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गुरुवार, 3 जनवरी 2013

" सामाजिक आदर्श एवं स्वामी विवेकानन्द " [ $$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [57] (9.समाज और सेवा),

मनुष्य को ब्राह्मणत्व में उन्नत करना सबसे बड़ी समाज-सेवा !
[समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है। यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली एक अनवरत प्रक्रिया है। ‘उद्विकास’ (Evolution) शब्द का प्रयोग सबसे पहले जीवविज्ञान के क्षेत्र में चार्ल्स डार्विन ने किया था। विकास की एक निश्चित दिशा होती है, पर उद्विकास की कोई निश्चित दिशा नहीं होती है। उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुई पूरी होती है। परिवर्तन जब अच्छाई की दिशा में होता है तो उसे हम प्रगति (Progress) कहते हैं। प्रगति सामाजिक परिवर्तन की एक निश्चित दिशा को दर्शाता है। प्रगति में समाज-कल्याण और सामूहिक-हित की भावना छिपी होती है। वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव किया जाता है। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। ]
सामाजिक परिवर्तन करने से क्या होता है ? तथा समाज में वांछित आधारभूत परिवर्तन (Fundamental changes) कैसे लाया जा सकता है ? समाज में आधारभूत परिवर्तन लाने के लिये जो लोग एक आदर्श समाज का निर्माण करना चाहते हों या 'समाज -निर्माता' बनना चाहते हों; सर्वप्रथम तो उनके जीवन में ही परिवर्तन लाना होगा। हमलोगों को पहले अपनी मानसिकता में विकास लाना होगा, उन्नत मानसिकता अर्जित करनी होगी। हमलोगों का जो वास्तविक स्वरूप है उसका परिचय प्राप्त करना होगा। अर्थात मनुष्य-मात्र के भीतर जो देवत्व (Divinity) पहले से ही विद्यमान है, उसको विकसित करना होगा तथा उस ब्रह्मत्व (Perfection या पूर्णता) को अपने व्यवहार में, अपने दैनंदिन  विचार-आचार के द्वारा प्रकाशित (अभिव्यक्त) करना होगा।
किन्तु हमलोग यदि मोहनिद्रा (देहाध्यास) में सोये रहेंगे, तो हमारी वास्तविक सत्ता भी सोयी रहेगी। अतः हमलोगों को इस प्रकार आलस्य में न पड़े रहकर निःस्वार्थ कर्म (BE AND MAKE ) के माध्यम से अपने अन्तर्निहित देवत्व को विकसित करने के प्रयत्न में जुट जाना चाहिये। क्योंकि कर्म या विचार-आचार के माध्यम से ही, मनुष्य की वास्तविक सत्ता अभिव्यक्त होती है, और मनुष्य होने का गौरव प्रकट होता है। किन्तु हम यदि केवल धन-उपार्जन करने की चेष्टा में ही लगे रहें, और केवल आर्थिक-उन्नति के हवाई किले बनाते रहने में ही खोये रहें, तो हमलोगों की सत्ता (अस्तित्व) में अन्तर्निहित समस्त सद्गुण सुप्तावस्था में पड़े रह जायेंगे, जिसके फलस्वरूप हमलोगों (के 3H ) का संतुलित विकास (Well-Proportioned) नहीं हो सकेगा।
इसके लिये मनुष्यों को उसकी अन्तर्निहित पूर्णता का सन्देश (Gospel, सुसमाचार या धर्म-शिक्षा) सुनाना होगा, तथा उस पूर्णता को विकसित करने के लिये प्रत्येक कार्य का उचित तरीका निर्धारित करना होगा। धर्म-शिक्षा का मुख्य लक्ष्य यही है। इसीलिये हमें अपने महान शास्त्रों में सन्निहित शास्वत सत्य के सिद्धान्तों को भारत के गाँव-गाँव तक पहुंचा देना होगा। किन्तु यह कार्य संस्कृत कुछ कड़े-कड़े श्लोकों को उद्धृत करने या तात्विक सिद्धान्तों की दुरूह व्याख्या करने से नहीं हो सकता है। हमें अपने दैनन्दिन सामाजिक जीवन की त्रुटियों तथा झूठ-कपट के बीच उन शास्वत सिद्धान्तों को स्थापित करके ही इस कार्य को चलते रहना होगा। ब्राह्मण एवं ब्राह्मणेत्तर समस्त मनुष्य इस सत्य-प्राप्ति के प्रभावी मार्गों का अनुसरण करने के अधिकारी हैं। इस कार्यक्रम में भाग लेने का एक-समान अधिकार सभी मनुष्यों का है। "Be and Make " के मूल मन्त्र में दीक्षित होने का अधिकार हर जाति-धर्म-भाषा या रंग-रूप के मनुष्यों का समान रूप से है।
  मन्त्र का अर्थ है, जिसका मनन करने से त्राण या मुक्ति प्राप्त होती है। अतः मन्त्र को मुक्ति का उत्स (आदि कारण) या आदर्श वाक्य (motto) भी कह सकते हैं। फिर मुक्ति चाहे आर्थिक हो या सामाजिक हो या बुद्धि की हो, और वह चाहे जिस उपाय से हो, जो मुख्य बात है वह है- आत्मिक मुक्ति। उस आत्मिक मुक्ति को प्राप्त करने का जो मन्त्र है, उसे समस्त मनुष्यों के भीतर प्रविष्ट करा देना होगा, ताकि मनुष्य मात्र के भीतर जो निश्चल अव्यक्त शक्ति है, वह दावानल की तरह प्रज्ज्वलित होकर सांसारिक कल्याण के निष्पादन में समर्पित हो सके। आज जितने भी तथाकथित नीच, उपेक्षित मनुष्य हैं, या जितने भी बहिष्कृत और जातिच्युत (outcast) मनुष्य हैं, सबों को इस मन्त्र में दीक्षित करके ब्रह्मणत्व में प्रतिष्ठित करना होगा। धर्म को केवल बौद्धिक क्षेत्र में आबद्ध न रखकर, उसको व्यक्तिगत जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्यवहार करना होगा। धर्म को देशव्यापी करना होगा, उसे सर्वत्र फैला देना होगा।
स्वामी विवेकानन्द यह चाहते थे कि मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक कर्म को धार्मिकता के साथ ही निष्पादित करना सीखे। तथा उसे यह भी ज्ञात होना चाहिये कि कर्म,भक्ति, ज्ञान आदि साधना के जितने भी मार्ग हैं, वे परस्पर भिन्न नहीं हैं, जीवन की निरन्तरता के साथ साथ ये मार्ग भी अभिन्न हैं, परस्पर जुड़े हुए हैं। ब्यापार, खेती-बाड़ी आदि जीवन की सामान्य आवश्यकताओं के सभी क्षेत्र के लिये स्वामीजी के विचार बिल्कुल स्पष्ट थे। वे कहते हैं, मनुष्य को निरन्तर अपनी वास्तविक सत्ता के प्रति सचेत रहते हुए तथा अपने स्वरुप को बनाये रखते हुए अपने समस्त दैनन्दिन कर्मों को निष्पादित करने का कौशल सीखना होगा। अपने प्रत्येक कार्य के लक्ष्य के विषय में वह पहले से सचेत रहेगा। इस कौशल को सीखने के लिये अपरा-विद्या के साथ ही साथ परा-विद्या का अभ्यास भी करना होगा। केवल धन उपार्जन एवं सांसारिक सुख-भोग अर्जित कराने वाली परा-विद्या का अभ्यास मनुष्य को अहं-केन्द्रित (या मगरूर) बना देती है। और वैसे संकुचित हृदय वाला मनुष्य देशव्यापी कल्याण की चिंता नहीं कर पाता है।
धर्म की मुख्य बात आत्मा की अनुभूति करना है- Religion is Realization. जो धर्म अनुभव-निरपेक्ष हैं,वे मनुष्य को मोक्ष के मार्ग पर संचालित न करके उन्हें और अधिक दिग्भ्रमित कर देते हैं। इसीलिये जाति और धर्म के आधार पर कोई भेद-भाव किये बिना आम-जनता में शिक्षा का प्रचार=प्रसार करना होगा। किन्तु वह शिक्षा हर समय विद्यालयों में या पुस्तकों की सहायता से देनी संभव नहीं है, उस शिक्षा को मौखिक रूप से भी देनी होगी। तथा शिक्षा की ज्योति से जब हृदय आलोकित हो जायेगी , मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता के विकसित होने से ही  मनुष्य आत्मसंयम करने के लिये अनुप्रेरित हो सकेगा।
समस्त मनुष्यों को ब्राह्मणत्व में विकसित करना ही भारतवर्ष का सामाजिक आदर्श है। ब्राह्मण का यह मॉडल विकास का सबसे अच्छा आदर्श या सर्वश्रेष्ठ सांचा है। ब्राह्मण रूपी वह सर्वश्रेष्ठ पैमाना क्या है? ब्राह्मण होने का अर्थ है, पूर्णतया लालच रहित तथा स्वार्थ-रहित मनुष्य बन जाना। वे अपने लिये कुछ नहीं चाहते, लेकिन  सत्ता का अनुसन्धान करते हुए ज्ञान का अभ्यास करके बुद्धि तथा हृदय की उत्कृष्टता को प्राप्त कर स्वयं को विकसित करते हैं। वे स्वयं सत्ता की अनुभूति के भीतर महान आनन्द में प्रतिष्ठित रहते हैं। उनको कुछ पाने की इच्छा नहीं होती, उनके जीवन में अपने लिये कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह जाता। फिर भी उस अनुभूत सत्य एवं शक्ति प्राप्त करके किसी जड़ वस्तु की तरह चुप होकर बैठे नहीं रहते। वे धैर्य के साथ समस्त मनुष्यों का कल्याण करने में लगे रहते हैं। वे समस्त मनुष्यों को विकसित करने में अपने को नियोजित कर देते हैं, तथा स्वयं के द्वारा अर्जित सत्ता-ज्ञान को सबों के भीतर संचारित कर देते हैं। यही है सच्चे ब्राह्मण का आदर्श तथा यही है सर्वोत्कृष्ट सामाजिक मनुष्य का रोल-मॉडल या सांचा।
यदि हमलोग केवल आर्थिक विकास के लिये प्रयासरत रहें, तो हमारे समाज के समस्त मनुष्यों को उस सर्वोत्कृष्ट आदर्श में विकसित करना संभव नहीं होगा। एक स्तर पर आमजनता को सांसारिक दुःख है, इसीलिये हम यदि केवल उनके सुख, सम्पत्ति, भोग, इन्द्रिय आदि के तुष्टिकरण में सहायता करते रहें, तो उनके भीतर की सत्ता क्रमशः विनष्ट हो जाएगी तथा हमलोगों के महान आदर्श की बली चढ़ जाएगी। इसीलिये प्रारंभ से ही लोक-विद्या के साथ साथ आध्यात्मिकता का सन्देश, अग्निम्न्त्र, देशव्यापी विकास एवं उद्धार के लिये प्रचार करना भी जरुरी है।
वेद-उपनिषद के जिन तात्विक सिद्धान्तों और विचारों में उस मुक्ति की प्रेरणा छुपी है, उसे समाज में सबसे अछूत माने जाने वाले मनुष्यों को भी सुनाना पड़ेगा। सभी मनुष्यों को उस अग्निम्न्त्र की परिधि के भीतर प्रविष्ट करा देना होगा, ताकि उनकी विचारधारा एवं क्रियाकालाप उसके द्वारा प्रभावित हो सके। यदि यह करना संभव हो सका तो,  जीवन के एक नये मार्ग का द्वार उद्घाटित हो जायेगा। वही मार्ग जो सभी मनुष्यों में कर्म-क्षेत्र में संग्राम करने के लिये एक उत्साह और उमंग भर देगा। कर्म के द्वारा ही जीवन-मुक्त हुआ जा सकता है। सभी प्रकार के कर्म करने से आत्म-ग्लानि-मुक्त हुआ जा सकता है। हमलोगों में जो कापुरुषता, दुर्बलता, निष्क्रियता का भाव घर कर चूका है, वह सब दूर हो जायेगा। क्योंकि उस समय हमलोग जो कुछ भी करेंगे, उन समस्त कार्यों की प्रेरणा होगी केवल दूसरों का कल्याण। दूसरों के कल्याण के लिये कर्म करते हुए ही मनुष्य परस्पर में अन्तरंग हो सकते हैं। स्वामीजी इसी प्रकार देश को विकसित करना चाहते थे।
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