मनःसंयोग का प्रशिक्षण ही शिक्षा की आन्तरिक वस्तु है
समग्र मानव-जाती की यथार्थ उन्नति करना ही स्वामी विवेकानन्द के जीवन-कर्म का लक्ष्य था। उनके इस जीवन-कर्म का निर्धारण श्रीरामकृष्ण के आदेश से हुआ था। सच्चाई तो यह है कि स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण द्वारा निर्धारित कार्यों को पूरा करने के लिए ही शरीर धारण किया था। इसीलिये पहले से अगोचर किसी नामालूम महान कार्य को अंजाम तक पहुँचाने के लिए, नरेन्द्रनाथ के सांसारिक जीवन में अप्रत्याशित ढंग से तीव्र परिवर्तन घटित होने लगे थे। यह देखा गया कि नित्यसिद्ध नरेन्द्रनाथ श्रीरामकृष्ण के सानिध्य में आने के बाद ब्रह्मज्ञान के अधिकारी बन गये। जबकि उनको अपने लिये मुक्ति प्राप्त करने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता था। फिरभी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों की यथार्थ मुक्ति के लिये श्रीरामकृष्ण द्वारा दिशानिर्देश प्राप्त होने के बाद ही, वे समस्त सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो सके थे, और अपने कर्म-जीवन का प्रारंभ किया था।
श्री रामकृष्ण के शरीर त्याग देने के बाद परिव्राजक विवेकानन्द के नेत्रों के समक्ष -भारतवर्ष की शरीर और आत्मा का समस्त ज्ञान प्रकट हो गया था। उनको यह अनुभूति प्राप्त हुई कि सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों के कल्याण के लिये सर्वप्रथम भारतवर्ष की उन्नति करना सबसे आवश्यक है। उन्होंने यह भी समझ लिया कि विश्व का कल्याण करने के लिये भारत को हर क्षेत्र में प्रगति करनी होगी, और एक उन्नत राष्ट्र के रूप में उठ खड़े होना होगा।
उन्होंने देखा कि भारत की प्रमुख समस्या दरिद्रता है; और उनको यह भी अनुभूति हुई कि केवल सच्ची शिक्षा ही इस समस्या के समाधान की कुँजी है। उन्होंने घोषणा किया- भारतवर्ष का अर्थ है, भारत के चाण्डाल से लेकर समस्त सामान्य दरिद्र-मूर्ख भारतवासी ! सबसे पहले उनको शिक्षित करना होगा। उनको भूख की समस्या से मुक्त करना होगा, तथा उन्नत अवस्था को स्थायी बनाने के लिये,शिक्षा साथ ही साथ उनको संस्कृति भी देनी होगी।
भारत को उन्नत बनाने के लिये स्वामीजी ने दो प्रमुख आवश्यकताओं की ओर हमारे ध्यान को आकृष्ट किया था- जनसाधारण की उन्नति और नारीजाति की उन्नति। क्योंकि कुछ शिक्षित और दौलतमन्द व्यक्तियों से देश नहीं बनता,बल्कि राष्ट्र तो गाँव की झोपड़ियों में ही बसता है। उसी प्रकार किसी भी राष्ट्र की यथार्थ उन्नति स्त्रीजाति की उन्नति के बिना संभव नहीं हो सकती है। स्वामीजी की इस धारणा की बुनियाद बहुत गहरी है, उन्होंने स्त्रीजाति के प्रति सहानुभूति-सूचक कुछ शब्द इसलिये नहीं कहे थे, कि उनके उदार विचारों के लिये लोगो की प्रशंसा प्राप्त हो सकेगी।
स्वामीजी की कार्य-पद्धति का वैशिष्ट, जो विश्व के अन्य किसी समाज-सुधारक में खोजने से भी प्राप्त नहीं होती, वह है -" मनुष्य के समस्त विकास और उन्नति का प्रावधान उसके अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (सत्ता) को जाग्रत कराने के माध्यम से कराना। " वे कहते हैं- " प्रत्येक मनुष्य में दिव्यता अन्तर्निहित है। कोई स्त्री या परुष चाहे जितना भी नीच से नीच चरित्र वाला भी क्यों न हो, उनका अन्तर्निहित देवत्व कभी विनष्ट नहीं होता है। वह केवल यह नहीं जनता कि इस देवत्व को अभिव्यक्त को अभिव्यक्त कैसे किया जासकता है ? अभी वह केवल अपने सत्य-स्वरूप को उद्घाटित करने की प्रतीक्षा में है।" प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित उस सत्ता को, सुप्त देवत्व (divinity) को
जाग्रत करना होगा, एवं दिव्यता को अभिव्यक्त करने की पद्धति का नाम है- मनः
संयोग या मन की एकाग्रता का अभ्यास करना।
इसीलिये कहते हैं, " पहले स्त्रियों को उपर उठाना होगा, तथा mass-को (जनसाधारण को ) जाग्रत करना होगा, केवल तभी देश का कल्याण हो सकता है।" वे अपना संक्षोभ व्यक्त करते हुए कहते हैं- " सैंकड़ो शताब्दियों के पाशविक अत्याचार के परिणाम स्वरूप उनके शोक,ताप, गरीबी और पाप की जिस करुण ध्वनी से भारत आकाश व्याकुल हो गया है, उसके बाद भी उनके जीवन के बारे में हवाई किले गढने में कमी नहीं हुई। उसी सैंकड़ो युग से मानसिक, नैतिक और शारीरिक अत्याचार को सहते हुए भगवान की प्रतिमास्वरूप स्त्रियों को हमने बच्चा पैदा करने की मशीन बना दिया है, उनके जीवन को विषपूर्ण बना डाला है। यह बात उनको सपने भी याद नहीं आती है। " अपने हृदय में उस पीड़ा का अनुभव करते हुए कहते हैं, " जो देश, जो जाति स्त्रियों की पूजा नहीं करती, वह देश वह जाति कभी बड़ी नहीं बन सकी है, और कभी बन भी नहीं सकती है। तुम्हारी जाति का जो ऐसा अधोपतन हुआ है, उसका मुख्य कारण है, इन शक्तिमुर्तियों की अवमानना करना। जिस घर में स्त्रियों का सम्मान नहीं है, जहाँ स्त्रियाँ खुश नहीं रहतीं, उस परिवार और देश की उन्नति कभी संभव नहीं है। इसीलिए इनलोगों को ही पहले उपर उठाना होगा। " केवल इतना जान लेने से नहीं होगा, कि स्वामीजी ने स्त्रियों के विषय क्या कहा है? मन को एकाग्र करके उनके प्रत्येक शब्द को सुनना होगा, और उसके मर्म को हृदय की धड़कनों में मिलाकर समझना होगा। स्वामीजी कहते हैं, " क्या तुम अपनी स्त्रियों की उन्नति कर सकते हो? तभी उन्नति की आशा है, नहीं तो पशु-जन्म नहीं मिटेगा। "
स्वामीजी ने स्त्रीजाति के प्रति केवल सहानुभूति या श्रद्धा ही प्रकट नहीं किया है, बल्कि उनको उन्नत करने के लिये हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिये, उसका दिशानिर्देश भी दिया है- " स्त्रीजाति की उन्नति के सम्बन्ध में हमारा अधिकार केवल उनको शिक्षा देने तक है। स्त्रियों को ऐसी योग्यता अर्जित करनी होगी कि वे अपनी समस्याओं का निदान स्वयं खोज सके। उनके लिये इससे अधिक कोई कुछ नहीं कर सकता, और उनके मामलों में हस्तक्षेप करने की चेष्टा भी नहीं करनी चाहिये। तथा अन्यान्य देशो की स्त्रियों के समान हमारे देश की स्त्रियाँ भी योग्यता प्राप्त करने में समर्थ हैं। " आगे कहते हैं, " समस्याएं तो अनेक हैं, और वे बड़ी गम्भीर समस्याएं हैं। किन्तु ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसे 'शिक्षा ' - मन्त्र के बल पर हल नहीं किया जा सकता हो। " स्त्रीजाति की सर्वंगीन विकास के लिये स्वामीजी ने स्त्रियों को उपयुक्त शिक्षा देने पर ही जोर दिया है। कहते हैं,
" किन्तु यथार्थ शिक्षा क्या है, इसकी समझ अभी तक हमलोगों को नहीं हुई है। " शिक्षा के सम्बन्ध स्वामीजी का सन्देश है- " शिक्षा का अर्थ कुछ शब्दों को सीख लेना ही नहीं है, हमारी कुछ वृत्तियों -शक्ति समूह के विकास को ही शिक्षा कहा जा सकता है, अथवा कहा जा सकता है कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य को इस प्रकार गठित करना, उसकी इच्छा स्द्विषयों में धावित हो, एवं सफल हो। इसीप्रकार से शिक्षिता होने पर भारत का कल्याण करने में समर्थ निर्भीक महीयसी स्त्रियों का उदय होगा। वे लोग संघमित्रा, लीलावती, अहल्या बाई, और मीराबाई के चरणों का अनुसरण करने में समर्थ होंगी। वे लोग पवित्र, स्वार्थ शून्य, धीर होंगी। भगवान के श्रीचरणों के स्पर्श से जो वीर्य प्राप्त होता है, वे उसी वीर्य को प्राप्त करेंगी, इसीलिए वीर सन्तानों को जन्म देने योग्य माताएं बनेगी। "
व्यवहारिक शिक्षा की शिक्षा धारणा के बिना ही शिक्षा का विस्तार करने विषय में स्वामीजी कहते हैं, " हमलोगों के देश में नारियों को आधुनिका नारियों के सांचे में ढालने चेष्टा चल रही है, उसमें यदि स्त्री-चरित्र के आदर्श से भ्रष्ट करने की चेष्टा की गयी तो वैसी चेष्टा विफल सिद्ध होगी। और प्रतिदिन हम उसका दृष्टान्त देख रहे हैं। भारतीय महिलाओं को सीता के चरण चिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने विकास की चेष्टा करनी होगी। भारतीय नारी की उन्नति का यही एकमात्र पथ है। " इसी प्रसंग में स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं, " स्त्रियों को आधुनिक विज्ञान की शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए, किन्तु प्राचीन आध्यात्मिकता और धर्म को तिलांजली देकर नहीं। जो शिक्षा भविष्य में प्रत्येक स्त्री को एकही साथ भारत के अतीत युग के नारीवर्ग के श्रेष्ठ गुणों या महत्व को विकसित करने में सहायता करने में समर्थ होगी, वही आदर्श शिक्षा होगी। "
स्वामीजी कहते हैं, शिक्षा की धारणा का उदय हमलोगों में अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ है। यह बात शायद आज भी सत्य है। जीवन,धर्म, शिक्षा, सभ्यता, उन्नति, प्रगति -इन शब्दों का व्यवहार आजकल हमलोग निरन्तर करते रहते हैं, किन्तु इन शब्दों का मर्म हमलोग अच्छी तरह समझते हों ऐसी बात नहीं है। हमलोगों के समाज की वर्तमान अवस्था को देखकर ही समझा जा सकता है। स्वामीजी कहते हैं, " मैं सभी क्षेत्र में धर्म को शिक्षा की सार वस्तु के रूप में ग्रहण करता हूँ, किन्तु इतना स्मरण रखियेगा कि मैं अपने या किसी दुसरे के धर्म सम्बन्धी समझ को ही 'धर्म' नहीं कहता हूँ। " इसका क्या कारण है ? इसका कारण है कि भारत में प्राचीन समय से ही नारी जीवन के गठन में धर्म का प्रभाव महत्वपूर्ण रहा है।
जिस मार्ग पर चलने से समस्त अति उत्कृष्ट गुण जीवन में आ जाते हों, उसी का नाम है-धर्म। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, कि धर्म के सम्बन्ध में किसी की समझ क्या है, उसकी बात वे नहीं कर रहे हैं। जो वास्तव में धर्म है, उसकी शिक्षा का मूल उपादान बनाना होगा। धर्म ही जीवन का आधार है, वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को धारण, वृद्धि और रक्षा करता है। धर्म को नष्ट करने से जीवन नष्ट हो जाता है, और धर्म को प्रयोग करने से जीवन पूष्ट होता है। जिस वस्तु में यह गुण है, उसी को धर्म कहते हैं। धर्म का अर्थ किसी का अपना ख़याल/समझ या कुछ विशेष आचार-अनुष्ठान मात्र नहीं है। धर्म वह वस्तु है, जो मन की अनियंत्रित कामना-वासना को,
शरीर में केवल इन्द्रिय-सुख भोग करने की प्रवृत्ति, प्रकृति के प्रलोभन को
जीत लेने का सामर्थ्य प्रदान करता हैं। मनुष्य को उसकी अन्तर्निहित सत्ता को अभिव्यक्त करने में सहायता करता है, स्वार्थपर बुद्धि को सीमित बनाता है, परोपकार की प्रवृत्ति को प्रधानता देने की सदिच्छा प्रदान करती है, जीवन का पूर्ण विकास, पूर्ण उपयोग, और पवित्रता की आकांक्षा प्रदान करती है। जो चेष्टा , जो प्रणाली (मनःसंयोग) इस प्राप्ति को संभव बनाती है, उसीका नाम है धर्म। इसीलिये स्वामीजी धर्म (मनःसंयोग) को " शिक्षा की आन्तरिक वस्तु " समझते हैं। इसीलिये स्वामीजी की धारणा है, " जनसाधारण में तथा नारियों में शिक्षा का विस्तार नहीं होने से कुछ भी भला नहीं होने वाला है। " इससे ही हमलोगों को यह समझ लेना चाहिये कि यथार्थ शिक्षा - जिसका मूल उपादान है वह धर्म जिसकी संक्षेप में विवेचना उपर की गयी है, उस शिक्षा का विस्तार नहीं होने से , " देश का कोई भला नहीं होने वाला है। " विद्यालयों की संख्या में वृद्धि करने से, शिक्षकों की संख्या में वृद्धि करने से, छात्रों की संख्या, पास होने वालों का प्रतिशत, शिक्षा के उपर बजट में कितना धन आवंटित किया गया है, उसके परिमाण मात्र पर यथार्थ शिक्षा का विस्तार नहीं है।
धर्म की जो मुख्य विशिष्टता है- देह और मन का नियंत्रण, उसके बिना कोई भी शिक्षा सार्थक नहीं हो सकती है। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं, " जिस प्रकार लडकों को 30 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करनी होगी, उसी प्रकार लड़कियों को भी विद्या अर्जित करनी होगी। " किन्तु हमलोग क्या कर रहे हैं ?
" हमारे देश की महिलाएं विद्या-बुद्धि अर्जित करें, यह मैं जरुर चाहता हूँ। किन्तु पवित्रता को खोकर यदि उस विद्या को अर्जित करने की बात हो, तो वैसी शिक्षा नहीं दी जानी चाहिये। तुमलोग यह जानते हो, उसके लिये मैं तुमलोगों की प्रशंसा करता हूँ। किन्तु जिस प्रकार तुमलोग बुराई को फूलों से ढँक कर, उसको अच्छा कहते हो, उसे मैं पसन्द नहीं करता हूँ। "
स्वामीजी की विचारधारा में स्त्रीशिक्षा का वैशिष्ट क्या है ? प्रारंभ से ही उनके भीतर उन भावों को प्रविष्ट कराकर उनका चरित्र इस प्रकार से गढ़ना होगा कि -चाहे शिक्षा पूर्ण करने के बाद वे विवाह करें, या कुमारी रहें, सभी अवस्थाओं में सतीत्व की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर करने में उनको थोडा भी दुःख या डर नहीं हो। किसी एक आदर्श की रक्षा के के लिये प्राणों को उत्सर्ग कर देना क्या कम बड़ी वीरता है ? " धर्म, शिल्प विज्ञान, गृह विज्ञान, रसोई बनाना, सिलाई-कढ़ाई, शरीर-विज्ञान, इन सब का स्थूल मर्म ही लड़कियों को सिखाना उचित है। " आगे कहते हैं, " किन्तु केवल पूजा-पद्धति सिखाने से ही नहीं होगा। सभी विषयों के प्रति उनकी नजरें खोल देनी चाहिये। छात्राओं के समक्ष सर्वदा आदर्श नारीचरित्रों को रखकर उच्च त्याग के व्रत में उनके भीतर प्रेम उत्पन्न कराना होगा। सीता, सावित्री, दमयंती, लीलावती, खना, मीरा- इनकी जीवन-चरित्र को लड़कियों को समझाकर उनको अपना जीवन उन्हीं के सांचे में ढाल कर गठित करना होगा।"
जैसी शिक्षा दी जा रही है, उससे कुछ नहीं होगा। स्वामीजी स्पष्ट रूप में कहते हैं, " किन्तु जैसी शिक्षा दी जा रही है, उस प्रकार की नहीं। सकारात्मक शिक्षा देनी होगी। केवल पुस्तक रटने वाली शिक्षा से बात नहीं बनेगी। जिससे चरित्र निर्मित हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, मनुष्य स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे , इस प्रकार की शिक्षा मिलनी चाहिए। " " ऐसी शिक्षा प्राप्त करके महिलायें स्वयं अपनी समस्या का समाधान कर सकेंग। '
राष्ट्रीय उन्नति और नारी उन्नति के विषय में केवल कुछ बातें करना नहीं, जिससे यथार्थ कार्य हो सके, इसके लिये उनकी योजना थी- " इसीलिये मैं चाहता हूँ कि कुछ ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारणी का निर्माण करूँगा। ब्रह्मचारियों को बाद में संन्यास लेकर देश-देशान्तर के गाँव गाँव में घूमकर जनसाधारण के बीच शिक्षा का विस्तार करने की चेष्टा करनी होगी। और ब्रह्मचारणीयाँ नारियों के बीच शिक्षा का विस्तार करेंगी। तभी तो देश का कल्याण होगा, भारत का कल्याण होगा। "
पहले उद्देश्य के लिये उन्होंने इसीबीच गंगा के पश्चमी किनारे पर नारियों क एक मठ स्थापित किया था। सीता, सावित्री, दमयन्ती, गार्गी के आदर्श के उदाहरण को बहुत प्रशंसा पूर्वक करने के बाद भी, वे जानते थे कि वर्तमान युग की भारतीय नारियों को श्री श्री माँ सारदा देवी को आदर्श स्वीकार करके ही, अपनी उन्नति करनी होगी। इसीलिये उन्होंने कहा था, " माँ को केन्द्र में रखकर गंगा के पूर्वी किनारे पर स्त्रियों के लिये एक मठ को स्थापित करना होगा। जिस प्रकार यह मठ (बेलूड़ में ) ब्रह्मचारी साधू (सन्त) बनेंगे, गंगा के उसपार भी उसी प्रकार ब्रह्मचारीणी साध्वीयाँ निर्मित होंगी।" भविष्य के भारत के निर्माता युगाचर्य के मुख से निसृत वाणी आज श्री सारदा मठ में साकार हो रही है।
उन्होंने और भी कहा था, " जो लडकियाँ सदा कौमार्य-व्रत ग्रहण करेंगी, वे ही समय आने पर मठ की अध्यापिका और सन्देश-वाहिका बनकर गाँव गाँव, नगर नगर में केन्द्र स्थापित करके, नारियों में शिक्षा का प्रसारण करेंगी। चरित्रवती, धर्म-भावापन्न इस प्रकार की धर्म (मनः संयोग) सिखाने वाली अध्यापिकाओं के द्वारा देश में यथार्थ स्त्री-शिक्षा का संचरण होगा। धर्म-परायणता , त्याग और आत्मसंयम यहाँ पढ़ने वाली छात्राओं का आभूषण होगा; और सेवाधर्म उनके जीवन का व्रत होगा। इस प्रकार का आदर्श जीवन देखकर कौन उनका सम्मान नहीं करेगा ? कौन उनके उपर अविश्वास कर सकेगा ? तुम्हारे देश में सीता, सावित्री, गार्गी का फिर से आविर्भाव होगा। "
स्वामीजी का यह सपना धीरे धीरे साकार हो रहा है। बहुत से स्थानों में इस मठ के केन्द्र स्थापित हो रहे हैं। इनकी सहायता से श्री श्री माँ सारदा देवी को नारी-शक्ति का आदर्श मान कर यथार्थ शिक्षा को अपने अपने जीवन में अर्जित करने और सर्वत्र संचारित करने से समाज में नये प्राणों का संचार होगा। भारत फिर से उठ खड़ा होगा। मनुष्य समाज का यथार्थ कल्याण होगा।
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