आज हमारे देश में चरित्र का जैसा घोर आभाव देखा जा रहा है, वैसा आभाव अन्य किसी वस्तु का नहीं है। हमारे जीवन में न तो किसी आदर्श के प्रति आकर्षण है, न ही चरित्र की उत्प्रेरणा है, जिसके फलस्वरूप हमलोग केवल तृण-भक्षी पशुओं की श्रेणी में उतर आये हैं। इसीलिये आज का यक्ष प्रश्न है- क्या करने से हमलोग एक आदर्श एवं प्रखर चरित्र के अधिकारी बन सकते हैं ? या इन दोनों - 'जीवन-लक्ष्य तथा चरित्र-बल ' के गति को एक ही दिशा में रखने में जो व्यावहारिक कठिनाई हो रही है उसका समाधान क्या है ? ऐसा प्रतीत होता है मानो यहाँ हम इंजीयरिंग के किसी शाखा विशेष के उपर चर्चा कर रहे हों ! हाँ, सचमुच यह एक विशेष प्रकार की इन्जियानिरिंग ही तो है। जिसे आध्यात्मिक इन्जियानिरिंग कहते हैं, यह उसी की एक शाखा है। लक्ष्य एवं चरित्र की गति को एक दिशा में अग्रसर रखने के दो उपाय हैं। यदि संभव हो तो अपने चरित्र के अनुसार किसी आदर्श का चयन कर लिया जाय, या फिर किसी योग्य आदर्श को अपनी इच्छा के अनुसार चयन करके अपने चरित्र को ही इस प्रकार गठित किया जाय जो हमें उस आदर्श के निकट पहुंचा सके।
आम तौर से जिनके पास कोई जीवन-लक्ष्य पहले से ही निर्धारित रहता है, वे अपने चरित्र के अनुरूप ही अपने जीवन लक्ष्य का चयन भी कर लेते हैं। उदाहरण के लिये जिस व्यक्ति का चरित्र उसको सभी प्रकार के संभाव्य शारीरिक सुखों को भोगने की दिशा में धक्का दे रहा हो, तो वह प्रचुर मात्र में 'अर्थ-संचय' करने को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना सकता है। उस अवस्था में ' लक्ष्य एवं चरित्र ' एक ही दिशा में सामंजस्य बनाकर कार्य करते हैं। तथा वह व्यक्ति यदि असाधारण उद्यमशील भी हो, तो वह अपने निर्दिष्ट आदर्श के अनुरूप उसी जीवन में सफलता भी प्राप्त कर सकता है। उसी प्रकार यदि किसी युवा की सुन्दर शारीरिक संरचना हो, सुन्दर चाल-ढाल हो, एवं उसके बोलने की शैली और आवाज आदि बहुत आकर्षक हो, और वह यदि फिल्म-स्टार बनना चाहे तो वह अपने अग्रवर्ती लक्ष्य तथा स्वाभाविक प्रेरणा को एकमुखी दिशा में गतिशील रखने की इंजिनयरिंग का व्यवहार करके सफलता प्राप्त कर सकता है।
किन्तु, दूसरा रास्ता अधिक कठोर तथा दृढ़तम पौरुष की मांग करता है। जो लोग इस मार्ग को चुनते हैं, वे लोग जन्मजात प्रेरणा या सहज प्रवृति के द्वारा अनुप्रेरित होकर अपने जीवन के लक्ष्य को निर्धारित नहीं करना चाहते। बल्कि वे तो समाज की वास्तविक अवस्था तथा मनुष्य जीवन के उद्देश्य के उपर समग्र रूप से विचार-विमर्श करने के बाद , अपने हृदय की गहराई में दुर्लभ मानव-जीवन की एक महिमा का अनुभव करते हैं; एवं उसी के आधार पर अपने जीवन लक्ष्य को निर्धारित कर लेते हैं। जो ऐसे मेधावी तरुण होते हैं, वे किसी विवेकी मनुष्य के योग्य, वैसे किसी महान लक्ष्य को अपने सामने स्थापित करते हैं। क्योंकि अपने चरित्र को सुधारने के लिये जिस साहस की आवश्यकता होती है, वैसा साहस इनमे भरा होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जैसा चरित्र किसी व्यक्ति में होना चाहिये, ठीक वैसा ही चरित्र वे गठित कर लेते हैं। वे अपने ' चरित्र का मोड़ ' घुमा देते हैं; अर्थात अपने चरित्र में आमूल परिवर्तन या यू टर्न ले आते हैं, ताकि दूर-देश में (देश-काल-निमित्त के परे) स्थापित उनके अतिप्रिय आदर्श की दिशा में वे किसी निडर अन्वेषक के समान आगे बढ़ते रहें। इसी का नाम है-पौरुष। ये निर्भीक युवा भूतपूर्व जीवन के प्रलोभनों के फन्दों को काट कर सभी प्रकार के लोभ-लालच को जीत लेते हैं, तथा आन्तरिक और वाह्य प्रकृति के दासत्व से अपने को मुक्त कर लेते हैं। ये लोग बाह्य और आंतरिक परिवेश के दबाव को विदीर्ण करके बाहर निकल आते हैं, तथा अपने जीवन और परिस्थितियों के स्वामी बन जाते हैं।
अपनी ज्ञान चक्षुओं को खुला रखकर, समाज की वास्तविकता पर चिन्तन-मनन करने से हमारे विचार-जगत में एक हलचल मच जाती है। और उसके फलस्वरूप हमलोग यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेते हैं कि हमारा जीवन लक्ष्य क्या है, तथा उसे किस विशिष्ट प्रकार का होना उचित है ? उसके बाद हमलोग केवल उसी प्रकार के कार्य करना चाहेंगे, जो हमें अपने हृदय द्वारा प्रायोजित उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयता करेगा। इसीका नाम -चरित्र-गठन, चारित्रिक-सुधार, या लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा में किये जाने वाले कर्मों (सेवा-कार्यों) के माध्यम से चरित्र के मोड़ को घुमा देना या अपने चरित्र में आमूल परिवर्तन ले आना भी है। इसीलिये कर्मों को नियन्त्रित करके हम अपने चरित्र को पुर्णतः स्पष्ट रूप में प्रस्फुटित कर सकते हैं। और ऐसा सुगठित चरित्र ही व्यक्ति को उसके जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने के दिशा में अग्रसर कराता रहता है। यदि हमारे जीवन का लक्ष्य मानव-समाज में अन्तर्निहित एकात्मता की उपलब्धी करनी हो, तो हमलोग स्वयं को समाज से अलग बिल्कुल नहीं रख सकते। इतना ही नहीं, जिन सेवा-कार्यों के द्वारा हमारे भीतर सम्पूर्ण मानव-समाज के प्रीति सहानुभूति जाग्रत करने में सहायता मिलती हो, उन्ही कार्यों को हमें बार बार करते रहना होगा।
भूखे-नंगे, अशिक्षित, शोषित लोगों के समूह अनेकों प्रकार के दुःख एवं आभाव में अपना जीवन बिता रहे हैं,उनको देखने मात्र से हमलोगों का हृदय संवेदना से भर उठता है। हमारे जो भाई इनकी सेवा में अपने को नियोजित कर देते हैं, वास्तव में वे ही चरित्र-गठन की साधना में लगे हुए हैं। उनका चरित्र धीरे धीरे गठित होकर उन्हें सभी मनुष्यों में एकात्मता का अनुभव करने के वांछित (desired) आदर्श या लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करता है। इस दृष्टिकोण के साथ समाज-सेवा के मूल उद्देश्य के उपर विचार करने से हम पाएंगे कि ' लक्ष्य-अन्वेषक समाज-सेवा ' वास्तव में एक सच्ची आध्यात्मिक साधना ही तो है। दुनिदारी निभाने के लिये की जाने वाली समाज-सेवा की अपेक्षा (महामण्डल के युवा-प्रशिक्षण शिविर के विभिन्न विभागों- विशेष रूप से " किचेन- डिस्ट्रीब्युसन दल और सफाई व्यवस्था दल " का सदस्य बनकर मानव-समाज की एकात्मता की अनुभूति प्रदान करने वाला प्रशिक्षण के दौरान किया जाने वाले) यह सेवा-कार्य कितना अलग प्रकार का है !
किन्तु जो लोग सामान्य रूप से समाज-सेवी क्लबों के माध्यम से सेवा करते हैं, अधिकांश क्षेत्र में उनके सेवा का उद्देश्य इस सेवा से पृथक होता है। किसी महान आदर्श को अपने जीवन में कार्यान्वित करने के लिये जिस प्रकार के चरित्र की आवश्यकता होती है, वैसा चरित्र गढ़ना या उसका अभ्यास करना उनकी समाज-सेवा का उद्देश्य नहीं होता। जबकी दूसरी ओर आध्यात्मिकता के आधार पर की जाने वाली समाज सेवा का उद्देश्य ही अपना चरित्र गठन करना होता है। समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का अन्तिम परिणाम होता है -सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव, या एकत्व-बोध ! ( " I am one with all " - अनुभव ) " सम्पूर्ण मानव जाति एक है " - इस सत्य की अनुभूति करने के लिये, एकात्मता की अनुभूति के आदर्श को जीवन में कार्यान्वित करने के लिये जिस चरित्र-बल की आवश्यकता होती है, उस चरित्रबल को संचित कर लेना, वैसा चरित्र गठित कर लेना ही (महामण्डल प्रशिक्षण शिविर में की जाने वाली) इस " अध्यात्मिक समाजसेवा " का उद्देश्य है।
इस प्रकार (16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली पुलिस के अमानवीय व्यवहार में सुधार लाना चाहते हों, तो ) जीवन में एक सुयोग्य मॉडल (आदर्श) का चयन करने तथा उसके अनुरूप चरित्र गठन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये, हमलोगों को भी प्रकट रूप से दूसरों को लाभ के लिये की जाने वाली निःस्वार्थ समाजसेवा के कार्यों में आत्मनियोग करना ही पड़ेगा। किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी स्मरण रखना होगा कि ये सभी सेवा-कार्य बिल्कुल ही निःस्वार्थ नहीं होंगे। प्रशिक्षण शिविर में विभिन्न विभागों में दी जाने वाली सेवाओं के माध्यम से जो कार्यकर्ता जितने परिमाण में अपना चरित्र गठित कर लेता है, उसी परिमाण में उसको स्वार्थ-सम्बद्ध कहा जा सकता है। किन्तु इस विषय में सतर्क रहना ही इस ' आध्यात्मिक समाज-सेवा ' का कौशल है कि इन कार्यों को करते समय कहीं व्यक्तिगत नाम-यश की आकांक्षा, पद-लोलुपता या अन्य कोई सांसारिक स्वार्थ या अहंकार -तुष्टि या वैसी ही क्षुद्र स्वार्थपर कोई विचार सिर न उठा सके।
इस प्रकार के कौशल के साथ सम्पन्न होने वाले समाजसेवा मूलक कार्यों के द्वारा जो चरित्र विकसित होता है, वही इन कार्यों का अध्यात्मिक लाभ है। इसी रहस्य को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण, ऐसा प्रतीत होता है कि हम कहीं समाजसेवा के चक्कर में जीवन की अध्यात्मिक दिशा दूर हट कर, किसी व्यर्थ के काम में तो लिप्त नहीं हो गये हैं ? जबकि वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। कुशल सामाजिक कार्यकर्ता समाज-सेवा को ' आध्यात्मिक समाजसेवा ' में रूपांतरित करके, वस्तुतः यथोचित मात्रा में आध्यात्मिक-दृष्टि (हर जीव में शिव को दखने की शक्ति ) प्राप्त करने का अभ्यास ही कर रहा होता है। जबकि इसके विपरीत मानसिकता (देने वाले का स्थान ऊँचा सोचना ) के साथ सेवाकार्य करने से चरित्र में सद्गुण के बजाये दुर्गुण आने की सम्भावना बढ़ जाती है। वास्तव में कार्यकर्ता के अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण या अनुभूति के उपर ही सबकुछ निर्भर करता है। सेवा-कार्यों के प्रति निष्ठां ही उसके कर्मफल का नियामक होता है।
सेवा-कार्यों को पूर्ण निष्ठा के साथ करने का परिणाम यह दिख पड़ता है कि उसी कार्य के भीतर फिर से एक विशेष प्रकार की गति सक्रीय हो जाती है। सामाजिक-कल्याण के लिये कोई साधारण सा कार्य करने पर भी,उसके अनिवार्य परिणाम-स्वरूप हमलोगों का जो आध्यात्मिक विकास होता है, वह भले ही कितना भी साधारण सा क्यों न प्रतीत होता हो, उसके ही फलस्वरूप हमलोगों के हृदय में -'सिंह का सा बल उत्पन्न हो जाता है ' और हमलोग पहले की अपेक्षा थोड़ी और अधिक शक्ति,प्रेरणा और इच्छा अर्जित करते हैं। इस अतिरिक्त उर्जा को यदि हमलोग पुनः समाजसेवामूलक कार्यों में नियोजित कर दें, तो वह शक्ति एक स्थायी सामाजिक और नैतिक प्रज्ञा (समझ) की उपलब्धी के रूप में ब्याज-समेत हमलोगों के ही भीतर लौट आती है। इसके फलस्वरूप हमलोग आध्यात्मिक प्रेरणा के उच्चतर स्तर में उठ जाते हैं। यही प्रेरणा, ' भद्र-विनम्र मानवता ' का प्रवाह बन कर पुनः समाज-कल्याण की दिशा में प्रवाहित होने लगती है।
अथवा यूँ भी कह सकते हैं कि दैवी करुणा, सेवा एवं विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति के रूप में वह शक्ति आध्यात्मिकता का उत्तुंग ज्वार बनकर पुनः हमारे भीतर लौट आती है। और यही प्रेम-प्रवाह अनन्त काल तक चलता रहता है। 'समाजसेवा और विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति ' क्रमशः कार्य-कारण रूप से एक दुसरे को विकास के उच्चतर स्तर पर उठाता रहता है। इसी प्रकार 'सेवाव्रती' के आध्यात्मिक जीवन में विकास होता रहता है, तथा जितना समय बीतता जाता है, उसी अनुपात में वह कर्मउद्दीपना से भरपूर हो उठता है। प्रचलित अन्धविश्वास - " आध्यात्मिकता कर्मयोगी के हाथ-पैर को अपंग बना देती है " के विपरीत उस ' सेवाव्रती ' का घोर पराक्रमी जीवन एक दृष्टान्त के रूप में विकसित हो उठता है।
'समाजसेवा और विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति ' के लक्ष्य तक पहुँचने की प्रतिस्पर्धा में मानो प्रतिद्वंद्विता की भंगिमा में गतिशील दो समानान्तर सरल रेखाओं की तरह एक-दूसरे से होड़ लगाती हुई, एक-दुसरे को पीछे छोड़ कर एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहते हों। जिसके फलस्वरूप अधिक हो या कम दोनों एक साथी बढती रहती है, तथा एक की अग्रगति दूसरे के वृद्धि का कारण बन जाती है। कर्म के इस कौशल को समझ लेने के बाद कोई यह नहीं कह सकता कि समाजसेवा आध्यात्मिक विकास के प्रतिकूल है।
किन्तु, कर्म के इस गुप्त रहस्य को हमारी बुद्धि समझ क्यों नहीं पाती है ? इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि समाजसेवा करते समय हमलोग यह सोचने लगते हैं कि सामाजिक कार्यों के माध्यम से मैं दूसरों को कुछ दे रहा हूँ, अर्थात दूसरा कोई व्यक्ति प्राप्त कर रहा है, वह लाभ उठाने वाला है, मैं देने वाला हूँ, मैं दाता हूँ। इस धारणा ने ही हमलोगों की सेवा-परायणता की भावना को अपहृत कर लिया है। जैसे ही यह अहंबोध तथा नाम-यश पाने की दुर्दान्त वासना जाग उठती है, हमारी आध्यात्मिकता भी वहीं दम तोड़ देती है। और समाजसेवा करने में खतरा भी यही है। समाजसेवा करते समय हो सकता है, हमलोग थोड़ा-बहुत शारीरिक श्रमदान करते हैं, या दूसरों से चन्दा मांगकर उसी धन से कुछ सस्ते मूल्य की वस्तुएं खरीद कर दान करते हैं। और उसके बदले में, न्याय-नैतिकता की अनुभूति, विकसित चरित्र-गठन के बहुमूल्य उपादान तथा सम्पूर्ण मानवता के साथ एक अखण्ड एकात्मता की अनुभूति प्राप्त करते हैं। तथा इन सब वस्तुओं को ही आध्यात्मिक जीवन का घटक कहा जाता है। इसीलिये यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक कार्यों में हमलोग जितना देते हैं, उससे कई गुना अधिक लाभ हमें ही प्राप्त होता है, एवं गुणवत्ता की दृष्टि से देखने पर भी हम जो स्वयं प्राप्त करते हैं, उसका मूल्य बहुत अधिक है। इस प्रकार वास्तविक लाभ तो हमलोग ही उठाते हैं, और वैसे सस्ते मूल्य की सामग्रियों को ग्रहण करके वे ही लोग हमारा उपकार करते हैं, वे लोग ही सच्चे हितकारी हैं।
इसके बाद एक दूसरी उलझन भी है, जो व्यर्थ तर्क-कुतर्क करते रहने की आदत के कारण समाज-सेवकों के मन में प्रविष्ट हो जाती है। वे इस बात पर बहस करने लगते हैं कि आध्यात्मिक विकास होने के पहले ही समाज-सेवा के कार्य में जुट जाना क्या उनके लिये उचित है ? 'लोक-सेवकों' को भी लोकगुरु या लोकशिक्षक की भूमिका में को स्थापित करने के जिद से ऐसा भ्रम दिखाई देने लगता है। चूँकि वह सचमुच में अकृत्रिम विनय का अधिकारी होता है, इसीलिये जो सद्गुरु मनुष्य की हृदय-गुहा में संचित अज्ञान के अंधकार को समाप्त करने में समर्थ हैं, उनके साथ स्वयं को एक ही आसन पर बिठा कर देखने के विचार से ही वह काँप उठता है। वह स्वयं बहुत अच्छी तरह से जानता है कि उसका आध्यात्मिक जीवन अभी पूर्णता को प्राप्त नहीं हुआ है, फिर भी भ्रम में पड़ कर सोचने लगता है कि पूर्णता प्राप्त किये बिना उसको समाज-सेवा करने का कोई अधिकार नहीं है।
समाज-सेवा के क्षेत्र में शिक्षक और छात्र की भूमिका को वह इस प्रकार मिला देने से भ्रम में पड़ जाता है, क्योंकि वह इस बात पर गहराई से कभी चिन्तन नहीं करता, वह इस रहस्य को नहीं समझता है कि - कोई समाजसेवक समाज को जितना देता है, अंततोगत्वा उसको उससे बहुत अधिक प्राप्त हो जाता है। हाँ, यह बात और है कि पूर्णता प्राप्त आध्यात्मिक जीवन गठित होने के पहले ही यदि वह आध्यात्मिकता के भाव-विलास का प्रदर्शन करने लग जाये तो उसके वैसे आचरण की निन्दा ही करनी होगी। किन्तु वास्तव में जो कुछ समाजसेवा वह कर रहा है, उसको अनुसन्धान कहा जा सकता है, वह कर्मक्षेत्र में उतर कर छूरे की धार जैसी तीक्ष्ण पथ पर चलते हुए अन्तर्निहित पूर्णता की खोज में अग्रसर हो रहा है।
समाज सेवा का एक दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष और भी है। वह यह है कि व्यावहारिक जगत की परिधि के बाहर, अन्यत्र जिन महान आदर्शों की शिक्षा हमलोग प्राप्त करते हैं, समाज सेवा का कार्य उस शिक्षा को वास्तविकता की कसौटी पर परखने का अवसर प्राप्त करा देता है। सेवा करते समय दिन-दरिद्र मनुष्यों के दुःख-कष्टों को अनुभव करने से, अपने प्राणों में उनकी वेदना को अनुभव करने का आह्वान हमारे कानों में ध्वनित होने लगता है। सचमुच, यदि जीवन भर केवल इसी बात को रटते रहें कि- दिन-दुःखियों के प्रति हमलोगों में सहानुभूति रहनी चाहिये, किन्तु किसी दीन -दुःखी की सेवा करने के लिये कभी पहुंचे ही नहीं, तो उस सहानुभूति का सच्चा अर्थ क्या है, इस रहस्य को हमलोग कभी हृदयंगम ही नहीं कर पाएंगे। इसका रहस्य तभी समझ में आता है, जब वास्तव में वह (सब के साथ एकात्मता की ) अनुभूति जाग्रत हो उठती है।
यदि पूरे जीवन हम इसी बात को दुहराते रहें कि निःस्वार्थ निष्काम कर्म हमारे हृदय और मन को विकसित करता है, किन्तु उस तत्व को कार्य में प्रयोग करके नहीं देखें, या कभी जांच नहीं करें, तो निष्काम कर्म क्यों करना चाहिये, इसका मर्म हमारे लिये कभी बोधगम्य नहीं होगा। सामाजिक कार्य करते समय जब इन आदर्शों की सत्यता को परख कर देखते हैं, केवल तभी यह समझ में आता है कि आदर्श को जीवन में उतारना कितना कठिन है !
श्रीरामकृष्ण इस बात को बहुत बलपूर्वक कहते थे कि " करके देखे बिना शास्त्रों के मर्म को ठीक से नहीं समझा जा सकता है।" वे यह भी कहते थे- " यदि ऐसा सोचोगे कि समुद्र की लहरें पहले बिलकुल शान्त हो जाये, तभी डुबकी लगाऊंगा, तो ध्यान रखना कि वैसा अवसर तुमको कभी प्राप्त नहीं होगा। "
यदि हमलोग भी यह तय कर लें, कि जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेने के बाद, या मन की समस्त चंचलता शांत हो जाने के बाद ही सेवा कार्य में उतरूंगा, तो पूर्णता की प्राप्ति तो कभी होगी ही नहीं, दूसरों के लिये कार्य करने अवसर भी हाथ से निकल जायेगा। क्योंकि पहले ही इस बात को स्पष्ट किया जा चूका है कि चरित्र-गठन के लिये एवं आदर्श को जीवन में उतारने के लिये ही कर्म करने की आवश्यकता होती है।
जो लोग कर्म के इस रहस्य को जानते हैं, वे आध्यात्मिकता की दुहाई देकर कभी कर्म का त्याग नहीं करते।तथा कर्म के भीतर ही जो आध्यात्मिकता अनुस्यूत है, उसका परिचय खोज कर जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनकी दशा, उसी बोझ ढोने वाले गर्दभ के समान होती है, जो चन्दन की लकड़ी के बोझ को ढोते समय उसके बोझ को तो समझता है, किन्तु उसके मूल्य का उसको कुछ पता नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण भी गीता में कहते हैं-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
भावार्थ :
इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए
हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोग का ही
आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥2/49॥
-कर्म के गुप्त रहस्य को समझे बिना कर्म करने से वह कर्म निम्न श्रेणी का या अधम कर्म हो जाता है। इसीलिये भगवान सेवाव्रती को कर्म के साथ बुद्धियोग करने का परामर्श देते हैं। क्योंकि बुद्धि के साथ किया गया कर्म ही अन्तर्निहित सुप्त गोपनीय शक्ति को विकसित करने का श्रेष्ठ उपाय है। दूसरे भी कई उपाय हैं, किन्तु तुलनात्मक रूप से यही सहजतर उपाय है। तथा उन तरुणों के लिये तो यही मार्ग विशेष रूप से उपयोगी है, जिन्हें हर प्रकार के दुःख-कष्ट से पीड़ित समाज के बीच ही रहना पड़ता है। इस प्रकार के आध्यात्मिक समाजसेवा का कार्य करने से ही समाज के दुखों में कुछ कमी हो सकती है, एवं उनके हृदय का विस्तार भी हो सकता है। तथा इस प्रकार के अध्यात्मिक समाजसेवा में दक्ष युवाओं की संख्या बढ़ने से समाज में विराट परिवर्तन होना निश्चित है।
यदि हमारे तरुण मित्र सचमुच समाज में परिवर्तन लाने के इच्छुक हों, तो देह-मन-प्राण लगते हुए इस मनुष्य निर्माणकारी ' आध्यात्मिक समाजसेवा ' के कार्य में कूद पड़ीये, क्योंकि केवल इसी उपाय से चरित्र गठित हो सकता है, और देश की समस्त समस्यायों को दूर किया जा सकता है। कर्मफल का अनुसन्धान करने तथा उसका छिद्रान्वेष्ण करने के बाद का नैराश्य तरुणों को बिल्कुल सोभा नहीं देता है। स्वामी विवेकानन्द को जिन्होंने बिल्कुल नजदीक से देखा और समझा था, वही भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती हैं- " केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से होने वाले सभी कर्म, जीवन संग्राम की समस्त प्रणालियाँ, सर्जन की समस्त धारायें भी, सत्य साक्षात्कार के ही मार्ग हैं। "
जो लोग कर्म के गुप्त रहस्य को नहीं जानते तथा आध्यात्मिक दृष्टि से सेवा कार्य किये बिना ही नैष्कर्म्य की स्थिति में पहुँच जाने का स्वप्न देखते हैं, उन्हीं की ओर संकेत करके ऋषि अष्टावक्र एक चेतावनी प्रद श्लोक में कहते हैं- " मूढ़मती के लोगों के लिये अर्थात जिनकी बुद्धि मोहनिद्रा में सोयी हुई है, जो स्वयं को केवल शरीर समझते हैं, के लिये निवृत्ति भी प्रवृत्ति बन जाती है, तथा धीमान या बुद्दिमानों के लिये कर्म ही निवृत्ति का फल प्रदान करता है। "
उद्यमी तरुणों के जीवन में स्वतः प्राप्त होने वाले कर्म ही वह आसानी से पार करा देने वाली नौका है, जो अज्ञान के मोड़ से बाहर निकाल कर लक्ष्य रूपी घाट तक पहुंचा देती है। सम्पूर्ण विश्व की शांति तथा मानवजाति के प्रगति के लिये जो चारित्रिक शक्ति अपरिहार्य है, उस शक्ति को संग्रहित करने के लिये कौशल के साथ किया जाने वाला कर्म ( या आध्यात्मिक समाजसेवा ) ही सर्वोत्तम उपाय है।
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