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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

[59]" वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं "

 " वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं " 
....बाकी के मनुष्य तो मृतक से भी गये गुजरे हैं, तो फिर पत्थर बन चुके ह्रदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति जाग्रत करने की चेष्टा करने का उपाय क्या है ?
 सबसे सहज उपाय है, स्वामीजी की ओर देखना. मानव-मात्र के दुःख को दूर करने के प्रति स्वामीजी के ह्रदय में कैसी तड़प थी ! सभी जाति-धर्म के मनुष्यों के लिये उनके ह्रदय में कैसी संवेदना थी! यदि छात्र जीवन के समय से ही परम-देशभक्त स्वामी विवेकानन्द के जीवन को ही " युवा- आदर्श " के रूप हमलोगों के समक्ष रखा जाय, और हमलोग उनकी जीवनी को ध्यानपूर्वक पढ़-सुन कर, चिन्तन- मनन करके स्वामीजी के जीवन को ही अपने ध्यान की वस्तु बना लें, तब हमलोगों का ह्रदय स्वतः ही विस्तृत हो जायेगा.
  जब हमलोग सागर  से प्रेम करने में सक्षम हो जायेंगे तो हमलोग स्वाभाविक रूप से सभी प्रकार के लहरों से भी प्रेम करने में समर्थ हो जायेंगे.तब हमलोगों का ह्रदय भी इतना विस्तृत हो जायेगा कि उसमे सबों के लिये (सभी तरह के मनुष्यों के लिये ) थोड़ा भी स्थान अवश्य रहेगा, और दूसरों का दुःख हमलोग को बिल्कुल अपने दुःख के जैसा महसूस होगा. और तब हमलोग अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, य़ा बौद्धिक - जहाँ पर जैसी शक्ति लगानी हो, हम सभी लोग अपनी पूरी शक्ति लगाकर, अपना ' सर्वस्व न्योछावर करके भी ' दूसरे मनुष्यों के दुःख को दूर करने की चेष्टा करने में समर्थ बन जायेंगे. 
अपने ह्रदय को सागर जितना विस्तृत कर पाने सक्षम बन जाने को ही- " मनुष्य बनना " कहते हैं.
जिस किसी भी देश में इस प्रकार के ' विशाल-ह्रदय मनुष्य ' निर्मित कर लिये जाते हैं, वे उस देश के जो नीचे पड़े हुए मनुष्य हैं, अवहेलित हैं, अज्ञानी हैं, निन्दित हैं, शोषित हैं, अनाहार में दीन बिताते हैं, जो अशिक्षा के अँधेरे में डूबे हुए हैं, जिनकी ओर नजर उठाकर देखने की भी फुर्सत किसी को नहीं है, उनलोगों को पुनः अपने पैरों पर खड़े होने का सामर्थ्य प्रदान कर सकते हैं.  
फिर यदि वे लोग भी अपने पैरों पर खड़ा होकर, रीढ़ की हड्डी को सीधी रखते हुए, अपने सिर को ऊँचा उठा कर अपने देशवासियों की ओर देख सके-  जो उनके सहोदर हैं, और बिल्कुल उसी अवस्था में हैं जिस अवस्था में वह पहले स्वयं भी थे, तब वे उनके हित को भी अपने ह्रदय से बिल्कुल अपना हित जैसा महसूस करने में सक्षम हो जाते हैं. और तब वे (देशवासियों के उन्नति के लिये योजना में भ्रष्टाचार नहीं करते बल्कि ) अपनी पूरी शक्ति समस्त देश-वासियों को ऊँचा उठाने के उनके विकास योजनाओं में लगा देते हैं- स्वामीजी इसी लिये (ऐसे ही मनुष्यों का निर्माण करने के लिये)  तो आये थे ! 
स्वामीजी मानव-मात्र की मुक्ति के लिये धरती पर आये थे. किन्तु स्वामीजी के अनुसार मुक्ति का अर्थ केवल वनों-जंगलों में जाकर तपस्या करना नहीं है, केवल ईश्वर ईश्वर करके इधर-उधर भ्रमण करना नहीं है, केवल तीर्थाटन करते रहना ही नहीं है, य़ा केवल किसी मन्दिर,मस्जिद गिरजा में जाकर पूजा कर लेना ही नहीं है. 
स्वामीजी ने कहा था- " मनुष्य ही सबसे बड़ा देवमन्दिर है ! " स्वामीजी की इसी विशेषता को स्पष्ट करते हुए मैं उडिषा में घटित एक घटना का उल्लेख पहले भी कई बार कर चुका हूँ, उसी  प्रसंग को पुनः पुनः दुहराने में थोड़ा संकोच भी होता है पर पता नहीं क्यों इस घटना की पुनरुक्ति होती ही रहती है.  एक बार उडिषा में किसी स्थान पर एक व्याख्यान-सभा हो रही थी, कई वक्ता लोग आये थे, दो-चार सन्यासी भी थे, उडिषा के विशिष्ठ गणमान्य व्यक्ति लोग थे, प्रोफ़ेसर लोग भी थे, वहाँ पर मुझे बोलने के लिये कहे, तो बोला था. बोलते समय मैंने एक बात कही थी-         
    " I believe that a second person like Swami Vivekananda was never born in human history. "
"-मेरा  दृढ विश्वास यह है कि, मानवसभ्यता के इतिहास में स्वामी विवेकानन्द के जैसा और कोई दूसरा व्यक्ति आज तक नहीं जन्मा है !" 
सभा समाप्त होने के बाद युवाओं का एक दल, जिन्हें देखने से लग रहा था कि वे लोग कॉलेज के छात्र होंगे, सबों ने मुझे घेर लिया, और घेर कर बहुत उत्साहपूर्वक बोले, ' अदभुत, अदभुत, आपकी वक्तृता सुन कर हमलोगों को बहुत अच्छा लगा है." उनलोगों में से ही एक लड़का आगे आकर बहुत विनम्रतापूर्वक बोला- " किन्तु एक बात है महाशय . " मैंने कहा- ' बोलो भाई. ' तब उसने कहा कि अभी, अभी अपने भाषण में आपने जो एक बात कहा कि -" स्वामी विवेकानन्द जैसा और कोई दूसरा मनुष्य इस पृथ्वी परआज तक पृथ्वी पर जन्म नहीं ग्रहण किये हैं"
- क्या ऐसा कहना ठीक है ? 
मैंने कहा- ' भाई मुझे जो बात सही लगती है, मैं केवल वही बात कहता हूँ. ऐसा कहने के पीछे मेरा अन्य कोई उद्देश्य नहीं है, य़ा मन में अन्य कोई भाव रख कर मैंने वैसा नहीं कहा है. ' 
तब उस लड़के ने बताया - " आप बुरा मत मानियेगा, हमलोगों के यहाँ एक सन्यासी हैं,  जो बिल्कुल स्वामी विवेकानन्द कि तरह ही लगते हैं. यदि आप उनसे मिलना चाहें तोकल सुबह मैं आपको उनसे मिलवा वापस भी ला सकता हूँ, वे यहाँ से बहुत ज्यादा दूर पर नहीं रहते है. "
तब मैंने पूछा कि ," उनमे कौन कौन सी विशेषताएं हैं? " तब वह उनकी एक एक विशेषता गिनवाने लगा. " वे एक गैरिक वस्त्रधारी सन्यासी हैं, वे महाविद्वान हैं, कोई विद्या ऐसी नही है जिसे वे नहीं  जानते हों,उनके पास जाने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे क्या जानते हैं और क्या नही जानते हैं. जिस किसी भी विषय में उनके साथ कोई चर्चा करना चाहता हो, उसी से उस विषय के सम्बन्ध में यथासंभव कह देते हैं. और उनके उत्तर को सुन कर समझा जा सकता है कि वे उस विषय के बारे में जानते हैं. सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता हैं, वेद-वेदान्त आदि समस्त शास्त्र उनके मुख में ही है. उनके त्याग का भाव असाधारण है. कभी किसी से कुछ लेना नहीं चाहते हैं. यदि कोई उनको खाने को दे देता है तो खाते हैं, नहीं देने से बिना खाए ही रह जाते हैं. बिल्कुल असाधारण मनुष्य हैं ! " मैंने जानना चाहा कि - " वे रहते कहाँ हैं ?
" उसने कहा यहाँ से अधिक दूर नहीं है. पास में ही एक जंगल है, उसी में वे एक कुटिया बना कर रहते हैं. एक घंटे में ही वहाँ पहुँचा जा सकता है, बस दो घन्टा के भीतर ही हमलोग वहाँ से वापस लौट सकते हैं." मैंने ( हाथ जोड़ कर ) कहा- " भाई , मैं तुम्हारे कहने पर (तुम्हारा दिल रखने के लिये) इतना भले मान सकता हूँ कि विद्या, त्याग, तितिक्षा आदि युक्त किसी सन्यासी के रूप में, वे स्वामी विवेकानन्द से थोड़ा भी कम नहीं हों, य़ा स्वामीजी में इसके अतिरिक्त भी जितने सारे गुण थे, सभी बे सब भी एक जैसे ही हों, पर इतने सारे गुण होने पर भी चूँकि वे अभी तक जंगल में ही बैठे हुए हैं यह जान लेने के बाद अब मैं उनसे मिलने की जरुरत नहीं समझता. क्योंकि हिमालय में बैठ कर बाकी जीवन बीता देने की प्रबल ईच्छा रहने पर भी स्वामीजी जंगल में बैठे नहीं रह सके. 
अपने शिष्य के साथ वार्तालाप करते हुए वे कहते हैं : -
" मैं क्या अपने शेष बचे जीवन को हिमालय की किसी कन्दरा में बैठ कर 
ध्यान में लीन रहते हुए नहीं बीता सकता हूँ रे !
किन्तु वैसा मैं कर नहीं सकता;
जहाँ देश के इतने लोग, इतने दुःख में पड़े किल-बिल कर रहे हों, 
वहीं मैं (स्वार्थी होकर ) ध्यान में बैठा  रहूँगा ?
  - ऐसा करना मेरे लिये कदापि सम्भव नहीं है ."
  ' इसीलिये भाई, मैं यह स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ कि ये साधु भी बिल्कुल स्वामी विवेकानन्द के ही जैसे एक और व्यक्ति हैं;  इसीलिये इस विवाद का भंजन करने के लिये मुझे वहाँ जाने की कोई आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती है.'
" मैं स्वामीजी को सबसे अनूठा व्यक्ति मानता हूँ- यह बात मैं किसी के मुख से सुन कर य़ा पुस्तक से पढ़ कर नहीं कहता हूँ, यह मेरे ह्रदय की बात है, मेरे अपने अन्तर में मुझे स्वामीजी ऐसे ही दिखाई देते हैं, यह मेरे अनुभव की बात है,  मैं अधिक पड़ता-लिखता नहीं हूँ, मैं ज्यादा कुछ जानता भी नहीं हूँ. अपने ह्रदय के स्पन्दनों के बीच में स्वामीजी के विशाल ह्रदय की धडकनों का थोड़ा सा परिचय  प्राप्त हुआ है. अतः उसी ह्रदय की भाषा में कह सकता हूँ कि-  " स्वामी विवेकानन्द के जैसा मेरे ह्रदय को छू लेने वाला कोई दूसरा व्यक्ति मुझे आज तक कहीं नहीं मिला है, इसलिए कहता हूँ कि उनके जैसा और कोई दूसरा व्यक्ति अभी तक पृथ्वी पर जन्म ग्रहण नहीं लिये हैं! "
{निम्न लिखत पत्र में स्वामीजी के ह्रदय की एक झलक देखी जा सकती है :- 
Swami Vivekananda's letter to 
 His Highness the Maharaja of Mysore (23 June 1894).

(स्वामी विवेकानन्द द्वारा मैसूर के महाराज को २३जुन १८९४ को लिखा पत्र.) 

" Our duty to the Masses of India  "  

" मातृभूमि के प्रति हमारा कर्तव्य "






Shri Narayana bless you and yours. Through your Highness' kind help it has been possible for me to come to this country. Since then, I have become well known here, and the hospitable people of this country have supplied all my wants. It is a wonderful country and this is a wonderful nation in many respects ...
 महाराज, 
श्री नारायण आपका और आपके कुटुम्ब का मंगल करें. आपके द्वारा दी गयी उदार साहायता से ही मेरा इस देश में आना सम्भव हुआ है. यहाँ आने के बाद से यहाँ के लोग मुझे अच्छी तरह से जानने लगे हैं, और इस देश के अतिथिपरायण निवासियों ने मेरे सारे आभाव दूर कर दिये हैं.यह एक अदभुत देश है और यह जाति भी कई बातों में एक अदभुत जाति है.......
  Nowhere on earth have women so many privileges as in America. They are slowly taking everything into their hands; and, strange to say, the number of cultured women is much greater than that of cultured men ... they require more spiritual civilization, and we, more material.
 अमेरिका की महिलाओं को जितने अधिकार प्राप्त हैं, उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं. धीरे धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि शिक्षित पुरुषों की अपेक्षा यहाँ शिक्षित स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है....धर्म के विषय में यहाँ के लोग य़ा तो कपटी होते हैं य़ा मतान्ध; विवेकी लोग धर्मों में व्याप्त कुसंस्कार से उब चुके हैं और नये प्रकाश के लिये भारत की ओर देख रहे हैं.....मेरा निष्कर्ष यह है कि उन्हें और भी अधिक आध्यात्मिक सभ्यता को अपनाने की आवश्यकता है और हमें अभी कुछ और भी अधिक भौतिकवादी सभ्यता  नजदीक से जानने की.  
The one thing that is at the root of all evils in India is the condition of the poor. The poor in the West are devils; compared to them ours are angels, and it is therefore so much easier to raise our poor. 
भारतवर्ष के सभी अनर्थों की जड़ है- गरीबों की दुर्दशा. पाश्चात्य देशों के गरीब तो निरे दानव हैं, उनकी तुलना में हमारे यहाँ के गरीब देवता हैं. इसीलिये हमारे गरीबों की उन्नति करना सहज है. 
 The only service to be done for our lower classes is :-
to give them education to develop 
their lost individuality. (i.e . firm faith in their own Self)That is the great task between 
our
" People and Princes "
(modern highly educated and highly paid youth of India ). 
 Up to now, nothing has been done in that direction.
अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एक मात्र कर्तव्य है- उनको शिक्षा देना, उनमे उनकी खोई हुई जातीय विशिष्टता ( आत्म-श्रद्धा ) का विकास करना. हमारे देश की आमजनता के प्रति हमारे  देश के(उच्च शिक्षा प्राप्त, उच्च पद पर आसीन अधिकारीयों) राजकुमारों (युवाओं)के सम्मुख यही एक बहुत बड़ा काम पड़ा हुआ है. अब तक इस दिशा में कुछ भी काम नहीं हुआ है. 
Priest-power and foreign conquest have trodden them down for centuries, and at last, the poor of India have forgotten that they are human beings. They are to be given ideas 
(self-respect, self-confidence ...24 Qualities of   character given in mahamandal's chart) 
their eyes are to be opened to what is going on in the world around them; and then 
(After becoming men of character) 
they will work out the own salvation.
पुरोहितों की शक्ति और विदेशी विजेतागाण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलसवरूप भारत के गरीब बेचारे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं.उनमे अच्छे-अच्छे भाव (आत्म-श्रद्धा, आत्मविश्वास,...आदि चरित्र के २४ गुण जो महामण्डल के चरित्र-निर्माणकारी तालिका में दिये हुए हैं) भरने होंगे; उनके चारों ओर आस-पास की दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, इस सम्बन्ध में उनकी आँखें खोल देनी होंगी; इसके बाद (चरित्रवान मनुष्य बन जाने के बाद) फिर वे अपना उद्धार अपने आप कर लेंगे.        
Every nation, every man, and every woman 
must work out their own salvation. 
Give them ideas 
(4 Mahavakya of Veda and Mental -Concentration ) 
- that is the only help they (masses of India )require, 
and then the rest must follow as the effect. 
प्रत्येक जाति के,प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा.उनको अच्छे अच्छे विचार दो  (४ महावाक्य सुना दो और मनः संयोग कराना सीखा दो) उन्हें (भारतवर्ष के जनसाधारण को) बस उसी  एक साहायता की जरुरत है, इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ (मेरा भारत महान बनाने का सपना) अपने आप ही हो जायेगा.      
Ours is to put the chemicals together, the crystallization comes in the law of nature. Our duty is to put ideas into their heads, they will do the rest. 
That is what is to be done in India. I could not accomplish it in India, and that was the reason of my coming to this country.
हमें केवल रासायनिक पदार्थों को (3H - Hand , Head, Heart य़ा स्थूल, सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म) को इकठ्ठा भर कर देना है, क्रिस्टलीकरण (चरित्र-गठन य़ा रवा बंध जाना) तो प्राकृतिक नियमों (Law of Association) से ही साधित हो जायेगा. हमारा कर्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना- बाकी वे स्वयं कर लेंगे. भारत में बस इतना ही काम करना है..भारत में इसे मैं कार्य रूप में परिणत न कर सका, और यही कारण था कि मैं इस देश में आया. 
The great difficulty in the way of educating the poor is this. Supposing even your highness opens a free school in every village, still it would do no good, for the poverty in India is such, that the poor boys would rather go to help their fathers in the fields, or otherwise try to make a living, than come to the school. If the poor boy cannot come to education, education must go to him. 
गरीबों को शिक्षा देने में मूख्य बाधा यह है- मान लीजिये महाराज, आपने हर एक गाँव में एक निःशुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा, क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाये खेतों में अपने माता-पिता को मदद देने य़ा किसी दूसरे उपाय से रोटी कमाने जायेंगे.इसीलिये अगर पहाड़ मुहम्मद के पास न  आये, तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना पड़ेगा. अगर गरीब लड़का शिक्षा ग्रहण करने के लिये न आ सके,तो शिक्षा को ही उसके पास जाना पड़ेगा.  
(- अर्थात गाँव-गाँव में युवा चरित्र-निर्माणकारी शिविर आयोजित करना होगा ) 
There are thousands of single-minded, self-sacrificing Sanyasins in our country, going from village to village, teaching religion. If some of them can be organized as teachers of secular things also, they will go from place to place, from door to door, not only preaching, but teaching also.
हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु (देश-प्रेमी स्त्री-पुरुष ठाकुर-माँ-स्वामीजी के गृहस्थ भक्त आदि) हैं, जो गाँव गाँव में धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं. यदि उनमे से कुछ लोगों को सांसारिक विषयों के शिक्षकों के रूप में (महामण्डल के नेता का प्रशिक्षण देकर) संगठित किया जा सके तो गाँव गाँव, दरवाजे दरवाजे पर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा(आत्म-श्रद्धा जगाने की शिक्षा ) ही नहीं देंगे, बल्कि धन कमाने की शिक्षा भी दिया करेंगे.    
Suppose two of these men go to a village in the evening with a camera, a globe, some maps, etc. By telling stories about different nations, they can give the poor a hundred times more information through the ear than they can get in a lifetime through books.
मानलीजिये कि इनमे से दो व्यक्ति (महामण्डल य़ा सारदा नारी संगठन में प्रशिक्षित दो नेता) शाम को साथ में एक मैजिक लैंटर्न, एक ग्लोब, और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गाँव (आज २०१० में जानिबीगहा के महामण्डल चालित स्कूल में लैपटॉप लेकर जाते हैं) में जाते हैं. वे अपढ़ लोगों को गणित, ज्योतिष, और भूगोल की बहुत कुछ शिक्षा दे सकते हैं.वे गरीब पुस्तकों से जीवन भर में जितनी जानकारी पा सकेंगे, उससे सौगुनी अधिक वे उन्हें बातचीत के माध्यम से विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर दे सकते है.      
This requires an organization, which again means money. Men enough there are in India to work out this plan, but alas! they have no money. lt is very difficult to set a wheel in motion; but when once set, it goes on with increasing velocity. After seeking help in my own country & failing to get any sympathy from the rich, I came over to this country through your Highness' aid.
इसके लिये एक संगठन की आवश्यकता है, जो पुनः धन पर निर्भर करता है. इस योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिये भारत में मनुष्य तो बहुत हैं, पर हाय ! वे निर्धन हैं. एक चक्र को चलाना बड़ा कठिन काम है, पर अगर एक बार वह गतिशील हुआ कि वह क्रमशः अधिकाधिक वेग से चलने लगता है.अपने देश में साहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी, तब मैं, महाराज, आपकी साहायता से इस देश में आ गया.  
The Americans do not care a bit whether the poor of India die or live. And why should they, when our own people never think of anything but their own selfish ends?
अमेरिका वासियों को इस बात की कुछ भी परवाह नहीं कि भारत के गरीब जियें य़ा मरें. और भला वे परवाह भी क्यों करने लगें, जब कि हमारे अपने देशवासी (सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो जाने के बाद भी) सिवाय अपने स्वार्थ की बातों के और किसी की चिन्ता नहीं करते ?  
My noble Prince, this life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.  
महामना राजन, आप इतना तो समझ ही लीजिये कि- यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं. (इस जगत में जो लोग आपको जीवित दिखायी दे रहे हैं,उनमे से)  यथार्थ रूप से वही जीवित है जो दूसरों का हितसाधन करने कि ईच्छा से जीवन धारण करता है,(जैसे निर्विकल्प- समाधि में जाने के बाद भी ठाकुर की आज्ञां से स्वामीजी बटवृक्ष बन करदूसरों को छाया देने के लिये जीवन धारण किये थे.)बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है. (जो रिटायर्ड होने के बाद भी केवल अपने ही भविष्य की चिन्ता में जीते हैं, उनका जीवन ? )     
One such high, noble-minded and royal son of India as your Highness can do much more towards raising India on her feet again and thus leave a name to posterity which shall be worshipped. That the Lord may make your noble heart feel intensely for the suffering millions of India, sunk in ignorance, is the prayer of -- Vivekananda.
महाराज, आप जैसे एक उन्नत, महामना भारत का राजपुत्र  भारत को फिर से अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं.और इस तरह भावी वंशजों के लिये एक ऐसा नाम छोड़ जा सकते हैं, जिसकी वे पूजा करें. प्रभु (ठाकुर) आपके महान ह्रदय में भारत के उन लाखों नर-नारियों के लिये गहरी संवेदना पैदा कर दें, जो अज्ञात में गड़े हुए दुःख झेल रहे हैं- यही मेरी प्रार्थना है. 
Source: Complete Works of Swami Vivekananda ( Vol: 4: page 361)
(हिन्दी वि० सा० ख० २: ३६८)}
ऐसे देश प्रेमी स्वामी विवेकानन्द को अपने ' ह्रदय का धन ' समझ कर - उन्हें देश के युवाओं के समक्ष एक युवा-आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना होगा, एवं उन सबों के जीवन में भी स्वामी विवेकानन्द प्रति अनन्य श्रद्धा-भक्ति को प्रतिष्ठित करना होगा ! उनको भी अन्य किसी तथाकथित राजनीतिक नेताओं की तरह ( जिनको हमलोग स्वयं तो अपने ह्रदय का धन नहीं समझते किन्तु दूसरों को दिखाने के लिये दीवार पर लटका देते हैं.) एक और युवा आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर देने से नहीं होगा. युवाओं के ह्रदय में भारत माँ के लिये - स्वामीजी के जैसा ही उत्साह चाहिये, वैसा ही आग्रह चाहिये, वही प्रेम चाहिये, वही स्नेह चाहिये; हमलोगों को स्वामीजी की पूजा नहीं करनी होगी, स्वामीजी की स्तुति नहीं करनी होगी, केवल स्वामीजी को अपने ह्रदय से प्रेम करना होगा. इसलिए मुझे क्या महसूस होता है, जानते हो भाई ?
यही कि-
" ठाकुर आमार बाबा, माँ सारदा आमार माँ, आर स्वामी विवेकानन्द आमार बड़ दादा " 
" ठाकुर मेरे बाबूजी हैं, माँ सारदा मेरी माँ हैं, और स्वामी विवेकानन्द मेरे बड़े भैया हैं ! "
 कोई भी व्यक्ति अपने बाबूजी -माँ- भैया का सबसे अधिक आदर करता है, सबसे ज्यादा प्रेम करता है, और करना भी चाहिये. और यदि सचमुच बिल्कुल अपने माँ-बप  तरह ही " ठाकुर- माँ " - किसी के बाबूजी-माँ हों ; और स्वामीजी से बड़े भैया की तरह कोई व्यक्ति प्रेम करता हो क्या उसके जीवन में फिर किसी भी चीज का आभाव हो सकता है ? क्या फिर उसे अपनी विद्या, बल, शक्ति को, प्रेरणा को, हृदयवत्ता को मनुष्य की सेवा में अपने जीवन को उत्सर्ग कर देने की कामना को दृढ़ता से ह्रदय में बैठा लेने में और कोई असुविधा हो सकती है ! अशिक्षा के अन्धकार में डूबे  हुए मनुष्यों को यदि ऊपर उठाना हो तो ठाकुर-माँ-स्वामीजी को अपना ह्रदय-धन बना कर ह्रदय में बैठा लेना होगा; और भारत का  समस्त युवा वर्ग ऐसा करने में सक्षम हैं ! पर हो सकता है कि सभी युवा उनको अपना ह्रदय-धन न बना सकें, किन्तु अगर उनका एक छोटा सा प्रबुद्ध युवा- दल भी ऐसा कर ले तो उतने से ही काम हो जायेगा.
एक critical number Chemistry - में बहुत बार प्रयोग में आता है, that critical number of young people must come.केमिस्ट्री में एक क्रिटिकल नम्बर (गुणगुणग्य-संख्या ) को अक्सर प्रयोग में लाया जाता है, जब युवा समुदाय में से भी उसी प्रकार एक क्रिटिकल नम्बर (जब पर्याप्त संख्या में - इस अर्जेन्टली नीडेड य़ा अत्यन्त आवश्यक गुणगुणग्य संख्या वाले ) में चरित्र-सम्पन्न युवाओं का निर्माण कार्य पूरा हो जायेगा  -  तब जो युवा जीवन के जोश में अपने जीवन के उद्देश्य को भूल कर कूमार्ग में पड़ जाते हैं, वे लोग इन गुणगुणग्य-संख्या वाले युवाओं को प्रलोभनों का दबाव देकर, उनकी शक्ति को अस्वीकार करके समाज के ऊपर उन्हें अपना प्रभाव डालने से विरत नहीं  कर सकेंगे. और इस छोटे से गुणगुणग्य-संख्या (क्रिटिकल नम्बर में उपलब्ध) प्रबुद्ध युवा नेतृत्व के मार्गदर्शन में समस्त समाज इसी प्रकार चरित्र-निर्माण के पथ पर आगे बढ़ता जायेगा !
 इस प्रकार के समस्त कार्यों में भीड़ जाने के कारण, शुरू शुरू में मेरे विरुद्ध भी अनेक अभियोग लगाये थे.मुझे महामण्डल के कार्य से मैं जब भी बाहर जाना पड़ता तो मैं छुट्टी का दरखास्त देकर ही जाया करता था.पर आने के बाद देखता हूँ कि मेरी छुट्टी नामंजूर कर दी गयी है; और तात्कालिक सजा के रूप में मेरा इन्क्रीमेन्ट तथा  मेरा कन्फर्मेशन भी रोक दिया गया है. तथा अन्य कोई सजा दी जा सकती है य़ा नहीं, इसपर भी विचार किया जा रहा है.
इन सब कार्यों के जो प्रधान ऑफिसर थे उनके पास जब मेरा अभियोग पहुँचा तो,  उन्होंने मुझे अपने ऑफिस में बुलवाया. उनका ऑफिस में दबदबा कुछ ऐसा था कि उनके कमरे में जाने पर कोई ऑफिसर भी उनके सामने चेयर पर नहीं बैठते थे, खड़े रहकर ही सभी अपनी बात कहते थे. इधर मेरे अन्दर एक बहुत बड़ा दोष यह था, जिसे बताना उचित होगा य़ा नहीं, नहीं जानता; परन्तु मैं केवल अपने शिक्षक महाशयों को ही ' सर ' कहा करता था; उनको सम्बोधित करने की रीति ही यह थी इसीलिये कहता था. शिक्षकों के अलावा किसी अन्य को मैंने अपने जीवन भर में कभी 'सर ' कह कर सम्बोधित नहीं किया है.नौकरी करने गया हूँ इसीलिये मुझे ' सर ' कहना ही होगा, ऐसी कोई मजबूरी मेरे साथ नहीं थी, मैंने कभी नहीं कहा. जिस कमरे में प्रविष्ट होने में सभी डरते थे, मेरे जाते ही वे बोले- ' बैठिये '. वे किन्तु सायंस कालेज के प्राध्यापक थे. मुझसे बोले, " आपको एक कार्य दिया जाये तो क्या आप उसे कर सकेंगे ? " मैंने कहा कि, " क्या कार्य करना है, यह जाने बिना मैं उसे कर पाउँगा य़ा नहीं कहना सम्भव नहीं है. " " नहीं , नहीं , वह तो बिल्कुल ठीक बात है, वह तो आप एकदम ठीक ही कह रहे हैं. " इतना कहने के बाद जो कार्य करने को कहे उसको पश्चिम बंगला सरकार कम से कम २० वर्षों से तो कर नहीं पायी थी.किन्तु होना उचित था.
मैंने कहा कि, '  न करने के लायक तो कोई कारण मुझे दिखाई नहीं दे रहा है, किन्तु इसको करने में ये ये चीजें लगेंगी तथा  इस कार्य के लिये मुझे दो व्यक्ति और चाहिये, तथा वे वैसे ही व्यक्ति होने चाहिये जिनके नाम मैं सुझाऊंगा.' " कहिये आप को कौन कौन से दो व्यक्ति चाहिये ? " पर जब मैंने एक आदमी का नाम सुझाया तो बोले, " उसकी बात कहते हैं, he is an unwilling horse, जब मैं उसके द्वारा कोई काम नहीं करवा पता हूँ तो आप कैसे करवा लीजियेगा ? "
मैंने कहा कि " यहाँ पर कौन व्यक्ति क्या काम कर सकता है, उन सब को मैं पहचानता हूँ, जानता हूँ. काम करवाने का तरीका मैं जानता हूँ, पर उसके नहीं रहने पर मैं यह कार्य कर नहीं पाउँगा. "" ठीक है हो जायेगा. "
उसीके बाद ऐसा हुआ कि जहाँ मेरी नौकरी जाने की बातें हो रहीं थीं वहीं ऐसा हुआ कि जिस कमरे में मेरा ऑफिस था उसके ही ठीक दूसरी तरफ, कोरिडोर के उस तरफ उनके ऑफिस का कमरा था. एक दीन मैं अपने ऑफिस में बैठ कर काम कर रहा था, काम अधिक होने पर मैं छौ -साढ़े छौ बजे तक भी काम करता था. ऑफिस के दूसरे सभी लोग निकाल गये थे. वे अपने ऑफिस में काम कर रहे थे और मैं अपने ऑफिस में काम कर रहा था. हठात मेरे कमरे कि बत्ती बुझ गयी.
मेरे मुँह से निकल गया, ' कौन है रे ? ' वे जल्दी जल्दी पर्दा हटा कर कहते हैं, " ओह, आप अभी तक काम कर रहे हैं, उठिए उठिए काम बन्द कर दीजिये, मेरे साथ चलिए अभी और काम नहीं करना होगा. " कह कर अपनी गाड़ी में बैठा कर मुझे अद्वैत आश्रम के गेट पर उतार दिये. क्योंकि ऑफिस का काम ख़त्म करने के बाद, महामण्डल का काम करने के लिये मुझे रोज शाम को वहीं जाना पड़ता था.(शायद इस बात को वे जान चुके थे). 
ऑफिस के काम की अवहेलना मैंने कभी नहीं की है. इसलिए मुझे यह बहुत अच्छी तरह से ज्ञात है कि, निष्ठा पूर्वक काम करने से तथा  ईमानदार रहने से मनुष्य को कभी हानी नहीं उठानी पड़ती. किन्तु जीवन में कितनी ही तरह की समस्याएं तो आती ही रहीं हैं, और उनमे से सभी को तो कहा भी नहीं जा सकता. अपनी आखों के सामने मैंने कितने ही असत काम होते देखा है. फिर भी मैं अपने को यथासाध्य निष्ठापूर्वक ही करता आया हूँ. एकबार किसी इन्स्पेक्सन में गया था, मुझे धमकी मिली- " आप का खून हो जायेगा, संभल जाइये ! " मेरा खून तो नहीं हुआ, उनकी कुछ दुर्बुद्धि का खून जरुर हो गया. इसलिए जिस किसी भी काम को चाहे वह व्यापार हो य़ा नौकरी - यदि निष्ठा के साथ की जाये, काम में ईमानदारी रखी जाये तो जो कोई भी चेष्टा सफल होती है.
बेलुड मठ तो खूब ही जाया करता था. संसारी के साथ सन्यासी का एक बहुत बड़ा अन्तर क्या होता है, वहाँ जाते जाते मुझे यह अच्छी तरह समझ में आ गया था. मैंने यह अच्छी तरह से जान लिया था कि संसारी लोग बिना किसी प्रत्याशा के प्रेम नहीं कर सकते हैं, वहीं सन्यासी लोग बदले में कुछ पाने की आशा किये बिना ही प्यार कर सकते हैं, इस तथ्य का मुझे अच्छा अनुभव हुआ था. तथा मुझे ऐसा भी महसूस हुआ है कि जो लोग ठाकुर-माँ- स्वामीजी का काम करते हैं उनको वे लोग दूसरों की अपेक्षा थोड़ा अधिक ही प्यार करते हैं. विरेश्वरानन्दजी महाराज, गम्भिरानान्दजी महाराज, भूतेशानान्दजी महाराज, अभयानन्दजी महाराज (भरत महाराज ), इनलोगों ने मुझे जितना प्रेम और स्नेह दिया है उसको मैं बोल कर समझा नहीं सकता; क्योंकि मुझे यह भी महसूस होता है की प्रेम अनुभव करने की वस्तु है, मुख से कह कर उसका इजहार करने की जरुरत नहीं है. 
बहुत बार इनका प्यार ऐसा महसूस हुआ है जैसे, कोई पिता अपने प्यार को बाहर प्रकट किये बिना अपने सन्तान को ह्रदय से प्यार करता है. बहिः प्रकाश व्यतिरिक्त जिस प्रकार पिता का प्यार अपने सन्तान के प्रति होता है, मानो वे लोग भी ठीक उसी प्रकार प्रेम करते थे, पूर्व में वर्णित कई घटनाओं से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है.
एक दीन सुबह के समय बेलुड मठ गया हूँ. उस समय भूतेशानन्दजी महाराज प्रेसिडेन्ट थे. बैठक खाने में भक्तों के साथ प्रसंग कर रहे थे. मेरे जाते ही अन्दर जाने का दरवाजा बन्द हो गया. सेवक महाराज उनका सुनने का यन्त्र खोल कर भक्तों को गंगा की दिशा में स्थित दरवाजे से बाहर जाने के लिये कहे. अधिकांश भक्त लोग उठने  लगे थे.मुझको देखते ही महाराज बोले- " की नवनी, एसेछ ? "  ( क्या नवनी, आ गये ? )
 फिर कुछ प्रिय भक्तों की ओर देखते हुए कहते हैं-
" स्वामीजी बलेछिलेन, ठाकुरेर आविर्भावेर सँगे सँगे सत्य युग आरम्भ हयेछे.कई बापू !
मारामारी- काटाकाटी कत कि हच्छे ! "
"- स्वामीजी ने कहा था, ठाकुर के आविर्भूत होने के साथ ही साथ
सत्य युग आरम्भ हो गया है, पर कहाँ भाई !
संसार भर में कितना मारा-मारी, काटा-कटी कितना क्या क्या हो रहा है ! " 
उसी बीच में किसी अहमक कि तरह मैंने कह दिया- 
" यह जो गंगा बहती जा रही है, इसमें इतना ज्वार-भाटा खेलता है.
भाटा समाप्त होते समय पानी की गति बहुत बढ़ जाति है, 
कितु उसके पहले से ही ज्वार का जल नीचे से बहता रहता है,
ऊपर से वह दिखायी नहीं पड़ता. "
उनके (स्वामी भूतेशानन्दजी के ) मुखमंडल पर वही वात्सल्य पूर्ण हँसी प्रस्फुटित हो गयी- बोले- " नवनी ठीक बलछे. एई जे विवेकानन्द युव महामण्डल - एटा कि सत्ययुगेर लक्षन नय ? " " नवनी ठीक कहता है, यह जो विवेकानन्द युवा महामण्डल चल रहा है, क्या यह सत्य युग का लक्षण नहीं है ? "
एकदिन भरत महाराज के पास गया हूँ, कहते हैं-
" तोमादेर ' विवेक-जीवन ' आमार काछे आसे, आमि एकटू एकटू देखी. 
अनेक जायगाय युवकदेर ' कथामृत ' पड़िये पड़िये माथा खाच्छे. 
तोमराई ठीक काज करछ, स्वामीजीर कथा शोनाच्छ . " 
" - तुमलोगों का ' विवेक-जीवन ' (महामण्डल की मासिक संवाद-पत्रिका )
मेरे पास आता रहता है, मैं उसे थोड़ा-बहुत देखता भी हूँ . 
बहुत से स्थानों पर युवाओं को " वचनामृत " 
(श्रीरामकृष्ण-वचनामृत) पढ़ा पढ़ा कर उनका माथा खाता है,
तुमलोग युवाओं को स्वामीजी की वाणी सुनाते हो, तुम्ही लोग सही काम कर रहे हो ! "
महामण्डल के उडिषा राज्य शाखा कि ओर से लगातार चार वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर स्वामी रंगनाथानन्दजी की वक्तृता का आयोजन किया गया था. कितने दिनों तक प्रति दिन चार-पाँच जगहों पर उनका भाषण होता था. प्रत्येक बार मुझको भी जाने के लिये कहते थे. किसी जगह पर महाराज पहले बोलते थे उनके बाद मैं बोलता था. कहीं पर वे कहते- " तुम पहले बोलो मैं बाद में बोलूँगा " प्रत्येक जगह पर प्रचूर श्रोता एकत्र होते थे. सभा का पण्डाल के बाहर भी इतनी भीड़ (दो-तीन हजार लोग) इकट्ठी हो जाति थी कि पण्डाल से कुछ दूरी पर ही गाड़ी खड़ी कर देनी पड़ती थी.
किसी स्थान पर सभापतित्व करने की जिम्मेवारी सुप्रीम कोर्ट के मूख्य न्यायधीश की थी. अन्तिम क्षणों में सूचना मिली वे  नहीं आ सकेंगे. हठात उनलोगों ने न जाने क्या सोंच कर सभापतित्व करने के लिये मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया, रंगनाथानन्दजी को बताया तो, उन्होंने कहा- ' very good .' 
सभापति के भाषण को पहले ही देते हुए, मैंने कहा- ' महाराज के भाषण को अन्त में सुनने पर आपलोग उनके उपदेश के भाव को अधिक देर तक अपने दिमाग में बैठा सकेंगे, इसीलिये सभापति का भाषण उनसे पहले ही हो गया है.
एक ग्राम की ओर चलते समय रास्ते में लोग पैर धो रहे थे, माला पहना रहे थे. इतना अधिक माला पहना दिया कि गले में अँट नहीं रहा था. हमदोनों ही लोग बीच बीच में कितने हार को गले से खींच कर फेंक रहे थे और कितने ही लोग उनको लूटने के लपकते थे. मंच पर एक तरफ खड़े होकर महाराज वक्तृता दे रहे थे, मैं बीच में बैठा हुआ था, हठात श्रोताओं के बीच से, उनके सर को इधर उधर हटाते हुए एक व्यक्ति मंच पर चढ़ कर मेरे सामने साष्टांग सो गया और दोनों पैरों को पकड़ कर रोने लगा. महाराज जिस प्रकार वक्तृता दे रहे थे, मेरी ओर जरा सा एक नजर देखे और बिना रुके बोलते ही रहे. दूसरे लोग आये और उस व्यक्ति को उठाकर ले गये. बाद में जब महाराज ने उस व्यक्ति उस प्रकार रोने का कारण जानना चाहा तो बताया गया कि वह व्यक्ति चाहता था कि मैं माँ के सम्बन्ध में कुछ कहूँ .
महाराज ने मुझे माँ के सम्बन्ध एक घन्टा तक बोलने को कहा और खुद अगली सभा के लिये चल पड़े, तथा सभा की समाप्ति के पश्चात् मुझे वहाँ नहीं जाकर उसके बाद वाली सभा में जाने का आदेश दिया. मुझे वैसा ही करना पड़ा. एक स्थान पर जाने के पहले हम दोनों को बिठाकर विभिन्न उपचार से पूजा करने के बाद आरती किया. (नर-नारायण repeats ?) मनुष्य के मन में क्या-क्या भावनाएं आ सकती हैं ! इन सबको रंगनाथानन्दजी ने बहुत सहज भाव से ग्रहण किया, मैं भी उनका अनुसरण करता चला गया. वे भी कितने अदभुत मनुष्य थे ! उनका प्रेम पाकर के मुझे ऐसा प्रतीत होता था- क्या पिता पुत्र को इस प्रकार प्रेम कर सकते हैं ? एवं यह भी मेरे मन में ऐसा ख्याल भी आता है कि, (पिता-पुत्र य़ा नर-नारायण के बीच जो स्नेह होता है ) वैसा स्नेह सदैव किसी न किसी को प्राप्त होता रहेगा !
इसके बहुत बाद में जब भरत महाराज बहुत अस्वस्थ होने सेवा प्रतिष्ठान में रहरहे थे. यह खबर मुझे दूसरों से प्राप्त हुई थी. अक्सर किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति मिलती नहीं थी. मेरा मन बेचैन हो रहा था. हठात एक दिन दोपहर के समय मेरे दसवें तल्ले पर स्थित ऑफिस के कक्ष में, जयराम महाराज (स्वामी स्मरणानन्दजी, वर्तमान समय में मठ के भाईस प्रेसिडेन्ट ) आकर हाजिर होगये. और बोले " भरत महाराज को देखने के लिये सेवा प्रतिष्ठान जा रहा हूँ. आपके ऑफिस के सामने गुजरते समय मन में आया आपसे भी मिलता चलूँ. " मैंने पूछा - " क्या आप मुझे भी अपने साथ ले चलेंगे ? " उन्होंने कहा- ' चलिए '. मैं फाइलों को संभल कर रख दिया और उनके साथ हो लिया. उनके साथ जा रहा था, इसीलिये रास्ते में किसीने हमें टोका-टाकी नहीं किया.
लिफ्ट से सेवा-प्रतिष्ठान के चौथे तल्ले पर चढ़ कर दक्षिण की ओर वाले अन्तिम केबिन में महाराज आँखों को मूंद कर चुचाप सोये हुए थे. केबिन के अन्दर उनके बिछावन के समीप खड़े होकर हमदोनों उनको देख  रहे थे. वहाँ पर अकेले " मन्टू बाबू " {जिन्होंने बहुत वर्षों तक मठ में भरत महाराज की सेवा-सुश्रुषा (देख-भाल) आदि की थी} ही खड़े थे. सभी लोग चुप-चाप थे. जयराम महाराज ने मन्टू बाबू से पूछा, " हम लोग जो यहाँ आये हैं क्या महाराज इस बात को समझ सके हैं ? " मन्टू बाबू ने थोड़ा कर्कश स्वर में कहा- " मैं यह कैसे बता सकता हूँ ? " 
जयराम महाराज इतने शान्त स्वाभाव के थे, की कर्कश स्वर में उत्तर न देकर उन्होंने मुझसे कहा- " आप यहीं ठहरिये, मैं किसी व्यक्ति के साथ मिल कर शीघ्र ही आ रहा हूँ."
इधर मन्टू बाबू को भी थोड़ा अफ़सोस हो रहा था कि, सन्यासी से उस प्रकार बोल दिये ! उन्होंने शान्त भाव से मुझसे कहा- " रात्रि के समय एक दरी बिछा कर फर्श पर सोना पड़ता है, और सारे दिन सन्यासी लोग, डाक्टर, नर्स, भक्त लोग आते रहते हैं, कई तरह के प्रश्न पूछते हैं, साबुन को जितना सम्भव होता है उत्तर देता हूँ. कुछ ही दिन पहले पती और पत्नी दोनों आये थे, वे लोग महाराज के पास बीच बीच में मठ में आया करते थे. वे ट्रेन से बहुत दूर से आये थे. इस कमरे में तो कोई आ नहीं  सकते थे, कमरे के बाहर से ही पूछ रहे थे, " हमलोग महाराज को देखने के लिये आये हैं, क्या महाराज इस बात को जान रहे हैं ? " महाराज तो आँखे मूंद कर सोये हुए थे.
हठात महाराज कहते हैं- " उनलोगों से पूछो कि, विवाह के रात्रि में पती-पत्नी आपस में सात-सात वचन एकदूसरे को देते हैं; वे वचन उनको अब भी याद हैं य़ा सब भूल गये हैं ? " जैसे ही मन्टू बाबू ने महाराज कि बात उनलोगों से कहा, वे दोनों जोर जोर से रोने लगे और दरवाजे की चौखट पर सर रगड़ने लगे. उसके बाद धीरे धीरे उठे और हाथ जोड़ कर बोले- " हमलोग तलाक लेने के लिये कोर्ट जा रहे थे, फिर सोंचे कि एक बार महाराज को प्रणाम करके जाना चाहिये. नहीं , अब तलाक नहीं लेंगे. " 
वैसे तो स्वामीजी की समस्त वाणी मन्त्र के जैसी ( वेदों के ४ महावाक्यों के जैसी) ही हैं- जिसका मनन करने ' त्राण ' (भवसागर से तर जाते हैं ) होता है, फिर भी उनका एक उपदेश - जिसने इस जीवन नदी को सदा (सागर से मिलने जाने के पथ पर ) चलते रहने को प्रेरित किया है-
वह उपदेश है : 
" They alone live who live for others, 
the rest are more dead than alive. " 

" - यथार्थ रूप में वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं, 
बाकी लोग तो मृतक (मुर्दा) से भी अधम हैं. " 
( स्वामीजी का यह कथन कितना सत्य है इसका प्रमाण है मेरी यह जीवन नदी जो अपने हर नये मोड़ पर कितने ही ऐसे जीवित लोगों का अनुभव संजोय है ! ) 
जीवन नदीर बाँके बाँके, कतई देखा शोना होल - 
अतल प्रानेर सागर ह'ते, किसेर ध्वनी बोझा गेल ?
कालेर बेलाये रेखा रेखे, एबार जाबार समय एल ;
भेसे जाबार एल पाला, विस्मरनेर अतल तले || 
उस परा-वाणी को समझ कर कवि ह्रदय गा उठता है- 
जीवन नदी के हर मोड़ पर - कितना कुछ देखने सुनने का अवसर मिला - 
किन्तु प्राण-सागर की असीम गहराई (नाभि) से ऊपर उठती हुई 
(वह नाम-धुन : परा-मध्यमा-पश्यन्ति वैखरी वाणी) वह ध्वनि किसकी है ?- 
( वह परा वाणी " शब्द-ब्रह्म "  ॐ कार की गूँज है- )
बात समझ में आयी ?     
काल के कपाल पर स्मृति-चिन्हों को बनाते -बनाते, अब मेरा खेल ख़त्म हुआ; विस्मृति की असीम गहराई (महा-आनन्द ) में बह जाने का समय आ गया है !!  
महाकवि अज्ञेय की कविता है-   




हम नदी के साथ-साथ
सागर की ओर गए
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे:

नारियल के खड़े तने हमें
लहरों से अलगाते रहे
बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे
रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल
हमारा मन उलझाते रहे

नदी की नाव
न जाने कब खुल गई
नदी ही सागर में घुल गई
हमारी ही गाँठ न खुली
दीठ न धुली

हम फिर, लौट कर फिर गली-गली
अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे।

" हरिः ॐ तत सत "

(Definition of Critical :- urgently needed; absolutely necessary Example: critical medical supplies|vital for a healthy society|of vital interest)

               
           

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

[58] "ऐसा उदार ह्रदय था मेरी माँ का !"

" खड़दा का आभिजात्य वर्ग के लोगों का मोहल्ला "
खड़दा में हमलोगों के मोहल्ले का नाम है- ' कुलीन पाड़ा ' (आभिजात्य वर्ग के लोगों का मोहल्ला ) वहाँ पर लक्ष्मी-नारायणजी का मन्दिर है, उस मन्दिर में कुछ वर्षों तक मैं प्रतिदिन संध्या के समय जाया करता था. उस मन्दिर के जो प्रतिष्ठाता हैं उनका सन्यास नाम था- यतीन्द्ररामानुज दास. वे रामानुजी वैष्णव संप्रदाय के सन्यासी थे. किन्तु सन्यास लेने से पहले उनका पेशा डाक्टरी का था, वे एक प्रसिद्ध डाक्टर थे. आन्दुल के दो डाक्टर थे एक थे बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, और दूसरे थे ये - डाक्टर इन्द्रभूषण बसू; जो बाद में यहाँ (खड़दा में) आ गये थे. थोड़ा पहले के समय के जो लोग हैं, वे सभी इनको जानते हैं. 
उस समय के देशी राजा लोग बीमार पड़ने पर इन लोगों को ही अपने रोग का इलाज करवाने के लिये अपने साथ ले जाया करते थे. मैं जिस दिन पहली बार मन्दिर गया तो देखता हूँ एक व्यक्ति सन्यासी वेष में सादा वहिर्वास एवं शरीर पर एक चादर ओढ़े खड़े हैं. उनको  देखने से ऐसा लगा मानो बड़े ही तेजस्वी पुरुष हों. मन्दिर के प्रांगण  में सारे कार्यों की देखरेख करते हुए घूमफिर रहे थे. सन्यासी समझ कर उनको अपना प्रणाम निवेदित किया. प्रणाम करते ही चेहरे की ओर देखते हुए बड़े स्नेह पूर्वक बोले- ' कहाँ रहते हो ? ' इत्यादि इत्यादि. उसी के बाद से वहाँ आना-जाना शुरू हो गया. प्रौढ़ अवस्था में, काफी उम्र बीत जाने के बाद उन्होंने डाक्टरी का पेशा त्याग कर सन्यास ले लिया था. इसी अवस्था में उन्होंने संस्कृत भी सीखा था एवं संकृत भाषा के असाधारण विद्वान् हुए थे.
कुछ वर्षों के लिये दक्षिण भारत चले गये थे. तमिल भाषा सीख लिये. भक्ति मार्ग के जितने भी प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं उनमे से अधिकतर ग्रन्थ तमिल भाषा में ही उपलब्ध हैं. उन्होंने लगभग तीस तमिल भक्ति-शास्त्रों का बंगलाभाषा में अनुवाद किया था.यहीं पर एक प्रेस स्थापित किया था जिसमे इन ग्रंथों की छपाई होती थी. ' उज्जीवन ' नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किये थे. वह छपता रहा, फिर साथ साथ अन्य पुस्तकों को भी प्रकाशित करने लगे.
साथ ही साथ  इतनी उम्र बीत जाने के बाद भी संगीत की शिक्षा प्राप्त किये, पहले से थोड़ा बहुत संगीत जानते थे, किन्तु बाद में कीर्तन विशेष रूप से सीख लिये थे. उनके जैसा किसी अन्य कीर्तन गाने वाले को मैंने आज तक कभी नहीं सुना है. उनके कीर्तन शास्त्रीय रागों पर आधारित होते थे, एवं प्रत्येक उत्सव के अवसर पर उनका कीर्तन सुनने के लिये भारी संख्या में भक्त लोग एकत्र होते थे. उसमे प्रवचन तो यदाकदा ही होते थे परन्तु कीर्तन सर्वदा हुआ करता था.
जिस दिन जो कीर्तन होगा, उसे पहले से छपवा कर सबों के हाथों में दे दिया जाता था तथा वे खड़े होकर ही गाया करते थे.एवं नवद्वीप ब्रजवासी महोदय जैसे खोलवादक ( मृदंग वादक ) मृदंग बजाया करते थे. वृद्ध, तन किन्तु हाथ, उस हाथ से कैसी मधुर ध्वनी निकलती थी. जो लोग पुराने समय के किर्तनिये हैं वे जानते हैं कि नवद्वीप ब्रजवासी महोदय किस अनन्य कोटि के मृदंग वादक थे. कीर्तन करते समय किर्तनिया लोग प्रारम्भ में थोड़ा सा आलाप अवश्य लिया करते हैं. किन्तु जब वे आलाप लेते थे तो उनके  कंठस्वर को थोड़ा सा सुनते ही श्रोता को स्तंभित हो जाना पड़ता था. उस समय किसी भी श्रोता के शरीर-मन में थोड़ी भी चंचलता का रहना असम्भव हो जाता था. एवं उस मन्दिर का सौन्दर्य भी असाधारण था. यह मन्दिर गंगा के बिल्कुल किनारे ही स्थित है, तथा गंगा के उसपार से भी उनका कंठस्वर सुनाई देता था.
अपूर्व मनोहर कंठस्वर एवं अति उद्दात गला, तथा जिन को स्वर कि शुद्धता का ज्ञान है, वे उनके कन्ठ स्वर को सुन कर पुलकित हो जाते थे. फिर कैसा सुन्दर कीर्तन प्रस्फुटित होने लगता था. उस समय भी मुझे उनका कीर्तन बहुत अच्छा लगता था किन्तु आगे चल कर और भी अच्छी तरह से समझने लगा था. इसीलिये संगीत के जैसा माँ के पास गाना सुनता था, उसी तरह हाथ में खल्ली पकड़ा कर किस प्रकार वाद्य-यन्त्र  से निकलने वाले स्वरों को गले में उतरा जा सकता है- यह विद्या इनके पास से ही सीखा था. जब उनकी उम्र बहुत अधिक हो गयी तो एकदिन उनके पास गया था, मुझसे बोले- ' तुम्ही लोग भाग्य वाले हो, इतने कम उम्र में इन सब की ओर तुम्हारे मन का झुकाव हो गया है, हमलोगों का अधिकांश जीवन तो वैसे ही व्यर्थ में चला गया.'!
इस मन्दिर में अयोध्या के ब्राह्मण लोग पुरोहित हुआ करते थे. उनलोगों के साथ घनिष्ट परिचय हो गया था. मन में विचार आया इनलोगों से अगर संस्कृत के उच्चारण को सीख लिया जाय तो कितना अच्छा होगा ? घर में संस्कृत के ऊपर बहुत सी पुस्तकें विरासत से उपलब्ध थीं, संस्कृत के ऊपर चर्चा भी होती थी.
प्रपितामह भुवनचन्द्र विद्यानिधि तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर महाशय के छात्र थे. हमलोगों के स्कूल में संस्कृत की पढ़ाई बहुत अच्छे स्तर की होती थी. किन्तु बंगाली लोग संस्कृत को सही ढंग से उच्चारण करने में अभ्यस्त नहीं होते. इस मन्दिर के दो पुरिहितों से संस्कृत का सही उच्चारण करना सीखने लगा. श, ष, स के उच्चारण के पार्थक्य को समझा, न और ण में उच्चारण के पार्थक्य को सीखा. लघु और गुरु स्वरों के पार्थक्य को सीख कर रोज सुबह में थोड़ी देर अभ्यास करता था. उस समय तक तो नौकरी का जीवन शुरू हो चुका था. नौकरी के सिलसिले में बदली हो य़ा नई नई नौकरी लगी हो- जहाँ भी रहता था वहीं सुबह में कम से कम १५ मिनट सही ढंग से संस्कृत में उच्चारण करने का अभ्यास अवश्य किया करता था.
विशुद्ध सिद्धान्त पत्रिका (बंगाली पञ्चांग ) के प्रतिष्ठाता माधवचन्द्र चट्टोपाध्याय मेरी माँ के पितामह थे. वे भारत सरकार के लोक निर्माण विभाग के प्रथम भारतीय इंजीनियर थे, रुड़की से इंजीनियरिंग पढ़े थे. वे एक समय नौकरी के सिलसिले में कुछ समय तक कटक में रहे थे. वहाँ पर एक ज्योतिर्विद (astronomer)  के साथ उनका परिचय हुआ तब उनका इस विद्या की ओर बहुत झुकाव हो गया था, इस विषय पर उन्होंने बहुत गहरा अध्यन किया था. एवं बाद में इस पत्रिका में सुधार करने की बात उठी थी. ' विशुद्ध सिद्धान्त पत्रिका ' को  प्रकाशित हुए १०० से अधिक वर्ष बीत चुके हैं. किन्तु हमारे घर में यही पत्रिका १०० वर्ष से भी अधिक समय से व्यवहार की जाति रही है. उनके पुत्र, मेरे मातामह (नाना) परेशचरण चट्टोपाध्याय लोक निर्माण विभाग विभाग में एक्जीकियुटिभ इंजीनियर थे. हुगली जिले के नंदीग्राम में उनका पुराना घर था. माने उनलोगों का आदि निवासस्थान वहीं था. श्यामबाजार में जहाँ पञ्चमुहान (पञ्चमाथा मोड़ ) कहता है, ठीक उसी जगह में उनलोगों का तीन तल्ला घर था. पञ्चमाथा मोड़ बनते समय उनका घर तोड़ दिया था, बाद में उनलोगों ने उत्तर पाड़ा में एक मकान बनाया था. फिर जब उत्तर पाड़ा की तरफ से बालि की ओर जाने का ब्रीज जब निर्मित हो रहा था तब उनलोगों का उत्तर पाड़ा वाला घर भी तोड़ दिया गया था. उसके बाद से वे लोग इधर उधर विभिन्न स्थानों में रह चुके हैं. मेरे मातामह (नाना ) परेशचरण चट्टोपाध्याय बहुत से स्थानों में रहे हैं. जिस समय वे आसाम में थे उस समय वहाँ एक सरोवर (झील ) खुदवाये थे. उसका नाम ' परेश सरोवर ' था. वे नौकरी के दौरान कुछ समय तक तेजपुर में थे.
मेरी माँ का जन्म तेजपुर में ही हुआ था. मेरी माँ का नाम उषा था, उषा रानी कहते थे. तेजपुर के एक राजा की कन्या का नाम उषा था. नहीं कह सकता कि मेरी माँ का नाम उन्ही के नाम पर था य़ा नहीं . बचपन में माँ तेजपुर में रहती थी, एकदिन एक दिन एक दीन-दरिद्र विकृत मस्तिष्क महिला हठात घर के बगीचे में घुस आयी और खाना माँगने लगी, बालिका के उम्र कि मेरी माँ ने उसको घर के भीतर ले जाकर अच्छी तरह से स्नान करवाया, अच्छे कपड़े पहनाये तब भर पेट भोजन करा कर विदा कर दिया, जाते समय उस महिला ने मेरी माँ को ढेर सारा आशीर्वाद दिया था. 
मेरी माँ का ह्रदय असाधारण रूप से कोमल और सहानुभूतिशील था, पिताजी भी वैसे ही थे. पितामह, प्रपितामह, प्रपितामही, इन सबों के ह्रदय में सबों के प्रति अत्यन्त प्रेम था, सहानुभूति थी. इनलोगों का सारा ध्यान सर्वदा इसी बात की ओर लगा रहता था कि कैसे सबों कि थोड़ी साहायता की जाये, दूसरों को थोड़ी तृप्ति दी जाये, आनन्द दिया जाये. भुवन पण्डित महाशय जाड़े के समय में एक दिन शाल ओढ़ कर गंगा के किनारे प्रातः भ्रमण (मॉर्निंग वाक) करने गये थे, जब वापस लौटे तो शरीर पर शाल नहीं था. पूछा गया, " शाल क्या हुआ ? " उन्होंने कहा एक आदमी ठंढ से बहुत काँप रहा था, उसी को दे दिया. "  हमलोगों की अवस्था बहुत अच्छी नहीं थी, मोटामोटी परिवार के खर्च भर पैसे आ जाते थे, किन्तु यह सब वैसे ही चलता रहता था. अपने हिस्से का दोपहर के भोजन दूसरे को खिला कर स्वयं मुढ़ी खाकर मेरी माँ ने कितने दीन बिताये होंगे, उसकी गिनती नहीं की जा सकती. जब माँ का देहान्त हो गया तो घर के सामने दो-तीन सौ लोग आकर जमा हो गये थे. ( सभी के मुख पर एक ही बात थी - कोई कहता चाची मुझको बहुत मानती थी, कोई कहता मौसी मुझे बहुत मानती थी.) महिलायें आ आ कर थोड़ा थोड़ा सिंदूर ले जा रही थी. मोहल्ले के सारे लोगों की आँखें नम हो गयीं थीं. एक-दो लोग आकर जोर जोर से रोते हुए कह रहे थे, " माँ, यदि आप मुझे खाना नहीं खिलातीं, तो पता नहीं कितने दिनों तक मुझे भूखा ही रह जाना पड़ता. " ऐसा उदार ह्रदय था मेरी माँ का !
         शियालदह स्टेशन के निकट 6 /1 A जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, स्थित तनु बाबू के के घर के निचले तल्ले पर महामण्डल का सिटी ऑफिस तो चल ही रहा था. परन्तु बीच बीच में महामण्डल द्वारा सन्चालित विभिन्न केन्द्रों के संचालकों को विशेष प्रशिक्षण देने के लिये केंद्रीय संस्था की ओर से तीन तीन महीने के अन्तराल पर विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित होते रहते थे. इसके लिये हमलोगों को किसी स्कूल य़ा किसी बड़े हॉल में एक-दो दीन की व्यवस्था करनी पड़ती थी. इसीलिये हर बार यह शिविर विभिन्न स्थानों पर आयोजित करना पड़ता था.
 अतः किसी ऐसे स्थान की आवश्यकता बहुत अधिक प्रयोजनीय हो गयी थी जो अपना स्थायी स्थान हो जहाँ नियमित रूप से इस प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था हो सकती हो. कोन- नगर का महामण्डल भवन के निकट जहाँ कोपरेटिभ सोसाइटी चलता है, वहाँ शिशिर कुमार घोष महाशय के के घर के बगीचे के किनारे एक छोटे से घर में सुभाष गुहा ने महामण्डल के कार्य को आरम्भ किया था. अनुमति लेकर वह जब वहाँ पर पाठचक्र चलाने लगा तो वहाँ रहने वाले स्थानीय लोगों को महामण्डल के सम्बन्ध जानकारी प्राप्त हुई. शिशिर बाबू के भाई सुबीर कुमार घोष महाशय महामण्डल को ४ कट्ठा जमीन दान में दे दिया. वहाँ पर और भी ४ कट्ठा जमीन वे पौर-सभा (नगर-परिषद् ) को दान करने की बात सोंच रहे थे. किन्तु उनके एक परिचित कानून-विद प्रणय सरकार ने सुबीर बाबू को सावधान करते हुए कहा उनलोग आपके द्वारा दिये जमीन को किस प्रकार व्यवहार में लायेंगे यह ठीक नहीं है, हो सकता है यहाँ का परिवेश अवान्छित हो जाये, इसीलिये किसी जमीन का दान किसी अच्छी संस्था को करना ही अच्छा होगा. 
इसीलिये सुबीर बाबू ने बाद में और भी चार कट्ठा जमीन महामण्डल को ही दान में दे दिया. महामण्डल के विभिन्न केन्द्र में जिला स्तर पर य़ा कुछ जिलों को मिला कर आंचलिक प्रशिक्षण शिविर हो रहे थे, एवं अब भी हो रहे हैं. सभी लोगों ने भवन निर्माण के लिये अर्थ दान में दिये. सबसे पहले निचले तल्ले पर एक बड़ा सा हॉल और कुछ छोटे छोटे कमरे कुआँ आदि बनाये गये. हॉल में ठाकुर-माँ-स्वामीजी की तीन छवियाँ यथाविधि प्रतिष्ठित कर दिया गया. 
बाद में दूसरे तल्ले पर एक सभा-कक्ष और एक कमरा निर्मित हुआ जिसके बाद से अब विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने के लिये हमलोगों विभिन्न स्थानों में दौड़ने की जरुरत नहीं होती. उस हॉल में १५० से २०० व्यक्ति एक साथ बैठ कर क्लास कर सकते हैं. बाद ठाकुर-माँ-स्वामीजी के छवि को भी दूसरे तल्ले वाले हॉल में ले जाया गया. महामण्डल की स्थानीय शाखा भी इसी जगह से अपने नियमित कार्य करते हैं. महामण्डल जिस प्रकार केवल पुरुषों के लिये है, उसी की तरह कार्य स्त्रियों के बीच भी करने के लिये बहुत सी महिलाओं के आग्रह को पूर्ण करने के लिये महामण्डल ने प्रयास करके ' सारदा नारी संगठन ' की भी स्थापना कर दी है. उसकी स्थानीय शाखा का साप्ताहिक पाठचक्र भी इसी स्थान में आयोजित होता है.महामण्डल के इस भवन की बुनियाद का पत्थर बेलुड मठ के जेनरल सेक्रेटरी श्रीमत स्वामी वन्दनानन्दजी महाराज के करकमलों द्वारा रखी गयी थी, जिसमे हजारो लोग उपस्थित हुए थे.
कोन नगर का एक रिक्सा-चालक ( ठेला-रिक्सा वाला) जिसका नाम था अशोक, उसने पहले एक मीट्टी के कमरे की नींव में उपयोग करने के लिये अपने रिक्से (वैन-रिक्सा) से बहुत सी मिट्टी ढो कर ला दिया था. उसके लिये कोई किराया नहीं लिया था, इधर अपने रोजगार से नियमित वह एक पञ्च रुपये का सिक्का एक चुकिया में डाल दिया करता था. जब वैसा १०० सिक्का (पाँच रुपये का)  जमा हो गया तो भवन निर्माण के लिये चंदे में दे दिया. यह घटना रामचन्द्र के सेतु-बांध के समय हनुमान द्वारा दी गयी साहायता का स्मरण करवा देती है. महामण्डल के इतिहास में यह घटना भी अविस्मर्णीय हो कर रहेगी.
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सोमवार, 27 सितंबर 2010

[57] " इस जन्म के मेरे अन्य सगे-सम्बन्धी "

  बहुत से सन्यासियों का संग पाने का सौभाग्य मिला है. इससे जीवन में परम लाभ हुआ है. ऐसे ही एक अन्य सन्यासी - ' राममय महाराज ' की छवि अब भी स्मृति में बसी हुई है. राममय महाराज की स्मृति आते ही माँ के उपदेश याद आने लगते हैं. किस प्रकार स्कूली जीवन के समय से ही उनको माँ के सत्संग में रहने का सौभाग्य मिला था. और भी दो-चार असाधारण सन्यासियों की कहानी सुना हूँ जिनको बचपन से ही माँ के पास रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हठात एक दिन सुबह में देखता हूँ कि राममय महाराज हमारे घर के एक कमरे में बिस्तर पर बैठे हुए हैं.मैं तो उनको वहाँ बैठे देख कर आवाक हो गया, और बोला- " महाराज आप यहाँ? " बोले- " मैं यहाँ किस सिलसिले में आया, लगता है तुमको वह नहीं पता है ?" मैंने कहा, ' जी नहीं, महाराज .' तब महाराज ने बताया- " तुम्हारे दादा (बड़े भैया ) करवीवरण मुखोपाध्याय को कलकाता में आयोजित होनेवाले एक फूलों कि प्रदर्शनी में एक विशेष फूल के लिये इस बार फर्स्ट प्राइज मिला है। 
 तब मैंने उसको कहा था कि मैं एकदिन तुमलोगों का बगान देखने आऊंगा. आज तुमलोगों का बगान देखने आया था, इसी लिये यहाँ बैठा हूँ. सुनकर मुझे बहुत आनन्द हुआ. तो मैं यह पहले ही कह चुका हूँ कि मेरे दादा ने I.Sc. तक की पढ़ाई मेरे साथ ही की है. उन्होंने I .Sc.बहुत अच्छे अंको पास किया और उसके बाद कलकाता में होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज में भारती हो गये थे.चार वर्ष तक बहुत अच्छा रिजल्ट किये थे कईबार तो फर्स्ट क्लास फर्स्ट हुए थे.
किन्तु चौथे वर्ष के अन्तिम भाग में, पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमन्त्री विधान चन्द्र राय किसी सभा में उपस्थित थे. उनके समक्ष ही मेरे दादा ने एक भाषण दिया था. उनके भाषण को सुनकर विधान चन्द्र राय ने कहा- " इसको एकबार राइटर्स बिल्डिंग में मेरे साथ भेंट करने के लिये कहियेगा." वे जब राइटर्स बिल्डिंग में गये तो बहुत काम देने लगे. वे उनके साथ इतने रम गये आगे की होमिओपैथी का कोर्स पूरा करना सम्भव नहीं हुआ. विधान राय के लिये ही वे कई बार बहुत सारी चीजें लिख दिया करते थे, कभी कभी उनके भाषण आदि भी वे ही लिख दिया करते थे. इसप्रकार वे उनके अत्यन्त करीबी व्यक्ति बन गये थे. 
उससमय ' भारतवर्ष ' और ' प्रवासी ' नामक दो बंगला मासिक पत्रिकाएं बहुत लोकप्रिय थीं, ' भारतवर्ष ' पत्रिका के सम्पादक फणीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के साथ भी उनका घनिष्ट परिचय था. दादा (भैया ) बहुत अच्छा लिख सकते थे. उन्होंने बहुत सी कवितायेँ लिखीं हैं, प्रबन्ध लिखे हैं, बंगला भाषा पर उनकी आश्चर्य जनक पकड़ थी. घर की फुलवारी को बहुत मनोहारी ढंग से सजाये थे. अनेकों स्थानों पर सभा समितिओं में भाषण देते थे. ' भारतवर्ष '  के सम्पादक फणीन्द्रनाथ का जब देहावसान हो गया तो एक समिति गठित कर बहुत वर्षों तक उनका जन्मदिन मनाते थे. उस समय घर में बहुत से लोगों का आना-जाना लगा रहता था.
पहले जो मेरे ' बड़-दादू ' ( बड़े पितामह ) की बात हो चुकी है, उनके दो लड़के थे, बड़े लड़के का नाम देवदेव मुखोपाध्याय था. उनकी दो कन्यायें थी. वे दोनों राँची में अपने मामा के घर में रहित थी. बड़ीबहन का नाम मालविका था, उसने बी-ऐ पास किया था, तभी उसको टाईफेड हो गया था, उनदिनों इसकी भी अच्छी चिकत्सा उपलब्ध नहीं थी, उसका देहान्त हो गया था. छोटीबहन का नाम उत्प्ला था, उस समय राँची में कोई यूनिवर्सिटी नहीं थी, इसीलिये पटना यूनिवर्सिटी से उसने अंग्रेजी से एम्-ऐ में फर्स्ट क्लास फर्स्ट किया था. 
उसका जिनके साथ शादी हुई थी- (अर्धेन्दुशेखर) वे सात विदेशी भाषाओँ के ज्ञाता थे. बहुत समय तक दिल्ली में थे. उनदिनों जो लोग फोरेन-सर्विस में थे उनमे से कई लोग उनके पास विदेशी भाषा सीखने के लिये आया करते थे. संगीत में भी वे बड़े दक्ष थे. असाधारण संगीतज्ञ थे. जिस प्रकार गायन में उनको महारत हासिल थी उसी प्रकार यंत्र-संगीत में भी प्रवीन थे, खास तौर पर वे सितार बहुत अच्छा बजाते थे. वे क्लासिकल म्यूजिक के बहुत बड़े फनकार थे, कई सौ गानों की रचना किये थे. उनके(अर्धेन्दुशेखर ) द्वारा लिखित प्राचीन भारतीय संगीत के ऊपर अंग्रेजी में लिखी एक पुस्तक थी, नाम था- ' The Story of Indian Music ' उत्प्ला संस्कृत भी बहुत अच्छा जानती थी. यदाकदा वह संस्कृत में श्लोक भी लिख सकती थी. स्वामी अभेदानन्द की शतवार्षिकी के समय अभेदानन्द के ऊपर संस्कृत में एक बहुत बड़ी कविता लिखी थी. उस कविता को उनके स्मारक-ग्रन्थ में प्रकाशित भी किया गया था.
स्कूली जीवन के विषय में बताते समय एक ही स्कूल में तीन पीढ़ियों के पढने का जिक्र हुआ था. पितामह के छोटे भाई - विभूतिभूषण मुखोपाध्याय इंजीनियरिंग इत्यादि नाना प्रकार से करके अमेरिका में रहते थे. जब उनकी उम्र बहुत हो गयी थी वे अमेरिका में गीता पर क्लास लेते थे. गीता पढ़ाते थे.वहाँ के बहुत से लोगों ने उनसे संस्कृत सीखा है. मैंने यह भी देखा है कि इन्ही सब विषयों के बारे में वे पितामह के पास पत्र लिखा करते थे, एवं पितामह गीता के बारे में बहुत सी बातें उनको लिखते रहते थे. गीता की चर्चा होने पर 
भाटपाड़ा के विख्यात पण्डित पञ्चानन तर्कतीर्थ की याद आ रही है, उनके साथ पितामह की एक बार शास्त्र के ऊपर चर्चा हो रही थी. उस समय उन्होंने कहा था कि, मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूँ, गीता के एक श्लोक का अर्थ ऐसा होना चाहिये - मुझे ऐसा महसूस होता है. पञ्चानन तर्करत्न महाशय ने पूछा - " वह क्या है ?" पितामह कहते हैं- गीता में कहा गया है-
" त्रैगुन्यविषया वेदा निस्त्रैगुन्यः  भव अर्जुन |
                                                 निर्द्वन्द्वः नित्यसत्वस्थः निर्योगक्षेम आत्मवान || " (गीता : २: ४५ )
[" -हे अर्जुन ! वेद सत्व, रज, तम इन तीन गुणों वाले हैं- अर्थात कामना मूलक हैं.तुम इन तीन गुणों से अतीत अर्थात निष्काम हो जाओ.सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से रहित सदा आत्मनिष्ठ अर्थात सदा धैर्यशील तथा आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिये प्रयत्न रहित स्वस्थ अर्थात ईश्वर-अवलम्बी (धैर्य-सन्तुलन बनाये रखो )हो जाओ. " ]
 मेरे मन में गीता के इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार उभर कर सामने आता है,यदि आप अनुमति दें तो मैं आपके समक्ष उसको  निवेदन करना चाहूँगा. वे बोले - " आप इसका क्या अर्थ समझते हैं? " वेदों में तीन गुणों की बात, सत्व, रजः, तमः, की बात  कही गयी है, - " त्रैगुन्य विषया वेदाः " अतः हे अर्जुन ! तुम इन तीनों गुणों को ग्रहण मत करो- " निस्त्रयगुण्य भवार्जुन ! "" निः - द्वन्द्वः " माने ( जन्म-मरण, आदि ) दो गुणों को ग्रहण मत करो. हार-जीत, मान-अपमान, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों को ठाकुर की लीला एक खेल समझो 
और -" नित्य सत्वस्थ रहो ! "एक गुण को ही ग्रहण करो - एवं केवल सत्व गुण को ही ग्रहण करो. ' निर्योगक्षेम आत्मवान ' - ( अपने नफा-नुकसान के पचड़े में न पड़ कर धैर्य- सन्तुलन  बनाये रखो ! ) 
पञ्चानन तर्करत्न महाशय यह सुन कर बोले थे- " मैंने गीता पर एक शक्ति भाष्य की रचना की है, आप अधिकारी पुरुष हैं, वह पुस्तक मैं आपको दूंगा |"संस्कृत कॉलेज के अध्यक्ष Edward B. Cowell ने मेरे प्रपितामह (परदादा ) को इस कॉलेज से अध्यन समाप्त करने के बाद जो अभिज्ञता पत्र प्रदान किया था वह इस प्रकार था-
" This is to certify that Bhuban Chandra Mookerjee has attended at the Sanskrit College for 10 years and studied the following branches of Sanskrit Literature : Grammar, Belles Letters, Rhetoric and Law-; that he has attained respectable proficiency on the subject of these studies, that he has attained respectable proficiency on the subject of these studies, that he has made some progress in the English language and literature; and that his conduct has been satisfactory.
Fort William,
The 24th February 1862  
Edward B. Cowell 
Principal
    भुवनचन्द्र विद्यानिधि ने स्वयं भी कुछ दिनों तक संस्कृत कॉलेज में अध्यापन का कार्य भी किया है. पहले इस विषय में विस्तार से बताया गया है.विख्यात दार्शनिक ब्रजेन शील, जो स्वामीजी के समकालीन रहे हैं, स्वामीजी के सम्बन्ध में उनकी उक्ति असाधारण है. ऐसा भी हुआ है कि वे और स्वामीजी एक ही कॉलेज में पढ़े हैं. वे विख्यात दार्शनिक थे. उनके साथ एकबार पितामह की तन्त्र के ऊपर चर्चा हुई थी. तन्त्र के ऊपर चर्चा होते होते किसी विषय को लेकर उन्होंने जो व्याख्या की तो उसे सुनकर पितामह ने विनम्रता से निवेदन किया कि , ' मुझे ऐसा लगता है कि यह इस प्रकार न होकर इस प्रकार होगा .' तब ब्रजेन शील जैसे उच्च कोटि के दार्शनिक व्यक्ति ने भी कहा था, ' आप ही ठीक कह रहे हैं.' 
उनके (ब्रजेन्द्र शील के ) समय में भारतवर्ष में कई दार्शनिक हुए थे, जो बहुत बड़े पण्डित, ज्ञानी, बहुत बड़े अध्यापक, भी थे और दर्शन शास्त्र से जुड़े कई विषयों पर ग्रन्थ भी लिखे हैं. किन्तु दार्शनिक लोगों का ऐसा मानना है कि, उस समय एकमात्र कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य ही ऐसे व्यक्ति हुए थे जिन्होंने भारतवर्ष की जो निजी दार्शनिक विचार धारा है, उसमे यदि कोई नया सिद्धान्त जोड़ देने की क्षमता रखता हो, कुछ नयी चीज उसमे जोड़ दिये हों तो केवल उन्होंने ही किया है.
अन्यान्य दार्शनिक गण तो अनेक हुए हैं, किन्तु भारतीय दर्शन के भीतर कोई नया दृष्टिकोण य़ा सिद्धान्त किसी ने जोड़ दिया हो तो वे हैं - कृष्णचंद्र भट्टाचार्य ! और प्रेसिडेन्सी कालेज में कृष्णचंद्र भट्टाचार्य पितामह के सहपाठी भी थे. पितामह  का ऑनर्स  था, अंग्रेजी एवं दर्शन में तथा कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य ने तीन विषयों -अंग्रेजी, संस्कृत और दर्शन में ऑनर्स रखा था.           
Dr. Bidhan Chandra Roy, M.R.C.P., F.R.C.S. (Bengali: বিধান চন্দ্র রায়; 1 July 1882–1 July 1962) was the second Chief Minister of West Bengal in India. He remained in his post for 14 years as a Indian National Congress candidate, from 1948 until his death in 1962. He was a highly respected physician and a renowned freedom fighter. Bidhan Roy is often considered as the great architect of West Bengal, who had founded two eminent cities Kalyani and Bidhannagar. He was an alumnus of the Medical College Calcutta of the University of Calcutta. He is one of the few people who completed both F.R.C.S. and M.R.C.P. simultaneously within only two years and three months. In India, the National Doctor's Day is celebrated on the date of his birth (and death) July 1 every year. Dr. Bidhan Chandra Roy constituted a trust for his properties at Patna for social service and made eminent nationalist Ganga Sharan Singh (Sinha) the trustee. He won the Bharat Ratna in 4 February 1961, India's highest civilian honour.
Bidhan Chandra Roy was born on July 1, 1882, at Bankipore in Patna, Bihar. His father Prakash Chandra was an Excise Inspector. Bidhan was the youngest of five children and was greatly influenced by the simplicity, discipline and piety of his parents. Bidhan did his I.A. from Presidency College, Calcutta and B.A. from Patna College with Honors in Mathematics. He applied for admission to the Bengal Engineering College, and the Calcutta Medical College. He was accepted to both institutions but opted to go to medical school. Bidhan left for Calcutta in June 1901. While at medical school Bidhan came upon an inscription which read, "Whatever thy hands findeth to do, do it with thy might." Bidhan was deeply impressed by these words and they became a source of inspiration for him throughout his life.

Dr. Roy believed that the youth of India would determine the future of the nation. He felt that the youth must not take part in strikes and fasts but should study and commit themselves to social work. At his Convocation Address on December 15, 1956 at the University of Lucknow, Dr. Roy said, "My young friends, you are soldiers in the battle of freedom-freedom from want, fear, ignorance, frustration and helplessness. By a dint of hard work for the country, rendered in a spirit of selfless service, may you march ahead with hope and courage... ."
The partition of Bengal was announced while Bidhan was in college. Opposition to the partition was being organized by nationalist leaders like Lala Lajpat Rai, Arvinda Ghosh, Tilak and Bipin Chandra Pal. Bidhan resisted the immense pull of the movement. He controlled his emotions and concentrated on his studies realizing that he could better serve his nation by qualifying in his profession first.Dr. Roy was both Gandhiji's friend and doctor. When Gandhiji was undergoing a fast in Parnakutivin, Poona in 1933 during the Quit India Movement, Dr. Roy attended to him. Gandhiji refused to take medicine on the grounds that it was not made in India. Gandhiji asked Dr. Roy, "Why should I take your treatment? Do you treat four hundred million of my countrymen free?" Dr. Roy replied, "No Gandhiji, I could not treat all patients free. But I came... not to treat Mohandas Karamchand Gandhi, but to treat "him" who to me represents the four hundred million people of my country." Gandhiji relented and took the medicine.
Krishnachandra Bhattacharya (May 12, 1875 – December 11, 1949) was a philosopher at Calcutta University who studied one of the central questions of Hindu philosophy, which is how mind, life or consciousness creates an apparently material universe.
His answer was that the question itself is illegitimate, because it is asked from a position anchored in maya (illusion). On attaining knowledge of Brahman, illusion drops away and there are no more questions. The last knowledge that an individual has as an individual is the knowledge that all this is mere illusion. Beyond that is only the blissful residing in Brahman. Until then, "why" is a matter of faith, not reason.
Subject-object dualism: Therefore again, there seems to be no real debate between KCB and Aurobindo except that the former is self- conscious and rigorous about the method of philosophy and science while the latter is loose and well meaning. The key lies in KCB's assertion that science and philosophy, "Both deal with the object understood as what is believed to be known in the objective attitude as distinct from the subjective, enjoying or spiritual attitude." (Emphasis mine.) Raghuramaraju completely misreads KCB's analysis as an approach where "science denies philosophy." 
He misses the point about their common approach that lies in assuming the distinctness of the subject and object of knowledge or of matter and spirit that is the basis of Western philosophy's brand of analytic rigour. It is Gandhiji alone who recognised that this dualism of the subject and object of knowledge was the crux of the problem, the real basis of modern civilisation, its systematic philosophies, vivisectionist science and imperialist politics.
In the midst of the cacophony about independence, poverty, nationalism, colonialism, materialism, spiritualism, East, West, Left and Right, tradition and modernity, he therefore conducted his systematic experiments in the non-dualism of subject and object in science, religion and politics thus forging a new tradition and modernity. Note his careful choice of the subtitle for his autobiography, `The Story of My Experiments with Truth' (as against `Reform of the Indian Reality'), recording his experiments from non-vivisectionist healing and vegetarianism to satyagraha and sexuality; to reduce it to merely a movement for `spiritualising politics' is a real pity. The real puzzle/debate then is why Raghuramaraju, along with Sudhir Kakar, Partha Chatterjee and other contemporary Indian thinkers does not find Gandhiji systematic, scientific or technical enough!
  



 
     

बुधवार, 22 सितंबर 2010

[56] अल्मोड़ा यात्रा

क्या नवनी दा को अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी था ?  
महामण्डल के कार्य से उनदिनों इस प्रकार अक्सर यात्रायें करनी पड़ती थी, तब एक भाई ने परामर्श दिया कि जहाँ पर मिलिट्री का जितना डिस्पोजल में जीप आता है उसके गवर्नमेन्ट डिपो से पुराने जीप बेचे जाते हैं. तब हमलोगों एक सहयोगी वहाँ जाकर जीप पसन्द किये और तय किये कि इसी जीप को खरीदा जायेगा, बहुत ठीक बात है. कम दाम में एक जीप खरीद लिया गया, यह सोंच कर कि महामण्डल का इतना काम रहता है, एक जीप रहने से अच्छा ही रहेगा. जीप को खरीद लेने के बाद वहाँ से लाने लायक एक ड्राइवर लेगये  जो उस जीप को चला कर ले आया. यहाँ लाकर गाड़ी को खूब अच्छी तरह फिट-फाट करने के लिये एक गैरेज में भेज कर रंग-रोगन भी करवा लिया गया. 
तब चिन्ता हुई कि गाड़ी को चलायेगा कौन ? यह सब बताने में भी कष्ट होता है. तब हम सभी लोग जानने की चेष्टा करने लगे कि, हममेसे गाड़ी कौन चला सकता है ? क्योंकि यदि गाड़ी के लिये ड्राइवर रखना पड़ा, तब तो उसको पूरा तलब भी देना होगा और उसके रहने की व्यवस्था भी करनी होगी. इतना पैसा कहाँ से आयेगा ? तब मैंने सुझाव दिया कि यदि तुमलोगों को कोई आपति न हो तो मैं ही यदि ड्राइवर का काम करूँ, इस गाड़ी को यदि मैं ही चलाऊं तो कैसा रहेगा ? सबों ने कहा- ' क्या आप को गाड़ी चलाना आता है ? ' मैंने कहा चलाना तो नहीं आता, पर किसी से थोड़ा सीख लेना होगा. 
यह निश्चय करके जिस गैरेज में जीप को डेंटिंग-पेन्टिंग के लिये दिया गया था, उन्ही मिस्त्री लोगों को पूछा क्या मुझे थोड़ा गाड़ी चलाना सीखा देंगे ? तब वे एक मैदान में लेजाकर जीप को ड्राइव करके थोड़ी दूर तक आगे ले जाना और फिर बैक करके वापस उसी जगह में ले आने के लिये कहे. एक दिन केवल एक घन्टा इधर उधर स्टेरिंग काटना सिखाये, उसी मैदान में दूसरे दिन डेढ़ घन्टा एक्सीलेटर, ब्रेक, क्लच, गेअर आदि बदलने का अभ्यास करवा दिये, और थोड़ा सड़क पर लाकर इधर-उधर घूमा दिये. इस प्रकार कुल ढाई घंटे का ट्रेनिंग मिला. जब सब हो गया तो वहाँ से १० किलोमीटर जितना रास्ते पर गाड़ी को स्वयं ही चलाकर महामण्डल के हेड ऑफिस - खड़दा तक ले आया, और वहाँ लाकर बगीचे के एक किनारे में गाड़ी को खड़ा कर दिया. 
इसके कुछ दिनों के बाद मुझे से कहे कि, आपको ड्राइविंग लाइसेन्स लेने के लिये एक परीक्षा देनी होगी, आप अमुक तारीख को आ जाइयेगा. तब दूसरी बार पुनः उसी तारीख को खड़दा से १० किलोमीटर दूर तक गाड़ी खुद चला कर उस दफ्तर तक ले गया और गाड़ी को उनके दफ्तर के सामने ही गाड़ी खड़ा कर दिया. उस दफ्तर के सामने ही एक बहुत चौड़ा और गहरा ड्रेन है. उनके दफ्तर के चारदीवारी के भीतर घुसते समय जो छोटे छोटे स्लैब को ब्रीज के जैसा बना कर इधर उधर बिखरा रहता है, उससे निकाल कर गाड़ी को भीतर खड़ा कर दिया था. ऑफिस में जाकर बातचीत हुई. हमलोगों के एक और व्यक्ति भी वहाँ गये थे,जो उस समय महामण्डल के सहायक सचिव थे और बैरकपुर में रहते थे. जो इन्स्पेक्टर गाड़ी को चलाते देख कर लाइसेन्स देने के लिये अधिकृत थे, वही इंस्पेक्टर उस गाड़ी में बैठे और मुझसे बोले- ' आप स्टीयरिंग पर बैठिए '. वह लेफ्ट हैण्ड drive गाड़ी थी, मैं उधर ही बैठ गया.
जब हमलोगों के एक और सदस्य गाड़ी में बैठना चाहे तो, इन्स्पेक्टर ने कहा- ' आप मत बैठिए, आप नहीं बैठ सकते हैं. ' इंस्पेक्टर बोले- ' टेस्ट के समय इनके अलावा गाड़ी में और कोई नहीं रह सकते है.' वे नीचे ही खड़े रह गये. मुझसे बोले गाड़ी को बैक करके सड़क पर ले चलिए. गाड़ी को थोड़ा सा बैक करके उसी ब्रीज से कटाते हुए सड़क पर ले आये. इतना सब कुछ करने में गाड़ी का चक्का तीन-चार बार से अधिक नहीं मोड़ना पड़ा था. मुझसे पूछे, ' आप कितने दिनों से गाड़ी चला रहे हैं ? ' मैंने कहा मैं एक दिन यहाँ से गाड़ी चला कर १० किलोमीटर दूर खड़दा तक गया हूँ, और फिर आज १० किलोमीटर तक चला कर यहाँ ले आया हूँ- कुल मिलाकर यही २० किलोमीटर चलाया हूँ. इसके अतिरिक्त और दो दिन एक मिस्त्री के साथ एक मैदान में एक दिन एक घन्टा और एक दिन डेढ़ घन्टा एक मैदान में चलाने का प्रैक्टिस किया था, बस यही दो दिन चलाया था. " ऐसा तो हो ही नहीं सकता मैं इन्स्पेक्टर हूँ, इतना कुछ देखा हूँ, आप ने जरुर अनेकों बार गाड़ी चलाया है."
नहीं, मैंने इसके अलावा और कभी नहीं चलाया है, पहले बिल्कुल अनाड़ी था. " आखिर ऐसी महारत मिली कैसे ? " ऐसा होने का एक ही कारण है." यह गाड़ी स्वामीजी का कार्य करने के लिये आया है. हमलोगों के पास मासिक वेतन देकर ड्राइवर रखने कि क्षमता नही है, तब सीखे बिना उपाय क्या था, बस यही भावना और क्या ?" एवं उसके बाद इसी गाड़ी को लेकर विभिन्न स्थानों में जाना पड़ता था, उस गाड़ी से प्रचूर यात्रायें करनी पड़ती थी. उस समय बहुत से केन्द्र हो गये थे. कई स्थानों पर जाने कि आवश्यकता थी. वह सब कार्य सुचारू रूप से चलने लगा. फिर एक बार चर्चा हुई कि हमलोगों चन्दा तो अधिक मिलता नहीं है, रुपये-पैसों का इतना आभाव रहता है. तो एक सूत्र से जानकारी मिली कि आप लोग यदि यहाँ से गाड़ी लेकर मायावती-अल्मोड़ा की ओर निकलें तो आपलोगों के रास्ते में जितने शहर पड़ेंगे, पहले से बता देने पर उन शहरों में आपलोगों के रहने का इन्तजाम भी हो जायेगा और कुछ चन्दा भी इकठ्ठा हो जायेगा, क्योंकि मुझे एक ऐसे संघ के साथ परिचय जिनका बहुत से शहरों में केन्द्र है.
उसी योजना के अनुसार गाड़ी लेकर हमलोग रवाना हो गये. हमलोगों के दल में पाँच-छः लोग शामिल थे.जहाँ- जहाँ से भी  थोड़ा बहुत चन्दा मिलने की सम्भावना थी,  जिन जिन के यहाँ हमलोग रुकते थे उनसे ही पूछ पूछ कर एक जगह, से दूसरे जगह पर चन्दा भी एकत्र करने की चेष्टा करते हुए आगे बढ़ते चलते गये. कुछ कुछ प्राप्त भी होने लगा. इसी प्रकार हमलोग अल्मोड़ा पहुँच गये. अल्मोड़ा पहुँचने से पहले की ही घटना है, मैदानी समतल भूभाग समाप्त करके जब एक बार पहाड़ की चढ़ाई शुरू हुई तो गाड़ी बस एक पहाड़ के बाद दूसरे पहाड़ को पार करते हुए क्रमागत ऊपर की ओर ही चढ़ती चली गयी. काफी देर तक सफ़र करने के बाद भी रास्ते में कोई बस्ती, दुकान-मकान नहीं दिखाई दे रहा था, किन्तु बहुत आगे जाने पर एक चाय की दुकान दिख गयी.
हमलोगों ने विचार किया थोड़ा रुक कर चाय पी लिया जाये. वह दुकान एक मोड़ के किनारे पर थी. और मोड़ के पास थोड़ी सी जगह भी थी जहाँ गाड़ी खड़ी की जा सकती थी. वहीं पर गाड़ी को खड़ी करके हमलोगों ने चाय पिया.चाय पीने के बाद गाड़ी पर आकर बैठे और जब ईंजन को स्टार्ट किया तो, बार बार चाभी घुमाने से भी गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही थी. थोड़ा भी आगे पीछे नहीं हो रही थी. हमलोगों के साथ एक व्यक्ति ऐसे थे जो गाड़ी के जानकर थे. उनको देखने को कहे. वे बोनेट खोल कर थोड़ी देर तक निरिक्षण-परिक्षण करने के बाद बोले- " इसमें जो हुआ है, वह अभी किसी तरह ठीक नहीं हो सकता है." अमुक पार्ट्स बदल देना होगा, वह किसी कारण से काम नहीं कर रहा है, खराब हो गया है. यहाँ तो कोई पार्ट्स की दुकान आदि भी नहीं है. यहाँ से डेढ़ सौ- दो सौ माइल दूर टनकपुर माने पिथौड़ागढ़ तक जाने के बाद हो सकता है कि एक जगह वह विशेष पुर्जा प्राप्त हो जाये. पर चुकी यह डिस्पोजल का जीप है, यहाँ वह पार्ट्स मिल ही जायेगा कहना कठिन है. किन्तु उसके बाद एक समस्या और है उस पार्ट्स को बदलने के लिये जीप के गिअर बॉक्स भी उतार कर नीचे रखना होगा, उसके लिये बाँस कि जरुरत होगी, और बाँस यहाँ मिलेगा कहाँ ?हमलोगों ने देखा कि अब तो काफी देर हो चुकी है. इस समय वहाँ से कहीं भी जाना सम्भव नहीं था, उस समय कुछ भी करने का उपाय नहीं था.
बहुत संकोच के साथ उस चाय-दुकान वाले से ही पूछा गया कि क्या वहाँ पर रात में ठहरा जा सकता है ? वह बोला " आपलोग यहाँ कैसे रह पायेंगे ? सोने के लिये यहाँ कोई कमरा नहीं है, इसी दुकान की छत के नीचे बाँस-बल्ली लगाकर एक मचान जैसा छावनी बना दिया गया है; और इसी बाँस की सीढ़ी से ऊपर चढ़ कर सोना होता है. वहाँ थोड़ा पुआल आदि बिछा है यदि आपलोग वहाँ रहना चाहें तो रह सकते हैं. "
" हमलोगों को कोई आपत्ति नहीं है. किन्तु भोजन का क्या होगा ? हमलोगों के पास तो खाना बनाने का कोई समान नहीं है, एक-दो पाकेट बिस्कुट आदि सफ़र में जैसा रहता है, वैसा ही है. तुम्हारे पास क्या आंटा है ? " " हाँ, आंटा तो है."
" और क्या है, चिनि है ? " " हाँ, चिनि भी है." " कुछ रोटियाँ बना दे सकते हो ? " " आपलोग कहेंगे तो बना दूंगा. " उसने जब रोटी बना दिया तो हमलोगों ने उसमे चिनि लपेट कर खा लिया.और जितना सम्भव था, पेट भर कर पानी पी लिया गया. खा-पीकर उसी सीढ़ी से मचान पर चढ़ कर, किसी प्रकार रात बीता कर अगले दिन वह पुर्जा कैसे प्राप्त होगा, यही चर्चा चल रहा थी. सुबह में जब नीचे उतरे तो मन में बिचार आया की अच्छा देखा जाय न कि, आज सुबह में गाड़ी कि क्या अवस्था है?  सुबह में जब ईंजन को स्टार्ट किया तो तुरन्त स्टार्ट हुआ, गिअर लगाने से गाड़ी आगे पीछे भी हुई, बैक करने पर गाड़ी पीछे से आकर सामने सड़क पर खड़ी हो गयी. यह देख कर तो सभी आश्चर्य-चकित रह गये, यह क्या हुआ ? आखिर यह चमत्कार हुआ कैसे ?
बहुत देर के बाद यह बात समझ में आयी कि कल जो हमलोग लगातार चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे, उसके कारण तेल कहीं से लिक करके गिअर बॉक्स में प्रविष्ट हो गया था और उस पुर्जे को गीला कर दिया था, जिसके कारण वह पुर्जा तब काम नहीं कर रहा था. इसीलिये वह समस्या हुई थी. सारी रात गाड़ी खड़ी थी, जिसके चलते सुबह में वह फिर से काम करने लगी है. जो हो, संकट खत्म हो गया था, हमलोग मायावती जा रहे थे. मायावती तक आराम से आ गये. वहाँ पर हम सभी लोगों के लिये रहने कि व्यवस्था थी. घूम-फिर कर आस-पास देख आया. स्वामीजी लोग जिस स्थान पर बैठ कर ध्यान करते थे, वहाँ की निस्तब्धता को देखकर ऐसा लगता था मानो जगत हो ही नहीं !
वसन्त रोग (चेचक) से आक्रान्त रहने के समय जो देखा था- " मैं मर गया हूँ, और जिस जगह पर शरीर का दाहसंस्कार कर दिया गया था, उसी स्थान को पुनः अपने सामने सेभियर के समाधि-स्थली के  रूप में साक्षात् देखा."(???) 
वहाँ से वापस लौटते समय उस समय अद्वैत आश्रम के जो प्रेसिडेन्ट थे, स्वामी बुद्धानन्दजी- वे हमलोगों से बोले " नवनीबाबू, आप एक काम कर सकेंगे ? " मैंने कहा, आप कहिये महाराज. " एड्ड नामका एक अमेरिकन भक्त आया हुआ है, वह जब लौटेगा तो उसको यहाँ से अकेला ही वापस लौटना होगा, यहाँ कोई गाड़ी-मोटर भी उपलब्ध नहीं है, यहाँ से काफी नीचे उतरने पर बस स्टैंड कई किलोमीटर दूर है, फिर वहाँ से भी किस समय बस मिलेगा यह भी निश्चित नहीं है.और वह तो यहाँ के लिये बिल्कुल नये हैं. और जब आपलोग भी उधर ही जा रहे हैं, तो उनको भी अपने साथ जीप में लेजाकर जहाँ कहीं भी मैदानी समतल भूभाग मिले इनको उतार दीजियेगा तो ये वहाँ से खुद चले जायेंगे."
' हाँ, महाराज निश्चय ही सही जगह में उतार दूंगा.'  तब वह मेरे दाहिनी तरफ आकर बैठ गया, पर वह इतना विशालकाय था कि उधर के सीट का तल्ली थोड़ा दब गया. वहाँ से कितने सुन्दर दृश्यों का अवलोकन करते हुए हमलोग धीरे धीरे नीचे उतर आये. उतरते उतरते काफी रात्रि हो चुकी थी, एक ऐसे जगह में आ पहुँचे जहाँ एक भी दुकान-मकान खुला हुआ नही दिख रहा था, और बहुत खोजने से भी ठहरने की कोई जगह नहीं मिली. वहाँ क्या किया जाय ? तब हमलोगों की दृष्टि एक भैंसे के तबेले पर जा पड़ी. वहाँ बहुत सी भैसे थीं. और जो लोग वहाँ भैंसे रखते थे, उनके बैठने के लिये कुछ खटिया-चौकी रखा था. दुकान सभी बन्द हो चुके थे. एक दुकान के भीतर बत्ती जाल रही थी. उसकी दुकान से कुछ मिठाई खरीद कर लाये और सबों ने मिल-बाँट कर खा लिया. एड्ड साहब को भी खिलाया गया. खाने के बाद उसी भैसे के तबेले के सामने थोड़ी खाली जगह थी, वहीं पर खटिया आदि डाल कर किसी प्रकार रात्रि बीता दी गयी. पर उनका कद-काठी इतना लम्बा था कि उनका सिर खटिया से बाहर हो रहा था.
दूसरे दिन सवेरा होने पर वहाँ से हमलोग आगे कि यात्रा शुरू किये. फिर से मिलो-मिल सड़क को पार करते हुए, एक जगह पार एक चाय कि दुकान देखने पर हमलोगों के मन में चाय पीने तथा कुछ मुख में देने (नाश्ता करने) की ईच्छा हुई. किन्तु उसने कहा, ' महाराज ने तो मुझ को बता दिया है कि बाहर का कोई चीज खाना नहीं है.' पर हमलोगों ने सोचा अब यहाँ से कितने मील दूर जाने पर कोई अच्छा सा होटल इत्यादि मिलेगा य़ा नहीं वह भी पता नहीं है. मैंने उसको समझाते हुए कहा, ' देखिये, पहली बात तो यह है कि वह जिस मिट्टी के कप में चाय दे रहा है उसमे कोई खराब कीटाणु आदि होने की सम्भावना नहीं है, उनलोगों ने उसको अच्छी तरह से धो भी दिया है; उसके बाद यह चाय भी खौलते हुए पानी में बनाया गया है, इसीलिये जितने भी कीटाणु आदि होंगे वे तो मर ही जायेंगे.
तुम बात मानो, हमलोग चाय पी रहे हैं, तुम भी थोड़ी चाय पी कर देखो.' तब वह मिट्टी के प्याली (भांड़) में एक भांड चाय पी कर बोलता है- " और पिऊंगा, थोड़ी और चाय पिऊंगा. " उसने दो-तीन भांड चाय पी लिया. दुकानदार उस समय पकौड़े छान रहा था. हमलोग तो पकौड़े खाएँगे ही. सुबह से कुछ खाया भी नहीं था. हमलोगों ने पकौड़े खाए. उसने पूछा - " What is that ?" मैंने कहा वह यहाँ का " Oil cake "-है. " Is it ?" यह कैसा होता है ? मैंने कहा यह तो बहुत टेस्टी है तुम यदि इसको एक बार मुख में डाल लिये तो फिर मांग मांग कर खाओगे. " Is it so ? " यह कहकर उसको एक पकौड़ा दिया गया. वह उसे खाने के बाद बहुत खुश हुआ और फिर और दो-चार पकौड़ा खा लिया. खा-पीकर फिर हमलोगों के साथ चलने लगा. इसी प्रकार काफी दूर तक आने के बाद, उसको एक ऐसे स्थान पर लाकर उतार दिया गया जहाँ से वह अपनी आगे की यात्रा को अकेले ही पूरी कर सकता था. वह चला गया. बहुत दिनों बाद महाराज ने कहा था कि एड्ड ने पत्र में लिखा था कि " मेरा उनलोगों ने बहुत ख्याल रखा था. किन्तु एक दिन रात्रि के समय, We had to pass a night in a stable. " तो महाराज बोले कि इसके उत्तर में मैंने लिखा था, " But this is wonderful !Was not Jesus Christ born in a stable ? " इसप्रकार से महाराज ने एड्ड का हौसला बढाया था. 
ऐसी कितनी ही घटनायें हैं. कुछ चन्दा भी एकत्र हो गया, किन्तु इसके साथ ही साथ हमलोगों ने मायावती का दर्शन भी कर लिया. फिर वहाँ से लौटते समय अल्मोड़ा भी गये थे. उस समय जो सन्यासी सुन्दरबन के मनसाद्वीप में पोस्टेड थे, वे भी तब वहीं पर थे. कितने ही वर्षों के बाद उनसे भेंट हुआ. वहाँ पर उन्होंने मुझे एक काम सौंप दिया. " बहुतों से पहले कह चुका हूँ, किसी ने किया नहीं है. उन्हीं वशी सेन की स्त्री ने अल्मोड़ा के ऊपर एक छोटा सा संस्मरणात्मक निबन्ध लिखा था, जो मेरे पास वैसे ही पड़ा हुआ है. क्या उस निबन्ध के साथ अल्मोड़ा के बारे में स्वामीजी से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र करके जोड़ कर एक पुस्तिका लिख सकते हैं ? " मैंने कहा, महाराज यह तो मेरा परम सौभाग्य होगा कि मैं उन सभी स्थानों का दर्शन कर लूँगा जहाँ जहाँ स्वामीजी गये थे.
तब एक सन्यासी मुझे अपने साथ लेकर उन सभी स्थानों का दर्शन कराने ले गये जहाँ बैठ कर स्वामीजी ने ध्यान किया था, वे घुमाते हुए मुझे उन समस्त स्थानों का दर्शन करा दिये; पर मैं यह भी मार्क कर रहा था कि वे मुझे प्रायः उन स्थानों पर अकेला छोड़ कर, स्वयं थोड़ी देर के लिये वहाँ से किनारे हो जाते थे. मैं उन सभी स्थानों पर बैठ कर स्वामीजी का ध्यान करने की चेष्टा किया था.तब मेरा ह्रदय महा आनन्द से भर गया था ! ह्रदय में एक अदभुत सिहरन जैसा अनुभव हुआ था ! एवं जिस स्थान पर दो नदियाँ आकर मील गयीं हैं, वहाँ पर जिस विशाल वृक्ष के नीचे बैठ कर स्वामीजी ने ध्यान किया था और जिस जहाँ पर कहा था-  
" आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! "   
" -आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है ! "
इसी तरह अन्य कई महत्वपूर्ण तथ्यों का संग्रह कर के " अल्मोड़ार आकर्षण " नाम से एक छोटी सी पुस्तिका का पूरा मैटर तैयार हो गया. किन्तु तब मैंने कहा- " महाराज यहाँ पर बैठ कर तो लिख नहीं पाउँगा. मैंने समस्त तथ्यों को एकत्र कर लिया है. मैं जाकर लिखूंगा और और आपको भिजवा दूंगा."  आने का बाद जब लिखना हो गया तो उनको सूचित कर दिया. उन्होंने कहा, " यहाँ पर बंगला भाषा में उस पुस्तिका को छपवाने में असुविधा होगी. आप क्या उसको छपवा कर भेज सकते हैं ? " तब महामण्डल के द्वारा उस पुस्तिका को छपवा कर उसकी कुछ हजार प्रतियाँ हमलोगों ने अल्मोड़ा भिजवा दी थीं. उसके बाद उन्होंने कहा " अच्छा यह तो बंगला भाषा में है, अंग्रेजी में जो कुछ थोड़ी बहुत जानकारी उपलब्ध भी है तो उसमे कितने ही तथ्य नहीं हैं. क्या इस पुस्तिका को हिन्दी में भी छपवाया जा सकता है ? यहाँ के अधिकांश लोग तो बंगला पढना नहीं जानते हैं. " { हिन्दी में ' अल्मोड़ा का आकर्षण '- नामक महामण्डल पुस्तिका का मुद्रण पहली बार कैथोलिक प्रेस, पुरुलिया रोड, राँची से १४ अप्रैल १९९७ को हुआ था.
 स्वामीजी का उपरोक्त उद्गार - " आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! "  
का वर्णन उस पुस्तिका के पृष्ठ संख्या ५ पर इस प्रकार दिया हुआ है- " स्वामीजी स्वामी अखंडानन्दजी के साथ नैनीताल पहुँचे कुछ दिनों बाद अल्मोड़ा के पथ पर पुनः उनलोगों ने अपनी पदयात्रा आरम्भ की. ...तीसरे दिन उन दोनों ने रात्रि व्यतीत करने योग्य एक मनोरम स्थान को ढूंढ़ निकाला.
पगडण्डी के निकट से ही कोशी ( कौशिकी) नदी बहती हुई चल रही थी. असंख्य छोटे-बड़े आकर के रोड़े-पत्थरों के ऊपर से होकर बहती हुई इस नदी को पैदल ही चलकर पार किया जा सकता था. एक स्थान पर दूसरी ओर से बह कर आती हुई सरोता नदी आकर कौशिकी का आलिंगन कर रही थी. 


दोनों के संगम-स्थली पर एक त्रिभुजाकार भूखण्ड उभर आया था. उसके बीच में एक विशाल पीपल का वृक्ष भी खड़ा था. स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये, और स्वामी अखंडानन्दजी से कहा- " भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है ! "
उसने वहीं कोशी नदी में स्नान किया और ध्यान लगा कर उस वृक्ष के नीचे जा बैठे. कुछ ही क्षणों के भीतर वे गंभीर ध्यान में लीन हो गये, उनका पूरा शरीर निस्पंद हो गया था. कुछ समय के बाद ध्यान टूटने पर स्वामी अखंडानन्दजी से बोले- 
" आज मेरी एक दीर्घकालीन जिज्ञाषा का समाधान प्राप्त हो गया. सचमुच सृष्टि के आदि में केवल शब्दब्रह्म (१ॐ कार ) ही था. जो (' नाम ' य़ा शब्दब्रह्म ) पिण्ड में स्थित है, वही ( ' नाम ' य़ा शब्दब्रह्म ) इस ब्रह्माण्ड के पीछे भी अवस्थित है ! अनुविश्व (पिण्ड) और वृहत-विश्व (ब्रह्माण्ड ) दोनों के पीछे एक ही सत्ता ( ' शब्दब्रह्म ' ॐ कार और शक्ति  ठाकुर का नाम ) ही विराजमान है. जीवात्मा जिस प्रकार जीव के शरीर के भीतर ही अवस्थित होकर उसे चला रही है, विश्वात्मा भी उसी प्रकार इस प्रकृति (सृष्टि) के भीतर ही अवस्थित होकर इसको चला रही है ! शब्द ( ' नाम '-  परा, मध्यमा, पश्यन्ति और वैखरी ) और उसके अर्थ के समान ही ब्रह्म के ये दोनों रूप ( निराकार और साकार ) सनातन हैं ! अतः हमलोग जिस जगत को देख रहे हैं वह शाश्वत निराकार एवं शाश्वत साकार की मिलीजुली अभिव्यक्ति है ! " 
अल्मोड़ा के निकट जिस स्थल पर बैठ कर ध्यान करने स्वामीजी को साकार और निराकार ब्रह्म के बारे में जिज्ञाषा का समाधान प्राप्त हो गे था, उस स्थल का नाम है - काँकड़ी घाट. यह स्थल अल्मोड़ा से २३ किलोमीटर दूर है .}        
उसके बाद पुनः उस पत्रिका ( अल्मोड़ा का आकर्षण )  को हिन्दी में अनुवाद कर के पुनः प्रकाशित करवा कर अल्मोड़ा भिजवा दिया गया था. इस प्रकार थोड़ा बहुत ठाकुर-माँ- स्वामीजी की सेवा तो हुई ही, वहाँ आने वाले भक्तों की सेवा हुई, आश्रम की सेवा करने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ.

बार बार कहीं जाने की जाने की ईच्छा नहीं होती है. किन्तु एक जगह जाने से वहाँ से दूर एक पहाड़ के शिखर पर दंडायमान एक वृक्ष को लगातार टकटकी लगाकर देखने की ईच्छा होती थी; वह वृक्ष स्वामीजी के समय में भी उसी स्थान पर था, ऐसा लगता था मानो कोई जीवित प्राणी ऊपर खड़ा है. बहुत दिनों तक मुझे उस आश्रम के लाइब्रेरी कक्ष में रहने की व्यवस्था की गयी थी. रात्रि के समय में उस कक्ष के बाहर निकाल कर जहाँ से वह वृक्ष दिखायी देता था, वहाँ से चुचाप उसे बैठ कर देखता रहता था. 
दूसरे दिन सुबह में महाराज को मालूम हुआ तो उन्होंने कहा, " आप रात्रिबेला में बाहर बैठे हुए थे ? " मैंने कहा- " महाराज, वहाँ से सामने का दृश्य ऐसा दिखता है जहाँ बैठते ही स्वामीजी का जीवन, उनकी  बातें याद आने लगती हैं, क्या किया जाये ? "  " नहीं, नहीं, वैसे बाहर में मत बैठिएगा, यहाँ पर कभी कभी बाघ भी घूमता है ." मैंने कहा, " बाघ सामने आ जायेगा तो क्या होगा? अधिक से अधिक खा डालेगा- किन्तु यह विहंगम दृश्य तो छोड़ा नहीं जा सकता ! इसी तरह की अन्य कई तरह की अभिज्ञता इस जीवन में कुछ कुछ मिला है. कुछ कुछ सेवा करने का सूयोग भी कितने तरीके से कितने स्थानों पर प्राप्त हुआ है.          
                                                       
     

{It is said that Swami Vivekananda made three trips to Almora. After the passing away of Sri Ramakrishna, Swamiji, felt the need to travel across the country and the world to preach the words of Thakur and the Vedanta. In 1890, he walked from Nainital to Almora by foot with Swami Akahananda. Both were often ill with fever. He spent time in the Sehapahar (visible from the present lacation of the ashram) for meditation. Then crossed the Kosi river and climbed up to the Almora hill. Three kilometers short of Almora, in a place called Karbala, Swamiji fell on the ground, almost dying of exhaustion. His feet were blistered and he could not move any longer.
Swami Akhandananda ran hither and thither, looking for someone, to help. At the far end, he spotted near a graveyard, a Muslim fakir. He pleaded with him to give some food to Swamiji. But The Fakir was hesitant as his religion was different. Swami Vivekananda said � We are all brothers� The only food available with the fakir was a cucumber, which revived Swamiji. Life returned and they continued on their journey to reach Almora.

Today, where Swamiji fell, there is Vivekanada Rest House. It is an open platform where any one can come and stay and rest. The keys to this are with the grave keepers. Surrounding it is the expanse of a graveyard, with primordial silence. There is a Shrine that has been made over the grave of the fakir close by.


Visitors come during these months from all over the country both for meditation as well as tie in the sight seeing as well.
River Kosi winds her way...
Except for a few houses and the new library that is being built, the space is otherwise covered by trees and more trees, the pine with its shining needles and of course the all pervading silence in the air, only occasionally broken by the loud talk and laughter from insensitive visitors. Otherwise, what silence!