाएगी.
5. GENERAL MEETING (आम-सभा )
(i) कम से कम एक आम-सभा प्रत्येक वर्ष आयोजित की जाएगी, सभी सदस्यों को इसकी सुचना १५ दिन पहले ही दे दी जाएगी.
(ii) यदि आवश्यक हुआ तो कार्यकारिणी समिति की सहमती से विशेष आम-सभा बुलाई जा सकती है, तथा आवश्यकतानुसार मात्र ७ दिनों की सुचना के बाद इस अधिवेशन को आयोजित किया जा सकता है.
(iii) विगत वार्षिक आमसभा की बैठक की तिथि से १५ महीनों के भीतर वार्षिक आमसभा (AGM ) की बैठक अवश्य आयोजित हो जानी चाहिए. महामण्डल से अनुमति प्राप्त किये बिना किसी भी हाल में इस समय-सीमा का उलंघन नहीं हो सकता है.
वार्षिक आम सभा में केंद्र की गतिविधियों के ऊपर सचिव का वार्षिक-प्रतिवेदन, लेखा-परीक्षक द्वारा विगत वर्ष का अंकेक्षित विवरण एवं वर्तमान-वर्ष के आय-व्यय का लेखा (बजट) को सभा के सामने रखा जायेगा.
 वार्षिक आमसभा में एक नयी कार्यकारिणी समिति को निर्वाचित किया जायेगा, एवं एक लेखा-परीक्षक को नियुक्त किया जायेगा.
सामान्यतया यह वार्षिक-आम-सभा (AGM) वित्तीय-वर्ष समाप्त हो जाने के एक महीने के भीतर ही हो जानी चाहिए.
6. EXECUTIVE COMMITTEE MEETINGS(कार्यकारिणी समिति की बैठक )
कार्यकारिणी समिति की बैठक को न्यूनतम ३ दिनों की नोटिस पर आयोजित किया जा सकता है. तथा आकस्मिक-बैठक को १ दिन की नोटिस पर भी आयोजित किया जा सकता है.
CHAPTER-V
FINANCIAL MATTERS ( वित्तीय-विषयवस्तु )
केंद्र के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए अपने सदस्यों से चन्दा तथा प्रवेश-शुल्क लेने के आलावा, केंद्र के उद्देश्यों को पूरा करने तथा कार्य को आगे बढ़ने के लिए विभिन्न श्रोतों से चन्दा उगाही करके या उधार लेकर धन एकत्र करने की कार्यकारिणी समिति को छूट रहेगी.
किसी व्यक्ति, या निगम एवं सरकार से नकदी या वस्तु के रूप में दिया गया दान तभी स्वीकार किया जायेगा, जब वे महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को जानकर बिना किसी शर्त के दान देंगे. 
यदि अनुदान के लिए किसी कानून या विधान की बाध्यता होगी तभी उसके नियमों को स्वीकार किया जा सकेगा.
किसी भी प्रकार की नकदी या वस्तु के रूप में प्राप्त अनुदान के लिए उचित रशीद दिया जायेगा. 
कार्यकारिणी समिति के के निर्णय के अनुसार ही बैंक खातों से धन की निकासी की जा सकती है.
सभी प्रकार के वित्त से सबंधित विषयों को सचिव अपने कोषनायक की मदत से देखभाल करेगा.
CHAPTER-VI
RELATION WITH THE MAHAMANDAL (THE CENTRAL ORGANIZATION)
केंद्रीय-संगठन अर्थात महामण्डल के साथ केंद्र का आपसी सम्बन्ध 
१. केंद्र महामण्डल के प्रति पूर्ण निष्ठा रखेगा तथा समस्त वर्तमान नियम-कानून एवं केंद्र के समस्त निर्देशों का पालन करेगा.
२. महामण्डल के अधिवेशनों में केंद्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए, तथा महामण्डल के साथ सम्पर्क बनाय के उद्देश्य से, कार्यकारिणी समिति किसी सदस्य को महामण्डल की स्वीकृति लेकर स्थायी-प्रतिनिधि के रूप में मनोनीत करेगी. स्थायी प्रतिनिधि को अनिवार्य रूप से महामण्डल का सदस्य होना चाहिए. यदि वह कार्यकारिणी समिति का सदस्य या सचिव न भी हो तो उसे कार्यकारिणी समिति के समस्त बैठकों में उपस्थित रहने के लिए अनिवार्य रूप से आमन्त्रित किया जायेगा. महामण्डल से अनुमोदन कराने के बाद ही कार्यकारिणी समिति स्थायी-प्रतिनिधि को बदल सकती है. 
३. यदि केंद्र के सामने कोई समस्या खड़ी हो जाये तो उसका समाधान कराने के लिए महामण्डल से निर्देश माँगा जायेगा. केंद्र के प्रशासन को चलाने के लिए नियमों की जो व्याख्या (अर्थ) महामण्डल देगा उसीको अंतिम माना जायेगा.
४. किसी भी सम्पत्ति जमीन-जायदाद को दान में, या नकद भुगतान देकर अर्जित करने के पहले महामण्डल से उसकी पूर्वानुमति प्राप्त करना  आवश्यक है. उसी प्रकार कोई नयी योजना का प्रारम्भ करने या सरकार अथवा बैंक या अन्य किसी भी संस्था से कोई ऋण या अनुदान स्वीकार करने के पहले भी महामण्डल की पूर्वानुमति लेना आवश्यक है. 
५. केंद्रीय संगठन अर्थात महामण्डल को किसी भी केंद्र के खाता-बही, करवाई-पुस्तिका के विवरण आदि का निरिक्षण करने का अधिकार होगा. तथा विशेष परिस्थिति में केंद्र के प्रबन्धन को अपने आधीन ले सकती है, या उसके प्रबन्धन में परिवर्तन लाने का निर्देश दे सकती है.
महामण्डल को यदि ऐसा प्रतीत हो कि कोई केंद्र अपनी निष्क्रियता या महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को हानी पहुँचाने वाले कार्यों में संलग्न है, तो महामण्डल को यह अधिकार होगा कि वह उस केंद्र को असम्बद्ध करके महामण्डल के ज्ञापन-पत्र  में लिखे नियम-कानून के अन्तर्गत उस केंद्र को विवेकानन्द युवा महामण्डल के रूप में कार्य करने कि मान्यता को रद्द कर दे. 
६. केंद्र अपने आसपास में स्थित सभी केन्द्रों की हरसम्भव मदत करेगा.
७. केंद्र अपने क्षेत्र में या आस-पास के क्षेत्रों में, जहाँ कहीं भी अतिरिक्त इकाई स्थापित होने की सम्भावना हो, वहां केंद्रीय-संगठन से पूर्वानुमति प्राप्त करके महामण्डल के कार्यों को फ़ैलाने की चेष्टा करेगा.जब महामण्डल इस प्रकार के नयी इकाइयों को सम्बद्धता प्राप्त करने योग्य समझेगा तब उन्हें अपने साथ सम्बद्ध कर लेगा. 
CHAPTER-VII
AMENDMENT OF MEMORANDUM AND REGULATIONS
ज्ञापन-पत्र एवं नियमों का संशोधन 
किसी केंद्र के नियमों में संशोधन महामण्डल द्वारा अनुमोदित कराने के लिए उस केंद्र कुल सदस्यों की संख्या के तीन-चौथाई बहुमत  के आधार पर किया जा सकता है. कोई भी नियम जोड़ने, हटाने, या परिवर्तित करने के लिए केंद्र को महामण्डल से पूर्वानुमति प्राप्त करनी होगी. महामण्डल द्वारा किया गया कोई भी संशोधन तत्काल प्रभाव से लागु माना जायेगा.
CHAPTER-VIII
BYE-LAWS
उप-नियम
महामण्डल से अनुमोदन प्राप्त करके कार्यकारिणी समिति को केंद्र के गतिविधियों को निर्बिघ्न चलाने के लिए, नए उपनियम बनाने, परिवर्तित करने, रद्द करने का अधिकार होगा. ये उपनियम तभी से प्रभावी होंगे जब महामण्डल उनका अनुमोदन कर देगा.
CHAPTER-IX
DISSOLUTION 
विघटन 
यदि किसी केंद्र को विघटित कर देना बहुत आवश्यक प्रतीत होता है, तो उस केंद्र के समस्त दावों एवं देनदारियों का भुगतान करने के बाद, शेष बचे  चल-अचल सम्पत्ति को सदस्यों के बिच वितिरित या हस्तान्तरित नहीं किया जा सकेगा,  समिति को उसे महामण्डल को सौंप देना होगा. 
इतनी कार्यवाई के बाद केंद्र के समूर्ण सदस्य-संख्या के तीन-चौथाई बहुमत के आधार पर केंद्र को विघटित कर दिया जायेगा, किन्तु इस प्रकार की कार्यवाई करने के पहले महामण्डल को समस्त तथ्यों से अवगत कराना होगा, तथा उनकी अनुमति प्राप्त करनी होगी.
MISCELLANEOUS
विविध-फुटकर 
केंद्र का वित्तीय वर्ष १अप्रिल से अगले वर्ष के ३१ मार्च तक होगा. केंद्र के लेखा-पुस्तिकाओं को वर्ष के अंत में किसी योग्यता-प्राप्त लेखा-निरीक्षक(ऑडिटर)  से अंकेक्षित (औडिट) करवाना होगा.
प्रत्येक सदस्य को लेखा-पुस्तिका एवं लेखा-परीक्षा विवरण को देखने का अधिकार होगा.
वार्षिक-आमसभा में वार्षिक-प्रतिवेदन, एवं अंकेक्षित-लेखा विवरण के प्रमाणिक प्रतियों को पारित करवाने के बाद बैठक की तिथि से १५ दिनों के भीतर महामण्डल के पास भेज देना होगा. 
ANTHEM OF THE MAHAMANDAL
महामण्डल-गान 

 महामंडल का संघ-मंत्र 
संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।
समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।
समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। 
(ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ )
हिन्दी भावानुवाद
एक साथ चलेंगे ,एक बात कहेंगे । हम सबके मन को एक भाव से भरेंगे ।
देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं | हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।। 
याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो| हमारे विचार में सब जीव एक हैं!
एक्य विचार के मन्त्र को गा कर| देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे ||
हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान, भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे |  
एक साथ चलेंगे, एक बात कहेंगे....... 
"हम अपने सारे निर्णय एक मन हो कर ही करेंगे ,क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात एक मन बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......" 
' English Translation of संगचछ्ध्व्म '

 Let us move together 
 Let us speak in harmony,
Let our minds think in unison,

As Gods share with one another,
We too shall care to share,

Let us pray in consistency,
Let our hearts be in uniformity,
Let us be one with infinity,

Let us chant in unison,
Let us act in unison,
Let that unison be our prayer.

We'll unify our heart, feelings and determination,
To realise and to be - One with All !

Let us move together,
Let us speak in harmony.
========
    
( - Translated by Sri Ajay agarwal on 20/4/2012)
     
1 BE UNITED; SPEAK IN HARMONY; LET YOUR MINDS BE ALL OF ONE ACCORD; FOR THE DAYS OF YORE; THE GOD'S BEING OF ONE MINDED WERE ENABLED TO RECEIVE OBLATIONS.
2. COMMON BE YOUR PRAYERS; COMMON BE YOUR ASSEMBLY; COMMON BE YOUR INTENTION; COMMON BE YOUR DELIBERATION; A COMMON PURPOSE DO I LAY BEFORE YOU; AND WORSHIP WITH YOUR GENERAL OBLATION.
3. COMMON BE YOUR DESIRES; UNITED BE YOUR HEARTS; UNITED BE YOUR INTENTIONS; PERFECT BE THE UNION AMONGST YOU.
 
       
           
           


गुरुवार, 16 जून 2011

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का निवेदन

हम अपने उन सभी युवा भाइयों, जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में, मानव जाती के प्रति उनके द्वारा प्रदत्त अमर-संदेष में, तथा आत्मा को झंकिर्त कर देने वाले उनके ' राष्ट्र को आह्वान ' में आस्था रखते हों; से अपील करते हैं कि वे आगे आयें और " महामण्डल " के सदस्य बनें, एवं  समाचार पत्रों में अपना नाम छपा देखने के पाखण्ड से ऊपर उठ कर, नीरवता से चुप-चाप, मनुष्य-निर्माणकारी एवं चरित्र-गठनकारी शिक्षा के माध्यम से एक अग्रदूत ( जैसे श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ को केवल मनुष्य नहीं, बल्कि  मनुष्य-निर्माण करने में समर्थ मनुष्य या 'अग्रदूत ' स्वामी विवेकानन्द बनाया था ) के साँचे में स्वयं के जीवन को ढाल लेने के कार्य में जुट जाएँ; क्योंकि मनुष्य जाति में परिव्याप्त समस्त प्रकार कि बुराइयों के लिए यही एकमात्र रामबाण-दवा है,यही सर्व रोग निवारक औषधि है !इस दिशा में अभिरुचि रखने वाला कोई भी व्यक्ति, संस्थान, संघ या संगठन हमारे निम्नलिखित पंजीकृत- कार्यालय के पते पर सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं.


Secretary,
AKHIL BHARAT VIVEKANANDA YUVA MAHAMANDAL 
' BHUVAN BHAVAN '
P.O. Balram Dharm Sopan.
Khardah,
North 24 Parganas.
West Bengal, India.
 Pin- 700116
अथवा 
City Office.
6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row,
KOLKATA, INDIA-7OOOO9
Phone : (033) 2350-6898
महामण्डल के वास्तविक अंगप्रत्यंग हैं : 
इसकी विभिन्न इकाइयाँ 
महामण्डल के वास्तविक अंगप्रत्यंग (मनुष्य- निर्माणकारी तथा चरित्र-गठनकारी शिक्षा केन्द्रों के रूप में क्रियाशील ) इसकी इकाइयाँ हैं,जिनके माध्यम से इसमें प्राण स्पन्दित होता है, यह कार्य करता है,और मनुष्य के चारित्रिक गुणों में परिवर्तन लाता है. इसप्रकार इसकी शाखा-प्रशाखाएँ आगे फैलती जाती हैं, और जिसके कारण इसका अस्तित्व निरन्तर बना रहता है.
हमारा ' केंद्रीय-संगठन ' अर्थात " महामण्डल ", - विभिन्न राज्यों  में क्रियाशील इकाइयों को सीमेंट से जोड़े रखने वाली शक्ति के रूप में कार्य करता है, जो महामण्डल के उद्देश्य एवं आदर्श को कार्यरूप देने वाले वास्तविक केंद्र है, इस प्रकार यह उन्हें एक बहुत विशालकाय शरीर के सजीव-अंगप्रत्यंग के रूप में संचालित रखता है.
 इस समय, जनवरी २००९ तक भारत के विभिन्न राज्यों, यथा पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, आसाम, बिहार, झारखण्ड, ओरिसा, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात एवं दिल्ली आदि में महामण्डल से सम्बद्ध - ३५० ' मनुष्य-निर्माणकारी ' केंद्र क्रियाशील हैं.
कार्य-कलाप (ACTIVITIES ) 
इकाइयों के द्वारा सामाजिक कार्य के रूप में, निःशुल्क कोचिंग, प्रौढ़ शिक्षा, खेल-कूद, अनुशासित कवायद प्रशिक्षण, पाठ चक्र (साप्ताहिक भ्रम-भंजन गोष्ठी या Study -Circles ), शारीरिक प्रशिक्षण, दुर्गा-पूजा आदि अवसरों पर रामकृष्ण-विवेकानन्द  वेदान्त- साहित्य पुस्तक-विक्रय केंद्र,
पुस्तकालय सह वाचनालय, गन्दी-बस्ती में रहने वालों की सेवा, प्राथमिक-चिकित्सा, प्राथमिक-चिकित्सा में प्रशिक्षण, संगीत कला में प्रशिक्षण, स्वाथ्य योजनायें, पौष्टिक आहार एवं भोजन योजनायें, कुटीर-उद्द्योग, स्टुडेंट्स होम, आदि ' समाज-सेवाओं ' का उत्तरदायित्व समाचार पत्रों में अपना फोटो छपवाने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि अपने चरित्र-गठन के उद्देश्य को सामने रख कर लिया जाता है
इसके अतिरिक्त इसके केन्द्रों द्वारा समय समय पर सांस्कृतिक आयोजन किये जाते हैं, महत्वपूर्ण उत्सवों को समारोह पूर्वक मनाया जाता है, एवं सार्वजनिक अधिवेशन, शैक्षणिक प्रतियोगिताएँ, सामूहिक भोजन, वस्त्रों का वितरण, निर्धन व्यक्तियों तथा प्राकृतिक आपदाओं में राहत सामग्री वितरण करने के आलावा अन्य विविध प्रकार के सामाजिक कार्यों का उत्तरदायित्व महामण्डल के केन्द्रों द्वारा संयुक्त रूप से या अलग अलग लिया जाता है. 
जीवन-गठन के ऊपर परिचर्चा करने के लिए संयुक्त-अधिवेशन सत्र या नियतकालिक ' विशेष प्रशिक्षण शिविर ' (SPTC) जिसे " शिक्षा एवं समीक्षा का विशेष सत्र "  का आयोजन होता है, जिस में हमारे क्रिया-कलापों के साथ निकट से जुड़े विभिन्न चित्ताकर्षक विषयों पर 'व्याख्यान और प्रश्नोत्तरी' के कार्यक्रम को बहुधा प्रतिष्ठित शिक्षा विद सम्बोधित करते हैं. 
 इस अवसर पर प्रत्येक केंद्र के सक्रिय सदस्यों तथा कार्यकर्ताओं को- अपनी चरित्र-निर्माणकारी धारणाओं के सम्बन्ध में उनके तद्रूप दुसरे केन्द्रों के कर्मियों के साथ, आदान-प्रदान करने का सुयोग भी प्राप्त होता है.  
" सर्व भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर "
" THE ANNUAL ALL INDIA YOUTH TRAINING CAMP "
महामण्डल का सबसे बड़ा संयुक्त कार्यक्रम इसका वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर है, जो प्रशिक्षनार्थियों के '3H's- Hand (body शरीर ), Head (mind मन ) एवं Heart (soul आत्मा ) के प्रशिक्षण के मध्य एक संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है. इसके सार्वजानिक कार्यक्रमों में ' मनः संयोग ' (मन को एकाग्रचित्त करना ), शारीरिक प्रशिक्षण, नेतृत्व-क्षमता विकास प्रशिक्षण, चरित्र-निर्माण की व्यावहारिक पद्धति, परेड, प्राथमिक-चिकित्सा प्रशिक्षण, खेल-कूद, शिशु-विभाग ' विवेक-वाहिनी ' को  प्रारंभ करने का प्रशिक्षण, 
 नियमित प्रार्थना एवं संगीत प्रशिक्षण के साथ साथ भारत की सांस्कृतिक विरासत (cultural heritage of India) के ऊपर संभाषण, समाज विज्ञान, सदाचार, स्वास्थ्य आदि विषयों के साथ साथ स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को समाविष्ट किया जाता है.यह शिविर अपने सहभागियों को  आत्माभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त कार्यक्षेत्र भी उपलब्ध कराता है. 
" लोकल (स्थानिक) युवा प्रशिक्षण शिविर "
(Local Youth Training Camps)
विभिन्न राज्यों के विभिन्न केन्द्रों के द्वारा जिला-स्तरीय शिविर, राज्य-स्तरीय शिविर, अंतर्राज्य -स्तरीय शिविर भी लगभग प्रतिवर्ष आयोजित किये जाते हैं. संगठनकर्ताओं के लिए, अलग से विशेष प्रशिक्षण शिविर भी आयोजित किये जाते हैं. 

महामण्डल का द्विभाषी मुखपत्र :
" THE VIVEK- JIVAN "
महामण्डल अपने देश के युवाओं को ' विवेकपूर्ण- जीवन ' में दीक्षित करने, विभिन्न केन्द्रों द्वारा संचालित गतिविधियों में समन्वय स्थापित करने, तथा स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत-पुनर्निर्माण सूत्र - " Be and Make " का देश-व्यापी प्रचार-प्रसार करने के लिए, अपने रजिस्टर्ड ऑफिस से, एक द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगला ) मासिक मुखपत्र " VIVEK-JIVAN " प्रकाशित करता है. इस मासिक पत्रिका के प्रकाशक एवं सम्पादक इस संस्था के अध्यक्ष श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय हैं, तथा उन्हीं के द्वारा इसे 'विवेकानन्द मुद्रणालय ' चकदह, नदिया से मुद्रित भी किया जाता है, श्री अरुणाभ सेनगुप्ता इसके उपसम्पादक हैं.
देश के हिन्दी भाषी क्षेत्र के युवाओं को 'विवेक-पूर्ण जीवन ' में दीक्षित करने के उद्देश्य से, महामण्डल अपने  द्विभाषी मासिक मुखपत्र :" Vivek- Jivan  " का हिन्दी संस्करण त्रैमासिक पत्रिका के रूप में 
 " विवेक अंजन " का  प्रकाशन Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal, Tara Niketan, Bishunpur Road, P.O. Jhumritelaiya, Dist: Koderma, PIN: 825409  से कर रहा है. 
जिसका वार्षिक सदस्यता शुल्क ५०/= रुपया तथा एक प्रति का मूल्य १५/= रुपया है.


प्रकाशन 
महामण्डल जिन सिद्धांतों को उपयोगी समझता है, उनके ऊपर विभिन्न भाषाओँ (-हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, उड़िया, तेलगु, आदि ) में पुस्तिकाओं का प्रकाशन भी करता है.
हिन्दी में प्रकाशित पुस्तिकाओं की सूचि :
१.एक युवा आन्दोलन......१५/=
२. मनः संयोग ....७/=
३. जीवन-गठन ...७/=
४. चरित्र गठन...७/=
५.चरित्र के गुण ....७/=
६. नेतृत्व की अवधारणा तथा गुण- १५/=
७. अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य एवं कार्य...२/=
८. चमत्कार जो आपकी आज्ञां का पालन करेगा....१/=
९. विवेकानन्द और युवा आन्दोलन .....प्रेस में.
१०. चरित्र-निर्माण कैसे करें ?....प्रेस में.
११. परिप्रश्नेन .....१२/=
महामण्डल ने युवाओं के अभिरुचि को ध्यान में रखते हुए, विभिन्न भाषाओँ में अभी तक १५० से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया है.

The Mahamandal has so far published more than 150 books and booklets in different languages on subjects which may interest the youth.







 

बुधवार, 15 जून 2011

" झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल वर्ष (२०१०-२०११) के सचिव का वार्षिक प्रतिवेदन "

आज भारत में भ्रष्टाचार की विकराल समस्या से निबटने के लिए; एक ओर जहाँ  ' सरकार और सिविल सोसायटी (सभ्य-समाज के सदस्य) ' द्वारा  " लोकपाल बिल " लाने का प्रयास किया जा रहा है, वहीँ दूसरी ओर बाबा रामदेव भी " सत्ता " में नहीं, बल्कि " व्यवस्था (System) " में परिवर्तन लाकर भ्रष्टाचार मिटाने का प्रस्ताव जनमानस के समक्ष रख रहे हैं. "
  किन्तु सिस्टम को चलाता तो ' मनुष्य ' ही है, अतः मनुष्य (के चारित्रिक गुणों) में परिवर्तन लाना हमारा सबसे पहला कर्तव्य है "- स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए इस परामर्श के ऊपर शायद बाबा रामदेव  ने विशेष ध्यान नहीं दिया; इसीलिए व्यक्ति में परिवर्तन लाने का प्राथमिक-कार्य (व्यक्ति की चारित्रिक गुणवत्ता में परिवर्तन ) करना छोड़ कर  कानून में परिवर्तन हेतु सरकार के ऊपर दबाव बनाने के लिए अनशन पर बैठ गए, जिसका परिणाम क्या हुआ- हम सभी लोगों ने उसका " लाइव टेलीकास्ट " देखा है.  वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य अच्छा  " मनुष्य " बनाना है। लेकिन न तो कोई" मनुष्य " बनना चाहता है न कोई बनाना. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त एक दम सरल, भारत-पुनर्निर्माण सूत्र " Be and Make "  को सुनने समझने के लिए कोई तैयार नहीं है।
 आजादी के तुरत बाद ही हमारे देश के निति-निर्धारकों को स्वामी विवेकानन्द के परामर्श- " पहले मनुष्य निर्माण करो ! " पर ध्यान देते हुए
 - " चरित्र-निर्माणकारी एवं मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा पद्धति "  को देश-व्यापी स्तर पर इस प्रकार लागु कराना चाहिए था ताकि, आजादी के कम से कम २० वर्षों बाद (सन १९६७ तक ) देश की व्यवस्था संचालन में सुयोग्य चरित्रवान, ईमानदार एवं   देशभक्त  नागरिकों का निर्माण करना सम्भव हो जाता. 
किन्तु पाश्चात्य शिक्षा और भौतिकवादी संस्कृति के चकाचौंध से प्रभावित होकर हमने पहले २० वर्षीय ' मनुष्य-निर्माणकारी योजना ' न बना कर, हृदय का उदारीकण न करके आर्थिक-उदारीकरण पर आधारित पंच-वर्षीय योजनाओं पर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित रखा. 
इसके दुष्परिणाम को स्पष्ट करते हुए, देश के एक युवा प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने पार्लियामेन्ट के भीतर और बाहर भी कहा था कि इन पंच-वर्षीय योजनाओं पर जितना धन हम केंद्र से आवंटित करते हैं उसका मात्र १५% धन ही उस योजना पर खर्च हो पाता है, ८५ % धन तो रस्ते में ही पाइप-लाइन में सूख जाता है.   
 हमलोगों को यह स्मरण रखना चाहिए था कि, अपने ' क्षुद्र अहं ' की तुष्टि एवं घोर स्वार्थपरता के कारण ही ३० करोड़ की जनसंख्या के देश को मात्र ४ करोड़ की जनसँख्या वाले अंग्रेजों ने २०० वर्षों तक गुलाम बना कर रखा था. पर हमने सत्ता के नशे में चूर होकर इतिहास के इस सबक को भुला दिया. एवं बचपन से मात्र २० वर्षों तक धैर्य के साथ चरित्रवान, निःस्वार्थी मनुष्य बनने और बनाने का परिशिक्षण देकर  मौलिक रूप से व्यक्ति के चारित्रिक गुणों में बदलाव लाने के बजाय अंग्रेजों की ही पद्धति को अपनाया गया, जिनका उद्देश्य ही समाज को बांटकर राज्य करना था।
मुश्किल यह है कि - तथाकथित सिविल सोसायटी के लोग भी स्वामी विवेकानन्द दिए गए परामर्श - " पहले मनुष्य निर्माण करो ! ";  पर ध्यान न देकर, मनुष्य की चारित्रिक गुणवत्ता में बदलाव लाये बिना ही व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं, जो कि असम्भव है.
शिक्षा का मुख्य विषय 'मनुष्य-निर्माण होना चाहिये जबकि लोग समाज का निर्माण करने की योजना बनाते हैं और उनके लिये व्यक्ति निर्माण उनके लिये गौण हो जाता है।  चाहे बाबा रामदेव हों या सिविल सोसायटी के लोग हर कोई (जबरन -आमरण अनशन की धमकी देकर ) अपना विचार लादना चाहता है पर स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत-पुनर्निर्माण सूत्र " Be and Make "  को सुनने समझने के लिए कोई तैयार नहीं है।
 इस वस्तु स्थिति को स्पष्ट करने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने एक कहानी कही थी,- जो इस प्रकार है :-  
" अपने मत को अक्षुण रखने में प्रत्येक मनुष्य का एक विशेष आग्रह देखा जाता है... एक समय एक छोटे राज्य को जीतने के लिये एक दूसरे राजा ने दल-बल के साथ चढ़ाई की| शत्रुओं के हाथ से बचाओ कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करने के लिये उस राज्य में एक बड़ी सभा बुलायी गयी|
 सभा में इंजीनियर, बढ़ई, चमार, लोहार, वकील, पुरोहित आदि सभी उपस्थित थे |इंजीनियर ने कहा- 'शहर के चारों ओर एक बहुत बड़ी खाई खुदवाइये|' बढ़ई बोला- ' काठ की एक दीवाल खड़ी कर ड़ी जाय|' 
चमार बोला- ' चमड़े के समान मजबूत और कोई चीज नहीं है, चमड़े की ही दीवाल खड़ी की जाय|'लोहार बोला- ' इस सबकी कोई आवश्यकता नहीं है; लोहे की दीवाल सबसे अच्छी होगी; उसे भेदकर गोली य़ा गोला नहीं आ सकता|'
वकील बोले- ' कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; हमारा राज्य लेने का शत्रु को कोई अधिकार नहीं है- यही एक बात शत्रु को तर्क-युक्ति द्वारा (या अश्रु गैस, लाठी चार्ज से ?)समझा दी जाय|' 
 पुरोहित बोले- ' तुम लोग तो पागल जैसे बकते हो|होम-याग करो, स्वस्त्यन करो, तुलसी दो, शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता|'
इस प्रकार उन्होंने राज्य को बचाने का कोई उपाय निश्चित करने के बदले अपने अपने मत का पक्ष लेकर घोर तर्क-वितर्क आरम्भ कर दिया|यही है मनुष्य का स्वभाव !"
 मानव मन के एकतरफा (एकपक्षीय ) झुकाव के बारे में;स्वामी जी यह कथा सुन कर बोले, '..ऐसे लोगों को झक्की कहते हैं|
हमसभी लोगों में इस प्रकार का कोई दुराग्रह य़ा झक्कीपन हुआ करता है. हमलोगों में उसे दबा रखने की क्षमता है. पागल में वह नहीं है. हमलोगों में और पागलों में भेद केवल इतना ही है|
 रोग, शोक, अहंकार, काम, क्रोध, ईर्ष्या य़ा अन्य कोई अत्याचार अथवा अनाचार से दुर्बल होकर, मनुष्य के अपने इस संयम को खो बैठने से ही सारी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है!
मन के आवेग को वह फिर संभाल नहीं पाता. हमलोग तब कहते हैं, 'यह' पागल हो गया है. बस इतना ही ! " (१०:३२७,३२८) 
 स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " सभी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएं (System ) मनुष्यों के भलेपन (चरित्र) पर टिकती हैं| कोई राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता कि उसकी Parliament (संसद) ने यह य़ा वह (लोकपाल Bill) पास कर दिया है, वरन इसलिये होता है कि उसके नागरिक महान और अच्छे होते हैं|" (४:२३४) 
 " मनुष्य केवल मनुष्य भर चाहिये| बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा| आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वि, श्रद्धासमपन्न और दृढविश्वासी निष्कपट नवयुवकों की| ऐसे सौ मिल जाएँ, तो संसार का कायाकल्प हो जाय |"(५:११८)  
" सारी शिक्षा तथा समस्त प्रशिक्षण का एकमेव उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना चाहिये. परन्तु हम यह न कर केवल बहिरंग पर ही पानी चढाने का सदा प्रयत्न किया करते हैं.जहाँ व्यक्तित्व का ही आभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ? 
सारी शिक्षा का ध्येय है- मनुष्य का विकास! वह " मनुष्य " जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू सा कर देता है, शक्ति का एक महान केन्द्र है, और जब वह मनुष्य तैयार हो जाता है, वह जो चाहे कर सकता है| यह व्यक्तित्व जिस वस्तु पर अपना प्रभाव डालता है, उसी वस्तु को कार्यशील बना देता है ! " (४:१७२)
"आत्मसंयम का अभ्यास करने से महान इच्छा-शक्ति का प्रादुर्भाव होता है; वह बुद्ध य़ा ईसा जैसे चरित्र का निर्माण करता है| मूर्खों को इस रहस्य का पता नहीं रहता, परन्तु फिर भी वे मनुष्य जाती पर शासन करने के इच्छुक रहते हैं!" (३:९) 
" मनुष्य के ' मन ' को प्रशिक्षित करने से ही समस्या का समाधान मिल सकता है. कोई कानून किसी व्यक्ति से वह कार्य नहीं करा सकता है, जिसे वह करना नहीं चाहता है.अगर मनुष्य अच्छा बनना चाहेगा, तभी वह अच्छा बन पायेगा.सम्पूर्ण विधान एवं विधान के पण्डित मिलकर भी उसे अच्छा नहीं बना सकते. सर्वशक्ति सम्पन्न तो कहेगा ही, ' मैं किसी की परवाह नहीं करता !' हम सब अच्छे (चरित्रवान-मनुष्य ) बनें, यही समस्या का हल है.(४:१५७)
  " ...यह तो हमें मान ही लेना चाहिये कि कानून,सरकार, राजनीति ऐसी अवस्थाएं हैं, जो किसी प्रकार अन्तिम नहीं हैं. उनसे परे एक एक ध्येय है, चरित्रवान-  मनुष्य,जिसके लिए किसी कानून की  आवश्यकता नहीं है...प्रभु ईसामसीह ने भी कहा था- ' विधि-नियम उन्नति का मूल नहीं हैं, केवल नैतिकता और पवित्रता ही शक्ति है|"(४:२३४)
आज भारत के गाँव गाँव तक, अखिल भारत विवेकाननद युवा महामण्डल के निर्देशन में संचालित 'विवेकानन्द युवा पाठचक्र' तथा 
' युवा महामण्डल ' रूपी " मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों " को फैला देने की घोर आवश्यकता है, जहाँ स्वामी विवेकानन्द के सपनों के अनुरूप लाखों की संख्या में ऐसे युवाओं को ढाला जा सके - " जिसका विकास समन्वित रूप (3-H) से हुआ हो...ह्रदय से विशाल, मन से उच्च, कर्म में महान !"
 झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल विगत २६ वर्षों से स्वामीजी द्वारा सौंपे गए इसी कार्य को धरातल पर रूपायित करने के प्रयास में लगा हुआ है. इस धीमी-गति के मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन के पहियों से अपना कन्धा लगा देने के प्रयास में इस वर्ष (२०११-१२) की निम्न-लिखित योजनाओं में स्थानीय युवाओं को सहयोग करने का आह्वान किया जा रहा है:-

आशा है, इस वर्ष हमलोग अपने सम्मिलित प्रयास से उपरोक्त समस्त योजनाओं को अवश्य क्रियान्वित कर लेंगे.
क्योंकि स्वामी विवेकानन्द हमलोगों से ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं. वे कहते थे-   " मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमे से आयेंगे|सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे|...वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र में उस समय तक फैलेंगे, जब तक कि हम सम्पूर्ण भारत पर नहीं छा जायेंगे !" (४:२६१) 
केवल ३९ वर्ष तक के मनुष्यों को ही ' युवा ' नहीं कहते हैं, हमारे लिए युवा आदर्श के प्रतिक पूज्य नवनीदा तथा महामण्डल के अन्य वरिष्ट भ्रातागण हैं; जो विगत ४४ वर्षों से इस आन्दोलन को आगे बढ़ाते जा रहे हैं, आज इनमें से अधिकांश की आयु 60 plus हो गयी है, फिर भी युवाओं के जैसा भरपूर उत्साह से इस आन्दोलन को दिशा निर्देश दे रहे हैं.
किसी चुनौती को सामने देख कर जो व्यक्ति उसे स्वीकार करने के लिए ठीक उसी प्रकार कटिबद्ध हो जाता हो, जिस प्रकार शिव-धनुष तोड़ने के प्रसंग में राजा-जनक की निराशा उत्पन्न करने वाली टिप्पणी को सुनकर श्री लक्ष्मणजी क्षण भर में धनुष तोड़ने को कटिबद्ध हो गए थे; वैसा ही साहस और उत्साह जिसमे है, उसको ही   युवा समझना चाहिए, चाहे उसकी उम्र जो कुछ भी हो.  किसी ३५ साल के युवा के मुख से ऐसी वाणी निकले कि, मैं भला क्या कर सकता हूँ अब तो प्रलय ही होने वाला है, उसे ३५ साल का बूढ़ा ही समझना चाहिए. 
उस प्रसंग की एक बानगी देखिये, राजा जनक निराश हो कर जब कहते हैं-

* अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥
भावार्थ:-अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥2॥
को सुनकर लक्ष्मणजी का उत्तर देखिये-
* रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥1॥
भावार्थ:-रघुवंशियों में कोई भी जहाँ होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे हैं॥1॥
* सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥2॥
भावार्थ:-हे सूर्य कुल रूपी कमल के सूर्य! सुनिए, मैं स्वभाव ही से कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा लूँ॥2॥ 
*काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥3॥
भावार्थ:-और उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ, हे भगवन्‌! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है॥3॥
* बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3
भावार्थ:-विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ॥3॥ 
ठीक श्री लक्ष्मणजी की वाणी में चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द भी हुँकार करते हैं- 
" ऐसा न कहो कि मनुष्य पापी है| उसे बताओ की तू ब्रह्म है| यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का ही स्मरण करें, शैतान का नहीं|...हम यही कहें - 'हम हैं ', 'ईश्वर हैं और हम ईश्वर हैं|
' शिवोहम शिवोहम कहते हुए आगे बढ़ते चलो|जड़ (शरीर) नहीं, वरन चैतन्य (आत्मा) हमारा लक्ष्य है! नाम-रूप वाले सभी पदार्थ नाम-रूप हीन सत्ता (अस्ति,भाति,प्रिय) के अधीन हैं| इसी सनातन सत्य की शिक्षा श्रुति (गीता -उपनिषद आदि) दे रही है! प्रकाश को ले आओ, अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा|वेदान्त -केसरी गर्जना करे, सियार अपने अपने बिलों में छिप जायेंगे!..यदि कोठरी में अन्धकार है, तो सदा अन्धकार का अनुभव करते रहने और अन्धकार अन्धकार चिल्लाते रहने से तो वह दूर नहीं  होगा, बल्कि प्रकाश को भीतर ले आओ, तब वह दूर हो जायेगा|
..आत्मा की शक्ति का विकास करो और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो, और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी|अपने आभ्यन्तरिक ब्रह्मभाव को प्रकट करो और उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित हो कर विन्यस्त हो जायेगा|
वेदों में बताये हुए- 'इन्द्र और विरोचन ' के उदाहरण को स्मरण रखो|दोनों को ही अपने ब्रह्मत्व का बोध कराया गया था, परन्तु असुर विरोचन अपनी देह को ही ब्रह्म मान बैठा|इन्द्र तो देवता थे, वे समझ गये कि वास्तव में आत्मा ही ब्रह्म है!!
तुम तो इन्द्र की सन्तान हो! तुम देवताओं के वंशज हो! जड़ पदार्थ तुम्हारा ईश्वर कदापि नहीं हो सकता; शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता!
भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन आत्मा की शक्ति द्वारा| वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं, वरन शान्ति और प्रेम की ध्वजा से-...ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं|श्री रामकृष्ण के चरणों के दैवी स्पर्श से जिनका अभ्युदय हुआ है, उन मुट्ठी भर नवयुवकों की ओर देखो !
 उन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार आसाम से सिंध तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक कर डाला|
..उनपर कितने ही अत्याचार किये गये, पुलिस ने उनका पीछा किया, वे जेल में डाले गये, पर अन्त में जब सरकार को उनकी निर्दोषिता का निश्चय हो गया, तब वे मुक्त कर दिये गये!
अतएव, अपने अन्तःस्थित ब्रह्म को जगाओ, जो तुम्हें क्षुधा-तृष्णा, शीत-उष्ण सहन करने में समर्थ बना देगा |..आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने ही पर होने से मनुष्य भी ईश्वर-तुल्य बन जाता है!
पहले हमें ईश्वर बन लेने दो! तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर-तुल्य-
' मनुष्य ' बनाने में सहायता देंगे| बनो और बनाओ - Be and Make !यही हमारा मूल मंत्र रहे! " (९:३७९-३८०) 
" आवश्यकता है संघठन करने की शक्ति की, मेरी बात समझे ?क्या तुममें से किसी में यह कार्य करने की बुद्धि है ?यदि है तो तुम कर सकते हो|...हमें कुछ चेले (निष्ठावान आज्ञाकारी कर्मी ) भी  चाहिये- वीर युवक, समझे ? दिमाग में तेज और हिम्मत के पूरे, यम का सामना करने वाले, तैर कर समुद्र पार करने को तैयार - समझे? हमें ऐसे सैंकड़ो चाहिए- स्त्री और पुरुष, दोनों|जी -जान से इसीके लिये प्रयत्न करो !"(३:३५४)
" हे नर-नारियों ! उठो, आत्मा के सम्बन्ध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो| संसार को कोई सौ (१००) साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है ! अपने में साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करे, जो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है, और सारे जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो उसका विनाश कर सके|" (२:१८) 

" अपनी बहादुरी तो दिखाओ! प्रिय भाई, मुक्ति न मिली तो न सही, दो-चार बार नरक ही जाना पड़े तो हानि ही क्या है ? क्या भर्तृहरि का यह कथन असत्य है- 
मनसि  वचसि काये पुन्यपीयूषपूर्णः 
त्रिभुवनं-उपकारश्रेनिभिः प्रीयामानः  !
परगुणपरमाणुम पर्वतीकृत्य केचित 
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः क्रियन्तः ||   
ऐसे साधु (सज्जन पुरुष ) कितने हैं, जिनके कार्य मन तथा वाणी पुण्यरूप  अमृत से परिपूर्ण  हैं और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य अर्थात अत्यन्त स्वल्प गुण को भी पर्वतप्रमाण बढ़ा कर दूसरों से कहते रहते हैं- और इस प्रकार अपने हृदयों को विशाल बनाते रहते हैं!(' विवेकानन्द - राष्ट्र को आह्वान ' पुस्तिका का पृष्ठ २७)    

हमे तो कर्म ही करना है, फल अपने आप होता रहेगा|यदि कोई सामाजिक बन्धन तुम्हारे ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधक है, तो आत्मशक्ति के सामने अपने आप ही वह टूट जायेगा|
भविष्य मुझे दीखता नहीं और मैं उसे देखने की चिन्ता भी नहीं करता| परन्तु मैं अपने सामने वह एक सजीव दृश्य तो अवश्य देख रहा हूँ कि हमारी यह प्राचीन भारत माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवनपूर्ण और पूर्व कि अपेक्षा अधिक महा महिमान्वित होकर विराजी है| शान्ति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो ! सेवा और प्रेम में सदा तुम्हारा ,
विवेकानन्द (९:३८१)
आइये वर्ष (२०११-२०१२) में स्वामीजी के इस आह्वान का हमलोग एक स्वर से प्रतिउत्तर दें !  

शनिवार, 4 जून 2011

आह्वान का प्रतिउत्तर दो !

भारत के युवाओं, स्वामी विवेकानन्द तुम्हें पुकार रहे हैं, उनके आह्वान का प्रतिउत्तर दो ! किसी अन्य व्यक्ति (क्षद्म-भेषी स्वामी) के आह्वान को सुनकर दिग्भ्रमित मत होना. किसी दूसरी दिशा से आने वाले आह्वान पर ध्यान देने से न तो तुम्हारा कुछ भला होगा और न देश का ही. केवल स्वामीजी के आह्वान को ही अपने ह्रदय में प्रविष्ट होने दो. मोहनिद्रा के व्यामोह से स्वयं को जाग्रत करो, सभी प्रकार की दुर्बलताओं (नाम-यश पाने की वासना को भी) अपने मन से बहार निकाल दो.
अपनी अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता-पवित्रता) को अभिव्यक्त करो तथा महामण्डल द्वारा संचालित " मनुष्य-निर्माणकारी एवं चरित्र-निर्माणकारी " आन्दोलन के पहियों में गति देने हेतु अपने कन्धों को भिड़ा दो. हमें अपनी प्यारी मातृभूमि के लिए अवश्य कार्य करना है. स्मरण रखो कि स्वामीजी अपने देशवासियों और अपनी मातृभूमि को  कितनी सिद्दत के साथ प्रेम करते थे.
मनुष्यों के बीच रहने वाला यह ' नरसिंह ' अपने देश के पीड़ित-वंचित मनुष्यों के लिए आँसू बहाया करते थे. उन्होंने अपने लिए कभी कुछ नहीं चाह था- वे अपने लिए सुख और धन तो क्या नाम-यश पाना भी नहीं चाहते थे. वे मानवमात्र को प्यार करते थे तथा चाहेथे कि सभी मनुष्य " यथार्थ मनुष्य " बने, अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे, आत्मविश्वासी और साहसी बने,  निर्भय होकर अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हो जाय; ताकि आवश्यकता पड़ने पर सार्वलौकिक कल्याण के लिए अपना सबकुछ  न्योछावर कर सके. 
हमारा यह पावन कर्तव्य है कि हम इस देश के प्रत्येक व्यक्ति के उन्नति के लिए समर्पित होकर कार्य करें. वस्तुतः यही हमारा नियत कर्म है। हम अपने लिए न तो मुक्ति की कामना करते हैं, न ही हमे ईश्वर के पास पहुँचने की कोई जल्दी है। क्योंकि ईश्वर न तो स्वर्ग में निवास करते हैं, और न ही वे किसी विशेष मन्दिर-मस्जिद, चर्च या गुरूद्वारे में कैद हैं। वे न तो जंगलों में प्राप्त हो सकते हैं, और न किसी पर्वत की गुफा में ही मिल सकते हैं। वे सर्वव्यापक हैं, प्रत्येक जीव में निवास करते हैं, प्रत्येक ' मानव-शारीर ', ही ईश्वर का एक ' मन्दिर '  है। 
और यदि स्वामीजी की भाषा में कहा जाय तो प्रत्येक ' मानव-शरीर ' समस्त  " मन्दिरों का ताजमहल " है ! उन्होंने हमें आदेश दिया है कि हमलोग वहीँ( मानव-देह रूपी देवालय में ही ) उनकी उपासना करें. और जरा रुक कर हमलोग यह विचार तो करें, कि ईश्वर का यह चलता-फिरता मन्दिर, यह मनुष्य; कितने दुःख-कष्टों के बीच अपना जीवन बिता रहा है, केवल अज्ञान के कारण इस जगत के असंख्य बन्धनों में जकड़ा हुआ है.  
उन्हें कैसे मुक्त कराया जाय, उनको अपनी अन्तर्निहित अनन्तशक्ति के प्रति पुर्णतः जाग्रत कैसे कराया जाय ? स्वामीजी इसका अत्यन्त सरल किन्तु सटीक विश्लेषण करते हुए घोषणा करते हैं-" एक एक व्यक्ति को मिलाने से समाज बनता है, इसीलिए यदि आप एक एक व्यक्ति कोअपना जीवन-गठन करने में सहायता कर रहे हैं,
तो आप वस्तुतः सम्पूर्ण देश को जाग्रत कर रहे हैं.राष्ट्र-निर्माण का उपाय केवल " यथार्थ मनुष्यों " का निर्माण करना है.प्रत्येक व्यक्ति का जीवन यथार्थ रूप में विकसित करने के लिएकार्य करते रहना ही देश कि सर्वोच्च सेवा है."  " Society comprises of individuals; therefore,if you take care of the individual,you actually awaken the whole nation.the way to nation-building is only through the making of real men.The work for the proper development of each individual is the truest service to the nation."
स्वामीजी द्वारा प्रदत्त राष्ट्र-निर्माण सूत्र है -" Be and Make " अर्थात तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनो और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करो ! यह बिलकुल सरल फ़ॉर्मूला है। यदि हम समाज का कल्याण करना कहते हों तो हमें व्यक्ति-जीवन गठन के ऊपर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित रखना होगा। आप पूछ सकते हैं कि हमलोग कैसे किसी व्यक्ति का कल्याण कर सकते हैं ?
सामान्य रूप से हम लोग सोंचते हैं कि मनुष्य की सेवा उसके दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करके  ही की जाती है। उदहारण के लिए उसकी भौतिक आवश्यकताएँ में भोजन, वस्त्र, आवास, चिकत्सा-सुविधा आदि को ले सकते हैं। निश्चित रूप से सार्वभौमिक रूप से किसी भी समाज में ये ही बुनियादी मानवीय आवश्यकताएँ हैं, इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
किन्तु इन मूलभूत आवश्यकताओं की देखभाल करने के लिए व्यापक सरकारी-तन्त्र है,  तथा कई प्रकार की राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्थाएँ N.G. O आदि हैं , जो इस प्रकार के सेवा कार्य में लगी हुई हैं। किन्तु थोड़ी गहराई से विचार-विश्लेषण करने पर यह तथ्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है, कि जब तक हम मनुष्य को
उसके खोये हुए व्यक्तित्व को वापस दिलाने के लिए - मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण के कार्य का देश-व्यापी प्रयत्न नहीं करते, इन भौतिक-प्रावधानों का कितना भी प्रबन्ध क्यों न करा दिया जाय, जनता की मूलभूत
आवश्यकताओं का यथार्थतः समाधान नहीं हो सकता।
इन ६३ वर्षों में भारत को यथेष्ट रूप से इन कड़वी सच्चाईयों का अनुभव हो चूका है कि - भारत की जनता को यथार्थ मनुष्य बनाये बिना या चरित्र गठित किये बिना, वे अपने कल्याण के लिए मिलने वाली इन भौतिक सेवाओं का न तो समुचित लाभ ही उठा सकेंगे, और न ही उन प्रावधानों को सुरक्षित रख पाने में ही समर्थ हो सकेंगे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से लेकर विगत ६३ तक इस तरह की परियोजनाओं पर अरबों-खरबों रूपए खर्च किये जा चुके हैं, तब भी आम जनता को अब तक कोई विशेष फायदा नहीं पहुँचा है। (वर्ल्ड हंगर इंडेक्स के अनुसार अब भी भारत में प्रतिवर्ष पचहत्तर हजार मनुष्य भूख और कुपोषण के कारण मर जाते हैं.)
अतः इतने वर्षों के अनुभव से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जब तक हम यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करने में सफलता नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक किसी भी परिमाण में दी जानी वाली भौतिक प्रावधानों से मनुष्यों की सेवा करने में हम सफल नही हो सकते. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द की योजना थी कि सम्पूर्ण भारत में - ब्रह्मपुत्र से लेकर सिन्धु तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक,' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' (Man-Making Education Centers ) का जाल बिछा दिया जाय। तथापि स्वाधीन भारत में अभी तक इस दिशा में, उनके परामर्श को अमल में लाने की कोई भी चेष्टा नहीं की गयी है।
निःसन्देह इतने महत्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा के लिए वे लोग ही जिम्मेवार हैं, जो " सत्तापरिवर्तन की प्रक्रिया " (वोट-बैंक की राजनीती) के द्वारा बारी- बारी से सत्ता की कुर्सी को हथियाते रहते हैं। किन्तु आजादी के बाद से किसी भी नेता या दल ने ' मनुष्य-निर्माण और राष्ट्रीय-चरित्र गठन '  करने के लिए ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' का प्रारम्भ करने की दिशा में स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त," व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया" की दशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ाया है। क्योंकि अधिकांश राजनीतिज्ञ स्वार्थपरायण होते हैं- और 'राजनीती' को एक हथियार जैसा अपने उपयोग में लाते हैं। अधिकांश राजनीतिज्ञ राजनीती को एक व्यवसाय मानते हैं, और स्वयं को ' जनता का सेवक ' न मानकर, अपने को ' जन-प्रतिनिधि ' मानते है, और लाल-बत्ती की गाड़ियों में बैठ कर अपना रौब गाँठने तथा केवल अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही राजनीती करते है.
किन्तु इसके लिए समान रूप से हम लोग भी जिम्मेवार हैं, क्योंकि राज्य की व्यवस्था चलाने के लिए हम लोग ही तो उनको वोट देते हैं, और जाति-धर्म के नाम पर ऐसे लोभी-स्वार्थी, अपराधी लोगों को भी सत्ता की कुर्सी - सौंप देते हैं। हमलोग ऐसा इसीलिए करते हैं, क्योंकि हमलोग सही रूप से शिक्षित नहीं हैं। हमलोगों के पास डिग्रियां तो हैं, किन्तु हम सही रूप से शिक्षित नहीं हैं क्योंकि, हमलोगों ने अभी तक अपने सच्चे पुरुषार्थ की शक्ति को अभिव्यक्त नहीं किया है। हमारे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष ! धर्म को जीवन में धारण करके त्याग पूर्वक अर्थ और काम का भोग करते हुए, कैसे चरम उपलब्धी-'मोक्ष' तक को प्राप्त किया जाता है, अपने पूर्वजों की इस विद्या को हमने भुला दिया है। मन को एकाग्र कर के हृदय की वास्तविक शक्ति - प्रेम को अभिव्यक्त करने का तरीका नहीं सीखाया गया है। क्योंकि, अपने बच्चों को हमने यह नहीं सिखाया है कि ऊँचे ओहदों पर बैठने, ऊँची डिग्रियां प्राप्त करने, और पर्याप्त धन अर्जित करना ही सबकुछ नहीं है, हमें अपने देशवासियों से भी सचमुच अपने जैसा ही प्यार करना चाहिये। उसका तरीका सीखना बाकी है, इसीलिए हमलोग इतना दुःख भोग रहे हैं, और हमें इसका दण्ड अवश्य भोगना होगा। 
अतः परिस्थिति की गम्भीरता को समझ कर, बिना और अधिक देरी किये, तत्काल, अपने जीवन और चरित्र को गढने के उद्देश्य से, स्वयं को सही रूप से शिक्षित करने के कार्य में कूद पड़ना चाहिए ! ताकि हमलोग भारत माता और उसके संतानों के प्रति अपने अन्तर्निहित प्रचण्ड प्रेम को प्रकट कर सकें. अरे, हमलोग तो स्वयं से भी सच्चे अर्थों में प्रेम नहीं कर सकते, और इसीलिए हमलोग अपने कल्याण का वास्तविक अर्थ समझ पाने में भी नाकाम हो जाते हैं. अपने अन्तर्निहित इस प्रचण्ड-प्रेम की शक्ति को प्रकट करने तरीका सीखना ही, भारत-निर्माण का प्रथम उचित-कदम होना चाहिए.
यदि हमलोग अकेले ही, इस  कार्य को करने का प्रयास करेंगे, तो वर्तमान में जैसा सामाजिक परिवेश है, वह अतिशीघ्र ही हमारे सारे उत्साह के ज्वार को भाटा में परिणत कर देगा। हमारा सम्पूर्ण प्रयास या उद्दम ही विफलता के रूप समाप्त होने के खतरे में पड़ जायेगा. अतः अनिवार्य रूप से इस कार्य का प्रारम्भ हमें संगठित रीती से, या संगठन बना कर ही करना होगा. इसीलिए स्वामीजी ने कहा था - " ईच्छा-शक्ति के संचय, आपसी तालमेल, जैसा पूर्व में था (देवता लोग एक-मन होकर सारे कार्य करते थे ), पुनः हम सभी भारत-वासियों (देव-देवियों ) को मिल-जुल कर एक ही उद्देश्य, " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-गठन " के कार्य पर अपना सारा ध्यान संकेन्द्रित करना होगा !" " संगठित- कार्यवाही की अनिवार्यता " का स्पष्ट रूप से वर्णन करने में स्वामीजी कभी थकते नहीं थे. उन्होंने स्पष्ट रूप से समझया था- 
" No great work can be done without
this Centralization of Individual-forces ! "
 
" इस वैयक्तिक- शक्तियों का केन्द्रीकरण किये बिना
कोई भी महान कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सकता है !" 
स्वामी विवेकानन्द के इसी विचार को राष्ट्रव्यापी स्तर पर कार्यान्वित करने के उद्देश्य से १९६७ में ही ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' की स्थापना हुई थी. विगत ४४ वर्षों से लगातार इस दिशा में प्रयासरत रहने के बावजूद अभीतक बहुत थोड़ी सी सफलता ही हाँसिल हो सकी है. सम्पूर्ण भारत वर्ष में ऐसे हजारों-हजार केंद्र अवश्य बनने चाहिए जहाँ युवाओं को जीवन का अर्थ एवं उद्देश्य को समझने, एवं जीवन-गठन करने की सम्पूर्ण-पद्धति से अवगत होने में सहायता मिल सकती हो.
स्वामीजी के विचारों को व्यावहारिक जीवन में अपनाने और सही ढंग से अपना जीवन गठित करने में युवाओं की सहायता अवश्य करनी चाहिए, ताकि वे अपना जीवन सही ढंग से गठित कर के अपनी समस्त उर्जा को राष्ट्र को सम्पूर्ण- जाग्रत करने के कार्य में नियोजित कर सकें, उन्हें स्वामीजी की योजना - " Be and Make " के कार्य को भारत के द्वार-द्वार तक पहुँचा देने में अवश्य ही सहायता करनी चाहिए.
अतः इस संगठन का प्रधान कार्य है, युवा लोग जहाँ कहीं भी एकत्र होते हों वहीँ पहुँच कर, वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में 'मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ' के जीवनदायी विचारों से जोड़ कर, इसे बाहर से परिपूर्ण कर देना, जिस शिक्षा को प्राप्त करने से उन्हें विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के स्तर तक महरूम ही रखा जाता है. विगत ४४ वर्षों से हमलोग इसी दिशा में प्रयासरत हैं. इन वर्षों में हमारे संगठन के ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' की संख्या बढती गयी है, हांलाकि इसकी गति धीमी है, फिर भी वर्तमान समय में इस संगठन के २८० से भी अधिक केंद्र भारत के १२ राज्यों में सक्रिय रूप से कार्यरत हैं. 
कुछ युवक गण इस कार्य में योगदान करने हेतु आगे आये हैं, और उन लोगों ने पवित्रता, प्रेम तथा जनमानस की सम्मिलित शक्ति पर श्रद्धा करना सीखा है. युवा प्रशिक्षण शिविरों में लगातार युवाओं की बढती हुई संख्या ने स्वामीजी द्वारा प्रस्तावित चरित्र-निर्माण पद्धति की क्षमता के ऊपर हमारे मन में पूर्ण-विश्वास उत्पन्न कर दिया है. अब हमलोग पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते है कि यदि हम केवल उनके विचारों को निष्ठांपूर्वक प्रयोग में लायें तो हम जीवन की अपरिमित सम्भाव्यताओं को प्रकट कर सकते हैं.  
और हमारा यह दृढ विश्वास है कि भारत के पुनर्निर्माण का यही एकमात्र रास्ता है। यदि हम इस परम अनिवार्य कार्य को टाल कर देश के लिए जितनी भी परियोजनाओं को लागु करने का प्रयास करेंगे, वे समस्त योजनायें विफल होने को बाध्य होंगी. ' चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' का आभाव,भ्रष्टाचार, 
आपसी फूट, हिंसा, और दंगे-फसाद को और अधिक बढ़ावा देने वाला सिद्ध होगा.            
 नोट : (यह लेख अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्विभाषी मुखपत्र VIVEK- JIVAN के अक्टूबर २००६ अंक में अंग्रेजी में प्रकाशित, सम्पादकीय का हिन्दी अनुवाद है) 

गुरुवार, 2 जून 2011

प्रवाह का परिवर्तन

 कोई भी मनुष्य इस बात को दावे के साथ नहीं कह सकता कि इस जगत की सृष्टि किस प्रकार हुई होगी, जीवन कहाँ से आ गया, मनुष्य का आविर्भाव हुआ तो कैसे और कहाँ से ?  फिर भी वास्तविकता तो यही है कि यह जगत दृष्टिगोचर हो रहा है, हमलोगों का अस्तित्व है तथा जीवन भी है। हमलोगों को सुख-दुःख का अनुभव होता है, सुख की अनुभूति मनोहारी लगती है, पर दुःख से वितृष्णा होती है। हमलोग जीवित रहना चाहते हैं, तथा इसके विपरीत वस्तुओं को देखने के बाद भी चिरकाल तक जीवित रहने की आकांक्षा रखते हैं।
हमलोग जीवित रहने के लिए कितनी ही चेष्टाएँ करते हैं, तथा जिस वस्तु से भी हमारे जीवन पर खतरा महसूस होता है, उसके साथ युद्ध करने को प्रवृत हो जाते हैं. हमलोग सुख देने वाले पदार्थों का अन्वेषण करते हैं. दुःख से छुटकारा पाना चाहते हैं किन्तु लाख प्रयास के बावजूद यदि छुटकारा न मिला तो दुःख आने पर कष्ट होता ही है. यदि हमलोग दुःख के मूल कारण को एक बार जान लें तो उसे दूर करने का संकल्प भी ले सकते हैं. किन्तु बार बार ऐसी परिस्थिति उपस्थित होते रहने पर उसके समक्ष हमारी असमर्थता ही उजागर होती है, हमलोग किसी के सर पर इसका ठीकरा फोड़ने की चेष्टा करते हैं, किन्तु इसके लिए स्वयं को कभी उत्तरदायी नहीं मानते. 
कुछ दिनों के लिए तो जीवन में सबकुछ हरा-भरा दीखता है, किन्तु बाद में क्रमशः यह बात समझ में आने लगती है कि इसका सबकुछ सुखकर नहीं है. जबतक दुःख सीमा से अधिक नहीं बढ़ जाता, जीवन मधुमय ही प्रतीत होता है. किन्तु सुख-दुःख के पलड़ा जब दुःख कि ओर अधिक झुक जाता है, तब यह जीवन असहनीय प्रतीत होने लगता है. सहजात धारणा अथवा अयौक्तिक मान्यताओं के आधार पर हमलोग यही समझते रहते हैं, कि यह जगत हमारे लिए ही सृष्ट हुआ था, हमलोग इस जगत के लिए सृष्ट नहीं हुए हैं.
इसीलिए हमलोगों की युक्ति के अनुसार जगत का एकमात्र उद्देश्य तो यही हो सकता है कि यह हमें सुख में रखे तथा हमें जीवित रखने में सहायक सिद्ध हो. इसीलिए हमलोग पुरे दावे के साथ यही घोषणा करते हैं कि हम यहाँ जो भी दुःख-कष्ट पाते हैं, उसके लिए जगत की कर्तव्यहीनता या अवहेलना ही उत्तरदायी है. हमलोग जगत पर क्रुद्ध हो जाते हैं, तथा उसको दण्ड के लिए उस पर आघात करने की चेष्टा करते हैं. किन्तु उसपर एक खरोंच भी नहीं लगापाते, क्योंकि यह जगत बहुत बड़ा और कठोर भी है. 
हमलोगों के भीतर चलते रहने की या आगे की ओर बढ़ते रहने की एक स्वतः-स्फूर्त प्रेरणा रहती है. किन्तु जब चलने लगते हैं तो, यह अनुभव होता है मानो हम स्वयं से ही दूर होते जा रहे हैं, और हमें यह रुचिकर नहीं लगता. इसका कारण है कि,  जन्मजात रूप से हमलोग स्वयं को ही सबकुछ से ज्यादा प्यार करते हैं. इसीलिए हमारे चलने के मार्ग को मानो कोई अदृश्य शक्ति मोड़ देने की चेष्टा करती रहती है, और धीरे धीरे हमारा वह पथ वृत्ताकार में परिणत हो जाता है. और अन्ततः हम पाते हैं कि, वास्तव में हमतो अपने ही चारोओर चक्कर लगा रहे हैं. क्योंकि हम यही समझ लेते हैं कि, जगत का केंद्र-बिन्दु मेरे ही भीतर है, और फिर हमलोग ' अहम् - सर्वस्व मनुष्य ' अथवा एक 
' आत्मकेन्द्रित-मनुष्य ' के रूप में परिणत हो जाते हैं.
और यह अनुमान लगा कर कि, जगत के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र (या भार-केंद्र ) मेरा यह ' मैं ' -केन्द्र ही होगा, हम एक ग़लतफ़हमी पाल लेते हैं, कि लगता है मेरे हटते ही यह जगत भी जैसे टूट-फूट कर समाप्त हो जायेगा ! जगत के प्रति हमलोगों के भीतर सर्वदा ही एक क्रिया-प्रतिक्रिया का भाव उठता रहता है. मानो एक उभय-मुखी प्रवाह सदा ही प्रवाहित होता रहता है- जिसकी गति हमलोगों की ओर से जगत की ओर प्रवाहित रहती है, और जगत की ओर से हमलोगों की ओर. अपने मन की कामनाओं -वासनाओं को पूरा करने के लिए हमलोग ईच्छा-शक्ति के रूप में जगत की ओर उत्क्षेप करते रहते हैं, नाना-प्रकार के भोग-सुख पाने की फरमाइश जगत के समक्ष भेजते हैं, और जगत भी उस लालच को पूरा करने में सहयोग करता रहता है, हमलोग भी खुश होते रहते हैं.
  किन्तु कोई साधारण सी वस्तु भी यदि चाहने पर नहीं मिली, उदहारण के लिए मान लो - कोई अच्छी सी बात ही सुनने को न मिले तो हमारा मूड ही बिगड़ जाता है. सारे ' विवेकजन्य- संकोच ' को ताक पर रख कर, हमलोग उपाय ढूंढ़ते रहते हैं,  कि मन जिस वस्तु को पाना चाह रहा है, उसे कैसे भी प्राप्त कर लूँ ! कभी कभी तो चाह कर या या कभी बिना चाहे ही जगत की ओर से इतना सबकुछ मिल जाता है, कि हमलोगों के सुखानुभव की क्षमता के ऊपर ही अत्यधिक दबाव बढ़ जाता है. और तब हमारी ख़ुशी भी अब ख़ुशी नहीं रह जाती, सारा जीवन एक बोझ जैसा बन जाता है. घोर ' अभाव और प्राचूर्य ' दोनों ही अवस्थाएँ असहनीय हैं, एक रूप में नहीं और एक रूप में दोनों वेदना दायक हैं. इसीलिए दुःख का बोझ भी बढ़ता रहता है, और अन्तिम समय में यह जगत भी अभिशाप के जैसा प्रतीत होने लगता है. 
किन्तु स्वाभाविक रूप से ये आघात कहाँ से आ रहे हैं, हमलोग जान भी नहीं पाते. हमलोग ठीक से यह नहीं जानते कि हमलोगों के दुःख-कष्ट का यथार्थ उत्तरदायी कौन है. जीवन से दुःख-कष्टों को दूर करने का एकमात्र उपाय यह है कि हमलोग अपना दोष देखें, और यह समझने की चेष्टा करें कि जगत और हमारे बीच जो क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रवाह का गति-मुख है वह किस दिशा में है, क्योंकि हमलोगों की दुर्गति का कारण उसी पर निर्भर करता है. हमलोगों का दोष यही है,कि हम इस प्रवाह की दिशा पर अपनी नजर नहीं रखते हैं. जब हम इस कारण को जान लेंगें तब तो इसे दूर करना आवश्यक हो जायेगा, और इसका उपाय है प्रवाह की धारा का मुख ही परिवर्तित कर दिया जाय. 
हर समय ग्रहीता ( माँगने वाला ) बने न रहकर, हमलोगों को ' दाता ' (देने वाला ) बनने का कौशल सीखना होगा. हमारी कामना ऐसी हो जाये कि जगत हमसे चाहे और हमलोग उसके अभाव को दूर करते रहें. हमलोग संवेदनशील बनेंगे, जगत की ओर से आती हुई आर्तनाद के कम्पन को अपने संवेदनशील ह्रदय से सुनेंगे, और यह इतना स्वभावसिद्ध होगा कि किसी की सहायता की पुकार सुनते ही उसे ऊपर उठाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा देंगे. और केवल तभी संसार के दुःख-कष्ट हमें पीड़ित नहीं कर पाएंगे, जीवित रहने के आनन्द को ढूंढ़ कर पहचान लेंगे. तब निम्नलिखित पंक्तियों में श्रीमदभागवत में सार्थक-जीवन का जो अर्थ कहा गया है उसका मर्म हमारी समझ में भी आजायेगा - 
एतावत जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषू |
                       प्राणाः अर्थयेधिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा ||                          
" - इस जगत में शरीरधारियों के जीवन की साफल्य-सीमा है : समस्त देहधारियों के लिए अपने प्राण-अर्थ- बुद्धि और वचनों से निरन्तर कल्याणकारी कर्मों को करते रहना."
अब हमलोग जगत की ओर इस दृष्टि से नहीं देखेंगे कि यह हमें अपने दुःख-कष्टों को दूर करने में सहायता करेगा. बल्कि अब हम यह जान लेंगे कि दुःख-कष्ट एवं समस्त प्रकार के अभावों को दूर करने का उपाय हमारे ही भीतर में है.  बस हमें केवल ' माँगने और देने ' के प्रवाह की धारा को पलट देना होगा, और इस कौशल में सीद्ध होते ही सदा के लिए हमारे दुखों का अवसान हो जायेगा. जगत को त्याग नहीं करना होगा. हमलोग जगत में रह सकते हैं, किन्तु जगत का दास बन कर नहीं रहना होगा. यदि हमलोग जगत के ऊपर निर्भर न रहें, तो जगत हमारे ऊपर निर्भर रहना सीख लेगा, क्योंकि तब हमलोग यह जान लेंगे कि बिना बदले में कुछ भी प्राप्त करने की प्रत्याशा रखे दिया कैसे जाता है, तब हमलोग केवल देना जानेंगे वापस पाना नहीं .
  जगत के साथ देने और लेने का जो प्रवाह है उसको विपरीत-मुखी बना देने से ही धर्म या आध्यात्मिक उन्नति का प्रारम्भ होता है. शंकराचार्य ने कहा है- ' प्रतिश्रोतप्रवर्तनमिव ' | अर्थात प्रवाह के  श्रोत को विपरीतमुखी बना लेना. महाभारत में कहा गया है- 
" आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथ्वी मम | 
यथा मम तथन्येषामिति चिन्ता न मे व्यथा || " 
" - या तो मेरा अहंकार भी मेरा नहीं है, या फिर समस्त पृथ्वी ही मेरी है. यह उक्ति जिस प्रकार मेरे लिए ठीक है, उसी प्रकार दूसरों के लिए भी ठीक है. इस उक्ति का मर्म समझ लेने पर मेरे लिए व्यथा या दुःख नाम का कुछ भी नहीं है. " 
(यह लेख अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्विभाषी मुख-पत्र " VIVEK - JIVAN "   के मार्च १९९१ में छपे बंगला संपादकीय का हिंदी अनुवाद है- संपादक ' विवेक-अंजन '.)