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बुधवार, 22 सितंबर 2010

[56] अल्मोड़ा यात्रा

क्या नवनी दा को अपने पूर्वजन्म का स्मरण भी था ?  
महामण्डल के कार्य से उनदिनों इस प्रकार अक्सर यात्रायें करनी पड़ती थी, तब एक भाई ने परामर्श दिया कि जहाँ पर मिलिट्री का जितना डिस्पोजल में जीप आता है उसके गवर्नमेन्ट डिपो से पुराने जीप बेचे जाते हैं. तब हमलोगों एक सहयोगी वहाँ जाकर जीप पसन्द किये और तय किये कि इसी जीप को खरीदा जायेगा, बहुत ठीक बात है. कम दाम में एक जीप खरीद लिया गया, यह सोंच कर कि महामण्डल का इतना काम रहता है, एक जीप रहने से अच्छा ही रहेगा. जीप को खरीद लेने के बाद वहाँ से लाने लायक एक ड्राइवर लेगये  जो उस जीप को चला कर ले आया. यहाँ लाकर गाड़ी को खूब अच्छी तरह फिट-फाट करने के लिये एक गैरेज में भेज कर रंग-रोगन भी करवा लिया गया. 
तब चिन्ता हुई कि गाड़ी को चलायेगा कौन ? यह सब बताने में भी कष्ट होता है. तब हम सभी लोग जानने की चेष्टा करने लगे कि, हममेसे गाड़ी कौन चला सकता है ? क्योंकि यदि गाड़ी के लिये ड्राइवर रखना पड़ा, तब तो उसको पूरा तलब भी देना होगा और उसके रहने की व्यवस्था भी करनी होगी. इतना पैसा कहाँ से आयेगा ? तब मैंने सुझाव दिया कि यदि तुमलोगों को कोई आपति न हो तो मैं ही यदि ड्राइवर का काम करूँ, इस गाड़ी को यदि मैं ही चलाऊं तो कैसा रहेगा ? सबों ने कहा- ' क्या आप को गाड़ी चलाना आता है ? ' मैंने कहा चलाना तो नहीं आता, पर किसी से थोड़ा सीख लेना होगा. 
यह निश्चय करके जिस गैरेज में जीप को डेंटिंग-पेन्टिंग के लिये दिया गया था, उन्ही मिस्त्री लोगों को पूछा क्या मुझे थोड़ा गाड़ी चलाना सीखा देंगे ? तब वे एक मैदान में लेजाकर जीप को ड्राइव करके थोड़ी दूर तक आगे ले जाना और फिर बैक करके वापस उसी जगह में ले आने के लिये कहे. एक दिन केवल एक घन्टा इधर उधर स्टेरिंग काटना सिखाये, उसी मैदान में दूसरे दिन डेढ़ घन्टा एक्सीलेटर, ब्रेक, क्लच, गेअर आदि बदलने का अभ्यास करवा दिये, और थोड़ा सड़क पर लाकर इधर-उधर घूमा दिये. इस प्रकार कुल ढाई घंटे का ट्रेनिंग मिला. जब सब हो गया तो वहाँ से १० किलोमीटर जितना रास्ते पर गाड़ी को स्वयं ही चलाकर महामण्डल के हेड ऑफिस - खड़दा तक ले आया, और वहाँ लाकर बगीचे के एक किनारे में गाड़ी को खड़ा कर दिया. 
इसके कुछ दिनों के बाद मुझे से कहे कि, आपको ड्राइविंग लाइसेन्स लेने के लिये एक परीक्षा देनी होगी, आप अमुक तारीख को आ जाइयेगा. तब दूसरी बार पुनः उसी तारीख को खड़दा से १० किलोमीटर दूर तक गाड़ी खुद चला कर उस दफ्तर तक ले गया और गाड़ी को उनके दफ्तर के सामने ही गाड़ी खड़ा कर दिया. उस दफ्तर के सामने ही एक बहुत चौड़ा और गहरा ड्रेन है. उनके दफ्तर के चारदीवारी के भीतर घुसते समय जो छोटे छोटे स्लैब को ब्रीज के जैसा बना कर इधर उधर बिखरा रहता है, उससे निकाल कर गाड़ी को भीतर खड़ा कर दिया था. ऑफिस में जाकर बातचीत हुई. हमलोगों के एक और व्यक्ति भी वहाँ गये थे,जो उस समय महामण्डल के सहायक सचिव थे और बैरकपुर में रहते थे. जो इन्स्पेक्टर गाड़ी को चलाते देख कर लाइसेन्स देने के लिये अधिकृत थे, वही इंस्पेक्टर उस गाड़ी में बैठे और मुझसे बोले- ' आप स्टीयरिंग पर बैठिए '. वह लेफ्ट हैण्ड drive गाड़ी थी, मैं उधर ही बैठ गया.
जब हमलोगों के एक और सदस्य गाड़ी में बैठना चाहे तो, इन्स्पेक्टर ने कहा- ' आप मत बैठिए, आप नहीं बैठ सकते हैं. ' इंस्पेक्टर बोले- ' टेस्ट के समय इनके अलावा गाड़ी में और कोई नहीं रह सकते है.' वे नीचे ही खड़े रह गये. मुझसे बोले गाड़ी को बैक करके सड़क पर ले चलिए. गाड़ी को थोड़ा सा बैक करके उसी ब्रीज से कटाते हुए सड़क पर ले आये. इतना सब कुछ करने में गाड़ी का चक्का तीन-चार बार से अधिक नहीं मोड़ना पड़ा था. मुझसे पूछे, ' आप कितने दिनों से गाड़ी चला रहे हैं ? ' मैंने कहा मैं एक दिन यहाँ से गाड़ी चला कर १० किलोमीटर दूर खड़दा तक गया हूँ, और फिर आज १० किलोमीटर तक चला कर यहाँ ले आया हूँ- कुल मिलाकर यही २० किलोमीटर चलाया हूँ. इसके अतिरिक्त और दो दिन एक मिस्त्री के साथ एक मैदान में एक दिन एक घन्टा और एक दिन डेढ़ घन्टा एक मैदान में चलाने का प्रैक्टिस किया था, बस यही दो दिन चलाया था. " ऐसा तो हो ही नहीं सकता मैं इन्स्पेक्टर हूँ, इतना कुछ देखा हूँ, आप ने जरुर अनेकों बार गाड़ी चलाया है."
नहीं, मैंने इसके अलावा और कभी नहीं चलाया है, पहले बिल्कुल अनाड़ी था. " आखिर ऐसी महारत मिली कैसे ? " ऐसा होने का एक ही कारण है." यह गाड़ी स्वामीजी का कार्य करने के लिये आया है. हमलोगों के पास मासिक वेतन देकर ड्राइवर रखने कि क्षमता नही है, तब सीखे बिना उपाय क्या था, बस यही भावना और क्या ?" एवं उसके बाद इसी गाड़ी को लेकर विभिन्न स्थानों में जाना पड़ता था, उस गाड़ी से प्रचूर यात्रायें करनी पड़ती थी. उस समय बहुत से केन्द्र हो गये थे. कई स्थानों पर जाने कि आवश्यकता थी. वह सब कार्य सुचारू रूप से चलने लगा. फिर एक बार चर्चा हुई कि हमलोगों चन्दा तो अधिक मिलता नहीं है, रुपये-पैसों का इतना आभाव रहता है. तो एक सूत्र से जानकारी मिली कि आप लोग यदि यहाँ से गाड़ी लेकर मायावती-अल्मोड़ा की ओर निकलें तो आपलोगों के रास्ते में जितने शहर पड़ेंगे, पहले से बता देने पर उन शहरों में आपलोगों के रहने का इन्तजाम भी हो जायेगा और कुछ चन्दा भी इकठ्ठा हो जायेगा, क्योंकि मुझे एक ऐसे संघ के साथ परिचय जिनका बहुत से शहरों में केन्द्र है.
उसी योजना के अनुसार गाड़ी लेकर हमलोग रवाना हो गये. हमलोगों के दल में पाँच-छः लोग शामिल थे.जहाँ- जहाँ से भी  थोड़ा बहुत चन्दा मिलने की सम्भावना थी,  जिन जिन के यहाँ हमलोग रुकते थे उनसे ही पूछ पूछ कर एक जगह, से दूसरे जगह पर चन्दा भी एकत्र करने की चेष्टा करते हुए आगे बढ़ते चलते गये. कुछ कुछ प्राप्त भी होने लगा. इसी प्रकार हमलोग अल्मोड़ा पहुँच गये. अल्मोड़ा पहुँचने से पहले की ही घटना है, मैदानी समतल भूभाग समाप्त करके जब एक बार पहाड़ की चढ़ाई शुरू हुई तो गाड़ी बस एक पहाड़ के बाद दूसरे पहाड़ को पार करते हुए क्रमागत ऊपर की ओर ही चढ़ती चली गयी. काफी देर तक सफ़र करने के बाद भी रास्ते में कोई बस्ती, दुकान-मकान नहीं दिखाई दे रहा था, किन्तु बहुत आगे जाने पर एक चाय की दुकान दिख गयी.
हमलोगों ने विचार किया थोड़ा रुक कर चाय पी लिया जाये. वह दुकान एक मोड़ के किनारे पर थी. और मोड़ के पास थोड़ी सी जगह भी थी जहाँ गाड़ी खड़ी की जा सकती थी. वहीं पर गाड़ी को खड़ी करके हमलोगों ने चाय पिया.चाय पीने के बाद गाड़ी पर आकर बैठे और जब ईंजन को स्टार्ट किया तो, बार बार चाभी घुमाने से भी गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही थी. थोड़ा भी आगे पीछे नहीं हो रही थी. हमलोगों के साथ एक व्यक्ति ऐसे थे जो गाड़ी के जानकर थे. उनको देखने को कहे. वे बोनेट खोल कर थोड़ी देर तक निरिक्षण-परिक्षण करने के बाद बोले- " इसमें जो हुआ है, वह अभी किसी तरह ठीक नहीं हो सकता है." अमुक पार्ट्स बदल देना होगा, वह किसी कारण से काम नहीं कर रहा है, खराब हो गया है. यहाँ तो कोई पार्ट्स की दुकान आदि भी नहीं है. यहाँ से डेढ़ सौ- दो सौ माइल दूर टनकपुर माने पिथौड़ागढ़ तक जाने के बाद हो सकता है कि एक जगह वह विशेष पुर्जा प्राप्त हो जाये. पर चुकी यह डिस्पोजल का जीप है, यहाँ वह पार्ट्स मिल ही जायेगा कहना कठिन है. किन्तु उसके बाद एक समस्या और है उस पार्ट्स को बदलने के लिये जीप के गिअर बॉक्स भी उतार कर नीचे रखना होगा, उसके लिये बाँस कि जरुरत होगी, और बाँस यहाँ मिलेगा कहाँ ?हमलोगों ने देखा कि अब तो काफी देर हो चुकी है. इस समय वहाँ से कहीं भी जाना सम्भव नहीं था, उस समय कुछ भी करने का उपाय नहीं था.
बहुत संकोच के साथ उस चाय-दुकान वाले से ही पूछा गया कि क्या वहाँ पर रात में ठहरा जा सकता है ? वह बोला " आपलोग यहाँ कैसे रह पायेंगे ? सोने के लिये यहाँ कोई कमरा नहीं है, इसी दुकान की छत के नीचे बाँस-बल्ली लगाकर एक मचान जैसा छावनी बना दिया गया है; और इसी बाँस की सीढ़ी से ऊपर चढ़ कर सोना होता है. वहाँ थोड़ा पुआल आदि बिछा है यदि आपलोग वहाँ रहना चाहें तो रह सकते हैं. "
" हमलोगों को कोई आपत्ति नहीं है. किन्तु भोजन का क्या होगा ? हमलोगों के पास तो खाना बनाने का कोई समान नहीं है, एक-दो पाकेट बिस्कुट आदि सफ़र में जैसा रहता है, वैसा ही है. तुम्हारे पास क्या आंटा है ? " " हाँ, आंटा तो है."
" और क्या है, चिनि है ? " " हाँ, चिनि भी है." " कुछ रोटियाँ बना दे सकते हो ? " " आपलोग कहेंगे तो बना दूंगा. " उसने जब रोटी बना दिया तो हमलोगों ने उसमे चिनि लपेट कर खा लिया.और जितना सम्भव था, पेट भर कर पानी पी लिया गया. खा-पीकर उसी सीढ़ी से मचान पर चढ़ कर, किसी प्रकार रात बीता कर अगले दिन वह पुर्जा कैसे प्राप्त होगा, यही चर्चा चल रहा थी. सुबह में जब नीचे उतरे तो मन में बिचार आया की अच्छा देखा जाय न कि, आज सुबह में गाड़ी कि क्या अवस्था है?  सुबह में जब ईंजन को स्टार्ट किया तो तुरन्त स्टार्ट हुआ, गिअर लगाने से गाड़ी आगे पीछे भी हुई, बैक करने पर गाड़ी पीछे से आकर सामने सड़क पर खड़ी हो गयी. यह देख कर तो सभी आश्चर्य-चकित रह गये, यह क्या हुआ ? आखिर यह चमत्कार हुआ कैसे ?
बहुत देर के बाद यह बात समझ में आयी कि कल जो हमलोग लगातार चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे, उसके कारण तेल कहीं से लिक करके गिअर बॉक्स में प्रविष्ट हो गया था और उस पुर्जे को गीला कर दिया था, जिसके कारण वह पुर्जा तब काम नहीं कर रहा था. इसीलिये वह समस्या हुई थी. सारी रात गाड़ी खड़ी थी, जिसके चलते सुबह में वह फिर से काम करने लगी है. जो हो, संकट खत्म हो गया था, हमलोग मायावती जा रहे थे. मायावती तक आराम से आ गये. वहाँ पर हम सभी लोगों के लिये रहने कि व्यवस्था थी. घूम-फिर कर आस-पास देख आया. स्वामीजी लोग जिस स्थान पर बैठ कर ध्यान करते थे, वहाँ की निस्तब्धता को देखकर ऐसा लगता था मानो जगत हो ही नहीं !
वसन्त रोग (चेचक) से आक्रान्त रहने के समय जो देखा था- " मैं मर गया हूँ, और जिस जगह पर शरीर का दाहसंस्कार कर दिया गया था, उसी स्थान को पुनः अपने सामने सेभियर के समाधि-स्थली के  रूप में साक्षात् देखा."(???) 
वहाँ से वापस लौटते समय उस समय अद्वैत आश्रम के जो प्रेसिडेन्ट थे, स्वामी बुद्धानन्दजी- वे हमलोगों से बोले " नवनीबाबू, आप एक काम कर सकेंगे ? " मैंने कहा, आप कहिये महाराज. " एड्ड नामका एक अमेरिकन भक्त आया हुआ है, वह जब लौटेगा तो उसको यहाँ से अकेला ही वापस लौटना होगा, यहाँ कोई गाड़ी-मोटर भी उपलब्ध नहीं है, यहाँ से काफी नीचे उतरने पर बस स्टैंड कई किलोमीटर दूर है, फिर वहाँ से भी किस समय बस मिलेगा यह भी निश्चित नहीं है.और वह तो यहाँ के लिये बिल्कुल नये हैं. और जब आपलोग भी उधर ही जा रहे हैं, तो उनको भी अपने साथ जीप में लेजाकर जहाँ कहीं भी मैदानी समतल भूभाग मिले इनको उतार दीजियेगा तो ये वहाँ से खुद चले जायेंगे."
' हाँ, महाराज निश्चय ही सही जगह में उतार दूंगा.'  तब वह मेरे दाहिनी तरफ आकर बैठ गया, पर वह इतना विशालकाय था कि उधर के सीट का तल्ली थोड़ा दब गया. वहाँ से कितने सुन्दर दृश्यों का अवलोकन करते हुए हमलोग धीरे धीरे नीचे उतर आये. उतरते उतरते काफी रात्रि हो चुकी थी, एक ऐसे जगह में आ पहुँचे जहाँ एक भी दुकान-मकान खुला हुआ नही दिख रहा था, और बहुत खोजने से भी ठहरने की कोई जगह नहीं मिली. वहाँ क्या किया जाय ? तब हमलोगों की दृष्टि एक भैंसे के तबेले पर जा पड़ी. वहाँ बहुत सी भैसे थीं. और जो लोग वहाँ भैंसे रखते थे, उनके बैठने के लिये कुछ खटिया-चौकी रखा था. दुकान सभी बन्द हो चुके थे. एक दुकान के भीतर बत्ती जाल रही थी. उसकी दुकान से कुछ मिठाई खरीद कर लाये और सबों ने मिल-बाँट कर खा लिया. एड्ड साहब को भी खिलाया गया. खाने के बाद उसी भैसे के तबेले के सामने थोड़ी खाली जगह थी, वहीं पर खटिया आदि डाल कर किसी प्रकार रात्रि बीता दी गयी. पर उनका कद-काठी इतना लम्बा था कि उनका सिर खटिया से बाहर हो रहा था.
दूसरे दिन सवेरा होने पर वहाँ से हमलोग आगे कि यात्रा शुरू किये. फिर से मिलो-मिल सड़क को पार करते हुए, एक जगह पार एक चाय कि दुकान देखने पर हमलोगों के मन में चाय पीने तथा कुछ मुख में देने (नाश्ता करने) की ईच्छा हुई. किन्तु उसने कहा, ' महाराज ने तो मुझ को बता दिया है कि बाहर का कोई चीज खाना नहीं है.' पर हमलोगों ने सोचा अब यहाँ से कितने मील दूर जाने पर कोई अच्छा सा होटल इत्यादि मिलेगा य़ा नहीं वह भी पता नहीं है. मैंने उसको समझाते हुए कहा, ' देखिये, पहली बात तो यह है कि वह जिस मिट्टी के कप में चाय दे रहा है उसमे कोई खराब कीटाणु आदि होने की सम्भावना नहीं है, उनलोगों ने उसको अच्छी तरह से धो भी दिया है; उसके बाद यह चाय भी खौलते हुए पानी में बनाया गया है, इसीलिये जितने भी कीटाणु आदि होंगे वे तो मर ही जायेंगे.
तुम बात मानो, हमलोग चाय पी रहे हैं, तुम भी थोड़ी चाय पी कर देखो.' तब वह मिट्टी के प्याली (भांड़) में एक भांड चाय पी कर बोलता है- " और पिऊंगा, थोड़ी और चाय पिऊंगा. " उसने दो-तीन भांड चाय पी लिया. दुकानदार उस समय पकौड़े छान रहा था. हमलोग तो पकौड़े खाएँगे ही. सुबह से कुछ खाया भी नहीं था. हमलोगों ने पकौड़े खाए. उसने पूछा - " What is that ?" मैंने कहा वह यहाँ का " Oil cake "-है. " Is it ?" यह कैसा होता है ? मैंने कहा यह तो बहुत टेस्टी है तुम यदि इसको एक बार मुख में डाल लिये तो फिर मांग मांग कर खाओगे. " Is it so ? " यह कहकर उसको एक पकौड़ा दिया गया. वह उसे खाने के बाद बहुत खुश हुआ और फिर और दो-चार पकौड़ा खा लिया. खा-पीकर फिर हमलोगों के साथ चलने लगा. इसी प्रकार काफी दूर तक आने के बाद, उसको एक ऐसे स्थान पर लाकर उतार दिया गया जहाँ से वह अपनी आगे की यात्रा को अकेले ही पूरी कर सकता था. वह चला गया. बहुत दिनों बाद महाराज ने कहा था कि एड्ड ने पत्र में लिखा था कि " मेरा उनलोगों ने बहुत ख्याल रखा था. किन्तु एक दिन रात्रि के समय, We had to pass a night in a stable. " तो महाराज बोले कि इसके उत्तर में मैंने लिखा था, " But this is wonderful !Was not Jesus Christ born in a stable ? " इसप्रकार से महाराज ने एड्ड का हौसला बढाया था. 
ऐसी कितनी ही घटनायें हैं. कुछ चन्दा भी एकत्र हो गया, किन्तु इसके साथ ही साथ हमलोगों ने मायावती का दर्शन भी कर लिया. फिर वहाँ से लौटते समय अल्मोड़ा भी गये थे. उस समय जो सन्यासी सुन्दरबन के मनसाद्वीप में पोस्टेड थे, वे भी तब वहीं पर थे. कितने ही वर्षों के बाद उनसे भेंट हुआ. वहाँ पर उन्होंने मुझे एक काम सौंप दिया. " बहुतों से पहले कह चुका हूँ, किसी ने किया नहीं है. उन्हीं वशी सेन की स्त्री ने अल्मोड़ा के ऊपर एक छोटा सा संस्मरणात्मक निबन्ध लिखा था, जो मेरे पास वैसे ही पड़ा हुआ है. क्या उस निबन्ध के साथ अल्मोड़ा के बारे में स्वामीजी से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र करके जोड़ कर एक पुस्तिका लिख सकते हैं ? " मैंने कहा, महाराज यह तो मेरा परम सौभाग्य होगा कि मैं उन सभी स्थानों का दर्शन कर लूँगा जहाँ जहाँ स्वामीजी गये थे.
तब एक सन्यासी मुझे अपने साथ लेकर उन सभी स्थानों का दर्शन कराने ले गये जहाँ बैठ कर स्वामीजी ने ध्यान किया था, वे घुमाते हुए मुझे उन समस्त स्थानों का दर्शन करा दिये; पर मैं यह भी मार्क कर रहा था कि वे मुझे प्रायः उन स्थानों पर अकेला छोड़ कर, स्वयं थोड़ी देर के लिये वहाँ से किनारे हो जाते थे. मैं उन सभी स्थानों पर बैठ कर स्वामीजी का ध्यान करने की चेष्टा किया था.तब मेरा ह्रदय महा आनन्द से भर गया था ! ह्रदय में एक अदभुत सिहरन जैसा अनुभव हुआ था ! एवं जिस स्थान पर दो नदियाँ आकर मील गयीं हैं, वहाँ पर जिस विशाल वृक्ष के नीचे बैठ कर स्वामीजी ने ध्यान किया था और जिस जहाँ पर कहा था-  
" आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! "   
" -आज मेरे जीवन की एक बहुत गूढ़ समस्या का समाधान इस महा धाम में प्राप्त हो गया है ! "
इसी तरह अन्य कई महत्वपूर्ण तथ्यों का संग्रह कर के " अल्मोड़ार आकर्षण " नाम से एक छोटी सी पुस्तिका का पूरा मैटर तैयार हो गया. किन्तु तब मैंने कहा- " महाराज यहाँ पर बैठ कर तो लिख नहीं पाउँगा. मैंने समस्त तथ्यों को एकत्र कर लिया है. मैं जाकर लिखूंगा और और आपको भिजवा दूंगा."  आने का बाद जब लिखना हो गया तो उनको सूचित कर दिया. उन्होंने कहा, " यहाँ पर बंगला भाषा में उस पुस्तिका को छपवाने में असुविधा होगी. आप क्या उसको छपवा कर भेज सकते हैं ? " तब महामण्डल के द्वारा उस पुस्तिका को छपवा कर उसकी कुछ हजार प्रतियाँ हमलोगों ने अल्मोड़ा भिजवा दी थीं. उसके बाद उन्होंने कहा " अच्छा यह तो बंगला भाषा में है, अंग्रेजी में जो कुछ थोड़ी बहुत जानकारी उपलब्ध भी है तो उसमे कितने ही तथ्य नहीं हैं. क्या इस पुस्तिका को हिन्दी में भी छपवाया जा सकता है ? यहाँ के अधिकांश लोग तो बंगला पढना नहीं जानते हैं. " { हिन्दी में ' अल्मोड़ा का आकर्षण '- नामक महामण्डल पुस्तिका का मुद्रण पहली बार कैथोलिक प्रेस, पुरुलिया रोड, राँची से १४ अप्रैल १९९७ को हुआ था.
 स्वामीजी का उपरोक्त उद्गार - " आमार जीवनेर एकटा मस्त समस्या आमि महाधामे फेले दिये गेलुम ! "  
का वर्णन उस पुस्तिका के पृष्ठ संख्या ५ पर इस प्रकार दिया हुआ है- " स्वामीजी स्वामी अखंडानन्दजी के साथ नैनीताल पहुँचे कुछ दिनों बाद अल्मोड़ा के पथ पर पुनः उनलोगों ने अपनी पदयात्रा आरम्भ की. ...तीसरे दिन उन दोनों ने रात्रि व्यतीत करने योग्य एक मनोरम स्थान को ढूंढ़ निकाला.
पगडण्डी के निकट से ही कोशी ( कौशिकी) नदी बहती हुई चल रही थी. असंख्य छोटे-बड़े आकर के रोड़े-पत्थरों के ऊपर से होकर बहती हुई इस नदी को पैदल ही चलकर पार किया जा सकता था. एक स्थान पर दूसरी ओर से बह कर आती हुई सरोता नदी आकर कौशिकी का आलिंगन कर रही थी. 


दोनों के संगम-स्थली पर एक त्रिभुजाकार भूखण्ड उभर आया था. उसके बीच में एक विशाल पीपल का वृक्ष भी खड़ा था. स्वामीजी वहाँ रुककर खड़े हो गये, और स्वामी अखंडानन्दजी से कहा- " भाई, देखते हो यह स्थान तो ध्यान करने के लिये अत्यन्त उपयुक्त है ! "
उसने वहीं कोशी नदी में स्नान किया और ध्यान लगा कर उस वृक्ष के नीचे जा बैठे. कुछ ही क्षणों के भीतर वे गंभीर ध्यान में लीन हो गये, उनका पूरा शरीर निस्पंद हो गया था. कुछ समय के बाद ध्यान टूटने पर स्वामी अखंडानन्दजी से बोले- 
" आज मेरी एक दीर्घकालीन जिज्ञाषा का समाधान प्राप्त हो गया. सचमुच सृष्टि के आदि में केवल शब्दब्रह्म (१ॐ कार ) ही था. जो (' नाम ' य़ा शब्दब्रह्म ) पिण्ड में स्थित है, वही ( ' नाम ' य़ा शब्दब्रह्म ) इस ब्रह्माण्ड के पीछे भी अवस्थित है ! अनुविश्व (पिण्ड) और वृहत-विश्व (ब्रह्माण्ड ) दोनों के पीछे एक ही सत्ता ( ' शब्दब्रह्म ' ॐ कार और शक्ति  ठाकुर का नाम ) ही विराजमान है. जीवात्मा जिस प्रकार जीव के शरीर के भीतर ही अवस्थित होकर उसे चला रही है, विश्वात्मा भी उसी प्रकार इस प्रकृति (सृष्टि) के भीतर ही अवस्थित होकर इसको चला रही है ! शब्द ( ' नाम '-  परा, मध्यमा, पश्यन्ति और वैखरी ) और उसके अर्थ के समान ही ब्रह्म के ये दोनों रूप ( निराकार और साकार ) सनातन हैं ! अतः हमलोग जिस जगत को देख रहे हैं वह शाश्वत निराकार एवं शाश्वत साकार की मिलीजुली अभिव्यक्ति है ! " 
अल्मोड़ा के निकट जिस स्थल पर बैठ कर ध्यान करने स्वामीजी को साकार और निराकार ब्रह्म के बारे में जिज्ञाषा का समाधान प्राप्त हो गे था, उस स्थल का नाम है - काँकड़ी घाट. यह स्थल अल्मोड़ा से २३ किलोमीटर दूर है .}        
उसके बाद पुनः उस पत्रिका ( अल्मोड़ा का आकर्षण )  को हिन्दी में अनुवाद कर के पुनः प्रकाशित करवा कर अल्मोड़ा भिजवा दिया गया था. इस प्रकार थोड़ा बहुत ठाकुर-माँ- स्वामीजी की सेवा तो हुई ही, वहाँ आने वाले भक्तों की सेवा हुई, आश्रम की सेवा करने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ.

बार बार कहीं जाने की जाने की ईच्छा नहीं होती है. किन्तु एक जगह जाने से वहाँ से दूर एक पहाड़ के शिखर पर दंडायमान एक वृक्ष को लगातार टकटकी लगाकर देखने की ईच्छा होती थी; वह वृक्ष स्वामीजी के समय में भी उसी स्थान पर था, ऐसा लगता था मानो कोई जीवित प्राणी ऊपर खड़ा है. बहुत दिनों तक मुझे उस आश्रम के लाइब्रेरी कक्ष में रहने की व्यवस्था की गयी थी. रात्रि के समय में उस कक्ष के बाहर निकाल कर जहाँ से वह वृक्ष दिखायी देता था, वहाँ से चुचाप उसे बैठ कर देखता रहता था. 
दूसरे दिन सुबह में महाराज को मालूम हुआ तो उन्होंने कहा, " आप रात्रिबेला में बाहर बैठे हुए थे ? " मैंने कहा- " महाराज, वहाँ से सामने का दृश्य ऐसा दिखता है जहाँ बैठते ही स्वामीजी का जीवन, उनकी  बातें याद आने लगती हैं, क्या किया जाये ? "  " नहीं, नहीं, वैसे बाहर में मत बैठिएगा, यहाँ पर कभी कभी बाघ भी घूमता है ." मैंने कहा, " बाघ सामने आ जायेगा तो क्या होगा? अधिक से अधिक खा डालेगा- किन्तु यह विहंगम दृश्य तो छोड़ा नहीं जा सकता ! इसी तरह की अन्य कई तरह की अभिज्ञता इस जीवन में कुछ कुछ मिला है. कुछ कुछ सेवा करने का सूयोग भी कितने तरीके से कितने स्थानों पर प्राप्त हुआ है.          
                                                       
     

{It is said that Swami Vivekananda made three trips to Almora. After the passing away of Sri Ramakrishna, Swamiji, felt the need to travel across the country and the world to preach the words of Thakur and the Vedanta. In 1890, he walked from Nainital to Almora by foot with Swami Akahananda. Both were often ill with fever. He spent time in the Sehapahar (visible from the present lacation of the ashram) for meditation. Then crossed the Kosi river and climbed up to the Almora hill. Three kilometers short of Almora, in a place called Karbala, Swamiji fell on the ground, almost dying of exhaustion. His feet were blistered and he could not move any longer.
Swami Akhandananda ran hither and thither, looking for someone, to help. At the far end, he spotted near a graveyard, a Muslim fakir. He pleaded with him to give some food to Swamiji. But The Fakir was hesitant as his religion was different. Swami Vivekananda said � We are all brothers� The only food available with the fakir was a cucumber, which revived Swamiji. Life returned and they continued on their journey to reach Almora.

Today, where Swamiji fell, there is Vivekanada Rest House. It is an open platform where any one can come and stay and rest. The keys to this are with the grave keepers. Surrounding it is the expanse of a graveyard, with primordial silence. There is a Shrine that has been made over the grave of the fakir close by.


Visitors come during these months from all over the country both for meditation as well as tie in the sight seeing as well.
River Kosi winds her way...
Except for a few houses and the new library that is being built, the space is otherwise covered by trees and more trees, the pine with its shining needles and of course the all pervading silence in the air, only occasionally broken by the loud talk and laughter from insensitive visitors. Otherwise, what silence!

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