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Friday, January 4, 2013

"समाज सेवा में प्राप्तकर्ता कौन ?" (সমাজ সেবায় গ্রহীতা কে ?) (दान करना भी सेवा या पूजा है ) $$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [58] (9.समाज और सेवा),

"समाज सेवा में प्राप्तकर्ता कौन ?" 

परार्थ कर्म को निवृत्ति कहते हैं
स्वामीजी ने कहा है, संसार में हमेशा दाता का आसन ग्रहण करो। आज जो लोग समाज-सेवा के कार्य से जुड़े हुए हैं, उनको पहले यह समझना होगा कि वास्तव में सहायता को प्राप्त करने वाले 'recipient' या प्राप्तकर्ता वास्तव में कौन है ?  किन्तु वास्तविक परिक्षण करने से यह ज्ञात होगा कि जो लोग सहायता प्राप्त कर रहे हैं, वे वास्तविक प्राप्तकर्ता नहीं हैं, वे सहायता करने वाले हैं। वास्तव में वे ही दाता हैं। और जो लोग दे रहे हैं, वे ही यथार्थ प्राप्तकर्ता हैं, वे सहायता करने वाले नहीं हैं। उस सेवा से जो वास्तविक लाभ मिलता है, उसका अधिकांश भाग वे लोग ही प्राप्त करते हैं, जो लोग दे रहे हैं। हमलोग यदि मनुष्यों की सहायता कर पा रहे हैं, तो हमलोगों के लिये यह एक विशेष अवसर है। क्योंकि केवल इसी प्रकार हमलोग विकसित (पशु-मानव से मनुष्य में उन्नत) हो सकते हैं।
किन्तु किसी की सहायता करने या कुछ देने से हम कैसे विकसित होते हैं ? तथा दूसरों की सहायता करना हमारे लिये अवसर कैसे बन सकता है ? इसके अतिरिक्त हमलोग विकसित होंगे, इसका तात्पर्य क्या है ? मनुष्यों के प्रति हमारी सहानुभूति जितनी अधिक बढ़ेगी, अर्थात हमलोगों के भीतर एकात्मबोध जितना अधिक बढ़ेगा, हमलोग उतने ही अधिक विकसित होंगे, हमारे हृदय के प्रसारता की परिधि उतनी ही विस्तृत होती जाएगी। एकात्म होने का अर्थ क्या है ? अलग होने का अर्थ क्या है ? हमलोगों ने अपने चारों ओर एक घेरा डाल रखा है, और यह घेरा जितना अधिक टूटता जायेगा, हमलोग एक-दूसरे के साथ उतना अधिक घुल-मिल जायेंगे। हमलोग निरन्तर यह सुनते-कहते आ रहे हैं, कि समाज-सेवा करना आवश्यक है। किन्तु  सच्ची सेवा की मानसिकता लेकर ही समाज-सेवा करना आवश्यक है। वैसा नहीं होने से, यह समाज-सेवा कितनी हानिकारक हो सकती है, इस बात को भी समझ लेना आवश्यक है।
कोई दवा आमतौर से लाभ पहुंचती है, यदि उसका उपयोग सही ढंग से किया जाय, किन्तु गलत डोज लेने का परिणाम कितना अधिक जानलेवा हो सकता है, इसको भी हमने बहुत देखा है। उसी प्रकार समाज-सेवा में जिसकी सेवा की जा रही है, हमलोग केवल उनकी ओर ही देखते हैं। किन्तु सेवा का उद्देश्य या भाव ठीक नहीं रहे, तो उससे हमारी कितनी अधिक हानी हो सकती है, उसकी ओर हम देख नहीं पाते हैं। इसीलिये बहुत सतर्क होकर समाज-सेवा करने की आवश्यकता है। नाम,यश, लोक-प्रसिद्धि, स्वयं को दाता समझने का दम्भ-यह सोचना कि मैं तो (ज्ञानी-गुनी या धनी-मानी व्यक्ति हूँ इसीलिये) दाता हूँ, और वे लोग लेने वाले हैं, वे लोग उपकृत हो रहे हैं, और हम उनपर उपकार कर रहे हैं। इस प्रकार के विचार आ सकते हैं, नहीं बल्कि आ ही जाते हैं। इस विषय में बहुत अधिक सावधान रहना आवश्यक है। स्वामीजी कहते हैं, संन्यासियों में भी नाम-यश पाने की इच्छा आ जाती है। इसीलिये समाज-सेवा के कार्य में कूदने के पहले भले-बुरे का विचार करके ही कूदना अच्छा होता है। केवल समाज-सेवा के क्षेत्र में ही नहीं, समस्त विषयों में इसी प्रकार अच्छे-बुरे का निर्णय लेकर ही कार्य में उतरना चाहिये।
जिन कार्यों को अच्छा समझ कर कार्य में उतर रहा हूँ,वे हानिकारक भी हो सकते हैं। किसी दार्शनिक ने कहा है, जो मूढ़चेता हैं (- अर्थात जिनकी चेतना सोयी रहती है या जो शरीर को ही ' मैं ' समझते हैं ), उनके लिये प्रवृत्ति तो प्रवृत्ति है ही, निवृत्ति भी प्रवृत्ति जैसी हो जाती है। किन्तु जो व्यक्ति धीमान हैं, (जिनकी बुद्धि जाग्रत है, विवेक-सम्पन्न है, जो देहाध्यास के भ्रम से उठ चुके हैं ) उनके लिये तो प्रवृत्ति भी निवृत्ति में रूपान्तरित हो जाती है।
[शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं नशेबाजी, माँसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी जैसे दुर्व्यसन घट नहीं बढ़ रहे हैं । शिक्षा बढ़ रही है पर मूढ़ता जहाँ की तहाँ हैं । पढ़े-लिखे लोग भी दहेज के लिए जिद करें तो समझना चाहिए शिक्षा के नाम पर उन्हें कागज चरना ही सिखाया गया है। धर्म जैसी चरित्र निर्मात्री शक्ति आज केवल कुछ धर्म के ठीकेदारों (व्यवसाइयों) के लिए भोले-भले  लोगों को फँसाने का जाल-जंजाल भर रह गई है । इन परिस्थितियों को मूक दर्शक की तरह देखते नहीं रहा जा सकता, इनके विरुद्ध जूझना ही एकमात्र उपाय है । अर्जुन की तरह हमें इस धर्म-युद्ध के लिए गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा।-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य]
धीमान व्यक्ति को देखने से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वे भी शरीर के साथ घनिष्ट रूप से सम्बद्ध हैं, बड़े कर्मठ हैं, घर-बाहर हर प्रकार के कार्य करते रहते है, किन्तु वास्तविकता यह है कि वे किसी कार्य, व्यक्ति या वस्तु में वे थोड़े भी आसक्त नहीं होते। ऐसा बन जाना ही निवृत्ति है। केवल दृष्टिकोण को परिवर्तित करने का प्रश्न है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में कितने ही कार्य फैले हुए हैं, हम किस कार्य को किस दृष्टिकोण से ग्रहण करेंगे, कर्म करने के उसी मनोभाव के उपर यह निर्भर करेगा कि हमें उस कर्म का कैसा फल प्राप्त होगा। मन ही सब कुछ है-यही हमको कर्मों के बन्धन में डाल देता है, फिर यही हमको बन्धन से मुक्त भी कर देता है। जगत में जितने भी प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं, वे सभी अच्छे कर्म में रूपान्तरित किये जा सकते हैं, यदि उस प्रकार के मन (मनोभाव) को लेकर कर्म किया जाय। जो विवेकी मनुष्य होते हैं, उनके लिये कोई भी कार्य बुरा नहीं हो सकता। विवेक-सम्पन्न व्यक्ति या धीमान मनुष्य को कोई भी कार्य प्रवृत्ति के फन्दे में नहीं जकड़ सकता है,क्योंकि वे कभी किसी कर्म में आसक्त नहीं होते, वे जीवन के हर क्षेत्र में अनासक्त होकर कर्म करने में समर्थ बन जाते  है। 
एक स्थान पर स्वामीजी बहुत सुन्दर ढंग से कहते हैं, कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों में कोई अन्तर नहीं है, दोनों कर्म ही है। निवृत्ति का अर्थ यह नहीं होता कि निवृत्ति-मार्गी व्यक्ति को कर्म से दूर रहना चाहिए। जिस प्रकार प्रवृत्ति एक प्रकार का कर्म है, उसी प्रकार निवृत्ति भी कर्म ही है। दोनों में केवल दृष्टिकोण का अन्तर है। जिस कर्म को केवल निजी-स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से किया जाता है उसे प्रवृत्ति कहते हैं, और जिस कर्म को दूसरों को सुख पहुँचाने के लिये किया जाता है या परार्थ कर्म को निवृत्ति कहते हैं। कोई व्यक्ति यदि अपने स्वार्थ का सम्पूर्ण रूप से त्याग करके कर्म करने में समर्थ हो, तो किसी व्यक्ति को जो फल निवृत्ति से प्राप्त होता है, वही फल उस व्यक्ति को भी प्राप्त होता है। इन बातों को समझ-बूझ कर कर्म करने से ही दाता की भूमिका (अभिनय) ग्रहण करना सौभाग्य-जनक हो सकता है।
 इसीलिये दाता का उत्तरदायित्व ग्रहण करने अवसर प्राप्त होना एक विशेष सौभाग्य मान कर ग्रहण करूँगा। कोई समाज-सेवा का कार्य इसलिये नहीं करूँगा कि संगमरमर की शिला-पट्टी पर मेरा नाम खुद जायेगा। जो लोग इस प्रकार नाम-यश पाने की इच्छा से कर्म करते हैं, वे भी कह सकते हैं कि दाता का आसन ग्रहण करना मेरा विशेष सौभाग्य है। इसीलिये स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं, " मेरे संदेशों को सुनने के बाद उसमें निहित संकेतों को ठीक ठीक समझने की चेष्टा करो, तथा उसी शुद्ध भावना के साथ, उसी के आलोक में स्वयं को कर्म में समर्पित कर दो। " 
हमलोगों को भी इसी प्रकार कर्म करने की चेष्टा करनी चाहिये। ताकि विद्या-दान करने या किसी भी प्रकार की समाज-सेवा का कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हो तो हमलोग भी अपने को विकसित कर सकें।इस विकास को ही आत्मिक विकास या आन्तरिक विकास कहते है। इसके फलस्वरूप मेरी पहले की संकुचित परिधि का विस्तार होने लगता है।दूसरों को दुःख में पड़ा देखने से, उसकी पीड़ा का अनुभव मुझे अपने हृदय में होने लगता है। इसीको आत्मिक विकास या अध्यात्मिक उन्नति कहते हैं। श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के जीवन में इस विशेषता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। गीता 6/32 में बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है- 
    आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
      सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
-अर्थात कोई व्यक्ति यदि अभी दुःख भोग रहा है, तो जो व्यक्ति मन ही मन उस व्यक्ति के साथ अपने को इस प्रकार तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं या जोड़ लेते हैं, कि वह जिस दुःख को भोग रहा है, उसका दुःख उन्हें  बिल्कुल अपना दुःख प्रतीत होने लगता है। उसी प्रकार जब कोई व्यक्ति सुख पा रहा हो, तो उसका सुख देखकर भी उन्हें ऐसा प्रतीत होता है,मानो वे स्वयं ही सुखी हैं। सभी स्थानों के सभी मनुष्यों के सुख या दुःख को जो मनुष्य बिल्कुल अपने ही सुख-दुःख के जैसा देखने में सक्षम है, वही परम योगी है।
[ विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव होना दुर्लभ अवस्था है। दूसरे के पैर में कांटा गड़ गया हो तो योगी अपने अन्तर में उसका क्लेश अनुभव करते हैं। यही विश्व-प्रेम अर्थात अपने अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व का सभी मनुष्यों में दर्शन करना ब्रह्मज्ञान है- 'अहं ब्रह्मास्मि ' व्यावहारिक जीवन में ऐसी अनुभूति ही योगी या सच्चे नेता को विश्व-प्रेमिक या विश्व-भ्रातृत्व में उन्नत कर देती है। उस योगी के ब्रह्म रूपी अहं की सीमा उस समय विश्वमय हो जाती है; संसार के समस्त दुखों का स्पंदन वह योगी अपने हृदय में अनुभव करते है। तथा उनके समस्त दुखों की निवृत्ति के लिये अपने जीवन को न्योछावर कर देते है। ' काशी के मार्ग में जाते हुए वैद्यनाथ धाम में दुर्भिक्ष-पीड़ित सैकड़ों नर-नारियों के कंकाल के समान चेहरे और प्रायः नंगे शरीर को देखकर वे रो पड़े थे।' ' दक्षिणेश्वर के कालीबाड़ी के बाग की नयी दूब के उपर एक व्यक्ति पैदल चला जा रहा था ....' 'कालीबाड़ी के गंगा-किनारे दो माझी झगड़ा कर रहे थे, उनमें जो बलवान था उसने दुर्बल माझी की पीठ पर जोर से थप्पड़ मारा  .....' ]   
'दान ' करना बहुत आसन काम नहीं है। क्योंकि उसमें विपरीत मानसिकता उत्पन्न होने का खतरा छुपा रहता है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के लिये दान करने का अर्थ ' सेवा ' या ' पूजा ' बन जाता है।यदि इस भाव से अन्नदान या ज्ञानदान का अवसर प्राप्त हो तो उसे सौभाग्य कहा जा सकता है। गरीब लोग इसीलिये दुःख भोग रहे हैं, ताकि हमलोगों का उपकार हो सके। हो सकता है मैं इस रहस्य को नहीं जनता हूँ कि हमलोगों की सहायता करने के लिये ही वे दुःख भोग रहे हैं, किन्तु हम उन्हें या उनके दुःख को इसी दृष्टिकोण से देख तो सकते ही हैं। क्योंकि उनके दुःख का भोग किये बिना उनके दुःख को दूर करने की चेष्टा करने का कोई अवसर हमें प्राप्त नहीं हो सकेगा। तथा मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिये हमलोग यदि आगे नहीं बढ़ सके, तो हमलोग भी अपने अन्तर्निहित दिव्यता को उद्घाटित नहीं कर पाएंगे। हम अपने हृदय का अनुसन्धान नहीं कर सकेंगे।
 जो दान देगा, वह घुटने के बल बैठ कर अर्ध्य देगा, और जो लेने वाला है, उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करेगा कि -आपने मेरे दान को ग्रहण करके मुझे धन्य कर दिया है। क्योंकि आपको देने से हम कृतार्थ हो जाते हैं। जो लेने वाला है, वह खड़ा होकर अनुमति देगा और सेवा को ग्रहण करेगा। स्वामीजी कहते है- प्रत्येक मनुष्य के भीतर ईश्वर हैं, भगवान श्रीरामकृष्ण विराजमान हैं, इस सत्य का अनुभव करो और उसको दो। यह अभ्यास बहुत कठिन है। किन्तु प्रयत्न करने से मनुष्य-मात्र में ईश्वर को देखना संभव हो सकता है। फिर दान करते समय विवेक-विचार करके ही देना चाहिये। कोई जैसे ही माँगने आये तो तत्क्षण उसे नहीं देना चाहिये। पहले यह निर्णय कर लेना चाहिये कि वह उपयुक्त पात्र है या नहीं ? किन्तु जब यह तय कर लूँगा कि इनको देना है, तो यही देखूंगा कि इसके भीतर ईश्वर हैं, तथा वे ही इस प्रकार का रूप धर कर मेरे सामने आये हैं, और मैं उनको दे रहा हूँ। इस प्रकार नम्रता के साथ, श्रद्धा के साथ मन ही मन कहूँगा -' तुम इसे ग्रहण करके मुझे धन्य कर दो।' 
इस प्रकार के मनोभाव को रखकर दे सकने से,जिसको दिया जा रहा है, उसका हृदय अन्य तरह का हो जायेगा, जिसकी अभिव्यक्ति चेहरे के भावों में आने को बाध्य है। इसी प्रकार यदि सभी मिलजुल कर कर सकें, तो बहुत लोगों को लाभ होगा। इसीलिये कहा जाता है कि सामान्य बुद्धि से समाज-सेवा करने से बहुत लाभ नहीं होता है। वास्तव में सेवा एक आध्यात्मिक साधना है। स्वामीजी की इस शिक्षा को सदा याद रखना हमारा कर्तव्य है। 
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