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Tuesday, January 15, 2013

" युवा जीवन का आदर्श " ( যুব জীবনের আদর্শ) [62-15 A-अध्याय -3.स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ] $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना "

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युवा जीवन का आदर्श

    यह कहने की आवश्यकता नहीं कि देश का भविष्य युवाओं पर निर्भर करता है। किन्तु,  युवाओं के ऊपर ऐसा भरोसा इस बात निर्भर करता है कि युवालोग इस बहुमूल्य मानव-जीवन को किस दृष्टि से देखना सीख रहे हैं, अपना तथा सम्पूर्ण देश का भविष्य गढ़ने के प्रति वे कितने विचारशील (सजग) हैं, अपनी  पसन्द के अनुसार अपने भविष्य का निर्माण करने के प्रति कितना दृढ़ निश्चयी हैं? अध्यवसाय (diligence-यत्न की धुन, परिश्रम की पराकाष्ठा) के द्वारा अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रति उनमें कितनी निष्ठा है? उनके भीतर एक ओर जहाँ यौवन की स्वाभाविक चंचलता, अपरिपक्व नजरिया और मानवीय दुर्बलतायें हैं, वहीँ दूसरी ओर उनके ऊपर परिवेश का हानिकारक प्रभाव भी पड़ता है। 
      अभी 'शिक्षा'- कहलाने के योग्य ऐसी कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं है, जो उन्हें 'जीवन का सच्चा अर्थ' (True meaning of life) समझाने में सहायक हो सके, तथा 'मनुष्यत्व' (अन्तर्निहित दिव्यता)  को उद्घाटित करने के लिये जो परम  आवश्यक विचार (निःस्वार्थपरता आदि गुण) हैं उन गुणों को विकसित करने में सहायक हो सके। सस्ते साहित्य, सिनेमा, संगीत, मोबाईल-इंटरनेट आदि मनोरंजन के जितने भी साधन प्रचलित हैं, वे युवाओं को भावनात्मक पोषण (Emotional nourishment) प्रदान करने की अपेक्षा क्षति ही अधिक पहुंचा रहे हैं। वर्तमान राजनीति, अर्थात राजनीतिक दल युवाओं के जीवन का विकास और उनके यथोचित कल्याण के उपर ध्यान न देकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जिस प्रकार इनका उपयोग करती हैं, वे कई कारणों से अक्सर उनके पतन का कारण बन जाता है। एक ओर अपने मन की स्वाभाविक कमजोरी तो दूसरी ओर बाह्य-परिवेश का हानिकारक प्रभाव-इन दोनों पाटों फँसे युवाओं के लिए ,रीढ़ की हड्डी को सीधे रखकर अपने पैरों पर खड़े होना, तथा जीवन -गठन के पथ पर अग्रसर हो पाना कठिन हो जाता है।
    इस कठिन परिस्थिति से बाहर निकलने का मार्ग क्या है ? मार्ग खोजने के लिए, पहले एक उपयुक्त आदर्श की तलाश करनी होगी। युवा लोग यदि अपने जीवन में किसी सच्चे आदर्श को केवल ग्रहण कर लें, तो उसका अनुसरण करते हुए मानव-जीवन के प्रति बेहतर समझ विकसित कर सकेंगे, अपने जीवन के उद्देश्य का निर्धारण कर सकेंगे, तथा उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर होने के पथ का चयन का करके, उसी पथ पर अविचलित रूप से निरंतर अग्रसर हो सकेंगे। मानव मन में पूर्णत्व प्राप्ति (perfection) की जो उच्चतम अवधारणा हो सकती है, उसके जीवन्त प्रतिबिम्ब को आदर्श कहा जाता है। पूर्णता के एक ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व को आदर्श (Role Model) कहेंगे, जिसको अपने सामने एक उदाहरण के स्वरुप रखकर उसका अनुकरण सचमुच किया जा सकता हो। 
     अपने अतीत के जीवन पर नजर डालने से - बीते दिनों को ध्यान से देखने पर यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि - बचपन से लेकर अभी तक हमने जो कुछ भी सीखा है, लगभग सबकुछ अनुकरण के माध्यम से ही सीखा है हमलोगों ने बातचीत करने का सलीका, चलना-फिरना, मातृभाषा आदि जो कुछ को सीखा है, वह सब अनुकरण के माध्यम से ही सीखा है। अपने जीवन में हमलोगों का आचरण, हमारी शालीनता, यहाँ तक कि हमारा जो एक विशिष्ट प्रकार स्वभाव (Nature) बन गया है, वह भी मूलतः किसी आदर्श का अनुकरण करने के माध्यम से ही गठित हो गया है। अतएव हमारे सामने ऐसा कोई आदर्श (उदाहरण) अवश्य रहना चाहिए, जिसे देखकर हमलोग  निश्चित रूप से अच्छा स्वभाव अर्जित कर सकें, सुरुचिपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी, शिष्टाचार और समग्र रूप से चरित्र के जितने भी बेहतर गुण हैं उन्हें सीख सकें। युवाओं के सामने ऐसा एक अनुकरणीय आदर्श अवश्य होना चाहिये। इसका पहला लाभ तो यह होगा कि, इससे हमें 'मनुष्य जीवन' के प्रति बेहतर समझ विकसित करने में मदद मिलेगी। द्वितीयतः उसमें ऐसे कुछ ऐसे उच्च भाव (पवित्र विचार) भी रहने चाहिये जिसका हमलोग अनुसरण कर सकें। और तीसरी बात उस आदर्श में यह होनी चाहिये कि वे हमारी जीवन-नौका के कर्णधार बनकर, धैर्य पूर्वक पतवार चलाकर, मार्ग में आने वाले खतरों बचकर निकल जाने में  सहायक हो सकें।
      खतरे कई दिशाओं से आ सकते हैं। हो सकता है कि, मन के भीतर ही दो परस्पर-विरोधी आदर्शों में टकराव होने लगे, जिसके कारण हमारे आत्मविश्वास, निष्ठा, अध्यवसाय में कमी आने लगे और इन्द्रिय-सुख भोग की स्वार्थ केन्द्रित प्रवृत्तियाँ फिर से अपना सिर उठाने की चेष्टा करने लगे।[स्वामी जी ने कहा था -जिसका कोई निर्दिष्ट आदर्श है, वह यदि एक हजार भूलें करे तो यह निश्चित है कि जिसका कोई भी आदर्श नहीं वह दस हजार भूलें करेगा अतएव एक आदर्श रखना अच्छा है। "] अतएव हमारे जीवन का उद्देश्य (मनीषा या मर्त्य में से अमृत को पाना) बिलकुल मध्याह्न के सूर्य के जैसा प्रखर और देदीप्यमान होना चाहिये, और उसे प्राप्त करने की पद्धति (चार योग) को या किसी एक को सावधानीपूर्वक और व्यापक रूप से निर्धारित कर लेना चाहिए। तथा जिस आदर्श को एकबार जीवन का ध्रुवतारा (नेता, गुरु या बड़ा भैया) मानकर ग्रहण कर लिया हो, उन्हीं को आजीवन पकड़े रहना चाहिये।
    आदर्श एक ही होना उचित है, एकाधिक नहीं। क्योंकि कई आदर्शों का अनुसरण करने से कोई भी आदर्श प्राप्त नहीं हो सकेगा। अतएव किसी एक आदर्श को ग्रहण करना, तथा उसी एक मात्र आदर्श के लिये अपने सम्पूर्ण जीवन को न्योछावर कर देना उचित है। और यही जीवन में सफल होने का रहस्य है। किसी ने थोड़ा थोड़ा करके बहुत से आदर्शों को लिया, किन्तु किसी एक भी आदर्श पर अपना मन-प्राण न्योछावर नहीं कर सका - तो इस प्रकार करने वाला कोई व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।  इस बात को भूल जाने से सम्पूर्ण जीवन में कोई आदर्श मूर्तमान नहीं हो सकेगा। और कई बार विफल होकर सच्चे आदर्श का अविष्कार कर भी लें,  तो तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। इसीलिए प्रारम्भ में ही दूसरों से पूछकर युवा आदर्श को  जान लेना अच्छा है, ताकि जीवन असफलता का अनुभव करके सच्चे आदर्श को पहचानने की हताशा जनक परिस्थिति से बचा जा सके। 
    आदर्श ऐसा होगा जो हमें चिन्तन-मनन करना सीखा सके। जो जीवन मिला है, उसका सदुपयोग कैसे कर सकता हूँ, इस जीवन का अर्थ क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या होना उचित है ? इन सभी गंभीर प्रश्नों का उत्तर खोजने में मेरा आदर्श मुझे रास्ता दिखलायेगा। जीवन को जिस प्रकार समझा हूँ, उस जीवन को सार्थक करने के लिये आदर्श मुझे प्रयत्नशील बना देगा, प्रेरणा प्रदान करेगा, उद्देश्य को पाने (या परिवर्तनशील देह-मन से अपरिवर्तनीयआत्मा को पाने) के मार्ग में यदि कोई खतरा या जोखिम आयेगा, तो उस खतरे से बाहर निकालने के लिए मेरा जीवंत आदर्श किसी सच्चे मित्र की तरह अपना हाथ बढ़ा देगा। इसलिए हमारा आदर्श एकदम स्पष्ट होगा, ध्रुवतारा के जैसा अपरिवर्तनीय, और अग्नि के समान सदा प्रकाशमान (radiant-जिसके चेहरे से नजर न हटे।) होना चाहिए
     जो आदर्श पुस्तक में लिखा हो, या जिस आदर्श का स्वयं अनुसरण नहीं करें और दूसरों को उनका अनुसरण करने पर भाषण दिया जाये, तो वह भाषण अस्थायी रूप से हमारे मन में कुछ हलचल तो पैदा कर सकता है, किन्तु वह हमें अविचल भाव से आजीवन प्रयत्न करने की प्रेरणा नहीं दे सकता। वास्तविक जीवन जैसा है, उससे बिल्कुल अलग कोई सूक्ष्म तत्व या उपदेश देने की चेष्टा करें तो उसमें वैसी शक्ति नहीं होगी। जिस शिक्षक /नेता के जीवन में आदर्श सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त होता है, उसके जीवन के माध्यम से ही हमलोग आदर्श को सबसे अच्छी तरह प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि हमलोगों का उद्देश्य तो आदर्श के विषय में कुछ शब्दों को रट लेना नहीं है, बल्कि अपने जीवन में उस आदर्श को व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाना है। इस प्रकार का अनुकरणीय जीवन हमलोग अक्सर देख नहीं पाते हैं- तथा वह संभव भी नहीं है। किन्तु कुछ जीवन ऐसे भी हुए हैं, जिस जीवन में आदर्श पूर्णतया अभिव्यक्त हुआ है, और जिनका नश्वर शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी,  हमलोगों के सामने उनका जीवन जीवन्त होकर विराजता है। ऐसा जीवन अग्नि के समान ज्योतिर्मय होता है, जो किसी राष्ट्र को पीढ़ी दर पीढ़ी अनुप्रेरित कर सकता है। ऐसा जीवन कभी बदलता नहीं है।
     स्वामी विवेकानन्द के रूप में, ऐसा ही आदर्श हमलोग प्राप्त कर सकते हैं। आज हमलोग जिस किसी को महान व्यक्ति के रूप में जानते हैं, कल वे बदल भी सकते हैं, और किसी अन्य आदर्श का प्रचार कर सकते हैं। या यह भी हो सकता है कि आज जिनको बहुत महान व्यक्ति समझ रहा हूँ, कल उन्हीं के जीवन में कोई प्रतिकूल या घटिया विचार भी प्रतिबिम्बित होता दिखाई दे।  किन्तु विवेकानन्द तो हर युग के पिछड़े, दबे-कुचले मनुष्यों से सहानुभूति रखने वाले, दिन-दलितों के हमदर्द महावीर हैं, जिनके कंठ से बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानव-जाति को जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होने का विराट आह्वान ध्वनित हुआ था। जिनके अपने  जीवन में सर्वोच्च आदर्श जीवन्त हो उठा था,'बहुजनहिताय'  जिनका निर्भीक सन्देश आज भी  मनुष्य-मात्र को उसके उच्चतम जीवन-आदर्श को प्राप्त करने के लिये अनुप्रेरित करता है। सुदूर अतीत के विस्मृत किंवदन्तीयों में वर्णित लोककथाओं में से उनको खोज कर बाहर नहीं निकलना पड़ता। विवेकानन्द तो यज्ञ में आहुति दी जाने वाली जीवन्त ' होम-शिखा सम ' हैं, 'कोटि-भानुकर-दीप्त-सिंह' हैं। उनके जीवन्त विचार (lively thought) उनके ह्रदय से निकल कर किसी विद्युत् -प्रवाह के जैसा हमलोगों की अस्थि-मज्जा में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण सत्ता में सिहरण का अनुभव करवाते हैं। 
नके संदेशों को सुनने के लिये भूतकाल की लोककथाओं में जाने की आवश्यकता नहीं होती, उनकी उनकी शक्ति और प्रेरणा अभी और इसी समय हमलोगों के भीतर नये जीवन का संचार कर सकती है। पौरुष (manhood) के संदेशवाहक विवेकानन्द, मनुष्यों की दुर्बलता, हताशा और अवसाद के उपर बज्र बनकर टूट पड़ते हैं। उनके बादलों के गर्जना के सदृश्य ओजस्वी संदेशों में -सम्पूर्ण मानवजाति के लिये  'आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास तथा त्याग और सेवा' - के आदर्श गुंजायमान हो उठते हैं। विवेकानन्द ने मनुष्य के भीतर ही ईश्वर का दर्शन किया था। (वे कहते थे, " मैं उस ईश्वर का दास हूँ, जिसे लोग अज्ञान के कारण मनुष्य कहते हैं ! ") पूर्णत्व प्राप्त किसी उत्कृष्ट आदर्श में जो भी सद्गुण रहने चाहिये वे सभी गुण उनमें दिखाई पड़ते हैं। और वे कभी बदले नहीं थे, और कभी बदलेंगे भी नहीं। (चिर-युवा स्वामी विवेकानन्द ने मात्र 39 वर्ष की आयु में ही अपने शरीर को त्याग दिया था।) इसीलिए वे हमारे सच्चे आदर्श हो सकते हैं।
       विवेकानन्द जितना हिन्दुओं के हैं, उतने ही मुसलमानों के भी हैं, उतना ही वे विश्व के अन्य देशों के भी हैं।  वे जितना पुरुषों के लिये हैं, उतना ही नारियों के लिये भी हैं। धनी-निर्धन, शिक्षित-अशिक्षित, भारतीय और अभारतीय -सबों के लिए हैं। वे जिस प्रकार वर्तमान युग के लिए प्रासंगिक हैं, उतने ही प्रासांगिक वे भविष्य के युग में रहने वाले हैं। (जिस प्रकार वे वर्तमान  
पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं, उसी प्रकार भावी पीढ़ियों को भी उनके मार्गदर्शन की आवश्यकता बनी रहेगी।) वर्तमान या भविष्य में जो कोई व्यक्ति पूर्णत्व-प्राप्त मनुष्य बनने के लिए आग्रही होगा, उन सबों के पथप्रदर्शक हैं, स्वामी विवेकानन्द। 
      वे चाहते थे कि हमलोग अपने दरिद्र और अशिक्षित देशवासियों को ही अपना आराध्य देवता मानें। वे कहते थे, ' मैं उसी को महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिये रोता है।' खाली-पेट सो जाने वाले मनुष्यों को धर्म का उपदेश देना उनकी दृष्टि में पाप था। वे अपने को दार्शनिक या धार्मिक व्यक्ति कहलाना पसन्द नहीं करते थे। वे कहते थे मैं गरीब हूँ, और गरीबों से प्यार करता हूँ। वे कहते थे, मैं जितना भारत का हूँ, उतना ही विश्व का भी हूँ। इसके बावजूद अपने देश के गरीबों की दुर्दशा की बात याद करके अश्रु बहते हुए, बिना नींद के कितनी ही रातें बिता दिए थे। भारतमाता की करोड़ो संताने, जो देवताओं तथा ऋषियों के वंशधर हैं, किन्तु आज लगभग पशुओं की श्रेणी में गिर चुके हैं, यह देखकर उनका हृदय दुःख से व्यथित हो जाता था। वे मानवजीवन की अपूर्णता-अधूरापन और हारे-थके मनुष्य की गरिमा के पतन को सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने राष्ट्र के युवाओं से आह्वान किया था, " आओ भाइयों, हममें से प्रत्येक युवा भारत के करोड़ो-करोड़ पददलित मनुष्यों के लिये दिनरात प्रार्थना करें, जो लोग दरिद्रता, पुरोहिताई (Priesthood) और यातना के पिंजड़े में बन्द हैं उनके लिए दिनरात प्रार्थना करें- " हे गौरीनाथ, हे जगदम्बे, मुझे मनुष्यत्व दो ! माँ , मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो। मुझे मनुष्य बना दो!"
      हे वर्तमान भारत के युवा समूह ! हमलोग तुम्हारे सामने विवेकानन्द को युवा-आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते है। अपने अपने हृदय में स्वयं अपनी तथा अपने भाई-बहनों की अपूर्णता को ईमानदारी से अनुभव करके देखो। जड़ता, आलस्य एवं आत्मसन्तुष्टि के विचारों को झटक कर फेंक दो। उठो, वीर्यवान बनो। मर्त्य की सहायता से से अमरत्व को आविष्कृत करने का दृढ़-
संकल्प लेकर कार्य में कूद पड़ो। बाह्य और अन्तः दोनों प्रकृति के विरुद्ध संग्राम के पथ पर अग्रसर हो जाओ। स्वयं (पूर्णत्व -प्राप्त) 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी (पूर्णत्व -प्राप्त)  'मनुष्य' बनने में सहायता करो। विवेकानन्द ने यही व्रत तुमलोगों के ऊपर अर्पित किया है।
     यदि तुमलोग उनको अपने आदर्श के रूप में ग्रहण कर लो, तो वे तुमलोगों की अनुभव-शक्ति (Heart), बुद्धि शक्ति (Head)और कर्म-शक्ति (Hand) को जाग्रत कर देंगे। इसप्रकार 3H की शक्ति को विकसित कर तुमलोग करोड़ो -कड़ोड़ स्वदेशी स्त्री-पुरुषों के कल्याण के कार्य को करने में सक्षम हो जाओगे। और परिवेश का जो प्रभाव तुम्हारे जीवन को अवनत बनाये रखने (भेंड बनाय रखने) में प्रयत्नशील है, उस प्रभाव को अस्वीकार करके तुमलोग अपने जीवन की संभावनाओं (अपने सिंहत्व) को प्रस्फुटित करने में समर्थ हो जाओगे। वे तुम्हें एक सुस्पष्ट जीवनबोध (मनुष्य जीवन का उद्देश्य) देंगे, और तदनुसार जीवन-गठन की पद्धति भी देंगे। कोई खतरा या संकट आने पर वे एक सच्चे मित्र की तरह पास में आकर खड़े हो जायेंगे। जीवन-गठन करते समय बाहर से और भीतर से कई बाधा-विघ्न आयेंगे। संशय, गन्दे-अपवित्र विचार, इन्द्रिय-विषयों में सुख पाने की प्रवृत्ति नहीं छोड़ पाने की दुर्बलता- हताशा- अवसाद, नाम, यश, धन-लोलुपता, इनके अतिरिक्त बाहर से आने वाले अन्य कई प्रकार के कठिनतर प्रलोभन तुमको डूबा देने, तुम्हारी विवेक-शिखा को बुझा देने का प्रयास करेंगे। किन्तु तुमलोग  यदि स्वामी विवेकानन्द को अपना मित्र- शिक्षक-सलाहकार जैसा बना लो, तो कोई भी शत्रु तुम्हारे सामने अपराजेय बनकर खड़ा नहीं रह सकता। तुम अविचल रहकर सामने के मार्ग को बिल्कुल स्पष्ट रूप से देख सकोगे तथा क्रमशः हम अपने उदेश्य को अवश्य प्राप्त कर लोगे।
      वर्तमान समय में उनसे उत्कृष्ट आदर्श और कोई नहीं है। विशेष रूप से जो युवक देश से प्यार करते हैं, जो नया भारत गढ़ने का हौसला रखते हैं, और इसके लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देना चाहते हैं, जो जंग लगकर मरने के बजाय घिस कर मरना या वीर की तरह लड़ते हुए मर जाना अधिक पसन्द करते हैं, जो मनुष्य जीवन का अर्थ जानना चाहते हैं, जो पशुओं के जैसा बोझा ढोते रहने वाले जीवन से घृणा करते है, जो युवा अनियंत्रित अविनीत, मुंहजोर और धृष्ट होकर बाहरी गंदे परिवेश का गुलाम बने रहने को जिन्दा रहने का लक्षण नहीं मानते, वैसे युवाओं के लिए यह स्वामी विवेकानन्द रूपी युवा-आदर्श अतुलनीय और अद्वितीय है। 
    इसलिए भाइयों- उठो, जागो! इस आदर्श को जीवन में ग्रहण करो, और अपने लक्ष्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो। निर्भीक बनो। सारी धुंध मिट जाएगी। जीवन सूर्य की उज्ज्वल रौशनी से जगमगा उठेगा।
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['तमसो मा ज्योतिर्गमय' हे सूर्य! हमें भी अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, जब सूर्य की गति उत्तर की ओर होती है, तो बहुत से पर्व प्रारम्भ होने लगते हैं। 
 यही विशेष कारण है, जो सूर्य की उत्तरायण गति को पवित्र बनाते हैं और मकर संक्रान्ति का दिन सबसे पवित्र दिन बन जाता है।क्रांति का अर्थ है परिवर्तन। पर जब यही परिवर्तन किसी सार्थक दिशा में हो, तो उसे संक्रांति कहा जाता है। 
इन्हीं दिनों में ऐसा प्रतीत होता है कि वातावरण व पर्यावरण स्वयं ही अच्छे होने लगे हैं।
 कहा जाता है कि इस समय जन्मे शिशु प्रगतिशील विचारों के, सुसंस्कृत, विनम्र स्वभाव के तथा अच्छे विचारों से पूर्ण होते हैं। स्वामी विवेकानन्द का जन्म भी 12 जनवरी 1863 ई., सोमवार, मकर-संक्रांति के दिन प्रात:काल सूर्योदय के किंचित् काल बाद 6 बजकर 49 मिनट पर हुआ था।स्वामीजी का जन्म एक ऐसे समय हुआ जब ऊर्जा का संचार करने वाले महान व्यक्ति की देश में आवश्यकता थी।   
 आज युवा दिवश है, 12 जनवरी 2013 को हम उनकी 150 वीं जयंती मना रहे हैं, आज का युवा 'दुर्बलता, हताशा और अवसाद ' से ग्रस्त हो चूका है। कौन ऐसा आदर्श है जो उनको इस अवसाद के गर्त से उबार सकता है ? यहाँ सभा में वे बच्चे बैठे हैं, जिन्हों ने रैली में भारत में जन्मे सर्वोत्कृष्ट आदर्श नर-नारियों के रूप में झांकी निकाली थी। यहाँ 'गांधीजी, रोबिन्द्र्नाथ, बाला साहेब अम्बेडकर ' और श्रीरामकृष्ण, अमर  सिंह राठौर, भगत सिंह,  नेताजी,और विवेकानन्द,उपस्थित हैं तो दूसरी ओर 'भारत-माता ', कस्तूरबा, झाँसी की रानी, और श्रीश्री माँ सारदा भी उपस्थित हैं। युवादिवस के मौके पर अब - कोई राष्ट्रिय ' युवा- आदर्श ' चुन लेने का समय आ गया है।]

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