मन नदी के प्रवाह की मानो दो मुख्य धारायें हैं। एक धारा 'ब्रह्माभिमुखी' है, जो मनुष्य को भलाई या कल्याण की ओर ले जाती है। और दूसरी धारा बुराई या पाप की ओर ले जाती है। जो धारा कैवल्य या परम कल्याण (Final Liberation -ईश्वर के साथ एकत्व) की ओर ले जाती है उस धारा की तली विवेक के पक्के फर्श से जुड़ी हुई होती है। और जो प्रवाह संसार से आसक्ति, की ओर बंधन की ओर ले जाता है उसकी तली अविवेक से भरी हुई होती है। इसीलिये वैराग्य या आसक्ति-त्यागरूपी बाँध के फाटक से उस अधोमुखी प्रवाह को बन्द कर देना आवश्यक है। एवं सदैव जागृत विवेक-दृष्टि की सहायता से मन के 'ब्रह्माभिमुखी' या कल्याण-मुखी स्रोत को निरन्तर प्रवाहित रखना युक्तिपूर्ण है। ऐसा होने से ही मन की अनिष्टकारी प्रवृत्ति संयत हो जाती है।
पुमांस्तद्धि भवेच्छीघ्रं ज्ञेयं भ्रमरकीटवत्।।
दृढ विश्वास के साथ तीव्र वेग से मनुष्य जिस वस्तु के बारे चिन्तन करने पर अपने मन को एकाग्र कर लेता है, वह शीघ्र ही उस वस्तु में परिणत हो जाता है,जैसे झींगुर भ्रमर में परिणत हो जाता है।भारत में एक किम्वदंती प्रचलित है कि भौंरा किसी विशेष कीड़े (झींगुर) को पकड कर अपने घर में ले आता है, और उसे बंद करके बहुत पिटाई करता है। फिर दरवाजा बंद करके घर के चारो और गुण-गुण करके चक्कर काटता रहता है। घर में बंद झींगुर डर के मारे तीव्रवेग से भौंरे के बारे में सोचता रहता है, और अंत में स्वयं भौंरा बन जाता है। श्रीमद् भागवत में भी कहा है-
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।
>>इच्छा शक्ति मूलतः हमारे अहंकार और शांत विवेक-युक्त मन में उठने वाली इच्छाओं का परिणाम है- ये दोनों मिलकर हमें किसी खास कार्य के लिए प्रेरित करते हैं। अर्थात शांत मन से श्रेय-प्रेय इच्छाओं पर विवेक-विचार करने के बाद उसी काम या इच्छा को पूरा करने के लिए प्रेरित करती है जो हम जानते हैं कि सही है। यह हमारे शांत मन की शक्ति है जो हमें विवेक-प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती है। यही मन अगर हमेशा अशांत , चंचल और अनियंत्रित बना रहे तो हमें वह करने के लिए मजबूर कर सकता है जो हमारे लिए हानिकारक है।
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये, जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण गुण है—”दृढ़ इच्छा शक्ति।” (या विवेक-प्रयोग शक्ति) अन्य गुण, जैसे ईमानदारी, साहस, परिश्रम और लगन आदि, दृढ़ इच्छा-शक्ति के अभाव में व्यर्थ हो जाते हैं।
इच्छा-शक्ति के दो शत्रुओं को तुरंत पहचानना आवश्यक है:-इच्छा शक्ति के दो प्रमुख शत्रु हैं- (क) अतीत के बारे में हमारा पछतावा और (ख) भविष्य के प्रति हमारी चिंताएँ।
इच्छाशक्ति बढ़ाने का सर्वोत्तम उपाय ठाकुर, माँ ,स्वामीजी के शरण में रहना है - अर्थात श्रीरामकृष्ण देव को अपना 'power of attorney' मुख्तारनामा दे देना। और उनके जीवन और उपदेशों का यथासम्भव अनुसरण करते रहना !]
पौराणिक साहित्य में इच्छा को शक्ति या देवी का जो रूप दिया गया है, वैदिक साहित्य में उसकी पुनरावृत्ति उपनिषदों के सिवाय अन्यत्र नहीं होती। सीतोपनिषद में इच्छा शक्ति का विभाजन तीन रूपों – योगशक्ति, भोगशक्ति व वीरशक्ति में किया गया है। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा मोह का क्षय करने वाली है, जबकि इच्छामात्र अविद्या है (कामिनी-कांचन आदि ऐषणाओं में आसक्ति ही अविद्या है) जिसका त्याग करना या अनासक्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त होना है। इच्छा, ज्ञान आदि के संदर्भ में कोशों में न्याय सिद्धान्त से यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है : " आत्मजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या भवेत् क्रिया॥"
[( 27 अक्टूबर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-13 ]
(मन ही सब कुछ है) कर्मयोग, संसार तथा निष्काम कर्म*
ब्राह्मभक्त- " महाराज, बिना सब त्याग किए क्या ईश्वर नहीं मिलते ?"
[Devotee: "Sir, can't we realize God without complete renunciation?"]
श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- नहीं जी, तुम लोगों को सब कुछ क्यों त्याग करना होगा? तुम लोग जैसे हो, बड़े अच्छे हो; क्योंकि तुमलोग मध्यम मार्ग पर चल रहे हो -इधर भी हो और उधर भी, आधा खाँड़ (molasses) और आधा शीरा (गुड़रस)! ('50-50' लोग हँसते हैं) बड़े आनन्द में हो ।नक्स का खेल जानते हो? मैं ज्यादा काटकर जल गया हूँ । तुम लोग बड़े सयाने हो, कोई दस में हो, कोई छः में, कोई पाँच में । मैं ज्यादा नहीं काटा इसलिए मेरी तरह जल नहीं गए । खेल चल रहा है । यह तो अच्छा है । (सब हँसे)
“सच कहता हूँ, तुम लोग गृहस्थी में हो, इसमें कोई दोष नहीं । पर मन ईश्वर की ओर रखना चाहिए । नहीं तो न होगा । एक हाथ से काम करो और एक हाथ से ईश्वर को पकड़े रहो । काम खतम हो जाने पर दोनों हाथों से ईश्वर को पकड़ लेना ।”
“सब कुछ मन पर निर्भर है । मन ही से बद्ध है और मनही से मुक्त । मन पर जो रंग चढ़ाओगे उसी से वह रँग जायगा । जैसे रँगरेज के घर के कपड़े, लाल रंग से रँगो तो लाल; हरे से रँगो तो हरे; सब्ज से रँगो, सब्ज; जिस रंग से रँगो वही रंग चढ़ जायगा ।
देखो न, अगर कुछ अंग्रेजी पढ़ लो तो मुँह में अंग्रेजी शब्द आ जाते हैं-फुट्-फट् इट्-मिट् । (सब हँसे) और पैरों में बूट-जूता, सीटी बजाकर गाना-ये सब आ जाते हैं । और पण्डित संस्कृत पढ़े तो श्लोक आवृत्ति करने लगता है । " मन को यदि कुसंग में रखो तो वैसी ही बातचीत, वैसी ही चिन्ता हो जाएगी । यदि भक्तों के साथ रखो तो ईश्वर चिन्तन, भगवतप्रसंग-ये सब होंगे ।”
“मन (मनोवृत्ति) ही को लेकर सब कुछ है । एक ओर स्त्री है और एक ओर सन्तान । स्त्री को एक मनो-भाव से और सन्तान को दूसरे मनो-भाव से प्यार करता है, किन्तु है एक ही मन ।”
परिच्छेद~ 13, [( 27 अक्टूबर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत]
(६)
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गीता- 18 /66)
मामेकं शरणं ब्रज ('मेरी' ही शरण में आओ) : ठाकुर कहते थे बादशाही अमल का सिक्का अंग्रेजी राज में नहीं चलता; उसी तरह आधुनिक युग में -मामेकं शरणं ब्रज का तात्पर्य है अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द की शरण में आओ ! मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति (सांसारिक ऐषणाओं में आसक्त मनोवृत्ति या प्रवृत्ति) की विरति, या मन को ऐषणाओं से अनासक्त बनाना तब तक संभव नहीं होती है, जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा [अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस देव] के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं। अपने श्रीकृष्ण अवतार में भगवान् ने स्पष्ट घोषणा किया था --अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा," तुम मेरी शरण में आओ " , मा शुच " तुम शोक मत करो।" मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा। मन और बुद्धि (देश-काल-निमित्त) के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप श्रीरामकृष्ण-तत्व (सच्चिदानन्द) का साक्षात्कार करना है।]
श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मभक्तों के प्रति) -मन ही में बन्धन है और मन ही में मुक्ति । मैं नित्य मुक्त शुद्ध-बुद्ध आत्मा हूँ; चाहे संसार में रहूँ, चाहे अरण्य में, मुझे बन्धन कैसा? मैं ईश्वर की संतान हूँ; राजा-धिराज का बेटा (राजपूत); मुझ भला कौन बाँध सकता है? साँप के काटने पर यदि दृढ़ता के साथ यह कहा जाय कि ‘विष नहीं है’ तो सचमुच विष उतर जाता है ! उसी प्रकार दृढ़ता के साथ यह कहते कहते कि ‘मैं बद्ध नहीं, मैं मुक्त हूँ’, वास्तव में वैसा ही हो जाता है । मनुष्य मुक्त ही हो जाता है ।
“किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है।
जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है ।
“ईश्वर के नाम पर इस प्रकार का ज्वलन्त विश्वास होना चाहिए-‘क्या! मैंने उनका नाम लिया है, अब भी मुझमें पाप रह सकता है ! मुझमें भला पाप कैसा ! मुझे भलाबन्धन कैसा!’
कृष्णकिशोर सनातनी हिन्दू था-सदाचारनिष्ठ ब्राह्मण ! एक बार वह वृन्दावन गया था । एक दिन घूमते घूमते उसे प्यास लगी । उसने एक कुएँ के पास जाकर देखा, एक आदमी खड़ा है । उसने उससे कहा, ‘क्यों रे तू मुझे एक लोटा पानी पिला सकता है? तू कौन जात है? वह बोला, ‘महाराज, मैं नीची जाति का हूँ- चामर हूँ ।’ कृष्णकिशोर ने कहा, ‘तू शिव शिव कह । ले, अब पानी खींच दे ।’
“ भगवान् का नाम लेने से मनुष्य का शरीर, मन-सब कुछ शुद्ध हो जाता है ।"
[यदि स्वामी विवेकानन्द द्वारा चुना गया कोई भक्त - गुरुदेव प्रदत्त युगावतार का 'नाम' जपता है तो उस मनुष्य का देह, मन, ह्रदय सब कुछ शुद्ध हो जाता है।]
“केवल ‘पाप’ ‘नरक’ यही सब बातें क्यों? एक बार कहो कि जो कुछ अयोग्य काम किए हैं, उन्हें फिर नहीं करूँगा, और उनके नाम पर विश्वास रखो ।”
श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नाममाहात्म्य गाने लगे-
आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोली मा जदि मरी।
आखेरे ए -दीने ना तारो केमने जाना जाबे गो शंकरी।।
(भावार्थ)-
“दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं जब मेरे निकलेंगे प्राण ।
देखूँ कैसे नहीं तारती, कैसे हो करुणा की खान ॥”
“मैंने, माँ के निकट केवल भक्ति माँगी थी । हाथ में फूल लेकर माँ के पादपद्मों में चढ़ाया था; कहा था, ‘माँ, यह लो तुम्हारा पाप, यह लो तुम्हारा पुण्य, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा ज्ञान, यह लो तुम्हारा अज्ञान, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारी शुचिता, यह लो तुम्हारी अशुचिता, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा धर्म, यह लो तुम्हारा अधर्म, मुझे शुद्ध भक्ति दो ।’
गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था । परन्तु कोई एकदम फट से जनक राजा नहीं बन जाता । जनक राजा ने निर्जन में बहुत तपस्या की थी।
संसार में रहते हुए भी बीच बीच में एकान्तवास करना चाहिए । गृहस्थी से बाहर निकलकर एकान्त में अकेले रहकर अगर भगवान् के लिए तीन दिन ही रोया जाय तो वह भी अच्छा है । यहाँ तक कि यदि अवसर पाकर एक ही दिन निर्जन में रहकर भगवच्चिन्तन किया जाए तो वह भी अच्छा है । लोग स्त्री-पुत्रों के लिए रोकर लोटाभर आँसू बहाते हैं, ईश्वर के लिए भला कौन रोता है? बीच बीच में निर्जन में रहकर भगवत्प्राप्ति के लिए साधना करनी चाहिए । संसार के भीतर, विशेषकर कामकाज (बिजनेस -ब्यापार) की झंझट में रहकर प्रथम अवस्था में मन को स्थिर करते समय अनेक बाधाएँ आती हैं । जैसे रास्ते के किनारे लगाया हुआ पेड़; जिस समय वह पौधे की स्थिति में रहता है, उस समय घेरा न लगाने पर गाय-बकरियाँ खा जाती हैं । किन्तु बाद में तना मजबूत होने पर घेरे की आवश्यकता नहीं रहती । फिर उसे हाथी बांधनेपर भी कुछ नहीं होता।
“रोग तो हुआ है सन्निपात (typhoid) का । पर जिस कमरे में सन्निपात का रोगी है, उसी कमरे में पानी का घड़ा और इमली का अचार रखा है । अगर रोगी को आराम पहुँचाना चाहते हो तो पहले उसे उस कमरे से हटाना होगा । संसारी जीव मानो सन्निपात का रोगी है; और विषय है पानी का घड़ा । विषयभोगतृष्णा मानो जलतृष्णा है । इमली, अचार की बात सिर्फ सोचते ही मुँह में पानी आ जाता है, वे चीजें पास नहीं लानी पड़तीं । ऐसी चीज रोगी के कमरे में ही रखी है । संसार में स्त्री-सहवास ऐसी ही ही चीज है। (स्त्री की संगति, स्त्री का साहचर्य इमली के अँचार जैसी ही चीज है) इसीलिए निर्जन में जाकर चिकित्सा कराना आवश्यक है ।”
“विवेक-वैराग्य प्राप्त करके (विवेकज ज्ञान जन्य ऐषणाओं से अनासक्ति प्राप्त करके) संसार में (गृहस्थ आश्रम में) प्रवेश करना चाहिए । संसारसमुद्र में काम-क्रोधादि मगर हैं । बदन में हलदी मलकर पानी में उतरने पर मगर का डर नहीं रहता । विवेक-वैराग्य ही हलदी है । सदसत्-विचार का नाम विवेक है । ईश्वर ही सत् हैं, नित्यवस्तु हैं बाकी सब असत् अनित्य, दो दिन के लिए है-यह बोध ही विवेक है । और ईश्वर के प्रति अनुराग चाहिए, प्रेम, आकर्षण चाहिए-जैसे गोपियों का कृष्ण के प्रति था । एक गाना सुनो-
(भावार्थ)- “विपिन में बंसी बज उठी । मुझे तो जाना ही होगा, श्याम मेरी राह देख रहा है । तुम लोग चलोगी या नहीं, बताओ । तुम लोगों के लिए श्याम एक नाम है, पर सखि, मेरे लिए श्याम हृदय की व्यथा है । बंसी तुन्हारे कान में बजती है, पर मेरे तो वह हृदय में बजती है । श्याम की बंसी बज रही है । हे राधे, अब चलो, तुम्हारे बिना कुंज में शोभा नहीं आती ।”
श्रीरामकृष्ण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से यह गीत गाते गाते केशव आदि भक्तों से कहा, “राधाकृष्ण को मानो या न मानो, पर उनके इस आकर्षण को तो ग्रहण करो ! ईश्वर के लिए इस प्रकार की व्याकुलता हो, इसके लिए प्रयत्न करो । व्याकुलता के आते ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ।”
(ब्राह्म भक्तों के प्रति) - एक रामप्रसाद का गीत सुनो -
आय मन, बेड़ाते जाबी।
काली कल्पतरु मूले रे (मन) चारी फल कुड़ाये पाबी l
(भावार्थ)-“चल मन घूमने चलें । कालीरूपी कल्पतरु के नीचे तुझे (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों फल पड़े मिल जाएँगे ।
रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (मृगमरीचिका) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर-
"एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी।
जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि।
से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"
‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे)
[A very interesting discourse of Sri Ramakrishna Paramahamsa;
Devotee: "Sir, can't we realize God without complete renunciation?"
Master (with a laugh): "Of course you can? Why should you renounce everything? You are all right as you are, following the middle path - like molasses partly solid and partly liquid.
I tell you the truth: there is nothing wrong in your being in the world. But you must direct your mind towards God; otherwise you will not succeed. Do your duty with one hand and with the other hold to God. After the duty is over, you will hold to God with both hands.
It is all a question of mind. Bondage and liberation are of the mind alone. The mind will take the color you dye with it. It is like white clothes just returned from the laundry. If you dip them in red dye, they will be red. If you dip them in blue or green, they will be blue or green. They will take only the colour you dip them in, whatever it may be.
Bondage is of the mind and freedom is also of the mind. A man is free if he constantly thinks : 'I am free soul. How can I be bound, whether I live in the world or in the forest? I am a child of God, the King of Kings. Who can bind me?
The wretch who constantly says, 'I am bound, I am bound' only succeeds in being bound. He who says day and night, 'I am a sinner, I am a sinner' verily becomes a sinner.
If a man repeats the name of God, his body, mind and everything become pure. Why should one talk only about sin and hell, and such things? Say but once, "O Lord, I have undoubtedly done wicked things, but I won't repeat them.' And have faith in His name."
Sri Ramakrishna at this time became intoxicated with divine love and sang:
"If only I can pass away repeating Durga's name,
How canst Thou then, O blessed One,
Withhold from me deliverance,
Wretched though I may be? .........
"Why shouldn't one be able to realize God in this world? Kind Janaka had such realization. But one cannot be King Janaka all of a sudden . Janaka at first practiced much austerity in solitude."
Even if one lives in the world, one must go into solitude now and then. It will be of great help to a man if he goes away from his family, lives alone, and weeps for God even for three days. Even if he thinks of God for one day in solitude, when he has the leisure, that too will do him good. People shed a whole jug of tears for wife and children. But who cries for the Lord? Now and then one must go into solitude and practice spiritual discipline to realize God. Living in the world and entangled in many of its duties, the aspirant, during the first stage of spiritual life, finds many obstacles in the path of concentration. While the trees on the foot-path are young they must be fenced around; otherwise they will be destroyed by cattle. The fence is necessary when the tree is young, but it can be taken away when the trunk is thick and strong. Then the tree won't be hurt even if an elephant is tied to it.
The disease of worldliness is like typhoid. And there are a huge jug of water and jar of savory pickles in the typhoid patient's room. If you want to cure him of his illness, you must remove him from that room. The worldly man is like the typhoid patient. The various objects of enjoyment are the huge jug of water, and the craving for their enjoyment in his thirst. The very thought of pickles makes the mouth water; you don't have to bring them near. And he is surrounded with them. The companionship of woman is the pickles. Hence treatment in solitude is necessary.
[https://groups.google.com/g/babasatsang/c/WJvAihaezbU]
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते।।५४।।
आत्मानमेव प्रथमं देशरूपेण यो जयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते।।५५।।
अष्टांग के शेष पाँच अंग 'यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा 'को भी दो भाग में बाँट कर, यम-नियम का पालन आजीवन करना है। बाकी बचे 'योग-सूत्र'-जिनके द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, 'आसन -प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास दिन में दो बार निश्चित और नियत समय पर करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि चरित्र-वान मनुष्य बनने के लिये आजीवन यम-नियम का अभ्यास करते हुए 'आसन-प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास करना मनःसंयोग या एकाग्रता (Concentration) की साधना की प्रथम सीढ़ी है।]
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