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शनिवार, 4 जून 2011

आह्वान का प्रतिउत्तर दो !

भारत के युवाओं, स्वामी विवेकानन्द तुम्हें पुकार रहे हैं, उनके आह्वान का प्रतिउत्तर दो ! किसी अन्य व्यक्ति (क्षद्म-भेषी स्वामी) के आह्वान को सुनकर दिग्भ्रमित मत होना. किसी दूसरी दिशा से आने वाले आह्वान पर ध्यान देने से न तो तुम्हारा कुछ भला होगा और न देश का ही. केवल स्वामीजी के आह्वान को ही अपने ह्रदय में प्रविष्ट होने दो. मोहनिद्रा के व्यामोह से स्वयं को जाग्रत करो, सभी प्रकार की दुर्बलताओं (नाम-यश पाने की वासना को भी) अपने मन से बहार निकाल दो.
अपनी अन्तर्निहित शक्ति (दिव्यता-पवित्रता) को अभिव्यक्त करो तथा महामण्डल द्वारा संचालित " मनुष्य-निर्माणकारी एवं चरित्र-निर्माणकारी " आन्दोलन के पहियों में गति देने हेतु अपने कन्धों को भिड़ा दो. हमें अपनी प्यारी मातृभूमि के लिए अवश्य कार्य करना है. स्मरण रखो कि स्वामीजी अपने देशवासियों और अपनी मातृभूमि को  कितनी सिद्दत के साथ प्रेम करते थे.
मनुष्यों के बीच रहने वाला यह ' नरसिंह ' अपने देश के पीड़ित-वंचित मनुष्यों के लिए आँसू बहाया करते थे. उन्होंने अपने लिए कभी कुछ नहीं चाह था- वे अपने लिए सुख और धन तो क्या नाम-यश पाना भी नहीं चाहते थे. वे मानवमात्र को प्यार करते थे तथा चाहेथे कि सभी मनुष्य " यथार्थ मनुष्य " बने, अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे, आत्मविश्वासी और साहसी बने,  निर्भय होकर अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हो जाय; ताकि आवश्यकता पड़ने पर सार्वलौकिक कल्याण के लिए अपना सबकुछ  न्योछावर कर सके. 
हमारा यह पावन कर्तव्य है कि हम इस देश के प्रत्येक व्यक्ति के उन्नति के लिए समर्पित होकर कार्य करें. वस्तुतः यही हमारा नियत कर्म है। हम अपने लिए न तो मुक्ति की कामना करते हैं, न ही हमे ईश्वर के पास पहुँचने की कोई जल्दी है। क्योंकि ईश्वर न तो स्वर्ग में निवास करते हैं, और न ही वे किसी विशेष मन्दिर-मस्जिद, चर्च या गुरूद्वारे में कैद हैं। वे न तो जंगलों में प्राप्त हो सकते हैं, और न किसी पर्वत की गुफा में ही मिल सकते हैं। वे सर्वव्यापक हैं, प्रत्येक जीव में निवास करते हैं, प्रत्येक ' मानव-शारीर ', ही ईश्वर का एक ' मन्दिर '  है। 
और यदि स्वामीजी की भाषा में कहा जाय तो प्रत्येक ' मानव-शरीर ' समस्त  " मन्दिरों का ताजमहल " है ! उन्होंने हमें आदेश दिया है कि हमलोग वहीँ( मानव-देह रूपी देवालय में ही ) उनकी उपासना करें. और जरा रुक कर हमलोग यह विचार तो करें, कि ईश्वर का यह चलता-फिरता मन्दिर, यह मनुष्य; कितने दुःख-कष्टों के बीच अपना जीवन बिता रहा है, केवल अज्ञान के कारण इस जगत के असंख्य बन्धनों में जकड़ा हुआ है.  
उन्हें कैसे मुक्त कराया जाय, उनको अपनी अन्तर्निहित अनन्तशक्ति के प्रति पुर्णतः जाग्रत कैसे कराया जाय ? स्वामीजी इसका अत्यन्त सरल किन्तु सटीक विश्लेषण करते हुए घोषणा करते हैं-" एक एक व्यक्ति को मिलाने से समाज बनता है, इसीलिए यदि आप एक एक व्यक्ति कोअपना जीवन-गठन करने में सहायता कर रहे हैं,
तो आप वस्तुतः सम्पूर्ण देश को जाग्रत कर रहे हैं.राष्ट्र-निर्माण का उपाय केवल " यथार्थ मनुष्यों " का निर्माण करना है.प्रत्येक व्यक्ति का जीवन यथार्थ रूप में विकसित करने के लिएकार्य करते रहना ही देश कि सर्वोच्च सेवा है."  " Society comprises of individuals; therefore,if you take care of the individual,you actually awaken the whole nation.the way to nation-building is only through the making of real men.The work for the proper development of each individual is the truest service to the nation."
स्वामीजी द्वारा प्रदत्त राष्ट्र-निर्माण सूत्र है -" Be and Make " अर्थात तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनो और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करो ! यह बिलकुल सरल फ़ॉर्मूला है। यदि हम समाज का कल्याण करना कहते हों तो हमें व्यक्ति-जीवन गठन के ऊपर ही अपना पूरा ध्यान केन्द्रित रखना होगा। आप पूछ सकते हैं कि हमलोग कैसे किसी व्यक्ति का कल्याण कर सकते हैं ?
सामान्य रूप से हम लोग सोंचते हैं कि मनुष्य की सेवा उसके दैनंदिन जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करके  ही की जाती है। उदहारण के लिए उसकी भौतिक आवश्यकताएँ में भोजन, वस्त्र, आवास, चिकत्सा-सुविधा आदि को ले सकते हैं। निश्चित रूप से सार्वभौमिक रूप से किसी भी समाज में ये ही बुनियादी मानवीय आवश्यकताएँ हैं, इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
किन्तु इन मूलभूत आवश्यकताओं की देखभाल करने के लिए व्यापक सरकारी-तन्त्र है,  तथा कई प्रकार की राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संस्थाएँ N.G. O आदि हैं , जो इस प्रकार के सेवा कार्य में लगी हुई हैं। किन्तु थोड़ी गहराई से विचार-विश्लेषण करने पर यह तथ्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है, कि जब तक हम मनुष्य को
उसके खोये हुए व्यक्तित्व को वापस दिलाने के लिए - मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण के कार्य का देश-व्यापी प्रयत्न नहीं करते, इन भौतिक-प्रावधानों का कितना भी प्रबन्ध क्यों न करा दिया जाय, जनता की मूलभूत
आवश्यकताओं का यथार्थतः समाधान नहीं हो सकता।
इन ६३ वर्षों में भारत को यथेष्ट रूप से इन कड़वी सच्चाईयों का अनुभव हो चूका है कि - भारत की जनता को यथार्थ मनुष्य बनाये बिना या चरित्र गठित किये बिना, वे अपने कल्याण के लिए मिलने वाली इन भौतिक सेवाओं का न तो समुचित लाभ ही उठा सकेंगे, और न ही उन प्रावधानों को सुरक्षित रख पाने में ही समर्थ हो सकेंगे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से लेकर विगत ६३ तक इस तरह की परियोजनाओं पर अरबों-खरबों रूपए खर्च किये जा चुके हैं, तब भी आम जनता को अब तक कोई विशेष फायदा नहीं पहुँचा है। (वर्ल्ड हंगर इंडेक्स के अनुसार अब भी भारत में प्रतिवर्ष पचहत्तर हजार मनुष्य भूख और कुपोषण के कारण मर जाते हैं.)
अतः इतने वर्षों के अनुभव से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जब तक हम यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करने में सफलता नहीं प्राप्त कर लेते, तब तक किसी भी परिमाण में दी जानी वाली भौतिक प्रावधानों से मनुष्यों की सेवा करने में हम सफल नही हो सकते. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द की योजना थी कि सम्पूर्ण भारत में - ब्रह्मपुत्र से लेकर सिन्धु तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक,' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' (Man-Making Education Centers ) का जाल बिछा दिया जाय। तथापि स्वाधीन भारत में अभी तक इस दिशा में, उनके परामर्श को अमल में लाने की कोई भी चेष्टा नहीं की गयी है।
निःसन्देह इतने महत्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा के लिए वे लोग ही जिम्मेवार हैं, जो " सत्तापरिवर्तन की प्रक्रिया " (वोट-बैंक की राजनीती) के द्वारा बारी- बारी से सत्ता की कुर्सी को हथियाते रहते हैं। किन्तु आजादी के बाद से किसी भी नेता या दल ने ' मनुष्य-निर्माण और राष्ट्रीय-चरित्र गठन '  करने के लिए ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' का प्रारम्भ करने की दिशा में स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त," व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया" की दशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ाया है। क्योंकि अधिकांश राजनीतिज्ञ स्वार्थपरायण होते हैं- और 'राजनीती' को एक हथियार जैसा अपने उपयोग में लाते हैं। अधिकांश राजनीतिज्ञ राजनीती को एक व्यवसाय मानते हैं, और स्वयं को ' जनता का सेवक ' न मानकर, अपने को ' जन-प्रतिनिधि ' मानते है, और लाल-बत्ती की गाड़ियों में बैठ कर अपना रौब गाँठने तथा केवल अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही राजनीती करते है.
किन्तु इसके लिए समान रूप से हम लोग भी जिम्मेवार हैं, क्योंकि राज्य की व्यवस्था चलाने के लिए हम लोग ही तो उनको वोट देते हैं, और जाति-धर्म के नाम पर ऐसे लोभी-स्वार्थी, अपराधी लोगों को भी सत्ता की कुर्सी - सौंप देते हैं। हमलोग ऐसा इसीलिए करते हैं, क्योंकि हमलोग सही रूप से शिक्षित नहीं हैं। हमलोगों के पास डिग्रियां तो हैं, किन्तु हम सही रूप से शिक्षित नहीं हैं क्योंकि, हमलोगों ने अभी तक अपने सच्चे पुरुषार्थ की शक्ति को अभिव्यक्त नहीं किया है। हमारे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष ! धर्म को जीवन में धारण करके त्याग पूर्वक अर्थ और काम का भोग करते हुए, कैसे चरम उपलब्धी-'मोक्ष' तक को प्राप्त किया जाता है, अपने पूर्वजों की इस विद्या को हमने भुला दिया है। मन को एकाग्र कर के हृदय की वास्तविक शक्ति - प्रेम को अभिव्यक्त करने का तरीका नहीं सीखाया गया है। क्योंकि, अपने बच्चों को हमने यह नहीं सिखाया है कि ऊँचे ओहदों पर बैठने, ऊँची डिग्रियां प्राप्त करने, और पर्याप्त धन अर्जित करना ही सबकुछ नहीं है, हमें अपने देशवासियों से भी सचमुच अपने जैसा ही प्यार करना चाहिये। उसका तरीका सीखना बाकी है, इसीलिए हमलोग इतना दुःख भोग रहे हैं, और हमें इसका दण्ड अवश्य भोगना होगा। 
अतः परिस्थिति की गम्भीरता को समझ कर, बिना और अधिक देरी किये, तत्काल, अपने जीवन और चरित्र को गढने के उद्देश्य से, स्वयं को सही रूप से शिक्षित करने के कार्य में कूद पड़ना चाहिए ! ताकि हमलोग भारत माता और उसके संतानों के प्रति अपने अन्तर्निहित प्रचण्ड प्रेम को प्रकट कर सकें. अरे, हमलोग तो स्वयं से भी सच्चे अर्थों में प्रेम नहीं कर सकते, और इसीलिए हमलोग अपने कल्याण का वास्तविक अर्थ समझ पाने में भी नाकाम हो जाते हैं. अपने अन्तर्निहित इस प्रचण्ड-प्रेम की शक्ति को प्रकट करने तरीका सीखना ही, भारत-निर्माण का प्रथम उचित-कदम होना चाहिए.
यदि हमलोग अकेले ही, इस  कार्य को करने का प्रयास करेंगे, तो वर्तमान में जैसा सामाजिक परिवेश है, वह अतिशीघ्र ही हमारे सारे उत्साह के ज्वार को भाटा में परिणत कर देगा। हमारा सम्पूर्ण प्रयास या उद्दम ही विफलता के रूप समाप्त होने के खतरे में पड़ जायेगा. अतः अनिवार्य रूप से इस कार्य का प्रारम्भ हमें संगठित रीती से, या संगठन बना कर ही करना होगा. इसीलिए स्वामीजी ने कहा था - " ईच्छा-शक्ति के संचय, आपसी तालमेल, जैसा पूर्व में था (देवता लोग एक-मन होकर सारे कार्य करते थे ), पुनः हम सभी भारत-वासियों (देव-देवियों ) को मिल-जुल कर एक ही उद्देश्य, " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-गठन " के कार्य पर अपना सारा ध्यान संकेन्द्रित करना होगा !" " संगठित- कार्यवाही की अनिवार्यता " का स्पष्ट रूप से वर्णन करने में स्वामीजी कभी थकते नहीं थे. उन्होंने स्पष्ट रूप से समझया था- 
" No great work can be done without
this Centralization of Individual-forces ! "
 
" इस वैयक्तिक- शक्तियों का केन्द्रीकरण किये बिना
कोई भी महान कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सकता है !" 
स्वामी विवेकानन्द के इसी विचार को राष्ट्रव्यापी स्तर पर कार्यान्वित करने के उद्देश्य से १९६७ में ही ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' की स्थापना हुई थी. विगत ४४ वर्षों से लगातार इस दिशा में प्रयासरत रहने के बावजूद अभीतक बहुत थोड़ी सी सफलता ही हाँसिल हो सकी है. सम्पूर्ण भारत वर्ष में ऐसे हजारों-हजार केंद्र अवश्य बनने चाहिए जहाँ युवाओं को जीवन का अर्थ एवं उद्देश्य को समझने, एवं जीवन-गठन करने की सम्पूर्ण-पद्धति से अवगत होने में सहायता मिल सकती हो.
स्वामीजी के विचारों को व्यावहारिक जीवन में अपनाने और सही ढंग से अपना जीवन गठित करने में युवाओं की सहायता अवश्य करनी चाहिए, ताकि वे अपना जीवन सही ढंग से गठित कर के अपनी समस्त उर्जा को राष्ट्र को सम्पूर्ण- जाग्रत करने के कार्य में नियोजित कर सकें, उन्हें स्वामीजी की योजना - " Be and Make " के कार्य को भारत के द्वार-द्वार तक पहुँचा देने में अवश्य ही सहायता करनी चाहिए.
अतः इस संगठन का प्रधान कार्य है, युवा लोग जहाँ कहीं भी एकत्र होते हों वहीँ पहुँच कर, वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में 'मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ' के जीवनदायी विचारों से जोड़ कर, इसे बाहर से परिपूर्ण कर देना, जिस शिक्षा को प्राप्त करने से उन्हें विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के स्तर तक महरूम ही रखा जाता है. विगत ४४ वर्षों से हमलोग इसी दिशा में प्रयासरत हैं. इन वर्षों में हमारे संगठन के ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' की संख्या बढती गयी है, हांलाकि इसकी गति धीमी है, फिर भी वर्तमान समय में इस संगठन के २८० से भी अधिक केंद्र भारत के १२ राज्यों में सक्रिय रूप से कार्यरत हैं. 
कुछ युवक गण इस कार्य में योगदान करने हेतु आगे आये हैं, और उन लोगों ने पवित्रता, प्रेम तथा जनमानस की सम्मिलित शक्ति पर श्रद्धा करना सीखा है. युवा प्रशिक्षण शिविरों में लगातार युवाओं की बढती हुई संख्या ने स्वामीजी द्वारा प्रस्तावित चरित्र-निर्माण पद्धति की क्षमता के ऊपर हमारे मन में पूर्ण-विश्वास उत्पन्न कर दिया है. अब हमलोग पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते है कि यदि हम केवल उनके विचारों को निष्ठांपूर्वक प्रयोग में लायें तो हम जीवन की अपरिमित सम्भाव्यताओं को प्रकट कर सकते हैं.  
और हमारा यह दृढ विश्वास है कि भारत के पुनर्निर्माण का यही एकमात्र रास्ता है। यदि हम इस परम अनिवार्य कार्य को टाल कर देश के लिए जितनी भी परियोजनाओं को लागु करने का प्रयास करेंगे, वे समस्त योजनायें विफल होने को बाध्य होंगी. ' चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' का आभाव,भ्रष्टाचार, 
आपसी फूट, हिंसा, और दंगे-फसाद को और अधिक बढ़ावा देने वाला सिद्ध होगा.            
 नोट : (यह लेख अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्विभाषी मुखपत्र VIVEK- JIVAN के अक्टूबर २००६ अंक में अंग्रेजी में प्रकाशित, सम्पादकीय का हिन्दी अनुवाद है) 

गुरुवार, 2 जून 2011

प्रवाह का परिवर्तन

 कोई भी मनुष्य इस बात को दावे के साथ नहीं कह सकता कि इस जगत की सृष्टि किस प्रकार हुई होगी, जीवन कहाँ से आ गया, मनुष्य का आविर्भाव हुआ तो कैसे और कहाँ से ?  फिर भी वास्तविकता तो यही है कि यह जगत दृष्टिगोचर हो रहा है, हमलोगों का अस्तित्व है तथा जीवन भी है। हमलोगों को सुख-दुःख का अनुभव होता है, सुख की अनुभूति मनोहारी लगती है, पर दुःख से वितृष्णा होती है। हमलोग जीवित रहना चाहते हैं, तथा इसके विपरीत वस्तुओं को देखने के बाद भी चिरकाल तक जीवित रहने की आकांक्षा रखते हैं।
हमलोग जीवित रहने के लिए कितनी ही चेष्टाएँ करते हैं, तथा जिस वस्तु से भी हमारे जीवन पर खतरा महसूस होता है, उसके साथ युद्ध करने को प्रवृत हो जाते हैं. हमलोग सुख देने वाले पदार्थों का अन्वेषण करते हैं. दुःख से छुटकारा पाना चाहते हैं किन्तु लाख प्रयास के बावजूद यदि छुटकारा न मिला तो दुःख आने पर कष्ट होता ही है. यदि हमलोग दुःख के मूल कारण को एक बार जान लें तो उसे दूर करने का संकल्प भी ले सकते हैं. किन्तु बार बार ऐसी परिस्थिति उपस्थित होते रहने पर उसके समक्ष हमारी असमर्थता ही उजागर होती है, हमलोग किसी के सर पर इसका ठीकरा फोड़ने की चेष्टा करते हैं, किन्तु इसके लिए स्वयं को कभी उत्तरदायी नहीं मानते. 
कुछ दिनों के लिए तो जीवन में सबकुछ हरा-भरा दीखता है, किन्तु बाद में क्रमशः यह बात समझ में आने लगती है कि इसका सबकुछ सुखकर नहीं है. जबतक दुःख सीमा से अधिक नहीं बढ़ जाता, जीवन मधुमय ही प्रतीत होता है. किन्तु सुख-दुःख के पलड़ा जब दुःख कि ओर अधिक झुक जाता है, तब यह जीवन असहनीय प्रतीत होने लगता है. सहजात धारणा अथवा अयौक्तिक मान्यताओं के आधार पर हमलोग यही समझते रहते हैं, कि यह जगत हमारे लिए ही सृष्ट हुआ था, हमलोग इस जगत के लिए सृष्ट नहीं हुए हैं.
इसीलिए हमलोगों की युक्ति के अनुसार जगत का एकमात्र उद्देश्य तो यही हो सकता है कि यह हमें सुख में रखे तथा हमें जीवित रखने में सहायक सिद्ध हो. इसीलिए हमलोग पुरे दावे के साथ यही घोषणा करते हैं कि हम यहाँ जो भी दुःख-कष्ट पाते हैं, उसके लिए जगत की कर्तव्यहीनता या अवहेलना ही उत्तरदायी है. हमलोग जगत पर क्रुद्ध हो जाते हैं, तथा उसको दण्ड के लिए उस पर आघात करने की चेष्टा करते हैं. किन्तु उसपर एक खरोंच भी नहीं लगापाते, क्योंकि यह जगत बहुत बड़ा और कठोर भी है. 
हमलोगों के भीतर चलते रहने की या आगे की ओर बढ़ते रहने की एक स्वतः-स्फूर्त प्रेरणा रहती है. किन्तु जब चलने लगते हैं तो, यह अनुभव होता है मानो हम स्वयं से ही दूर होते जा रहे हैं, और हमें यह रुचिकर नहीं लगता. इसका कारण है कि,  जन्मजात रूप से हमलोग स्वयं को ही सबकुछ से ज्यादा प्यार करते हैं. इसीलिए हमारे चलने के मार्ग को मानो कोई अदृश्य शक्ति मोड़ देने की चेष्टा करती रहती है, और धीरे धीरे हमारा वह पथ वृत्ताकार में परिणत हो जाता है. और अन्ततः हम पाते हैं कि, वास्तव में हमतो अपने ही चारोओर चक्कर लगा रहे हैं. क्योंकि हम यही समझ लेते हैं कि, जगत का केंद्र-बिन्दु मेरे ही भीतर है, और फिर हमलोग ' अहम् - सर्वस्व मनुष्य ' अथवा एक 
' आत्मकेन्द्रित-मनुष्य ' के रूप में परिणत हो जाते हैं.
और यह अनुमान लगा कर कि, जगत के गुरुत्वाकर्षण का केंद्र (या भार-केंद्र ) मेरा यह ' मैं ' -केन्द्र ही होगा, हम एक ग़लतफ़हमी पाल लेते हैं, कि लगता है मेरे हटते ही यह जगत भी जैसे टूट-फूट कर समाप्त हो जायेगा ! जगत के प्रति हमलोगों के भीतर सर्वदा ही एक क्रिया-प्रतिक्रिया का भाव उठता रहता है. मानो एक उभय-मुखी प्रवाह सदा ही प्रवाहित होता रहता है- जिसकी गति हमलोगों की ओर से जगत की ओर प्रवाहित रहती है, और जगत की ओर से हमलोगों की ओर. अपने मन की कामनाओं -वासनाओं को पूरा करने के लिए हमलोग ईच्छा-शक्ति के रूप में जगत की ओर उत्क्षेप करते रहते हैं, नाना-प्रकार के भोग-सुख पाने की फरमाइश जगत के समक्ष भेजते हैं, और जगत भी उस लालच को पूरा करने में सहयोग करता रहता है, हमलोग भी खुश होते रहते हैं.
  किन्तु कोई साधारण सी वस्तु भी यदि चाहने पर नहीं मिली, उदहारण के लिए मान लो - कोई अच्छी सी बात ही सुनने को न मिले तो हमारा मूड ही बिगड़ जाता है. सारे ' विवेकजन्य- संकोच ' को ताक पर रख कर, हमलोग उपाय ढूंढ़ते रहते हैं,  कि मन जिस वस्तु को पाना चाह रहा है, उसे कैसे भी प्राप्त कर लूँ ! कभी कभी तो चाह कर या या कभी बिना चाहे ही जगत की ओर से इतना सबकुछ मिल जाता है, कि हमलोगों के सुखानुभव की क्षमता के ऊपर ही अत्यधिक दबाव बढ़ जाता है. और तब हमारी ख़ुशी भी अब ख़ुशी नहीं रह जाती, सारा जीवन एक बोझ जैसा बन जाता है. घोर ' अभाव और प्राचूर्य ' दोनों ही अवस्थाएँ असहनीय हैं, एक रूप में नहीं और एक रूप में दोनों वेदना दायक हैं. इसीलिए दुःख का बोझ भी बढ़ता रहता है, और अन्तिम समय में यह जगत भी अभिशाप के जैसा प्रतीत होने लगता है. 
किन्तु स्वाभाविक रूप से ये आघात कहाँ से आ रहे हैं, हमलोग जान भी नहीं पाते. हमलोग ठीक से यह नहीं जानते कि हमलोगों के दुःख-कष्ट का यथार्थ उत्तरदायी कौन है. जीवन से दुःख-कष्टों को दूर करने का एकमात्र उपाय यह है कि हमलोग अपना दोष देखें, और यह समझने की चेष्टा करें कि जगत और हमारे बीच जो क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रवाह का गति-मुख है वह किस दिशा में है, क्योंकि हमलोगों की दुर्गति का कारण उसी पर निर्भर करता है. हमलोगों का दोष यही है,कि हम इस प्रवाह की दिशा पर अपनी नजर नहीं रखते हैं. जब हम इस कारण को जान लेंगें तब तो इसे दूर करना आवश्यक हो जायेगा, और इसका उपाय है प्रवाह की धारा का मुख ही परिवर्तित कर दिया जाय. 
हर समय ग्रहीता ( माँगने वाला ) बने न रहकर, हमलोगों को ' दाता ' (देने वाला ) बनने का कौशल सीखना होगा. हमारी कामना ऐसी हो जाये कि जगत हमसे चाहे और हमलोग उसके अभाव को दूर करते रहें. हमलोग संवेदनशील बनेंगे, जगत की ओर से आती हुई आर्तनाद के कम्पन को अपने संवेदनशील ह्रदय से सुनेंगे, और यह इतना स्वभावसिद्ध होगा कि किसी की सहायता की पुकार सुनते ही उसे ऊपर उठाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा देंगे. और केवल तभी संसार के दुःख-कष्ट हमें पीड़ित नहीं कर पाएंगे, जीवित रहने के आनन्द को ढूंढ़ कर पहचान लेंगे. तब निम्नलिखित पंक्तियों में श्रीमदभागवत में सार्थक-जीवन का जो अर्थ कहा गया है उसका मर्म हमारी समझ में भी आजायेगा - 
एतावत जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषू |
                       प्राणाः अर्थयेधिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा ||                          
" - इस जगत में शरीरधारियों के जीवन की साफल्य-सीमा है : समस्त देहधारियों के लिए अपने प्राण-अर्थ- बुद्धि और वचनों से निरन्तर कल्याणकारी कर्मों को करते रहना."
अब हमलोग जगत की ओर इस दृष्टि से नहीं देखेंगे कि यह हमें अपने दुःख-कष्टों को दूर करने में सहायता करेगा. बल्कि अब हम यह जान लेंगे कि दुःख-कष्ट एवं समस्त प्रकार के अभावों को दूर करने का उपाय हमारे ही भीतर में है.  बस हमें केवल ' माँगने और देने ' के प्रवाह की धारा को पलट देना होगा, और इस कौशल में सीद्ध होते ही सदा के लिए हमारे दुखों का अवसान हो जायेगा. जगत को त्याग नहीं करना होगा. हमलोग जगत में रह सकते हैं, किन्तु जगत का दास बन कर नहीं रहना होगा. यदि हमलोग जगत के ऊपर निर्भर न रहें, तो जगत हमारे ऊपर निर्भर रहना सीख लेगा, क्योंकि तब हमलोग यह जान लेंगे कि बिना बदले में कुछ भी प्राप्त करने की प्रत्याशा रखे दिया कैसे जाता है, तब हमलोग केवल देना जानेंगे वापस पाना नहीं .
  जगत के साथ देने और लेने का जो प्रवाह है उसको विपरीत-मुखी बना देने से ही धर्म या आध्यात्मिक उन्नति का प्रारम्भ होता है. शंकराचार्य ने कहा है- ' प्रतिश्रोतप्रवर्तनमिव ' | अर्थात प्रवाह के  श्रोत को विपरीतमुखी बना लेना. महाभारत में कहा गया है- 
" आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथ्वी मम | 
यथा मम तथन्येषामिति चिन्ता न मे व्यथा || " 
" - या तो मेरा अहंकार भी मेरा नहीं है, या फिर समस्त पृथ्वी ही मेरी है. यह उक्ति जिस प्रकार मेरे लिए ठीक है, उसी प्रकार दूसरों के लिए भी ठीक है. इस उक्ति का मर्म समझ लेने पर मेरे लिए व्यथा या दुःख नाम का कुछ भी नहीं है. " 
(यह लेख अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्विभाषी मुख-पत्र " VIVEK - JIVAN "   के मार्च १९९१ में छपे बंगला संपादकीय का हिंदी अनुवाद है- संपादक ' विवेक-अंजन '.)  

सोमवार, 22 नवंबर 2010

'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' के लिए - महामण्डल का साप्ताहिक पाठचक्र -' Study Circles'


(महामण्डल का साप्ताहिक "शैक्षिक-सत्र ")
जिस किसी भी स्थान में महामण्डल का एक केन्द्र होता है, वहाँ पर सप्ताह में कम से कम एक पाठचक्र तो अवश्य ही होता है. भले ही हम इसको एक ' पाठचक्र ' की संज्ञा देते हों, किन्तु यह केवल एक चिन्तन गोष्ठी ही नहीं है;बल्कि यह उन समस्त स्थानीय युवाओं की मिलन-स्थली भी है जो महामण्डल के सिद्धान्तों (चरित्र-निर्माण आन्दोलन के प्रचार प्रसार ) में उत्कट अभिरुचि रखते हैं| क्योंकि इसका मूख्य उद्देश्य केवल पढ़ाकू बनना और बनाना ही नहीं है.
जब वे अनूठे देश-प्रेमी युवा (जो भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में गाल पर तिरंगे का चित्र बनवाने को ही देश भक्ति नहीं समझते ) बल्कि - जो स्वामी विवेकानन्द के भारत पुनर्निर्माण मन्त्र -'तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में साहायता करो'  को ही अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य निर्धारित कर चुके हैं; एक साथ इकट्ठे होते हैं, तो उनको यह अनुभव होता है कि महामण्डल के सिद्धान्तों (Be and Make आदि) को अपने जीवन में धारण करने के अभियान में वे बिल्कुल एकाकी नहीं हैं | 
वे यहाँ आकर अपने जैसे दूसरे युवा भाइयों के साथ मित्रता के इस अनूठे बन्धन को भी ह्रदय से महसूस करते हैं. प्रत्येक सप्ताह यहाँ पहुँच कर वे अपने नेता स्वामी विवेकानन्द के उत्साह-अग्नि से अपने ह्रदय को फिर से चार्ज कर लेते हैं.
महामण्डल वैसे लोगों की संस्था नहीं है- जो सन्यासी बन चुके हों य़ा जिन लोगों ने जगत का परित्याग कर दिया हो;बल्कि यह उन साधारण युवाओं के लिये है जो समाज के अन्य साधारण गृहस्थ लोगों के जैसा ही अपने घर-परिवार के बीच निवास करते हैं.
किन्तु एक अन्तर अवश्य है- वे लोग (अन्य साधारण कैरियरिस्ट युवाओं की तरह केवल अपने ही बारे में नहीं सोंचते बल्कि) मनुष्य-जीवन का अर्थ एवं अपने समाज की ज्वलंत आवश्यकताओं को समझने के लिये प्रयासरत रहते हैं, तथा उसी समझ के आलोक में अपना जीवन गठित करने के लिये कठोर परिश्रम भी करते हैं.
वे लोग भी दूसरे सामान्य युवाओं की तरह ही विद्यालय तथा महाविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात अपनी जीविका चलाने के लिये किसी न किसी व्यवसाय से जुड़ जाते हैं. बावजूद इसके वे उन साधारण किस्म के युवाओं (जो महामण्डल को नहीं जानते ) की तरह नहीं होते, क्योंकि वे सामान्य कोटि के युवाओं की अपेक्षा कुछ हद तक कठिन जीवन शैली को चुनना पसन्द करते हैं. 
अपने जीवन की - ' प्रत्येक गतिविधि ' में उनको एक आदर्श का अनुसरण करना पड़ता है.अतः स्वाभाविक रूप से उनको ज़माने के प्रवाह के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है.
इसीलिये उनको अपनी जीवन-यात्रा का प्रारम्भ अपने जीवन लक्ष्य (निशाना)  की स्पष्ट धारणा बनाने के बाद ही करनी चाहिये. भारत के पुनर्निर्माण के लिये राष्ट्र-व्यापी स्तर पर जैसा युवा-आन्दोलन चलाने का स्वप्न स्वामी विवेकानन्द ने देखा था, उनके उसी सपने को महामण्डल कार्यान्वित करना चाहता है- वही स्वप्न क्रमशः इन युवाओं के मन में भी बस जाना चाहिये.
यह साप्ताहिक पाठचक्र, विवेकानन्द साहित्य के अध्यन एवं बोधगम्य परिचर्चा के माध्यम से उनलोगों में  ऐसे मनोभाव को विकसित करने में सहायता करता है. साप्ताहिक पाठचक्र में क्या अध्यन करना अच्छा रहेगा, इसका चुनाव युवाओं को खुद से करना उतना आसान नहीं भी हो सकता है.इसीलिये महामण्डल पाठचक्र के लिये छोटी छोटी चुनिन्दा पुस्तिकाओं (महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम, एक युवा आन्दोलन, नेतृत्व का अर्थ एवं गुण, जीवन-गठन, चरित्र गठन, मनः संयोग आदि ) से अध्यन करने का परामर्श देता है.
ये पुस्तिकाएँ ही हमारे उद्देश्य तक ले जाने के लिये यथेस्ट हैं. हमलोगों को इन पुस्तिकाओं का गहराई से बार बार अध्यन करना चाहिये, एवं उनके मूल-विषय पर चिन्तन-मनन भी करना चाहिये. इसप्रकार उन सिद्धान्तों को हम समझ जाते हैं, तथा तब हम उनको अपने जीवन में उतार भी सकते हैं. 
इस प्रकार वे समस्त श्रेष्ठ सिद्धान्त जो स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष (सदगुरु ) के मुख से निःसृत हुई हैं,इन महामण्डल पुस्तिकाओं के माध्यम से  हमारे समक्ष सहज रूप में उपलब्ध हो जातीं हैं.किसी भी महान और कल्याणकारी ज्ञान को तीन चरणों में आत्मसात (य़ा जीवन में धारण किया) जा सकता है।
  पहला है - " श्रवण "(य़ा Study Seriously), 
दूसरा है-   " मनन "(य़ा Think deeply and freely), 
एवं तत्पश्चात " निदिध्यासन " (य़ा Apply - 'put them into practice ') 
केवल साहित्यिक ज्ञान तुमको एक पण्डित तो बना सकता है, किन्तु न तो यह तुम्हारे जीवन को बदल सकता है, और न ही किसी विशिष्ट विषय की स्पष्ट अवधारणा ही प्रदान कर सकता है. यदि हम सभी लोग, खास तौर पर वे जो पाठचक्र का नेतृत्व करना चाहते हैं, यदि स्वयं अपने दैनन्दिन जीवन में स्वामीजी की वाणी को उपरोक्त विधि (तीन चरणों में ) से आत्मसात करने के लिये गंभीरता के साथ प्रयासरत रहते हों,केवल तभी हमारा पाठचक्र पर्याप्त उत्साह एवं जीवन्त अंदाज के साथ जारी रह सकता है.
केवल इतना ही नहीं, हमारे अन्दर विकसित मनुष्योचित गुणों से प्रभावित होकर, तब बहुत से नवागन्तुक भी इस ओर आकर्षित होंगे, उनमे भी यथोचित समझदारी का विकास होगा तथा वे स्वयं भी इस कार्य (मनुष्य-निर्माण आन्दोलन) में योगदान करने के लिये स्वेच्छा से जुट जायेंगे.
पाठचक्र में चलने वाली परिचर्चा इतनी स्पष्ट होनी चाहिये कि वहाँ उपस्थित सारे युवा उसको पकड़ सकें. वहाँ पर जो कोई भी सिद्धान्त/ज्ञान/ य़ा जानकारी युवाओं के समक्ष प्रस्तुत किये जाएँ, उनका स्तर आवश्यकता से अधिक ऊँचा य़ा उनके जगत से बहुत ज्यादा अलग हट कर नहीं होना चाहिये. जो युवा पाठचक्र में आ रहे हैं, उनको यहाँ प्राप्त होने वाली नई नई जानकारियाँ इस ढंग से दी जानी चाहिये कि को वे इन नवीन विचारों ( 'मन', 'विवेक', 'श्रद्धा',अथवा अन्तर्यामी " सत्ता " सम्बन्धित ज्ञान) को अपने जीवन के अनुभवों के साथ सम्बद्ध करके समझने में सक्षम हो सकें. 
हम जानते हैं कि किसी विषय का तजुर्बा करके जो ज्ञान होता है- वही सर्वोत्तम शिक्षक है.
( Experience is the great teacher). जब वे लोग यहाँ से सीखे हुए नई नई जानकारियों (सिद्धान्तों) को प्रयोग में लायेंगे, उनको नये नये अनुभव प्राप्त होने लगेंगे;तथा वे स्वयं ही इन सिद्धान्तों कि सच्चाई के कायल हो जायेंगे. 
हमलोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमलोगों का सारा फोकस (मूख्य-मुद्दा)- अपने सामान्य व्यवसाय,य़ा घर-परिवार का त्याग किये बिना,अपना सारा ध्यान अपने व्यवहारिक जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने पर ही केन्द्रित रखना है. समाज को आज इसी बात की आवश्यकता है, क्योंकि ज्ञान के साथ जीवन में व्यवहारिक तालमेल ही, हमें यथार्थ मनुष्य में परिणत कर देता है. 
हमें अपने सभी सदस्यों को,घर से ही अध्यन करके आने के लिये एवं परिचर्चा में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये. हमें अपने किसी भी सदस्य के विचारों की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, बल्कि उनके समझ को बहुत ही दोस्ताना तथा सकारात्मक ढंग से क्रमशः बेहतर य़ा उत्कृष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिये. तुम यह कभी मत भूलो कि तुम कोई ' गुरु '- नहीं हो, पाठचक्र/परिचर्चा में ' गुरु-गिरी ' करने के लिये नहीं आये हो, बल्कि तुम भी वैसे ही एक ' विद्यार्थी ' हो जैसा कोई अन्य सहभागी है.
हमारे पाठचक्र में कोई- ' सदन के नेता ' य़ा " Leader of the House " की अवधारणा नहीं है. इसीलिये पाठचक्र में किसी भी योजना का अनुशरण तो पूरी ईमानदारी के साथ करना चाहिये, किन्तु जबरन थोपे गये अनुशासन की अधिक मात्रा देकर इसे एक यांत्रिक (मशीनी) समारोह में परिणत करने से भी बचना चाहिये.नवयुवकों को ताजगी और उत्साह से भरपूर एक खिले हुए पुष्प के जैसा ह्रदय को लेकर ही अपने 'युवा नेता' विवेकानन्द के समक्ष आने एवं उनके ह्रदय के निष्काम प्रेम के स्पर्श के स्पन्दन को महसूस करने के लिये भी अनुप्रेरित करना चाहिये.
जो लोग 'शैक्षिक सत्र ' को सन्चालित करते हैं,उन्हें महामण्डल पुस्तिकाओं का गहन अध्यन न केवल इसके अभिनव विचारों को आत्मसात करने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर करना चाहिये, वरण युवा मन के समीप पहुँचने के लिये महामण्डल के अनूठे पद्धति का भी अनुसरण करना चाहिये. हमें उनलोगों से उसी भाषा में बात करनी चाहिये जिसे वे आसानी से समझ सकते हों.' धर्म ', 'आध्यात्मिकता', 'योग','भक्ति','अद्वैत वेदान्त ' जैसे कठिन -कठिन शब्दों का अत्यधिक प्रयोग करके नवयुवकों के मन को बोझिल करने से कोई विशेष लाभ नहीं होता है.
 क्योंकि अक्सर इन सभी शब्दों का अर्थ समाज में कुछ का कुछ निकाल लिया जाता है, इसीलिये ऐसे युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है, जो इन बातों में तनिक भी दिलचस्पी नहीं रख सकते हैं. इनमे से कोई भी शब्द - ' यह य़ा वह ' उनकी आसन्न जरूरतें भी नहीं हैं. स्वामीजी ने एक पत्र में अपने कुछ युवा मित्रों को सम्बोधित करते हुए लिखा था- 
" Be moral , Be brave - keep your heart completely pure . 
Be strictly moral, brave unto desperation. Do not bother  
your heads with religious theories. " 
- " मेरे युवा मित्रों, तुम वीर (बहादुर और निडर ) बनो, 
नीति-परायण बनो, 
अपने ह्रदय को संपूर्णतः पवित्र रखने के लिये पाँच सदाचार 
(सत्य,अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अपरिग्रह यम-नियम आदि) 
का पालन पूरी कठोरता के साथ करो,
(यदि इस काम में कभी नैराश्य आ जाय तो- इस) 
नैराश्य का सामना पूरी निडरता के साथ करो. 
तथा अन्य प्रकार धार्मिक सिद्धान्तों (मतवादों) से -
              अपने मन को बिल्कुल ही व्याकुल य़ा परेशान मत होने दो!  "  
हमें इसी पत्र की भावना को ध्यान में रखते हुए ' शैक्षिक सत्र ' का सञ्चालन करना चाहिये.आज के युवाओं में सही दृष्टिकोण को क्रमशः विकसित होने दो. नवागन्तुक भाइयों को तुम अपनी सनक य़ा धुन दिखला कर उसको डराने य़ा चौंका देने की चेष्टा मत करो. उनलोगों की जरूरतें, योग्यता (पात्रता), और अभिरुचियों को समझने की चेष्टा करो. 
उनलोगों को पहले यह समझने दो कि वे लोग अपने " 3H " (Hand,head और heart ) अर्थात शरीर,मन और ह्रदय को कैसे विकसित कर सकते हैं. उनलोगों को मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानने वाला - ' एक सिद्धान्ती और (निडर) आत्मविश्वासी ' पूरी तरह से एक नीतिपरायण एवं चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करो. उनलोगों को अपने देशवासियों की अकथनीय, दारुण दुर्दशा को समझ कर, उसे दूर करने के उपाय, ' त्याग और सेवा ' के प्रति समर्पित कार्यकर्ता बनने के लिये अपने जीवन से अनुप्रेरित करो.
इस प्रकार की प्रचेष्टा के द्वारा स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में युवाओं का एक ऐसा राष्ट्रव्यापी बलिदानी-जत्था निर्मित हो जायेगा- जो भारत में आमूलचूल परिवर्तन ला देगा, जिसके आविर्भूत होने की भविष्यवाणी स्वामीजी ने स्वयं की थी. किन्तु जो अभी तक साकार रूप नहीं ले सका है.
(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका " Vivek-Jivan" के नवम्बर २०१० में अंग्रेजी में प्रकाशित सम्पादकीय का हिन्दी संस्करण.)  

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

मनुष्य को पुनरुज्जीवित करना होगा ! (Revivification of men )

ह्रदय के ही माध्यम से ईश्वर बोलता है, 
कार्य करता है, और बुद्धि के माध्यम से तुम स्वयं| "
श्रद्धा मिल जाने से मनुष्य बड़ी तीव्र गति से विकसित होने लग‌ता है, और वह ' श्रद्धावान मनुष्य ' सत्य को प्राप्त कर लेता है|उपनिषद में कहा गया है-" ब्रह्मवित आप्नोति परम !" - ब्रह्मज्ञानी परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है | वह परम सत्य क्या है ? वे परब्रह्म परमात्मा (ठाकुर) सत्य स्वरूप हैं|यहाँ ' सत्य ' उस नित्य सत्ता का बोधक है जो प्रत्येक वस्तु में अनुस्यूत है|वह परब्रह्म नित्य सत हैं अर्थात किसी भी काल में उनका आभाव नहीं होता, तथा वे ज्ञान स्वरूप हैं, उनमे अज्ञान का लेश भी नहीं है और वे अनन्त हैं अर्थात देश और काल की सीमा से अतीत है! " सत्यम ज्ञानम अनन्तं ब्रह्म !"जो मनुष्य उस परब्रह्म को तत्व से जान लेता है -जो मनुष्य उस परब्रह्म को तत्व से जान लेता है - ' वह ब्रह्म के साथ सब भोगों का अनुभव करता है !'  
" विपश्चिता ब्रह्मणा सह सर्वान कामान अश्नुते !"
(तैत्तरीय उपनिषद: वल्ली २: अनुवाक १)
परमात्मा को अनुभव से जानने वाला- वह ब्रह्मविद पुरुष इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों का (भोग नहीं) सदुपयोग य़ा सेवन करते हुए भी स्वयं सदा ह्रदय की गुफा में छिपे हुए परब्रह्म में ही स्थित रहता है ! इसलिए वह अपने मन को विषयों में जाने से रोक सकता है|अतः सदा सभी कर्मों से निर्लेप रहने में समर्थ ब्रह्म के जैसा बन जाता है! इस प्रकार यह श्रुति परब्रह्म के स्वरुप तथा उसके ज्ञान की महिमा को बताने वाली है !परब्रह्म को जानने वाला - ब्रह्मज्ञानी; परब्रह्म को प्राप्त हो जाता ! 
इसी उपनिषद में आगे कहा गया है- " सः अकामयत प्रजायेय बहु स्याम इति " सर्ग के (सृष्टि के पहले) आदि में ब्रह्म  अकेला था,उसे अच्छा नहीं लग रहा था, इसीलिये ने ईश्वर ने विचार किया -मैं नानारूप में उत्पन्न हो कर बहुत हो जाऊँ ! यह विचार करके उन्होंने तप किया -" सः तपः अतप्यत " -अर्थात जीवों के कर्मानुसार सृष्टि उत्पन्न करने के लिये संकल्प किया। और संकल्प करके यह जो कुछ भी देखने, सुनने और समझने आता है इस जड़-चेतनमय जगत को अपने संकल्पमय स्वरूप में गढ़ लिया;उसके बाद स्वयं भी उसमे प्रविष्ट हो गये-" तत-सृष्ट्वा तत एव अनुप्राविशत ! तत अनुप्रविश्य सत च त्यत (अमूर्त- निर्गुण Super-Consciousness ) अभवत ! " विज्ञानम च अविज्ञानम च सत्यम च अनृतम च, इदम यत किम च; तत सत्यम - चेतन और जड़ तथा, सत्यम (अस्ति-भाति-प्रिय) और अनृतम (नाम-रूप) वह सत्य-स्वरूप ब्रह्म  ही हैं ! सत्य यही है कि यह सबकुछ (मनुष्य भी) एक ही वस्तु (ब्रह्म) से उत्पन्न हुआ है!
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मैं पुरुष य़ा स्त्री हूँ, मैं अमुक देशवासी हूँ, यह सब कहना केवल मिथ्या है। सभी देश मेरे हैं, सारा विश्व मेरा है; ...सारा विश्व ही मानो मेरा शरीर हो गया है| किन्तु हम देखते हैं कि संसार में बहुत से लोग ये सब बातें मुख से कहने पर भी आचरण में सभी प्रकार के अपवित्र कार्य करते रहते हैं; ... जब तक अशुभ-वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिल्कुल दग्ध नहीं हो जाती, तब तक कोई भी सत्य का साक्षात्कार और उसकी उपलब्धि नहीं कर सकता| अतएव जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिये अतीत जीवन के शुभ संस्कार, शुभ वेग ही बच रहता है| शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं; उनके मुख से सब के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सत्चिन्तन ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहे सर्वत्र मानव जाती के लिये महान आशीर्वाद होती है| " (२: ३८) 
" मान लो, समाज में कोई दोष है, तो तुम देखोगे कि फ़ौरन ही एक दल उठकर प्रतिहिंसात्मक रूप से गली-गलौज करने लगता है| कभी कभी तो ये लोग बड़े मतान्ध और कट्टर हो उठते हैं|.... जो भी मतान्ध खड़ा होकर किसी विषय के विरुद्ध लेक्चरबाजी कर सकता है, उसे अनुयायी मिल जाते हैं| तोडना सहज है, पागल भी तोड़-फोड़ कर सकता है किन्तु किसी वस्तु को गढ़ना उसके लिये बड़ा कठिन है | मान लो कोई दोष है, तो केवल गली-गलौज से तो कुछ होगा नहीं; हमें उसके जड़ तक जाके कार्य करना पड़ेगा |
"पहले तो यह जानो कि दोष (भ्रष्टाचार-या हर प्रकार के अपराध का) का कारण क्या है ? (ब्रह्मविद बनने की या चरित्र-निर्माण कर मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं दी जाती) फिर उस कारण को दूर करो!  (Be and Make ) "ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ" - और कार्य (भ्रष्टाचार) अपने आप ही चला जायेगा| केवल अपशब्द कहने से कोई लाभ नहीं होता,वरन उससे हानी कि सम्भावना ही अधिक होती है|
..जिसके ह्रदय में सहानुभूति थी, वे समझ गये थे कि दोषों को दूर करने के लिये उसके कारणों में पहुँचना होगा| ...वे महापुरुष संसार के समस्त नर-नारियों को अपनी सन्तान के रूप में देखते थे| ..उनका ह्रदय प्रत्येक के लिये अनन्त सहानुभूति और क्षमा से पूर्ण था- वे सदा ही सहने और क्षमा करने को प्रस्तुत रहते थे| वे जानते थे कि किस प्रकार मानव-समाज को पुनरुज्जीवित (Revivification  of men )  किया जाता है। अतएव अनन्त धैर्य के साथ धीरे धीरे किन्तु अमोघ रूप से अपनी ' संजीवनी औषधि ' का प्रयोग कर के मनुष्यों को ब्रह्मविद बनने के लिये जाग्रत करने लगे| उन्होंने किसी को गालियाँ नहीं दी, भय नहीं दिखाया पर बड़ी कृपा के साथ धीरे धीरे वे लोगों को एक एक सोपान (पशु से मनुष्य में - पशु मानव को देव-मानव में ) ऊपर उठाते गये| " (२:७०-७१)
" केवल ह्रदय (Heart) ही हमें उच्चतम भूमि में ले जाता है, जहाँ बुद्धि (Head) कभी नहीं पहुँच सकती| ..केवल बुद्धिमान, किन्तु ह्रदयशून्य मनुष्य कभी अन्तः स्फूर्त (ब्रह्मविद) नहीं बन सकता| ...यदि योग्य संस्कार किया जाय तो, ह्रदय में परिवर्तन हो सकता है और वह बुद्धि का भी अतिक्रमण कर अन्तःस्फुरण में परिवर्तित हो जाता है| अन्त में मनुष्य को बुद्धि के परे जाना ही पड़ेगा| ...ह्रदय ही अन्तिम ध्येय (सत्य) तक पहुँच सकता है|...निर्मल ह्रदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिये सर्वोत्तम दर्पण है, इसलिए यह सारी साधना ह्रदय को निर्मल करने के लिये ही है, और जब वह निर्मल हो जाता है,सारे सत्य उसी क्षण उस पर प्रतिबिम्बित हो जाते हैं|...दुःख की समस्या बुद्धि से हाल नहीं हो सकती, यह केवल ह्रदय से ही होगी| ...सर्वदा ह्रदय का ही संस्कार करो, उसे अधिकाधिक पवित्र बनाओ, क्योंकि ह्रदय के ही माध्यम से ईश्वर बोलता है, कार्य करता है, और बुद्धि के माध्यम से तुम स्वयं| " (३:१०८) 
" सत्य का स्वरूप ही ऐसा है कि जो कोई उसे देख लेता है, उसे एकदम पूरा विश्वास हो जाता है| सूर्य का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये मशाल की जरुरत नहीं होती|  वह तो स्वयं ही प्रकाशमान है|..और तब हमारा ह्रदय जाग्रत हो उठेगा- और कहेगा, 'यह सत्य है, और यह सत्य नहीं है|...परमेश्वर के अस्तित्व का प्रमाण क्या है? - साक्षात्कार! " (३: १०९)    
" इस समस्त विश्व में एक सत वस्तु ओतप्रोत है; और वह देश, काल तथा (निमित्त ) कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है| मनुष्य का सच्चा स्वरूप वह है, जो अनादी, अनन्त, आनन्दमय तथा नित्य मुक्त है, वही देश, काल और परिणाम के फेर में फंसा है| यही प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में भी सत्य है| प्रत्येक वस्तु का परमार्थ स्वरूप वही अनन्त है|
यह विज्ञानवाद (प्रत्याय वाद ) नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि विश्व का अस्तितिव ही नहीं है| इसका अस्तित्व सापेक्ष है, और सापेक्षता के सब लक्षण इसमें विद्यमान हैं| लेकिन इसकी स्वयं की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है| यह इसलिए विद्यमान है कि इसके पीछे देश-काल-निमित्त से अतीत निरपेक्ष आद्वितीय सत्ता मौजूद है| " (३:११९)


" चेतन मन ही अचेतन का कारण है" हमारे जो लाखों पुराने चेतन विचार और चेतन कार्य थे, वे ही घनीभूत होकर प्रसुप्त हो जाने पर हमारे अचेतन विचार बन जाते हैं|हमारा उधर ख्याल ही नहीं जाता, हमे उनका ज्ञान नहीं होता, हम उन्हें भूल जाते हैं|...वे ही प्रसुप्त कारण (पाशव -भाव ) एक दिन मन के ज्ञानयुक्त क्षेत्र पर आ उठते हैं और मानवता का नाश कर देते हैं| अतएव सच्चा मनोविज्ञान (मनः संयम का अभ्यास) उनको (अचेतन मन को) चेतन मन के अधीन लाने का प्रयत्न करेगा|  
" अतएव शिक्षा का सबसे महत्व पूर्ण कार्य है, मनुष्य को उसके सच्चे स्वरुप को जानने का उपाय बताकर उसका 'Revivification' कर देना, उसे पुनरुज्जीवित कर देना, उसमें नई रूह फूँक देना या उसके मिथ्या अहंकार को मैं समझने के भ्रम को दूर कर देना ! जिससे कि वह ब्रह्मविद बनकर (अपने भाग्य का विधाता या ) अपना पूर्ण स्वामी बन जाये| अचेतन को अपने अधिकार में लाना हमारी साधना का पहला भाग है|"
 
साधना का दूसरा सोपान है- चेतन के परे Super -Conscious (अतिचेतन ) में जाना ! जिस तरह, अचेतन चेतन के नीचे - उसके पीछे रहकर कार्य करता है, उसी तरह चेतन के ऊपर - उसके अतीत भी एक अवस्था है। जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है, (ब्रह्म को जानकर ब्रह्मरूप हो जाता है या) ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है। तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लौह श्रृंखलाएँ मुक्ति बन जाती हैं|
अतिचेतन का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है! अतएव यह स्पष्ट है कि हमे दो कार्य अवश्य ही करने होंगे| एक तो यह कि इड़ा और पिंगला के प्रवाहों का नियमन कर अचेतन कार्यों को नियमित करना; और दूसरा, इसके साथ ही साथ चेतन के भी परे चले जाना|  ग्रंथों में कहा गया है कि योगी वही है, जिसने दीर्घ काल तक चित्त की एकाग्रता का अभ्यास करके ( य़ा अनायास भगवत कृपा से भी ) इस सत्य की उपलब्धि कर ली है|अब सुषुम्ना का द्वार खुल जाता है और इस मार्ग में वह प्रवाह प्रवेश करता है, जो इसके पूर्व उसमे कभी नहीं गया था, यह धीरे धीरे विभिन्न कमल-चक्रों को खिलाता हुआ अन्त में मस्तिष्क तक पहुँच जाता है|तब योगी को अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान हो जाता है, वह जान लेता है कि वह स्वयं परमेश्वर ही है| हममें से प्रत्येक व्यक्ति, बिना किसी अपवाद के, योग के इस अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर सकता है| लेकिन यह अत्यन्त कठिन कार्य है|यदि मनुष्य को इस सत्य का अनुभव करना हो ...कुछ विशेष साधनाएँ भी करनी होंगी (य़ा महामण्डल का निष्ठावान कर्मी बनने से अनायास T की कृपा से भी होगा ) | महत्व तो तैयारी का ही है; दीपक जलाने में कितनी देर लगती है? केवल एक सेकंड, लेकिन उस दीपक को बनाने में कितना समय लग जाता है! " (३: १२१-१२२) 
" लोग विश्व बंधुत्व और साम्यवाद य़ा (हिन्दुवाद ) के अनुसन्धान में सारी पृथ्वी पर घूमते फिरते हैं|किन्तु जो लोग यथार्थ (महामण्डल ) कर्मी हैं और अपने ह्रदय से विश्वबंधुत्व का अनुभव करते हैं। वे लम्बी- चौड़ी बातें नहीं करते, न उस निमित्त सम्प्रदायों की रचना करते हैं; किन्तु उनके क्रिया-कलाप, गतिविधि और सारे जीवन के ऊपर ध्यान देने से यह स्पष्ट समझ में आ जायेगा कि उनके ह्रदय सचमुच ही मानव-जाति के प्रति बंधुता से परिपूर्ण है, वे सबसे प्रेम और सहानुभूति करते हैं| वे केवल बातें न बनाकर काम (कैंप-युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दिखाते हैं- आदर्श के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं| सारी दुनिया लम्बी-चौड़ी बातों से परिपूर्ण है| हम चाहते हैं कि बातें बनाना कम हो, यथार्थ काम कुछ अधिक हो|" (३:१४४)
" हम सभी लोग मनुष्य तो अवश्य हैं, किन्तु क्या सभी समान हैं? निश्चय ही नहीं | कौन कहता है, हम सब समान हैं? केवल पागल | क्या हम बल, बुद्धि शरीर में समान हैं? ... बहुत्व में एकत्व का होना सृष्टि का विधान है|..पुरुष होने से तुम स्त्री से भिन्न हो, किन्तु मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं|..उस ईश्वर में हम सब एक हैं, किन्तु व्यक्त जगत-प्रपंच में यह भेद अवश्य चिरकाल तक विद्यमान रहेगा| ..क्योंकि विचित्र ही जीवन की मूल भित्ति है| हमें आकारयुक्त किसने बनाया है? वैषम्य ने| सम्पूर्ण साम्यभाव होने से ही हमारा विनाश अवश्यम्भावी है|" (३:१४४-१४५)
" धर्म अनुभूति की वस्तु है - वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्ति मूलक कल्पना मात्र नहीं है- चाहे वह जितना भी सुन्दर हो| आत्मा की ब्रह्मस्वरुपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना- उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- वह केवल सुनने और मान लेने की चीज नहीं है| समस्त मन-प्राण विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जायेगा| यही धर्म है| " (३:१५९)  
" मृत्यु, दुःख तथा इस संसार में मनुष्य को मिलनेवाले अनेक जोरदार- झटके केवल वही मनुष्य पार कर सकता है, जिसने सत्य जान लिया है| सत्य क्या है ? सत्य वह है, जिसमे कोई विकार उत्पन्न नहीं होता, मनुष्य की आत्मा, विश्व की आत्मा ही सत्य है|...जो अनेकता में एकमेवाद्वितीय को समझता है और उसका अपनी आत्मा में दर्शन करता है, केवल वही शाश्वत शान्ति का अधिकारी होता है, दूसरा कोई नहीं , दूसरा कोई नहीं|"  " (३:१६४-६५)
  " तुम जो जो आवश्यक समझते हो, सब रखो, यहाँ तक कि उससे अतिरिक्त वस्तुएं भी रखो- इससे कोई हानी नहीं| पर तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य है- सत्य को जान लेना, उसको प्रत्यक्ष कर लेना|" (२:१५२)
" सत्य को प्राप्त करने में निमिष मात्र लगता है- प्रश्न केवल जान लेने भर का है| स्वप्न टूट जाता है, उसमे कितनी देर लगती है ? एक सेकण्ड में स्वप्न का तिरोभाव हो जाता है| जब भ्रम का नाश होता है, तो उसमे कितना समय लगता है ? पलक झपकने में जितनी देर लगती है, उतनी| जब मैं सत्य को जानता हूँ, तो इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता कि - 'असत्य' (नाम-रूप) गायब हो जाता है| मैंने रस्सी को सर्प समझ लिया था और अब जानता हूँ कि वह रस्सी है। प्रश्न केवल आधे सेकण्ड का है। और सब कुछ हो जाता है ! तू वह है! तू वास्तविकता है ; इसे जानने में कितना समय लगता है? ईश्वर जीवन है; ईश्वर सत्य है| फिर भी इस स्वतः प्रत्यक्ष सत्य को प्राप्त करना कितना कठिन जान पड़ता है ? "
( ३:१९०) 
" जब कोई भी मनुष्य यह दावा करता है कि ' मैं सत्य को जानता हूँ|' तो मैं कहता हूँ, ' यदि तुम सत्य को जानते हो, तो तुममें आत्मनियंत्रण होना चाहिये; और यदि तुममे आत्मनियंत्रण है, तो इन (मस्तिष्क में स्थित) इन्द्रियों के नियन्त्रण करने में समर्थ बन कर सिद्ध कर दो!.. जब मैं ध्यान के लिये बैठता हूँ, तो मन में संसार के सब बुरे से बुरे विषय उभर आते हैं|मतली आने लगती है (ऐसा लगता है मानो अपना कान ऐंठ कर अपने चेहरे पार खुद ही थप्पड़ मारूँ)| मन ऐसे विचारों को क्यों सोचता है, जिन्हें मैं नहीं चाहता कि वह सोचे ? मैं मानो मन का दास हूँ|जब तक मन चंचल है और वश से बाहर है, तब तक कोई आध्यात्मिक ज्ञान संभव नहीं है| शिष्य (विद्यार्थी) को मनः संयम सीखना ही होगा| हाँ, मन का कार्य है सोचना ! पर यदि शिष्य जिन विचारों को सोचना नहीं चाहता, तो मन में वैसे विचार आने ही नहीं चाहिये! जब वह आज्ञा दे, तो मन को सोचना भी बन्द कर देना चाहिये|" (३:१९३)
" सत्य यह है : तुम चेतन हो, तुम पार्थिव (matter) नहीं हो| एक वस्तु है भ्रम (अध्यास) - इसमें एक वस्तु दूसरी जान पड़ती है| पदार्थ (शरीर,मन) को चेतन तत्व य़ा शरीर को आत्मा समझ लिया जाता है| यह बहुत बड़ा भ्रम है, इसे नष्ट होना चाहिये|" (३:१९५) 
" इस समय हमारे सामने ये सब विविधताएँ हैं और उन्हें हम देखते हैं- उन्हें हम पंचभूत कहते हैं- पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु और आकाश| इसके परे सत्ता की अवस्था मानसिक है, और उसके परे है आध्यात्मिक। यह नहीं है कि आत्मा एक है, मन दूसरा है, आकाश उससे भिन्न है आदि आदि| सत्ता एक ही है, जो इन सभी विविधताओं में दिखाई पड़ती है।... ध्यान वह अभ्यास है जिसमे सब कुछ उस परम सत्य आत्मा में घुला दिया जाता है| पृथ्वी जल में रूपान्तरित होती है, जल वायु में, वायु आकाश में, तब मन और फिर वह मन भी विलीन हो जाता है| सब आत्मा ही है|" (४: १३६-३७)
" वेदान्त का सार है कि सत केवल एक ही है और प्रत्येक आत्मा पूर्णतया वही सत है, उस सत का अंश नहीं| ओस कि हर बून्द में 'सम्पूर्ण' सूर्य प्रतिबिम्बित होता है|...सभी नाम-रूप य़ा आभासों के पीछे एक ही सत्य है|..हमें अपने को इस दुखद स्वप्न से मुक्त करना है कि हम यह देह हैं| हमें यह ' सत्य ' जानना ही चाहिये कि 'मैं वह हूँ'|" (६:२५६-५७) 
" सत्य के लिये संस्कृत शब्द है - सत| सगुण ईश्वर (श्री रामकृष्ण परमहंस )स्वयं अपने लिये उतना ही सत्य है, जितना हम अपने लिये, इससे अधिक नहीं| ईश्वर को भी उसी प्रकार साकार भाव से देखा जा सकता है, जैसे हमें देखा जा सकता है|जब तक हम मनुष्य हैं, तब तक हमें ईश्वर का प्रयोजन है; हम जब स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जायेंगे तब फिर हमें ईश्वर का प्रयोजन नहीं रह जायेगा| इसीलिये श्री रामकृष्ण उस जगत-जननी को अपने समीप सदा सर्वदा वर्तमान देखते थे - वे अपने आस-पास की अन्य सभी वस्तुओं की अपेक्षा उन्हें अधिक सत्य रूप में देखते थे; किन्तु समाधी-अवस्था में उन्हें आत्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अनुभव नहीं होता था| (७:७०)      
" मेरा उपदेश किसी धर्म का विरोधी नहीं है| मैं व्यक्ति (को पुनरुज्जीवित करने) की ओर ही विशेष ध्यान देता हूँ, उसे तेजस्वी बनाने की चेष्टा करता हूँ| मैं तो यही शिक्षा देता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति साक्षात् ब्रह्म है, और सबको उनके इसी आन्तरिक ब्रह्म भाव के सम्बन्ध में सचेत होने के लिये आह्वान करता हूँ| जानकर हो य़ा बिना जाने, वस्तुतः यही सब धर्मों आदर्श है| " (४: २२९) 
" संसार के सभी धर्म एक ही सत्य-स्वरूप केन्द्र की विभिन्न त्रिज्याएँ (अभिव्यक्तियाँ) हैं|.. और यह केंद्रीय सत्य क्या है? वह है भीतर का ईश्वर| प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना ही पतित हो, ईश्वर की - दिव्यत्व की अभिव्यक्ति है|दिव्यत्व पर आवरण आ जाता है, वह दृष्टि से छिप जाता है|...चिर मौन रहने के व्रत की साधना करने वाले एक स्वामीजी को एक मुसलमान ने छुरा भोंक दिया| लोग हत्यारे को खींच कर आह्ट के सामने ले गये और बोले, ' स्वामीजी आप कहें, तो हम इसे ठिकाने लगा दें|' 
...अपना व्रत अपने अन्तिम समय में यह कहने के लिये तोड़ा, ' मेरे बच्चो, तुम सब भूल में हो| यह मनुष्य साक्षात् ईश्वर है!' महान शिक्षा यह है कि सबके पीछे वही एक है| " (४: २३३) 
" मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जाएँ कि अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें, बल्कि उसके ह्रदय में रहने वाले भगवान को देख सकें|
और उसकी निंदा न कर यह कह सकें- ' हे स्वप्रकाशक, ज्योतिर्मय, उठो! हे सदाशुद्धस्वरूप उठो! हे अज, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, उठो ! आत्मस्वरूप प्रकाशित करो। तुम जिन क्षूद्र (पाशव) भावों में आबद्ध (सूकर-योनी) पड़े हो, वे तुम्हें सोहते नहीं।'अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना का उपदेश देता है|" (८:६२-६३)
" हम इन्द्रिय-सुख जैसी तुच्छ वस्तु के शिकार हैं, भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो| हमने यह भुला दिया है कि जीवन में और अधिक महान वस्तुएं हैं|...ईश्वर ने एक बार धरती पर वराह-अवतार लिया; उनकी एक शूकरी भी थी। कालान्तर में उनके कई शूकर संतानें हुईं|अपने परिवारवालों के बीच वे बड़े चैन से रह रहे थे। कीचड़ में लोटते हुए वे खूब मस्त थे। वे अपनी दिव्य महिमा एवं प्रभुता भूल बैठे थे। देवता लोग उनकी इस दुर्दशा को देख कर बड़े चिंतित हुए|
वे धरती पर उतर आये और उनसे शूकर-शरीर का त्याग कर देवलोक लौट चलने की विनती करने लगे| ईश्वर ने उनकी एक न सुनी और उन सब को दुत्कार दिया| वे बोले ' मैं इसी योनी में बड़ा प्रसन्न हूँ और इस रंग में भंग देखना नहीं चाहता।'कोई चारा न देख देवताओं ने प्रभु का शूकर-शरीर नष्ट कर दिया। तत्क्षण ईश्वर की दिव्य भव्यता लौट आई और वे बड़े विस्मित थे कि शूकर-स्थिति में वे प्रसन्न रहे कैसे! मानवीय आचरण भी इसी प्रकार का है|
जब कभी वे लोग निर्गुण ईश्वर (Super -Consciousness ) की चर्चा सुनते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है कि ' मेरे व्यक्तित्व का क्या होगा? मेरा तो व्यक्तित्व ही लुप्त हो जायेगा ? ' फिर कभी ऐसा विचार मन में उठे तो उस शूकर की दशा याद कर लेना|" (९:८२) 


" जिस दिन श्री रामकृष्ण देव ने जन्म लिया है, उसी दिन से Modern India  तथा सत्ययुग का आविर्भाव हुआ है| तुम लोग सत्ययुग का उद्घाटन करो और इसी विश्वास के साथ कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हो| यदि श्री रामकृष्ण देव सत्य हैं, तो तुम भी सत्य हो| किन्तु तुमको यह प्रमाणित कर दिखाना होगा| " (४:३०९) " सत्यमेव जयते नानृतम - ' सत्य की ही जाय होती है, असत्य की नहीं;' तदा किं विवादें- ' तब विवाद से क्या लाभ ? '(४:३१८)                      
" एक समय ऐसा अवश्य आयेगा, जब हममे से प्रत्येक अतीत की ओर नजर डालेगा और अपने पुराने कुसंस्कारों पर हँसेगा, जो शुद्ध और नित्य आत्मा को ढके हुए थे, एवं प्रेम-मुदित मन से सत्यता में स्थित रहकर दृढ़ता के साथ बारम्बार कहेगा- मैं वही हूँ, चिरकाल वही था, और सदैव वही 'T ' रहूँगा! ...कारण, यही सत्य है और जो सत्य है, वह सनातन है, तथा सत्य ही यह शिक्षा देता है कि वह किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं है|
...इसके विरुद्ध जो तर्क दिया जाता है, वह यह कि- " मैं नित्य शुद्ध बुद्ध आनन्दस्वरूप हूँ ", इस प्रकार से मौखिक कहना तो ठीक है पर जीवन नदी के हर मोड़ (परिस्थिति) पर तो मैं इसे अपने आचरण के द्वारा दिखा नहीं पाता|" हम इस बात को स्वीकार करते हैं, आदर्श सदैव अत्यन्त कठिन होता है|प्रत्येक बालक आकाश को अपने सिर से बहुत ऊँचाई पर देखता है, पर इस कारण क्या हम आकाश कि ओर देखने की चेष्टा भी न करें? और क्या पुनः पुराने (पाशविक) संस्कारों की ओर जाने से ही क्या कुछ अच्छा हो जायेगा ? यदि हम अमृत न पा सकें, तो क्या विषपान करने से ही कल्याण होगा ? " (२: १८७-८८)
" जो मनुष्य यह जान लेता है कि ' मैं वही हूँ ', वह चिथड़ों में लिपटे रहने पर भी सुखी रहता है| उस शाश्वत तत्व में प्रवेश करो और शाश्वत शक्ति के साथ वापस आ जाओ| (मन का) दास सत्य का अन्वेषण करने जाता है और स्वतन्त्र होकर (मन का प्रभु होकर) लौटता है|" (२:२५३) 
" बालक शुक का अपने मन पर ऐसा संयम था कि बिना उनकी इच्छा के संसार की कोई वस्तु उन्हें आकृष्ट नहीं कर सकती थी| ...यदि हम भी अपने मन को प्रशिक्षित करना चाहते हैं, तो ...यह निश्चित है कि हमें अन्त में पूर्ण आत्मत्याग का लाभ होगा ही| और ज्यों ही इस कल्पित अहं का नाश हो जायेगा, त्यों ही वही संसार, जो हमे पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता है, अब स्वर्ग स्वरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा| यहाँ की हवा तक बदलकर मधुमय हो जाएगी और प्रत्येक व्यक्ति भला प्रतीत होने लगेगा| " ( ३: ६६) 
           
                             
आगे कहते है- " मनुष्य चाहता है सत्य, वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य कि धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है, वेद कहते हैंतभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा तमोजाल छिन्न-भिन्न हो जाता है, और सारी वक्रता सीधी हो जाती है|"  (१:३८) 
स्वामीजी कहते हैं - " हम जो दुःख भोगते हैं, वह अज्ञान से, सत्य और असत्य के अविवेक से उत्पन्न होता है|...एकमात्र आत्मा ही सत्य है, पर हम यह भूल गये हैं| शरीर एक मिथ्या स्वप्न मात्र है, पर हम सोचते हैं कि हम शरीर हैं| यह अविवेक ही दुःख का कारण है| " (१:२०१)
" जब कोई प्रथम बार मृगतृष्णा को देखता है, तो वह उसे सत्य मानने कि भूल करता है,और उसमे (नाम-रूप में) अपनी प्यास बुझाने का निष्फल प्रयास करता है, पर बाद में (तृष्णा और बढ़ जाती है ) वह समझ पाता है कि वह मृगतृष्णा थी| किन्तु जब कभी उसके बाद भविष्य में वह उसे देखता है, तो स्पष्ट वास्तविकता होते हुए भी यह विचार सदैव उसके सामने आता है कि वह मृगतृष्णा देख रहा है| एक जीवन्मुक्त के लिये यही हाल माया के संसार का है |" (१:२८७)
" मेरे बच्चों को सबसे पहले वीर बनना चाहिये, किसी भी कारण से (लालच वश) तनिक भी समझौता न करो|(अपने को शरीर मन इन्द्रियों का गुलाम मत समझो) सर्वोच्च सत्य - " मैं वह हूँ ! " की मुक्त रूप से घोषणा कर दो|..यदि तुम लालच य़ा प्रलोभनों को ठुकरा कर सत्य के सेवक बनोगे, तो तुममे ऐसी दैवी-शक्ति आ जाएगी, जिसके सामने लोग तुम से उन बातों को कहते डरेंगे, जिन्हें तुम सत्य नहीं समझते |" (१:३२७       
(चैतन्यात सर्वम उत्पन्नम!) वही एक ' वस्तु ' हर किसी में अनुस्यूत है!'पूरा स पक्षीभूत्वा प्राविशत!' पुराकाल में (अर्थात सृष्टि के पहले) वही ब्रह्म वस्तु सभी कुछ के भीतर किसी पक्षी के रूप से प्रविष्ट थे| यहाँ प्रविष्ट होने का अर्थ लौकिक रूप में जैसे बाहर से भीतर प्रविष्ट हुआ जाता है, वैसा नहीं है | बल्कि सब कुछ उसी से निर्मित हुआ है ! वह वस्तु ही एकमात्र वस्तु है ! किन्तु उस वस्तु को इन्द्रियों से नहीं अनुभूति के द्वारा जाना जाना जाता है; और आजका विज्ञान भी ठीक यही बात कहता है| केवल आज कह रहा है सो नहीं, बहुत दिनों से विज्ञान ऐसा ही कहता चला आ रहा है! एक ही वस्तु से सब कुछ अस्तित्व में आया है| जैसा Big Bang में कहा गया है- महाकाश में एक बहुत बड़ा Explosion  (विस्फोट) हुआ था, एक समय में बहुत बड़ी घटना घटी जिसके फलस्वरूप इस विश्व-ब्रह्माण्ड कि सृष्टि हुई !
।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।
- ऋग्वेद (1-164-43)
भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
 उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म [ब्रह्मा नहीं] ही परम तत्व है। ब्रह्म ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है और विश्व का आधार है। इसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और नष्ट होने पर विश्व उसी में विलीन हो जाता है।
 श्लाकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रंथ कोटिभ:।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।।
अर्थात् जो अनेक ग्रंथों में लिखा है, उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं। सत्य का अर्थ है- जिसका तीनों कालों में बाध नहीं होता अर्थात् जो था, जो है और जो रहेगा। इस दृष्टि से जगत् ब्रह्म-सापेक्ष है।जो था, जो है और जो सदैव रहेगा- वही तो ब्रह्म है। 'जगत मिथ्या '-यहां मिथ्या शब्द असत् से भिन्न है। मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होनेवाली वस्तु सत्य सी लगती है जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं। यही मिथ्यात्व है। इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है। संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही ‘जीव’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है। इस दृष्टि से जगत् ब्रह्म-सापेक्ष है। ब्रह्म को जगत् के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है, उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था। दूसरे शब्दों में, ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है।श्रुति का वचन है-'सदेव सोम्येदग्रमासीत्' अर्थात् हे सौम्य ! सृष्टि से पूर्व सत्य ही था।
भौतिक विज्ञानी आइंसटीन के नियम के अनुसार इसे पूरे ब्रह्मांड में द्रव्य या ऊर्जा है। यह दोनों भी आपस में परिवर्तनशील हैं अर्थात् जो द्रव्य या ठोस पदार्थ हमें दिखते हैं; वे भी ऊर्जा से निर्मित हैं और सभी ठोस पदार्थ अंतत: ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जाते हैं। अत: इस पूरे ब्राह्मंड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अध्यात्म विज्ञान में यही ऊर्जा ब्रह्म है।

खगोल विज्ञानियों के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति पूर्ण ऊर्जा एवं धूल के कणों में महाविस्फोट से हुई है। कालांतर में इसी से आकाशगंगाएं, नक्षत्र, तारे एवं ग्रह आदि बने। सूर्य के विखंडन से संपूर्ण सौरमंडल अस्तित्व में आया। अध्यात्म विज्ञानी इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानते हैं जबकि खगोल विज्ञानी विस्फोटक से मानते हैं अर्थात् सभी ग्रहों या पृथ्वी पर जो कुछ भी जड़-चेतन तत्त्व है; वह सूर्य या ब्रह्मांड के मूल तत्त्व से ही बना है। परन्तु नाम-रूप में भिन्नता होने पर भी मूल तत्त्व एक ही है और वह ब्रह्म है। दर्शन शास्त्रों में ब्रह्म के संदर्भ में 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' कहा गया है। 
सत्य क्या है ? असत्य क्या है ? सत्य वह है जिसमें कभी कोई परिवर्तन न हो जैसा पहले था वैसा अब भी है और आगे भी वैसा हे रहेगा | असत्य वह है जो बनता बिगड़ता है | संत महात्माओं ने जगत नाशवान कहा है, मनुष्य का शरीर नाशवान है, शरीर के सम्बन्धी भी नाशवान है, सम्बंधित पदार्थ भी नाशवान हैं | जो कुछ हम इन आखों से देखतें हैं, कानों से सुनतें हैं और इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ भी हम अनुभव करतें हैं, मन की पहुँच जहाँ तक है वह सब मिथ्या है अर्थात नाशवान है |

गो गोचर जहं लगि मन जाई |
सो सब माया जनेउ भाई ||

केवल राम नाम सत्य है, बाकी सब मिथ्या है | राम नाम सत्य है ऐसा कहा गया है इसमें गूढ़ रहस्य है नाम दो प्रकार का होता है |
१. वर्णात्मक नाम
२. ध्वन्यात्मक नाम
वर्णात्मक नाम वह है जो वाणी द्वारा बोला जा सके और लिखने पढने में आये,

" लिखन और पढ़न में आया, उसे वर्णात्मक गाया "
वर्णात्मक नाम जैसे - राम, कृष्ण, अल्ला, खुदा, गोद, गोविन्द, गोपाल आदि | अब यह सोचना चाहिए की जब कोई भाषा नहीं थी, कोई वर्णमाला नहीं थी, कागज, स्याही नहीं थी, कोई मनुष्य नहीं था, चौरासी लाख योनियाँ नहीं थी, कोई देवी-देवता नहीं थे, ब्रहमा, विष्णु, महेश नहीं थे, कोई अवतार नहीं था, कोई पैगम्बर नहीं थे, कोई तीर्थकर नहीं थे, स्वर्ग, नर्क, पाताल नहीं था, तीन लोक चौदह भुवन नहीं थे | तब परमात्मा का क्या स्वरुप था ? रचना की उत्पत्ति कैसे हुई ? यह सब हाल घट के अन्दर देखने और समझने के लिए सत्य मार्ग की आवशयकता है, अभी तक वर्णात्मक नाम के बारे में जो थोड़ा बताया गया है इससे परे ध्वन्यात्मक नाम है | जो परम प्रकाश रूप है यह वाणी द्वारा नहीं बोला जा सकता, और न लिखने पढ़ने में आ सकता है |
यह नाम मनुष्य शरीर के घट के अन्दर है | संत महात्माओं ने इसी परम प्रकाश रूप ध्वन्यात्मक नाम की महिमा गाई है लोगों ने इसे वर्णात्मक तक ही सीमित रखा |
 


श्री गुरु पद नख मनि गन जोती |
सुमिरत दिव्य दुष्टि हियँ होती ||


पहले गुरु चरण घट में प्रगट हों उनके नखों के प्रकाश से दिव्य दुष्टि प्राप्त होगी जिससे राम नाम रुपी हीरा घट के अन्दर दिखाई देगा, जो परम प्रकाश रूप है | नाम की महिमा तीनों लोकों में कोई नहीं जानता, केवल संत नाम की महिमा जानते हैं |

यह नाम विदेह है भाषा रहित है मन इन्द्रियों से परे है इसे सार नाम या सार शब्द भी कहतें हैं कुल रचना की उत्पत्ति इसी से हुई है | मिलौनी की रचना जड़ और चेतन तथा निर्मल चैतन्य रचना सब नाम से ही हुई है |
" शब्द ने रची त्रिलोकी सारी, शब्द से माया फैली भारी "
यह नाम सगुण और निर्गुण दोनों से बड़ा है गोस्वामी जी ने कहा है |
अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा |
अकथ अगाध अनादि अनूपा ||



यह नाम ध्वन्यात्मक है और रूप उसका परम प्रकाश रूप है यह चेतन का आदि भण्डार है | कुल रचना की उत्पत्ति इसी से हुई | संतों ने इसी नाम की महिमा गाई है | जिनको घट का भेद नहीं मिला, क्योंकि उनको पूरे गुरु नहीं मिले इसी लिए वर्णात्मक तक ही सीमित रह गये और नाम का परिचय नहि मिला | आप लोग यदि सत्य मार्ग के बारे में जानना चाहतें हैं | सच्चे परमार्थी जीव हैं तो सभी प्रकार की टेक छोड़कर  संत सतगुरु वक़्त की शरण लें | सभी मनुष्यों के अन्तर का सत्य मार्ग एक हे है इसीलिए सभी से आपस में प्रेम व सदभाव रखना चाहिये |
  
" जांति पातिं पूछे नहि कोई,
हरी का भजै सो हरि का होई "