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शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

[58] "ऐसा उदार ह्रदय था मेरी माँ का !"

" खड़दा का आभिजात्य वर्ग के लोगों का मोहल्ला "
खड़दा में हमलोगों के मोहल्ले का नाम है- ' कुलीन पाड़ा ' (आभिजात्य वर्ग के लोगों का मोहल्ला ) वहाँ पर लक्ष्मी-नारायणजी का मन्दिर है, उस मन्दिर में कुछ वर्षों तक मैं प्रतिदिन संध्या के समय जाया करता था. उस मन्दिर के जो प्रतिष्ठाता हैं उनका सन्यास नाम था- यतीन्द्ररामानुज दास. वे रामानुजी वैष्णव संप्रदाय के सन्यासी थे. किन्तु सन्यास लेने से पहले उनका पेशा डाक्टरी का था, वे एक प्रसिद्ध डाक्टर थे. आन्दुल के दो डाक्टर थे एक थे बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, और दूसरे थे ये - डाक्टर इन्द्रभूषण बसू; जो बाद में यहाँ (खड़दा में) आ गये थे. थोड़ा पहले के समय के जो लोग हैं, वे सभी इनको जानते हैं. 
उस समय के देशी राजा लोग बीमार पड़ने पर इन लोगों को ही अपने रोग का इलाज करवाने के लिये अपने साथ ले जाया करते थे. मैं जिस दिन पहली बार मन्दिर गया तो देखता हूँ एक व्यक्ति सन्यासी वेष में सादा वहिर्वास एवं शरीर पर एक चादर ओढ़े खड़े हैं. उनको  देखने से ऐसा लगा मानो बड़े ही तेजस्वी पुरुष हों. मन्दिर के प्रांगण  में सारे कार्यों की देखरेख करते हुए घूमफिर रहे थे. सन्यासी समझ कर उनको अपना प्रणाम निवेदित किया. प्रणाम करते ही चेहरे की ओर देखते हुए बड़े स्नेह पूर्वक बोले- ' कहाँ रहते हो ? ' इत्यादि इत्यादि. उसी के बाद से वहाँ आना-जाना शुरू हो गया. प्रौढ़ अवस्था में, काफी उम्र बीत जाने के बाद उन्होंने डाक्टरी का पेशा त्याग कर सन्यास ले लिया था. इसी अवस्था में उन्होंने संस्कृत भी सीखा था एवं संकृत भाषा के असाधारण विद्वान् हुए थे.
कुछ वर्षों के लिये दक्षिण भारत चले गये थे. तमिल भाषा सीख लिये. भक्ति मार्ग के जितने भी प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं उनमे से अधिकतर ग्रन्थ तमिल भाषा में ही उपलब्ध हैं. उन्होंने लगभग तीस तमिल भक्ति-शास्त्रों का बंगलाभाषा में अनुवाद किया था.यहीं पर एक प्रेस स्थापित किया था जिसमे इन ग्रंथों की छपाई होती थी. ' उज्जीवन ' नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किये थे. वह छपता रहा, फिर साथ साथ अन्य पुस्तकों को भी प्रकाशित करने लगे.
साथ ही साथ  इतनी उम्र बीत जाने के बाद भी संगीत की शिक्षा प्राप्त किये, पहले से थोड़ा बहुत संगीत जानते थे, किन्तु बाद में कीर्तन विशेष रूप से सीख लिये थे. उनके जैसा किसी अन्य कीर्तन गाने वाले को मैंने आज तक कभी नहीं सुना है. उनके कीर्तन शास्त्रीय रागों पर आधारित होते थे, एवं प्रत्येक उत्सव के अवसर पर उनका कीर्तन सुनने के लिये भारी संख्या में भक्त लोग एकत्र होते थे. उसमे प्रवचन तो यदाकदा ही होते थे परन्तु कीर्तन सर्वदा हुआ करता था.
जिस दिन जो कीर्तन होगा, उसे पहले से छपवा कर सबों के हाथों में दे दिया जाता था तथा वे खड़े होकर ही गाया करते थे.एवं नवद्वीप ब्रजवासी महोदय जैसे खोलवादक ( मृदंग वादक ) मृदंग बजाया करते थे. वृद्ध, तन किन्तु हाथ, उस हाथ से कैसी मधुर ध्वनी निकलती थी. जो लोग पुराने समय के किर्तनिये हैं वे जानते हैं कि नवद्वीप ब्रजवासी महोदय किस अनन्य कोटि के मृदंग वादक थे. कीर्तन करते समय किर्तनिया लोग प्रारम्भ में थोड़ा सा आलाप अवश्य लिया करते हैं. किन्तु जब वे आलाप लेते थे तो उनके  कंठस्वर को थोड़ा सा सुनते ही श्रोता को स्तंभित हो जाना पड़ता था. उस समय किसी भी श्रोता के शरीर-मन में थोड़ी भी चंचलता का रहना असम्भव हो जाता था. एवं उस मन्दिर का सौन्दर्य भी असाधारण था. यह मन्दिर गंगा के बिल्कुल किनारे ही स्थित है, तथा गंगा के उसपार से भी उनका कंठस्वर सुनाई देता था.
अपूर्व मनोहर कंठस्वर एवं अति उद्दात गला, तथा जिन को स्वर कि शुद्धता का ज्ञान है, वे उनके कन्ठ स्वर को सुन कर पुलकित हो जाते थे. फिर कैसा सुन्दर कीर्तन प्रस्फुटित होने लगता था. उस समय भी मुझे उनका कीर्तन बहुत अच्छा लगता था किन्तु आगे चल कर और भी अच्छी तरह से समझने लगा था. इसीलिये संगीत के जैसा माँ के पास गाना सुनता था, उसी तरह हाथ में खल्ली पकड़ा कर किस प्रकार वाद्य-यन्त्र  से निकलने वाले स्वरों को गले में उतरा जा सकता है- यह विद्या इनके पास से ही सीखा था. जब उनकी उम्र बहुत अधिक हो गयी तो एकदिन उनके पास गया था, मुझसे बोले- ' तुम्ही लोग भाग्य वाले हो, इतने कम उम्र में इन सब की ओर तुम्हारे मन का झुकाव हो गया है, हमलोगों का अधिकांश जीवन तो वैसे ही व्यर्थ में चला गया.'!
इस मन्दिर में अयोध्या के ब्राह्मण लोग पुरोहित हुआ करते थे. उनलोगों के साथ घनिष्ट परिचय हो गया था. मन में विचार आया इनलोगों से अगर संस्कृत के उच्चारण को सीख लिया जाय तो कितना अच्छा होगा ? घर में संस्कृत के ऊपर बहुत सी पुस्तकें विरासत से उपलब्ध थीं, संस्कृत के ऊपर चर्चा भी होती थी.
प्रपितामह भुवनचन्द्र विद्यानिधि तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर महाशय के छात्र थे. हमलोगों के स्कूल में संस्कृत की पढ़ाई बहुत अच्छे स्तर की होती थी. किन्तु बंगाली लोग संस्कृत को सही ढंग से उच्चारण करने में अभ्यस्त नहीं होते. इस मन्दिर के दो पुरिहितों से संस्कृत का सही उच्चारण करना सीखने लगा. श, ष, स के उच्चारण के पार्थक्य को समझा, न और ण में उच्चारण के पार्थक्य को सीखा. लघु और गुरु स्वरों के पार्थक्य को सीख कर रोज सुबह में थोड़ी देर अभ्यास करता था. उस समय तक तो नौकरी का जीवन शुरू हो चुका था. नौकरी के सिलसिले में बदली हो य़ा नई नई नौकरी लगी हो- जहाँ भी रहता था वहीं सुबह में कम से कम १५ मिनट सही ढंग से संस्कृत में उच्चारण करने का अभ्यास अवश्य किया करता था.
विशुद्ध सिद्धान्त पत्रिका (बंगाली पञ्चांग ) के प्रतिष्ठाता माधवचन्द्र चट्टोपाध्याय मेरी माँ के पितामह थे. वे भारत सरकार के लोक निर्माण विभाग के प्रथम भारतीय इंजीनियर थे, रुड़की से इंजीनियरिंग पढ़े थे. वे एक समय नौकरी के सिलसिले में कुछ समय तक कटक में रहे थे. वहाँ पर एक ज्योतिर्विद (astronomer)  के साथ उनका परिचय हुआ तब उनका इस विद्या की ओर बहुत झुकाव हो गया था, इस विषय पर उन्होंने बहुत गहरा अध्यन किया था. एवं बाद में इस पत्रिका में सुधार करने की बात उठी थी. ' विशुद्ध सिद्धान्त पत्रिका ' को  प्रकाशित हुए १०० से अधिक वर्ष बीत चुके हैं. किन्तु हमारे घर में यही पत्रिका १०० वर्ष से भी अधिक समय से व्यवहार की जाति रही है. उनके पुत्र, मेरे मातामह (नाना) परेशचरण चट्टोपाध्याय लोक निर्माण विभाग विभाग में एक्जीकियुटिभ इंजीनियर थे. हुगली जिले के नंदीग्राम में उनका पुराना घर था. माने उनलोगों का आदि निवासस्थान वहीं था. श्यामबाजार में जहाँ पञ्चमुहान (पञ्चमाथा मोड़ ) कहता है, ठीक उसी जगह में उनलोगों का तीन तल्ला घर था. पञ्चमाथा मोड़ बनते समय उनका घर तोड़ दिया था, बाद में उनलोगों ने उत्तर पाड़ा में एक मकान बनाया था. फिर जब उत्तर पाड़ा की तरफ से बालि की ओर जाने का ब्रीज जब निर्मित हो रहा था तब उनलोगों का उत्तर पाड़ा वाला घर भी तोड़ दिया गया था. उसके बाद से वे लोग इधर उधर विभिन्न स्थानों में रह चुके हैं. मेरे मातामह (नाना ) परेशचरण चट्टोपाध्याय बहुत से स्थानों में रहे हैं. जिस समय वे आसाम में थे उस समय वहाँ एक सरोवर (झील ) खुदवाये थे. उसका नाम ' परेश सरोवर ' था. वे नौकरी के दौरान कुछ समय तक तेजपुर में थे.
मेरी माँ का जन्म तेजपुर में ही हुआ था. मेरी माँ का नाम उषा था, उषा रानी कहते थे. तेजपुर के एक राजा की कन्या का नाम उषा था. नहीं कह सकता कि मेरी माँ का नाम उन्ही के नाम पर था य़ा नहीं . बचपन में माँ तेजपुर में रहती थी, एकदिन एक दिन एक दीन-दरिद्र विकृत मस्तिष्क महिला हठात घर के बगीचे में घुस आयी और खाना माँगने लगी, बालिका के उम्र कि मेरी माँ ने उसको घर के भीतर ले जाकर अच्छी तरह से स्नान करवाया, अच्छे कपड़े पहनाये तब भर पेट भोजन करा कर विदा कर दिया, जाते समय उस महिला ने मेरी माँ को ढेर सारा आशीर्वाद दिया था. 
मेरी माँ का ह्रदय असाधारण रूप से कोमल और सहानुभूतिशील था, पिताजी भी वैसे ही थे. पितामह, प्रपितामह, प्रपितामही, इन सबों के ह्रदय में सबों के प्रति अत्यन्त प्रेम था, सहानुभूति थी. इनलोगों का सारा ध्यान सर्वदा इसी बात की ओर लगा रहता था कि कैसे सबों कि थोड़ी साहायता की जाये, दूसरों को थोड़ी तृप्ति दी जाये, आनन्द दिया जाये. भुवन पण्डित महाशय जाड़े के समय में एक दिन शाल ओढ़ कर गंगा के किनारे प्रातः भ्रमण (मॉर्निंग वाक) करने गये थे, जब वापस लौटे तो शरीर पर शाल नहीं था. पूछा गया, " शाल क्या हुआ ? " उन्होंने कहा एक आदमी ठंढ से बहुत काँप रहा था, उसी को दे दिया. "  हमलोगों की अवस्था बहुत अच्छी नहीं थी, मोटामोटी परिवार के खर्च भर पैसे आ जाते थे, किन्तु यह सब वैसे ही चलता रहता था. अपने हिस्से का दोपहर के भोजन दूसरे को खिला कर स्वयं मुढ़ी खाकर मेरी माँ ने कितने दीन बिताये होंगे, उसकी गिनती नहीं की जा सकती. जब माँ का देहान्त हो गया तो घर के सामने दो-तीन सौ लोग आकर जमा हो गये थे. ( सभी के मुख पर एक ही बात थी - कोई कहता चाची मुझको बहुत मानती थी, कोई कहता मौसी मुझे बहुत मानती थी.) महिलायें आ आ कर थोड़ा थोड़ा सिंदूर ले जा रही थी. मोहल्ले के सारे लोगों की आँखें नम हो गयीं थीं. एक-दो लोग आकर जोर जोर से रोते हुए कह रहे थे, " माँ, यदि आप मुझे खाना नहीं खिलातीं, तो पता नहीं कितने दिनों तक मुझे भूखा ही रह जाना पड़ता. " ऐसा उदार ह्रदय था मेरी माँ का !
         शियालदह स्टेशन के निकट 6 /1 A जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, स्थित तनु बाबू के के घर के निचले तल्ले पर महामण्डल का सिटी ऑफिस तो चल ही रहा था. परन्तु बीच बीच में महामण्डल द्वारा सन्चालित विभिन्न केन्द्रों के संचालकों को विशेष प्रशिक्षण देने के लिये केंद्रीय संस्था की ओर से तीन तीन महीने के अन्तराल पर विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित होते रहते थे. इसके लिये हमलोगों को किसी स्कूल य़ा किसी बड़े हॉल में एक-दो दीन की व्यवस्था करनी पड़ती थी. इसीलिये हर बार यह शिविर विभिन्न स्थानों पर आयोजित करना पड़ता था.
 अतः किसी ऐसे स्थान की आवश्यकता बहुत अधिक प्रयोजनीय हो गयी थी जो अपना स्थायी स्थान हो जहाँ नियमित रूप से इस प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था हो सकती हो. कोन- नगर का महामण्डल भवन के निकट जहाँ कोपरेटिभ सोसाइटी चलता है, वहाँ शिशिर कुमार घोष महाशय के के घर के बगीचे के किनारे एक छोटे से घर में सुभाष गुहा ने महामण्डल के कार्य को आरम्भ किया था. अनुमति लेकर वह जब वहाँ पर पाठचक्र चलाने लगा तो वहाँ रहने वाले स्थानीय लोगों को महामण्डल के सम्बन्ध जानकारी प्राप्त हुई. शिशिर बाबू के भाई सुबीर कुमार घोष महाशय महामण्डल को ४ कट्ठा जमीन दान में दे दिया. वहाँ पर और भी ४ कट्ठा जमीन वे पौर-सभा (नगर-परिषद् ) को दान करने की बात सोंच रहे थे. किन्तु उनके एक परिचित कानून-विद प्रणय सरकार ने सुबीर बाबू को सावधान करते हुए कहा उनलोग आपके द्वारा दिये जमीन को किस प्रकार व्यवहार में लायेंगे यह ठीक नहीं है, हो सकता है यहाँ का परिवेश अवान्छित हो जाये, इसीलिये किसी जमीन का दान किसी अच्छी संस्था को करना ही अच्छा होगा. 
इसीलिये सुबीर बाबू ने बाद में और भी चार कट्ठा जमीन महामण्डल को ही दान में दे दिया. महामण्डल के विभिन्न केन्द्र में जिला स्तर पर य़ा कुछ जिलों को मिला कर आंचलिक प्रशिक्षण शिविर हो रहे थे, एवं अब भी हो रहे हैं. सभी लोगों ने भवन निर्माण के लिये अर्थ दान में दिये. सबसे पहले निचले तल्ले पर एक बड़ा सा हॉल और कुछ छोटे छोटे कमरे कुआँ आदि बनाये गये. हॉल में ठाकुर-माँ-स्वामीजी की तीन छवियाँ यथाविधि प्रतिष्ठित कर दिया गया. 
बाद में दूसरे तल्ले पर एक सभा-कक्ष और एक कमरा निर्मित हुआ जिसके बाद से अब विशेष प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने के लिये हमलोगों विभिन्न स्थानों में दौड़ने की जरुरत नहीं होती. उस हॉल में १५० से २०० व्यक्ति एक साथ बैठ कर क्लास कर सकते हैं. बाद ठाकुर-माँ-स्वामीजी के छवि को भी दूसरे तल्ले वाले हॉल में ले जाया गया. महामण्डल की स्थानीय शाखा भी इसी जगह से अपने नियमित कार्य करते हैं. महामण्डल जिस प्रकार केवल पुरुषों के लिये है, उसी की तरह कार्य स्त्रियों के बीच भी करने के लिये बहुत सी महिलाओं के आग्रह को पूर्ण करने के लिये महामण्डल ने प्रयास करके ' सारदा नारी संगठन ' की भी स्थापना कर दी है. उसकी स्थानीय शाखा का साप्ताहिक पाठचक्र भी इसी स्थान में आयोजित होता है.महामण्डल के इस भवन की बुनियाद का पत्थर बेलुड मठ के जेनरल सेक्रेटरी श्रीमत स्वामी वन्दनानन्दजी महाराज के करकमलों द्वारा रखी गयी थी, जिसमे हजारो लोग उपस्थित हुए थे.
कोन नगर का एक रिक्सा-चालक ( ठेला-रिक्सा वाला) जिसका नाम था अशोक, उसने पहले एक मीट्टी के कमरे की नींव में उपयोग करने के लिये अपने रिक्से (वैन-रिक्सा) से बहुत सी मिट्टी ढो कर ला दिया था. उसके लिये कोई किराया नहीं लिया था, इधर अपने रोजगार से नियमित वह एक पञ्च रुपये का सिक्का एक चुकिया में डाल दिया करता था. जब वैसा १०० सिक्का (पाँच रुपये का)  जमा हो गया तो भवन निर्माण के लिये चंदे में दे दिया. यह घटना रामचन्द्र के सेतु-बांध के समय हनुमान द्वारा दी गयी साहायता का स्मरण करवा देती है. महामण्डल के इतिहास में यह घटना भी अविस्मर्णीय हो कर रहेगी.
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