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Thursday, January 24, 2013

" खाली पेट धर्म नहीं होता - इस उक्ति का रहस्य क्या है ?" " (খালি পেটে ধর্ম হয় না) या खाना खाने के बाद धर्म नहीं होता ?" [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [67 (53 A---25B)] (5.धर्म और समाज),

" खाली पेट धर्म नहीं होता - इस उक्ति का रहस्य क्या है ?"
इस बात को कौन नहीं जानता कि - 'खाली पेट धर्म नहीं होता ?' अनेक लोग यह भी जानते होंगे कि यह उक्ति श्रीरामकृष्ण देव एवं स्वामी विवेकानन्द द्वारा कही गयी थी। सुनने से लगता है, " वाह! कितनी बड़ी बात इन्होने कही थी ! मनुष्यों के प्रति इनमें कितनी सहानुभूति थी ! हालाँकि इन लोगों ने धर्म का प्रचार किया था, फिर भी ये सोचते थे कि मनुष्य के पेट में कुछ जाना भी चाहिए।" 
     किन्तु इसी उक्ति पर कोई तर्क कर सकता है - " लेकिन मैं तो यह देखता हूँ कि बिना खाली पेट रहे, या उपवास किये बिना कोई धार्मिक अनुष्ठान होता ही नहीं है ? क्योंकि जो पूजा पर बैठता है, या पूजा करता है - वह तो उपवास रहता ही है, पर उसके साथ साथ जो पूजा का जोगाड़ करेगा, जो भोग बनाएगा, जो पुष्पांजलि देगा, या भक्ति पूर्वक कथा सुनेगा, या पूजा देखेगा, वे सभी उपवास किये रहते हैं। इससे तो यही पता चलता है कि खाना खा लेने से धर्म नहीं होता ? इसके आलावा एवं अन्य कितने व्रत-उपवास (छठ-पूजा आदि व्रत) भी किये जाते हमलोग देखते हैं। " 
     फिर जिस साधक (सत्यार्थी) की सत्यान्वेषण गति- या ईश्वर-खोज अत्यंत तीव्र गति से होती है, उनके आचरण को देखने से यही ज्ञात होता है कि, भोजन करने की बात तो दूर रही उन्हें तो अपने शरीर की भी शुध-बुध नहीं रहती। फिर जो लोग धर्म का पालन करते हैं, वे नपातुला भोजन करने वाले -बड़े मिताहारी होते हैं। फिर तो यही प्रतीत होता है कि खाली पेट रहकर ही धर्म का पालन अच्छा होता है। तो फिर " खाली पेट धर्म नहीं होता' यह कहावत कहाँ फिट बैठती है ? " 
हाँ, यह कहावत सुनने में जरुर अच्छी लगती है। आखिर इस कथन का निहितार्थ क्या है ? 
     धर्म शब्द के कई अर्थ निकलते हैं। तथा अनेकों प्रकार के मनुष्य अपने अपने ढंग से धर्म का उपयोग प्रयोग करते हैं। इन दोनों को ठीक से समझने के लिये ' खाली पेट धर्म नहीं होता ' - इस उक्ति के रहस्य को खोजना होगा। 
      पहले -पहल मनुष्य एक पशु (प्राणी) होता है। प्रत्येक पशु (जीव) जीवित रहने के लिए अपना पेट भरने की चेष्टा करता है। मनुष्य भी वैसा करता है। (आहार,निद्रा भय, मैथुन पशु और मनुष्य का बिल्कुल एक समान है।)  लेकिन अन्य प्राणियों से जो संभव नहीं होता, मनुष्य उसे भी संभव कर दिखाता है। मनुष्य के मन में धीरे धीरे आत्म-चेतना (consciousness of the soul) जाग उठती है। 'वह केवल देह मात्र नहीं है, पशु (प्राणी) मात्र नहीं है, उसके भीतर आत्मा (soul) हैं' -मनुष्य इसकी अनुभूति प्राप्त कर सकता है। फिर क्रमशः उसे यह अनुभूति भी होती है कि - " जीवात्मा ही परमात्मा (या ब्रह्म) है !" इस प्रकार की अनुभूति करना , इस निश्चय पर पहुँचना किसी अन्य जीव या पशु के लिए संभव नहीं है। मनुष्य की प्रज्ञा (समझ या ज्ञान, 
understanding) में इस प्रकार की क्रमिक वृद्धि (gradual increase) का होना ही - धर्म का वास्तविक अर्थ है, इसीको धार्मिक होना कहते हैं।
     पहले पहल मनुष्य अपने को केवल एक शरीर (M/F पशु) समझता है; इसके बाद चिंतन-मनन करके वह इस निष्कर्ष या निश्चय पर पहुँचता है कि 'मैं देहमात्र नहीं हूँ', मैं शरीर मात्र नहीं हूँ, मैं शरीरी (आत्मा) हूँ !' योग या समाधि में आत्मसाक्षात्कार करने के बाद यह अनुभूति होती है कि मैंने इस नश्वर शरीर को धारण किया है, वास्तव में मैं अविनाशी आत्मा हूँ। उसके भी आगे (निर्विकल्प समाधि से पुनः शरीर में लौट आने पर, सिद्धार्थ से बुद्ध हो जाने, नरेन से विवेकानन्द बन जाने पर )- 'यह आत्मा ही परमात्मा है' - ऐसी अनुभूति होती है- इसको ही ब्रह्मज्ञान कहा जाता है। मनुष्य की प्रज्ञा (understanding- समझबूझ या ज्ञान) में  जब इस प्रकार का क्रमिक विकास होने लगता है, तब उसी उसी को सच्चा धर्म कहा जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है - " धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा (ईश्वर) तक उठ सकता है। " हमलोग सामान्य तौर से धर्म कहने जो समझते हैं, स्वामीजी का धर्म उससे कितना पृथक है? 
    जिन मनुष्यों को हमेशा यही अनुभव हो कि अन्य जीवों (पशुओं) की तरह मैं भी 'मैं केवल शरीर हूँ', (M/F शरीर) हूँ'- फिर तो वे आहार और वंश-विस्तार की इच्छा को पूर्ण करने में व्यस्त रहेंगे ही , उनके लिए यही स्वाभाविक है। वे तो यही चाहेंगे कि अपने देह या शरीर को कितना अधिक भोग दे दूँ, उसे कितना अधिक सुखी रखूं। इसीलिए देहात्मभाव रखने वाले, स्वयं को शरीर मानने वाले मनुष्यों का लक्ष्य लौकिक उन्नति करना ही होता है। लौकिक उन्नति की इच्छा को पूर्ण करने के लिए प्रयत्न करना भी निन्दनीय नहीं है, यदि उसके बाद वह अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने के लिये प्रयत्नशील हो जाये। आत्मनिश्चय की प्रथम अवस्था में रहने वाले लोगों के लिये, या स्वयं को शरीर मात्र समझने वालों के लिए यही धर्म है। उस अवस्था में निश्चय ही ' खाली पेट धर्म नहीं होता!' इस अवस्था को समझाने के लिये महाभारत में कहा गया है- 
प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्। 
यः स्यात्प्रभवसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।। 
प्राणियों के अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और कल्याण (निःश्रेयस) के लिये ही धर्म का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों सिद्ध होते हों, वही धर्म है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय है ।
जिस समय ठाकुर की साधना अपने चरम उत्कर्ष पर थी, उन्हें अपने बाह्य शरीर का कुछ ध्यान नहीं रह जाता था, उस समय भी कोई दूसरा व्यक्ति उनके मुख में खाना जबरन डाल देता था। नरेन् को जब निर्विकल्प समाधि का स्वाद (परमानन्द) मिल गया तो, वे ठाकुर के पास जाकर ज़िद करने लगे कि ऐसा कर दें कि मैं उसी में डूबा रहूँ, केवल शरीर बचाए रखने के लिये बीच बीच में निचे उतर कर मुख में कुछ डाल लिया करूँगा। 'शरीरी' (देहधारी-आत्मा) को यदि जानना हो, तो शरीर को जीवित रखना ही पड़ेगा, इसीलिये - निश्चय ही 'खाली पेट धर्म नहीं होता।' इसिलिये वेद (पुरुष सूक्त)में कहा गया है -'यदन्नेनातिरोहति' अन्न के माध्यम से ही शरीर के उर्ध्व में (सहस्रार में) स्थित आनन्द की ओर अग्रसर होना पड़ता है। [इसलिए 'शरीर' (देह) और 'शरीरी' (देही -आत्मा या ईश्वर) के परस्पर भाव सम्बन्ध को लेकर सम्पूर्ण जगत् को हरि (सियाराममय) कहा गया है !] उपनिषदों में ऐसा वर्णन मिलता है कि ऋषि कुमार लोग खाना छोड़ देने से वेद को (चार महावाक्यों को) भूल गये थे। कालिदास के ' कुमारसंभव ' में पार्वती जब शिव को पाने के लिये कठोर तपस्या कर रहीं थीं, उसका वर्णन करते हुए उन्होंने दिखाया है कि उनको परामर्श दिया गया था, शरीर को कभी बहुत कष्ट मत देना, 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' र्म प्राप्त करने के लिये प्रथम साधन या पहला उपाय है- शरीर को स्वस्थ्य और निरोग रखना। शरीर ठीक नहीं रहने से साधन या सिद्धि प्राप्त करना सम्भव नहीं होती।   
धर्म दो प्रकार का होता है। एक प्रकार के धर्म से भौतिक जीवन की रक्षा और श्री वृद्धि होती है, तथा यथार्थ (शाश्वत) जीवन की खोज और प्राप्ति होती है। धर्म से अभ्युदय और निः श्रेयस दोनों प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति पहले को ही प्राप्त करके रुक जाता है, उसे धर्म से जितना लाभ मिल  सकता था उतना लाभ नहीं मिल पाता। उसे जीवन की पूर्ण सार्थकता नहीं मिल पाती । वह केवल यही जान पाता है कि- उदरपूर्ति कर लेना (पेट भर लेना) ही धर्म है। किन्तु 'खाली पेट धर्म नहीं होता ' - इस सन्दर्भ में नहीं गया है। (श्रीरामकृष्ण वचनामृत में प्रसंग है) 'अन्नचिन्ता चमत्कारा। ' हर समय अन्न चिन्ता (भोजन जुटाने की चिन्ता) में लगे रहने से अन्य महत्वपूर्ण विषयों (मनुष्य जीवन का उद्देश्य आदि) पर चिन्तन करना संभव नहीं होता। और जो व्यक्ति चिन्तन-मनन ही न करता हो उसे तो मनुष्य भी नहीं कहा जा सकता। इसीलिये उच्च-चिन्तन आत्मावलोकन करने , या अंतर्निहित दिव्यता (inherent Divinity) को अभिव्यक्त करने के लिये भी अन्न की चिंता- भोजन जुटाने की चिंता से निश्चिन्त रहना आवश्यक है। 'खाली पेट धर्म नहीं होता '- इस कहावत का सच्चा अर्थ इसी परिपेक्ष में देखना होगा। 
जैसे 'खाली पेट धर्म नहीं होता ' इसके साथ यह भी याद रखना आवश्यक है कि इसी उक्ति में यह भी छुपा है कि -पेट बहुत भरा रहने से भी धर्म नहीं होता। अर्थात भोग-सुख पाने की इच्छा की पूर्ति में अत्यधिक डूबे रहने भी धर्म लाभ नहीं होता है। क्योंकि उस अवस्था में रहने से शरीर और मन के परे जो 'शरीरी' (आत्मा) रहते हैं, उसकी खोज करने की प्रवृत्ति, आत्मावलोकन करने की इच्छा ही नहीं होगी। 
इसीलिये श्रीकृष्ण ने गीता 6/16 में उपदेश दिया था कि जीवन के सबसे मूल्यवान वस्तु (योग या समाधि) को प्राप्त करने की साधना में दोनों प्रकार की अतियों से बचना चाहिए। [नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
 हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवाले का और न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अधिक सोनेवाले का और न बिलकुल न सोनेवाले का ही सिद्ध होता है। यहाँ खाने का अर्थ केवल मुख के द्वारा अन्न भक्षण ही नहीं वरन् सभी इन्द्रियों के द्वारा किये जाने वाले विषय ग्रहण है
योग की सफलता के लिए महत्त्व का नियम यह है कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' अर्थात् जीवन के कार्यों और उपभोगो में अतिरेक का त्याग करना चाहिए। परिमितता या संयम सफलता की कुन्जी है। 
जीवन में संयम या परिमितता लाने के लिए इच्छाओं को पूर्णतः निर्मूल कर देने की आवश्यकता नहीं होती।  'खाली पेट धर्म नहीं होता ' की उक्ति वास्तव में इन दोनों अतियों से बचकर उचित-भोग (जो शास्त्र-निषिद्ध नहीं हो) की ओर चलने का मार्ग दिखाया गया है। परिमिति या सयंम -का अर्थ इच्छाओं का सम्पूर्ण वर्जन करने की बात नहीं कहता, किन्तु संयम में रहने या त्याग-पूर्वक भोग करने की बात कहता है। इसी से धर्म लाभ संभव है। धर्म मनुष्य के सर्वांगीन कल्याण का साधन है।
असंख्य सामान्य सांसारि मनुष्यों के सर्वांगीन कल्याण की ओर दृष्टि रखते हुए जीवन की रक्षा और श्रीवृद्धि के साथ साथ यथार्थ जीवन का संधान और प्राप्ति की सम्भावना को सुनिश्चित बनाने के उद्देश्य से ही श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द ने सफलता की कुंजी के रूप में सामान्य आदर्श वाक्य,  कहा था- " खाली पेट धर्म नहीं होता !"
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सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।6.9।।
सु-हृत्=शुभ चिन्तक के प्रति; मित्र और  अरि-शत्रु; उदासीन-तटस्थ व्यक्ति;  मध्यस्थ व्यक्ति, द्वेष्य =ईर्ष्यालु, बन्धुषु-संबंधियों; साधुषु = पुण्य आत्माएँ; अपि-उसी प्रकार से; च-तथा; पापेषु–पापियों के; सम-बुद्धिः-निष्पक्ष बुद्धि वाला; विशिष्यते-श्रेष्ठ हैं;
।।6.9।। जो पुरुष सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बान्धवों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह श्रेष्ठ है।।
      जगत् केवल जड़ वस्तुओं से ही नहीं बना है। उसमें चेतन प्राणी भी हैं। मानव मात्र के साथ ज्ञानी पुरुष किस भाव से रहेगा क्या उन्हें मिथ्या कहकर उनके अस्तित्व का निषेध कर देगा क्या जगत् के अधिष्ठान स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर वह लोगों की सेवा के प्रति उदासीन रहेगा इन प्रश्नों का उत्तर इस श्लोक में दिया गया है। 
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा ज्ञानी पुरुष सभी मनुष्यों के साथ समान प्रेम भाव से रहता है चाहे वे सुहृद् हों या मित्र शत्रु उदासीन मध्यस्थ बन्धु साधु हों या पापी। अपनी विशाल सहृदयता में वह सबका आलिंगन करता है। प्रेम और आदरभाव से सबके साथ रहता है। उसकी दृष्टि में वे सभी समान महत्त्वपूर्ण हैं। उसका प्रेम साधु और पापी उत्कृष्ट और निकृष्ट में भेद नहीं करता। वह जानता है कि आत्मस्वरूप के अज्ञान से ही पुरुष पापकर्म में प्रवृत्त होता है और अपने ही कर्मों से दुख उठाता है। 
आत्मस्वरूप के अपरोक्ष अनुभव से वह यह पहचान लेता है कि एक ही आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। अनेकता में एकता को वह जानता है औऱ विश्व के सामञ्जस्य को पहचानता है। सर्वत्र व्याप्त आत्मस्वरूप का अनुभव कर लेने पर वह किसके साथ प्रेम करेगा और किससे घृणा मनुष्य के शरीर के किसी भी अंग में पीड़ा होने पर सबकी ओर देखने का उसका भाव एक ही होता है क्योंकि सम्पूर्ण शरीर में ही वह स्वयं व्याप्त है।
यह मनुष्य की प्रकृति है कि वह मित्रों और शत्रुओं के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है किन्तु सिद्ध योगी की प्रकृति भिन्न होती है। भगवद्ज्ञान से सम्पन्न सिद्ध योगी समस्त सृष्टि को भगवान के साथ उसके एकत्व के रूप में देखते हैं। इस प्रकार से वे सभी प्राणियों को समदृष्टि से देखने में समर्थ होते हैं। दृष्टि की इस समानता की भी विभिन्न प्रकार की अवस्थाएँ होती हैं -
1. "सभी जीवित प्राणी दिव्य आत्माएँ है और इसलिए वे भगवान का अंश हैं। इसलिए उन्हें एक समान समझना चाहिए। “आत्मावत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डित।" अर्थात "सच्चा पंडित वही है जो सभी प्राणियों को आत्मा के रूप में देखता है और इसलिए सबको अपने समान देखता है।" 
2. दिव्य दृष्टि यह है कि भगवान प्रत्येक प्राणी के भीतर विराजमान है और इसलिए समस्त प्राणी आदर योग्य हैं। 
3. उच्चावस्था प्राप्त योगी 'प्रत्येक में भगवान का रूप' देखने वाली दृष्टि विकसित करता है। वैदिक ग्रंथों में भी बार-बार वर्णन किया गया है कि समस्त संसार भगवान का ही परम सत्य रूप है-ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। (ईशोपनिषद-1) अर्थात "जड़ एवं चेतन पदार्थों के साथ समस्त ब्रह्माण्ड भगवान की अभिव्यक्ति है जोकि उनके भीतर व्याप्त है।" पुरुष एवेदं सर्वं (पुरुष सूक्तम्) अर्थात "भगवान इस संसार में सर्वत्र व्याप्त हैं और सब कुछ उनकी शक्ति है।" इसलिए उच्चावस्था प्राप्त योगी सभी में भगवान की अभिव्यक्ति देखता है। ऐसी दिव्य दृष्टि से सम्पन्न राम भक्त हनुमान जी कहते हैं-सीय राममय सब जग जानी। (रामचरितमानस) “मैं सभी में सीता राम का रूप देखता हूँ।"

" जब काव्य का पाठ होता है, लोग उसे सुनते हैं, तब वेदान्त, सांख्य, न्याय, पातंजलि, ये सब रूखे जान पड़ते हैं । काव्य की अपेक्षा गीत मनोहर है । संगीत को सुनकर पाषाण-हृदयों का भी हृदय द्रवित हो जाता है । यद्यपि गीतों में इतना आकर्षण होता है, तथापि सुन्दरी स्त्री की तुलना में वह कम है । यदि एक सुन्दरी स्त्री यहाँ से निकल जाय तो न किसी का मन काव्य में लगेगा, न कोई गीत ही सुनेगा । सब के सब उसी स्त्री को देखने लगेंगे । और जब भूख लगती है, तब काव्य, गीत, नारी, कुछ भी अच्छा नहीं लगता अन्नचिन्ता चमत्कारा !" 

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् । 

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। 2 ।। 
[इदं= यह, यत् = जो कुछ दृश्यादृश्य जगत् है, सर्वं =वह सब, पुरुषः =भगवान् ' एव = ही,हैं । यद्भूतं = जो अतीत में वस्तु थी और यच्च भाव्यम् =जो भविष्य में होने वाली है;  वह सब भगवान् ही हैं । ] प्रथम मन्त्र मे भगवान् सर्वत्रव्याप्त है -यह बात उनके स्वरूप का निरूपण करते  हुए- बतायी गयी । समस्त जगत् भगवान् का शरीर है । इसलिए 'शरीर' और 'शरीरी' के भाव सम्बन्ध को लेकर सम्पूर्ण जगत् को हरि ही कहा गया । अतः सब कुछ भगवान् ही हैं । 
"भूखे भजन न होहिं गोपाला" एक प्रसिद्ध कहावत है जिसका अर्थ है कि भूखे पेट भगवान का भजन नहीं किया जा सकता
 इसका मतलब है कि जब तक आपकी बुनियादी ज़रूरतों, जैसे कि भोजन, की पूर्ति नहीं होती, तब तक आप ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते, और न ही आप ईश्वर की भक्ति में पूरी तरह से लीन हो सकते हैं।
गुरु-शिष्य वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make में योग या समाधि द्वारा 'अहं मिट जाने' के बाद कोई भी मनुष्य इस इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति, मेरी आत्मा परमात्मा-विवेकानन्द से आवेशित है ! (जबकि मनुष्येतर) अन्य किसी प्राणी के लिये इस एकात्मबोध (Oneness)की अनुभूति कर पाना संभव नहीं होता। और इस परम् सत्य की अनुभूति या आत्मानुभूति हो जाने के बाद- फिर क्रमशः उसको यह अनुभूति भी होती है कि जो मिट रहा है, वो शरीर है। और आनन्दस्वरुप जीवात्मा तो अजर अमर अविनाशी है,अतः जीवात्मा ही परमात्मा या ब्रह्म हैं। फिल्म आनंद का --'भास्कर' बसकर, और टालने की कोशिश मत कर।]
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