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गुरुवार, 2 जून 2011

प्रवाह का परिवर्तन

 कोई भी मनुष्य इस बात को दावे के साथ नहीं कह सकता कि इस जगत की सृष्टि किस प्रकार हुई होगी, जीवन कहाँ से आ गया, मनुष्य का आविर्भाव हुआ तो कैसे और कहाँ से ?  फिर भी वास्तविकता तो यही है कि यह जगत दृष्टिगोचर हो रहा है, हमलोगों का अस्तित्व है तथा जीवन भी है। हमलोगों को सुख-दुःख का अनुभव होता है, सुख की अनुभूति मनोहारी लगती है, पर दुःख से वितृष्णा होती है। हमलोग जीवित रहना चाहते हैं, तथा इसके विपरीत वस्तुओं को देखने के बाद भी चिरकाल तक जीवित रहने की आकांक्षा रखते हैं।
हमलोग जीवित रहने के लिए कितनी ही चेष्टाएँ करते हैं, तथा जिस वस्तु से भी हमारे जीवन पर खतरा महसूस होता है, उसके साथ युद्ध करने को प्रवृत हो जाते हैं. हमलोग सुख देने वाले पदार्थों का अन्वेषण करते हैं. दुःख से छुटकारा पाना चाहते हैं किन्तु लाख प्रयास के बावजूद यदि छुटकारा न मिला तो दुःख आने पर कष्ट होता ही है. यदि हमलोग दुःख के मूल कारण को एक बार जान लें तो उसे दूर करने का संकल्प भी ले सकते हैं. किन्तु बार बार ऐसी परिस्थिति उपस्थित होते रहने पर उसके समक्ष हमारी असमर्थता ही उजागर होती है, हमलोग किसी के सर पर इसका ठीकरा फोड़ने की चेष्टा करते हैं, किन्तु इसके लिए स्वयं को कभी उत्तरदायी नहीं मानते. 
कुछ दिनों के लिए तो जीवन में सबकुछ हरा-भरा दीखता है, किन्तु बाद में क्रमशः यह बात समझ में आने लगती है कि इसका सबकुछ सुखकर नहीं है. जबतक दुःख सीमा से अधिक नहीं बढ़ जाता, जीवन मधुमय ही प्रतीत होता है. किन्तु सुख-दुःख के पलड़ा जब दुःख कि ओर अधिक झुक जाता है, तब यह जीवन असहनीय प्रतीत होने लगता है. सहजात धारणा अथवा अयौक्तिक मान्यताओं के आधार पर हमलोग यही समझते रहते हैं, कि यह जगत हमारे लिए ही सृष्ट हुआ था, हमलोग इस जगत के लिए सृष्ट नहीं हुए हैं.
इसीलिए हमलोगों की युक्ति के अनुसार जगत का एकमात्र उद्देश्य तो यही हो सकता है कि यह हमें सुख में रखे तथा हमें जीवित रखने में सहायक सिद्ध हो. इसीलिए हमलोग पुरे दावे के साथ यही घोषणा करते हैं कि हम यहाँ जो भी दुःख-कष्ट पाते हैं, उसके लिए जगत की कर्तव्यहीनता या अवहेलना ही उत्तरदायी है. हमलोग जगत पर क्रुद्ध हो जाते हैं, तथा उसको दण्ड के लिए उस पर आघात करने की चेष्टा करते हैं. किन्तु उसपर एक खरोंच भी नहीं लगापाते, क्योंकि यह जगत बहुत बड़ा और कठोर भी है. 
हमलोगों के भीतर चलते रहने की या आगे की ओर बढ़ते रहने की एक स्वतः-स्फूर्त प्रेरणा रहती है. किन्तु जब चलने लगते हैं तो, यह अनुभव होता है मानो हम स्वयं से ही दूर होते जा रहे हैं, और हमें यह रुचिकर नहीं लगता. इसका कारण है कि,  जन्मजात रूप से हमलोग स्वयं को ही सबकुछ से ज्यादा प्यार करते हैं. इसीलिए हमारे चलने के मार्ग को मानो कोई अदृश्य शक्ति मोड़ देने की चेष्टा करती रहती है, और धीरे धीरे हमारा वह पथ वृत्ताकार में परिणत हो जाता है. और अन्ततः हम पाते हैं कि, वास्तव में हमतो अपने ही चारोओर चक्कर लगा रहे हैं. क्योंकि हम यही समझ लेते हैं कि, जगत का केंद्र-बिन्दु मेरे ही भीतर है, और फिर हमलोग ' अहम् - सर्वस्व मनुष्य ' अथवा एक 
' आत्मकेन्द्रित-मनुष्य ' के रूप में परिणत हो जाते हैं.
और यह अनुमान लगा कर कि, जगत के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र (या भार-केंद्र ) मेरा यह ' मैं ' -केन्द्र ही होगा, हम एक ग़लतफ़हमी पाल लेते हैं, कि लगता है मेरे हटते ही यह जगत भी जैसे टूट-फूट कर समाप्त हो जायेगा ! जगत के प्रति हमलोगों के भीतर सर्वदा ही एक क्रिया-प्रतिक्रिया का भाव उठता रहता है. मानो एक उभय-मुखी प्रवाह सदा ही प्रवाहित होता रहता है- जिसकी गति हमलोगों की ओर से जगत की ओर प्रवाहित रहती है, और जगत की ओर से हमलोगों की ओर. अपने मन की कामनाओं -वासनाओं को पूरा करने के लिए हमलोग ईच्छा-शक्ति के रूप में जगत की ओर उत्क्षेप करते रहते हैं, नाना-प्रकार के भोग-सुख पाने की फरमाइश जगत के समक्ष भेजते हैं, और जगत भी उस लालच को पूरा करने में सहयोग करता रहता है, हमलोग भी खुश होते रहते हैं.
  किन्तु कोई साधारण सी वस्तु भी यदि चाहने पर नहीं मिली, उदहारण के लिए मान लो - कोई अच्छी सी बात ही सुनने को न मिले तो हमारा मूड ही बिगड़ जाता है. सारे ' विवेकजन्य- संकोच ' को ताक पर रख कर, हमलोग उपाय ढूंढ़ते रहते हैं,  कि मन जिस वस्तु को पाना चाह रहा है, उसे कैसे भी प्राप्त कर लूँ ! कभी कभी तो चाह कर या या कभी बिना चाहे ही जगत की ओर से इतना सबकुछ मिल जाता है, कि हमलोगों के सुखानुभव की क्षमता के ऊपर ही अत्यधिक दबाव बढ़ जाता है. और तब हमारी ख़ुशी भी अब ख़ुशी नहीं रह जाती, सारा जीवन एक बोझ जैसा बन जाता है. घोर ' अभाव और प्राचूर्य ' दोनों ही अवस्थाएँ असहनीय हैं, एक रूप में नहीं और एक रूप में दोनों वेदना दायक हैं. इसीलिए दुःख का बोझ भी बढ़ता रहता है, और अन्तिम समय में यह जगत भी अभिशाप के जैसा प्रतीत होने लगता है. 
किन्तु स्वाभाविक रूप से ये आघात कहाँ से आ रहे हैं, हमलोग जान भी नहीं पाते. हमलोग ठीक से यह नहीं जानते कि हमलोगों के दुःख-कष्ट का यथार्थ उत्तरदायी कौन है. जीवन से दुःख-कष्टों को दूर करने का एकमात्र उपाय यह है कि हमलोग अपना दोष देखें, और यह समझने की चेष्टा करें कि जगत और हमारे बीच जो क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रवाह का गति-मुख है वह किस दिशा में है, क्योंकि हमलोगों की दुर्गति का कारण उसी पर निर्भर करता है. हमलोगों का दोष यही है,कि हम इस प्रवाह की दिशा पर अपनी नजर नहीं रखते हैं. जब हम इस कारण को जान लेंगें तब तो इसे दूर करना आवश्यक हो जायेगा, और इसका उपाय है प्रवाह की धारा का मुख ही परिवर्तित कर दिया जाय. 
हर समय ग्रहीता ( माँगने वाला ) बने न रहकर, हमलोगों को ' दाता ' (देने वाला ) बनने का कौशल सीखना होगा. हमारी कामना ऐसी हो जाये कि जगत हमसे चाहे और हमलोग उसके अभाव को दूर करते रहें. हमलोग संवेदनशील बनेंगे, जगत की ओर से आती हुई आर्तनाद के कम्पन को अपने संवेदनशील ह्रदय से सुनेंगे, और यह इतना स्वभावसिद्ध होगा कि किसी की सहायता की पुकार सुनते ही उसे ऊपर उठाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा देंगे. और केवल तभी संसार के दुःख-कष्ट हमें पीड़ित नहीं कर पाएंगे, जीवित रहने के आनन्द को ढूंढ़ कर पहचान लेंगे. तब निम्नलिखित पंक्तियों में श्रीमदभागवत में सार्थक-जीवन का जो अर्थ कहा गया है उसका मर्म हमारी समझ में भी आजायेगा - 
एतावत जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषू |
                       प्राणाः अर्थयेधिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा ||                          
" - इस जगत में शरीरधारियों के जीवन की साफल्य-सीमा है : समस्त देहधारियों के लिए अपने प्राण-अर्थ- बुद्धि और वचनों से निरन्तर कल्याणकारी कर्मों को करते रहना."
अब हमलोग जगत की ओर इस दृष्टि से नहीं देखेंगे कि यह हमें अपने दुःख-कष्टों को दूर करने में सहायता करेगा. बल्कि अब हम यह जान लेंगे कि दुःख-कष्ट एवं समस्त प्रकार के अभावों को दूर करने का उपाय हमारे ही भीतर में है.  बस हमें केवल ' माँगने और देने ' के प्रवाह की धारा को पलट देना होगा, और इस कौशल में सीद्ध होते ही सदा के लिए हमारे दुखों का अवसान हो जायेगा. जगत को त्याग नहीं करना होगा. हमलोग जगत में रह सकते हैं, किन्तु जगत का दास बन कर नहीं रहना होगा. यदि हमलोग जगत के ऊपर निर्भर न रहें, तो जगत हमारे ऊपर निर्भर रहना सीख लेगा, क्योंकि तब हमलोग यह जान लेंगे कि बिना बदले में कुछ भी प्राप्त करने की प्रत्याशा रखे दिया कैसे जाता है, तब हमलोग केवल देना जानेंगे वापस पाना नहीं .
  जगत के साथ देने और लेने का जो प्रवाह है उसको विपरीत-मुखी बना देने से ही धर्म या आध्यात्मिक उन्नति का प्रारम्भ होता है. शंकराचार्य ने कहा है- ' प्रतिश्रोतप्रवर्तनमिव ' | अर्थात प्रवाह के  श्रोत को विपरीतमुखी बना लेना. महाभारत में कहा गया है- 
" आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथ्वी मम | 
यथा मम तथन्येषामिति चिन्ता न मे व्यथा || " 
" - या तो मेरा अहंकार भी मेरा नहीं है, या फिर समस्त पृथ्वी ही मेरी है. यह उक्ति जिस प्रकार मेरे लिए ठीक है, उसी प्रकार दूसरों के लिए भी ठीक है. इस उक्ति का मर्म समझ लेने पर मेरे लिए व्यथा या दुःख नाम का कुछ भी नहीं है. " 
(यह लेख अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्विभाषी मुख-पत्र " VIVEK - JIVAN "   के मार्च १९९१ में छपे बंगला संपादकीय का हिंदी अनुवाद है- संपादक ' विवेक-अंजन '.)  

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