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सोमवार, 27 सितंबर 2010

[57] " इस जन्म के मेरे अन्य सगे-सम्बन्धी "

  बहुत से सन्यासियों का संग पाने का सौभाग्य मिला है. इससे जीवन में परम लाभ हुआ है. ऐसे ही एक अन्य सन्यासी - ' राममय महाराज ' की छवि अब भी स्मृति में बसी हुई है. राममय महाराज की स्मृति आते ही माँ के उपदेश याद आने लगते हैं. किस प्रकार स्कूली जीवन के समय से ही उनको माँ के सत्संग में रहने का सौभाग्य मिला था. और भी दो-चार असाधारण सन्यासियों की कहानी सुना हूँ जिनको बचपन से ही माँ के पास रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हठात एक दिन सुबह में देखता हूँ कि राममय महाराज हमारे घर के एक कमरे में बिस्तर पर बैठे हुए हैं.मैं तो उनको वहाँ बैठे देख कर आवाक हो गया, और बोला- " महाराज आप यहाँ? " बोले- " मैं यहाँ किस सिलसिले में आया, लगता है तुमको वह नहीं पता है ?" मैंने कहा, ' जी नहीं, महाराज .' तब महाराज ने बताया- " तुम्हारे दादा (बड़े भैया ) करवीवरण मुखोपाध्याय को कलकाता में आयोजित होनेवाले एक फूलों कि प्रदर्शनी में एक विशेष फूल के लिये इस बार फर्स्ट प्राइज मिला है। 
 तब मैंने उसको कहा था कि मैं एकदिन तुमलोगों का बगान देखने आऊंगा. आज तुमलोगों का बगान देखने आया था, इसी लिये यहाँ बैठा हूँ. सुनकर मुझे बहुत आनन्द हुआ. तो मैं यह पहले ही कह चुका हूँ कि मेरे दादा ने I.Sc. तक की पढ़ाई मेरे साथ ही की है. उन्होंने I .Sc.बहुत अच्छे अंको पास किया और उसके बाद कलकाता में होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज में भारती हो गये थे.चार वर्ष तक बहुत अच्छा रिजल्ट किये थे कईबार तो फर्स्ट क्लास फर्स्ट हुए थे.
किन्तु चौथे वर्ष के अन्तिम भाग में, पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमन्त्री विधान चन्द्र राय किसी सभा में उपस्थित थे. उनके समक्ष ही मेरे दादा ने एक भाषण दिया था. उनके भाषण को सुनकर विधान चन्द्र राय ने कहा- " इसको एकबार राइटर्स बिल्डिंग में मेरे साथ भेंट करने के लिये कहियेगा." वे जब राइटर्स बिल्डिंग में गये तो बहुत काम देने लगे. वे उनके साथ इतने रम गये आगे की होमिओपैथी का कोर्स पूरा करना सम्भव नहीं हुआ. विधान राय के लिये ही वे कई बार बहुत सारी चीजें लिख दिया करते थे, कभी कभी उनके भाषण आदि भी वे ही लिख दिया करते थे. इसप्रकार वे उनके अत्यन्त करीबी व्यक्ति बन गये थे. 
उससमय ' भारतवर्ष ' और ' प्रवासी ' नामक दो बंगला मासिक पत्रिकाएं बहुत लोकप्रिय थीं, ' भारतवर्ष ' पत्रिका के सम्पादक फणीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के साथ भी उनका घनिष्ट परिचय था. दादा (भैया ) बहुत अच्छा लिख सकते थे. उन्होंने बहुत सी कवितायेँ लिखीं हैं, प्रबन्ध लिखे हैं, बंगला भाषा पर उनकी आश्चर्य जनक पकड़ थी. घर की फुलवारी को बहुत मनोहारी ढंग से सजाये थे. अनेकों स्थानों पर सभा समितिओं में भाषण देते थे. ' भारतवर्ष '  के सम्पादक फणीन्द्रनाथ का जब देहावसान हो गया तो एक समिति गठित कर बहुत वर्षों तक उनका जन्मदिन मनाते थे. उस समय घर में बहुत से लोगों का आना-जाना लगा रहता था.
पहले जो मेरे ' बड़-दादू ' ( बड़े पितामह ) की बात हो चुकी है, उनके दो लड़के थे, बड़े लड़के का नाम देवदेव मुखोपाध्याय था. उनकी दो कन्यायें थी. वे दोनों राँची में अपने मामा के घर में रहित थी. बड़ीबहन का नाम मालविका था, उसने बी-ऐ पास किया था, तभी उसको टाईफेड हो गया था, उनदिनों इसकी भी अच्छी चिकत्सा उपलब्ध नहीं थी, उसका देहान्त हो गया था. छोटीबहन का नाम उत्प्ला था, उस समय राँची में कोई यूनिवर्सिटी नहीं थी, इसीलिये पटना यूनिवर्सिटी से उसने अंग्रेजी से एम्-ऐ में फर्स्ट क्लास फर्स्ट किया था. 
उसका जिनके साथ शादी हुई थी- (अर्धेन्दुशेखर) वे सात विदेशी भाषाओँ के ज्ञाता थे. बहुत समय तक दिल्ली में थे. उनदिनों जो लोग फोरेन-सर्विस में थे उनमे से कई लोग उनके पास विदेशी भाषा सीखने के लिये आया करते थे. संगीत में भी वे बड़े दक्ष थे. असाधारण संगीतज्ञ थे. जिस प्रकार गायन में उनको महारत हासिल थी उसी प्रकार यंत्र-संगीत में भी प्रवीन थे, खास तौर पर वे सितार बहुत अच्छा बजाते थे. वे क्लासिकल म्यूजिक के बहुत बड़े फनकार थे, कई सौ गानों की रचना किये थे. उनके(अर्धेन्दुशेखर ) द्वारा लिखित प्राचीन भारतीय संगीत के ऊपर अंग्रेजी में लिखी एक पुस्तक थी, नाम था- ' The Story of Indian Music ' उत्प्ला संस्कृत भी बहुत अच्छा जानती थी. यदाकदा वह संस्कृत में श्लोक भी लिख सकती थी. स्वामी अभेदानन्द की शतवार्षिकी के समय अभेदानन्द के ऊपर संस्कृत में एक बहुत बड़ी कविता लिखी थी. उस कविता को उनके स्मारक-ग्रन्थ में प्रकाशित भी किया गया था.
स्कूली जीवन के विषय में बताते समय एक ही स्कूल में तीन पीढ़ियों के पढने का जिक्र हुआ था. पितामह के छोटे भाई - विभूतिभूषण मुखोपाध्याय इंजीनियरिंग इत्यादि नाना प्रकार से करके अमेरिका में रहते थे. जब उनकी उम्र बहुत हो गयी थी वे अमेरिका में गीता पर क्लास लेते थे. गीता पढ़ाते थे.वहाँ के बहुत से लोगों ने उनसे संस्कृत सीखा है. मैंने यह भी देखा है कि इन्ही सब विषयों के बारे में वे पितामह के पास पत्र लिखा करते थे, एवं पितामह गीता के बारे में बहुत सी बातें उनको लिखते रहते थे. गीता की चर्चा होने पर 
भाटपाड़ा के विख्यात पण्डित पञ्चानन तर्कतीर्थ की याद आ रही है, उनके साथ पितामह की एक बार शास्त्र के ऊपर चर्चा हो रही थी. उस समय उन्होंने कहा था कि, मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूँ, गीता के एक श्लोक का अर्थ ऐसा होना चाहिये - मुझे ऐसा महसूस होता है. पञ्चानन तर्करत्न महाशय ने पूछा - " वह क्या है ?" पितामह कहते हैं- गीता में कहा गया है-
" त्रैगुन्यविषया वेदा निस्त्रैगुन्यः  भव अर्जुन |
                                                 निर्द्वन्द्वः नित्यसत्वस्थः निर्योगक्षेम आत्मवान || " (गीता : २: ४५ )
[" -हे अर्जुन ! वेद सत्व, रज, तम इन तीन गुणों वाले हैं- अर्थात कामना मूलक हैं.तुम इन तीन गुणों से अतीत अर्थात निष्काम हो जाओ.सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से रहित सदा आत्मनिष्ठ अर्थात सदा धैर्यशील तथा आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिये प्रयत्न रहित स्वस्थ अर्थात ईश्वर-अवलम्बी (धैर्य-सन्तुलन बनाये रखो )हो जाओ. " ]
 मेरे मन में गीता के इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार उभर कर सामने आता है,यदि आप अनुमति दें तो मैं आपके समक्ष उसको  निवेदन करना चाहूँगा. वे बोले - " आप इसका क्या अर्थ समझते हैं? " वेदों में तीन गुणों की बात, सत्व, रजः, तमः, की बात  कही गयी है, - " त्रैगुन्य विषया वेदाः " अतः हे अर्जुन ! तुम इन तीनों गुणों को ग्रहण मत करो- " निस्त्रयगुण्य भवार्जुन ! "" निः - द्वन्द्वः " माने ( जन्म-मरण, आदि ) दो गुणों को ग्रहण मत करो. हार-जीत, मान-अपमान, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों को ठाकुर की लीला एक खेल समझो 
और -" नित्य सत्वस्थ रहो ! "एक गुण को ही ग्रहण करो - एवं केवल सत्व गुण को ही ग्रहण करो. ' निर्योगक्षेम आत्मवान ' - ( अपने नफा-नुकसान के पचड़े में न पड़ कर धैर्य- सन्तुलन  बनाये रखो ! ) 
पञ्चानन तर्करत्न महाशय यह सुन कर बोले थे- " मैंने गीता पर एक शक्ति भाष्य की रचना की है, आप अधिकारी पुरुष हैं, वह पुस्तक मैं आपको दूंगा |"संस्कृत कॉलेज के अध्यक्ष Edward B. Cowell ने मेरे प्रपितामह (परदादा ) को इस कॉलेज से अध्यन समाप्त करने के बाद जो अभिज्ञता पत्र प्रदान किया था वह इस प्रकार था-
" This is to certify that Bhuban Chandra Mookerjee has attended at the Sanskrit College for 10 years and studied the following branches of Sanskrit Literature : Grammar, Belles Letters, Rhetoric and Law-; that he has attained respectable proficiency on the subject of these studies, that he has attained respectable proficiency on the subject of these studies, that he has made some progress in the English language and literature; and that his conduct has been satisfactory.
Fort William,
The 24th February 1862  
Edward B. Cowell 
Principal
    भुवनचन्द्र विद्यानिधि ने स्वयं भी कुछ दिनों तक संस्कृत कॉलेज में अध्यापन का कार्य भी किया है. पहले इस विषय में विस्तार से बताया गया है.विख्यात दार्शनिक ब्रजेन शील, जो स्वामीजी के समकालीन रहे हैं, स्वामीजी के सम्बन्ध में उनकी उक्ति असाधारण है. ऐसा भी हुआ है कि वे और स्वामीजी एक ही कॉलेज में पढ़े हैं. वे विख्यात दार्शनिक थे. उनके साथ एकबार पितामह की तन्त्र के ऊपर चर्चा हुई थी. तन्त्र के ऊपर चर्चा होते होते किसी विषय को लेकर उन्होंने जो व्याख्या की तो उसे सुनकर पितामह ने विनम्रता से निवेदन किया कि , ' मुझे ऐसा लगता है कि यह इस प्रकार न होकर इस प्रकार होगा .' तब ब्रजेन शील जैसे उच्च कोटि के दार्शनिक व्यक्ति ने भी कहा था, ' आप ही ठीक कह रहे हैं.' 
उनके (ब्रजेन्द्र शील के ) समय में भारतवर्ष में कई दार्शनिक हुए थे, जो बहुत बड़े पण्डित, ज्ञानी, बहुत बड़े अध्यापक, भी थे और दर्शन शास्त्र से जुड़े कई विषयों पर ग्रन्थ भी लिखे हैं. किन्तु दार्शनिक लोगों का ऐसा मानना है कि, उस समय एकमात्र कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य ही ऐसे व्यक्ति हुए थे जिन्होंने भारतवर्ष की जो निजी दार्शनिक विचार धारा है, उसमे यदि कोई नया सिद्धान्त जोड़ देने की क्षमता रखता हो, कुछ नयी चीज उसमे जोड़ दिये हों तो केवल उन्होंने ही किया है.
अन्यान्य दार्शनिक गण तो अनेक हुए हैं, किन्तु भारतीय दर्शन के भीतर कोई नया दृष्टिकोण य़ा सिद्धान्त किसी ने जोड़ दिया हो तो वे हैं - कृष्णचंद्र भट्टाचार्य ! और प्रेसिडेन्सी कालेज में कृष्णचंद्र भट्टाचार्य पितामह के सहपाठी भी थे. पितामह  का ऑनर्स  था, अंग्रेजी एवं दर्शन में तथा कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य ने तीन विषयों -अंग्रेजी, संस्कृत और दर्शन में ऑनर्स रखा था.           
Dr. Bidhan Chandra Roy, M.R.C.P., F.R.C.S. (Bengali: বিধান চন্দ্র রায়; 1 July 1882–1 July 1962) was the second Chief Minister of West Bengal in India. He remained in his post for 14 years as a Indian National Congress candidate, from 1948 until his death in 1962. He was a highly respected physician and a renowned freedom fighter. Bidhan Roy is often considered as the great architect of West Bengal, who had founded two eminent cities Kalyani and Bidhannagar. He was an alumnus of the Medical College Calcutta of the University of Calcutta. He is one of the few people who completed both F.R.C.S. and M.R.C.P. simultaneously within only two years and three months. In India, the National Doctor's Day is celebrated on the date of his birth (and death) July 1 every year. Dr. Bidhan Chandra Roy constituted a trust for his properties at Patna for social service and made eminent nationalist Ganga Sharan Singh (Sinha) the trustee. He won the Bharat Ratna in 4 February 1961, India's highest civilian honour.
Bidhan Chandra Roy was born on July 1, 1882, at Bankipore in Patna, Bihar. His father Prakash Chandra was an Excise Inspector. Bidhan was the youngest of five children and was greatly influenced by the simplicity, discipline and piety of his parents. Bidhan did his I.A. from Presidency College, Calcutta and B.A. from Patna College with Honors in Mathematics. He applied for admission to the Bengal Engineering College, and the Calcutta Medical College. He was accepted to both institutions but opted to go to medical school. Bidhan left for Calcutta in June 1901. While at medical school Bidhan came upon an inscription which read, "Whatever thy hands findeth to do, do it with thy might." Bidhan was deeply impressed by these words and they became a source of inspiration for him throughout his life.

Dr. Roy believed that the youth of India would determine the future of the nation. He felt that the youth must not take part in strikes and fasts but should study and commit themselves to social work. At his Convocation Address on December 15, 1956 at the University of Lucknow, Dr. Roy said, "My young friends, you are soldiers in the battle of freedom-freedom from want, fear, ignorance, frustration and helplessness. By a dint of hard work for the country, rendered in a spirit of selfless service, may you march ahead with hope and courage... ."
The partition of Bengal was announced while Bidhan was in college. Opposition to the partition was being organized by nationalist leaders like Lala Lajpat Rai, Arvinda Ghosh, Tilak and Bipin Chandra Pal. Bidhan resisted the immense pull of the movement. He controlled his emotions and concentrated on his studies realizing that he could better serve his nation by qualifying in his profession first.Dr. Roy was both Gandhiji's friend and doctor. When Gandhiji was undergoing a fast in Parnakutivin, Poona in 1933 during the Quit India Movement, Dr. Roy attended to him. Gandhiji refused to take medicine on the grounds that it was not made in India. Gandhiji asked Dr. Roy, "Why should I take your treatment? Do you treat four hundred million of my countrymen free?" Dr. Roy replied, "No Gandhiji, I could not treat all patients free. But I came... not to treat Mohandas Karamchand Gandhi, but to treat "him" who to me represents the four hundred million people of my country." Gandhiji relented and took the medicine.
Krishnachandra Bhattacharya (May 12, 1875 – December 11, 1949) was a philosopher at Calcutta University who studied one of the central questions of Hindu philosophy, which is how mind, life or consciousness creates an apparently material universe.
His answer was that the question itself is illegitimate, because it is asked from a position anchored in maya (illusion). On attaining knowledge of Brahman, illusion drops away and there are no more questions. The last knowledge that an individual has as an individual is the knowledge that all this is mere illusion. Beyond that is only the blissful residing in Brahman. Until then, "why" is a matter of faith, not reason.
Subject-object dualism: Therefore again, there seems to be no real debate between KCB and Aurobindo except that the former is self- conscious and rigorous about the method of philosophy and science while the latter is loose and well meaning. The key lies in KCB's assertion that science and philosophy, "Both deal with the object understood as what is believed to be known in the objective attitude as distinct from the subjective, enjoying or spiritual attitude." (Emphasis mine.) Raghuramaraju completely misreads KCB's analysis as an approach where "science denies philosophy." 
He misses the point about their common approach that lies in assuming the distinctness of the subject and object of knowledge or of matter and spirit that is the basis of Western philosophy's brand of analytic rigour. It is Gandhiji alone who recognised that this dualism of the subject and object of knowledge was the crux of the problem, the real basis of modern civilisation, its systematic philosophies, vivisectionist science and imperialist politics.
In the midst of the cacophony about independence, poverty, nationalism, colonialism, materialism, spiritualism, East, West, Left and Right, tradition and modernity, he therefore conducted his systematic experiments in the non-dualism of subject and object in science, religion and politics thus forging a new tradition and modernity. Note his careful choice of the subtitle for his autobiography, `The Story of My Experiments with Truth' (as against `Reform of the Indian Reality'), recording his experiments from non-vivisectionist healing and vegetarianism to satyagraha and sexuality; to reduce it to merely a movement for `spiritualising politics' is a real pity. The real puzzle/debate then is why Raghuramaraju, along with Sudhir Kakar, Partha Chatterjee and other contemporary Indian thinkers does not find Gandhiji systematic, scientific or technical enough!