About Me

My photo
Active worker of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.

Wednesday, January 23, 2013

$$$" मन ही सब कुछ है !' (মনই সব) [ "या मतिः सगातिर्भवेत - भ्रमर-कीट न्याय " ] अष्टम अध्याय : Chapter 8. " मनुष्य का मन ", स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [66- 51 A]

'मन ही सबकुछ है'
 
(মনই সব)

सब कुछ मन पर ही निर्भर है। सभी ज्ञानी कह गये हैं, कि जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने सम्पूर्ण जगत को ही जीत लिया है।  मन मनुष्य का मित्र भी हो सकता है, और शत्रु भी हो सकता है। जो व्यक्ति अपने अतिचंचल मन को भी जीत लेता है, मन को वशीभूत कर लेता है, अपने मन का स्वामी (प्रभु) बन जाता है, मन उसका मित्र बन जाता है; किन्तु जो व्यक्ति मन का  गुलाम है, मन उसके साथ शत्रुता कर सकता है। स्वामीजी कहते थे-" You become what you think ! " या मतिः सगातिर्भवेत " -जिसकी जैसी 'मति' (मनोवृत्ति, प्रवृत्ति, मनोभाव या इच्छा) उसकी  वैसी गति होती है। (सभी वैदिक ग्रंथों में उल्लेख है कि हमारे मनोभावों (मनोवृत्ति,प्रवृत्ति,या इच्छा) के अनुसार ही हमारी चेतना का स्तर निर्धारित होता है।) अष्टावक्र संहिता में कहा गया है -

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
 
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥१-११॥

स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी मति (जिस प्रकार की इच्छा) होती है वैसी ही गति होती है ।।११।। 
[महोपनिषद ४.११४ के अनुसार केवल अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा ही मोह का क्षय करने वाली है,जबकि इच्छा मात्र अविद्या है, जिसका नाश करना ही मोक्ष को प्राप्त होना है। ]
माँ सारदा कहती थीं न, " मने बद्ध, मनेई मुक्त। "- इसका तात्पर्य यह है कि बंधन या मुक्ति मनुष्य के मन में उठने वाली इच्छाओं पर (श्रेय-प्रेय निर्णय विवेक पर) निर्भर करती है, बाह्य परिस्थितियों पर नहीं। 'ब्रह्मबिंदु-उपनिषद' में कहा गया है -
 " मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।" 
अर्थात मनुष्यों की संसार-बद्ध दशा या मोक्ष या मुक्ति का कारण उसका मन ही है। गीता (6/5) में कहा गया है-आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: " #- तुम स्वयं ही अपने बन्धु तथा स्वयं ही अपने शत्रु हो। आत्मा या मन के अतिरिक्त अन्य कोई शत्रु नहीं है। (स्वामी विवेकानन्द कहते थे यही गीता का अन्तिम और श्रेष्ठ उपदेश है।) मनुष्य का शांत और संयमित मन सच्चे मित्र के जैसा हमेशा उसका हित करता है। जबकि आसक्त मन (ईश्वर की पादपद्मों के बजाय संसार में या कामिनी-कांचन में आसक्त मन) मनुष्य का शत्रु बनकर उसके बंधन का कारण होता है, दुःखदायक हो जाता है। इसीलिये भगवान ने उपदेश दिया कि- 'उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्' -विवेकयुक्त-मति (श्रेय-प्रेय इच्छा) की सहायता से मनुष्य अपना उद्धार करे, और (आत्मावलोकन की दृढ़ इच्छा से) कभी अपने मन को अवसादग्रस्त या अधोगामी न होने देगा। 
पातंजल योगसूत्र 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१. १२॥' के भाष्य में व्यासदेव ने  सूत्र की व्याख्या करते हुए मन को (तीव्र इच्छा चित्त की वृत्ति को) निरुद्ध करने के उपाय का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया है - 'अथासां निरोधे क उपाय इति ।' [- (अथ) अब , (आसाम्)  इन ( मानसिक वृत्तियों -मन में उठने वाली अधोगामी इच्छाओं) को निरुद्ध करने का उपाय (कः) क्या है?

चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।
 या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
 संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः 
खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत 
 इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१२॥ #

मन नदी के प्रवाह की मानो दो मुख्य धारायें हैं। एक धारा 'ब्रह्माभिमुखी' है, जो मनुष्य को भलाई या कल्याण की ओर ले जाती है। और दूसरी धारा बुराई या पाप की ओर ले जाती है। जो धारा कैवल्य या परम कल्याण (Final Liberation -ईश्वर के साथ एकत्व) की ओर ले जाती है उस धारा की तली विवेक के पक्के फर्श से जुड़ी हुई होती है। और जो प्रवाह संसार से आसक्ति, की ओर बंधन की ओर ले जाता है उसकी तली अविवेक से भरी हुई होती है। इसीलिये 
वैराग्य या आसक्ति-त्यागरूपी बाँध के फाटक से उस अधोमुखी प्रवाह को बन्द कर देना आवश्यक है। एवं सदैव जागृत विवेक-दृष्टि की सहायता से मन के 'ब्रह्माभिमुखी' या कल्याण-मुखी  स्रोत को निरन्तर प्रवाहित रखना युक्तिपूर्ण है। ऐसा होने से ही मन की अनिष्टकारी प्रवृत्ति  संयत हो जाती है।
श्रीरामकृष्ण कहते थे, "मन पर ही सब कुछ निर्भर है । मन धोबी के यहाँ का धुला हुआ कपड़ा जैसा है; जिस रंग में रँगवाओगे उसी रंग का हो जायगा । मन से ही ज्ञानी (चित्त में उठने वाली इच्छा या a desire that arises in the mind ) और मन से ही अज्ञानी है । जब तुम कहते हो कि अमुक आदमी खराब हो गया है, तो अर्थ यही है कि उस आदमी के मन (मती,बुद्धि या इच्छा) में खराब रंग आ गया है ।"
[पृष्ठ 1184, श्रीरामकृष्ण वचनामृत (सम्पूर्ण), परिशिष्ट (क) : परिच्छेद -2, सुरेन्द्र के मकान पर श्रीरामकृष्ण।1881ई.आषाढ़ महीना । Blog date:  January 23, 2025/]    
 महाभारत [विदुर नीति- उद्योगपर्व] में कहा गया है -मन,वचन, कर्म से जिस प्रकार के कार्यों में सदैव व्यस्त रहोगे, उसी कार्य में लगे रहने की इच्छा तुम्हारे मन का हरण कर लेगी, अर्थात तुम्हें प्रभावित करेगी। इसलिये जो कल्याणकारी कार्य (प्राथना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-पर्योग आदि) हैं, उसी के साथ युक्त रहना उचित है। मन को (यानि उसमें उठने वाली बुरी इच्छाओं को) अपना सबसे बड़ा शत्रु समझकर, सबसे पहले उसको अपने वश में करो, उसके बाद ही दूसरे शत्रु या मित्रों को अपने वश में लाने का प्रयत्न करना अच्छा होगा। अपने मन को वश में लाये बिना, दूसरों को वश में लाने की चेष्टा करने से, तुम स्वयं शक्तिहीन या निर्बल हो जाओगे 
    कामना-वासना की पूर्ति करने में ही समस्त शक्ति को खर्च कर देने से मन को वश में नहीं लाया जा सकता है। सबसे पहले त्याग का भाव (ऐषणाओं के प्रति अनासक्ति का भाव) रहना चाहिए। फिर निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन नियंत्रित, वशीभूत और शांत हो जाता है। ( प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते करते ध्यान-समाधि हो जाने पर  मन नियंत्रित, वशीभूत और शांत हो जाता है।) मन के शांत और स्थिर हो जाने के बाद यह चिंतन करना चाहिए -कि जीवन क्या है, जीवन सार्थक कैसे होता है, अर्थात जीवन का लक्ष्य क्या है ? किस प्रकार का जीवन यापन करने से जीवन सार्थक हो सकता है -अथवा पूर्णत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? 
मन की गति किस ओर है, बहुत धैर्य के साथ उसका पर्यवेक्षण करना पड़ता है। ( अर्थात मन में उठने वाली इच्छाओं की गति इष्टदेव के पदपद्मों की ओर, या आत्मावलोकन की ओर है या इद्रियभोगों की ओर है ?) मन का साक्षी बनकर मन को देखने का अभ्यास करते करते, ऐसा स्पष्ट दिखना चाहिये कि -" यह मन है, और यह मैं हूँ !" इस प्रकार मन को दृश्य बनाकर उसका द्रष्टा बन जाने से मन बिना किसी संकोच के अपना असली चेहरा मुझे दिखा देगा। हो सकता है, मैं यह देखूं कि मन में अच्छे विचार भी हैं, कुछ बुरे विचार भी हैं। फिर मन के द्वारा ही यह विवेक-विचार करना होगा, कि यदि मैं मन में उठने वाले अच्छे विचारों (अच्छी इच्छाओं) को पुष्ट करूँगा, तो उसका फल कैसा होगा ? और यदि बुरे विचारों को पुष्ट करूँगा तो उसका परिणाम कैसा होगा? कुछ मनोभाव ऐसे भी हो सकते हैं, जिनको पहचाना नहीं जा सके कि वे अच्छे हैं, या बुरे हैं? मान लो ऐसा लगे कि, इसमें बुराई क्या है ? ठीक तो है! अब यह देखना होगा कि जो इच्छा अभी अच्छी लग रही है, उस इच्छा को पूर्ण कर लेने पर उसका परिणाम शीघ्र क्या होगा, और बाद में क्या होगा ? तीन प्रकार के परिणाम हो सकते हैं। पहले पहल तो सुखकर, बाद में हानिकारक या बहुत बुरा परिणाम दे सकता है। या जो पहले भी खराब और बाद में भी खराब फल देता है। या ऐसा भी हो सकता है, कि पहले पहल स्वादिष्ट नहीं लगता किन्तु उसका फल बाद में बहुत अच्छा मिलता है। जिस इच्छा (संकल्प) को पूरी करने से परिणाम अन्त में शुभ होता है, वैसे ही मनोभावों (प्रवृत्ति, इच्छा) को पुष्ट करने (बारम्बार दोहराने) की आवश्यकता है। इसी उचित-अनुचित,  शाश्वत -नश्वर, श्रेय-प्रेय इच्छा में निर्णय करने की क्षमता को विवेक कहा जाता है। मन के भीतर पहले इच्छा का जन्म होता है, फिर उस इच्छा को पूर्ण करने का संकल्प (दृढ़ इच्छाशक्ति) मन में उठता है। फिर उस संकल्प को हमलोग प्रयत्न के द्वारा कार्य में रूपांतरित कर लेते हैं। इसलिये मन में उठने वाले विचारों एवं इच्छाओं को- मनोभावों को बहुत सावधानी के साथ विवेक-प्रयोग करके केवल उन्हीं इच्छाओं को प्रश्रय देना उचित होगा जो आपात मधुर (मिथ्या-Apparent) फल देने वाले न हो, क्योंकि उसका परिणाम बाद में बुरा भी हो सकता है। [हमारे शास्त्रों में इच्छा को शक्ति या देवी का रूप माना गया है। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा मोह का क्षय करने वाली है,जबकि इच्छा मात्र अविद्या है, जिसका नाश करना ही मोक्ष को प्राप्त होना है। इच्छा, ज्ञान आदि के संदर्भ में कोशों में न्याय सिद्धान्त से यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है, " आत्मजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या भवेत् क्रिया॥"
      यदि हम शांत मन से इसी विषय पर चिंतन करें कि " जीवन क्या है, जीवन सार्थक कैसे हो सकता है, या पूर्णत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? तो हम यही देखेंगे कि इन्द्रिय-भोगों में आसक्त रहने से जीवन सार्थक नहीं होता! दूसरों का हित करने, सहानुभूति रखने, अपने -पराये का भेद छोड़कर सभी से प्रेम करने में ही सच्चा आनन्द है- जो जीवन को सार्थक बना सकता है। किन्तु जीवन को सार्थक करने में सबसे बड़ी बाधा खड़ी कर देता है हमारा स्वार्थ, मुझे किस इच्छा को पूरा करने में अधिक भोग-सुख मिलेगा- इसका अन्वेषण करने लगा हमारा मन। इसीलिए स्वार्थी मनोभाव को,स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को कम करना होगा, दूसरों के कल्याण के विषय में अपने से अधिक ध्यान रखना सीखना होगा। और ये सभी काम केवल मन की सहायता से ही किये जा सकते हैं। अतएव हम समझ सकते हैं कि अपने मन के द्वारा ही अपना सच्चा कल्याण किया जा सकता है, जीवन को सार्थक किया जाता है। इसी बात को गीता में - 'अपने द्वारा अपना उद्धार करना' कहा गया है। 
        जिस प्रकार कामना-वासना का अधिक्य ,अधिक से अधिक भोग करने की इच्छा या स्वार्थपूर्ण इच्छायें जीवन को सार्थक करने के प्रतिकूल हैं, वैसे ही कुछ अन्य प्रकार की इच्छायें भी हैं, जो जीवन को संकुचित कर देते हैं, जीवन को सार्थक नहीं होने देते। जैसे किसी के प्रति ईर्ष्या, घृणा , वैर-भाव, या किसी को चोट पहुँचाने की इच्छा या विचार; जीवन को सार्थक करने की प्रतिकूल मनोभाव हैं, क्योंकि ये सभी प्रेम, सहानुभूति, परोपकार की इच्छा के विपरीत मनोभाव हैं। ऐसा मनोभाव या मनोवृत्ति जीवन के लक्ष्य-(पूर्णत्व प्राप्ति) की दिशा में अग्रसर होने में बाधक, विकास या हृदय का विस्तार होने में प्रतिबन्धक हैं। इसीलिये इन सब नकारात्मक विचारों के लिए मन में कोई जगह नहीं होनी चाहिए, इस प्रकार की बुरी इच्छाओं को मन में उठने ही नहीं देना चाहिएद्रष्टा (साक्षी) भाव से जब हम अपने मन उठने वाली इच्छाओं का (मति या मनोवृत्ति का) विश्लेषण करेंगे, तो देखेंगे कि हमलोग अपनी अपूर्ण इच्छाओं (कामनाओं) को पूर्ण करने के लिये विषय-भोग के नशे में धुत्त (Drunk) रहना चाहते हैं; इसलिए विषय-भोगों में मत्त रहने को ही अपना स्वार्थ समझ लेते हैं।  और जो उस नशे को उतारने की कोशिश करता  है उसके प्रति अपने मन में ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि मनोभाव पाल लेते हैं। और ऐसा करके दूसरों की क्षति कर सकें या नहीं, अपना सबसे अधिक नुकसान तो कर ही लेते हैं। क्रोध करने से भी ठीक वही होता है, दूसरों को क्षति पहुँचाने से अधिक नुकसान अपना होता है। इसलिए विवेकवान होकर यदि हमलोग 'सत मति' ('मति'-मनोवृत्ति, अच्छी प्रवृत्ति) बनाये रखें तो हमारे जीवन की स्वाभाविक गति ही हमलोगों को लक्ष्य की दिशा में, जीवन को सार्थक बनाने की दिशा, सच्चे आनन्द की दिशा में ले जाएगी। 
      हमलोगों की भावना जिस प्रकार की होगी, अर्थात जैसे विचारों , इच्छाओं को हम अपने मन में उठने देंगे, जिस वस्तु (आत्मा, ईश्वर या भोग) में हमलोग अपने मन को निरंतर लगाए रखेंगे हमलोगों की सिद्धि (उपलब्धि) भी वैसी ही होगी। कहा भी गया है -"यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी॥" यदि किसी आदर्श (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) के उपर पूरी श्रद्धा रखते हुए हम अपने मन को पुर्णतः नियोजित कर सकें तो उस आदर्श में निहित समस्त भाव हमारे अपने हो जाते हैं। यदि किसी ध्येय वस्तु में मन को पूर्णतः संलग्न रख सकें तो हम 'तदगत' - तदाकाराकारित' हो सकते हैं ! उसीमें विलीन हो सकते हैं, या 'खो' सकते हैं, या उस ध्येय वस्तु के साथ  मिलकर एकाकार  हो सकते हैं। श्रीरामकृष्ण कहते थे न -" सुना नहीं ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है? वह अनुभव कैसा होता है जानते हो ? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो।"(सविकल्प समाधि)

[श्रीरामकृष्ण वचनामृत में योग समाधि अनुभव 'तदाकाराकारित' होने  या 'खो जाने' का एक छोटा सा प्रसंग इस प्रकार है :-  अमृत- महाराज ! इस समाधि-अवस्था में भला आपको क्या जान पड़ता है?
श्रीरामकृष्णदेव-  " सुना नहीं ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है? वह अनुभव कैसा होता है जानते हो ? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो।"(सविकल्प समाधि)
अमृत - क्या जरा भी अहंकार नहीं रह जाता ?
श्रीरामकृष्ण- हाँ, बहुधा मेरा कुछ अहंकार रह जाता है। सोने के एक टुकड़े को तुम चाहे जितना घिस डालो पर अन्त में एक छोटा सा कण बचा ही रहता है । और, जैसे कोई बड़ी भारी अग्निराशी है, उसकी एक जरा सी चिनगारी हो । बाह्य ज्ञान चला जाता है, परन्तु प्रायः थोड़ा सा अहंकार रह जाता है, शायद वे विलास के लिए रख छोड़ते हैं । ‘मैं’ और ‘तुम’ इन दोनों के रहने ही से स्वाद मिलता है । कभी कभी इस ‘अहं’ को भी वे मिटा देते हैं । इसे ‘जड़ समाधि’ या ‘निर्विकल्प समाधि’ कहते हैं । तब क्या अवस्था होती है, यह कहा नहीं जा सकता ! नमक का पुतला समुद्र नापने गया था । ज्योंही समुद्र में उतरा कि गल गया । ‘तदाकाराकारित’ ! अब लौटकर कौन बतलाये कि समुद्र कितना गहरा है ! (निर्विकल्प समाधि) (29 मार्च 1883 समाधितत्व-सविकल्प और निर्विकल्प-27]" आचार्य शंकर ने भी कहा है-

 भावितं तीव्रवेगेन यद्वस्तु निश्चयात्मना। 

       पुमांस्तद्धि भवेच्छीघ्रं ज्ञेयं भ्रमरकीटवत्।। 

(अपरोक्षानुभूति -१४०)

दृढ विश्वास के साथ तीव्र वेग से मनुष्य जिस वस्तु के बारे चिन्तन करने पर अपने मन को एकाग्र कर लेता है, वह शीघ्र ही उस वस्तु में परिणत हो जाता है,जैसे झींगुर भ्रमर में परिणत हो जाता है।भारत में एक किम्वदंती प्रचलित है कि भौंरा किसी विशेष कीड़े (झींगुर) को पकड कर अपने घर में ले आता है, और उसे बंद करके बहुत पिटाई करता है। फिर दरवाजा बंद करके घर के चारो और गुण-गुण करके चक्कर काटता रहता है। घर में बंद झींगुर डर के मारे तीव्रवेग से भौंरे के बारे में सोचता रहता है, और अंत में स्वयं भौंरा बन जाता है। श्रीमद् भागवत में भी कहा है-

यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया,

स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।

व्यक्ति स्नेह, द्वेष एवं भय से प्रेरित होकर अपने समस्त मन को, भावना को, बुद्धि द्वारा जहाँ -जहाँ संलग्न रखता है
 मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है। व्यक्ति उसी के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इसलिए मैं अपने मन को किस विषय में नियोजित कर रहा हूँ - इस बात को लेकर बहुत सतर्क रहना चाहिये। हमारी चेष्टा यह होनी चाहिये कि भय और शत्रुता के साथ नहीं, बल्कि शुभ कामना के साथ,उत्साह और नेक इरादों के साथ- अपना कल्याण तथा सभी के कल्याण के प्रति शुभ संकल्प में मन को पूरी तरह नियोजित रखना चाहिए। इसलिए वेदों में प्रार्थना की गयी है -  यस्मान्न ऋते किंच न कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। जिस मन की सहायता के बिना कोई कर्म नहीं किया जा सकता, वह मेरा मन 'शिव संकल्प' या कल्याणकारी संकल्प वाला हो।  अर्थात हे प्रभु , मेरे मन के सभी संकल्प केवल कल्याणकर हों।
       अपने मन को केवल कल्याणकारी संकल्पों में, शुभ संकल्पों में नियोजित रखने से ही हमलोग जीवन की पूर्णता (अंतर्निहित दिव्यता) को अभिव्यक्त कर सकते हैं, जीवन को सार्थक कर सकते हैं। हमारा जीवन भी कल्याणप्रद हो सकता है, और अपने इस जीवन को सभी देशवासियों का कल्याण करने के लिए ही व्यतीत किया जा सकता है। ऐसा करने से जीवन पर किसी नैराश्य की छाया नहीं पड़ेगी। किसी असफलता के आघात से दुःख नहीं भोगना होगा। कभी हार के दुःख से, या पराजय की ग्लानी से हमारा मन कभी मलीन नहीं होगा। हमारा मन अपने अस्तित्व के साथ एकत्व (Oneness of existence)  के अनुभूति की चमक , निःस्वार्थ प्रेम के सुगंध, अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) की अनुभूति जन्य आनन्द के हिल्लोल से सम्पूर्ण जगत को हर्षित करने में सक्षम हो जायेगा। इसीलिये हमेशा यह याद रखना अच्छा है कि -" या मतिः सगातिर्भवेत !" 
================
The Maha Upanishad 4.114 states that the desire to see one's own soul is a powerful force that can destroy attachment to the material world. This is because realizing one's true self, the soul, can lead to a detachment from the ego and its desires. Conversely, mere desire, especially for material possessions or worldly pleasures, is described as ignorance, and the destruction of this ignorance is a key step towards attaining salvation. 
The Upanishad emphasizes the importance of realizing one's true nature, which is often equated with Brahman or Universal Consciousness. This realization, achieved through a focused desire to understand the Self, leads to a transcendence of the ego and its attachments
Attachment is seen as a consequence of ignorance, a lack of understanding of the true nature of reality. This ignorance fuels the cycle of birth and death (samsara). 
The destruction of ignorance, achieved through the realization of the Self, leads to liberation (moksha or salvation). This state is characterized by the cessation of the cycle of rebirth and a merging with the ultimate reality. 
The Upanishad highlights the importance of the soul (Atman) and its connection to the Universal Self. By realizing the soul, one can transcend the limitations of the ego and the material world.
The Upanishads also suggest that even while engaged in worldly actions, one can strive for salvation by purifying the spirit of desire and aligning it with the realization of the Self. ] 

>>इच्छा शक्ति मूलतः हमारे अहंकार और शांत विवेक-युक्त मन में उठने वाली इच्छाओं   का परिणाम है- ये दोनों मिलकर हमें किसी खास कार्य के लिए प्रेरित करते हैं। अर्थात शांत मन से श्रेय-प्रेय इच्छाओं पर विवेक-विचार करने के बाद उसी काम या इच्छा को पूरा  करने के लिए प्रेरित करती है जो हम जानते हैं कि सही है। यह हमारे शांत मन की शक्ति है जो हमें विवेक-प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती है।  यही मन अगर हमेशा अशांत , चंचल और अनियंत्रित बना रहे तो हमें वह करने के लिए मजबूर कर सकता है जो हमारे लिए हानिकारक है। 

जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये, जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण गुण है—”दृढ़ इच्छा शक्ति।” (या विवेक-प्रयोग शक्ति) अन्य गुण, जैसे ईमानदारी, साहस, परिश्रम और लगन आदि, दृढ़ इच्छा-शक्ति के अभाव में व्यर्थ हो जाते हैं।

इच्छा-शक्ति के दो शत्रुओं को तुरंत पहचानना आवश्यक है:-इच्छा शक्ति के दो प्रमुख शत्रु हैं- (क) अतीत के बारे में हमारा पछतावा और (ख) भविष्य के प्रति हमारी चिंताएँ

इच्छाशक्ति बढ़ाने का सर्वोत्तम उपाय ठाकुर, माँ ,स्वामीजी के शरण में रहना है - अर्थात श्रीरामकृष्ण देव को अपना 'power of attorney' मुख्तारनामा दे देना। और उनके जीवन और उपदेशों का यथासम्भव अनुसरण करते रहना  !]      

"जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसा ही फल मिलता है। हमारी भावनाएं और श्रद्धा ही हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त करती हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति तीर्थ में जाता है, तो उसे वहां जाने से पहले अपनी भावना और श्रद्धा के अनुसार तैयारी करनी चाहिए।   

मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ । 
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी 

अर्थात तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, दवा तथा गुरू में जिस प्रकार की जिसकी भावना या 'श्रद्धा'  होती है, उसके अनुसार ही उसे सिद्धि प्राप्त होती है।

इच्छाशक्ति हमें क्रियाशक्ति की ओर ले जाती है, और क्रियाशक्ति ज्ञान शक्ति की ओर ले जाती है। सब कुछ चेतना है। हम जैसा सोचना और बोलना चाहते हैं। यह इच्छा शक्ति है। हम आत्मावलोकन (आत्मसाक्षात्कार या बोध प्राप्त) करने के लिए अपने चंचल-मन को शांत और आदर्श या इष्टदेव पर वैराग्य पूर्वक एकाग्र करने का अभ्यास/ प्रयास करते हैं। यह क्रिया शक्ति है। जब अपने आत्मस्वरूप का चिंतन करते हैं (अर्थात इष्टदेव का नाम-जप करते हैं- उनके जीवन और उपदेशों का अनुसरण करते हैं ) यह ज्ञान शक्ति है।
"Iccha shakti leads to kriyashakti, which leads to Jnana shakti.   All is Consciousness. We desire to think and speak. This is Iccha Shakti. We make an effort towards realization. This is Kriya Shakti. We think and know. This is Jñana Shakti." 

पौराणिक साहित्य में इच्छा को शक्ति या देवी का जो रूप दिया गया है, वैदिक साहित्य में उसकी पुनरावृत्ति उपनिषदों के सिवाय अन्यत्र नहीं होती। सीतोपनिषद में इच्छा शक्ति का विभाजन तीन रूपों – योगशक्ति, भोगशक्ति व वीरशक्ति में किया गया है। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा मोह का क्षय करने वाली है, जबकि  इच्छामात्र अविद्या है (कामिनी-कांचन आदि ऐषणाओं में आसक्ति ही अविद्या है) जिसका त्याग करना या अनासक्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त होना है। इच्छा, ज्ञान आदि के संदर्भ में कोशों में न्याय सिद्धान्त से यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है : " आत्मजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या भवेत् क्रिया॥"  

{या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । जो प्रवाह 'विवेकविषयनिम्ना' है -  विवेक के क्षेत्र (विषय) की ओर झुका हुआ (निम्ना) है - अर्थात उस 'विवेकज ज्ञान' की ओर झुका हुआ है,  जो व्यक्ति को 'मति' (मन में उठने वाली इच्छा या 'बुद्धि' ) और 'पुरुष' या 'आत्मा' (द्रष्टा या साक्षी) के बीच अंतर  को  समझने की अनुमति देता है -  वह  व्यक्ति को कैवल्य या मोक्ष (Final Liberation) की ले जाता हो, वही प्रवाह भलाई या कल्याण की ओर बहता है।   
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । 
दूसरी ओर, जो धारा 'अविवेक-विषय निम्ना' है अर्थात अविवेकी मति (इच्छा या बुद्धि) और पुरुष (साक्षी  आत्मा) के बीच विद्यमान अंतर को समझने में असमर्थ  विषय (भोगों) की ओर झुका हुआ (निम्ना) है - जो अविवेकी प्रवाह संसार-प्राग्भार (कामिनी-कांचन में आसक्ति) की ओर ले जाने वाला है, वह प्रवाह बुराई या पाप की ओर बहता है। 
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते '  - (तत्र) उनमें से  जो (बाह्य) विषयों की ओर (कामिनी -कांचन की ओर) जो प्रवाह है, उस बहिर्मुखी प्रवाह को (वैराग्येण-renunciation ) त्याग से (या कामिनी-कांचन के प्रतिअनासक्त हो जाने से) (खिलीक्रियते- powerless) शक्तिहीन किया जाता है। 
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यते।' - इसके परिणामस्वरूप विवेक-दर्शन के चिंतन के अभ्यास से(क्षण और उसके क्रम के बीच मन को एकाग्र करने से ) एक समय में चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है और 'विवेकस्रोत' अर्थात्  विवेकज-ज्ञान का स्रोत (आत्मा,सच्चिदानन्द) उद्घाटित (unlocked) हो जाते हैं।
 "इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (इति) इस प्रकार, (चित्त-वृत्ति) मन में उठने वाली अविवेकी इच्छाओं दमन  (निरोधः) - वैराग्य (त्याग renunciation या ऐषणाओं से अनासक्ति) तथा विवेक-दर्शन का अभ्यास (या इच्छा में विवेक का अभ्यास - practice of discriminating)  (उभय) दोनों साधनों  पर निर्भर करता (अधीनः)  है। -||12||
 [ एक बार मनः संयोग के क्लास में दादा ने कहा था, शायद 5000 साल पहले व्यासदेव जानते थे कि भविष्य में विवेकननन्द नामक एक सुदर्शन पुरुष आयेंगे और " विवेकदर्शनाभ्यासेन" अर्थात  विवेकानन्द के चित्र के उपर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से हमलोगों की 'विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत' विवेक-दृष्टि उद्घाटित हो जाएगी। तब हमारा मन निम्नगामी और अवसादग्रस्त भी नहीं होगा, उसका प्रवाह 'ब्रह्माभिमुखी' या उत्तरायण बन रहेगा जैसे कि वाराणसी में गंगाजी उत्तरायण बहती है।]

[মা সারদা বলতেন না, "মনে বদ্ধ, মনেই মুক্ত" এর অর্থ হল, মুক্তি বা আবদ্ধতা মনের উপর নির্ভর করে, বাহ্যিক অবস্থার উপর নয়।  श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के सभी शिष्यों ने, विशेष रूप से श्री श्रीमाँ सारदा ने यह शिक्षा (उपदेश) ठाकुर देव से सीखा था। श्री श्रीमाँ सारदा ने विशेष रूप से इसी शिक्षा (शी'क्षा) का स्वयं अनुसरण किया था, तथा इसी सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया था। और दूसरों तक पहुँचा भी दिया था।]     

[#जन्माद्यस्य यतः – ब्रह्मसूत्र 1/1/2 और श्रीमगभगवत का मंगलाचरण का प्रथम पद है, जो यह सिद्ध करता है की श्रीमद्भागवत महापुराण भी वेद सम्मत ग्रन्थ ही है । या यूं कहें कि वेदान्त में  ब्रह्म के जिन रहस्यों का  उद्घाटन किया गया है, उन्हीं शुष्क रहस्यों का उद्घाटन श्रीमद्भागवत महापुराण में सरल-सरस रूप में करेगी । 
चिदात्मा शम, शांत, निर्विकार, निर्गुण , निरवयव, और सच्चिदानन्द स्वतरूप है। जीव का मन माया से (M/F) ढका रहने के कारण अपना आत्मस्वरूप* स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं पड़ता। (चिदात्मा का तात्पर्य है चैतन्य स्वरूप परमात्मा, जो सभी प्राणियों में व्याप्त है।
 शुद्ध मन (विषयों से अनासक्त मन) गुरु का काम करता है, मनुष्य को भगवान की ओर ले जाता है। मन के शुद्ध होने पर - श्रीभगवान का दर्शन लाभ होता है। (ऐषणाओं से पूर्णतः अनासक्त होकर विवेकदर्शन का अभ्यास करने से आत्मसाक्षात्कार होता है।) 
 मन को इन्द्रिय-विषयों से खींच कर जब आत्मनिष्ठ किया जायेगा तभी वह स्वरुप में स्थित होगी। योगसूत्र 1/3 में लिखा है- "तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम्" अर्थात चित्तवृत्तियों (मति, मनोवृत्ति या प्रवृत्ति) के निरुद्ध या शांत हो जाने पर द्रष्टा पुरुष (साक्षी) अपने स्वरुप में अवस्थित रहते हैं। यही अज्ञान के आवरण से जीवात्मा का उद्धार है। दूसरी ओर विषयासक्त मन (तीनो ऐषणाओं में आसक्त मन) जीवात्मा के बन्धन का कारण है और विषय-रहित शुद्ध मन ही उसके मोक्ष का कारण है- 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः।' 
श्रीरामकृष्णदेव ने कहा है - " मन आसक्ति-रहित होने से ही भगवान का दर्शन होता है। शुद्ध मन से जो वाक्य निकलता है वही उनकी वाणी है। शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि शुद्ध आत्मा के समान है क्योंकि उसके अतिरिक्त और कोई शुद्ध पदार्थ नहीं है। ... उनका दर्शन मिलने पर धर्माधर्म के परे जाया जा सकता है। 
" अन्त में वह मन ही गुरु बनता है और गुरु का काम करता है , किन्तु वह मन शुद्ध, सत्व -गुण से प्रेरित और पवित्र होकर ईश्वर के उच्च शक्ति के प्रकाश के यंत्र स्वरुप होता है। मनुष्य गुरु शिष्य के कान में मंत्र देते हैं , और जगद्गुरु योग्य शिष्य के ह्रदय में मंत्रशक्ति संचारित करते हैं। गुरु इष्ट-देवता (अवतार वरिष्ठ) में लयप्राप्त हो जाते हैं। गुरु, कृष्ण , वैष्णव तीनों एक हैं और एक ही तीन हैं। वासनाओं से मुक्त वशीभूत मन जीव का परम् मित्र है , फिर वासनासक्त मन ही उसका भयंकर शत्रु है।  शुद्ध मन ही जीवात्मा को ब्रह्माभिमुखी करता है, (आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करता है) और संसार-सागर से उसका उद्धार करता है। दूसरी ओर वासनासक्त मन जीव को नरक में गिराता है। (गीता -पेज १७३)]
[आध्यात्मिकता के अभ्यास में 'मति' यानि (ऐषणाओं में आसक्ति,अनासक्ति की प्रवृत्ति या मनोवृत्ति या मनोभाव) ही प्रमुख होती है न कि बाह्य गतिविधियाँ (बाह्य-वेशभूषा) । यदि कोई वृंदावन जैसे तीर्थ स्थान पर रह रहा है किन्तु उसका मन कोलकाता में रसगुल्ला खाने का चिन्तन करता है तब यह माना जाएगा कि वह कोलकाता में ही है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति कोलकाता की भीड़-भाड़ में रहता है किन्तु अपने मन को वृंदावन की दिव्य भूमि में तल्लीन रखता है तब वह वहाँ होने का लाभ पा सकता है।] 

[" या मतिः सगातिर्भवेत "इच्छाशक्ति या 'मति' मनोवृत्ति या प्रवृत्ति को समझने के लिए परिच्छेद ~ 13, (27 अक्टूबर 1882' श्री रामकृष्ण वचनामृत) Blog date :  August 6, 2021' के ५ और ६ अध्याय को को पढ़ना अनिवार्य है।

[( 27 अक्टूबर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत-13 ]

(मन ही सब कुछ है) कर्मयोग,  संसार तथा निष्काम कर्म* 

ब्राह्मभक्त- " महाराज, बिना सब त्याग किए क्या ईश्वर नहीं मिलते ?" 

[Devotee: "Sir, can't we realize God without complete renunciation?"]

श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- नहीं जी, तुम लोगों को सब कुछ क्यों त्याग करना होगा? तुम लोग जैसे  हो, बड़े अच्छे हो; क्योंकि तुमलोग मध्यम मार्ग पर चल रहे हो -इधर भी हो और उधर भी, आधा खाँड़ (molasses) और आधा शीरा (गुड़रस)! ('50-50' लोग हँसते हैं) बड़े आनन्द में हो ।नक्स का खेल जानते हो? मैं ज्यादा काटकर जल गया हूँ । तुम लोग बड़े सयाने हो, कोई दस में हो, कोई छः में, कोई पाँच में । मैं ज्यादा नहीं काटा इसलिए मेरी तरह जल नहीं गए । खेल चल रहा है । यह तो अच्छा है । (सब हँसे) 

“सच कहता हूँ, तुम लोग गृहस्थी में हो, इसमें कोई दोष नहीं । पर मन ईश्वर की ओर रखना चाहिए । नहीं तो न होगा । एक हाथ से काम करो और एक हाथ से ईश्वर को पकड़े रहो । काम खतम हो जाने पर दोनों हाथों से ईश्वर को पकड़ लेना ।” 

“सब कुछ मन पर निर्भर है । मन ही से बद्ध है और मनही से मुक्त । मन पर जो रंग चढ़ाओगे उसी से वह रँग जायगा । जैसे रँगरेज के घर के कपड़े, लाल रंग से रँगो तो लाल; हरे से रँगो तो हरे; सब्ज से रँगो, सब्ज; जिस रंग से रँगो वही रंग चढ़ जायगा । 

देखो न, अगर कुछ अंग्रेजी पढ़ लो तो मुँह में अंग्रेजी शब्द आ जाते हैं-फुट्-फट् इट्-मिट् । (सब हँसे) और पैरों में बूट-जूता, सीटी बजाकर गाना-ये सब आ जाते हैं । और पण्डित संस्कृत पढ़े तो श्लोक आवृत्ति करने लगता है । " मन को यदि कुसंग में रखो तो वैसी ही बातचीत, वैसी ही चिन्ता हो जाएगी । यदि भक्तों के साथ रखो तो ईश्वर चिन्तन, भगवतप्रसंग-ये सब होंगे ।” 

“मन (मनोवृत्ति) ही को लेकर सब कुछ है । एक ओर स्त्री है और एक ओर सन्तान । स्त्री को एक मनो-भाव से और सन्तान को दूसरे मनो-भाव से प्यार करता है, किन्तु है एक ही मन ।”

परिच्छेद~ 13,  [( 27 अक्टूबर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत]  

(६) 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ 

 (गीता- 18 /66)  

मामेकं शरणं ब्रज ('मेरी' ही शरण में आओ) : ठाकुर कहते थे बादशाही अमल का सिक्का अंग्रेजी राज में नहीं चलता; उसी तरह आधुनिक युग में -मामेकं शरणं ब्रज का तात्पर्य है अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द की शरण में आओ ! मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति (सांसारिक ऐषणाओं में आसक्त मनोवृत्ति या प्रवृत्ति) की विरति, या मन को ऐषणाओं से अनासक्त बनाना तब तक संभव नहीं होती है,  जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा [अवतार वरिष्ठ भगवान  श्रीरामकृष्ण परमहंस देव] के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं। अपने श्रीकृष्ण अवतार में भगवान् ने स्पष्ट घोषणा किया था  --अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा," तुम मेरी शरण में आओ " , मा शुच " तुम शोक मत करो।"  मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा। मन और बुद्धि (देश-काल-निमित्त) के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप श्रीरामकृष्ण-तत्व (सच्चिदानन्द) का साक्षात्कार करना है।] 

श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मभक्तों के प्रति) -मन ही में बन्धन है और मन ही में मुक्ति । मैं नित्य मुक्त शुद्ध-बुद्ध आत्मा हूँ; चाहे संसार में रहूँ, चाहे अरण्य में, मुझे बन्धन कैसा? मैं ईश्वर की संतान हूँ; राजा-धिराज का बेटा (राजपूत); मुझ भला कौन बाँध सकता है? साँप के काटने पर यदि दृढ़ता के साथ यह कहा जाय कि ‘विष नहीं है’ तो सचमुच विष उतर जाता है ! उसी प्रकार दृढ़ता के साथ यह कहते कहते कि ‘मैं बद्ध नहीं, मैं मुक्त हूँ’, वास्तव में वैसा ही हो जाता है । मनुष्य मुक्त ही हो जाता है । 

“किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है। 

जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है 

“ईश्वर के नाम पर इस प्रकार का ज्वलन्त विश्वास होना चाहिए-‘क्या! मैंने उनका नाम लिया है, अब भी मुझमें पाप रह सकता है ! मुझमें भला पाप कैसा ! मुझे भलाबन्धन कैसा!’ 

कृष्णकिशोर सनातनी हिन्दू था-सदाचारनिष्ठ ब्राह्मण ! एक बार वह वृन्दावन गया था । एक दिन घूमते घूमते उसे प्यास लगी । उसने एक कुएँ के पास जाकर देखा, एक आदमी खड़ा है । उसने उससे कहा, ‘क्यों रे तू मुझे एक लोटा पानी पिला सकता है? तू कौन जात है? वह बोला, ‘महाराज, मैं नीची जाति का हूँ- चामर हूँ ।’ कृष्णकिशोर ने कहा, ‘तू शिव शिव कह । ले, अब पानी खींच दे ।’ 

“ भगवान् का नाम लेने से मनुष्य का शरीर, मन-सब कुछ शुद्ध हो जाता है ।" 

[यदि स्वामी विवेकानन्द द्वारा चुना गया कोई भक्त - गुरुदेव प्रदत्त युगावतार का 'नाम' जपता है तो उस मनुष्य का देह, मन, ह्रदय सब कुछ शुद्ध हो जाता है।]      

“केवल ‘पाप’ ‘नरक’ यही सब बातें क्यों?  एक बार कहो कि जो कुछ अयोग्य काम किए हैं, उन्हें फिर नहीं करूँगा, और उनके नाम पर विश्वास रखो ।”

श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नाममाहात्म्य गाने लगे- 

आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोली मा जदि मरी।  

आखेरे ए -दीने ना तारो केमने जाना जाबे गो शंकरी।।  

(भावार्थ)-

“दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं जब मेरे निकलेंगे प्राण । 

देखूँ कैसे नहीं तारती, कैसे हो करुणा की खान ॥” 

“मैंने, माँ के निकट केवल भक्ति माँगी थी । हाथ में फूल लेकर माँ के पादपद्मों में चढ़ाया था; कहा था, ‘माँ, यह लो तुम्हारा पाप, यह लो तुम्हारा पुण्य, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा ज्ञान, यह लो तुम्हारा अज्ञान, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारी शुचिता, यह लो तुम्हारी अशुचिता, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा धर्म, यह लो तुम्हारा अधर्म, मुझे शुद्ध भक्ति दो ।’ 

गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था ।  परन्तु कोई एकदम फट से जनक राजा नहीं बन जाता । जनक राजा ने निर्जन में बहुत तपस्या की थी। 

संसार में रहते हुए भी बीच बीच में एकान्तवास करना चाहिए । गृहस्थी से बाहर निकलकर एकान्त में अकेले रहकर अगर भगवान् के लिए तीन दिन ही रोया जाय तो वह भी अच्छा है । यहाँ तक कि यदि अवसर पाकर एक ही दिन निर्जन में रहकर भगवच्चिन्तन किया जाए तो वह भी अच्छा है । लोग स्त्री-पुत्रों के लिए रोकर लोटाभर आँसू बहाते हैं, ईश्वर के लिए भला कौन रोता है? बीच बीच में निर्जन में रहकर भगवत्प्राप्ति के लिए साधना करनी चाहिए । संसार के भीतर, विशेषकर कामकाज (बिजनेस -ब्यापार) की झंझट में रहकर प्रथम अवस्था में मन को स्थिर करते समय अनेक बाधाएँ आती हैं । जैसे रास्ते के किनारे लगाया हुआ पेड़; जिस समय वह पौधे की स्थिति में रहता है, उस समय घेरा न लगाने पर गाय-बकरियाँ खा जाती हैं । किन्तु बाद में तना मजबूत होने पर घेरे की आवश्यकता नहीं रहती । फिर उसे हाथी बांधनेपर भी कुछ नहीं होता। 

“रोग तो हुआ है सन्निपात (typhoid) का । पर जिस कमरे में सन्निपात का रोगी है, उसी कमरे में पानी का घड़ा और इमली का अचार रखा है । अगर रोगी को आराम पहुँचाना चाहते हो तो पहले उसे उस कमरे से हटाना होगा । संसारी जीव मानो सन्निपात का रोगी है; और विषय है पानी का घड़ा । विषयभोगतृष्णा मानो जलतृष्णा है । इमली, अचार की बात सिर्फ सोचते ही मुँह में पानी आ जाता है, वे चीजें पास नहीं लानी पड़तीं । ऐसी चीज रोगी के कमरे में ही रखी है । संसार में स्त्री-सहवास ऐसी ही ही चीज है (स्त्री की संगति, स्त्री का साहचर्य इमली के अँचार जैसी ही चीज है) इसीलिए निर्जन में जाकर चिकित्सा कराना आवश्यक है ।” 

“विवेक-वैराग्य प्राप्त करके (विवेकज ज्ञान जन्य ऐषणाओं से अनासक्ति प्राप्त करके) संसार में (गृहस्थ आश्रम में) प्रवेश करना चाहिए ।  संसारसमुद्र में काम-क्रोधादि मगर हैं । बदन में हलदी मलकर पानी में उतरने पर मगर का डर नहीं रहता । विवेक-वैराग्य ही हलदी है । सदसत्-विचार का नाम विवेक है । ईश्वर ही सत् हैं, नित्यवस्तु हैं बाकी सब असत् अनित्य, दो दिन के लिए है-यह बोध ही विवेक है । और ईश्वर के प्रति अनुराग चाहिए, प्रेम, आकर्षण चाहिए-जैसे गोपियों का कृष्ण के प्रति था । एक गाना सुनो- 

(भावार्थ)- “विपिन में बंसी बज उठी । मुझे तो जाना ही होगा, श्याम मेरी राह देख रहा है । तुम लोग चलोगी या नहीं, बताओ । तुम लोगों के लिए श्याम एक नाम है, पर सखि, मेरे लिए श्याम हृदय की व्यथा है । बंसी तुन्हारे कान में बजती है, पर मेरे तो वह हृदय में बजती है । श्याम की बंसी बज रही है । हे राधे, अब चलो, तुम्हारे बिना कुंज में शोभा नहीं आती ।” 

श्रीरामकृष्ण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से यह गीत गाते गाते केशव आदि भक्तों से कहा, “राधाकृष्ण को मानो या न मानो, पर उनके इस आकर्षण को तो ग्रहण करो ! ईश्वर के लिए इस प्रकार की व्याकुलता हो, इसके लिए प्रयत्न करो । व्याकुलता के आते ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ।”

(ब्राह्म भक्तों के प्रति) - एक रामप्रसाद का गीत सुनो - 

आय मन, बेड़ाते  जाबी। 

काली कल्पतरु मूले रे (मन) चारी फल कुड़ाये पाबी l 

(भावार्थ)-“चल मन घूमने चलें । कालीरूपी कल्पतरु के नीचे तुझे (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों फल पड़े मिल जाएँगे ।

रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (मृगमरीचिका) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर- 

"एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी। 

जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि। 

से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"  

‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे) 

[A very interesting discourse of Sri Ramakrishna Paramahamsa;

Devotee: "Sir, can't we realize God without complete renunciation?"

Master (with a laugh): "Of course you can? Why should you renounce everything? You are all right as you are, following the middle path - like molasses partly solid and partly liquid.

I tell you the truth: there is nothing wrong in your being in the world. But you must direct your mind towards God; otherwise you will not succeed. Do your duty with one hand and with the other hold to God. After the duty is over, you will hold to God with both hands.

It is all a question of mind. Bondage and liberation are of the mind alone. The mind will take the color you dye with it. It is like white clothes just returned from the laundry. If you dip them in red dye, they will be red. If you dip them in blue or green, they will be blue or green. They will take only the colour you dip them in, whatever it may be.

Bondage is of the mind and freedom is also of the mind. A man is free if he constantly thinks : 'I am free soul. How can I be bound, whether I live in the world or in the forest? I am a child of God, the King of Kings. Who can bind me?

The wretch who constantly says, 'I am bound, I am bound' only succeeds in being bound. He who says day and night, 'I am a sinner, I am a sinner' verily becomes a sinner.

If a man repeats the name of God, his body, mind and everything become pure. Why should one talk only about sin and hell, and such things? Say but once, "O Lord, I have undoubtedly done wicked things, but I won't repeat them.' And have faith in His name."

Sri Ramakrishna at this time became intoxicated with divine love and sang:

"If only I can pass away repeating Durga's name,

How canst Thou then, O blessed One,

Withhold from me deliverance,

Wretched though I may be? .........

"Why shouldn't one be able to realize God in this world? Kind Janaka had such realization. But one cannot be King Janaka all of a sudden . Janaka at first practiced much austerity in solitude."

Even if one lives in the world, one must go into solitude now and then. It will be of great help to a man if he goes away from his family, lives alone, and weeps for God even for three days. Even if he thinks of God for one day in solitude, when he has the leisure, that too will do him good. People shed a whole jug of tears for wife and children. But who cries for the Lord? Now and then one must go into solitude and practice spiritual discipline to realize God. Living in the world and entangled in many of its duties, the aspirant, during the first stage of spiritual life, finds many obstacles in the path of concentration. While the trees on the foot-path are young they must be fenced around; otherwise they will be destroyed by cattle. The fence is necessary when the tree is young, but it can be taken away when the trunk is thick and strong. Then the tree won't be hurt even if an elephant is tied to it.

The disease of worldliness is like typhoid. And there are a huge jug of water and jar of savory pickles in the typhoid patient's room. If you want to cure him of his illness, you must remove him from that room. The worldly man is like the typhoid patient. The various objects of enjoyment are the huge jug of water, and the craving for their enjoyment in his thirst.  The very thought of pickles makes the mouth water; you don't have to bring them near. And he is surrounded with them. The companionship of woman is the pickles. Hence treatment in solitude is necessary.

[https://groups.google.com/g/babasatsang/c/WJvAihaezbU] 

========================= 
[इसी बात को  महाभारत में इस प्रकार कहा गया है-
अविजित्य य आत्मानममात्यान्विजिगीषते।
अमित्रान्वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते।।५४।।
आत्मानमेव प्रथमं देशरूपेण यो जयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते।।५५।।

भावार्थ- जो राजा (नेता ) अपने चंचल मन और इन्द्रियों को वशीभूत किये बिना अपने मन्त्रियों को जीतना चाहता हैऔर मन्त्रियों को जीते बिना शत्रुओं पर विजय पाना चाहता है, वह अजितेन्द्रिय राजा (नेता) निश्चय ही पराजित होता है। जो राजा अपनी (आत्मा को) अर्थात अवशीभूत मन को सबसे पहला शत्रु समझकर सर्वप्रथम उससे लड़ कर जीत लेता है, तत्पश्चात मन्त्रियों और शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे अवश्य विजय प्राप्त होती है।]
मन यदि ईश्वर के पादपद्मों के प्रति आसक्त हो जाये तो वह मुक्त हो जायेगा। (अर्थात अवतार वरिष्ठ के चरणों में आत्मसमर्पण करके उनके जीवन और उपदेशों का थोड़ा भी अनुसरण करने लगे तो माँ सारदा देवी की कृपा से वह मुक्त हो जायेगा। अन्यथा मन यदि , सांसारिक आसक्ति और इच्छाओं से (ऐषणाओं से,कामिनी-कांचन और नामयश में आसक्त) बंधा हुआ है, तो वह बंधा ही रहेगा (भेंड़त्व से सम्मोहित ही रहेगा।) ]   
[विद्यार्थियों के लिये एकाग्रता का अभ्यास करना परम हितकारी है। इससे उनकी एकाग्रता शक्ति बढ़ जाती है। वे चार घंटे की पढाई को एक घंटे में पूरी कर सकते हैं। बाकि बचे समय को अपनी रूचि के अनुसार किसी नयी विधा को सीखने में व्यतीत कर सकते हैं। और अपने युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने अभ्यास करने से मनोविज्ञान के नियम Law of Association या 'साहचर्य का नियम ' के अनुसार उनके सद्गुण छात्रों युवाओं के चरित्र में आने लगते हैं। अनायास उनका चरित्र भी सुन्दर बन जाता है। ऐसे युवा जब पढ़-लिख कर उच्च पद पर जायेंगे तो भ्रष्टाचार स्वतः समाप्त हो जायेगा।
छात्रों-युवाओं को भारत के योग्य नागरिक बनाने के उद्देश्य से ऋषि पतंजली ने योग-सूत्र या अष्टांग-" यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि " की पद्धति का आविष्कार किया था। किन्तु श्रीरामकृष्णदेव ने युवा-आदर्श विवेकानन्द को समाधि में जाने की इच्छा जताने पर उनकी भर्त्सना की थी।इसीलिए महामण्डल में 'ध्यान और समाधि'  का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है।और स्वामीजी ने कहा था कि बिना किसी योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है, इसीलिये अष्टांग के तीन अंगों- ' प्राणायाम-ध्यान-समाधी ' का प्रशिक्षण  महामण्डल द्वारा नहीं दिया जाता है।
अष्टांग के शेष पाँच अंग 'यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा 'को भी दो भाग में बाँट कर, यम-नियम का पालन आजीवन करना है। बाकी बचे 'योग-सूत्र'-जिनके द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, 'आसन -प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास दिन में दो बार निश्चित और नियत समय पर करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि चरित्र-वान मनुष्य बनने के लिये आजीवन यम-नियम का अभ्यास करते हुए 'आसन-प्रत्याहार-धारणा' का अभ्यास करना मनःसंयोग या एकाग्रता (Concentration) की साधना की प्रथम सीढ़ी है।]
[एक बार कैम्प में जेनेरेटर चलाने वाले पर गुस्सा हो गया था, दादा ने गुस्सा होने से मना किया। इस आदत को छोड़ दो ! तब मैंने कहा था -  मैं ईश्वर की संतान हूँ; राजाधिराज का बेटा (मैं 'राजपूत' हूँ शायद इसीलिए कुछ अन्यायदेखने से गुस्सा आता होगा !' तब दादा ने कहा था यदि तुम राजपूत हो - तो क्या मैं राजा नहीं हूँ ? ); मुझे भला कौन बाँध सकता है? अर्थात बंधन और मुक्ति (मोक्ष) मन पर निर्भर है अर्थात मनोवृत्ति पर निर्भर है यानि -ऐषणाओं में आसक्ति,अनासक्ति पर निर्भर है। परिच्छेद ~ 13, (27 अक्टूबर 1882' श्री रामकृष्ण वचनामृत) Blog date :  August 6, 2021

========



 










No comments: